Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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कार्यकर्ताओं ने पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा को साकार स्वरूप देने में कोई कसर न रखी। इस चातुर्मास में स्वाध्याय शिक्षण हेतु, तीन शिविर आयोजित किये गये, जिनमें संख्या व प्रतिनिधित्व क्षेत्र का निरन्तर विस्तार होता गया । जलगांव में आयोजित प्रथम स्वाध्यायी शिक्षण शिविर में महाराष्ट्र के २० स्थानों से आये विद्यार्थियों, अध्यापकों, श्रेष्ठिवर्यो, डाक्टरों व प्रोफेसरों ने भाग लेकर अपने आपको गुरु हस्ती की प्रेरणा की अजस्र धारा स्वाध्याय-संघ का सदस्य बन कर जिनशासन संरक्षण हेतु सजग शास्त्रधारी शान्ति सैनिक बनकर अपना सौभाग्य समझा । इस शिविर में शिविरार्थियों को विविध श्रेणियों में विभक्त कर उन्हें वक्तृत्व कला, शास्त्राध्ययन, थोकड़ों आदि का ज्ञानाभ्यास | कराया गया। आचार्य भगवन्त ने इस प्रथम शिविर में उपस्थित प्रबुद्ध शिविरार्थियों को उद्बोधित करते हुए फरमाया . “ आकांक्षा यह है कि एक-एक माह में दस-दस के हिसाब से चातुर्मासकाल में चालीस स्वाध्यायी भाई तैयार हो जाने चाहिए। मैं यह कोटा कम दे रहा हूँ, अधिक नहीं दे रहा हूँ। जब आप इस दीपक को प्रज्वलित करेंगे तब ऐसा लगेगा कि हम सब मौजूद हैं, हमारे साथ में सैकड़ों, हजारों समाज सेवी हैं। स्वाध्याय का ऐसा दीपक प्रज्वलित | कर दें तो आपके धर्मस्थान, उपासना मन्दिर, स्थानक, ज्ञान शिखर से प्रदीप्त रहेंगे। आप अपनी भावी पीढ़ी को भी | प्रेरणा दे सकेंगे।” युग प्रभावक आचार्य भगवन्त का यह आह्वान महाराष्ट्र के लिये एक युगान्तरकारी सन्देश था ।
दिनांक २२ से २६ सितम्बर १९७९ तक श्री महाराष्ट्र जैन स्वाध्याय संघ की ओर से द्वितीय शिविर का | आयोजन किया गया, जिसमें ४२ स्वाध्यायी भाइयों व ६१ बहिनों ने भाग लेकर १३ क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व किया। | शिविरकाल में हजारों सामायिक, उपवास, बेले, दया आदि के साथ शिक्षण-प्रशिक्षण के कार्यक्रम हुए। दिनांक २८ | अक्टूबर से यहाँ साधना शिविर का आयोजन हुआ। दिनांक ३० अक्टूबर से प्रारम्भ तृतीय शिविर में १३४ शिविरार्थियों ने भाग लिया ।
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चरितनायक आचार्य भगवन्त के सान्निध्य में इस वर्ष का पर्युषण पर्वाराधन जलगांववासियों के लिये एक | अनूठा अनुभव था । श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्ररूपित साधुमर्यादा के अनुरूप श्रमण समाचारी का पालन करने वाले रत्नाधिक संतों द्वारा शास्त्र - वाचन, वीरशासन के ८१ पट्टधर युगमनीषी युग-प्रभावक, आचार्य देव का | जीवन निर्माणकारी उद्बोधन, व्रत- प्रत्याख्यान हेतु तत्पर जलगांव के जन-जन ये सब मिल कर समवसरण का दृश्य | उपस्थित कर रहे थे । प्रार्थना, प्रवचन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान सभी कार्यक्रमों में आशातीत उपस्थिति आध्यात्मिक | आनन्द की छटा को शतगुणित कर रही थी। महापर्व संवत्सरी के पावन प्रसंग पर तपोधनी आचार्य भगवन्त ने नवतत्त्वों का निरूपण करते हुए आत्म-निरीक्षण पर बल देते हुए श्रद्धा, संगठन, संयम एवं स्वाध्याय की आवश्यकता प्रतिपादित की।
परम पूज्य भगवन्त जहां एक ओर अपने प्रभावक प्रवचनों के माध्यम से सहज ही भक्तजनों के हृदय में | नैतिकता, निर्व्यसनता, प्रामाणिकता व अनुकम्पा के भाव जागृत कर देते, वहीं अपनी सहज सरल भाषा में धर्म का स्वरूप समझा देते । वर्षावास में नैतिक बल जागृत करने व श्रावक के तीसरे व्रत अदत्तादान के अतिचार 'चोर की | चुराई वस्तु ली हो' से बचने की प्रेरणा देते हुए करुणाकर ने फरमाया- “ आप सोना-चांदी के व्यापारी हैं, दुकान पर बैठे हैं - कोई आदमी आभूषण बेचने आया या घड़ियां बेचने आया और कम कीमत में बेच रहा है। एक ओर मन में विचार आया कि १००-१५० घड़ियां खरीद लेनी चाहिए । ३०० रुपये की घड़ी १५० रुपये में मिल रही है, यह लोभ मन में आ गया। दूसरी ओर उसी वक्त यह ध्यान आया कि हराम की चीज है, मुझे किसलिए लेनी है, हो न | हो यह चोरी या तस्करी का माल है, मुझे ऐसा माल नहीं चाहिए। इसको लेने से मेरा मन चंचल और भयभीत रहेगा, ( अन्याय को प्रोत्साहन मिलेगा। यह व्यर्थ में खतरे का प्रसंग है, इसलिये मुझे नहीं चाहिए। मन को रोका तो गिरती