Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
२०७ हुई आत्मा को रोक लिया।”
मनुष्य की मकड़ी से तुलना करते हुए आपने फरमाया - “मकड़ी अपना जाल फैलाती है सुरक्षा के लिए, किन्तु वह जाल बन जाता है मकड़ी को उलझाने के लिए। यही हालत मनुष्य की है। वह भी अपने बनाये हुए जाल में स्वयं फंस जाता है । फिर भी दोनों में एक अन्तर है। जाल बनाने वाली मकड़ी में जाल बनाने की ताकत है, जाल को तोड़ने की नहीं। लेकिन मानव में दोनों योग्यताएं हैं । वह ज्ञान एवं क्रिया के माध्यम से अपने जाल को समाप्त कर सकता है।"
साधर्मी सेवा के सम्बन्ध में एक दिन करुणाकर आचार्य भगवन्त ने अपने प्रवचनपीयूष में फरमाया- “आप लोगों के यहां शादी-विवाह के अवसर पर लापसी या गुड़ बांटने का मौका आया होगा। घर-घर में हांती दी जाती होगी, पाव-आधा पाव लापसी की। पहले उस हांती से कमजोर स्थिति वालों की गुजर चलती थी। समाज में जब उसका वितरण होता था, तब यह देखा जाता था कि किसी बुढ़िया या विधवा के यहां हांती जा रही है , जिसके कोई कमाने वाला नहीं है। उसके घर पर पहुँचते और लापसी के नीचे सोने की मुहर रख कर लापसी के बहाने उसके घर पहुंचा देते। क्या आपके इतने बड़े नगर में ऐसा वात्सल्य करने वाला मिलेगा ? जलगांव क्या, पूरे महाराष्ट्र में खोजने जायेंगे तो कोई मिलेगा, जो यह कहे कि मेरी जो बहिनें और मेरे जो भाई आर्थिक स्थिति से कमजोर हैं उन भाई-बहिनों की मदद करना, वात्सल्य करना मेरा काम है, क्योंकि मेरे पास दो पैसे का साधन है और इनके पास नहीं है। इनकी मदद नहीं करूंगा तो मेरी हलकी होगी। कई ऐसी बहिनें हैं जो गावों में गोबर चुनकर लाती हैं और अपना गुजर चलाती है। आप लोग गद्दी पर बैठकर काम चलाते हैं, लेकिन महाजनों की लड़कियाँ दूसरे के यहाँ पानी भरती हैं, दूसरों के यहां सिलाई का काम करती हैं, आटा पीसती हैं और इस तरह से अपना गुजर चलाती हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि भगवान महावीर के अहिंसा एवं संयम धर्म का पालन करने वाले गृहस्थ ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने धन का त्याग करना पड़े तो त्याग में संकोच नहीं करते।” ।
जगतवत्सल करुणानाथ के इस प्रवचन का सकारात्मक प्रभाव हुआ। परम पूज्य गुरुदेव का चिन्तन था कि अनुकम्पा भाव सम्यक्त्व का लक्षण है। समाज के अग्रगण्य मुखियाओं का यह कर्तव्य है कि वे ये समझें कि समाज एक देह की भांति है जिसके सभी अंगों की देखभाल करने की उनकी जिम्मेदारी है। पूज्यपाद का चिन्तन था कि समृद्ध व्यक्ति यदि त्यागवृत्ति अपनाते हैं तो इसका द्विविध लाभ होगा, समृद्ध व्यक्तियों के जीवन में आरम्भ, परिग्रह व ममत्व घटेगा और जरूरतमंद भाई-बहिन अभावजन्य
आर्त-रौद्र से बचकर सहज ही धर्म से जुडेंगे। चरितनायक के प्रियभजन “दयामय ऐसी मति हो जाय” की | उद्बोधकारी कड़ियों को आपकी पीयूषपाविनी मंगलमयी वाणी-सुधा से श्रवण कर भला किनका हृदय वात्सल्यसिक्त व अनुकम्पा सम्पन्न नहीं हो जाता
“औरों के दुःख को दुःख समझू, सुख का करूं उपाय.... दयामय ऐसी मति हो जाय....'
चातुर्मास समाप्ति के पूर्व चतुर्दशी को आपने फरमाया-“आज चातुर्मास समाप्ति की चवदश हो गई। आज प्रतिक्रमण जो कर सकें उनको प्रतिक्रमण करना चाहिए। रात्रि-भोजन और कुशील का त्याग आज सबको करवा रहा हूँ । सामायिक साधना का कार्यक्रम भी आपके ध्यान में रहे।
हम संतों से संबंधित दो बातों की ओर आपका ध्यान रहे। एक तो विहार के समय अथवा कभी भी कोई भी व्यक्ति हम संतों में से किसी की भी फोटो खीचें नहीं और खिचावें नहीं। फोटो खिंचाने की हमारी परम्परा नहीं