Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं पूज्यपाद के मंगल उद्बोधन का कन्नड़ भाषा में अनुवाद किया। अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म के साकार स्वरूप, करुणासागर की वाणी से धर्म का सच्चा स्वरूप समझ कर पाप भीरू मुखिया व ग्राम के अन्य लोग प्रभावित हए और देवी के समक्ष होने वाली बलि रुक गई, मारे जाने वाले बकरे को अभयदान मिला। लोगों ने मूक बकरे की आँखों से बार-बार झलकते कृतज्ञता के भावों को अनुभव किया। यह पशुबलि हमेशा के लिए रुक जाय व ग्रामीण जन संकल्पबद्ध हो जाए, इस हेतु कर्मठ समाजसेवी श्री भरतकुमार जी रुणवाल बीजापुर आदि ने सद्प्रयत्न किये, जिससे गांव वालों ने भविष्य में पशुबलि न करने की लिखित प्रतिज्ञा की। दयाधर्म के आराधक, जघन्यातिजघन्य प्राणी को भी अपने समान समझने वाले, प्राणिमात्र के प्रति मैत्री एवं करुणा बरसाने वाले अकारण करुणाकर संत महापुरुष जहां जहां पधारते हैं, वहां सहज ही घर-घर में मंगल तथा जन-जन का कल्याण हो जाता है। कहा भी गया
साधु सरिता बादली, चले भुजंगी चाल ।
ज्या ज्यां देसां नीसरे, त्यां त्यां करे निहाल ।। साधु, सरिता व बादल अपनी इच्छा पूर्वक चलते हैं, बुलाये नहीं आते, पर जहां-जहां से होकर निकलते हैं, उन | उन स्थानों को निहाल कर देते हैं, समृद्ध बना देते हैं। इसीलिए तो सन्त महापुरुष नियमित विचरण करते रहते हैं।
कोर्ति में दया धर्म का सन्देश प्रदान कर पूज्यपाद अनगवडी, बागलकोट सिरुर आदि क्षेत्रों में वीतरागवाणी | की अमृत गंगा बहाकर गुलेजगढ पधारे। यहां धर्मस्थान के बारे में परस्पर विवाद से सुज्ञ श्रद्धालु चिन्तित थे। उनकी भावना थी कि समता, स्नेह व समन्वय की त्रिवेणी बहाने वाले पूज्य गुरुदेव के पावन चरणारविन्द हमारे क्षेत्र की ओर बढ़ रहे हैं तो एकता के सूत्र में आबद्ध होकर हमको भी पवित्र पावन बन जाना है। इसी मंगल भावना को संजोकर यहां के श्रावकगण माघ शुक्ला षष्ठी को ही सिरुर में पूज्यपाद की सेवा में उपस्थित हो गये । पूज्यपाद से | संघ में बन्धुत्व, मैत्री, क्षमा व सामरस्य का सन्देश पाकर गुलेजगढवासियों का परस्पर वैमनस्य व कलुष समाप्त हो गया। श्री दलीचन्द जी ने आगे होकर अपने ट्रस्ट का मकान जैन संघ को समर्पित करने का निश्चय किया तो संघ व समाज में सौहार्द का वातावरण बन गया। पूज्य गुरुदेव के गुलेजगढ पधारने पर सबने एक होकर उनके सान्निध्य का लाभ लेते हुए व्रत-प्रत्याख्यान व धर्माराधन में अपने कदम बढाये।
गुलेजगढ से चरितनायक कमतगी की मलयप्रभा नदी के किनारे पर वृक्ष तले रात्रिवास कर अमीनगढ़, हुनगुंद होते हुए इलकल पधारे। यहां के लोग धर्मरुचि वाले व सरल थे तथा यहां धार्मिक अध्ययन हेतु धार्मिक पाठशाला भी संचालित थी । यहां अपने प्रवचन में चरितनायक ने फरमाया - "बुढापा आने पर शरीर, इन्द्रियों व मन की शक्ति क्षीण हो जाती है, अत: जब तक जरा का आक्रमण न हो, शरीर, इन्द्रियाँ व मन स्वस्थ हैं, तब तक धर्म-साधना कर लेनी चाहिये।” यहां से विहार कर आपने बलकुण्डी में मजदूरों के डेरे के पास विश्राम किया व प्रात: यहां से २४ किलोमीटर का दीर्घ विहार कर हनमसागर पधारे। यहां पर विद्यालय के शिक्षकों की प्रार्थना पर पूज्यप्रवर ने बालकों को संस्कार-निर्माण व दुर्व्यसन-त्याग की प्रभावी प्रेरणा की। विहार सेवा का लाभ ले रहे श्रावकों ने हिन्दी भाषी आचार्य भगवन्त के इस मंगल उद्बोधन का स्थानीय कन्नड़ भाषा में अनुवाद कर छात्रों तक पहुंचाने का गौरव हासिल किया। यहां से विहार कर चरितनायक बेनकनाल होते हुए माघ शुक्ला पूर्णिमा ३१ जनवरी ८० को गजेन्द्रगढ पधारे। यहां आपके सुशिष्य श्री हीरामुनि जी म.सा. (वर्तमान आचार्य श्री) ने स्थानीय कालेज में प्रवचन फरमाया। व्यसनमुक्ति के संदेश से कालेज के अनेकों छात्रों ने व्यसन त्याग के नियम लिये। गजेन्द्रगढ में गदग, हुबली, कोप्पल, सिन्धनूर एवं होस्पेट के संघों ने उपस्थित होकर पूज्य वर्ग के चरणों में अपने क्षेत्र-स्पर्शन की