Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
• जयपुर चातुर्मास (संवत् २०२४)
___ चरितनायक का ४७वां संवत् २०२४ का चातुर्मास जयपुर में विशेष उपलब्धियों वाला रहा। महासती श्री बदनकँवर जी म.सा. का चातुर्मास भी यहीं पर था। स्वाध्याय और सामायिक का इस चातुर्मास में विशेष शंखनाद किया गया, जिसकी गूंज अन्य प्रदेशों में भी सुनाई दी। आचार्यप्रवर की प्रेरणा से स्वाध्याय संघ की जगह-जगह पर स्थापना हुई। स्वाध्यायी श्रावक तैयार हुए, जो पर्युषण पर्व में विभिन्न स्थानों पर जाकर शास्त्रवाचन, व्याख्यान, त्यागवत आदि के कार्यक्रम आयोजित करवाते रहे। अपने संघ के साधु-साध्वियों को भी आपने यह समझाया कि दीक्षा के पूर्व शिक्षा होना जरूरी है। प्रथम शिक्षा, फिर परीक्षा, फिर दीक्षा और उसके बाद भिक्षा सफल होती है। इसी चातुर्मास में आपने प्रबंध पट्टावली का सम्पादन एवं आवश्यक संशोधन किया। चरितनायक आचार्य श्री की प्रेरणा से रत्नव्यवसायी श्री नथमल जी हीरावत ने कर्मग्रन्थ सीखना शुरू किया, गलुण्डिया जी ने प्रतिक्रमण याद | किया। इस प्रकार श्रावकों में ज्ञान-ध्यान की होड़ लगी और श्राविकाओं में तपस्या की। इस चातुर्मास में १० मासखमण तप, शताधिक अठाइयाँ हुई और १२ ब्रह्मचर्यव्रती बने । बालक-बालिकाओं, किशोर-किशोरियों और || युवक-युवतियों में भी सामायिक, प्रतिक्रमण, आगम आदि कण्ठस्थ करने की होड़ लगी। पूज्यप्रवर ने एक दिन | फरमाया – “जिनशासन दूसरे की महरबानी पर जीने की बात नहीं कहता। वह भीतर से शक्ति प्रकट | करने को कहता है। महावीर ने स्वयं ऐसा ही किया।" यहाँ जिनवाणी मासिक पत्रिका की व्यवस्था का कार्य | श्री नथमलजी हीरावत ने सम्हाला। उनकी सूझबूझ से जिनवाणी पत्रिका निरन्तर सुदृढता पूर्वक आगे बढ़ती गई। चरितनायक ने श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के दिवंगत आचार्य श्री आत्माराम जी म. के जन्म-दिन के उपलक्ष्य में भाद्रपद कृष्णा १२ को आध्यात्मिक हर्षोल्लास के साथ आयोजित प्रवचन-सभा में उनके गुणानुवाद करते | हुए आपने चतुर्विध संघ को श्रमण-संघ के नियमों, उपनियमों का पूर्णतः पालन करने की प्रेरणा की। • श्रमणसंघ से पृथक् होने की घोषणा
चातुर्मास सम्पन्न कर तत्कालीन 'श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' के उपाध्याय चरितनायक पूज्य श्री | हस्तीमलजी म.सा. जब जयपुर के उपनगर आदर्शनगर में पधारे तब आपने मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया दिनांक १९ नवम्बर १९६७ को श्रमण संघ से पृथक् होने की घोषणा करते हुए उसका स्पष्टीकरण किया। चरितनायक 'श्री वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ' के गठन के समय से ही सर्वत्र श्रावकों को 'श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ' के अन्तर्गत एक सूत्र में बांधने हेतु प्रयत्नशील रहे। संघ का ऐक्य उन्हें स्वीकार्य था, किन्तु शैथिल्य नहीं। उपाचार्य श्री गणेशीलालजी म.सा. पहले ही श्रमण संघ छोड़ चुके थे। चरितनायक ने उन्हें भी संघ से पुन: जोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु सफलता नहीं मिली। कांफ्रेंस के लोग भी युगीन परिवर्तन के नाम पर शिथिलाचार को प्रोत्साहन दे रहे हैं, यह उन्हें उचित नहीं लगा। ध्वनि-वर्धक यन्त्र की अनुमति चरितनायक को स्वीकार्य नहीं थी, किन्तु कांफ्रेंस के आग्रह पर श्रमणों ने इसका उपयोग प्रारम्भ कर दिया था। संवत्सरी की एकता का प्रश्न भी उलझा रही। साधु-साध्वी अपनी अनुकूलतानुसार कभी गुरु से तो कभी प्रान्तमन्त्री से आज्ञा प्राप्त करते हुये किसी एक के अनुशासन में नहीं रहे। प्रधानमंत्रीजी के त्यागपत्र एवं उपाचार्य श्री के पृथक् होने के पश्चात् संघ में व्यवस्था शिथिल हुई। चरितनायक जब संघ से जुड़े थे तब आपने अपना यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूपेण व्यक्त किया था -“जिनशासन की मर्यादा के अनुकूल सम्पूर्ण ऐक्य बना रहे तो संघ-हितार्थ मंजूर है।" चरितनायक ने ऐक्य के लिए पूरी