Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश
एवं कर्नाटक में धर्मोद्योत
(संवत् २०३५से २०३९)
• राजस्थान से मालव भूमि की ओर ___ चरितनायक आगामी चातुर्मास में इन्दौर विराजने की स्वीकृति प्रदान कर चुके थे। उसी लक्ष्य से अब आपके चरण शस्य श्यामला मालव भूमि की ओर बढ़ रहे थे। आप सेंती, सतखंडा, मांगरोल, निम्बाहेड़ा, बागेड़ा होते हुए राजस्थान से मध्यप्रदेश पधारे । दिनांक २७ मई १९७८ को धारा १४४ लगी होने पर भी जावद में आपका भव्य प्रवेश हुआ। आपकी पातकप्रक्षालिनी पीयूषपाविनी मंगलमय प्रवचन सुधा कर पान करने जावदवासी भारी संख्या में उपस्थित थे। यहाँ सैलाना संघ विनति लेकर उपस्थित हुआ। जावद से दो किलोमीटर का विहार कर आप पुलिस स्टेशन भवन विराजे। वहाँ से प्रात: विहार कर नीमचछावनी पधारे। यहाँ आपने ज्ञान मन्दिर में प्रवचन फरमाया। यहाँ से कृपानिधान का विचरण-विहार नीमच सिटी, कटआर सिटी, सावन, महागढ़, झाड़ी नारायणगढ रोड़ पीपल्या मंडी, बोतलगंज प्रभृति ग्राम नगरों में हुआ। आप जहाँ भी पधारे, आबालवृद्ध सभी आपके प्रवचनामृत से प्रभावित हो अध्यात्म मार्ग पर चलने को प्रेरित हुए। नीमच में अपने मंगलमय उद्बोधन में आपने विचारों की पवित्रता एवं स्थिरता के लिये आहार-शुद्धि पर बल दिया। नीमच से विहार कर रास्ते में आपका रात्रिवास आम्रवृक्ष के नीचे हुआ। साथ चल रहे तीन भाइयों ने भी अपने आराध्य गुरुदेव के सान्निध्य में ही संवर किया। गर्मी का मौसम, हवा का झोंका तक नहीं, ऐसी प्रतिकूलता में भी जिनकी आत्मा में समत्व, क्षमा व शान्ति का सागर लहरा | रहा हो, उन्हें भला बाह्य परीषह क्या प्रभावित कर पाते । प्रात:काल जो चिन्तन चला, उसके बारे में आपने अपनी दैनन्दिनी में अंकित किया है -"प्रातः सामने प्रहरी वृक्ष अडोल खड़े अपने मोहक आदर्श से शिक्षा दे रहे थे"। अध्यात्मचेता मनीषियों के लिये तो प्रकृति व बाह्य परिवेश भी शिक्षा के सूचक होते हैं। आपने चिन्तन किया कि जिस प्रकार विषम परिस्थितियों में भी वृक्ष अडोल रहकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं वैसे ही संत को भी जीवन में अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं में अडिग रहकर कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहना है। हिन्दी कवि ने भी अपनी रचना में कहा है -“खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आँधी पानी से। खड़े रहो तुम अविचल होकर, सब संकट तूफानों में ।” ज्येष्ठ माह, भयंकर गर्मी, धूप से तप्त भूमि पर परीषह विजेता महापुरुष को अपनी शिष्य मंडली के साथ नंगे पाँव पाद-विहार करते देख जैनेतर ग्रामीण जन आश्चर्य-विमुग्ध सहज श्रद्धाभिभूत हो आपके चरणों में झुक जाते।
निकटवर्ती ग्राम-नगरों के श्रावक-श्राविका आत्म-साधक आचार्य श्री हस्ती के सान्निध्य में पहुँचकर अपने को धन्य मानते थे। जिस ग्राम की ओर विहार सम्भावित है, वहां से विनति के लिए श्रावकों का पूर्व ग्राम में उपस्थित होना एवं बाद मे निकट के गांवों में पहुंचने पर सन्तों की सेवा में उपस्थित होकर अपनी धर्मभावना को आगे बढ़ाना