Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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जयपुर, पाली, नागौर एवं मेड़ता के चातुर्मास (संवत् २०२४-२०२७)
• उदयपुर की ओर
राजस्थान में दीक्षा की सम्भावना के कारण प्रान्तीज से सताल, हिम्मतनगर, आगियोल, रूपाल , सरडोई, टीटोई, सामलाजी, बीछीवाड़ा खेरवाड़ा, ऋषभदेवजी (संवत् १७५४ काष्ठा संघ का शिलालेख नोट किया), प्रशाद, टीडी आदि ग्राम-नगरों को सम-विषम मार्गों से पावन करते हुए माघपूर्णिमा संवत् २०२३ को आपका मेवाड़ की धरा उदयपुर में आगमन हुआ। यहाँ पर आप भोपालपुरा के गाँधीधाम में विराजे । यहाँ महासती शीलकंवरजी एवं अन्य साध्वियों ने चरितनायक के दर्शन किये तथा प्रान्तीज आदि स्थानों के श्रावक दर्शनार्थ आए। अस्वस्थ सतियों (कौशल्याजी व समर्थमल जी म.सा. की सतियों) को दर्शन देने आप स्वयं पधारे। महासती कुसुमवतीजी के पधारने पर अनुयोगद्वार सूत्र के प्रश्नोत्तर हुए।
उदयपुर में मास्टर पूनमचन्दजी, बम्ब सा, बिहारीलालजी सुराणा आदि बहुत सेवाभावी श्रावक थे। यहां आपके दर्शनार्थ सिविल जज श्री उमरावमलजी चोरडिया वकील जीवनसिंह जी के साथ आए। एक दिन रात्रि में परमाणु के वर्णादि परिवर्तन के सम्बन्ध में चर्चा हुई। चरितनायक ने फरमाया कि एक गुण से अनन्तगुण कालादि का परिणमन सम्भव है। मूलगुण का परिवर्तन सम्भव नहीं, क्योंकि गुण गुणी से सर्वथा भिन्न नहीं रहता। आप यहाँ कान्तिसागर जी महाराज का संग्रह देखने गए तथा उनसे चर्चा भी हुई। यहाँ पर आपने एक दिन व्याख्यान में फरमाया – “आत्मा के पतन और दुःख का कारण अज्ञान एवं मोह है। अज्ञान ज्ञान से मिटाया जाता है और ज्ञान सत्संग तथा स्वाध्याय से मिलाया जाता है। जब तक सदज्ञान का प्रसार नहीं होगा, समाज सुधर नहीं सकेगा।" यहीं पर एक दिन अपने प्रवचनामृत में फरमाया- “सद्गृहस्थ भोगसामग्री को मिलाते हुए भी असमार्ग से बचकर चलता है। असद्मार्ग से मिलायी गई सम्पदा से वह धन की गरीबी को अच्छी मानता है। शरीर की सहज कृशता शोथ (सूजन) के मोटापे से अच्छी है।" • नाथद्वारा, भीलवाड़ा, अजमेर होकर जयपुर
तदनन्तर आपश्री एकलिंगजी होकर फाल्गुन शुक्ला ६ संवत् २०२३ को देलवाड़ा पधारे। वहाँ आपने पाँच भाइयों को प्रतिमाह एक दयावत दो वर्ष तक करने के नियम कराये, राजमलजी बोकाड़िया को दैनिक सामायिक करने, रात्रि-भोजन, जमीकन्द और अब्रह्म सेवन की मर्यादा तथा अधिक ब्याज न लेने का नियम कराया, कुछ भाइयों को माह में १५ सामायिक करने के नियम कराये एवं तीन युवकों को दो वर्ष तक दैनिक प्रार्थना का संकल्प कराया। ओडण में भी इसी प्रकार धर्मप्रेरणा की। यहाँ पर अध्यात्म साधक चरितनायक ने एक धुन की रचना की -