Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
१७३ महासती श्री जसकंवर जी, महासतीजी केसर कंवर जी तथा पंजाब से पधारे महासती मंडल ने आपके दर्शन व सानिध्य का लाभ लिया। यहां आपका स्वामी श्री ब्रजलालजी म. पं. रत्न श्री मधुकर मुनिजी म. से स्नेह मिलन हुआ व महावीर जयन्ती के पावन प्रसंग पर कपड़ा बाजार में सम्मिलित प्रवचन भी हुआ। आपके इसी प्रवास के मध्य यहां बहुश्रुत पंडित रत्न श्री समर्थमलजी म.सा. का पदार्पण हुआ। दोनों महापुरुषों ने परस्पर चर्चा व वार्तालाप किया। बहुश्रुत जी म.सा. ने आपको अपने सन्तों का परिचय देते हुए प्रमोद का अनुभव किया।
प्रथम वैशाख शुक्ला पंचमी संवत् २०२९ को बड़े हरकँवरजी म.सा. का मेड़ता सिटी में स्वर्गवास हो गया। राजस्थान के बूंदी जिला स्थित समिधी ग्राम में श्री छोगालाल जी पोरवाल की धर्मपत्नी की कुक्षि से पौष कृष्णा ५ विक्रम संवत् १९५४ को जन्मे हरकँवरजी ने सवाईमाधोपुर में कार्तिक शुक्ला १२ संवत् १९७२ को भागवती दीक्षा अंगीकार कर प्रव्रज्या पथ अपनाया था। बड़े धनकंवर जी म.सा. की शिष्या रही इन महासती ने ५७ वर्षों तक निरतिचार संयम का पालन कर अपनी आत्मा को भावित किया।
__ पाली से विहार कर पूज्यप्रवर जाडण, बागावास, सोजत, सांडिया, पीपलिया, निमाज, बर, ब्यावर, पीसांगन | पुष्कर आदि विभिन्न क्षेत्रों में धर्मोद्योत करते हुए प्रथम वैशाखी पूर्णिमा को अजमेर पधारे। यहाँ द्वितीय वैशाख शुक्ला तृतीया को सम्यग् ज्ञान प्रचारक मण्डल की ओर से जैन स्थानक लाखन कोटडी में गुणी अभिनन्दन समारोह का आयोजन किया गया। न्यायमूर्ति श्री सोहननाथ जी मोदी के मुख्य आतिथ्य व डॉ नरेन्द्र भानावत के संयोजकत्व में सम्पन्न इस समारोह में शास्त्रीय विद्याध्ययन के लिये श्री हिम्मत सिंह जी सरूपरिया उदयपुर का, जीवन में ज्ञान व | क्रिया के योग हेतु श्री चांदमलजी कर्णावट भोपालगढ का अध्यात्म चिन्तन एवं नूतन गवेषणा हेतु चिन्तनशील मनीषी विद्वान् श्री कन्हैयालालजी लोढा, केकडी का एवं संघ-सेवा हेतु श्री सरदारमलजी सांड का अभिनन्दन किया गया। इस अवसर पर अपने मंगल उद्बोधन में आपने समाज में ज्ञान एवं आचार के सामंजस्य की आवश्यकता पर बल दिया।
पूज्यप्रवर का चिन्तन था कि संघ व समाज में अनेकों कार्यकर्ताओं, त्यागवती श्रावक -श्राविकाओं एवं चिन्तनशील प्रबुद्ध विद्वानों की भूमिका विकास में महनीय है, पर उनका योगदान जन-सामान्य के समक्ष नहीं आ पाता, वे तो बिना यश कामना के अपनी भूमिका अदा कर जाते हैं। वस्तुत: संघ-रचना एवं शासन की प्रभावना के | मुख्य सूत्रधार तो ये ही नींव के पत्थर हैं। शीर्ष के कंगूरों की शोभा इन्हीं नींव के पत्थर माफिक संघ-सेवियों द्वारा | किये गये योगदान से है। संघ-समाज के समक्ष इनके योगदान को लाया जा सके, इसी पुनीत लक्ष्य से संघ ने | गुणी-अभिनन्दन योजना को अपनाया। 'गुणिषु प्रमोदं' की महनीय भावना से प्रारम्भ इस योजना के पीछे उन | महापुरुष के मनोमस्तिष्क में जहाँ एक ओर इन छिपे रलों को प्रकाश में ला कर समाज में प्रमोद भाव को बढ़ावा देने का लक्ष्य था, वहीं कार्यकर्ताओं के पुरुषार्थ, विचारशील विद्वद्वर्ग के चिन्तन एवं त्यागव्रती श्रावकगण के अंतर्हदय से उद्भुत शुभ कामनाओं को सूत्रबद्ध कर एकाकार करना भी था। वस्तुत: तीनों ही ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र || की तरह एकाकार होकर सुन्दर आदर्श संघ-संरचना का दायित्व निर्वहन कर सकते हैं।
एक भावना यह भी परिलक्षित होती है कि विद्वान् मात्र ज्ञान-साधना तक ही सीमित न हो, उसके ज्ञान में | श्रद्धा एवं संघ के प्रति समर्पण का बल हो और इसी समर्पण भाव के साथ वह भी 'ज्ञानस्य फलं विरति:' का आदर्श अपना कर अपने जीवन में यथाशक्य व्रत-प्रत्याख्यान ग्रहण कर धर्म को अपने आचरण में अपनाये। त्यागवती सुश्रावकगण तपत्याग के साथ ही ज्ञान-स्वाध्याय-साधना को अपना कर सोने में सुहागा की कहावत चरितार्थ करे