Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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लिया।
इस चातुर्मास में एक महत्त्वपूर्ण योजना जैन धर्म के मौलिक इतिहास के लेखन की बनी जिसके अनुसार भाद्रपद कृष्णा १३ शुक्रवार को इसका लेखन कार्य भी प्रारम्भ कर दिया गया।
आचार्यश्री ने समागत जैन विद्वान् हरीन्द्रभूषण जी को प्रेरणा करते फरमाया “जो विद्वान् संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं के ज्ञाता हैं, उन्हें इन भाषाओं में रचना करना चाहिए। अनुवाद के आधार पर शोध कार्य तो अन्य विद्वान् भी कर लेंगे पर इन भाषाओं में मौलिक लेखन तो इनके विशेषज्ञों द्वारा ही सम्भव है । इन भाषाओं की | अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के सम्पादन का कार्य प्राथमिकता के तौर पर किया जाना चाहिए। लेखन के साथ-साथ संस्कृत- प्राकृत की रचना - धर्मिता को जीवित रखने के लिए यह आवश्यक है ।
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पूज्यप्रवर ने संस्कृत-प्राकृत की पत्रिका की भी आवश्यकता प्रकट की । उल्लेखनीय है कि पूज्यश्री की यह | प्रेरणा कालान्तर में 'स्वाध्याय शिक्षा' पत्रिका के रूप में सफल हुई ।
पूज्यश्री ने नारी शक्ति को संगठित होने की प्रेरणा दी, जिसके फलस्वरूप महावीर जैन श्राविका संघ का | गठन हुआ। उन्होंने आह्वान किया - 'नारी शक्ति कुरीतियों से मुक्त होकर अपना सर्वांगीण आध्यात्मिक विकास करे ।' आपके इस आह्वान एवं नारी-शिक्षण की प्रेरणा के फलस्वरूप सैंकड़ों-हजारों बहनों का जीवन बदला है और | उन्होंने अपने जीवन का विकास किया है।
इस चातुर्मास में पूज्यप्रवर की प्रेरणा से युवक संघ का गठन हुआ जिसके अन्तर्गत युवक सम्मेलन आयोजित हुआ और उसमें कई क्रान्तदर्शी निर्णय लिये गये।
आचार्यप्रवर ने युवकों को सम्बोधित करते हुए फरमाया – “आप में शक्ति है, जोश है, पर ध्यान रखिएगा | अपनी शक्ति का दुरुपयोग न हो और जोश में आप अपने होश को न भूल जाएं। आपकी शक्ति सदैव रचनात्मक | कार्यों में लगनी चाहिए। आज की युवा पीढ़ी जिस तरह फैशन, विदेशी संस्कार, व्यसन, नशा, होटलों - टी.वी, सिनेमा | आदि की शिकार हो रही है, आपको उससे बचकर रहना है। आप मादक पदार्थों के सेवन तथा अन्य व्यसनों से दूर रहें। अपने जीवन में सादगी और अपने खान-पान में सात्त्विकता बरतें।
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बालकों को संस्कार देने हेतु आपने चार नियम कराये १. चोरी नहीं करना २. नशा नहीं करना ३. गाली नहीं देना और ४. नमस्कार मन्त्र का जाप करना । अनेक स्थानों से श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाओं ने आकर त्याग-तप एवं व्रत नियम अंगीकार किए।
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स्वाध्याय का महत्त्व आप श्री के रोम-रोम में व्याप्त था। आपने एक दिन श्रावक - समाज को उद्बोधन देते हुए फरमाया - " स्वाध्याय वर्तमान समय की प्रथम आवश्यकता है। इसके लिये रुचि का जागृत होना आवश्यक है । | लोंकाशाह ने अपने स्वाध्याय के बल पर शासन में बडी क्रान्ति उत्पन्न की, तब स्वाध्याय के लिए आज जैसे ग्रंथादि
भी सुलभ नहीं थे, किन्तु जिज्ञासा ऐसी थी कि आपके पूर्वज श्रावक लोंकाशाह के घर जाकर धर्म श्रवण करते थे । आज आपको स्वाध्याय के लिए विशाल सामग्री तो उपलब्ध है, पर जिज्ञासा की कमी है। आपको जिज्ञासा जागृत करनी चाहिए, रुचि बढ़ानी चाहिए ।"
सम्पूर्ण चातुर्मास स्थानीय श्रावकों के उत्साह एवं उमंग के साथ सम्पन्न हुआ । यह चातुर्मास धार्मिक सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टियों से अत्यन्त उपलब्धि पूर्ण रहा। विदाई के समय विद्यालय के बालकों सहित लगभग ( तीन हजार नर-नारियों का विशाल समूह जय जयकार करता हुआ साथ चल रहा था, जो अपने आप में अपूर्व था ।