Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
१३३ नहीं डालना। घर के झगड़े समाज में डालना बड़ी भूल है।” यहाँ पर तपस्वी मुनि श्री मनोहरलालजी म. ठाणा २ का मिलन हुआ एवं साथ ही ठहरे। प्रेम वात्सल्य रहा। यहाँ के पुस्तकालय में एक हजार पुस्तकों में कई प्राचीन भी हैं। मन्दसौर के व्याख्यान में पूज्यप्रवर ने फरमाया –“वीतराग बनने के लिए पहले देव, गुरु एवं धर्म के प्रति अनुरागी बनना होगा। यदि इनके प्रति अनुराग होगा तो आप त्याग भी कर सकेंगे। बिना प्रीति के त्याग नहीं होता।" यहाँ पर पूज्य मन्नालाल जी म.सा. की पुण्य तिथि पर आपने फरमाया – “पूज्य श्री मन्नालालजी म. को स्वाध्याय एवं आगम प्रिय थे। आप उनका आदर करते हैं तो उनकी प्रियवस्तु को अपनाइए अन्यथा आपकी उनके प्रति श्रद्धा कहने मात्र की होगी।” प्रात: मन्दसौर से विहार कर आप आषाढ़ कृष्णा चतुर्दशी, शनिवार को खिलचीपुरा धर्मस्थानक में पधारे । श्रद्धालु भक्तजनों की विशाल संख्या में उपस्थिति को देखते हुए धर्मस्थानक में| व्याख्यान नहीं हो सकने के कारण बाजार में व्यवस्था की गई।
चरितनायक पूज्य श्री ने धर्म और नीति शिक्षा पर जोर दिया तथा सत्संग का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए फरमाया कि सदाचार ही जीवन को उन्नत बना सकता है। पश्चिम के लोग नीति के नाम से कुछ शिक्षाएँ जीवन में उतारते हैं। भारत धर्मप्रधान देश है। यहाँ के वासियों को विशेष ध्यान देकर धर्म को जीवन में उतारना चाहिए। इसी में देश का कल्याण है।” यहाँ से विहारक्रम में दलोदा, कचनारा, ढोढर होकर आप श्री जावरा पधारे।
जावरा के श्रावक बहुत दिनों से चातक की भांति आपश्री की प्रतीक्षा कर रहे थे। यहाँ आपने पूज्य श्री मन्नालाल जी म.सा के श्रावक-समुदाय के स्थानक में पदार्पण किया। यहाँ का श्री संघ दो दलों में विभक्त था। चरितनायक ने अपने प्रवचन में उन्हें वार्तालाप द्वारा समस्या के समाधान का सुझाव दिया। आपने फरमाया-"जिणधम्मो य जीवाणं अपुव्वो कप्पपायवो' जिनधर्म जीवों के लिए अपूर्व कल्पवृक्ष है, इससे सभी अभिलाषाओं की पूर्ति स्वतः हो जाती है अतः मनमुटाव छोड़कर जिनधर्म का आश्रय ग्रहण करें। आपको कैंची नहीं, सुई बनना है। कैंची एक बड़े कपड़े को काट कर अनेक टुकड़े कर डालती है, जबकि सुई अनेक बिखरे हुए टुकड़ों को सिलती हुई बढ़ती है। इसी प्रकार श्रावकों को अपने संघ में एकता लाने के लिए सुई की तरह व्यवहार करना चाहिए। "
प्रामाणिक वृहत् जैन इतिहास के लेखन के लिए मूल स्रोतों का पता लगाने हेतु आपने मेवाड़, मारवाड़ महाराष्ट्र और गुजरात के सुदूरवर्ती गाँवों की लम्बी यात्राएँ की। सैंकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थों का अवलोकन किया। जावरा में भी आपने १६वीं शताब्दी के ५ बस्ते देखे जिनमें हस्तलिखित ग्रन्थ थे। श्रेष्ठिवर रांकाजी के साथ सैलाना का श्रावक मण्डल उपस्थित हुआ। चरितनायक ने आषाढ़ शुक्ला चौथ को प्रवचन में फरमाया -“धर्मरूप कल्प वृक्ष की शरण आये हो। इसका सिंचन करो। डाल पर बैठकर इसका छेदन मत करो। धर्म संसार का त्राण करने वाला है। मगधाधिपति श्रेणिक ने जिनशासन की सेवा कर तीर्थङ्कर गोत्र का उपार्जन किया। पूज्य माधव मुनि ने धर्म दिपाने वाले श्रावक को सूर्य के समान तपने वाला बताया है। धर्म तभी दिपेगा जब आपमें उपशम भाव होगा। चतुर्विध संघ में प्रीति का व्यवहार होगा।” जावरा से पालिया, लुहारी, नामली होते हुए पचेड़ी पधारे। आपश्री के प्रवचन से प्रभावित होकर ३ व्यवसायियों ने खोटे तोल-माप का त्याग किया।
पंचेडी से विहार कर धामनोद पधारे । यहाँ चरितनायक ने उद्बोधन में फरमाया- " किसी के यहाँ जब कोई अतिथि आता है तो गृहपति अच्छे-अच्छे पदार्थों से उसका सत्कार करता है। हम संत भी अतिथि हैं परन्तु भेंट पूजा, पैसे लेने वाले नहीं हैं। हमारा आतिथ्य व्रत-नियम से होता है। सत्संग से आप शिक्षा लेकर जीवन शुद्धि करें, इसी