Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
मोतीलाल जी गांधी ने संवत् २०१३ से जीवन भर अपनी सेवाएँ संघ को समर्पित की। आपने जीवन पर्यन्त जैन इतिहास की सामग्री के संकलन एवं विनयचन्द्र ज्ञान भंडार जयपुर में अपनी उल्लेखनीय सेवाएँ दी ।
बीकानेर चातुर्मास के पश्चात् ऊदासर, देशनोक, नोखा, नागौर, मेड़ता आदि ग्राम-नगरों में विचरण करते हुए आप थांवला पधारे, जहाँ उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज से संघहित के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर वार्तालाप किया। पुष्कर में आप दोनों श्रमण वरेण्यों का मंत्री श्री पुष्कर मुनि जी म.सा. से मधुर मिलन हुआ। अजमेर में चरितनायक का बीकानेर वर्षावास में साथ रहे वयोवृद्ध मुनि श्री रामकुमार जी से पुनः मिलन हुआ। यहाँ पर श्रावक वर्ग को संघ-शक्ति को उत्तरोत्तर दृढ़ करने की प्रेरणा करने के अनन्तर आप किशनगढ़ पधारे, जहाँ मन्त्री श्री पन्नालाल म.सा. के साथ विचार विमर्श हुआ।
चरितनायक के मन में संघ के ऐक्य एवं श्रमणाचार के निर्दोष परिपालन की तत्परता थी। विजयनगर में आपका उपाचार्य श्री गणेशीलाल म, पं. श्री पुष्कर मुनि जी म. और पं. श्री शेषमल जी म. के साथ मिलन हुआ। यहाँ भी आपने संघोत्कर्ष विषयक विचार-विमर्श किया। गुलाबपुरा में श्री लालमुनिजी एवं कान्हमुनि जी से आपका स्नेहमिलन हुआ। अक्षय तृतीया के पुनीत प्रसंग पर केकड़ी विराजे, जहाँ पर आपने दान की महत्ता प्रतिपादित करते हुए फरमाया कि न्यायनीति से उपार्जित धन का शुभकार्यों में बिना किसी स्वार्थ के विवेकपूर्वक दिया गया दान ही सात्त्विक दान है। सरवाड़ होते हुए फतहगढ़ पधारने पर श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ की स्थापना की गई। यहाँ धर्मनिष्ठ दम्पतियों ने सजोड़े शीलवत अंगीकार किये। चरितनायक के पधारने से यहाँ के स्थानकवासी समाज में व्याप्त मन मुटाव दूर हो गया। कइयों ने शतरंज, तास, चौपड़ आदि नहीं खेलने का नियम लिया। एक पुस्तकालय की भी स्थापना हुई। फतहगढ़ की विशेषता यह थी कि यहाँ ओसवाल, सरावगी और माहेश्वरी समाज की सम्मिलित गोठ (पंचायत) है, जो इन समाजों की सर्वविध समस्याओं का समाधान करती थी। फतहगढ से किशनगढ चातुर्मास हेतु विहार किया। किशनगढ़ चातुर्मास (संवत् २०१४)
चरितनायक विक्रम संवत् २०१४ के किशनगढ़ चातुर्मास में ठाणा ७ से विराजे । वर्षावास में आध्यात्मिक | महोत्सव का वातावरण बन गया। तपश्चरण की झड़ी लग गई। अठाई आदि की अनेक तपस्याएँ हुई। श्री वर्धमान | स्थानकवासी जैन श्रावक संघ की स्थापना हुई तथा श्री सागर जैन विद्यालय को आत्म-निर्भर बनाने का कार्य सम्पन्न | हुआ। चातुर्मास के पश्चात् मदनगंज में श्री सोहनलाल जी महाराज से स्नेह मिलन हुआ। इन दिनों श्रमण संघ में सम्वत्सरी के प्रश्न को लेकर चर्चा चली एवं कान्फ्रेंस के अधिकारियों ने चरितनायक से चर्चा कर जिज्ञासा का समाधान किया। उसे दिल्ली की व्यवस्था समिति तथा श्रमण सम्पर्क समिति की बैठक में पारित करवाया। यह प्रस्ताव २२ नवम्बर ५७ के जैन प्रकाश में प्रकाशित हुआ है-"उक्त समिति के सदस्यों का अत्यधिक बहुमत चातुर्मासादिक आषाढ शुक्ला १५ पक्खी से ४९ या ५०वें दिन संवत्सरी मनाये जाने के पक्ष में | है। अतः कांफ्रेंस की व्यवस्था समिति और श्रमण सम्पर्क समिति उपर्युक्तानुसार चौमासी पक्खी आषाढ़ शुक्ला १५ से ४९ या ५० वें दिन संवत्सरी मनाने का निर्णय देती है तथा समस्त स्थानकवासी जैनों से अपील करती है कि संवत्सरी महापर्व भारत में एक ही दिन मनावें। ताकि समस्त स्थानकवासी जैनों में सांवत्सरिक एकता बनी रहे।" इस प्रकार चरितनायक ने समाज के महत्त्वपूर्ण मुद्दे ‘साम्वत्सरिक एकता' का पथ प्रशस्त किया।