Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
१२९ हमारा यह दृढ मंतव्य है कि वर्तमान में हमारी आचार-व्यवस्था किन्हीं कारणों से शिथिल हो गई है। अत: | उस पर कड़ा नियन्त्रण आवश्यक है, क्योंकि आचार-निष्ठा में ही श्रमण संघ की प्रतिष्ठा है। हम चाहते हैं कि प्रमुख मुनिवरों के परामर्श से शिथिलाचार को आमूल नष्ट करने के लिये दृढ कदम उठाया जाय। हम शिथिलाचार को हर | प्रकार से दूर करने के लिय तैयार हैं। जब तक संघ में पारस्परिक मतभेद दूर होकर इसके लिए सुव्यवस्था न हो जाय तब तक अधिकारी मुनिवर अपने आश्रित श्रमणवर्ग की आचार शुद्धि पर पूर्ण ध्यान रखे । यदि कदाचित् किसी भी सन्त व सतीजन की मूलाचार में कोई स्खलना सुनाई दे तो तत्काल उसकी जांच कर शुद्धि कर दी जाय । बहिनों का संसर्ग व स्वयं हाथ से पत्र लेखन जो साधक जीवन के लिये अयोग्य हैं, उन्हें बिल्कुल बन्द कर दिया जाय।
अंत में हमारी ही नहीं, अपितु संघ के सभी सदस्यों की भावना है कि श्रमण-संघ अक्षुण्ण व अखंड बना रहे। आचार और विचार की दृष्टि से दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर दृढता से बढ़ता रहे व जन-जन के हृदय से यही नारा | निकले कि अखंड रहे यह संघ हमारा।"
तीनों सन्त-प्रवरों ने मिलकर आचार्य श्री के समक्ष कतिपय विचारणीय बिन्दु भी रखे
१. सर्वप्रथम हम चाहते हैं कि आचार्य श्री एवं उपाचार्य श्री हमारे निवेदन को सम्मान देकर पारस्परिक मतभेद | मिटा दें और पुन: वे संघ का संचालन करें।
२. यदि वे पारस्परिक मतभेद नहीं मिटाते हैं तो संघ को अखंड बनाने के लिए आचार्य श्री की घोषणानुसार | पांच मुनियों की समिति वृहद् साधु-सम्मेलन तक काम करे।
३. यदि वह भी संभव न हो और संघ छिन्न-भिन्न होने की स्थिति में हो तो संघ में वर्तमान में एकता बनाये | रखने के लिये निम्नाङ्कित योजना कार्यान्वित की जा सकती है -
जिन श्रमण-श्रमणियों का लोक व्यवहार में आचार शुद्ध है और संयम के रंग में रंगा हुआ प्रतिष्ठित जीवन है, | उनके साथ निम्नाङ्कित व्यवहार अवश्य रखा जाय -
१. संघ के श्रमण-श्रमणियों का एक क्षेत्र में एक ही वर्षावास हो और एक ही व्याख्यान हो । कारणवशात् एक ही क्षेत्र में विभिन्न स्थानों में संत-सतीजन विराज रहे हों तो अनुकूलता होने पर वे एक स्थान पर सम्मिलित व्याख्यान करें पृथक् व्याख्यान न करें।
२. दीक्षा, संथारा आदि विशिष्ट प्रसंगों पर जाने में किसी भी प्रकार का संकोच न करें।
३. किसी संत व सतीजन के रुग्ण होने पर उन सन्त-सतीजन की सेवा आदि के लिए उचित व्यवस्था की जाय, उपेक्षा बुद्धि न रखी जाय और अनुकूलता के अनुसार उनकी पूछताछ की जाय।
४. परस्पर ज्ञान के आदान-प्रदान करने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं रखा जाये। ५. एक-दूसरे संत-सतीजन के मिलने पर सम्मानपूर्वक शिष्टाचार का व्यवहार किया जाय।
६. व्याख्यान-वार्तालाप आदि में किसी भी प्रकार दूसरे संत-सतीजन की निन्दा व हीनता सूचक शब्दावली का प्रयोग न किया जाय और न व्यवहार से सूचित ही किया जाय कि इनमें परस्पर में मतभेद है, वैमनस्य है।
७. स्नेह-सम्बन्ध रहने पर भी वन्दन, आहार और शिष्य का आदान-प्रदान ऐच्छिक रखा जाय। ___यहाँ कुछ दिन विराजकर आपने होली चातुर्मास गुलाबपुरा में किया। जयपुर एवं सैलाना संघ की ओर से | | विनति हुई। सामायिक संघ एवं स्वाध्याय के संचालन का कार्य प्रारम्भ हुआ। गुलाबपुरा से आप हुरड़ा में प्रार्थना