Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं द्वितीय भाद्रपद शुक्ला पंचमी को सम्पन्न हुई। केकड़ी में पूर्व में हुए तात्त्विक प्रश्नोत्तरों का क्रम यहाँ भी चलता रहा। कृष्णलाल जी बाफना जोधपुर ने कई प्रश्न किए, जिनका समीचीन समाधान किया गया। मूर्तिपूजक समाज की तरफ से मुखवस्त्रिका और मूर्ति के प्रश्नों को लेकर विवाद हुआ और चरितनायक को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा गया। इसे तत्काल स्वीकार कर लिया गया, किन्तु सुगनचन्द जी नाहर आदि समाज प्रमुखों द्वारा लिखित रूप में प्रकट किए गए शान्ति संदेश को सुनकर दोनों ओर के संत अपने स्थान पर लौट आए और समाज की वह हलचल सदा के लिए बन्द हो गई। इस प्रकार अजमेर का ऐतिहासिक चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ।
चातुर्मास का विहार तो सुख शान्तिपूर्वक हो गया, पर चातुर्मास में श्रम की अधिकता से आचार्य श्री ज्वर से पीड़ित हो गये। आपश्री को कमजोरी व पीलिया के कारण महीने भर श्री गुमानमलजी लोढ़ा की कोठी में विराजना पड़ा। स्वस्थ हो कर विहार की तत्परता कर रहे थे कि सहसा मुनिश्री छोटे लक्ष्मीचन्द जी के पैर पर तांगे का पहिया फिर जाने के कारण गहरी चोट आने से आचार्यश्री का अजमेर में अधिक ठहरना हुआ। पीढियों से ही चतुर्विध-संघ की अगाध-भक्ति पूर्वक सेवा करने वाले अनन्य गुरुभक्त परम्परा के प्रमुख श्रावक सतारानिवासी वयोवृद्ध श्रेष्ठिवर्य श्री चन्दनमलजी मुथा चातुर्मास काल में ही आचार्य श्री एवं मुनिमण्डल की सेवा में यह निवेदन कर गये थे कि “आज तक तो मैं सेवा में आता रहा । अब गुरुदेव ! मेरा अन्तिम आना है। अब तो आप ही महाराष्ट्र को पावन करने की कृपा करेंगे तो मुझे दर्शन हो सकेंगे।” श्रावकजी की गद्गद् भाषा में की गई प्रार्थना असरकारक थी। अत: मुनि लक्ष्मीचन्द जी के स्वास्थ्यलाभ करने पर चरितनायक ने मुनिमंडल के साथ महाराष्ट्र को लक्ष्य कर अजमेर से प्रस्थान किया। अजमेर केसरगंज से नसीराबाद, बान्दनवाड़ा, भिनाय, टांटोटी, विजयनगर, गुलाबपुरा, बनेड़ा होते हुए भीलवाड़ा पधारे। वहां होली चातुर्मास हुआ। शेखेकाल में आचार्यश्री के कपासन में हुए व्याख्यानों से धर्मप्रभावना हुई। वहाँ से विहार कर करेड़ा, मावली, देबारी होते हुए आयड पधारे। वहाँ कोठारी जी की बाड़ी में विराजे। वहाँ से उदयपुर पधारे। यहाँ पर समाचार मिले कि सतारा में चातुर्मास की विनति करने वाले सेठ चन्दनमल जी मुथा का निधन हो गया है। यह सुनते ही विहार की गति मन्द पड़ गई। अवसर जानकर उदयपुर श्री संघ ने वि.सं. १९९४ का वर्षावास उदयपुर में करने हेतु भावभरी विनति की, जो स्वीकृत हुई। • उदयपुर चातुर्मास (संवत् १९९४) __इस बीच आस-पास के अन्य क्षेत्रों में जैन धर्म के प्रचार के लक्ष्य से आप गोगुंदा पधारे। प्रकृति की गोद में बसे इस गांव में देव, गुरु एवं धर्म की आराधना का ठाट रहा। तदनन्तर नाथद्वारा में कतिपय दिन बिराजे । देलवाड़ा से एकलिंगजी होते हुए उदयपुर के विशाल पंचायती नोहरे में चातुर्मासार्थ पधारे। यहां का सम्पूर्ण स्थानकवासी जैन | समाज धर्म-ध्यान में प्रगाढ़ रुचि लेता रहा। पर्युषण के दिनों में धर्म-ध्यान के साथ तपश्चर्या की तो मानो झड़ी ही लग गई।
इस चातुर्मास में दीवान बलवन्त सिंह जी कोठारी की महत्त्वपूर्ण श्रद्धा-भक्ति एवं भूमिका रही। मुख्यत: उनके आग्रह से ही यह चातुर्मास उदयपुर में हुआ। आप प्रतिदिन आचार्यप्रवर का प्रवचन श्रवण करने के अनन्तर ही दरबार में पहुंचते, अत: प्राय: विलम्ब हो जाता। महाराणा ने दीवान साहब से विलम्ब का कारण पूछा तो दीवान साहब ने फरमाया कि यहाँ मारवाड़ के लघुवय के जैनाचार्य विराज रहे हैं, मैं प्रतिदिन उनका प्रवचन सुनकर दरबार में आता हूँ, अत: विलम्ब हो जाता है। महाराणा के मन में जैनाचार्य के दर्शन एवं प्रवचन श्रवण की उत्कट अभिलाषा हुई और दीवान बलवन्त सिंह जी से कहा-"हमें भी लघुवय के जैनाचार्य के दर्शन कराइए, दरबार में