Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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महाराष्ट्र एवं कर्नाटक की धरा पर
(संवत् १९९५-१९९९)
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स्वामीजी के स्वर्गारोहण के अनन्तर फाल्गुन शुक्ला द्वादशी को आचार्य श्री के निर्देशानुसार महासती बड़े धनकंवर जी, रूपकंवर जी म. आदि सतियों ने मारवाड़ की ओर विहार किया और आचार्य श्री ने अगले दिन महाराष्ट्र की ओर । कसारों के मंदिर से दिलीप नगर, धराड़, विलपांख, वरमावर, मूलथान, बदनावर, कानवन, नागदा को पदरज से पावन करते हुए चैत्र शुक्ला एकम को धारनगर पधारे । तीन प्रवचन करने के पश्चात् देवला, नालछा होते हुए माण्डू के किले में स्थित प्राचीन जैन मन्दिर में विराजे । वहाँ से भगवानियां घाटा, ऊस ग्राम, धामणोद, निबराणी, ठीकरी, खुर्रमपुरा, वरूफाटक, जुल्वाणिया, बालसमुद्र, भोरशाली, सेन्धवा, गवाड़ी, पलासनेर, सांगवी, हाउखेड़, दहीवद सिरपुर, बगाड़ी, जातड़ा, वरसी, नडाणा, करमाणी पधारे। महाराष्ट्र के इस मार्ग का अधिकांश भू भाग पहाड़ी है। भगवानिया घाटा भयानक घाटा है, जिसमें चढ़ाई के साथ-साथ नौ किलोमीटर की ढलान है। ठीकरी ग्राम में | जैनों के दो घर हैं। सेन्धवा में काठियावाड़ी के स्थानकवासियों के सात-आठ घर हैं। आचार्य श्री के प्रवचनों से | यहाँ के जैन धर्मावलम्बियों में अभिनव स्फूर्ति का संचार हुआ। सेन्धवा से सिरपुर के बीच अधिकतर भीलों की बस्ती हैं। इस विहारकाल में श्री तख्तमल जी कटारिया सेवा में साथ रहे। सन्तों को एक ग्राम से दूसरे ग्राम पद-यात्रा करते हुये कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, यह इस यात्रा में सहज अनुभव किया जा सकता था। बीहड़ जंगल, ऊँची पहाड़ियां, अजैन बस्तियाँ, अपरिचित लोग, सभी कुछ प्रतिकूल होने पर भी साध्वाचार के नियमों के प्रति अडिग भाव एवं परिस्थितियों के प्रति समभाव, यह ही तो साधना है। साधु समस्त परीषहों में भी प्रसन्नता का भाव लुप्त नहीं होने देता। कहा गया है- सम-सुह-दुक्ख-सहे य जे स भिक्खू (दशवैकालिक १०.११) जो सुख और दुःख को समभाव पूर्वक सहन करता है, वह भिक्षु है। भिक्षु शान्त होता है एवं अपने कर्तव्य पक्ष को सम्यक् प्रकार से जानता है-'उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू (दशवैकालिक १०.१०)
विहार क्रम में आप अक्षय तृतीया के पावन दिन सोवनगिरि पधारे। यहां एक दिगम्बर जैन मंदिर में विराजे। तदनन्तर धूलिया पधारे। श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाओं द्वारा अगवानी की गई। अहमदनगर के श्रीसंघ के २५ श्रावक प्रमुखों ने अहमदनगर चातुर्मास हेतु प्रार्थना की। धूलिया में स्वाध्याय और तप-त्याग की झड़ी सी लग गई। यहाँ आचार्य श्री के परम भक्त श्री भीकमचन्द जी चौधरी, लालचन्दजी, सेठ मिश्रीमलजी आदि ने सेवा का अच्छा लाभ लिया। यहाँ मनसा, वचसा, कर्मणा संघ-सेवा में समर्पित गुरुभक्त स्व. श्री चन्दनमलजी मुथा के भतीजे श्री मोतीलालजी मुथा दर्शनार्थ पधारे। उनके मन में खेद था, जिसे प्रकट करते हुए आपने गुरुदेव से कहा-“काकाजी की भावपूर्ण विनति के अनुरूप आप श्री तो अत्यन्त कृपा कर विकट परीषहों को सहते हुए महाराष्ट्र पधारे, पर दैवयोग से काकाजी नहीं रहे। आपके इस भूमि पर पदार्पण एवं आपके दर्शन कर वे कितने प्रमुदित होते।” • अहमदनगर चातुर्मास (सं. १९९५)
मालेगांव, मनमाड़ येवला आदि क्षेत्रों को प्रवचन-पीयूष से पुनीत कर आप आम्बोरी, पीपलगांव, भिंगार होते हुए