Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
जुल कर रहें। सावधानता रखते हुये कदाचित् कारणवश क्रोध आ भी जाय तो मुनियों के मन में पानी में खिची हुई। लकीर से ज्यादा उनका टिकाव नहीं होना चाहिये। 'अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति' इस अनुभूत उक्ति के अनुसार क्षमाशील मुनिओं के संसर्ग में क्रोधियों की भी क्रोधाग्नि शान्त हो जाती है। राष्ट्र के महापुरुष गांधी इन्हीं सद्गुणों के कारण जगत्पूज्य हुए हैं। निन्दा और स्तुति में से वे निन्दा की बात को पहले सुनना चाहते थे। सुभाष बोस जैसे क्रान्तिकारी विचारकों के साथ विचार भेद होने पर भी वे मैत्री पूर्ण व्यवहार करते देखे गये। फिर विश्व पूज्य भगवान महावीर के अनुयायी संतों में तो ऐसा आदर्श सहज प्राप्त होना चाहिये, तभी शासन का उत्थान और श्रमणों की वन्दनीयता जगत्-मान्य हो सकती है।
जैन साधुओं के लिये शास्त्र में निर्मंथ या भिक्षु पद का अधिकता से प्रयोग किया गया है। निर्ग्रन्थ या भिक्षु । का मतलब होता है कालान्तर में उपयोग लेने के लिये किसी भी वस्तु का संग्रह कर गांठ नहीं बांधना, किन्तु आवश्यकता उपस्थित होने पर जरूरत के अनुसार वस्त्र, पात्र, अन्न आदि भिक्षा से प्राप्त कर लेना। उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिये जैन साधु मर्यादा के उपरान्त किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं रखते। इसमें मुनियों की सच्ची आत्मनिर्भरता प्रगट होती है। यह मुनियों की कपोतवृत्ति है। जैसे कठिन से कठिन दुर्भिक्ष में भी कबूतर दाना संग्रह नहीं करता अपने श्रम, सामर्थ्य और निश्चय के सहारे जीवन बिताता है, वैसे ही साधु भी वस्त्रादि की दुर्लभता के विचार से अपनी आत्म-निर्भरता नहीं खोते। संग्रह वृत्ति को रोकने के लिये एक यह भी नियम रखा गया है कि साधु अपने वस्त्र, पात्र, पुस्तकादि को स्वयं ही उठाकर चले। किसी भारवाही से नहीं उठवावे और न किसी गृहस्थ के यहां कपाट आदि में बंद कर रखवावे । आवश्यकता से अधिक या संत-सतियों को देने के उपरान्त बची हुई सामग्री को गृहस्थ (श्रावक) के पास अपनापन हटाकर वोसरा देना चाहिये।
इन नियमों को जीवन में अपना कर रहने वाले साधु-साध्वी समूह विशेष के नहीं, जगत् के पूजनीय हो सकते हैं। भाषाज्ञान और व्याख्यान कला से विकल होने पर भी यदि आदर्श चारित्र बल और शुद्ध मनोबल की शक्ति है तो हर समय दुनियां उनके पीछे दौड़ी आयेगी। सत्ताबल से संघबल और संघबल से आत्म-बल अधिक शक्तिशाली है। जमाना चाहे किधर भी चले आपको (साधु-साध्वी वर्ग को) तो जगत् के प्रवाह का मुकाबला करना है। अत: धैर्य और श्रद्धा के साथ संयम में खड़े रहिये और भौतिकवाद एवं बुद्धिवाद के विनाशकारी भंवर से स्वपर को बचाते रहिये । यदि ऐसा हुआ तो संसार सदा मुनिजनों का स्वागत करेगा और वे भी देश के लिये अनुपयोगी सिद्ध नहीं होंगे।”
प्रवचनों के अनन्तर चार माह तक आपका अधिकांश समय शास्त्र-सम्पादन में ही व्यतीत हुआ। पाली का चातुर्मास सम्पन्न कर गोडवाड़ क्षेत्र के अनेक ग्रामों में लोगों को प्रतिबोध देते हुए आचार्य श्री तखतगढ, सादड़ी, गुढा-बालोतरा, आहोर, जालोर, शिवगंज पधारे। ग्रामानुग्राम धर्मजागरणा करते हुए फाल्गुन शुक्ला १२ को जोधपुर पधारे। ___गाँधी मैदान में स्वामीजी श्री सुजानमल जी महाराज प्रभृति सन्तों के साथ होली चातुर्मास किया। बाद में || सिंहपोल विराजकर आप पुन: सरदारपुरा पधारे। यहां पूज्य श्री ज्ञानचन्दजी महाराज की सम्प्रदाय के स्थविर मुनि श्री इन्द्रमलजी म, मुनि श्री मोतीलालजी म. , मुनि श्री लालचन्दजी आदि सन्तों के साथ प्रेमपूर्वक सम्मिलन हुआ। परस्पर में समाचारी को लेकर वार्तालाप हुआ।
चैत्र मास में ही घोड़ों के चौक में स्थिरवास विराजित महासती जी श्री तीजाजी का स्वर्गवास हो गया।