Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
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__चातुर्मासकाल में आचार्य श्री श्रीमालों के उपासरे में थे। एक दिन दया-पौषध में बैठे श्रावकों को रात्रि के समय किसी के धमधमाहट के साथ भीतर आने का सन्देह हुआ और सब चौंक कर चिल्लाने लगे। घबरा से गए। आचार्यप्रवर पाट पर विराजे हुए बोले -“शान्ति से पंच परमेष्ठी का ध्यान करो। घबराने की कोई बात नहीं है।" चमत्कार सा हुआ। किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। लोगों को शक था कि मणिभद्र यक्ष मायावी रूप बनाकर आया है। इस घटना में आत्मिक शक्ति के आगे दैविक-शक्ति पराभूत हुई। देव अपने स्थान पर लौट गया। धमधमाहट विलुप्त हो गई। गुरुदेव के आश्वस्त करने पर सब निर्भय हुए। मेड़ता चातुर्मास में बृहत्कल्पसूत्र एवं गजेन्द्र मुक्तावली भाग २ का प्रकाशन भी हुआ।
चातुर्मासोपरान्त मेड़ता से भोपालगढ़ पधारकर वयोवृद्धा एवं अस्वस्थ महासती श्री बड़े धनकंवर जी म.सा. को मासकल्प दर्शनों का लाभ देकर आचार्य श्री जोधपुर पधारे। इसी समय भोपालगढ़ में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को माताजी महाराज महासती श्री रूपकंवरजी की गुरुणी महासती श्री बड़े धनकंवर जी का स्वर्गारोहण हो गया। आप अतीव भद्रिक, दृढ़ आचारशील एवं मधुर व्याख्यानी सती थीं। देशनोक के समीपस्थ सुरपुरा ग्राम में जसरूपमलजी गोलेछा के यहां जन्मी धनकँवरजी ने रत्नवंश में आगम एवं थोकड़ों की विशेषज्ञा महासती श्री मल्लां जी की निश्रा में भागवती दीक्षा अंगीकार की और गुरुणी जी से शास्त्रों एवं थोकड़ों का अच्छा ज्ञान अर्जित किया। आपको अनेक थोकड़े कण्ठस्थ थे। आपका सान्निध्य पाकर रूपादेवी एवं बालक हस्ती ने वैराग्य की ओर कदम बढ़ाये। यह युग एवं मानव जाति उनकी ऋणी रहेगी कि उन्होंने प्रेरणा कर चरितनायक आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी महाराज जैसा परमयोगी इस समाज को दिया। वृद्धावस्था के कारण महासती १२-१३ वर्षों तक भोपालगढ़ में स्थिरवास विराजीं। आपकी अनेक शिष्याएँ हुईं - १. महासती श्री हरखकँवरजी २. महासती धापू जी ३. महासती किशन कँवर जी ४. महासती धुलाजी ५. महासती रतनकँवर जी ६. महासती रूपकँवर जी ७. महसती चैनकँवर जी ८. महासती उत्तमकँवर जी ९. महासती छोटा हरखु जी १०. महासती नैनाजी।