Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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के साथ मनाया गया । यहाँ कर्णाटक प्रान्त के निवासी साधुमार्गी श्रावकों का सम्मेलन भी हुआ जिसमें कर्नाटक प्रान्त के जैन धर्मावलम्बियों के अभ्युत्थान एवं उत्कर्ष के लिए अनेक निर्णय लेकर कार्यक्रम भी निर्धारित किये गये । गुलेजगढ़ चातुर्मास (संवत् १९९७)
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यहां से इरकल, कुष्ठगी गजेन्द्रगढ़, (ग्रीष्म में भी अठाई आदि तप-त्याग सम्पन्न) गुणाधर, गुडूर, कामन्दगी, | सिरूर, बागलकोट होते हुए आप आषाढ़ शुक्ला नवमी वि.सं. १९९७ के बीसवें चातुर्मासार्थ गुलेजगढ़ पधारे । | मारवाड़ियों, माहेश्वरियों तथा अन्यान्य समाजों के पारस्परिक सहयोग से चातुर्मास सानंद धर्माराधन पूर्वक सम्पन्न हुआ। जैन घरों की कमी कभी नहीं खली । व्याख्यान-स्थल सदैव भरा रहता था। राव साहब लालचन्द जी, प्रतापमलजी गुंदेचा आदि श्रावकों के ८-१० घरों में भी सेवा की व्यवस्था में कोई कमी नहीं रही । बागलकोट | बीजापुर, इरकल आदि समीपवर्ती क्षेत्रों का अच्छा सहयोग रहा। मद्रास संघ की ओर से विनति के लिए शिष्टमंडल | के समाचार मिलने पर उन्हें संकेत करा दिया गया कि वे चातुर्मास की विनति के लक्ष्य से नहीं आएं। मद्रास के | प्रमुख श्री मोहनमलजी चोरड़िया एवं मांगीचंदजी भंडारी की भावनाएँ साकार नहीं हो सकीं ।
यहाँ पंडित दुःखमोचनजी झा के साथ उनके सुपुत्र शशिकान्त झा पहली बार आचार्यश्री की सेवा में आए | और आचार्य श्री द्वारा कृत नन्दीसूत्र की टीका का पुनरालेखन कर पाण्डुलिपि तैयार की।
महासती रूपकंवर अस्वस्थ
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भोपालगढ़ में महासती रूपकंवर जी अस्वस्थ हैं, तथा उन्हें दर्शनों की अभिलाषा है, इन समाचारों के साथ भोपालगढ संघ की विनति को ध्यान में रखकर आप दक्षिण की ओर बढ़ने की अपेक्षा पश्चिम (मारवाड़) की ओर उन्मुख हुए ।
विहार-क्रम से आप बीजापुर पधारे। बीस-पच्चीस घर होते हुए भी वहाँ का संघ प्रभावशाली माना जाता था। प्रेम एवं संगठन का अच्छा वातावरण था । इतिहास बताता है कि वहाँ का राजा 'विज्जन' जैन धर्मावलम्बी था । मन्त्री ने धोखा देकर राज्य पर अधिकार जमा लिया। मान्यता है कि तभी से लिंगायत सम्प्रदाय की स्थापना हुई । यहाँ के गोल गुम्बज आदि स्थल ऐतिहासिक एवं दर्शनीय हैं। सेठ चुन्नीलाल जी रूणवाल, श्री उत्तमचन्दजी रूणवाल | आदि अच्छे श्रावक थे ।
कर्नाटक में प्लेग का आतङ्क
वि.सं. १९९७ के अन्तिम चरण में कर्नाटक प्रदेश के हीनाल, यादगिरि, सोरापुर और रायचूर तक के सैंकड़ों गांव और नगर प्लेग - महामारी की चपेट में आ जाने से आचार्यश्री को मासकल्प तक यहाँ रुकने का आग्रह किया गया। आचार्य श्री इसके पूर्व रायचूर की ओर विहार की अनुमति दे चुके थे । अतः वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे । आपने प्लेग से आतंकित क्षेत्र में धर्म की शरण को ही श्रेष्ठ बताया और धर्म पर अडिग रहने की प्रेरणा दी। शान्त और गम्भीर स्वर में संघ मुख्यों को समझाया - " महामारी के प्रकोप से प्रपीड़ित लोगों को ढाढस बंधाना, इस | विपत्ति को साहसपूर्वक समभाव से सहने की प्रेरणा देना और जिनवाणी के अमृत का अनुपान कराना परमावश्यक है। आप हमारी ओर से निश्चिन्त रहें । सन्तों का प्रादुर्भाव त्रिविध ताप से त्रस्त लोगों को सुख पहुंचाने लिए ही होता है । जीवन-मरण से जूझते उनके लिए अभी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु है धर्म की शरण, सत्संग और सन्तों की
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