Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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दीक्षा महोत्सव पर सम्पूर्ण व्यय भार श्री मोतीलाल जी मुथा ने वहन किया। इस प्रसंग पर श्री मुथा जी के द्रव्य | सहयोग से एक स्पेशल ट्रेन जोधपुर से सतारा आई जिसमें जोधपुर मारवाड़ के अनेक गांवों के लगभग ३०० नर नारी सतारा पहुँचे। महाराष्ट्र के अनेक ग्राम नगरों के श्रावकगण सामूहिक रूप से आये । श्रमण धर्म में दीक्षित हो जाने के पश्चात् श्री जालमचन्द जी का नाम मुनिश्री जोरावरमल जी रखा गया । इन्हीं दिनों जयपुर से कार्तिक शुक्ला १ को बारह गणगौर के स्थानक में महासती श्री अमर कंवर जी के देवलोक हो जाने के समाचार मिले। वे | २९ वर्ष की वय में फाल्गुन शुक्ला २ वि. संवत् १९५९ को श्री जसकंवर जी म.सा. की शिष्या के रूप में सिंहपोल जोधपुर में दीक्षित हुई थी । उन्हें १५०-१७५ थोकड़े कण्ठस्थ थे। तेले के तप में ही आपने विनश्वर देह का त्याग किया । ३८ वर्ष की संयम पर्याय में आपकी पाँच शिष्याएं हुई – सुगनकंवरजी, केवलकंवरजी, स्वरूप कंवरजी, बदनकंवरजी एवं लाडकंवर जी । आप जिज्ञासु बहनों को ज्ञान देने हेतु सदैव तत्पर रहती थी। एक बार उनकी सहवर्तिनी साध्वियों ने मिलकर आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. की सेवा में प्रेमभरा उपालम्भ दिया कि ये अमरकंवर | जी महाराज भोजन को छोड़कर आगन्तुक बहनों को पाठ देने लग जाती हैं। अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि ये भोजन पर बैठने के पश्चात् किसी भी बहन को पाठ देने न उठें, ऐसा नियम करा दें । सतियों की बात सुनकर | आचार्य श्री ने जब महासती जी से पूछा तो बोले - "गुरुदेव ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, पर क्या करूँ मैं विवश हूँ, | मन मानता ही नहीं कि कोई मुझसे आध्यात्मिक ज्ञान सीखने आए और मैं उन्हें ज्ञान-दान नहीं दूँ।” जयपुर चातुर्मास में एक बार साध्वियों ने आहार लाकर आपकी सेवा में रखा, तो आपने देखा कि पात्र में स्थित खीर में बिच्छू है । | महासती जी ने अन्य साध्वियों को बिना बताए उसमें से बिच्छू निकाल कर पाट के एक ओर कोने में रख दिया तथा अपनी लघु साध्वियों से कहा- “ आज मेरी इच्छा है कि सारी खीर मैं ही खा लूँ ।" साध्वियाँ भला अपनी गुरुणी जी की अभिलाषा को क्यों रोकती। महासती जी ने धर्मरुचि अणगार समान अपने भावों को उच्च बनाया एवं | सम्पूर्ण खीर पी गयीं। खीर पीने के पश्चात् आपने साध्वियों को स्पष्ट भी कर दिया था कि उन्होंने यह खीर स्वाद | के कारण नहीं, अपितु बिच्छू गिर जाने के कारण पी है। उन्होंने साथ ही उस गृहस्थ के यहाँ भी सूचना कराने का | निर्देश दिया, कि वहाँ उसका भक्षण कोई न करे । जीव-रक्षा का ऐसा उच्चकोटि का भाव धर्मरुचि अणगार के | पश्चात् यह ही ध्यान में आता है। ऐसी त्याग, सजगता एवं अप्रमत्तता की प्रतिमूर्ति थीं महासती अमरकंवर जी | महाराज । आठ दिन पश्चात् ही कार्तिक शुक्ला ९ को सिंहपोल जोधपुर में महासती लालकंवर जी का स्वर्गवास होने से उन्हें भी चार लोगस्स से श्रद्धाञ्जलि दी गई। आप भी महासती जसकंवरजी की शिष्या थी तथा अधिकतर | महासती अमरकंवरजी के साथ ही विहार व चातुर्मास करती थीं। आपने दीक्षा ग्रहण कर पिता श्री शिवचन्द्र चामड़ जोधपुर के कुल को एवं स्व. पति श्री केसरीमलजी सिंघवी के परिवार को सुशोभित किया। महासती | अनोपकंवरजी, सुगनकंवरजी एवं सूरजकंवरजी आपकी शिष्याएं हुईं।
आचार्य श्री का यह सतारा चातुर्मास बहुत ही यशस्वी रहा । ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं जीवदया के कार्य का अनूठा संगम था। छत्रपति शिवाजी की ऐतिहासिक नगरी सतारा में चातुर्मास सम्पन्न करने के अनन्तर मुनिमंडल के विहार का समय आया, तब कर्नाटक प्रदेश के प्रमुख श्रावक श्री लालचन्दजी मुथा, गुलेजगढ़ वालों ने गुरु चरणों मे अपने क्षेत्र को चरण रज से पावन करने की प्रार्थना की। विनती को ध्यान में ले कर आचार्य श्री का शोलापुर की ओर विहार हुआ। आप | बडूद पारली, देवर साल्या लौणू, नीरा आदि ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए बारामती पधारे। बारामती में कुछ दिन विराज कर | आचार्यश्री ने वहां के अनेक गृहस्थों को धर्म की ओर प्रवृत्त किया । तदनन्तर बारामती से श्री मुन्दा, दौंड आदि अनेक ऐसे ग्रामों में धर्म-प्रचार किया, जहाँ जैन साधुओं का आगमन कठिनाई से ही होता है ।