Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
शरण।” आचार्य श्री की प्रेरणा से महामारी पीड़ित लोगों को आत्मिक शान्ति एवं सम्बल मिला।
अब आचार्यश्री ठाणा ४ से हिनाल, मनगोली, यरनाल, वागेवाड़ी, हिपरिंगी, कोहनूर, तालीकोट सोलडगी, सुरापुर एवं यादगिरि (धोका परिवार प्रमुख कार्यकर्ता था) होते हुए सोरापुर पहुँचे, जहाँ कपड़े वाले तम्बू (छोलदारी) में विराजे । महामारी के कारण वहाँ के लोग किले से निकलकर कपड़े के तम्बुओं में रह रहे थे । अतः सन्तों को भी | उनमें ही ठहराया गया । व्याख्यान आदि हुए। आचार्य श्री के वहां विराजने से स्थानीय लोगों को ऐसी राहत मिली जैसे महामारी उनके यहाँ आई ही न हो । आचार्य श्री द्वारा धर्म शिक्षा की प्रेरणा से वहां के प्रमुख श्रावक श्री मोहनलालजी बोहरा आदि ने शिक्षण शाला खोलने का निर्णय लिया ।
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यहाँ से आचार्यश्री रायचूर पधारे। “जहां जहां पधारे आचार्य श्री, वहाँ वहाँ से भागी महामारी" का ग्रामीणों ने साक्षात् अनुभव किया। आबाल ब्रह्मव्रती महापुरुष के अक्षुण्ण ब्रह्मचर्य व शील का यह साक्षात् प्रभाव था । रायचूर में मांस, मछली एवं मद्य का कई बंधुओं ने परित्याग किया। समाज के प्रमुख श्री दलीचंद सेठ व श्री कल्याणमलजी ने मिलकर ऐसी व्यवस्था कायम की कि प्रातःकाल ९ बजे से पूर्व कोई दुकान नहीं खोलेगा, सब लोग धर्मस्थान में आकर प्रार्थना करेंगे और जब तक आचार्य श्री यहां विराजेंगे, व्याख्यानश्रवण का लाभ कोई व्यापारी नही छोडेगा । इस व्यवस्था में सबको सरलता से संत-सेवा का अवसर मिलता रहा। गुजरात के प्राण शंकर भाई ने भी सेवा का अच्छा लाभ लिया। वहीं कर्नाटकीय-बन्धुओं श्री शंकर और श्री बाजीराव ने भी भक्ति-भावना | का परिचय देते हुए सदा के लिये मांस मछली एवं मद्य सेवन का परित्याग कर दिया। यहां जैन समाज के ३०-३५ | घर होने पर भी संगठन और एक वाक्यता से नगर में मारवाड़ी समाज का अच्छा प्रभाव था । यहाँ सेठ कालूरामजी पुत्र श्री हस्तिमलजी, बस्तीमलजी और श्री चांदमलजी मुथा प्रमुख समाजसेवी थे । जीव दया के क्षेत्र में यहां मुथा | चांदमलजी ने बड़ा काम किया था। श्री पारसमलजी मुथा की जीवदया के कार्य में अभिरुचि थी । श्री कुशलचंदजी भंडारी, श्री मुकन चंदजी, श्री धनराजजी आदि भी अच्छे कार्यकर्ता थे ।
करुणामूर्ति एवं तेजस्वी आचार्य श्री के यहाँ पधारने के पूर्व रायचूर के अनेक लोग नगर से बाहर आत्मरक्षा | हेतु निकल चुके थे, किन्तु जैन लोग शहर के भीतर ही इस विचार के साथ डटे रहे कि गुरुदेव पधारने वाले हैं, अब | हमारा गांव छोड़कर जाना कायरता होगी। हमें तो अब गुरुप्रवर की मंगल छाया में धर्म- ध्यान की सम्यक् आराधना करनी चाहिए। करीब २२ दिनों के प्रवास के बाद आपका वहां से विहार हुआ ।
ग्रामानुग्राम होते गुलबर्गा पधारे। यहाँ ओसवाल समाज
चार-पाँच घर ही थे। आचार्य श्री का यहाँ अधिक ठहरने का भाव नहीं होते हुए भी सेठ हीरालालजी भलगट की धर्मपत्नी ने अठाई के भाव से उपवास का | प्रत्याख्यान कर लिया । सेठजी के अत्याग्रह और बहिन की प्रबल भावना को देख आचार्य श्री वहाँ ९ दिन विराजे । बहिन की तपस्या के उपलक्ष्य में सेठजी ने पीपाड़ में धर्मशिक्षण के लिए पांच हजार रुपये निकाले । इसके अतिरिक्त विभिन्न संस्थाओं को दान दिया। जहाँ अठाई आदि की तपस्या और धार्मिक शिक्षण हेतु दान को बढ़ावा मिला। अल्पसमय में धर्म- ध्यान का ठाट सबके लिए आश्चर्यकारक था । यहाँ से हीरापुर, अकलकोट होते हुए शोलापुर पहुंचने के पूर्व एक रात जंगल में बबूल वृक्ष के नीचे गुजारी।
प्रात:काल बलसंग होते हुए चैत्र कृष्ण तृतीया के दिन शोलापुर पधारे । यहाँ दिगम्बर धर्मशाला में विराजकर धर्म जागरण करने के अनन्तर बालागांव, साब, लेसर, माहोल, येवली होते हुए अनगर के जैन मंदिर में विराजे । फिर माडा, कुरड़वाड़ी, टोपले, सालसे, करमाला, वारसी आदि ग्राम नगरों को पावन किया। वारसी में स्थानकवासी,