Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं मुनिश्री जिस प्रकार आपके गुरुबंधु हैं, मेरे भी बड़े भाई हैं।” स्वामी जी का वि.सं. १९९४ की फाल्गुन शुक्ला एकादशी को संथारापूर्वक देहत्याग हुआ। इस क्षति से वातावरण विषादमय हो गया। अन्तिम यात्रा में रतलाम एवं आस-पास के ग्राम-नगरों के हजारों श्रद्धाालुओं ने भाग लिया। स्वामीजी श्री भोजराजजी महाराज ने विक्रम संवत् १९५८ में दीक्षा ग्रहण कर लगभग ३६ वर्ष संयम पालन किया। उन्होंने तीन आचार्यों आचार्य श्री विनयचन्द्रजी म.सा, आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. एवं आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. की सेवा का लाभ प्राप्त किया। मीठा, तेल, दूध तथा दही के त्यागी स्वामीजी म.सा. ने आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. के अध्ययन में जो अन्य कार्यों से निश्चिन्तता प्रदान की, वह चिरस्मरणीय रहेगी। जब आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. अध्ययनरत रहते थे, तब स्वामीजी भोजराजजी म.सा. आगन्तुक दर्शनार्थियों को दूर से खिड़की आदि में से दर्शन करने के लिये कह देते थे, ताकि अध्ययन में व्यवधान न हो। शान्त, दान्त, सेवाभावी एवं सरलप्रकृति के सन्त स्वामी भोजराजजी को श्रद्धांजलि देते हुए सबकी आँखे नम थीं। आचार्य श्री ने स्वयं अपने संस्मरण में लिखा है -“स्वामी श्री भोजराजजी म. के स्वर्गवास से रत्न श्रमणवर्ग में ही नहीं, पूरे स्थानकवासी समाज में एक सेवाभावी और उच्च विचारक सन्त की कमी | हो गई। स्वामीजी साधु-साध्वी वर्ग के लिए 'धाय माँ ' के समान वात्सल्य भाव में अजोड़ थे।"