Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
व्याख्यान कराइए और महल में पगल्या कराइए।" दीवान कोठारी साहब ने महाराणा की भावना से आचार्य श्री को अवगत कराया। आचारनिष्ठ आचार्य श्री ने दरबार में जाने की स्वीकृति प्रदान नहीं की। दीवान साहब असमंजस की स्थिति में थे। महाराणा को ना करना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हो रहा था, अत: उन्होंने एक युक्ति सोची और गुरुदेव के समीप संदेश भिजवाया - "गुरुदेव ! मैं अस्वस्थ हूँ, कृपया मांगलिक देकर कृतार्थ करें।" आचार्यप्रवर वहाँ पधारे, किन्तु वहाँ दरबार के पधारने की तैयारी देखकर दीवान साहब से बोले - “मेरे सामने भी अन्यथा कहते हो।" आचार्य श्री तुरन्त जिस दिशा से आए थे उसी दिशा की ओर लौट गए। यह घटना आचार्यप्रवर के अनासक्त जीवन की द्योतक होने के साथ इस यशस्विनी रत्नवंश परम्परा के पूर्वाचार्य महापुरुषों के जीवनादर्श कि 'डोकरी के घर में नाहर रो कंई काम' की सहज स्मृति दिला देती है। कहाँ एक ओर अपनी यश प्रसिद्धि के लिये राजा महाराजाओं, सत्ताधीशों को बुलाने का उपक्रम व कहाँ आग्रह होने पर भी ऐसे अवसरों से बचने का भाव। यदि व्यसन-मुक्ति, व मद्यमांस त्याग का प्रसंग हो तो अलग बात है , अन्यथा मात्र यशकामना, प्रशंसा प्रसिद्धि के लिये ऐसे प्रसंगों से परे | रहना इस परम्परा के महापुरुषों की मौलिक विशेषता रही है। महाराणा उनकी इस फक्कड़ता एवं सन्त-स्वरूपता पर मुग्ध थे।
वैज्ञानिक डा. दौलतसिंहजी कोठारी की उपस्थिति में चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र का आचार्य श्री ने टीका सहित वाचन किया। डा. कोठारी के खगोलज्ञान का आगम शास्त्रीय खगोल वर्णन से तुलना का क्रम भी चला। मेवाड़ ही नहीं, अपितु मारवाड़ और सुदूर प्रान्तों के लोग भी बड़ी संख्या में दर्शन और प्रवचन का लाभ लेने आए। • सैलाना की ओर
उदयपुर से कानोड, बड़ी सादड़ी, छोटी सादड़ी होते हुए मालव भूमि में प्रवेश किया और सैलाना पधारे। सैलाना में महाराज दिलीप सिंह जी का राज्य था। यहाँ के दीवान प्यारे किशन जी सत्संग के प्रेमी थे। उन्होंने इस अवसर पर एक विद्वत्सभा का आयोजन किया, जिसे सम्बोधित करते हुए आचार्यश्री ने कहा “आर्यावर्त की प्राचीन अध्यात्मपरक संस्कृति को पुनर्जीवित करने का भार विद्वानों पर है। वे नई पौध में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि लोककल्याणकारी भावनाओं के संस्कार भरकर भारत की भावी पीढ़ी के नैतिक, सामाजिक और धार्मिक धरातल को ऊँचा उठाने का प्रबल प्रयास करें।”
इसी दौरान आचार्य श्री की आज्ञा से जोधपुर के महामंदिर में मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी को श्रीमती फूलकंवर जी (धर्मपत्नी श्री पृथ्वीराज जी भंसाली) की भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई। इन्हें हुलासकँवरजी की शिष्या घोषित किया गया। • स्वामीजी भोजराजजी महाराज का स्वर्गारोहण
सैलाना से जावरा होते हुए आचार्य श्री रतलाम पधारे। महागढ़ से वयोवृद्ध स्वामी श्री भोजराज जी | आचार्यश्री की सेवा में रतलाम आते समय मार्ग में अस्वस्थ हो गए। थोड़े ठीक होते ही स्वामीजी रतलाम पधार गए। विहार और बुखार की दुर्बलता से स्वास्थ्य में विशेष कमजोरी आ गई थी। विशेषज्ञ चिकित्सकों एवं प्रख्यात वैद्य रामबिलासजी द्वारा लगन से उपचार किए जाने पर भी लाभ नहीं हुआ। तप:पूत स्वामीजी को मन ही मन आसन्न अवसान का आभास हो गया था। अत: उन्होंने अपने पास के पन्ने सन्तों को सम्हला दिए। उन्होंने श्री अमरमुनिजी के विषय में भोलावण दी, इस पर चरितनायक ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा-“आप निश्चिन्त रहिए।