Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
७३
सम्मेलन की कार्यवाही को शान्तिपूर्वक संचालित करने हेतु गणिवर्य श्री उदयचन्दजी म.सा. एवं शतावधानी श्री रत्नचंदजी म.सा. को शान्तिरक्षक बनाया गया। मुनि सम्मेलन का मुख्य लक्ष्य पक्खी, संवत्सरी के विवाद को मिटा कर समाज में एक वाक्यता लाना था। परन्तु पूज्य श्री हुकमीचन्दजी म.सा. की सम्प्रदाय के दो पूज्यों के एकीकरण हेतु श्री मरुधरकेशरी जी म.सा. के सत्याग्रह एवं जनता के आंदोलन से मुनि सम्मेलन का अधिक समय उसी में चला गया। अंततोगत्वा धर्मवीर श्री दुर्लभजी एवं सेठ श्री वर्धमान जी पितलिया की सूझबूझ और पूर्ण आग्रह से आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. ने स्वीकार किया कि शतावधानी जी महाराज , पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज और युवाचार्य श्री काशीरामजी म.सा. आदि प्रमुख संत बंद लिफाफे में जो निर्णय देंगे, उसे हम मान्य करेंगे। कुछ काल के बाद शतावधानी जी म.सा. आदि मुनि मंडल ने दोनों आचार्यों के समाधान की घोषणा की। हर्षध्वनि के साथ पूरे संघ में हर्ष व जय जयकार के नारों के साथ आकाश गूंज उठा। दोनों आचार्यों का एक साथ आहार संबंध चालू हुआ।
सम्मेलन का सबसे बड़ा लाभ एक दूसरे से दूर रहने वाले संतों का प्रेम मिलन और पीढियों से बिछुड़े भाइयों का मिलन था। बाल दीक्षा, संवत्सरी पर्व, सचित्ताचित्त विचार एवं प्रतिक्रमण आदि चर्चा के मुख्य विषय थे। समाचारी में कई सर्वमान्य नियमों का निर्णय हुआ।
बाल-दीक्षा पर बहस के बाद उत्सर्ग में १६ वर्ष की आयु नियत की गई। संवत्सरी की एकता के लिये साधु-श्रावकों की एक समिति बना कर उसका निर्णय सर्वमान्य रखा गया। सचित्त अचित्त निर्णय पर भी चर्चा हुई। नाज की चर्चा पर उपाध्याय श्री आत्मारामजी म. के साथ आचार्य श्री का भी नाम था। विचार विमर्श के बाद बीजों | का व्यवहार में संघट्टा टालना तय हुआ। एक प्रतिक्रमण के लिये गठित समिति में श्री छगनलालजी म. श्री सौभाग्यमुनिजी म. एवं पूज्य आचार्य श्री थे। एक प्रतिक्रमण एवं संवत्सरी के प्रतिक्रमण में २० लोगस्स का निर्णय मान्य हुआ। सम्मेलन में एक और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि का कार्य - पंजाब की विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित पगी और परंपरा के भेद का सदा के लिये हल निकालकर पंजाब श्रमण संघ की एकता स्थापित करना था।
सम्मेलन में समागत विविध सम्प्रदायों के ६-७ आचार्यों में रत्नवंश के प्रतिनिधि हमारे चरितनायक आचार्य श्री लघु वय के आचार्य थे फिर भी सब उनका सम्मान रखते थे, उनकी हर बात को ध्यान से सुना गया एवं हर निर्णय में उनकी राय को महत्त्व दिया गया। उनका ज्ञान-वृद्धत्व 'वृद्धत्वं जरसा विना' की उक्ति को सार्थक कर रहा था। संतों में पारस्परिक वात्सल्य, गुणों की कद्र और समाजहित की भावना थी।
सम्मेलन में चरितनायक के अनेक अज्ञात गुण रेखांकित हुए। उनका चिन्तन भी मुखरित हुआ, जैसे -१. बुद्धिमान को चाहिए कि वह उपायों के साथ अपायों (बाधाओं) का भी विचार कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व ही कर ले। २. विवादग्रस्त एवं जटिल बातों के हल विद्वत् समिति से हों। ३. संगठन भेदभाव मिटाता है। मैं बड़ा और मेरी सम्प्रदाय बड़ी की भावना के स्थान पर 'हम सब महावीर के पुत्र हैं और सभी हमारे बांधव हैं।' इस प्रकार का सद्भाव सफलता का द्वार है। ४. कल्याण के कार्यक्रम शास्त्र व लोक से अनुमोदित हों । ५. निष्पक्ष व निरभिमानी को प्रमुख बनाया जाए। ६. चर्चा अथवा वाद में सम्बंधित पक्षों की उपस्थिति आवश्यक है। उनका यह चिन्तन बड़े-बड़े सन्तों को भी सटीक लगा।
___ आचार्यश्री को सम्मेलन की कार्यवाही के लिए 'विषय निर्धारण समिति' का सदस्य, मेवाड़ और मालवा प्रान्त के कार्यवाहक मंत्री, मारवाड़ प्रदेश के ज्ञानप्रचारक मंडल के सदस्य, साधु-श्रावक प्रतिक्रमण विधि, पाठ शुद्धि -