Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं जवांमर्द इस खादिम ने आज से पहले कभी नहीं देखा । दौलत, दानिशमंदी और दिलेरी, इन तीनों की रूहें बहिस्ते से अलविदा कर मानों एक ही जिस्म में उतर आई हैं। हुक्म हो तो हाजिर करूं?”
'नहीं, मैं खुद चलता हूँ' कहते हुए सेनापति अपने कक्ष के द्वार की ओर बढ़ा। नगर श्रेष्ठी को देखते ही 'आदाब' अर्ज करते हुए सेनापति ने अपने दोनों हाथ नगरश्रेष्ठी की ओर बढ़ा दिये। अभिवादन का उत्तर देते हुए नगर श्रेष्ठी ने भी अपना हाथ सेनापति की ओर बढ़ा दिया। सेनापति अपने दोनों हाथ से नगरश्रेष्ठी का हाथ थामे अपने कक्ष के मध्य भाग में रखे सुखासनों की ओर बढ़ा । एक सुखासन पर नगरश्रेष्ठी को बाअदब बिठाया और दूसरे पर स्वयं बैठते हुए सेनापति ने खैर मुकद्दम अनन्तर पूछा-'अकेले ही, इस वक्त शाही सेना के खेमे में तशरीफ आवरी का कारण?
नगर श्रेष्ठी बोला-“निरपराध नर-नारियों और मासूम बच्चों की करुण पुकार मुझे आप तक खींच लाई है। आह अग्निवर्षा की कारण होती है और वाह पुष्प वर्षा की। जिनके घौंसे की धमक से धरती धूजती थी, वे बड़ी-बड़ी जोरो जुल्म करने वाली सल्तनतें भी निर्बलों की आह की आग में जल कर खाक बन गई। उनका नामोनिशां तक सदा-सदा के लिए मिट गया। जिन शासकों पर वाह -वाह की पुष्पवर्षा हुई वे अमर हो गये । आज भी लोग बड़े आदर के साथ उन शासकों का, उन हुकूमतों का नाम लेते हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि शाही खजाना बेगुनाहों के खून से भरा जाएगा या दौलत से? सेनापति नगरश्रेष्ठी के ओजस्वी मुखमंडल पर दृष्टि गड़ाये बड़े ध्यान से सब बातें सुनता रहा। अन्त में सेनापति से नगर श्रेष्ठी ने प्रश्न किया-"कितनी स्वर्ण मुद्राएं चाहिए हुकूमत को? | आपके कोषपाल को मेरे साथ भेज दीजिए। नगरद्वार पर उन्हें आपकी इच्छानुसार स्वर्णमुद्राएं सम्हला दी जायेंगी।"
“क्या सब कुछ आप अपने पास से ही देंगे?” आश्चर्याभिभूत सेनापति ने प्रश्न किया।
सस्मित नगरश्रेष्ठी ने पूर्ववत् गंभीर स्वर में उत्तर दिया-"इसमें आश्चर्य की क्या बात है सेनापति ! मैं जब इस दुनियां में आया तो अपने साथ कुछ भी नहीं लाया। इसी मिट्टी में पला, छोटे से बड़ा हुआ। जिसे धन, वैभव अथवा दौलत कहा जाता है, यह सब इसी मिट्टी से प्राप्त हुआ। जब यहाँ से जाऊंगा तो साथ में कुछ नहीं ले जा सकूँगा। इस मिट्टी से मिली सारी सत्ता और सम्पदा इसी मिट्टी में रह जाएगी।” यदि यह दौलत निरपराध निर्बल अबलाओं, मासूम बच्चों, बूढ़ों एवं अवाम की रक्षा के काम आ जाए तो इससे बढ़कर दौलत का और क्या अच्छा उपयोग हो सकता है?
नगरश्रेष्ठी ने अपने कथन का संवरण करते हुए कहा-“धारनगर चिन्ता के सागर में डूबा हुआ है। नागरिकों के मन, मस्तिष्क में उथल-पुथल मची हुई है। निस्सहाय, निरीह, निर्बलों के प्राण सूखे जा रहे हैं। शीघ्रता कीजिए। अपने सैनिकों और खजान्ची को मेरे साथ भेज दीजिए और बता दीजिए कि मैं आपके खजान्ची के साथ कितनी धनराशि भेज दूं।"
सेनापति ने अपने सैनिक अधिकारी को शाही सेना के कूच की तैयारी का आदेश देते हुए नगरश्रेष्ठी से कहा- आप जैसे फरिश्तों की गैबी रूहानी ताकत के बलबूते पर ही असीम आसमान बिना खम्भों के अधर खड़ा है। आप इस जहान के इंसान नहीं बहिस्त के फरिस्ते हैं। मैं शाही हुक्म से बंधा हुआ हूँ, वरना बिना एक कानी कौड़ी तक लिए ही इसी वक्त फौज के साथ यहाँ से कूच कर जाता। नगर का घेरा उठाने के लिए मैं स्वयं आपके साथ चल रहा हूँ। आप ५००० मोहरें अपने आदमियों के साथ ही पहुंचा दीजिए। आपको तकलीफ करने की जरूरत नहीं है।"