Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं तथा आचार्य श्री की सेवा में सदा रहने के अपने दृढ संकल्प से स्वजनों को अवगत करा दिया। • रामपुरा चातुर्मास (संवत् १९८८)
विहार क्रम से आंतरी, संजीत, चपलाणा, मनासा, कुकडेश्वर आदि क्षेत्रों को फरसते हुए आचार्य श्री ठाणा ३ से रामपुरा पधारे। संवत् १९८८ का चातुर्मास यहाँ की हवेली में हुआ। हवेली के पुराने आंगन में लीलन-फूलन उत्पन्न न हो एतदर्थ विवेकशील श्रावक श्री राजमलजी कडावत ने आंगन में तेल डालकर उसे लीलन-फूलन से पहले ही बचा लिया था। चातुर्मास में आचार्य श्री ने सटीक जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा पुरातन टीकाकार और नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि की वृत्तियों सहित आगमों की वाचनी की। यहाँ पर श्रावक केसरीमलजी सुराणा शास्त्र जानकारी के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें इस वाचना से बहुत प्रमोद हुआ। श्रावकजी प्राचीन धारणा वाले थे। टब्बा वाचन का उन्हें अभ्यास था। आचार्य श्री की दृष्टि अत्यंत पारखी थी। पंजाब निवासी श्रावक ने यहाँ अपने पुत्र कर्मचन्द को आचार्यश्री की सेवा में समर्पित करने की प्रार्थना की। आचार्य श्री ने परख लिया कि वह मुनि दीक्षा के योग्य नहीं
आचार्य श्री से अतीव प्रभावित श्री लक्ष्मीचन्द जी महागढ़ ने श्रावक के १२ व्रत अंगीकार किये। रामपुरा के समाज में भी धार्मिक विकास की लहर दौड़ी। पर्युषण के पश्चात् विट्ठल चौधरी ने अपने स्वप्न के अनुसार आचार्य
श्री के दर्शन कर समाज में धार्मिक पाठशालाएं चलाने के लिए अपनी द्रव्य राशि का दान कर दिया। शिवचन्दजी | धाकड़, बसन्ती लाल जी नाहर और राजमलजी सुराणा भी अच्छे सेवाभावी श्रावक थे।
____ चातुर्मास पश्चात् चरितनायक कुकडेश्वर से मनासा होते हुए कंजार्डा पधारे। यहाँ पर भाई पूनमचन्दजी अच्छी लगन वाले स्वाध्यायशील श्रावक थे। संघ में धर्म-भावना का अच्छा उत्साह था। तदुपरान्त रतनगढ़, खेरी होते हुए | सिंगोली पधारे। यह पहाड़ी प्रदेश में आया अच्छा धार्मिक क्षेत्र है। प्रवचन-प्रेरणा के माध्यम से धर्मजागृति कर वहां से बेगू, कदवासा जाट कणेरा आदि गांवों में विचरकर जावद हवेली में विराजे । ऐसे विकट बीहड़ पहाड़ी प्रदेश में भी जैन सन्त उपदेशामृत का पान कराने पधारते हैं, यह श्रावकों द्वारा साश्चर्य अनुभव किया गया। पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी म.सा. का स्वर्गवास इसी जावद ग्राम में हुआ। स्थानीय संघ की गौरवगाथा स्मरणीय और अनुकरणीय है। कणेरा से जावद का मार्ग एकदम सुनसान, भयावह एवं विकट है। इसमें सन्तों के साथ चल रहे पं. दुःखमोचन |जी झा के कोमल मन में झाडी के पत्तों की खड़खड़ को सुनकर ऐसा अनुभव हुआ -“शेर कहता है मैं खाऊँ और चोर कहता है मैं आऊँ।” ऐसे विकट रास्तों पर भी निर्भय निर्द्वन्द्व पाद विहार, इस बात के प्रमाण हैं कि चरितनायक वय एवं पद की दीर्घता की दृष्टि से भले ही लघु थे, पर उनका आत्मबल उनका तप-तेज कितना महान् था। यहाँ से सैलाना विहार हुआ, जहां सैलाना नरेश के धर्मानुराग एवं दीवान प्यारेकिशन जी की प्रबल विनति से राजभवन में आचार्यश्री के प्रवचन का आयोजन अत्यंत प्रेरणादायी रहा। ..
रतलाम संघ की संयुक्त विनति की स्वीकृति के अनुरूप आचार्य श्री रतलाम नगर पहुंचे, जहां संघ के नर-नारी यह शुभ समाचार सुन अत्यंत हर्षित हुए। प्रथम प्रवचन में ही आचार्यश्री ने भगवान महावीर के विश्वबंधुत्व का संदेश देश-विदेश के कोने-कोने में पहुंचाने की प्रेरणा देते हुए 'मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझं न केणई' के संदेश को अंगीकार करने की प्रेरणा करते हुए कहा-"संसार के सभी प्राणी मेरे मित्र हैं, मेरा किसी से वैर-विरोध नहीं है।" उस समय मालव प्रदेश के प्रमुख धार्मिक केन्द्र रतलाम नगर श्री संघ के तीन धड़ों में हुए बिखराव का भी आचार्यश्री के प्रभाववश समन्वय हुआ, जिससे रतलाम संघ के हर्ष का पारावर नहीं रहा। समत्वसाधक, प्राणिमात्र