Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
आत्म-हत्या तु सावेशा, राग-रोष-विमिश्रिता।
समाधिमरणं तावत्, समभावेन तज्जयः ।। संथारा पूर्वक समाधिमरण तो राग-द्वेष आदि पर विजय प्राप्ति की साधना है। इसे आत्म-हत्या समझना भ्रान्ति है। आत्महत्या जहाँ कषायपरिणति का फल है, वहाँ संथारा ग्रहण करना कषाय विजय की साधना की ओर कदम है। संथारा विवेकपूर्वक विषय-कषायों की उपशान्ति में देह के अन्तिम समय को जानकर ग्रहण किया जाता है, जबकि आत्मघात या आत्महत्या अविवेक पूर्वक, विषय-कषायों से आविष्ट होकर कभी भी की जा सकती है। आत्महत्या जहाँ छिपकर तथा विवशता में की जाती है वहाँ संलेखना-संथारा देव, गुरु एवं धर्म की साक्षी से, चतुर्विध संघ के समक्ष स्वेच्छा से ग्रहण किया जाता है। आत्महत्या से जहाँ अनन्त संसार बढ़ता है वहाँ संलेखना-संथारा संसार-चक्र को घटा कर सद्गति को प्राप्त कराता है। वीर साधक मृत्यु को निकट आया जानकर पण्डित मरण से उसका वरण करने को तत्पर रहते हैं, क्योंकि उससे सैकडों जन्मों के बन्धन कट जाते हैं एवं मरण सुमरण बन जाता
इक्कं पंडियमरणं छिण्णइ जाइसयाई बहुयाई।
तं मरणं मरियव्वं जेण मओ सुम्मओ होइ॥-महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक. ४९ एक उपवास में कष्टानुभव करने वाले मुनि श्री सागरमलजी महाराज ५९ दिनों का सुदीर्घ संथारा समाधिभाव में पूर्ण कर वि. संवत् १९८५ की श्रावण कृष्णा १३ को इस नश्वर देह को छोड़कर महाप्रयाण कर गए। भक्तों ने बड़े समारोह से दाह संस्कार किया। उनकी पुण्यस्मृति में सबकी सहमति से एक पाठशाला खोलकर मांसभोजी घरों के बालकों को शिक्षा के माध्यम से अहिंसा के संस्कार देना तय हुआ। यह पाठशाला किशनगढ में अद्यावधि 'सागर जैन पाठशाला' के नाम से चल रही है। अपने सुदीर्घ सेवाकाल में सागर जैन विद्यालय से हजारों छात्र-छात्राओं ने अध्ययन किया है। इसमें बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के बच्चों को एक साथ बिठाकर अध्ययन कराया जाता है। . किशनगढ चातुर्मास (संवत् १९८५)
जीवनभर के लिए औषधि त्याग करने वाले सागरमुनिजी का संथारा चातुर्मास प्रारम्भ होने के १३ दिन बाद तक चला, अत: विक्रम संवत् १९८५ का वर्षावास किशनगढ़ में सम्पन्न हुआ। किशनगढ एवं मदनगंज के भाइयों ने धर्माराधन का पूरा लाभ लिया। वर्षावास के अनन्तर चरितनायक मदनगंज, हरमाड़ा होते हुए जयपुर पधारे, तो वहाँ के श्रीसंघ के हर्ष का पारावार नहीं रहा। विज्ञ श्रावकों ने अनेक प्रकार की जिज्ञासाएँ प्रकट कर सन्तवृन्द से समाधान प्राप्त किया। फाल्गुन शुक्ला १० को श्री बिदामकंवर जी की भागवती दीक्षा ब्यावर में महासती धनकंवरजी म.सा. की निश्रा में सम्पन्न हुई। यहाँ से मारवाड़ का पथ लेते हुए अजमेर, मसूदा होकर चरितनायक ब्यावर पधारे, जहाँ आपश्री के व पूज्य मोतीलाल जी म. मेवाड़ी के व्याख्यान संयुक्त रूप से रायली कम्पाउण्ड में हुए।
__ब्यावर में अगले वर्ष के चातुर्मास हेतु जयपुर और भोपालगढ़ के श्रावकों की पुरजोर विनति थी। बढ़ते उत्साह से भोपालगढ़ ने अधिक व्रत-नियम, पौषध करना स्वीकार कर चातुर्मास की स्वीकृति प्राप्त कर ली। • भोपालगढ़ चातुर्मास (संवत् १९८६)
चरितनायक का विक्रम संवत् १९८६ का चातुर्मास ठाणा ५ से भोपालगढ़ की उस धरा पर हुआ जो स्वनाम