Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
धन्य आचार्य श्री रत्नचन्द जी म.सा. की क्रियोद्धार स्थली रही है। रत्नवंशीय श्रमण-परम्परा के अनुरूप चरितनायक का स्वागत हुआ तथा अत्यंत उल्लासपूर्वक ज्ञान, तप और अध्यात्म की त्रिवेणी में जनमानस आप्लावित रहा। यहां बालक, युवक, वृद्ध सभी में अपार उत्साह था। जहाँ एक ओर स्थानीय श्रावक पूरे उत्साह से धर्मध्यान में भाग ले रहे थे, वहीं निकटवर्ती क्षेत्रों के भक्तजन भी त्याग व तप के साथ अपना योगदान कर रहे थे। श्री पनराजजी बाफना रजलानी, श्री चुन्नीलालजी सेठिया धनारी एवं मूलजी विश्नोई बुचेटी ने अठाई तप कर भक्ति का परिचय दिया। दया, पौषध, पंचरंगी का ठाट रहा। धर्मज्ञ सुश्रावक श्री जोगीदासजी बाफना एवं कुन्दनमलजी चोरड़िया ने तत्त्वचर्चा में अच्छा रस लिया। जालमचन्दजी बाफना, गजराजजी ओस्तवाल, घेवरचन्दजी कांकरिया आदि कार्यकर्ताओं का सेवा-व्यवस्था में काफी रस था। श्री जवरी लाल जी कांकरिया आदि तरुण धूम्रपान आदि व्यसनों के विरोध में शिक्षाप्रद संवाद एवं नाट्य प्रस्तुत कर अपने उत्साह का परिचय दे रहे थे। भोपालगढ़ के प्रवासी नागरिक श्री विजयराजजी भीकमचन्दजी कांकरिया एवं श्री लूणकरणजी ओस्तवाल आदि भी बम्बई से आकर सेवा-लाभ ले रहे थे। गच्छीपुरा, बासनी, गारासनी, हरसोलाव, बारनी, नाडसर, हीरादेसर, खांगटा आदि आस-पास के क्षेत्रों के दर्शनार्थी भी सन्त-सेवा एवं धर्माराधन का लाभ ले रहे थे।
भोपालगढ़ से विहार कर चरितनायक संघ-व्यवस्थापक स्वामी जी श्री सुजानमल जी म.सा. के नेतृत्व में बारणी, हरसोलाव, खांगटा आदि क्षेत्रों को चरणरेणु से पावन करते हुए पीपाड़ नगर पधारे। मुनि श्री लाभचन्द्रजी, लालचन्द्रजी और चौथमल जी भी अजमेर चातुर्मास सम्पन्न कर पीपाड़ पधारे।
चरितनायक हस्तीमुनि के तलस्पर्शी अध्ययन, विनय एवं अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न व्यवहार, आचार निष्ठा आदि गुणों से चतुर्विध संघ संतुष्ट था। आचार्य पद के योग्य सभी ३६ गुणों से उन्हें सुसम्पन्न अनुभव किया जा रहा था - पाँच महाव्रतों एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वीर्य नामक पंचाचारों का पालन , पंचेन्द्रिय - विजय, क्रोधादि चार कषायों का परिहार, नववाड़ सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन, पांच-समिति एवं तीन गुप्तियों का निरतिचार पालन करने के साथ उनमें अष्टविध सम्पदाएं भी परिलक्षित हो रही थी। उन्नीस वर्ष से भी कम वय के चरितनायक में प्रौढ आचार्य की परिपक्वता दिखाई पड़ती थी। तात्पर्य यह है कि वे आचार्य के योग्य गुणों से सुशोभित एवं संघ संचालन के लिए सर्वथा सक्षम थे।