Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
आचार्य श्री का जहाँ-जहाँ विहार होता, हर गली, हर डगर पर ग्राम हो या नगर यह नारा गूंजता
गुरु हस्ती के दो फरमान
सामायिक स्वाध्याय महान्। सन्तों को देखकर कई नये गांवों में ग्रामीण बन्धु, जाट, गुर्जर, अहीर विश्नोई, माली जैसे खेतिहर लोग सन्तों को मुँहपत्ती बांधे देख उनके वेश-परिधान पर आश्चर्य व्यक्त करते, पर जैसे ही गुरुदेव के सम्पर्क में आकर उन्हें सच्चे धर्म का रंग चढता तो वे सन्तों की सेवा में लग जाते और आगे से आगे जाकर सन्तों का परिचय कराते।
गुरुदेव के कदम जिस रफ्तार से मार्ग तय करते थे, उससे सहस्रगुणी गतिशीलता (तीव्र गति) से उनका | | चिन्तन अध्यात्म की ऊँचाइयों को छूता था। उन सरीखा अप्रमत्त जीवन उनका ही था। एक क्षण भी प्रमाद में नहीं गंवाते थे। अध्ययन-मनन, वाचन, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग उनके जीवन की धुरी बन गए और परिधि में था जनहित।
विहार काल और चातुर्मास प्रवास में आपका सम्पर्क अनेक सम्प्रदायगत यतियों, संन्यासियों, संतों, साधुओं, आचार्यों आदि से हुआ। परस्पर सौहार्द का स्रोत प्रवाहित हुआ। धर्म और समाज के उन्नायक विषयों पर घंटों वार्तालाप हुआ। मन-मुटाव के प्रसंगों का प्रक्षालन हुआ। शास्त्रज्ञान के संवर्धन के उपायों पर विचार-विमर्श हुए। पाण्डलिपियों अथवा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पडे ज्ञान के संचित कोश के भण्डारण और उपयोग का लक्ष्य साधा गया। काल और परिस्थितियों के प्रभाववश शिथिल होते श्रमणाचार और श्रावकाचार की सुदृढ़ समाचारी के लिए दृढ़तापूर्वक नेतृत्व कर आचार्य श्री ने सत्पथ प्रवर्तन किया। सत्ता, सम्पत्ति और शरीर की क्षणभंगुरता का दिग्दर्शन कराकर संयम मय जीवन यात्रा का पथ प्रशस्त किया।
विचरण-विहार एवं वर्षावास के दौरान जहाँ भी गुरुदेव के चरण पड़े, उसे उन्होंने अपना क्षेत्र समझा और वहाँ के लोगों ने भी उनकी चरणरज से अपने क्षेत्र को पावन एवं अपने आपको धन्य समझा। सम्प्रदाय विशेष के आचार्य होते हुए भी सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद एवं तेरे-मेरे की परिधि से वे सदैव परे रहे। वे स्वयं फरमाया करते थे–“जब तक इस सफेद चदरिया में दाग नहीं है, तब तक हर क्षेत्र एवं हर श्रावक हमारा अपना है।” चरितनायक ने | जिनशासन की सेवा को मुख्य लक्ष्य बनाया। सम्प्रदाय के आचार्य पद को उन्होंने पूज्य गुरुदेव द्वारा सौंपा गया दायित्व मात्र समझा, जिसका निर्वाह करते हुए अपने आपको उन्होंने जिनशासन का सेवक ही माना।