Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं स्वाध्याय की सीख देकर जनकल्याण का महनीय कार्य किया।
जनकल्याण की भावना से ही आचार्य प्रवर ने अनेकविध प्रत्याख्यानों का प्रसाद प्रवासकाल में जन-जन को वितरित किया। गुरुदेव का यह स्वभाव था कि वे जिसकी जो पात्रता होती थी, तदनुरूप ही उसे दोष- प्रत्याख्यान (त्याग) के लिए प्रेरित करते । इस क्रम में उन्होंने सहस्रों व्यक्तियों को शिकार, जुआ, मद्य, मांस, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट आदि का त्याग करा कर उनके जीवन को उन्नत बनाया। इससे जैन और अजैन सभी जातियों के परिवार लाभान्वित हुए। इनमें हरिजन परिवारों से लेकर ठाकुर परिवारों के सदस्य भी सम्मिलित थे।
आचार्य श्री को जब यह ज्ञात हो जाता कि अमुक व्यक्ति में अमुक प्रकार का व्यसन है तो वे अवसर देखकर उस व्यक्ति में त्याग की ऐसी भावना जागृत करते कि व्यक्ति स्वयं हाथ जोड़कर प्रत्याख्यान स्वीकार करने के लिए तत्पर हो जाता। प्रायः चेहरा देखकर ही वे व्यक्ति के व्यसनों और दुर्गुणों का अनुमान कर लेते थे। क्रोधी
और अभिमानी व्यक्ति के स्वभाव को पहचानकर वे बड़े दुलार के साथ उसके इन विकारों को कम करने का उपाय सुझाते थे। जब उन्हें यह विदित होता कि अमुक व्यक्ति रिश्वत, अनीति और अनुचित साधनों से धन उपार्जन करता है तो वे उसे भी प्रेमपूर्वक समझाकर नीति मार्ग पर लाने का प्रयास करते थे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि कई व्यक्तियों ने आचार्य श्री के समक्ष रिश्वत न लेने का संकल्प किया। इसी प्रकार कई व्यापारियों और उद्योगपतियों ने आत्म-शान्ति के लिए परिग्रह-परिमाण व्रत को अंगीकार कर प्राप्त धनराशि का कुछ अंश कल्याणकारी प्रवृत्तियों | में लगाने का संकल्प किया। गुरुदेव का लक्ष्य व्यक्ति का आंतरिक परिवर्तन करना रहा।
अधिकाधिक लोगों का हित हो सके, इस दृष्टि से आचार्य श्री ग्रामानुग्राम विचरण करने में तत्परता बरतते थे। विहार में जन-जन को आचार्यश्री के प्रत्यक्ष दर्शनों का लाभ प्राप्त होता था और साक्षात् संयममूर्ति के द्वारा जब कोई प्रेरणा की जाती, तो निश्चय ही वह दर्शक और श्रोता समुदाय पर प्रभाव छोड़ती और वे श्रोता-दर्शक जन अपने आपको धन्य समझ कर गुरुदेव के श्रीमुख से सुनी हुई बात पर अमल करने का प्रयास करते। इस दृष्टि से आचार्य श्री के व्यापक विहार अत्यंत उपयोगी रहे।
विचरण एवं विहारकाल में ही जन-जन द्वारा निर्दोष साधुजीवन चर्या को देखने और परिग्रह शून्य साधु -जीवन के आनंद को आत्मसात् करने, समझने, जानने का सुअवसर प्राप्त होता है। अनुकरण करना, व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक गुण है और उससे प्रेरित हो साधुजन के सम्पर्क से योग्य पात्र में वैराग्य की जागृति भी सम्भव होती है। इस प्रकार वैराग्य भाव का प्रसार भी विहार चर्या का प्रतिफल है। ___आचार्य श्री ने विहार के कष्टों की परवाह किए बिना अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को अनदेखा कर | कंकरीले कण्टकाकीर्ण दुर्गम विषम मार्गों पर मौसम के प्रभावों से विचलित न होते हुए 'साधु तो रमता भला' लोकोक्ति को चरितार्थ किया। मार्ग में बिवाइयां फट जाती, आहार-पानी प्राप्ति में अनेक बाधाएं आती, भूख-प्यास परीषह, सर्दी-गर्मी सभी में समभाव से रहते। कई रातें पेड़ों के नीचे बरामदे या तबेलों में टूटी-फूटी हवेलियों में भी बितानी पड़ी, किन्तु आपश्री का लक्ष्य अपनी संयमयात्रा को दोषमुक्त रखते हुए अधिकाधिक लोगों को महावीर का संदेश सुनाकर उस पर आचरण से जीवन को उन्नत कराना था। संयम, सामायिक और स्वाध्याय से जन-जन को उन्नत पथ पर अग्रसर करते और उनसे कहते कि इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा -
जीवन उन्नत करना चाहो तो सामायिक साधन कर लो। आकुलता से बचना चाहो तो सामायिक साधन कर लो।