________________ नैषधीयचरिते - व्याकरण-संवाद्यम् समुद्यते इति सम् + Vवद् + ण्यत् / आतिथ्यम् अतिथि + व्यञ् / परस्परम् इसके लिए पीछे श्लोक 51 दे खए। केलिः /केल् ( क्रीडायाम् ) + इन् / रस: रस् + अच् ( भावे)। अनुवाद-वे दोनों ( नल-दमयन्ती ) रूप-सम्पदा में ( असली से ) सभी तरह मिलते-जुलते, ( अतएव ) अत्यन्त आनन्द देने वाले मिथ्यात्मक एक-दूसरे को देखकर मिथ्यात्मक न समझते हुए क्रीडा का आनन्द लेने से निवृत्त नहीं हो सके // 54 // टिप्पणी-दोनों के मोह वश कल्पनात्मक रूप असली-जैसे ही थे, इसलिए जिस तरह असली रूप में एक-दूसरे का स्पर्श करके वे आनन्द लिया करते थे, वैसे ही कल्पनात्मक रूपों में भी परस्पर काल्पनिक स्पर्श से उन्हें असली का-सा स्वाद आ जाता था। ध्यान रहे कि श्लोक 51 से लेकर कवि ने यहां नलदमयन्ती के जो असली और भ्रमात्मक चित्रों का विश्लेषण किया है, वह वास्तव में एक दार्शनिक प्रश्न है। भ्रम के सम्बन्ध में दर्शनकारों की विभिन्न विप्रतिपत्तियाँ हैं। सांख्य लोगों का सख्यातिवाद है अर्थात् शुक्ति (सीप) पर जो रजत की ख्याति (प्रतिभास ) होती है, वह सत् की ही होती है। बौद्ध असख्यातिवादी, नैयायिक अन्यथा-ख्यातिवादी, वेदान्ती अनिर्वचनीय-ख्यातिवादी और मीमांसक अख्यातिवादी होते हैं। प्रकृत में श्रीहर्ष मीमांसकों का अख्यातिवाद लेकर चले हैं अर्थात् 'शुक्तौ रजतम्' में रजत प्रातिाभसिक नहीं, बल्कि सत्य ही है, क्योंकि यहां का ग्रहण और स्मरण-दोनों ही ज्ञान सत्य हैं ! इसी तरह नल-दमयन्ती के भ्रमात्मक रूप सत्य ही है। हम यहाँ संकेत-मात्र कर रहे है। अधिक गहराई में जाना छात्रों के लिए अप्रासङ्गिक ही होगा। विद्याधर यहाँ काव्यलिङ्ग कह गये हैं / 'मलीक' 'मालोक्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। परस्परस्पर्शरसोर्मिसेकात्तयोः क्षणं चेतसि विप्रलम्भः / स्नेहातिदानादिव दीपिकाचिनिमिष्य किंचिद्विगुणं दिदीपे // 55 // अन्वयः -- परस्पर...सेकात् तयोः चेतसि विप्रलम्भः स्नेहातिदानात् दीपिकाचिः इव क्षणम् किञ्चित् निमिष्य द्विगुणम् दिदोपे / टीका-परस्परस्य अन्योन्यस्य यः स्पर्शः त्वगिन्द्रयेण ग्रहणम् (ष० तत्पु०) तेन यः रसः अनुरागः ( 'गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः ) ( तृ० तत्पु० ) यस्य