________________ नवमः सगः 413 अनुवाद- "हे चन्द्रमुखी ( दमयन्ती)! ( तुम पर ) इन्द्र का अनुराग होने के कारण अन्य स्त्रियों की अवहेलना के साथ मैं तुम पर बड़ा भारी आदर-भाव रख रहा हूं। (किन्तु) ऐसे ( पतिरूप में इन्द्रप्राप्तिरूप ) श्रेय के सामने रहते . ( उससे ) मुंह फेरे हुए तुम ( अपने प्रति मेरा ) वह आदर भाव खो बैठी हो" // 40 // में तुम्हारे लिए बड़ा संमान उत्पन्न हो रहा था, लेकिन उसे ठुकराती हुई तुम्हें पाकर तुम्हारी मूर्खता पर मुझे दुःख हो रहा है। तुम्हारे लिए मेरे हृदय में अब कोई संमान नहीं रहा"। पीछे श्लोक 38 में कवि ने जिस 'कदुष्णम् अक्षरम्' का प्रयोग किया है, वह यही है। विद्याधर 'अत्र काव्यलिङ्गसहोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं। काव्यलिङ्ग तो ठीक है, क्योंकि आदर भाव समाप्त होने का यहां कारण बना रखा है, किन्तु उनकी सहोक्ति समझ में नहीं आ रही है / सहोक्ति के लिए मूल में अतिशयोक्ति का होना आवश्यक है। सह शब्द आ जाने मात्र से 'रामः सीतया सह बनं गतः' की तरह सहोक्ति नहीं हुआ करती है। 'वहेऽवहे' में यमक, 'मुखी मुखी' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है॥ 40 // दिवौकसं कामयते न मानवी नवीनमश्रावि तवाननादिदम् / कथं न वा दुर्ग्रहदोष एष ते हितेन सम्यग्गुरुकापि शम्यते // 41 // अन्वयः-मानवी दिवौकसम् न कामयते-इति इदम् नवीनम् तव आननात् अश्रावि / एष ते दुर्ग्रहदोषः हितेन गुरुणा अपि कथं वा सम्यक् न शम्यते ? टीका--मानवी मानुषी दिवौकसम देवम इन्द्रम न कामयते अभिलषति, इति इदम् एतत् नवीनम् अभूतपूर्वम् विचित्रमिति यावत् वच इति शेषः तव ते आननात् मुखात् अश्रावि श्रुतम् / इन्द्रःखलु उत्तमा देवयोनिः, त्वं च मध्यमा इति भावः, एष अयम् ते तव दुर्ग्रहः दुष्टः ग्रह आग्रहः ( प्रादि स० ) दुराग्रह इत्यर्थः अथ च दुष्टग्रहः शनिसूर्यादिः (निर्बन्धोपरागादियो ग्रहाः' इत्यमरः ) एव दोषः ( कर्मघा० ) अथ च दुर्ग्रहकृतदोषः (मध्यमपदलोपी स० ) हितेन हितकांक्षिणा आप्तेनेत्यर्थः, अथ च अनुकूलेन गुरुणा पित्रादिना अथ च वृहस्पतिना