________________ 536 नैषधीयचरिते Vवृ + क्त (करणे ) सम्प्रसारण / अवकोर्णी अवकीर्णम् अस्यास्तीति अवकीर्ण + इन् (मतुबर्थ), अवकीर्णम् अव कृ + क्त ( भावे) = ब्रह्मचर्यनियममुल्लङ्य शुक्रस्य विकिरणम् / यद्यपि अवकीर्णी शब्द मूलतः ब्रह्मचर्य-व्रत भंग करने वाले के लिए प्रयुक्त होता है, देखिए मनु--'अवकीर्णी भवेद् गत्वा ब्रह्मचारी तु योषितम्'। ( 33155) तथापि साधारणतः कोई भी धार्मिक व्रत भंग करने वाले में भी यह प्रयुक्त हो जाता है / अनुवाद-"इन्द्र के शस्त्र ( वज्र ) तक के भी भय से संरक्षण देना जो शस्त्रधारियों का प्रार्थी-साधारण व्रत हुआ करता है फूल के बाण से भी मेरी रक्षा न करते हुए, ( अतएव ) नियम भंग करने वाले तुम्हारा वह ( व्रत ) टूट गया है // 150 // टिप्पणी-कालिदास ने भी क्षत्रियों का व्रत 'क्षतात् किल त्रायत' इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः' कहा है। और तो और रहा, वे इन्द्र के वज्र तक के क्षत' से भी शरणागत की रक्षा करते हैं। एक तुम भी क्षत्रिय हो, जो इन्द्र के वज्र से रक्षा करना तो दूर रहा, काम के फूल के बाण तक से भी मेरी रक्षा नहीं कर सक रहे हैं। यह भी दमयन्ती की नल पर बड़ी चुभती फबती है। विद्याधर यहाँ भी “अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कह गए हैं। हमारे विचार से 'हेतेरपि' 'बाणादपि' में दो अर्थापत्तियों की संसृष्टि है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 150 // तवास्मि मां घातुकमप्युपेक्षसे मुषामरं हाऽमरगौरवात्स्मर / अवेहि चण्डालमनङ्गमङ्ग ! तं स्वकाण्डकारस्य मधोः सखा हि सः / / 151 // __ अन्वयः-( अहम् ) तव अस्मि; भाम् घातुकम् अपि मृषामरम् स्मरम् अमरगौरवात् उपेक्षसे अङ्ग ! तम् अनङ्गम् चण्डालम् अवेहि, हि सः स्वकाण्डकारस्य मधोः सखा ( अस्ति)। टीका-अहम् तव त्वदीया अस्मि, तथापि त्वम् माम् धातुकम् हन्तारम् मृषा मिथ्या अमरम् देवम् ( सुप्सुपेति समासः ) स्मरम् कामम् अपरेषु गौरवम् अमरविषयक-महत्त्वम् तस्मात् ( स० तत्पु० ) उपेक्षसे उपेक्षां नयसि, मिथ्यादेवम् स्मरम् तारिवकदेवबुद्धया आद्रियसे, न मारयसि चेति भावः / अङ्ग इति संबोधनम् तम् अनङ्गम् कामम् चण्डालम् चण्डालजातीयम् अन्त्यजविशेषमिति