________________ 544 नैषधीयचरिते उतारू हो रहा है अर्थात् वसन्त ऋतु आते ही दमयन्ती में नलविषयक काम ( अनुराग) भड़ककर उसे तड़पाने लगा। और मार ही डाले जा रहा है / इसी लिए सखी कह रही है कि उसके मर ही जाने पर संसार में है नल ! तुम्हारा यह अपयश फैल जाना है कि तुमने प्रियतमा के प्राण जाने दिए, लेकिन उसे अपनाया नहीं। इसी बात को लेकर कवि ने दमयन्ती के हृदय में नल के काम को मूर्त रूप देकर उस पर चण्डाल की कल्पना की है कि वह दमयन्ती के प्राण ले ले / चण्डाल जल्लाद होता है, जिसे राजा लोग किसी 'वध्य' को मार डालने की आशा देते हैं ( 'बध्यांश्च हन्युः सततं यथाशास्त्रं नृपाशया' ) 'शास्त्रानुसार चण्डाल अछूत है, अतः उसका स्पर्श और दर्शन भी निषिद्ध है। परिचय-चिह्न के रूप से उसकी कनिष्ठ अंगुली काट दी जाती है। इसी से वह अनङ्ग अर्थात् अंगुली कट जाने से विकृताङ्ग हुआ रहता है / वन में स्वयं मद्य पीकर और किसी मद्यप को साथ लेकर 'वध्य' पुरुष के घर प्रविष्ट हो वह उसके प्राण ले लेता है। हमारे विचार से यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक "किंनु' है और जो श्लेषानुप्राणित है। विद्याधर अतिशयोक्ति कह रहे हैं क्योंकि यहाँ विशेषणों में अभेदाध्यवसाय हो रखा है। मल्लिनाथ गम्योत्प्रेक्षा मान रहे हैं। 'विष' 'विशि' 'मधु' 'मधि' 'हरति' 'हरित' में छेक, 'स्पृश्यते' 'दृश्यते' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सर्गान्त मे छन्द बदल देने के नियमानुसार यहाँ कवि 'मन्दाक्रान्ता' का प्रयोग कर रहा है, जिसमें 16 वर्ण होते हैं और जिसका लक्षण यह है-मन्दाक्रान्तांबुधिरमनगैर्मों भनी तो गयुग्मम् ( म, भ, न, त, त, ग, ग, / 4, 6, 7, में यति ) अथ भीमभुवैव रहोऽभिहितां नतमौलिरपत्रपया स निजाम् / अमरैः सह राजसमाजगति जगतीपतिरभ्युपगत्य ययौ // 157 // अन्वयः-अथ जगतीपतिः भीमभुवा एव रहः अभिहिताम् निजाम् अमरैः सह राजसमाजगतिम् अभ्युपगम्य अपत्रपया नत-भौलिः ( सन् ) ययो। टोका-अथत दनन्तरम् जगत्याः जगतः पतिः स्वामी राजा नल: (10 तत्पु ) भीमः एतदाख्यो राजा भूः उत्त्पत्तिस्थानम् ( कर्मधा० ) यस्या तथाभूतया (ब० बी० ) भैम्याः एव रहः एकान्ते निभृतमित्यर्थं अभिहिताम् उक्ताम् निजाम् स्वकयाम् अमरैः देवैः सह राज्ञां समाजः मण्डलम् (10 तत्पु० )