Book Title: Naishadhiya Charitam 03
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र नेपधीय-चरितम् VINIA मोहनदेव प मोतीलाल बनारसीदास / दिल्ली। काराणसी-४ पटना Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविश्रीहर्षप्रणीतं नैषधीयचरितम् 'छात्रतोषिणी'-टीका सहित विस्तृत-टिप्पणी-मूमिका हिन्दीभाषानुवादोपेतच्च [ षष्ठ से नवम सगं तक ] टीकाटिप्पणीकारो हिन्दीभाषानुवादकश्व श्रीमोहनदेवपन्तः अम्बालास्कन्धावारस्य-दीवान-कृष्णकिशोरसनातनधर्म-संस्कृत महाविद्यालयस्य सेवालियानाच मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली : पटना : वाराणसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ©मोतीलाल बनारसीदास प्रधान कार्यालय : बंगलो रोड, जवाहरनगर, दिल्ली .. शाखाएँ : 1. सोक राजपथ, पटना (बिहार) 2. चौक, वाराणसी ( उ० प्र०) प्रथम संस्करण : वाराणसी, 1979 मूल्य : रु० 18.00 श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, चौक, वाराणसी द्वारा "प्रकाशित तथा सूरज प्रसाद मुख, राजेश प्रिंटिंग वसं, त्रिलोचनबाट, वाराणसी-१ द्वारा मुद्रित / Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते षष्ठः सर्गः दूत्याय देत्यारिपतेः प्रवृत्तो द्विषां निषेद्धा निषधप्रधानम् / स भीमभूमीपतिराजधानी लक्षीचकाराथ रथस्य तस्य // 1 // अन्वयः-अथ तस्य दैत्यारिपतेः दूत्याय प्रवृत्तः ( सन् ) द्विषाम् निषेद्धा स निषध-प्रधानं भीम 'धानी रथस्य लक्षीचकार / टीका - अथ = दौत्यस्वीकारानन्तरम् / तस्य = प्रसिद्धस्य / दैत्यानां - दानवानाम् / ये अरयः शत्रवः = प्रतिद्वन्द्विनः देवा इत्यर्थः तेषाम् / पत्युः = स्वामिनः इन्द्रस्येत्यर्थः ( उभयत्र प० तत्पु० ) दूत्याय = दूतकर्मणे। प्रवृत्तः = उद्यतः सन् द्विषाम् = शत्रूणाम् / निषेद्धा = निवारकः शत्रुहन्तेत्यर्थः / स प्रसिद्धो। निषधानाम् = निषधाख्य-जनपदस्य / प्रधानम् अधिपः = निषधेशो नल इत्यर्थः (10 तत्पु० ) भीमः एतदाख्यो / भूमीपतिः = नृपः ( कर्मधा० ) भूम्याः पतिः इति (10 तत्पु० ) तस्य / राजधानीम् = नगरीम् (10 तत्पु० ) / रथस्य = स्यन्दनस्य / लक्षोचकार= लक्ष्यमकरोत् कुण्डिनाख्यां नगरी प्रति जगामेत्यर्थः / व्याकरण-दैत्याः दितेः अपत्यानि पुमांस इति दिति + ण्यः / दूत्यम् दूतस्य भावः कर्म वेति दूत + यत् / यद्यपि यह वैदिक प्रयोग है, तथापि लोक में भी इसको कवियों ने प्रयुक्त कर रखा है। द्विषाम् द्वेष्टीति /द्विष् + क्विप् / निषेद्धा निषेधतीति नि + षिध् + तृच / कर्तरि)। निषषप्रधानम् मल्लि० ने प्रधान: पाठ दिया है किन्तु 'क्लीबे प्रधानं प्रमुख०' इस अमरकोष के अनुसार विशेष्यभूत प्रधान शब्द नित्य नपुंसक ही हुआ करता है। हां, 'सः' का विशेषण बना लें तो आपत्ति नहीं उठती। अन्वय 'निषधप्रघानः सः' यों कर लें। मल्लि० आदि ने रथस्य तस्य के स्थान में 'रथस्यवरय' पाठ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि 'तस्य' को 'दैत्यारिपतेः के साथ जोड़ने में आसत्ति नहीं रहती, क्योंकि वह बहुत दूर पड़ा हुआ है। रथस्य लक्षीचकार-'रथस्य' शब्द 'लक्ष' का विशेषण बना हुआ है अर्थात् रथ-सम्बन्धी लक्ष, जिसके साथ 'च्वि' प्रत्यय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते लगने से तद्धित-वृत्ति ही रखी है / यह 'सविशेषणानां वृत्तिन, वृत्तस्य च विशेषणयोगो न' इस नियम के विरुद्ध है। यहाँ या तो 'रथस्य लक्षं चकार' या 'रथ. लक्षीचकार' ही उचित है। अनुवाद-इसके अनन्तर उस इन्द्र के दौत्य में प्रवृत्त हुए, शत्रुओं को भगा देने वाले निषध-नरेश ( नल) ने भीम राजा की राजधानी ( कुण्डिनपुरो) को रथ का लक्ष्य बनाया // 1 // टिप्पणी-यद्यपि राजा नल इन्द्र ही नहीं प्रत्युत वरुण आदि देवताओं के भी दूत थे किन्तु इन्द्र के प्रधान होने से कवि ने यहाँ इन्द्र का ही उल्लेख किया है। इसलिए इन्द्र शब्द उपलक्षण-मात्र है / 'दूत्या' 'दैत्या' 'निषे' निष' 'भीम' 'भूमी' तथा 'राथ' 'रथ' में छेक, 'रथस्य' 'तस्य' में पदगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / इस सर्ग में इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा का सम्मिश्रण-रूप उपजाति छन्द है। इसके प्रत्येक पाद में ग्यारह अक्षर होते हैं। इन्द्रवज्रा का लक्षण 'तो जगीगः' (त, त, ज, ग, ग) और उपेन्द्रवज्रा का 'प्रथमे लघी सा' है अर्थात् उपेन्द्रवजा का प्रथम अक्षर लघु होता है, बाकी सब इन्द्रवज्रा के ही अक्षर रहते हैं। भैम्या समं नाजगणद्वियोगं स दूतधर्मे स्थिरघीरधीशः। पयोधिपाने मुनिरन्तरायं दुरिमप्योर्वमिवौवंशेयः // 2 // अन्वयः-स्थिरधीः सः अधीशः दूत-धर्म भम्या समम् दुर्बारम् अपि वियो. गम् और्वशेयः मुनिः पयोधि-पाने दुर्वारम् अपि ओर्वम् इव अन्तरायम् न अजगणत् / टीका-स्थिरा = दृढा / धीः = बुद्धिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी०) दृढनिश्चय इत्यर्थः / सः / अषीशः - राजा नलः / दूतस्य धर्मः = कर्तव्यम् तस्मिन् ( ष. तत्पु० ) दूतरूपेण स्वकर्तव्ये इत्यर्थः / भैम्या = भीमपुत्र्या दम. यन्त्या / समम् = सह ( साकं सत्रा समं सह इत्यमरः ) दुर्वारम् दुःखेन वारयितु शक्यम् अपि वियोगम् = विरहम् / और्वशेयः = उर्वशी-पुत्रोऽगस्त्यः ( और्वशेयः= कुम्भयोनिरगस्त्यो विन्ध्यकण्टकः' इति हलायुधः) मुनिः= ऋषिः / पयोधेः = समुद्रस्य / पाने = पानविषयीकरणे ( 10 तत्पु० ) दुर्वारम् = दु: दुष्टं वाः = पारि येन तथाभूतम् / ( प्रादि ब० वी० ) अपि / और्वम् = वडवानलम् / इव = अन्तरायं - विघ्नम् बाधकमिति यावत् / न अजगणत् = न गणयामास / वचन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः बद्धो नलो दुःसहमपि दमयन्तीवियोगं देवानां दूतकर्मनिवहि बाधकं नामन्यत, वियोगं विषह्य दौत्यं चकारेति भावः // 2 // व्याकरण-स्थिर तिष्टतीति/स्था + किरच् / अघोशः अधिकम् ईष्टे इति अधि + /ईश् + कः। और्वशेयः उर्वश्याः अपत्यं पुमान् इति उर्वशी + ढक् / दुर्वार दुः+/+ णिच् + खल् / 'मुनिः कस्मात् ? मननात्' इति यास्कः / पयोधिः पयांसि धीयन्तेऽत्रेति पयस् + /धा + कि ( अधिकरणे ) / औवं ऊरोः भव इति ऊरु + अण् / अन्तरायः अन्तरे मध्ये एति इति अन्तर + / + अच् ( कर्तरि ) / __ अनुवाद-दृढ़-निश्चयी उस राजा नल ने दूत-धर्म ( निभाने ) में दमयन्ती के साथ ( हमेशा के लिए ) वियोग को, यद्यपि वहाँ दुर्वार्य ( असह्य ) था, इस तरह बाधक नहीं समझा जैसे उर्वशी के पुत्र अगस्त्य ऋषि ने समुद्र-पान करने में वाडवानल को बाधक नहीं समझा, यद्यपि वह दुर्वाय ( उससे जल दूषित हो रखा ) था // 2 // टिप्पणो-यद्यपि नल इन्द्र का दूत बनकर अपने हाथ से दमयन्ती को हमेशा के लिए खोने जा रहे थे, तथापि उन्होंने दूत-धर्म में आंच नहीं आने दी और अपने उस बड़े भारी नुकसान की परवाह नहीं की क्योंकि वे वचन दे चुके थे / इसकी तुलना अगस्त्य मुनि से की गई है, अतः उपमा है, जो दुर्वार शब्द में श्लिष्ट है। विद्याधर हेतु अलंकार भी मानते हैं, क्योकि यहाँ अन्तराय और वियोग के रूप में कारण-कार्य का अभेद बताया गया है। ‘रधी' 'रधी' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अगस्त्य द्वारा समुद्र-पान के सम्बन्ध में सर्ग 4 का श्लोक 51 और और्व अथवा वडवानल के सम्बन्ध में श्लोक 48 देखिए। अगस्त्य उर्वशी के पुत्र थे। इस सम्बन्ध में कहते हैं कि एक समय परम रूपवती उर्वशी नामक अप्सरा को देखकर मित्र और वरुण देवों का वीर्य स्खलित हो गया, जिसका कुछ भाग एक कुम्भ ( घड़े ) में और कुछ भाग जल में गिर गया। कुम्भ में गिरे हुए भाग से अगस्त्य का और जल में गिरे हुए भाग से वशिष्ट का जन्म हुआ। अगस्त्य को इसीलिए कुम्भज, कलशयोनि, घटोद्भव, पौवंशेय आदि नामों से पुकारा जाता है। नलप्रणालीमिलदम्बुजाक्षीसंवादपीयूषपिपासवस्ते / तदध्ववीक्षार्थमिवानिमेषा देशस्य तस्याभरणीबभूवुः॥ 3 // Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-नलप्रणाली.."पिपासवः ते तदध्व-वीक्षार्थम् इव अनिमेषाः ( सन्तः) तस्य देशस्य आभरणीबभूवुः / टीका-नलः एव प्रणाली पयःपदवी जलनिर्गमनमार्ग इति यावत् ( 'द्वयो? प्रणाली पयसः पदव्याम्' इत्यमरः ) ( कर्मधा० ) तया मिलत् आगच्छत् (तृ. तत्पु० ) यत् अम्बुजाक्षीसंवादपीयूषम् ( कर्मधा० ) अम्बुजाक्ष्याः अम्बुजे कमले इव अक्षिणी ईक्षणे ( उपमान तत्पु० ) यस्याः तथाभूतायाः (ब० बी० ) य: संवादः वृत्तान्तः समाचार इति यावत् (10 तत्पु० ) एव पीयूषम् अमृतम् ( कर्मधा० ) तत् पिपासवः पातुमिच्छवः ( मधु-पिपासुवत् द्वि० तत्पु० ) ते इन्द्रादयो देवाः तस्य नलस्य अध्वनः मार्गस्य वीक्षार्थम् अवलोकनाय (ष० तत्पु० ) वीक्षाय इति चतुर्थ्यर्थ अर्थेन सह नित्यसमासः इवेत्युत्प्रेक्षायाम् अनिमेषाः न निमेषः नेत्रनिमीलनम् येषां तथाभूताः ( नन ब० वी० ) सन्तः तस्य देशस्य स्थानस्य यत्र तैः नलो दृष्ट आसीत् आभरणीबभूवुः अलंकारतां ययुः अर्थात् नलद्वारा आनीयमानं दमयन्त्याः समाचारं ज्ञातुमिच्छन्तः इन्द्रादयः तस्मिन् एव स्थाने तस्थुः, यत्र तेषां नलेन मिलनमभूत् // 3 // व्याकरण-प्रणाली प्रणल्यते अनयेति प्र+ /नल + घन ( करणे ) + ङीष् / अम्बुजम् अम्बुनि जायते इति अम्बु + जन् + डः। संवादः सम् +1 वद् + घम् ( भावे ) / पिपासवः पातुमिच्छव इति /पा+ सन्, द्वित्व, उ: ( कर्तरि)। वीक्षा वि + ईक्ष + अच् + टाप् / निमेषः नि + मिष् + घन् / आभरणीबभूवुः बनाभरणानि आभरणानि सम्पद्यमानानि बभूवः इति आभरण + च्विः , दीर्घ + /भू + लिट् / अनुवाद-नल-रूपी नाली से आने वाले कमलाक्षी ( दमयन्ती) के समाचार-रूपी अमृत के पान के इच्छुक वे ( देवता) उसकी वाट जोहने के लिए मानो बिना आँखें झपके उस स्थान को अलंकृत करते रहे ( जहाँ उनकी नल से भेंट हुई थी ) // 3 // टिप्पणी-जब तक नल दमयन्ती से उनकी प्रार्थना के उत्तर में सूचना नहीं ले आते तब तक उन्होंने यही उचित समझा कि 'वे आगे न बढ़ें, वहीं टिके रहें, जहाँ नल उन्हें मिले थे। वैसे देवताओं की आँखें स्वभावतः झपकती नहीं हैं किन्तु कवि ने यहाँ यह कल्पना की है कि मानो नल की वाट जोहने हेतु उनकी आँखें नहीं झपकी। इस तरह यह उत्प्रेक्षा है जिसका नल पर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः प्रणालीत्व और संवाद पर पीयूषत्व के आरोपों से होने वाले रूपक के साथ संसृष्टि है, संकर नहीं, जैसा विद्याधर मान रहे हैं / रूपक भी उक्त आरोपों में परस्पर कार्य कारण भाव होने से परम्परित है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। तां कुण्डिनाख्यापदमात्रगुप्तामिन्द्रस्य भूमेरमरावतीं सः। मनोरथः सिद्धिमिव क्षणेन रथस्तदीयः पुरमाससाद // 4 // अन्वयः-तदीयः स रथः भूमेः इन्द्रस्य कुण्डिना...... "गुप्ताम् अमरावतीम् ताम् पुरम् मनोरथः सिद्धिम् इव क्षरणेन आससाद / टीका-तस्य अयम् इति तदीयः तत्सम्बन्धी नलीय इत्यर्थः स रथः स्यन्दनः भूमेः क्षितेः इन्द्रस्य मघोनः भीमस्येत्यर्थः (10 तत्पु०) कुण्डिनम् इति या आख्या नाम ( कर्मधा० ) तस्याः पदम् वाचकशब्दः (10 तत्पु० ) . एवेति तन्मात्रम् तेन गुप्ताम् प्रच्छन्नाम् (तृ० तत्पु०) अमरावतीम् इन्द्रपुरी ताम् प्रसिद्धाम् पुरम् पुरीम् मनोरथः तपोवताम् अभिलाषः सिद्धिम् निष्पत्तिम् पूर्तिमिति यावत् इव क्षणेन पलेन आससाद प्राप्तवान् , क्षणमात्रे कुण्डिनपुर्या प्राप्तो नलरथस्य अतिवेगवत्त्वं ध्वन्यते // 4 // व्याकरण-तदोयः तत् + छ, छ को ईय / आख्या आख्यायतेऽनयेति आ +ख्या + अ + टाप् / गुप्त गुप् + क्तः ( कर्मणि)। सिद्धिः/सिध् + क्तिन् ( भावे ) / आससाद आ + /सद् + लिट् / अनुवाद - उस ( नल ) का वह रथ पृथिवी के इन्द्र (भीम) की कुण्डिन नाम-मात्र से छिपी हुई अमरावती-रूप प्रसिद्ध राजधानी को पल भर में इस तरह प्राप्त हो गया जैसे ( तपस्वियों का) मनोरथ क्षणभर में सिद्धि को प्राप्त हो जाया करता है // 4 // . टिप्पणी-यहां भीम नरेश पर इन्द्रस्व का और कुण्डिनपुरी पर अमरावतीत्व का आरोप होने से रूपक है जो परम्परित के भीतर आता है / रूपकं के साथ 'सिद्धिमिव' से बनने वाली उपमा की संसृष्टि है। शब्दालङ्कार वृत्यनुप्रास है। भैमोपदस्पर्शकृतार्थरथ्या सेयं पुरीत्युत्कलिकाकुलस्ताम् / नपो निपीय क्षणमोक्षणाभ्यां भशं निशश्वास सुरैःक्षताशः॥ 5 // अन्वयः-'भैमी..... रथ्या सा इयम् पुरी' इति उत्कलिकाकुल: नृपः ताम् ईक्षणाभ्याम् क्षणम् निपीय सुरैः क्षताशः ( सन् ) भृशम् निशश्वास / Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते ___टीका-भीमस्यापत्यं स्त्री भैमी दमयन्ती तस्याः पदयोः चरणयोः स्पर्शन सम्पर्केण ( उभयत्र ष० तत्पु०) कृतार्थाः कृतः अर्थः यया तथाभूता ( ब वो०) सफला धन्येत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) रथ्या प्रतोली, मार्ग इति यांवत् (कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) अर्थात् यत्र दमयन्ती विचरति सा इयम् एषा पुरी नगरी अस्तीति शेषः इति उत्कलिकया उत्कण्ठया आकुल: बाक्रान्तः ( तृ० तत्पु० ) नृपः राजा नलः ताम् नगरीम् ईक्षणाभ्याम् नयनाभ्याम् क्षणम् मुहूर्तम् निपीय सादरं वीक्ष्येत्यर्थः सुरैः देवैः क्षता क्षयं नीता आशा दमयन्ती विषयकाभिलाषः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) सन् भृशम् अत्यर्थम् यथा स्यात्तथा निशश्वास विषादे दीर्घनिश्वासान् मुमोचेत्यर्थः / पूर्व तु नलो 'दमयन्तीमहमत्र द्रक्ष्यामीति' विचार्य समुत्सुकोऽभवत् , किन्तु 'सा देवान् वरिष्यतीति मनसि कृत्वा स परमं विषादं प्राप्त इति भावः // 5 // व्याकरण-भैमी भीम + अण ( अपत्यार्थे ) + ङीप् / रथ्या रथं वहतीति रथ + यत् + टाप् / निपीय इसके लिए सर्ग 1 का श्लोक 1 देखिए / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति /ईक्ष् + ल्युट् ( करणे ) / सुरैः इसके लिए सर्ग 5 का श्लोक 34 देखिये। अनुवाद-दमयन्ती के पाद-स्पर्श से धन्य बनी गलियों वाली यह वह नगरी है'-इस विचार से उत्सुकता-पूर्ण हुए राजा ( नल ) ने थोड़ी देर नयनों से ( नगरी को) आदरपूर्वक देखकर (बाद में ) देवताओं के हाथों हताश हो खूब लंबी आहे खींचौं // 5 // टिप्पणी-प्रेयसी की नगरी में पहुंच कर भला कौन-सा प्रेमी हृदय में उत्कण्ठित न हो ? नल का भी यही हाल था, किन्तु 'अरे, मैं तो प्रेमी बनकर नहीं प्रत्युत देव-दूत बनकर आया हूँ'-यह याद आते ही उनकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया। यहाँ उत्कण्ठा और आहें भरने का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है। विद्याधर के अनुसार यहाँ उत्कण्ठा और विषाद नामक भावों के संमिश्रण से भाव-शबलता नामक रसवत् अलङ्कार है। शब्दालङ्कारों में से 'कलि' 'कुल', 'नृपो' 'निपी', 'क्षण' 'क्षणा' में छेक और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। स्विद्यत्प्रमोदाश्रुलवेन वामं रोमाञ्चभृत्पक्ष्मभिरस्य चक्षुः / अन्यत्पुनः कम्प्रमपि स्फुरत्त्वात्तस्याः पुरः प्राप नवोपभोगम् // 6 // Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अन्वयः-प्रमोदाश्रु-लवेन स्विद्यत् , पक्ष्मभिः रोमाञ्चभृत् ( च ) अस्य वामम् चक्षुः, पुनः स्फुरत्त्वात् कम्प्रम् अपि अन्यत् (दक्षिणं चक्षुः ) तस्याः पुरः नवोपभोगम् प्राप। ____टीका--( दमयन्त्या नगर्या दर्शनात्) प्रमोदेन आनन्देन यः अश्रण: वाष्पस्य (तृ० तत्पु० ) लवः लेशः (ष. तत्पु०) तेन स्विद्यत् स्वेदयुक्तं भवत् , ( तथा ) पक्षमभिः नेत्रलोमभिः नेत्रलोमरूपेणेति यावत् रोमाञ्चं बित्ति धारयतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) रोमाञ्चयुक्तमिति यावत् अस्य नलस्य वामम् सव्यं चक्षुः नेत्रम् , पुनः तथा स्फुरतो भावः स्फुरत्त्वम् तस्मात् स्फुरणरूपेणेत्यर्थः कम्प्रम् कम्पनशीलम् , वेपथुयुक्तमिति. यावत् अपि अन्यत् वामेतरम् अर्थात् दक्षिणम् चक्षुः अपि तस्याः प्रसिद्धायाः पुरः नगर्या कुण्डिनपुर्या इति यावत् नवः नूतनः प्रथम इत्यर्थः यः उपभोगः सङ्गमः सोक्षात्कार इत्यर्थः तम् ( कर्मधा० ) प्राप प्राप्तमकरोत् / नलस्य द्वयोरपि वाम-दक्षिण-चक्षुषोः प्रेयस्याः कुण्डिनपुर्याः प्रथम-साक्षात्कारे स्वेद-रोमाञ्च-वेपथुरूपेण सात्त्विकभावाः प्रादुरभवन्निति भावः / / 6 // ____ व्याकरण-प्रमोदः प्रकृष्टो मोद इति प्र + / मुद् + घञ् ( भावे ) / स्विद्यत् /स्विद् + शतृ नपुं० / रोमाञ्चः रोम्णाम् अञ्चः ( उद्गमनम् ) इति रोम + अञ्च् + घञ् / भृत् भृ + विप् ( कर्तरि / / स्फुरत्त्वात् / स्फुर् + शतृ + त्व ( भावे ) / कम्प्रम् कम्पितुं शीलमस्येति /कम्प् + र: (ताच्छील्ये ) / ___ अनुवाद-( नगरी को देखकर ) आनन्द के अश्रु-कण के रूप में स्वेद ( पसीना ) छोड़ता हुआ ( तथा ) वरोनियों के रूप में रोमाञ्च धारण किये इस ( नल ) का बायाँ चक्षु एवं ( स्वेद और रोमाञ्च के अतिरिक्त ) फड़कने के रूप में कँपकँपी भी रखता हुआ दूसरा-दायाँ-चक्षु भी उस नगरी के प्रथम साक्षात्कार का आस्वाद ले रहा था // 6 // टिप्पणी-प्रेयसी के साथ पहली मुलाकात' में प्रेमी को स्वेद, रोमाञ्च और वेपथु आदि सात्त्विक भाव होना स्वाभाविक ही है। प्रकृत में प्रेयसी बनी कुण्डिनपुरी और प्रेमी बने नल के बायें-दायें चक्षु / आनन्दाचकण पर स्वेदत्व का, वरोनियों पर रोमाञ्चत्व का और स्फुरण पर वेपथुत्व का आरोप किया गया है। पुरी और चक्षुओं पर स्त्री और पुरुष का व्यवहार-समारोप होने से यहाँ समासोक्ति है, जिसका रूपक के साथ अङ्गाङ्गिभाव-संकर है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैष गेयचरिते किन्तु कवि भूल गया है कि यहां चक्षु नपुंसक होकर पुंस्त्व-प्रतीति में बाधक बना हुआ है। नपुंसक को भला क्या सात्त्विक भाव होते हैं। शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है। स्फुरत्त्वात-दक्षिण चक्षु का स्फुरण बताकर कवि की यहाँ यह ध्वनि है कि नल अपने 'दूत्य-कर्म' में सफल नहीं होंगे और दमयन्ती किसी भी देवता का वरण न करे अन्ततः नल का ही वरण करेगी। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार पुरुष का दक्षिण नयनस्फुरण शुभ सूचक होता है। रथादसौ सारथिना सनाथाद्राजावतीर्याथ पुरं विवेश / निर्गत्य बिम्बादिव भानवीयात्सौधाकरं मण्डलमंशुसङ्घः // 7 // अन्वयः-अथ असी राजा सारथिना सनाथात् रथात् अवतीर्य अंशु-सङ्घः भानवीयात् बिम्बात् निर्गत्य सौधाकरम् मण्डलम् इव पुरम् विवेश / टीका-अथ तदनन्तरम् असौ राजा नल: सारथिना सूतेन सनाथात् नाथेन सहितात् ( ब० वी० ) अधिष्ठितात् सहितादिति यावत् रयात स्यन्दनात् अवतीयं अवरुह्य अंशूनाम् किरणानां सङ्घः समूहः ( ष. तपु० ) भानवीयात् सौरात् बिम्बात मण्डलात् निर्गत्य निःसृत्य सौधाकरम् चान्द्रम् मण्डलम् बिम्बम् इव पुरम् कुण्डिननगरम् विवेश प्राविशत् / यथा सूर्यमण्डलात् निःसृत्य किरण-समूहः चन्द्रमण्डलं प्रविशति, तथैव नलोऽपि रथादवतीर्य पुरं प्रविष्टवानिति भावः // 7 व्याकरण-सारथिः रथेन सहितोऽश्व इति सरथः तत्र नियुक्त इति सरथ + इन् / भानवीयात् भानोरयमिति भानु + छ:, छ को ईय / सौधाकरम् सुधाकरस्येदमिति सुधाकर + अण् / / अनुवाद-तदनन्तर वह राजा ( नल ) सारथि-सहित रथ से उतरकर इस तरह पुर में प्रविष्ट हुए जैसे किरण-समूह सूर्य-मण्डल से निकलकर चन्द्रमण्डल में प्रविष्ट होता है / // 7 // टिप्पणी-यहाँ रथ से उतरकर नल के पुर में प्रवेश की तुलना सूर्यमण्डल से उतरकर सूर्यकिरण समूह की चन्द्रमण्डल में प्रवेश से की जाने से उपमा है / भारतीय नक्षत्रविदों को बहुत पहले यह ज्ञात हो गया था कि चन्द्रमा में जो प्रकाश है, वह उसका अपना नहीं बल्कि वह उसे सूर्य से प्राप्त होता है। यास्काचार्य ने इस पर प्रमाण दिया है -'सुषुम्णः सूय-रश्मिः, चन्द्रमा गन्धर्वः' अर्थात् सुषुम्ण नाम की सूर्य की रश्मि चन्द्रमा को प्रकाशित करती है / इसीलिए चन्द्रमा को 'गन्धर्व' = गाम् = सुषुम्णनामकसूर्यरश्मिं धरतीति कहते हैं / ज्योतिषशास्त्र भी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठः सर्गः कहता है-'सलिलमये शशिनि रवेर्दीधितयो मूछितास्तमो नैशम् / क्षपयन्ति दर्पणोदरनिहिता इव मन्दिरस्यान्तः // शब्दालंकारों में 'रथा' 'रथि' छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। चित्रं तदा कुण्डिनवेशिनः सा नलस्य मूर्तिर्ववृते नदृश्या। बभूव तच्चित्रतरं तथापि विश्वैक दृश्यैव यदस्य मूतिः // 8 // अन्वयः–तदा कुण्डिनवेशिनः नलस्य सा मूर्तिः नदृश्या ववृते ( इति ) चित्रम्; तथापि अस्य मूतिः विश्वकदृश्या एव यत् बभूव, तत् चित्रतरम् / टीका-तदा तस्मिन् समये कुण्डिनवेशिनः कुण्डनपुरीं प्रविष्टस्य नलस्य सा सौन्दर्ये प्रसिद्धा मूर्तिः कायः नदृश्या न द्रष्टु योग्येति ( सुप्सुपेति समासः) अदर्शनारे असुन्दरीति यावत् ववृते जातेति, चित्रम् आश्चर्यम्, सुन्दरी मूर्तिः असुन्दरी जातेति विरोधः तत्परिहारस्तु नदृश्या दृग्विषयातीतेति 'भूयादन्तधिसिद्धेः' ( 5 / 137 ) इत्यनुसारेण लोकलोचनागोचरीभूता, अन्तहितेति यावत् जाता / तथापि अन्तहितत्वेऽपि अस्य नलस्य मूर्तिः कायः विश्वस्य निखिलसंसारस्य (ष० तत्पु० ) एका केवला दृश्या दृग्गोचरीभूता ( कर्मधा० ) एव यत् बभूव जाता तत अतिशयेन चित्रमिति चित्रतरम अधिकाश्चर्यम्, अन्तहिता सर्वलोकलोचनप्रत्यक्षा चेति विरोधः, विश्वस्मिन् संसारे नलमूर्तिः एकमात्रसुन्दरीति तत्परिहारः, तादृशसौन्दर्यस्य लोकेऽन्यत्राभावात् // 8 // ___ व्याकरण-कुण्डिनवेशिनः कुण्डिनं विशतीति कुण्डिन + /विश् + णिन् / मूर्तिः मूर्च्छति ( निश्चिताकारं गृह्णाति ) इति मूर्छ + क्तिन् / दृश्या द्रष्टु योग्येति दृश् + क्यप् + टाप् / ववृते /वृत् + लिट् / चित्रतरम् चित्र + तरप् / अनुवाद-आश्चर्य है कि कुण्डिनपुरी में प्रविष्ट हुए नल का वह ( प्रसिद्ध सुन्दर ) शरीर अदृश्य-असुन्दर-बन गया, नहीं, नहीं अदृश्य-अन्तर्ध्यान हो गया। इसमें भी अधिक आश्चर्य यह कि अदृश्य-अन्तर्धान होता हुआ भी उसका शरीर विश्वभर को एकमात्र दृश्य-प्रत्यक्ष-ही रहा, नहीं नहीं, विश्वभर में एकमात्र दृश्य-सुन्दर-ही रहा / / 8 / / टिप्पणो-यहाँ कवि ने दृश्य शब्द में श्लेष रखकर विरोधाभास की छटा दिखाई है / दृश्य का एक अर्थ सुन्दर और दूसरा चक्षुग्राह्य होता है / इन्द्र द्वारा दी हुई इच्छानुसार अदृश्य हो जाने की शक्ति से नल एकदम नगरी के भीतर प्रवेश करते ही अदृश्य अर्थात् अन्तर्धान हो गये। अदृश्य शब्द का दूसरा अर्थ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अर्थात् असुन्दर लेकर कवि ने विरोध खड़ा कर दिया। इस तरह यहाँ दो विरोधाभासों की संसृष्टि है / "चित्रं 'चित्र' तथा 'मूर्तिर्' 'मूतिः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। जनैर्विदग्धर्भवनैश्च मुग्धैः पदे पदे विस्मयकल्पवल्लीम् / 'तां गाहमानास्य चिरं नलस्य दृष्टिर्ययो राजकुलातिथित्वम् // 9 // अन्वयः - विदग्धः जनैः मुग्धैः भवनैः च पदे पदे विस्मय-कल्पवल्लीम् ताम् चिरम् गाहमानस्य अस्य नलस्य दृष्टिः राजकुलातिथित्वम् ययौ। ___टोका-विदग्धैः चतुरैः जनः लोकैः, मुग्धेः मोहकैः सुन्दरैरिति यावत् भवन: गृहैः च कृत्वा पदे पदे प्रतिपदम् विस्मयस्य आश्चर्यस्य कल्पवल्लीम् कल्पलताम् ( व० तत्पु० ) चतुरजनानां सुन्दरभवनानां च कारणात् सर्वमनोरथपूरककल्पलतावत् महाश्चर्यकरीमित्यर्थः ताम् कुण्डिनपुरीम् चिरम् चिरकालम् गाहमानस्य उल्लङ्घयतः गच्छत इत्यर्थः अस्य नलस्य दृष्टिः चक्षुः राज्ञः भीमनृपस्य कुलम् गृहम् ( 'कुलं जनपदे गृहे' इति विश्वः ) तस्य अतिथित्वम् प्राघुणिकत्वम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) ययौ प्राप चिरं नगरीम् लङ्घयन् नलोऽन्ते राजप्रासादमालोकयदिति भावः // 9 // व्याकरण-विदग्धेः वि + /दह + क्तः ( जले, खूब तपे, परिपक्व, चतुर ) / मुग्धैः मुह + क्तः / पदे पदे वीप्सायां द्वित्वम् / विस्मयः वि + स्मि + अच। अनुवाद-निपुण लोगों और सुन्दर भवनों द्वारा पग-पग पर आश्चर्य की कल्पलता बनी हुई उस नगरी को देर से पार करके ( अन्त में ) राजमहल उस नल की दृष्टि का पाहुना बना // 9 // टिप्पणी- यहाँ कुण्डिनपुरी पर कवि ने कल्पवल्लीत्व का आरोप कर रखा है क्योंकि कल्पवल्ली जैसे आश्चर्य में डाल देती है, वैसे कुण्डिनपुरी भी आश्चर्य में डाल देती है। इस तरह यह रूपक है। पदे पदे में छेक अथवा किन्हीं आलंकारिकों के मत से वीप्सा और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आँखों का पाहुना बनना एक लाक्षणिक प्रयोग है जिसका अर्थ देखना होता है। हेलो दधी रक्षिजनेऽस्त्रसज्जे लोनश्चरामोति हृदा ललज्जे / द्रक्ष्यामि भेमोमिति संतुतोष दूतं विचिन्त्य स्वमसी शुशोच // 10 // Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अन्वयः-असो अस्त्र-सज्जे रक्षिजने हेलाम् दधी; 'लीनः चरामि इति हृदा ललज्जे; 'भैमीम् द्रक्ष्यामि' इति संतुतोष; स्वम् दूतम् विचिन्त्य शुशोच / टीका-असौ नलः अस्त्रः आयुधैः सज्जे सन्नद्धे [ सन्नद्धो वर्मितः सज्जे" इत्यमरः ] रक्षी रक्षकश्चासौ जनः लोकः तस्मिन् ( कर्मधा० ) सुरक्षासैनिकेष्वित्यर्थः हेलाम् अवज्ञाम् दधौ दधार अदृश्यस्य सतो ममैते किमपि कर्तुं न शक्नुवन्तीत्यवज्ञा कारणम् / अहं लीनः अदृश्यः अन्तहित इति यावत् चरामि गच्छामीति हेतोः हृदा मनसा ललज्जे लजामनुबभूव. वीरपुरुषाणामेतत् सर्वथाऽनुचित मित्यर्थः, 'भैमोम् दमयन्तों द्रक्ष्यामि विलोकयिष्यामि इति हेतोः संतुतोष प्रसन्नोऽभवत्; ( पुनः ) स्वम् आत्मानम् दूतं विचिन्त्य विचार्य शुशोच दुःखमन्वभवत्, निर्वेदमगादिति यावत्, 'अहं दूतोऽस्मि, दृष्ट्वापि तामहं न लप्स्ये' इति निर्वेदकारणम् // 10 // व्याकरण-सज्जः सज्जतीति /सस्ज् + अच् ( कर्तरि ) / अस्त्रम् अस्यते ( क्षिप्यते ) इति/अस् + ष्ठन् / हेलाम् /हेल + अ + टाप् / लीनः ली + क्त, त को न / अनुवाद-वह ( नल ) शस्त्रों से सजित सुरक्षा-सैनिक लोगों की अवहेलना कर गये; 'मैं अन्तर्ध्यान होकर चल रहा है। इस कारण लज्जित हो जाते थे; 'मैं दमयन्ती को देखू गा' इस विचार से प्रसन्न होते थे, (किन्तु ) अपने को दूत समझकर निराश हो जाते थे // 10 // टिप्पणी-यहाँ कवि श्लोक के चार पादों में क्रमशः गर्व, लज्जा, हर्ष और निर्वेद नामक भावों का सम्मिश्रण नल में दिखा रहा है, इसलिए भाव-शबलता अलंकार है। शब्दालंकारों में 'सज्जे' 'लज्जे' में अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अथोपकार्याममरेन्द्रकार्यात्कक्षासु रक्षाधिकृतैरदृष्टः / भैमी दिक्षुर्बहु दिक्षु चक्षुर्दिशन्नसो तामविशद्विशङ्कः // 11 // अन्वयः-अथ असी कक्षासु रक्षाधिकृतः अदृष्टः, भैमीम् दिदृक्षः, ( अतएव ) दिक्ष चक्षुः बहु दिशन्, विशङ्कः सन् अमरेन्द्र-कार्यात् ताम् उपकार्याम् अविशत् / टीका-अथ अनन्तरम् असो नलः कक्षासु प्रकोष्ठेषु ('कक्षा प्रकोष्ठे हादे:: इत्यमरः ) रक्षायाम् अधिकृता कृताधिकाराः रक्षाधिकारिण इत्यर्थः ( स० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते तत्पु० ) तः अदृष्टः तिरस्करणी-विद्याकारणात् अनवलोकितः, भैमीम् दमयन्तीम् विवृक्षुः द्रष्टुमिच्छु: ( अत एव ) दिक्षु चतुर्दिशासु चक्षुः दृष्टिम् बहु वारंवारं दिशन् प्रक्षिपन् विशङ्कः विगता शङ्का यस्य तथाभूतः ( प्रादि ब० बी० ) निःशङ्कः सन् अमराः वरुणादयः त्रयश्च इन्द्रश्च तेषाम् ( द्वन्द्व ) अथवा प्राधान्यात् अमरेन्द्रस्य देवेन्द्रस्य (10 तत्पु० ) कार्यात् दौत्यकर्महेतोः ताम् प्रसिद्धाम् उपकार्याम् उपकारिकाम् राजसमेति यावत् ( 'उपकार्या राज-सद्मनि' इति विश्वः) अविशत् प्राविशत् यत्र दमयन्ती निवसति स्मेत्यर्थः। व्याकरण-अधिकृतैः अधि + /कृ + क्तः ( कर्तरि ) / दिक्षुः / दश + सन्, द्वित्व + उः ( कर्तरि ) / कार्यात् कर्तुं योग्यमिति कृ + ण्यत् / अनुवाद-इसके बाद वह ( नल ) कमरों में ( बैठे ) रक्षाधिकारियों से अदृश्य बने, दमयन्ती को देखने के इच्छुक हुए, (अत एव) चारों ओर दृष्टि डालते हुए, निःशङ्क हो ( वरुणादि ) देवताओं और इन्द्र के कार्य हेतु उस महल में प्रविष्ट हो गये ( जहाँ दमयन्ती रहती थी ) // 11 // टिप्पणी-अमरेन्द्रकार्यात्-नारायण ने इस समस्त पद को 'अधिकृतः अदृष्टः' के साथ जोड़ा है अर्थात् नल रक्षापुरुषों को इसलिए अदृष्ट बने हए थे क्योंकि इन्द्र ने उन्हें अदृश्य हो जाने का कार्य अर्थात् घरदान दे रखा था। "कार्या' 'कार्या' में यमक, 'कक्षा' 'रक्षा', 'दृक्ष' 'दिक्ष' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अयं क इत्यन्यनिवारकाणां गिरा विभारि विभुज्य कण्ठम् / दृशं ददौ विस्मयनिस्तरङ्गां स लङ्घितायामपि राजसिंहः // 12 // अन्वयः–स विभुः राजसिंहः लवितायाम् अपि द्वारि 'अयम् कः' इति अन्यनिवारकाणाम् गिरा कण्ठम् विभुज्य विस्मय-निस्तरङ्गाम् दृशम् ददौ। टीका–स विभुः महिमशाली राजसिंहः राजा सिंहः इव ( उपमित तत्पु०) अथवा प्रशस्तो राजा-( कर्मधा० ) नलः लंधितायाम् अतिक्रान्तायाम् अपि द्वारि उपकार्यायाः द्वारे 'अयम् एष कः ?' इति उच्चस्वरेण अन्यस्य स्वभिन्नस्य जनस्य निवारकाणाम् निरोधकानां रक्षिणां गिरा वाण्या ( कारणेन / कण्ठम् ग्रीवाम् विभुज्य वक्रीकृत्य पश्चात् कृत्वेति यावत् विस्मयेन 'अपि किम् एभिः अहं दृष्टः ?' इत्याश्चर्येण निस्तरङ्गाम् निश्चलाम् निनिमेषामिति यावत् (तृ० सत्पु० ) निस्तरङ्गाम् निर्गताः तरङ्गाः यस्या इति तथाविधाम् ( प्रादि ब० वी०) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः दृशम् दृष्टिम् ददौ प्रक्षिप्तवानित्यर्थः। कस्याप्यन्यस्य जनस्य प्रवेशे रक्षापुरुषः निरुद्ध 'किमसी मां दृष्टवानिति मामेव निवारयतीति विस्मितो नलो विवर्तितकन्धरा सन् पश्चाद् दृष्टि प्राक्षिपदिति भावः // 12 // ___ व्याकरण-विभुः विशेषेण भवतीति वि + /भू + डु। द्वारि-यास्क के अनुसार 'वारयतीति सतः' अर्थात् / + णिच् + क्विप् दकारागम। निवारकाणाम् नि + + णिच् + ण्वुल् / गिरा-गीयते इति गृ + क्विप् (भावे)। विभुज्य–वि + भुज् + ल्यप् / ___ अनुवाद-वे महिमशाली राजसिंह नल यद्यपि ड्योढी पार कर चुके थे, तथापि 'यह कौन है ?' इस तरह (किसी ) दूसरे को रोक देने वाले ( सिपाहियों) की आवाज के कारण गर्दन मोड़कर आश्चर्य से निनिमेष दृष्टि (पीछे ) डाल बैठे // 12 // टिप्पणी-राजसिंहः-यद्यपि सिंह शब्द को प्रशस्त वाचक मानकर उसका 'प्रशंसावचनैश्च' (2 / 1 / 16) से परनिपात करके श्रेष्ठ राजा अर्थ किया जा सकता है तथापि राजा सिंह इव' इस तरह उपमित समास मानने में हम अधिक स्वारस्य समझते हैं। अगर नल को किसी ने देख भी लिया है, तो इन्हें कोई डर नहीं। वे मुकाबला करने में सक्षम हैं। सिंह भी तो किसी का शब्द सुनकर निर्भय हो पीछे गर्दन मोड़कर अवज्ञा के साथ देखता ही है, डर के मारे भागता नहीं है। इस तरह यहाँ उपमा है। साथ ही स्वभावोक्ति भी है / "विभु' 'विभु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अन्त पुरान्तः स विलोक्य बालां कांचित्समालब्धुमसंवृतोरुम् / निमीलिताक्षः परया भ्रमन्त्या संघट्टमासाद्य चमच्चकार // 13 // अन्वयः-सः अन्तःपुरान्तः समालब्धुम् असंवृतोरुम् काञ्चित बालां विलोक्य निमीलिताक्षः ( सन् ) भ्रमन्त्या परया संघट्टम् आसाद्य चमच्चकार / टीका–स नलः अन्तःपुरस्य अवरोधस्य अन्तः अभ्यन्तरे (10 तत्पु० ) समालन्धुम् उद्वर्तयितुम् सुगन्धितद्रव्यलेपनार्थमिति यावत् असंवृतो अनाच्छादिती उद्घाटिती इत्यर्थः ऊस जंधे ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूताम् (ब० वी० ) काञ्चित् कामपि बालाम् तरुणी स्त्रीम् विलोक्य दृष्ट्वा निमीलिते पिहिते अक्षिणी नयने ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० बी० ) सन् भ्रमन्त्या तत्र Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 नैषधीयचरित सञ्चरन्त्या परवा अन्यया स्त्रिया संघट्टम् अभिघातम् मासाद्य प्राप्य चमच्चकार चकितो बभूव / / 13 // व्याकरण-समालन्धुम् सम् + आ + लभ् + तुमुन् / संकृत सम् + V + क्तः ( कर्मणि)। निमोलित नि +/मील् + क्त (कर्मणि ) संघट्टः सम् + Vघट्ट + अच् / चमच्चकार मल्लिनाथ चमत् को शब्दानुकृति मान रहे हैं, जो हमारी समझ में नहीं आता है। आश्चर्य में भला 'चमत्' ध्वनि करने का क्या मतलब, आप्टे इसे/चम् (पीना, चाटना) धातु का शवन्त रूप करके V से जोड़ते हैं जिससे ओंठ चाटने वाला बना देना अर्थ निकलता है, जो कुछ ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि आश्चर्य में आदमी जैसे मुंह बायें रह जाता है उसी तरह ओंठ चाटने अथवा दाँतों से ओंठ दबाने लग जाता है। किन्तु कवि का यहाँ कर्तृप्रधान प्रयोग चिन्त्य है या तो फिर 'ताम्' का अध्याहार करके 'नल ने दूसरी स्त्री को चौंका दिया' - यह अर्थ करना होगा। अनुवाद-वह (नल ) रनिवास के भीतर उबटन लगाने हेतु उघड़ी हुई जांघों वाली किसी युवती को देखकर आंखें नीचे किये हुए थे कि घूमती हुई दूसरी स्त्री से टकराकर चौंक उठे॥ 13 // टिप्पणी-'न नग्नां स्त्रियमीक्षेत' इस धर्मशास्त्र के अनुसार नंगी जांधों वाली युवती को देखकर नल का आँखें बन्दकर देना स्वाभाविक ही था। इसी. लिए हम यहाँ स्वभावोक्ति कहेंगे, 'अन्तःपुरान्तः' "विलोक्य बालां' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है कवि ने य हाँ संस्कृत की 'एकं संधिसतोऽपरं प्रच्यवते' इस लोकोक्ति का समन्वय किया है अर्थात् एक से निपटना चाह रहे थे कि झट दूसरा सिर पर आ चढ़ा। अनादिसर्गस्रजि वानुभूता चित्रेषु वा भीमसुता नलेन / जातेव यद्वा जितशम्बरस्य सा शाम्बरीशिल्पमलक्षि दिक्षु // 14 // अन्वयः-अनादि-सर्गसजि वा चित्रेषु वा अनुभूता, यद्वा जितशम्बरस्य शाम्बरी-शिल्पम् जाता एव सा भीमसुता नलेन दिक्षु अलक्षि / टीका-न आदिः आरम्भः यस्याः तथाभूता ( नञ् ब० बी०) सर्गस्त्रक ( कर्मधा०) सर्गाणाम् सृष्टीनाम् स्त्रक् माला परम्परेत्यर्थः (10 तत्पु० ) तस्याम्, वा अथवा चित्रेषु आलेख्येषु अनुभूता अनुभवविषयीकृता, यद्वा अथवा जितः पराजितः हत इत्यर्थः शम्बरः एतदाख्यो राक्षसविशेषो येन तथाभूतस्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः (ब० वी० ) कामदेवस्य [ कामदेवो हि प्रद्युम्न-रूपेण कृष्णपुत्रत्वं प्राप्तः शम्बरं हतवानिति पुराणवार्ता ] शाम्बरी माया ( 'स्यान्माया शाम्बरी' इत्यमरः) तस्याः शिल्पम् निर्माणम् (10 तत्पु०) जाता उत्पन्ना एव, कामदेवेनैव स्वमायया सृष्टेत्यर्थः सा भीमस्य सुता पुत्री दमयन्तीत्यर्थः (10 तत्पु० ) नलेन दिक्षु निखिलासु दिशासु अलक्षि दृष्टा, अन्तःपुरे नल: भ्रमात् सर्वत्र दिशासु दमयन्तीम् अपश्यदिति भावः / - व्याकरण-सर्गः सृज् + धञ्। स्रक सृज्यते इति सृज + क्विन् / शाम्बरी शम्बरस्येयम् इति शम्बर + अण+ डीप. शम्बर शब्द विशेष राक्षस का वाचक होते हुए भी यहाँ सभी राक्षसों का उपलक्षक है। राक्षस सभी मायावी हुआ करते हैं, इसलिए उनकी विशेषता को शाम्बरी अर्थात् माया कहते हैं। अलक्षि-Vलक्ष + लुङ् ( कर्मणि)। __ अनुवाद-अनादि काल से चली आ रही सृष्टि-परम्परा में अथवा चित्रों में देखी हुई अथवा शम्बरारि-कामदेव की माया-रूप में रची वह दमयन्ती नल को चारों ओर दिखाई पड़ी // 14 // टिप्पणो-मोह अथवा भ्रमवश नल रनिवासमें सर्वत्र दमयन्ती को देखने लगे, लेकिन प्रश्न उठता है कि भ्रम उसी वस्तु का होता है जिसे हमने पहले देख रखा हो। नल ने जब दमयन्ती पहले देखी ही नहीं, तो भ्रम कैसे ? बिना पहले साँप को देखे रस्सी पर साँप का भ्रम हो ही नहीं सकता। इसके समाधान हेतु कवि को पूर्वजन्म की कल्पना करनी पड़ रही है, जिसमें नल ने दमयन्ती को पहले कई बार देख रखा था, कई बार उसका पाणिग्रहण कर रखा था। यदि पूर्वजन्म की बात प्रामाणिक न मानी जाय तो कवि विकल्प में चित्र देता है, जिसमें नल ने दमयन्ती देख ही रखी है। किन्तु चित्र तो रङ्ग-भरी रेखामात्र ही होता है, जिसके साथ आलिंगन आदि क्रियायें नहीं हो सकतीं। इधर देखो. तो नल ने भ्रमात्मक दमयन्ती के साथ आलिंगन आदि किया है, जैसा कि हम आगे बतायेंगे। इसक लिए मूर्त-मांसल तत्त्व होना चाहिए। ऐसी स्थिति में कवि तीसरा विकल्प देता है अर्थात् यह कामदेव की निर्माण कला है, जिसने माया-शक्ति से नल के आगे दमयन्ती को मूर्त-रूप में खड़ा कर दिया। विद्याधर ने यहाँ विशेष अलंकार माना है। यह वहाँ होता है, जहाँ बिना आधार के आधेय की कल्पना की जाती है। यहाँ आधार Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते के बिना दमयन्ती का वर्णन हो रहा है, किन्तु मल्लिनाथ 'अवालीक-भैमीसाक्षात्कारो जन्मान्तरानुभवाद् वा केवलमदनमाया-बलाद्वेति हेतृत्प्रेक्षा' कह गये हैं। वाचक पद के अभाव में यह मम्य ही मानी जायेगी 'शम्बरस्य' 'शाम्वरी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अलीकभैमीसहदर्शनान्न तस्यान्यकन्याप्सरसो रसाय / भैमीभ्रमस्यैव ततः प्रसादाद्धमीभ्रमस्तेन न तास्वलम्भि // 15 // अन्वयः-अलीकभैमीसहदर्शनात् अन्यकत्याप्सरसः तस्य रसाय न ( अभवन् ) / ततः भैमी-भ्रमस्य एव प्रसादात् तेन तासु भैमी-भ्रमः न अलम्भि। टीका-अलीका मोहवशात् काल्पनिकमिथ्येति यावत् या भैमी दमयन्ती ( कर्मधा० ) तया सह दर्शनात् अवलोकनात् ( हेतोः ) ( तृ० तत्पु० ) अन्याः दमयन्तीभिन्ना याः कन्या। बाला अन्तःपुर-युवतय इत्यर्थः (कर्मधा० ) अप्सरस दिव्याङ्गना इव ( उपमित समास ) तस्य नलस्य रसाय रागाय रुचये इति यावत् न अभवन्निति शेषः। मोहोत्थापित-दमयन्त्या सह अप्सरस्सदृशी। स्त्री:, दृष्ट्वापि नलस्तासु नाकृष्टोऽभवत्, दमयन्त्यपेक्षया तासा रूपे सुतरां हीनत्वादिति भावः / ततः तस्य (षष्टयर्थे सार्वविभक्तिकः तसिल) भेम्या दमयन्त्या भ्रमस्य भ्रान्तेः (10 तत्पु०) एव प्रसादात् प्रभावादित्यर्थः तेन तासु अप्सरस्सदृश-कन्यासु भैमी-भ्रमः दमयन्तीविषयकभ्रान्तिः न अलम्भि न प्राप्तः / भ्रान्तिहि सादृश्य-कारणाद् भवति / मोहवशात् दृष्टायाः दमयन्त्याः तासु रूप-सादृश्याभावात् कथं भ्रमः स्यादिति भावः // 15 // व्याकरण-रसाय / रस् + अच् ( भावे ) / अप्सरस:-इसके लिए सर्ग 1 श्लोक 115 देखिए / भ्रम:/म्रम + घञ् ( भावे ) / अलम्भि-Vलभ् + लुङ् , मुमागम, ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-( मोहवश ) कल्पित दमयन्ती के साथ देखने के कारण अन्य अप्सरा-जैसी युवतियों के प्रति नल की ( कोई ) रुचि नहीं हुई। दमयन्ती ( की कल्पित मूर्ति ) के भ्रम के उसी प्रभाव से तो उन ( नल) का उन ( युवतियों ) में दमयन्ती का भ्रम नहीं हुआ // 15 // टिप्पणी-नल रनिवास में भ्रम-वश सर्वत्र दमयन्ती की अतिसुन्दर कल्पित Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः मूर्ति देख रहे थे / वहाँ अप्सरा जैसी अन्य सुन्दरियां भी दीख रही थीं, किन्तु नल को वे क्यों रुचतीं? उनमें वे दमयन्ती का भ्रम क्यों करते? दमयन्ती की अपेक्षा वे रूप में मेल ही नहीं खाती थीं। जब रूप-सादृश्य ही नहीं मिलता, तो उनमें दमयन्ती का भ्रम कैसे हो ? भ्रम सदा सादृश्यमूलक ही होता है। यहां युवतियों की अप्सराओं से तुलना की गई है, अतः उपमा है, किन्तु विद्याधर अप्सरात्व का आरोप करके रूपक मानते हैं, जिसके साथ वे उत्प्रेक्षा भी कहते हैं, जो हम नहीं समझ पाये / शब्दालंकारों में 'स्यान्य-कन्या' 'रसो' 'रसाय' 'भैमीभ्रम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भैमीनिराशे हृदि मन्मथेन दत्तस्वहस्ताद्विरहाद्विहस्तः। स तामलोकामवलोक्य तत्र क्षणादपश्यन्व्यषदद्विबुद्धः // 16 // अन्वय-भैमी निराशे हृदि मन्मथेन दत्त-स्वहस्तात् विरहात् विहस्तः स तत्र अलीकाम् ताम् अवलोक्य क्षणात् विबुद्धः सन् ( ताम् ) अपश्यन् व्यषदत् / टोका-भैम्याम् दमयन्ती-विषये देवानां दौत्याङ्गीकरणात् निराशे निर्गता आशा यस्मात् तथाभूते ( प्रादि ब० वी० ) हताशे हृदि हृदये मन्मथेन कामेन दत्त: वितीर्णः स्वः स्वकीयः हस्त: हस्तावलम्बः साहाय्यमिति यावत् ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्मै तथाभूतात् कामोत्पादितादित्यर्थः विरहात् वियोगात् कारणात विहस्त: व्याकुल: ( "विहस्तव्याकुलो समौ' इत्यमरः ) स नलः तत्र अन्तःपुरे अलीकाम् भ्रमकल्पिताम् ताम् दमयन्तीम् अवलोक्य दृष्ट्वा क्षणात् क्षणे विबुद्धा विबोधं प्राप्तः भ्रमरहित इत्यर्थः सन् अपश्यन् दमयन्तीम् अनालोकयन् व्यषदद विषादमवाप्तवान् / दौत्यमङ्गीकृत्य दमयन्त्यां निराशेऽपि नले कामेन तद्विरहव्यथा समुत्पादितैव, विरहे चासो तत्रालीकां दमन्तीमपश्यत्, किन्तु क्षणानन्तरं दूतोऽहमिति विबोधे जाते पुनः स तां नापश्यत्, भ्रमजनितदमयन्तीविलोपे दुःखितश्चाभवदिति भावः // 16 // व्याकरण-मन्मथ: मन: मथ्नातीति मनस् + /मथ् + अच् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / विहस्तः विगतो हस्तो यस्येति (प्रादि ब० बी० ) / विबुद्धः वि+Vबुध् + क्तः ( कर्तरि ) व्यषदत् वि+/सद् + लुङ ( लूदित्वात् अङ) स को ष। अनुवाद-दमयन्ती की ओर से निराश हुए हृदय में कामदेव के हाथों Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते. (फिर ) भड़काये वियोग ( के दुःख ) के कारण अकुलाये हुए नल रनिवास में ( मोहवश ) कल्पित दमयन्ती को देखकर, क्षणानन्तर सचेत हुए उस (दमयन्ती) को न देखते हुए दुःखी हो गये // 16 // टिप्पणी-नल के रूप में कवि यहाँ निराश प्रेमी के हृदय का मार्मिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर रहा है। क्षण में नैराश्य और क्षण में काम के भड़काव की दुविधा बेचारे प्रेमी के हृदय को झकझोरती रहती है / विषाद भाव के उदय होने के कारण विद्याधर ने यहाँ भावोदयालंकार माना है / 'हस्त' देकर "विहस्त' होना चाहिये था कामदेव को, किन्तु 'विहस्त' (हस्तरहित ) हुए नल-यह विरोधाभास है, जिसका समाधान हस्त शब्द का सहायता और विहस्त शब्द का व्याकुल अर्थ करके हो जाता है। इसके साथ-साथ असंगति भी है / 'हस्ताद्' 'हस्तः' और 'लीका' 'लोक्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रियां विकल्पोपहृतां स यावद्दिगीशसंदेशमजल्पदल्पम् / अदृश्यवाग्भीषितभूरिभीरुभवो रवस्तावदचेतयत्तम् // 17 // अन्वय-स विकल्पोपहृताम् प्रियाम् दिगीश-सन्देशम् यावत् अजल्पम् अल्पत् तावत् अदृश्य.."भवः रवः तम् अचेतयत् / टोका–स नल: विकल्पेन कल्पनया भ्रमेणेति यावत् उपहृताम् आनीताम् (त. तत्पु.) मोह-जनितामित्यर्थः प्रियाम् दमयन्तीम् दिशाम् दिशानाम् ईशाः स्वामिनः इन्द्रादयः तेषां सन्देशम् वाचिकम् यावत् यस्मिन् क्षणे अल्पम् किमपि यथा स्यात्तथा अजल्पत् अकथयत् तावत् तस्मिन्नेव क्षणे अदृश्यस्य अन्तहितस्य नलस्य वाचा वाण्या (10 तत्पु० ) भोषिताः भयम् प्रापिताः ( तृ० तत्पु० ) भूरयः बह्वयः भीरवः भयशीलाः स्त्रियः ( सर्वत्र कर्मधा० ) ताभ्यो भवतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) रवः कोलाहलः तम् नलम् अचेतयत् अबोधयत् निभ्रममकरोदिति यावत् / अदृश्य-सकाशादायातां वाणीमाकर्ण्य भीरुस्त्रियः कोलाहलमकुर्वन्, यमाकर्ण्य नलोऽपगतभ्रमोऽभवत् तूष्णीं चातिष्ठदिति भावः // 17 // व्याकरण-विकल्प वि + V क्लुप् + घम् / ईश: ईष्टे इति + Vईश + क। संदेशः सम + /दिश् + घञ् / भोषितः /भी+ णिच् + क्त ( कर्मणि ) षुगागम / भीरु बिभेतीति / भी + क्रुः ( कर्तरि ) / भवः भवत्यस्मादिति Vभू + अप ( अपादाने ) / रवः रु + अप् ( भावे ) / अचेतयन् चित् + Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः णिच् + लङ / यावत् अअल्पत् यावत् के योग में न्यावत्-पुगनिपातयोर्लट (3 / 3 / 4) से प्राप्त लट् के स्थान में लङ चिन्त्य है। ___ अनुवाद-वह ( नल ) कल्पना द्वारा सामने लाई हुई प्रेयसी ( दमयन्ती / को दिक्पालों का सन्देश थोड़ा-सा कह पाये ही थे कि तभी अदृश्य की ओर से आई हुई आवाज से डरी हुई ( रनिवास की) बहुत-सी डरपोक स्त्रियों का हल्ला उन (नल) को सचेत कर बैठा // 17 // टिप्पणी-अदृश्य-वाणी तो भूत-प्रेतादि को होती है, इसीलिए उसे सुनकर भय से युवतियों का हल्ला मचाना और हल्ले से नल का कल्पना लोक से तथ्यजगत् में आ जाना स्वाभाविक ही था। इसलिए इसे हम स्वभावोक्ति कहेंगे। विद्याधर के अनुसार राजाको विबोध भाव हो जाने से यहाँ भावोदयालंकार है। 'भूरि भीरु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूरिभीरुभंवो-नारायण का यह पाठ व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य है / उनकी 'भीरवो भयशीला या बालास्ताभ्यो भव उत्पन्नः' यह व्याख्या इसे एक ही समस्तपद मान रही है। ऐसी स्थिति में भीरु शब्द में आये हुए रेफ की कोई प्रयोजनीयता नहीं, केवल छन्दःपूर्ति अवश्य हो जाती है। इसे हम च्युतसंस्कृति दोष कहेंगे। दूसरी ओर, मल्लिनाथ बिना रेफ वाला 'भीरुभवो' पाठ देते हैं जिसमें व्याकरण तो ठीक बैठ जाता है, लेकिन छन्द भंग हो जाने से हतवृत्तता दोष आ जाता है। अतएव हमारे विचार से यहाँ उह शब्द से 'ऊतः ' (4 / 1 / 66) से स्त्रीलिङ्ग में ऊङ प्रत्यय कर देने पर भीरू' पाठ देने से च्युतसंस्कृति और हतवृत्तता दोनों दोषों का निराकरण हो जाता है। प्रियांविकल्पोहताम्हम देखते हैं कवि ने पूर्ववर्ती श्लोक में राजा को 'विबुद्धः' बता रखा है / बिबुद्ध हो जाने पर विकल्पोपहृत' दमयन्ती को देखना अनुपपन्न है / यह कवि की विसंगति समझिए। हाँ, इस श्लोक से पहले कवि को चाहिए था कि वह कामोद्रक से फिर राजा को मोह में डाल देता और तब उसके आगे 'प्रिया' को 'विकल्पोपहृत' रूप में खड़ा कर देता। पश्यन्स तस्मिन्मरुतापि तन्व्याः स्तनो परिस्प्रष्टुमिवास्तवस्त्री। अक्षान्तपक्षान्तमगाङ्कमास्यं दधार तिर्यग्वलितं विलक्षः // 18 // अन्वयः–स तस्मिन् मरुता अपि परिस्प्रष्टुम् इव अस्त-वस्त्री तन्व्या Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टोका–स नलः तस्मिन् अन्तःपुरे माता वायुना जडेनापीत्यर्थः परिस्प्रष्टुम् मर्दयितुम् इव अस्तम् अपनीतम् वस्त्रम् वसनम् याभ्याम् तथाभूतौ (ब० बी० ) तन्म्याः कृशाङ्गयाः स्तनो कुची पश्यन् विलोकयन् विलक्षः लज्जितः सन् न क्षान्तः सोढः पक्षान्तमृगाङ्कः ( कर्मधा० ) पक्षस्य अर्धमासस्य शुक्लपक्षस्येत्यर्थः ( ष० तत्पु० ) अन्तस्य समाप्त : (10 तत्पु० ) यो मृगाङ्कः चन्द्रः, मृगः हरिणः अङ्कः चिह्न ( कर्मधा० ) यत्रेति ( ब० वी० ) पौर्णमासीचन्द्र इत्यर्थः येन तथाभूतम् (ब० वी० ) आस्यम् मुखम् तिर्यक् तिरः यथास्यात्तथा वलितम् चलितम् विवतितमिति यावत वधार दधौ वायुना कृतं परस्त्रियाः कुचमर्दनरूप-सम्भोग-दर्शनमनुचितमिति कृत्वा लज्जया नलेन स्वचन्द्रतुल्यं मुखं परावर्तितम्, स तस्मात्परामुखोऽभवदिति यावदिति भावः / / 18 // ___ व्याकरण--परिस्प्रष्टुम् परि + /स्पृश् + तुमुन् / वस्त्रम् वस्ते ( आच्छादयति ) इति /वस् + ष्टुन् / क्षान्त /क्षम् + क्त ( कर्मणि ) / आस्यम् अस्यते (प्रक्षिप्यते ) अन्नादिकमति - अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / वलितम् /वल + क्तः ( कर्तरि ) / ___ अनुवाद-उस ( नल ) ने वहाँ ( रनिवास में ) वायु द्वारा भी मर्दन हेतु हटाये गये वस्त्र वाले कृशाङ्गी के कुचों को देखकर लज्जित हो ( अपना ) पौणंमासी के मृगलांछन-चन्द्रमा को न सहन करने वाला मुंह फेर दिया // 18 // टिप्पणी–वायु द्वारा कृशाङ्गी के कुचों के साथ की जा रही काम केलि देखना अनुचित समझकर नल ने उधर से मुंह फेर लिया-ऐसा मुंह, जो अपने मुकाबले में पूर्ण चन्द्र को नहीं सह सक रहा था, क्योकि वह मृगाङ्क था, मृग का-सा काला दाग रख रहा था, जबकि मुँह स्वयं बेदाग था। राजा के चाँद-जेसे मुँह के फेर देने से यह वस्तु-ध्वनि निकलती है कि काम-केलि के समय चाँद का छिपा रहना ठीक ही है। वायु से स्तन-वस्त्र हट जाना स्वाभाविक है किन्तु कवि ने वायु पर स्तन-मर्दन हेतु वस्त्र हटाने की कल्पना की है जिससे उत्प्रेक्षा बन रही है। चन्द्रमा की अपेक्षा मुख को निष्कलङ्क बताने में व्यतिरेक है। मृगाङ्क शब्द साभिप्राय होने से परिकरांकुर है / अपि शब्द से अर्थापत्ति बन रही है। लज्जाभाव उदय होने से भावोदयालंकार भी है। परस्पर सापेक्ष होने के कारण इन सभी अलंकारों का हम यहाँ अङ्गाङ्गिभाव संकर कहेंगे। शब्दालंकारों में से 'क्षान्त' 'क्षान्त' में यमक है, जिसके साथ 'अक्षान्त' 'पक्षान्त' से Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः बनने वाला पदान्तगत अन्त्यानुप्रास का एक वाचकानुप्रवेश संकर है / 'वलि' 'विल' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अन्तःपुरे विस्तृतवागुरोऽपि बालावलीनां वलितैर्गुणोघः / न कालसारं हरिणं तदक्षिद्वयं प्रभुबंद्धमभून्मनोभूः // 19 // अन्वयः-अन्तःपुरे बालावलीनाम् वलितः गुणोघः ( च ) / [ एव बालावलीनाम् वलितैः गुणोघः ] विस्तृत-बोगुरः अपि मनोभूः कालसारम् हरिणम् (च) तदक्षिद्वयम् ( एव कालसारम् हरिणम् ) वधुम् प्रभुः न अभूत् / ____टीका-अन्तःपुरे अवरोधे बालानाम् युवतीनाम् अवलोनाम् पङ्क्तीनाम् (ष० तत्पु० ) वलितैः चलितैः सविलासगतिभिरित्यर्थः गुणानाम् सौन्दर्यादीनाम् ओघः समूहः ( 10 तत्पु० ) च एव बालानाम् बवयोरभेदात् केशानाम् अवलीनाम् समूहानाम् (ष. तत्पु० ) वलितः आवतितरित्यर्थः गुणानाम् सूत्राणाम् दोरकाणामित्यर्थः ओघैः समूहैः ( 10 तत्पु० ) विस्तृता विस्तारिता ) अन्तर्भावितणिः) वागुरा लक्षणया वशीकरणसाधनम् एव वागुरा मृगबन्धनी ( 'वागुरा मृगबन्धनी' इत्यमरः ) येन तथाभूतः ( ब० वी० ) अपि मनोभू। मनोजः काम इति यावत् कालः कृष्णवर्णः कनीनिकाल्पः सारः श्रेष्ठभागः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) हरिणम् अवशिष्टभागे पाण्डुरं श्वेतमिति यावत् च तस्य नलस्य अक्ष्णो: नयनयोः द्वयम् युगलम् ( उभयत्र (10 तत्पु० ) एव कालसारम् हरिणम् कृष्णसारसंज्ञकं मृगविशेषम् बद्धम् वशीकतुम् अथ च धर्तुम् प्रभुः समर्थः न अभूत जातः / अन्तःपुरख्याः शतशः तरुण्य स्वसौन्दर्यादिगुणः जितेन्द्रियं नलं वशीकर्तुं न प्राभवन्निति भावः // 19 // व्याकरण-वलितैः वल् + क्तः (भावे ) / वागुरा-वाति ( हिंसति ) इति /वा + उरच गादेशश्च + टाप् / मनोभूः मनसि भवतीति मनस् + /भू + क्विप् ( कर्तरि ) / अक्षि अश्नुते विषयानिति / अश् + क्सि / द्वयम्-द्वी अवयवावत्रेति द्वि + तयप् , तयप को विकल्प से अयच् / प्रभुः प्रभवतीति प्र + Wभू + छ / अनुवाद-वहाँ ( रनिवास में ) बालाओं ( नवयुवतियों ) की श्रेणियों की सविलास चालों ( तथा ) गुणों ( सौन्दर्यादि विशेष धर्मो ) के समूहों के रूप में बालों ( केशों ) की श्रेणियों की बटी हुई डोरों के समूहों से ( बने ) वशीकरणसाधन-रूपी जाल को बिछाये हुए भी कामदेव ( रूपी व्याध ) नल की कालसार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते (काली) और हरिण ( सफेद ) दो आँखों के रूप में दो कालसार ( कृष्ण. सार ) हरिणों ( मृगों ) को न फाँस सको // 19 // टिप्पणी-यहाँ सीधी-सी बात यह थी कि रनिवास में सैकड़ों सुन्दरियाँ थीं, जिनकी सविलास गतियां और नृत्य-गीत-सौन्दर्यादि गुण समूह वशीकरण का साधन होते हुए भी राजा की आँखों को अपनी ओर नहीं खींच सके / इस पर कवि रूपक का बड़ा विचित्र साम्य-विधान कर गया है / श्लिष्ट भाषा में बालायें बन गये बाल सौन्दर्यादि गुण बन गये गुण अर्थात् बटकर बालों से बनी ऊनी डोर जिससे कामदेव ने दो कृष्णसार मृगों को फाँसने के लिए वागुरा-जाल बनाया। कृष्णसार मृग बने नल के कालसार और हरिण ( काली-सफेद ) दो आँखें। किन्तु सब कुछ ठीक होते हुए भी कवि इस साम्यविधान में एक कमी रख गया है और वह है यहाँ व्याध का अभाव / काम को यदि वह व्याध कह देता, तो व्याध-कर्म का चित्र सर्वाङ्गीण बन जाता। इसी मात्र एक कमी के कारण रूपक समस्त वस्तु विषयक न होकर एक देश विवर्तो रह गया है, जिसके साथ श्लेष भी है और फांसने के कारण होने पर भी फांसना रूप कार्य न होने से विशेषोक्ति भी है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। 'बाला, वली, वलि' में वर्णों का एक से अधिक बार साम्य होने से छेक के स्थान में वृत्त्यनुप्रास ही रहेगा। दोर्मूलमालोक्य कचं रुरुत्सोस्ततः कुचौ तावनुलेपयन्त्याः। नाभीमथैष श्लथवाससोऽनुमिमील दिक्षु क्रमकृष्टचक्षुः // 20 // अन्वयः- एष कचम् रुरुत्सोः ( कस्याश्चित् तरुण्याः ) दोर्मूलम् आलोक्य, ततः अनुलेपयन्त्याः ( तस्याः) तो कुची ( आलोक्य ) अथ श्लथ-वाससः ( तस्याः ) नाभीम् ( आलोक्य ) दिक्षु क्रम-कृष्ट-चक्षुः ( सन् ) अनुमिमील / टीका-एष नलः कचम् केशपाशम् रुरुत्सो रोधुमिच्छुकायाः उपरि केशसंयमनं कुर्वत्या इति यावत् कस्याश्चित् युवत्याः दोषोः बाह्वोः मूलम् मूलस्थानम् कक्षमित्यर्थः (10 तत्पु० ) आलोक्य दृष्ट्वा तत: तदनन्तरम् अनुलेपयन्त्याः सुगन्धितद्रव्यलेपनं कुर्वल्याः तस्याः तौ सुन्दरो कुचौ स्तनौ आलोक्येति शेषः, अथ तदनन्तरम् श्लथं शिथिलं सस्तमिति यावत् वासः वस्त्रम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूताम् (ब० वी० ) नाभीम उदरावर्तम् आलोक्य विक्षु उपरितनदेशात् अधस्तनदेशे इत्यर्थः क्रमेण क्रमशः कृष्टं समाकृष्टं (तृ० तत्पु० ) चक्षः नेत्रं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षः सर्गः 23 (कर्मधा० ) येन तथाभूतः सन् अनुपश्चात् दर्शनायोग्यम् वराङ्गमपि मा यावत् दृष्टिपथं गमदिति हेतो: मिमील नेत्रमीलनमकरोत् धर्मविरुद्धत्वादिति भावः // 20 // व्याकरण-रुत्सोः /रुध् + सन् + डः / अनुलेपयन्त्याः अनु + लिप् + णिच् + शत + ङीप् / इलथ श्लथतीति/श्लथ + अच् ( कर्तरि ) / चक्षुः चष्टे (पश्यति ) इति चक्ष + उस् / मिमील/मील् + लिट् / अनुवाद-वह ( नल ) केश-पाश बाँधना चाहती हुई किसी युवती की काख देखकर तदनन्तर अनुलेपन करते हुए उसके वैसे सुन्दर कुच देखकर बाद को वस्त्र खिसक जाने से नाभि को देखकर ( इस तरह ) ऊपर से नीचे तक . क्रमशः दष्टिपात किये तत्पश्चात् आँखें मूंद बैठे // 20 // टिप्पणी-विद्याधर के अनुसार यहाँ एक 'आलोक्य' क्रिया का अनेक कारकों के साथ सम्बन्ध होने से कारक दोपक है। लज्जा-भाव उदय होने से भावोदय भी है / 'मूल', 'मालो' 'कचं' 'कुचौ' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। राजा के आंखें मूंद लेने से यहाँ यह ध्वनि निकलती है कि वे उत्तम पुरुष हैं जो परकीय स्त्री के नग्न अंगों को देखना धर्म-विरुद्ध समझते हैं। मीलन्न शेकेऽभिमुखागताभ्यां धतुं निपीड्य स्तनसान्तराभ्याम् / स्वाङ्गान्यपेतो विजगी स पश्चात्पुमङ्गसङ्गोत्पुलके पुनस्ते // 21 // अन्वयः-मीलन् सः अभिमुखागताभ्याम् ( किन्तु ) स्तन-सान्तराभ्याम् ( काभ्याञ्चित् खत्रीभ्याम् ) निपीड्य धर्तुम् न शेके, ( ताभ्याम् ) अपेतः ( सन् ) पश्चात् ख्वाङ्गानि विजगी, पुनः ते पुमङ्ग-सङ्गोत्पुलके ( जाते ) / टीका-मीलन कृतनेत्रनिमीलनः स नल: अभिमुखम संमुखं यथा स्यात्तथा आगताभ्याम् आयाताभ्याम् ( सुप्सुपेति समासः ) किन्तु स्तनाभ्याम् कुचाभ्याम् सान्तराभ्याम् व्यवहिताभ्याम् ( तृ० तत्पु०.) अन्तरेण व्यवधानेन सहिताभ्या. मिति ( ब० वी० ) काभ्यामपि स्त्रीभ्याम् निपीड्य मध्ये पीडनं कृत्वा निरुध्येति यावत् धतुम् ग्रहीतुम् न शेके न शक्योऽभवत् स्त्रियोरुच्चतरस्तनत्वात् परस्परं मिलनमेव नाभवत् , तस्मात् मध्यस्थितो राजा ताभ्यां ग्रहीतुं नाशक्यतेति भावः / ताभ्याम् अपेतः अपसृतः सन् राजा पश्चात् स्वानि स्वीयानि अङ्गानि अवयवान् ( कर्मधा० ) विजगी निन्दितवान् परस्त्र्यङ्गस्पर्शस्य पापरूपत्वात् राजश्च धर्मात्मत्वात् , पुन: किन्तु ते स्त्रियो पुंस: पुरुषस्य अङ्गस्य शरीरख्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिने (10 तत्पु. ) सङ्गेन सम्पर्केण उत्पुलके सञ्जात-रोमाञ्च ( तृ० तत्पु० ) उत् - उत्थितः पुलकः ययोः तथाभूते ( प्रादि ब० बी० ) जाते इति शेषः / स्त्रीणां काम-प्रधानत्वात् परपुरुषसम्मौद्रोमाञ्चः स्वाभाविक एवेति भावः // 21 // व्याकरण-मोलन्। मील + श; / अभिमुखम् मुखम् अभि इति (अव्ययीभाव स० ) धतुम् यहाँ शक् के योग के तुमुन् है / शके शक् + लिट् ( कर्मवाच्य ) / अपेत: अप + इ + क्तः ( कर्तरि ) / अनुवाद-आँखें मीचे ( खड़े ) हुए वे ( नल ) (आपस में मिलने) सामने से आई (किन्तु ) स्तनों के कारण व्यवहित हुई दो स्त्रियों द्वारा ( बीच में) दबाकर पकड़े नहीं जा सके, उनसे खिसके हुये उन्होंने बाद को अपने अंगों की निन्दा की, किन्तु वे दोनों स्त्रियाँ रोमाञ्चित हो उठीं // 21 / / टिप्पणी-निन्दा और रोमाञ्च का कारण बता देने से काव्यलिङ्ग दे। विद्याधर के अनुसार राजा को खेद और स्त्रियों को सात्त्विक भाव हो जाने से भावोदयालंकार है। प्रथम और द्वितीय पादों में आभ्याम् का तुक मिलजाने से अन्त्यानुप्रास, 'मङ्गसङ्गो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। निमीलनस्पष्टविलोकनाभ्यां कथितस्ता: कलयन्कटाक्षः। स रागदर्शीव भृशं ल लज्जे स्वतः सतां ह्रीः परतोऽतिगुर्वी // 22 / / अन्वयः - निमीलन-स्पष्टविलोकनाभ्याम् कथितः ( अतएव ) ताः कटाक्षः कलयन स रागदर्शी इव भृशं ललज्जे सताम् परतः स्वतः ह्री: अतिगुर्वी ( भवति)। टीका-निमीलनम्, परस्त्रीदर्शनव्यापारान्नेत्र-पिधानम् च स्पष्टं स्फुटं विलोकन तासामनावृताङ्गदर्शनं चेति ताभ्याम् ( द्वन्द्व ) कथित: दुःखित उद्वेजित इति यावत् अतएव ताः स्त्रीः कटाक्षः नेत्रप्राप्तविलोकनैः कलयन् पश्यन् स नल: रागेण प्रेम्णा पश्यतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) इव भृशम् अत्यन्तम् यथा स्यात्तथा ललज्जे लज्जितवान् , यतः सताम् साधु-पुरुषाणाम् परतः अन्यस्य सकाशात् अन्यापेक्षयेति यावत् स्वत: आत्मनः सकाशात् ह्री: लज्जा अतिशयेन गुर्वी महती (प्रादि स० ) अधिकतरेत्यर्थः जायते इति शेषः सज्जना एकान्ते सत्यपि पापेषु स्वत एव लज्जन्ते इति भावः / / 22 / / व्याकरण-निमीलनम् नि + / मील + ल्युट (भावे ) / कथितः कुत्सितः Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 25 अर्थः कार्थः (कु को कदादेश ) = दुःखम्, तद्वत्तं करोतीति ('सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते ) कदर्थयति इति कदर्थ + णिच् + क्तः ( कमणि ) नामघातु / रागदी राग + Vदृश् +णिन् ( कर्तरि ) / _अनुगद -( कभी ) आँखें मूद लेना और ( कभी) खुलकर देख लेनादोनों ( बातों) से तंग आये हुए नल उन ( स्त्रियों) को कटाक्षों-कनखियों से अवलोकन करते हुए राग-वश देखते हुये-जैसे प्रतीत हुये बड़े लज्जित हुए। सज्जन लोगों को उतनी अधिक लज्जा दूसरों से नहीं होती जितनी अपनी आत्मा से / / 22 // टिप्पणी-बेचारे नल बड़े असमञ्जस में पड़ गये, स्त्रियों के नंगे अंग देखें तो पाप लगता है, आँखें मोच लें तो अन्य स्त्रियों से टकरा जाते हैं रास्ता देखने के लिए उन्होंने यही उपाय निकाला कि खुलकर न देखा जाय, वल्कि कनखियों से देखा जाय, किन्तु कनखियों से देखने में वे रागी जैसे लगते हैं क्यों कि रागी लोग ही कनखियों से देखा करते हैं / नल देखो तो उन्हें राग वश नहीं प्रत्युत विवश हो कनखियों से देख रहे थे। वे सज्जन जो थे नहीं तो अदृश्य होने के कारण किसी से लजाने की बात ही नहीं थी। कारण बताने से काव्यलिङ्ग तो स्पष्ट ही है। विद्याधर 'रागदर्शीव' में उपमा मानते हैं, लेकिन हमारे विचार से यह उत्प्रेक्षा है, क्योंकि नल. वास्तव में रागी की तरह रागवश कटाक्ष से नहीं देख रहे थे, बल्कि पाप से बचने के लिए वैसा कर रहे थे, अतः यह कल्पना ही है। चौथा पाद ऊपर कही विशेष बात का सामान्य बात से समर्थन कर रहा है, अतः अर्थान्तरन्यास है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। रोमाञ्चिताङ्गीमनु तत्कटाक्षान्तेन कान्तेन रतेनिदिष्टः / मोघः शरौघः कुसुमानि नाभूत्तद्धर्यपूजां प्रति पर्यवस्यन् // 23 // अन्वयः-रोमाञ्चिताङ्गीम् अनु तत्कटाक्षः भ्रान्तेन रतेः कान्तेन निदिष्टः कुसुमानि शरोघः तद्धैर्यपूजाम् प्रति पर्यवस्यन् मोघः न अभूत् / ____टीका नलाङ्गसंसद् िरोमभिः लोमभिः अञ्चितम् हृषितम् ( तृ० तत्पु०) अङ्गम् गात्रम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूताम् (ब० वो०) स्त्रियम् अनुलक्ष्यीकृत्य तस्य नलस्य कटाक्षः अपाङ्गविलोकनैः (10 तत्पु० ) भ्रान्तेन जातभ्रमेण रतेः एतदाख्याया स्त्रियः कान्तेन पत्या कामदेवेनेत्यर्थः निदिष्टः प्रहितः प्रक्षिप्त इति यावत् कुसुमानि पुष्पाणि शराणां वाणानाम ओघः समहः (ष०तत्पु०) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते तस्य नलस्य धर्यस्य धीरतायाः निर्विकारताया इत्यर्थः पूजाम् सपर्याम् प्रति उद्दिश्य पर्यवस्यन् परिणमन् पूजायाम् उपयुज्यमान इति यावत् मोषः विफल: न अभूत् न जातः / स्वाङ्गसंसर्गेण रोमाञ्चिताङ्गी स्त्रियम् कटाक्षः पश्यन्तं नलं रागेणायम् तां पश्यतीति बुद्धया जातभ्रमः कामस्तस्मिन् तथा पुष्पबाणान् प्राहरत्, यथाऽसौ प्रदीप्तकामः तया संभोगमाचरेत् किन्तु संयतेन्द्रियस्य नलस्योपरि स्वपुष्पवाणानां न कमपि प्रभावं विलोक्य कामः तैरेव स्वबाण-पुष्पैः नलधयंस्य पूजामकरोन्नतु पुष्पाणि वैयर्थ्यमनयदिति भावः // 23 // व्याकरण-भ्रान्तेन /भ्रम् + क्तः ( कर्तरि ) / कान्तेन काम्यते इति कम् + क्तः ( कर्मणि ) ओघः वहतीति /वह + घन् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / पर्यवस्यन् परि + अव + /सो + शतृ / ___ अनुवाद-रोमाञ्चित गात्र वाली स्त्री की ओर उन ( नल ) के कटाक्षों से भ्रम में पड़े हुए कामदेव द्वारा ( उनपर ) फेंका हुआ पुष्प-रूप बाण-समूह उन (नल ) के धैर्य की पूजा का काम देता हुआ व्यर्थ नहीं हुआ // 23 // टिप्पणी नल ने पाप और टक्कर से बचने हेतु ही कटाक्षों से देखना शुरू किया था, लेकिन काम गलती से उनके कटाक्षों में स्त्री के प्रति अनुराग समझ बैठा और उन पर बाण-पुष्पों का प्रहार कर गया, किन्तु जितेन्द्रिय नल पर भला उसका क्या प्रभाव पड़ना था। यह देख कामदेव दंग रह गया। उसने अपने बाण-पुष्पों से नल के धैर्य की पूजा की / मल्लिनाथ के अनुसार 'अत्र नलधैर्यभङ्गाय प्रयुक्तकुसुमशरजालस्य न केवलं तद्भञ्जकत्वम्, प्रत्युत तत्पूजकत्वमापन्नमित्यनर्थोक्तिरूपो विषमालङ्कारः' अर्थात् काम ने बाण-पुष्प प्रयुक्त किये थे नल के धैर्य भंग करने के लिए, उल्टे वे उसकी पूजा करने लगे। शत्रुविनाश हेतु भेजे बाण शत्रु के ही प्रशंसक और पूजक बन गये—यह अनर्थ ही समझिए / विद्याधर यहाँ कायलिंग कह रहे हैं / 'भ्रान्तेन' 'कान्तेन' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। हित्वैव वत्मकमिह भ्रमन्त्याः स्पर्शः स्त्रियाः सुत्यज इत्यवेत्य / / चतुष्पथस्याभरणं बभूव लोकावलोकाय सतां स दीपः // 24 // अन्वयः-'एकम् वम हित्वा एव इह भ्रमन्त्याः स्त्रियाः स्पर्शः सुत्यजः' इति अवेत्य सताम् दीपः स लोकावलोकाय चतुष्पथस्य आमरणं बभूव / Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः टीका-एकम् एकव्यक्त्या एव गम्यं वर्त्म मार्गम् एकपदीमित्यर्थः हित्वा त्यक्त्वा एव इह अन्तःपुरे भ्रमन्त्याः विचरन्त्याः स्त्रियाः नार्याः ( जातावेकवचनम् ) स्पर्शः संघट्टः सुखेन त्यक्त्तुं शक्यः सुत्यज इति अवेत्य विचार्येत्यर्थः सताम् सज्जनानाम् दीपः प्रदीप: स नलः लोकानाम् अत्रत्य-जनानाम् अवलोकाया दर्शनाय, लोकानामिति कर्मणि षष्ठी लोककमक-विलोकनायेत्यर्थः अथ च दोपपञ्चे. लोकानाम् इति कर्तरि षष्ठी अर्थात् लोककर्तृक-विलोकनाय चतुष्पथस्य चतुर्णी पथां समाहार इति ( समाहारद्वन्द्व ) तस्य = चत्वरस्य आभरणं अलङ्कारः बभूव सञ्जातः / एकपद्यां चलनेन स्त्रीणां स्पर्श परिहर्तु, गतागतं कुर्वाणान् जनान् विलोकयितुम् च नलो दीप इव चतुष्पथे स्थितवानिति भावः // 24 // व्याकरण- हित्वा हा + क्त्वा इत्वम् / स्पर्शः / स्पृश् + घन (भावे ) / सुत्यजः सु + त्यज् + खल् / अवेत्य अव + इ + ल्यप् , तुगागम / दीप; दीपयतीति /दीप् + णिच् + अच् ( कर्तरि ) / अवलोकः अव + लोक् + घन ( भावे ) / चतुष्पथम् समास में पथिन् को अ अन्तादेश और समाहार में नपुंसकत्व ( 'पथस्संख्याव्ययादेः' ) आभरणम् आ + भृ + ल्युट् / अनुवाद - 'पगडंडी को छोड़कर ही यहाँ आ जा रही स्त्रियों के स्पर्श से सहज ही बचा जा सकता है'-यह विचारकर सज्जनों के दीपक वे (नल ) लोगों को देखने हेतु चौराहे को अलंकृत कर बैठे // 24 // टिप्पणी-विद्याधर ने काव्यलिंग कहा है। राजा नल पर चतुष्पथस्थ दीप का आरोप होने से यहाँ रूपक है। दोनों में साम्य लोकावलोकाय' है / जिस तरह चौराहे के दीप प्रकाश द्वारा लोग ( मार्ग ) देखते हैं वैस ही नल भी लोगों को देख रहे हैं / हम ऊपर टीका में स्पष्ट कर ही चुके हैं कि नल के पक्ष मे-'लोकानाम्' कर्मणि षष्ठी है अर्थात् दीप द्वारा लोग देखते हैं। इसे हम विभक्ति-श्लेष कह सकते हैं / 'लोका' 'लोका' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। उद्वर्तयन्त्या हृदये निपत्य नृपस्य दृष्टिन्र्यवृतद्रुतैव / वियोगिवैरात्कुचयो खाङ्करर्धेन्दुलीलेगलहस्तितेव // 25 // अन्वयः-नृपस्य दृष्टिः उद्वर्तयन्त्याः ( कस्या अपि युवत्याः ) हृदये निपत्य अर्धेन्दुलीलैः कुचयोः नखाङ्कः ( कर्तृभिः) वियोगि-वैरात् गलहस्तिता इव द्रता एव न्यवृतत् / Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टीका-नृपस्य राज्ञो नलस्य दृष्टि: दृक् उद्वर्तयन्त्याः समालम्भनम् सुगन्धितद्रव्यलेपनमिति यावत् कुवाः कस्या अपि युवत्याः हृदये वक्षसि निपत्य पतित्वा अर्धः इन्दुः चन्द्रः ( कर्मघा० ) अथवा इन्दोः अर्धमिति अर्धेन्दुः (10 तत्पु० ) तद्वत् लीला शोभा ( उपमान तत्पु० ) येषां तथाभूतैः ( ब० वी० ) अर्धचन्द्राकारैरित्यर्थः नवानाम् कररुहाणाम् अङ्क: चिह्नः (10 तत्पु० ) संभोगकाले 'प्रणयि-कृत-नखक्षत-चिह्ररिति यावत् वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः ते (एकशेष स० ) वैरात् शत्रुताकारणात् ( स० तत्पु० ) मनहस्तिता गलं हस्तेन गृहीत्वा निस्सारिता इव द्रुता त्वरिता एव न्यवृतत् निवृत्ता। नखक्षताङ्कितो तस्याः कुची दृष्टा नलः तत्सकाशात् स्वदृष्टि न्यवर्तयदिति भावः // 25 // व्याकरण-दृष्टि: / दृश् + क्तिन् ( भावे ) / वैरात् वीरस्य भाव इति वीर + अण् / गलहस्तिता गलहस्तः = हस्तेन गलस्य ग्रहणं सजातोऽस्या इति गलहस्त + इतच् + टाप् अथवा गलहस्तां गलहस्तवती ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते') अथवा गलहस्तोऽस्या अस्तीति ( मतुवर्थीयोऽच ) गलहस्ता तां करोतीति गलहस्त + णिच् ( नामधातु) क्तः ( कर्मणि ) + टाप / न्यवृतत नि + Vवृत् + लुङ् 'युद्भयो लुङि' ( 1 / 3 / 81 ) से परस्मै० और घृतादि होने से अङ्। __ अनुवाद-राजा ( नल ) की दृष्टि, उबटन लगाती हुई (किसी ) युवती की छाती पर पड़कर ( उसके ) कुचों पर अर्धचन्द्राकार नख (क्षत - ) चिह्नों द्वारा, विरहियों से शत्रुता होने के कारण, गलहत्थी देकर निकाली जाती हुईजैसी शीघ्र ही वापस लौट आई // 25 // टिप्पणी-यहाँ पर-स्त्री की उघडी छाती देखकर नल का उस तरफ से दृष्टि खींच लेना धर्मानुसार उचित ही है किन्तु कवि की कल्पना यह है कि मानो कुचों के अर्ध-चन्द्रों ने गलहत्थी देकर विरही राजा की दृष्टि को निकाल परे कर दिया हो। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है / चन्द्र और अर्धचन्द्राकार कुचगत नखक्षतचिह्न-दोनों विरहियों के शत्रु हैं क्योंकि वे कामोद्दीपक होते हैं / अत एव वे उन दोनों को फूटी आँख भी नहीं देख सकते / नखाङ्कों की अर्धेन्दु से तुलना करने से उपमा भी है। विश्वकोष तो 'अर्धेन्दुश्चन्द्रशकले गलहस्तन्नखा. योः' लिखकर तीनों में समता के स्थान में अभेद ही कह गया है, क्योंकि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः आकार में तीनों एक हैं। शब्दालंकारों में से 'निप' 'नृप' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तन्वीमुखं द्रागधिगत्य चन्द्र वियोगिनस्तस्य निमीलिताभ्याम् / द्वयं द्रढोयः कृतमीक्षणाभ्वां तदिन्दुता च स्वसरोजता च // 26 // अन्वयः-तन्वी-मुखम् ( एव ) चन्द्रम् अधिगत्य द्राक्. निमीलिताभ्याम् वियोगिनः तस्य ईक्षणाभ्याम् तदिन्दुता च स्वसरोजता च-द्वयम् द्रढीयः कृतम् / टोका-तव्याः कस्याश्चित् कृशाङ्गयाः मुखम् वदनम् एव चन्द्रम् शशिनम् द्राक् शीघ्र निमीलिताभ्याम् संकुचिताभ्याम् वियोगिनः विरहिणः अधिगत्य प्राप्य तस्य नलस्य ईक्षणाभ्याम् नयनाभ्याम् तस्य तन्वी-मुखस्य इन्दुता चन्द्रत्वम् (10. तत्पु० ) च स्वस्य आत्मनश्च सरोजता इन्दीवरता चेति द्वयम् द्रढीयः अतिशयेन दृढम् कृतम् विहितम् / तन्व्याः मुखमवलोक्य राजा नलः स्वनयने संकोचितवान्, तत्सकाशात् प्रत्यावर्तितवानिति भावः / / 26 // व्याकरण-ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति ईक्ष + ल्युट ( करणे)। सरोजम सरसि जायते इति सरस् + /जन् + डः द्रढीयः अतिशयेन दृढमिति दृढ + ईयसुन्, ऋ का र / अनुवाद - ( किसी ) कृशांगी के मुखरूपी चन्द्रमा को प्राप्त कर शीघ्र ही बन्द हुई उन ( नल ) की आँखों ने उस ( कृशाङ्गी के मुख ) की चन्द्रता और अपनी सरोजता-दोनों बातें खूब पक्की करलीं // 26 // टिप्पणी-मुख पर चन्द्रत्वारोप होने से रूपक है। मुख के आगे आँखों के बन्द हो जाने से यह अनुमान किया जा रहा है कि कृशांगो का मुख चन्द्र है और नल की आँखें सरोज हैं, क्योंकि चन्द्रमा के ही सामने आने पर सरोज बन्द हो जाया करते हैं, इसलिए अनुमानालंकार है / चतुष्पथे तं विनिमीलिताक्षं चतुर्दिगेताः सुखमग्रहीष्यन् / संघट्टय तस्मिन्भृशभीनिवृत्तास्ता एव तद्वर्त्म न चेददास्यन् // 27 // अन्वयः-विनिमीलिताक्षम् तम् चतुर्विंगेताः ( स्त्रियः ) चतुष्पथे सुखम् अग्रहीष्यन्, चेत् तस्मिन् संघस्य भृशभी-निवृत्ताः ताः एब तद्वत्म न अदास्यन् / टीका-विनिमीलिते पिहिते अक्षिणी नयने ( कर्मधा० ) येन तथाभूतम् ( ब० वी० ) परस्त्रीणां मुखाद्यवलोकन-पापभयात् निमीलित चक्षुषमित्यर्थः तम् Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधीक्वरिते नलम् चतस्रश्च ताः विश: दिशाः ( द्विगु ) ताभ्यः एताः आगताः (10 तत्पु०) स्त्रियः चतुष्पथे चत्वरे सुखम् बिना क्लेशेनेव यथा स्यात्तथा अग्रहीष्यन् अधरिष्यन् चेत यदि तस्मिन् नले संघटय अभिहत्य भृशा अधिका या भी: भयम् (कर्मधा०) तया निवृत्ताः परावृत्ताः ताः एव पूर्वोक्ताः स्त्रियः तस्मै नलाय वम मार्गम् (च. तत्पु. ) न अदास्यन् व्यतरिष्यन् / अदृश्येन नलेन संघट्टमानाः स्त्रियो भीतभीताः परावृत्ताः नलाय मार्ग ददुः, तस्मात् तं धतु नाशक्नुवन्निति भावः // 27 // व्याकरण-एताः आ + इ + क्त + टाप् / चतुष्पये इसके लिए पीछे श्लोक 24 देखिए / संघट्ट्य सम् + Vघट्ट + ल्यप् / भीः भी+ क्विप ( भावे)। अग्रहीष्यन , अदास्यन क्रियातिपति में लड़। अनुवाद-आँखें मीचे हुए उन ( नल ) को चारों दिशाओं से आई हुई स्त्रियाँ चौराहे पर सहज ही में पकड़ लेती यदि उन ( अदृश्य नल ) से टकराकर अत्यन्त भयभीत हो, वापस लौटी वे ही उन्हें रास्ता न दे देती तो // 27 // टिप्पणी-स्त्रियों ने अदृश्य नल से टकराकर यह समझा कि कहीं भूत-प्रेत न्तो न टकरा गया हो; भूत-प्रेत ही अदृश्य हुआ करते हैं, इसलिए भय से अभि'भूत हुई वे सिरपर पैर रखकर भाग गई। उन्हें पकड़ती तो कैसे पकड़तीं। भाग जाने का कारण बताने से विद्याधर ने यहाँ कायलिंग बताया है / स्त्रियों में भय नामक सञ्चारी भाव बताने से भावोदयालंकार भी है / 'चतु' 'चतु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। संघयन्त्यास्तरसात्मभूषाहीराकुरप्रोतदुकूलहारी / / दिशा नितम्बं परिधाप्य तन्व्यास्तत्पापसंतापमवाप भूमः // 28 // अन्वयः-तरसा संघट्टयन्त्याः ( कस्याश्चित् ) तन्व्याः आत्म""हारी भूपः नितम्बं दिशा परिधाप्य तत्पाप-संतापम् अवाप / टीका-तरसा वेगेन संघटयन्त्या: अभिघातं प्राप्तायाः कस्याश्चित् तन्वनया: आत्मनः स्वस्य याः भूषाः अलङ्काराः (10 तत्पु० ) तासु ये हीरकाः हीराः ( स० तत्पु० ) तेषाम् अकुरेषु कोटिषु अग्रभागेष्वित्यर्थः (10 तत्पु० ) प्रोतम् सक्तम् लग्नमिति यावत् ( स० तत्पु० ) यद् दुकूलम् वसनम् ( कर्मधा० ) तत् हरति अपनयतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) भूपः राजा नलः नितम्बम् तस्याः कटिभागम् दिशा दिशया परिधाप्य आवृत्य दिगम्बरीकृत्येत्यर्थः तेन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टः सर्गः परस्त्रीदुकूलापहरणेन यत् पापम् किल्विषम् तेन संतापम् दुःखम् अवाप प्राप्तवान् / अबूद्धिपूर्वकं कृतेनापि परस्त्रीविवसनीकरणेन नलः परमदुःखोबभूवेति भावः // 28 / ___व्याकरण--संघट्यन्त्या सम् + घट्ट + णिच् + शतृ + ङीप् / भूषा -भूष्यतेऽनयेति भूष + क ( करणे ) + टाप् / परिपाप्य परि + Vधा + णिच पुगागम + ल्यप् / भूपः भुवम् पातीति भू +/पा+ क ( कर्तरि)। अनुवाद-जोर से टकराती हुई (किसी ) कृशांगी का अपने भूषणों में ( जड़े ) हीरों की नोकों पर फंसा वस्त्र खींचते हुए राजा नल उसके नितम्ब को नग्न करके उस पाप से दुःखी हुए // 28 // . टिप्पणी-यहां दु:खी हो जाने का कारण बता देने से कायलिंग है। दुःख विषाद का पर्याय है, जो सञ्चारी भावों में गिना जाता है, इसलिए भावोदयालंकार भी है। और कोई युवा होता, तो इस बात से प्रसन्न हो जाता किन्तु नल उदात्त चरित्र थे अतः उन्हें विषाद होना स्वाभाविक है / 'हीरा' 'हारी' में छेक, 'पाप, ताप, वाप' में तुक मिलने से पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / हतः कयाचित्पथि कन्दुकेन संघट्टय भिन्नः करजैः कयापि। कयाचनाक्तः कुचकुङ्कुमेन संभुक्तकल्पः स बभूव ताभिः // 29 / अन्वयः-स पथि कयाचित् कन्दुकेन हतः; कया अपि संघट्टय करजः भिन्नः; कयाचन कुच-कुङ्कुमेन अक्तः; (एवम् ) ताभिः संमुक्त कल्पः बभूव / टीका-स नलः पथि चतुष्पथे कयाचित् सुन्दर्या कन्दुकेन गेंडुकेन हतः ताडितः अन्यस्याः सख्युः पार्वे प्रक्षिप्तः कन्दुकः मध्येऽअदृश्यरूपेण स्थिते नले लग्न इति भावः; कया अपि युवत्या संघट्टय अभिहत्य करजैः अङ्गुलिभिः भिन्नः उल्लिखितः; कयाचन तरुण्या कुचयोः स्तनयोः कुकुमेन काश्मीरजेन अक्तः लिप्तः आलिङ्गन द्वारा स्वकुचलिप्तकुंङकुमं राजनि संक्रमितमित्यर्थः; एवम् ताभिः सुन्दरीभिः नलः ईषद् ऊनः संभुक्त इति संभुक्तकल्पः कृतसंभोगप्रायः बभूव जातः, ताभिः नलेन सह बाह्यरतिः कृतेति भावः / / 29 // व्याकरण-करजैः करयोः जायन्ते इति कर + जन् + डः / अक्तः अञ्ज + क्तः ( कर्मणि ) / संयुक्तकल्पः सम् + भुज + क्त + कल्पप् / अनुवाद - वे ( नल ) मार्ग में किसी ( युवती ) द्वारा गेंद से मारे गये; किसी द्वारा टकराकर नाखूनों से खरोच दिये गये और किसी द्वारा ( आलिंगन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते करके ) कुचों पर लगे कुंकुम से रंग दिए गये-( इस प्रकार ) वे ( युवतियाँ) उनके साथ संभोग-जैसा कर बैठी // 29 // टिप्पणी--यहाँ एक ही कारक ( नल ) के साथ गेद से आहनन, करजों से भेदन और कुंकुम से अभ्यञ्जन-अनेक क्रियाओं का सम्बन्ध होने से कारकदीपक है। संभुक्त-कल्प' में सादृश्याभिधान होने से उपमा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। ताभि:-इससे यह सूचित होता है कि उन सुन्दरियों ने ही जान-बूझकर राजा के साथ संभोग किया, राजा नल ने नहीं। वे तो धर्मात्मा थे / ऐसा क्यों करते ? तटस्थ ही रहे। छायामयः प्रैक्षि कयापि हारे निजे स गच्छन्नथ नेक्ष्यमाणः / तच्चिन्तयान्तनिरचायि चारु स्वस्यैव तन्व्या हृदयं प्रविष्टः / / 30 / / अन्वयः-कया अपि तन्व्या निजे हारे छायामयः स प्रैक्षि; अथ गच्छन् न ईक्ष्यमाणः ( सन् ) तच्चिन्तया ( सः) स्वस्य एव हृदयम् प्रविष्टः' इति ( तया) अन्तः चारु निरचाथि / टोका-कया अपि कयाचित् तन्व्या कृशाङ्गया निजे स्वीये हारे मौक्तिकस्रजि छाया एवेति छायामय: प्रतिबिम्बरूपः स नलः प्रेक्षि प्रेक्षितः, कापि सुन्दरी स्वहारे नलस्य प्रतिबिम्बमालोकयदित्यर्थः,अथ अनन्तरम् गच्छन् तस्मात् स्थानात् अपसरन् ( नलः ) न ईक्ष्यमाणः हारे प्रतिबिम्बरूपेण न विलोक्यमानः सन् 'क्व गतोऽसौ, हारे न विलोक्यते' इति तस्य प्रतिबिम्बितनलस्य चिन्तया चिन्तनेन 'स नलः स्वस्य आत्मन ममेत्यर्थः एव हृदयम् अन्तःकरणम् प्रविष्टः गतः इति तया अन्तः स्वमनसि चारु सम्यक् यथास्यात्तथा स निरचायि निश्चितः / हारे न पश्यन्ती सा 'मम हृदये एवासौ प्रविष्ट' इति सुतरां निश्चितवतीति भावः // 30 // व्याकरण - छायामयः छाया + मयट ( स्वरूपाथें ) / प्रैक्षि प्र+Vईक्ष + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / निरचायि निर् + चि + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / __अनुवाद--किसी कृशाङ्गी ने उन (नल) को अपने हार में प्रतिबिम्बित हुआ देख लिया; बाद को ( वहाँ से उनके ) चल पड़ने पर देखने में न आते हुए उनके विषय में सोचने से उसने अच्छी तरह यह निश्चय कर लिया कि वे मेरे ही हृदय के भीतर प्रविष्ट हो गये हैं // 30 // टिप्पणी-युवती का हार हृदय में था। उसमें नल के प्रतिबिम्ब का अभाव देखकर वह चिन्ता में पड़ गई कि गये, तो कहाँ गये, अभी तो यहीं थे। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः सोचकर निश्चय हो गया कि हार हृदय में था, इसलिए समीप होने से वे हृदय के भीतर ही चले गये। भावार्थ यह निकला कि नल को प्रतिबिम्ब-रूप में देखकर वह उन्हें हृदय में स्थान दे बैठी और उनके वियोग में अकुलाने लगी। विद्याधर ने युवति को चिन्ता होने से यहां भावोदयालंकार माना है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। तच्छायसौन्दर्यनिपीतधैर्याः प्रत्येकमालिङ्गदम् रतीशः। तिप्रतिद्वन्द्वितमासु नूनं नामूषु निर्णोतरतिः कथंचित् // 31 // अन्वयः-रतीशः तच्छाय""धैर्याः अमूः प्रत्येकम् आलिङ्गत्, रति "मासु अमूषु ( सः) कथञ्चित् निर्णीतरतिः न अभूत् नूनम् / / ____टीका--रत्याः ईशः पतिः काम इत्यर्थः ( 10 तत्पु 0 ) तस्य नलस्य छाया हार-मणिकुट्रिमादिषु पतितं प्रतिबिम्बम् (10 तत्पु० ) तस्य सौन्दर्येण लावण्येन निपीतम् अपनीतमित्यर्थः ( ष. तत्पु० ) धैर्यम् धृतिः ( कर्मधा० ) यासां तथाभूताः ( ब ब्री० ) अमूः अन्तपुरसुन्दरीः प्रत्येकम् एकाम् एकामिति ( अव्ययी भाव ) पृथक-पृथगित्यर्थ: आलिङ्गत आश्लिष्यत् / रत्याः प्रतिद्वन्द्वितमासु अतिशयेन प्रतिस्पधिनीषु रतिसदृशीष्वित्यर्थः अमूषु एतासु स काम: कन्चित् केनापि प्रकारेण निर्णीता विनिश्चिता रतिः स्वपत्नी ( कमंधा०) येन तथाभूतः ( ब० वी० ) न अभूत् जातः नूनमित्युत्प्रेक्षायाम् / तत्र सर्वा अपि युवतयो रतितुल्या आसन् इति भावः // 31 // ___व्याकरण---तच्छायम् 'विभाषा सेना०' ( 2 / 4 / 26 ) से विकल्प नपुंसक लिङ्ग / सौन्दर्यम् सुन्दर्या भाव इति सुन्दरी + ध्यन पुंवद्भाव / प्रतिद्वन्द्वितमासु द्वे द्वे इति द्वन्द्वम् प्रतिगतं द्वन्द्वम् प्रतिद्वन्द्वम् तदासामस्तीति प्रतिद्वन्द्विन्यः अतिशयेन प्रतिद्वन्द्विन्य इति प्रतिद्वन्द्विनी + तरप् , पुंवद्भाव + टाप् / . __ अनुवाद-कामदेव उन ( नल ) के प्रतिबिम्ब के सौन्दर्य ( को देखने ) से धैर्य खोये हुए उन युवतियों में से प्रत्येक का आलिंगन कर बैठा मानो वह किसी भी तरह निश्चय न कर सका हो कि रति से होड़ करने वाली उन ( युवतियों) में ( असली ) रति कौन है / / 31 / / टिप्पणो--अन्तःपुर की सभी युवतियां रति-जैसी सुन्दर थीं। कामदेव उनमें से अपनी पत्नी रति को पहचान ही न सका कि कौन है, इसलिए यह सोचकर कि इनमें से कोई न कोई रति होगी ही, सभी का आलिंगन कर Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते बैठा / भाव यह निकला कि नल का प्रतिबिम्ब देखकर सब मोहित हो गई और उनमें नलविषयक काम भड़क उठा। अलंकार यहाँ उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक शब्द नूनम् है। धैर्य नामक संचारी भाव के उपशमन से भावोपशमन अलंकार भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। 'रती' 'रति' 'रतिः' में भी एक से अधिक बार वर्णों की आवृत्ति के कारण छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास ही है। तस्माददृश्यादपि नातिबिभ्युस्तच्छायरूपाहितमोहलोलाः / मन्यन्त एवादृतमन्मथाज्ञाः प्राणानपि स्वान्सुदृशस्तृणानि // 32 / / अन्वयः--तच्छाय लोलाः सुदृशः अदृश्यात् अपि न अतिबिभ्युः, आहतमन्मथाज्ञाः ( ताः ) स्वान् प्राणान् अपि तणानि एव मन्यन्ते / / टोका-तस्य नलस्य छायाया: हारादी प्रतिबिम्बस्य रूपेण सौन्दर्येण (उभयत्र 10 तत्पु० ) आहितः जनितः (त० तत्पु० ) यो मोहः चित्तभ्रमः: (कर्मधा० ) तेन लोला: चञ्चलाः सु = शोभने दृशो नयने यासां तथाभूता (प्रादि ब० वी० ) सुन्दर्य इत्यर्थः अदृश्यात द्रष्टुमशक्यात् अन्तर्हितादिति यावत् अपि नलात् न अतिशयेन विभ्युः भयं प्राप्ताः यतः आदतः संमानितः मन्मथस्य कामस्य आज्ञा आदेशः (10 तत्पु० ) याभिः तथाभूताः (ब० वी० ) ता: कामवशीभूता इत्यर्थः स्वान् निजान प्राणान् जीवितम् अपि तुणानि एव मन्यन्ते तृणाय मन्यते, तृणवत् तुच्छान् गणयन्ति स्मेति यावत् / यदा प्राणेभ्योऽपि तासां नासीत् भयम्, तर्हि कामवशीभूततया अदृश्यादपि नलात् ताः कुतो बिभीयुरिति भावः // 32 // व्याकरण--अतिविभ्युः अति + भी + लिट् / तच्छायम् - इसके लिए पिछला श्लोक देखिए। मन्मथः इसके लिए पीछे श्लोक 16 देखिए / आहित आ + Vधा + क्त ( कर्मणि) धा को हि / अनुवाद-उन ( नल ) के प्रतिबिम्ब के सौन्दर्य से उत्पन्न मोह के कारण बेचैन बनी सुन्दरियाँ अदृश्य होते हुए भी उनसे बहुत नहीं डरी, ( क्योंकि ) काम की आज्ञा मानती हुई वे प्राणों तक को भी तणवत् ( तुच्छ ) समझने लग गई थीं / / 32 // टिप्पणी-कामाधीन हुई सुन्दरियों को जब प्राणों तक का भी मोह न रहा, तो उन्हें डर अब किससे होनी थी। यहाँ भयनामक संचारी भाव के Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः समाप्त हो जाने से भाव-शमन अलंकार है। विद्याधर कायलिंग मान रहे हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। जागति तच्छायदृशां पुरा यः स्पृष्टे च तस्मिन्विससर्प कम्पः / द्रुते द्रुतं तत्पदशब्दभोत्या स्वहस्तितश्चारुदृशां परं सः // 33 // अन्वयः-तच्छायदृशाम् चारदृशाम् पुरा यः कम्पः जागति, तस्मिन् स्पृष्टे च ( यः कम्पः ) विससर्प, सः द्रुतम् द्रते ( तस्मिन् ) तत्पद-शब्दभीत्या परम् स्वहस्तितः / टीका-तस्य नलस्य छायाम् प्रतिबिम्बम् (10 तत्पु० ) पश्यन्तीति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु० ) चारु रम्ये दशौ नयने ( कर्मधा० ) यासां तथाभूतानाम् (ब० वी० ) सुलोचनानामिति यावत् पुरा पूर्वम् यः कम्प: सात्विकभावरूपो वेपथु: जागति जागरितः समुत्पन्न इत्यर्थः तस्मिन् अदृश्ये नले स्पृष्टे स्पर्शविषयीकृते च विससर्प प्रससार ववुधे इत्यर्थः, दर्शनापेक्षया स्पर्शनेन कम्पाख्यसात्विकभावस्याधिक्यं स्वाभाविकमेव, स कम्पः स्पर्शन-भयात् बुतम् शीघ्रम् द्रुते पलायिते तस्मिन् नले, तस्य नलख्य पदानाम् पाद प्रक्षेपाणाम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) शब्दात ध्वनेः भीत्या भयेन ( का ) (पं० तत्पु० ) परम् अत्यन्तम् स्वः हस्त: हस्तावलम्ब: साहाय्यमिति यावत् तम् प्रापितः, दत्तस्वहस्तावलम्बी. कृत इति यावत् पूर्व प्रतिबिम्बावलोकनेन, तदनु देहस्पर्शेन च क्रमशो वर्धमानः कम्पः पश्चात् तत्पादप्रक्षेपशब्दभीत्या अतिशयेन वृद्धि प्राप्त इति भावः // 33 // व्याकरण-तच्छायम् इस सम्बन्ध में पिछला श्लोक देखिए। ०दृशाम् Vश + क्विप ( कर्तरि ) / जागति 'पुरा' के योग में भूतार्थ में लट् / द्रुते * + क्त ( कर्तरि ) / भीतिः भी + क्तिन् ( भावे)। स्वहस्तितः इसकी व्युत्पत्ति पीछे श्लोक 25 में आये हुए ‘गलहस्तित' शब्द की तरह कर लीजिये। अनुवाद-उन ( नल ) का प्रतिबिम्ब देखने वाली सुलोचनाओं को जो कम्प पहले हुआ था तथा उनको छू लेने पर जो और फैल गया था, उनको जल्दी जल्दी भाग जाने पर उनकी पग-ध्वनि के भय ने उसे बहुत अधिक बढ़ा देने में अपनी सहायता दे दी / / 33 // टिप्पणो--भय के उदय होने से विद्याधर यहाँ भावोदयालंकार मान रहे हैं / किन्तु इस बात का ध्यान रहे कि नल को देखने और छू लेने पर सुन्दरियों को जो कम्प पहले हुआ, वह शृङ्गार रसका सात्विक भाव अथवा अनुभाव था. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते बाद को पैरों के भागने की आहट से उन्हें जो अत्यधिक कम्प हुआ, वह भयानक रस का अनुभाव था। कम्प नाम का अनुभाव क्या शृंगार और क्या भयानक-दोनों रसों में समान रूप से पाया जाता है। कवि का. यहां शृंगार का विरोधी भयानक रस असंवैधानिक है। 'दृशाम्' 'दृशाम्' तथा 'ते' 'द्र तं' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। उल्लास्यतां स्पृष्टनलाङ्गमङ्ग तासां नलच्छायपिबाऽपि दृष्टिः / अश्मैव रत्यास्तदनति पत्या छेदेऽप्यबोधं यदहर्षि लोम // 34 // अन्वयः-रत्याः पत्या तासाम् स्पृष्टनलाङ्गम् अङ्गम् उल्लास्यताम् (नाम) नलच्छायापिबा दृष्टिः अपि उल्लास्यताम् ( नाम ), छेदे अपि अबोधम् रोम यद् अहर्षि तत् अश्मा एव अनति / टीका-रत्याः पत्या स्वामिना कामेन तासाम् अन्तःपुरवर्तिनीनां सुन्दरीणाम् स्पृष्टम् स्पर्शविषयीकृतम् नलस्य अङ्गम् अवयवः (10 तत्पु० ) येन तथाभूतम् (ब० वी० ) अङ्गम् उल्लास्यताम् उल्लासं प्राप्यताम् नाम नलस्य छायायाः प्रतिबिम्बस्य पिबा पश्या तत्प्रतिबिम्बावलोकिनीति यावत् दृष्टिः दृग् अपि उल्लास्यताम् नास्ति तत्राश्चर्यम् किन्तु छेदे कर्तने अपि अबोधम् चेतनारहितम् तासां रोम लोम यत् महर्षि हर्षितम् हर्ष प्रापितमिति यावत् तत् ( रतिपतिना ) अश्मा पाषाण एव अनति नर्तितः / कामः कामिनीनां नलस्पृष्टमङ्ग नलप्रतिबिम्बविलोकि नयनं च उल्लासयति चेत् उल्लासयतु नाम अङ्गानां नयनस्य च चेतनत्वात्, किन्तु स तासां जडरोमाण्यपि उल्लासयति चेत्, तर्हि आश्चयमेव यतः जडानां कुतो हर्षः / तेषां हर्षणं जडप्रस्तरादीनां नर्तनमिवास्तीति भावः // 34 // व्याकरण-उल्लास्यताम् उत् + लस् + णिच् + लोट ( कर्मवाच्य ) / पिबः पिबतीति /पा+शः ("पा-घ्रा-मा-धेट-दृशः' (3 / 1 / 136) पिबादेश / अनति / नृत् + णिच् + लुड् ( कर्मवाच्य ) / छेदः /छिद् + घन ( भावे ) / महर्षि / हृष् + णिच् + लुङ, ( कर्मवाच्य ) / ___अनुवाद-कामदेव उन ( सुन्दरियों ) के नल के अंग से छुए अंग को हर्षोल्लसित करता है, तो करे; ( इसी तरह ) नल के प्रतिबिम्ब को देखने वाले नयनों को भी हर्षोल्लसित करता है, तो करे, (किन्तु ) काटने पर भी चेतना Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः शून्य बने रहने वाले रोम को जो उस ( कामदेव ) ने हर्षोल्लसित किया है, वह उसने पत्थर को नचाया है // 34 // टिप्पणी नल के अंग-स्पर्श से अथवा उनका प्रतिबिम्ब देखने से सुन्दरियों के अंगों अथवा नयनों के हर्षोत्फुल्लित होने में कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि अंग चेतन पदार्थ हैं। असम्भव बात तो यह है कि स्त्रियों के अचेतन तत्त्व रोम भी हर्षित हो गये / काटने पर वे दुःखी कहाँ होते हैं ? यह तो ऐसी बात हुई कि जैसे अचेतन पत्थर नाचने लगे हों। यहाँ रोमों को हर्षित करना और है एवं पत्थरों को नचाना और है। दोनों एक नहीं हो सकते, इसलिए असंभवद्वस्तुओं का यहाँ 'रोमहर्षणं अश्मननिमिव' यों बिम्ब-प्रतिबिम्ब-भाव होने से मल्लिनाथ के अनुसार निदर्शना है। विद्याधर यहाँ क्रिया-विरोध कह रहे हैं। कायलिंग तो स्पष्ट ही है / नल के अंगों के स्पर्श से सुन्दरियों को हर्ष नामक संचारीभाव होने से भावोदयालंकार भी है। 'नलाङ्गमङ्गं' 'नला' 'नल' में छेक, 'रत्या' 'पत्या' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / यस्मिन्नलस्पृष्टकमेत्य हृष्टा भूयोऽपि तं देशमगान्मृगाक्षी / निपत्य तत्रास्य धरारजःस्थे पादे प्रसीदेति शनैरवादोत् // 35 // अन्वयः-मृगाक्षी यस्मिन् ( देशे ) नल-स्पृष्टकम् एत्य हृष्टा, तम् देशम् भूयः अपि अगात्; तत्र धरारजःस्थे अस्य पदे निपत्य 'प्रसीद' इति शनैः अवादीत् / टीका-मृग्याः अक्षिणी इव अक्षिणी ( उपमान तत्प० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) काऽपि मृगनयनी यस्मिन् स्थाने नलस्य स्पृष्टकम् एतदाख्यम् आलिगनविशेषम् एत्य प्राप्य हृष्टा रोमाञ्चिता जातेति शेषः, तम् देशम् स्थानम् (सा) भयः पुनः अपि अगात् अगच्छत् / तत्र तस्मिन् देशे धरायाः पृथिव्याः यत् रजः धूलिः (10 तत्पु० ) तस्मिन् तिष्ठतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) धूलिगते इत्यर्थः अस्य नलस्य पदे पदचिह्न निपत्यं पतित्वा नमस्कारं कृत्वेति यावत् 'प्रसीद प्रसन्नो भव, मयि कृपां कुरु' इति यावत् इति शनैः मन्दस्वरं यथाऽन्यः कश्चिन्न शृणोतु अवादीत निजगात् / अकस्मात् नलगात्रेण स्वगात्रस्य संघट्टनात् रोमाञ्चिता कापि मृगनयनी कामाधीना भूत्वा पुनः नलेन संघट्टमैच्छदिति भावः // 35 // Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते व्याकरण--स्पृष्टकम् /स्पृश् + क्त ( भावे ) + क (स्वार्थे ) / एत्य आ + इ + ल्यप् / ०रजःस्थे रजस् + /स्था + कः ( कर्तरि ) / अनुवाद--( कोई ) मृगनयनी जिस जगह नल के साथ 'स्पृष्टक' आलिंगन करके रोमाञ्चित हो उठी थी, वहीं दोबारा आ गई। वहाँ जमीन की धूल पर पड़े इन ( नल ) के पद-चिह्न पर गिरकर धीरे-धीरे बोल बैठी-( मुझ पर ) कृपा कीजियेगा' // 35 // टिप्पणी--स्पृष्टकम्-यह एक प्रकार का आलिंगन होता है, जिसका लक्षण रतिरत्नप्रदीपिका में यह किया गया है-'प्रसंगेनाभिमुख्येन यूनोः संगच्छतो: पथि / अन्योऽन्यमङ्गसंश्लेषः स्पृष्टकं तदुदाहृतम्' / ( 3 / 21 ) अर्थात् प्रसंगवश मार्ग में आमने-सामने आते हुए प्रेमी-प्रेमिकाओं के अंग यदि एक-दूसरे से टकरा जाये, तो उसे 'स्पृष्टक' कहते हैं। इस प्रकार का आलिंगन प्रायः मन का भाव जानने हेतु होता है। मृगाक्षी में लुप्तोपमा है। विद्याधर के अनुसार यहाँ हर्ष-नामक संचारी भाव होने से भावोदयालंकार है, लेकिन हमारे विचार से यहाँ हर्ष संचारी नहीं, बल्कि रोमाञ्च नामक सात्विक भाव है, जो अनुभाव के अन्तर्गत है। हर्ष रोमाञ्च को भी कहते हैं जैसे 'रोमहर्षश्च जायते' / 'मगा' 'मृगा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भ्रमन्नमुष्यामुपकारिकायामायस्य भैमीविरहात्नशीयान् / / __ असौ मुहुः सोधपरम्पगणां व्यधत्त विश्रान्तिमधित्यकासु // 36 // ___ अन्वयः-भैमी-विरहात् क्रशीयान असो उपकारिकायाम् भ्रमन् आयस्य सोध-परम्पराणाम् अधित्य कासु मुहुः विश्रान्तिम् व्यधत्त / टीका-भैम्याः दमयन्त्याः विरहात् वियोगात् कारणात् क्रशीयान् अतिशयेन कृशः असो नलः उपकारिकायाम् राजप्रासादे भ्रमन सञ्चरन् आयस्य क्लमं प्राप्य श्रान्तो भूत्वेति यावत् सोधानाम् भवनानाम् परम्पराणाम् पङ्क्तीनाम् अधित्यकासु उन्नतभूमिषु मुहुः वारं वारं विधान्तिम् विश्रमम् व्यधत्त कृतवान् // 36 // ___ व्याकरण-शीयान कृश + ईयसुन्, ऋ को र। आयस्य आ+/यस् + ल्यप् / सौधम् सुधया ( प्रस्तरचूर्णेन ) निर्मितं लिप्त वेति सुधा + अण् / अधित्यकासु, उपत्यकासु-अधि, उप + त्यकन् संज्ञायाम् ( 5 / 2 / 34 ) / विधान्तिम् वि + Vश्रम् + क्तिन् ( भावे ) / व्यवत्त वि + /धा + लुड् ! Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-दमयन्ती के वियोग के कारण अत्यन्त कृश हुए नल राजमहल में घूमते-घूमते थककर भवनों की पंक्तियों के उन्नत समतल स्थानों में बार-बार विश्राम लेते रहते थे // 36 // टिप्पणी-अधित्यकासु-अधित्यका के स्थान में कहीं-कहीं उपत्यका पाठ भी मिलता है। विद्याधर, चाण्डूपंडित और मल्लिनाथ 'उपत्यकासु' ही पाठ देते हैं / अमरकोष में इन दोनों शब्दों का अर्थ इस तरह किया गया है-'उपत्यकादरासन्ना भूमिर्ध्वमधित्यका' / अर्थात् पहाड़ की ऊंचाई पर समतल मैदान को अधित्यका ( पठार ) और नीचाई पर समतल प्रदेश को उपत्यका (तलहटी) कहते हैं। हमें प्रकृत में पर्वत जैसे महलों के ऊँचे समतल स्थान की अपेक्षा पास के समतल स्थान वाला अर्थ यहाँ उचित लगता . / नारायण भी टीका में स्वयं भी 'उपत्यकासु' इति पाठः साधीयान्' मान चुके हैं। विद्याधर के अनुसार इस श्लोक में काव्यलिंग है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / उल्लिख्य हंसेन दले नलिन्यास्तस्मै यथादर्शि तथैव भैमी। तेनाभिलिख्योपहृतस्वहारा कस्या न दृष्टाजनि विस्मयाय // 37 // अन्वयः- हंसेन नलिन्या दले (भैमीम् ) उल्लिख्य तस्मै यथा भैमी अदर्शि, तथा एव तेन अभिलिख्य उपहृतस्वहारा भैमी दृष्टा ( सती ) कस्याः विस्मयाय न अजनि / टीका-हंसेन पूर्वम् नलिन्याः कमलिन्याः दले पत्रे ( भैमीम् ) उल्लिख्य चित्रापितां कृत्वा तस्मै नलाय यथा येन प्रकारेण भैमी अदशि दर्शिता आसीत, तथा तेन प्रकारेण एव अभिलिख्य लिखित्वा चित्रयित्वेति यावत् उपहृत : कण्ठे अपितः स्वः स्वकीयः हार: मौक्तिकस्रक ( कर्मधा 0 ) यस्याः तथा भूता मैमी दृष्टा विलोकिता सती कस्याः अन्तःपुर-सुन्दर्याः विस्मयाय आश्चर्याय न अजनि नाभूत् अपितु सर्वस्या अजनि इति काकुः / विश्रान्ति-क्षणे नलः कमलिनी-दले पूर्व हंसेन लिखितस्य तस्मै दर्शितस्य च दमयन्ती-चित्रस्यैवानुसारेण तस्याः चित्रं निर्माय, तस्याः गले च स्वहारं चित्रयति स्म, यद् दृष्ट्वा सर्वा अपि हर्म्य-स्त्रियः चकिता अभवन्निति भावः // 37 // व्याकरण- नलिनी नलिनान्यस्यां। सन्तीति नलिन + इन + ङीप् / अवशि/दृश् + णिच् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अजनि/जन् + लुङ् ( कर्तरि ) / विस्मयः वि + /स्मि + अच् ( भावे ) / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-कमलिनी के पत्र पर बना कर दमयन्ती का जो चित्र हंसने नल को दिखाया था, उसी तरह उन ( नल ) द्वारा बनाया गया ( दमयन्ती का) चित्र, जिसमें उन्होंने अपना मोतियों का हार उसके गले में पहना रखा था, देखने में आया हुआ ( अन्तःपुर की ) किस युवति को अश्चर्य चकित नहीं कर देता था ? / 37 / टिप्पणो-इस श्लोक में विद्याधर का अलंकारविषयक टिप्पणी खण्डित है। 'यथा-तथा' द्वारा प्रतिपादित साम्य में उपमा स्पष्ट ही है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। उपहृतस्वहारा-इससे यह सूचित होता है कि दमयन्ती का चित्र बनाकर नल यह समझ बैठे कि प्रत्यक्षतः वह मुझे मिल ही गई है, इसलिए क्यों न अब उसके गले में अपनी हार पहना दूं ? यह सब उनके चित्तभ्रम का खेल है। कौमारगन्धो न निवारयन्तो वृत्तानि रोमावलिवेचिह्ना। सालिख्य तेनैक्ष्यत यौवनीयद्वा:स्थामवस्था परिचेतुकामा // 38 / / अन्वयः-तेन यौवनीयद्वाःस्थाम् अवस्थाम् परिचेतुकामा ( अतएव) रोमावलि-वेत्र-चिह्ना ( सती ) कौमार-गन्धीनि वृत्तानि निवारयन्ती सा आलिख्य ऐक्ष्यत / टोका-तेन नलेन यौवनस्येयमिति यौवनीया युवावस्थासम्बन्धिनीया द्वाः द्वारम् अथ च प्रारम्भः ( कर्मधा० ) तस्यां तिष्ठतीति तथोक्ताम् (उपपद तत्पु०) अवस्थाम् दौवारिकत्वाधिकारम् अथ च यौवनारम्भदशाम् परिचेतुम् अभ्यसितुम् अङ्गीकर्तुमिति यावत् कामः इच्छा यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) अतएव रोम्णाम् शरीरलोम्नाम् आवलिः पङ्किः ( 10 तत्पु० ) एव वेत्रम दण्ड: चिह्न रूपम् ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ), कुमार्याः अयमिति कौमारः शैशवसम्बन्धीत्यर्थ: गन्धः लेशः सम्बन्धो वा कर्मधा० येषु तथाभूतानि (ब० वी०) वृत्तानि आचरणानि क्रीडादोनि निवारयन्ती प्रतिषेधन्ती सा दमयन्ती आलिख्य चित्रयित्वा ऐक्ष्यत विलोकिता। शैशवावस्थां विहाय यौवनावस्था. मारोहन्त्याः दमयन्त्याश्चित्रं निर्माय नलोऽवलोकितवानिति भावः // 38 // व्याकरण-यौवनीय युवत्या भाव इति युवति + अण, पुंवद्भावे योवनम् यौवनस्येति यौवन + छ, छ को ईय / 0 स्थाम् स्था + क + टाप / परिचेतुकामा तुम्-काम-मनसोरपि से म का लोप / कौमार कुमारी + अण् ( पुंवद्भाव ) / ऐक्ष्यत /ईक्ष् + लङ् ( कर्मवाच्य ) / Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर: सगः अनुवाद-नल ने यौवन के द्वार (प्रारंभ) पर स्थित अवस्था को अपनाना चाहती हुई, ( अतएव ) चिह्न-रूप में रोमावली की बेंत लिये शैशव सम्बन्धी आदतों को रोकती हुई दमयन्ती का चित्र बनाकर देखा // 38 // टिप्पणी नल ने दमयन्ती की 'वयःसन्धि' का चित्र बनाया। यौवनारम्भ के कारण शरीर पर अब रोमावली उग आई थी, जिस पर कवि वेत्रदण्ड का आरोप कर रहा है। द्वार पर खड़ी द्वारपालिका हाथ में बेंत पकड़े रहती है और ऐरे-गैरे आने वालों को रोक देती है। दममन्ती भी यौवन-द्वार पर खड़ी हुई है और रोमावली के रूप में बेंत पकड़े अपनी शैशवोचित आचरणों-आदतों को रोकती जाती है। यहाँ यौवनारम्भ पर द्वारत्व, रोमावली पर वेत्रदण्डत्व और स्वयं दमयन्ती पर द्वारपालिकात्व का आरोप होने से साङ्ग रूपक है। शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है / पश्याः पुरन्ध्रोः प्रति सान्द्रचन्द्ररजःकृतक्रीडकुमारचक्रे / चित्राणि चक्रेऽध्वनि चक्रवर्तिचिह्न तदङ् घ्रिप्रतिमासु चक्रम् // 39 // अन्वय-सान्द्र... चक्रे अध्वनि तदध्रिप्रतिमासु चक्रवति-चिह्नम् पश्याः पुरंध्रीः प्रतिमासु चित्राणि चक्रे / टोका-सान्द्रं धनम् यत् चन्द्र रजः ( कर्मधा० ) चन्द्रस्य घनसारस्य कर्पूरस्येति यावत् ( 'अथ कर्पूरमस्त्रियाम् / घनसारश्चन्द्रसंज्ञः' इत्यमरः) रजः धूलिः (10 तत्त्०) तेन कृता विहिता ( तृ० तत्ए० ) क्रीडा खेला ( कर्मधा०) येन तथा भूतम् (ब० बी० ) कुमारचक्रम् ( कर्मधा० ) कुमाराणां बालानां चक्रं समूहः ( 10 तत्पु० ) यस्मिन् तथाभूते / ब० वी० ) अध्वनि मार्गे तस्य नलस्य अज्रयोः चरणयोः प्रतिमासु प्रतिविम्बेष ( उमयत्र 10 तत्पु० ) चक्रवर्तिनः सार्वभौमनृपस्य चिह्न लक्षणं रेखाख्पमित्यर्थः चक्रम् मण्डलं गोलरेखामिति यावत् पश्या: पश्यन्तीः पुरंध्रो: कुटुम्बिनी: प्रति लक्ष्यीकृत्य चित्राणि आश्चर्याणि ('आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः) चक्रे अकरोत् / मार्गे नलपदचिह्नष चक्रवर्तिलक्षणं चक्राकारगोलरेखां विलोक्य कुटुम्बिन्यश्चकिता बभूवुः अत्र कश्चक्रवर्ती नृपो गत इति भावः // 39 ! / व्याकरण-क्रीडा क्रीड् + अ + टाप् / पश्याः पश्यन्तीति / दृश् + श: Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते पश्यावेश + टाप् [ 'पाघ्रा०' 3 / 1 / 13 ] पुरंध्रीः पुरम् गृहस्थजनान् धारयतीति पुर++ खच् + ङीप् / अनुवाद-जिस मार्ग से कुमारों की टोली सघन कपूर की धूल से क्रीडा किये हुए थी, वहाँ उन ( नल ) के पैरों की छापों पर चक्रवर्ती का चिह्न चक्र देखती हुई गृहस्थनियाँ चकित रह जाती थीं / / 39 // टिप्पणी-कपूर की सफेद घुल पर नल के पैरों की स्पष्ट छाप पड़ी हुई थी, जिसे देखकर उस मार्ग से आने-जाने वाली गृहणियां दंग रह जाती थीं कि पैरों पर चक्रवर्ती का चिह्न-चक्र-वाला कौन सा पुरुष यहाँ से गुजरा होगा। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार पैरों के तलवों में चक्र का चिह्न चक्रवर्ती-चिह्न माना जाता है। विद्याधर यहाँ 'चक्र' शब्द में वर्णो की आवृत्ति से छेकानुप्रास कह गये हैं, लेकिन ये भूल गये हैं कि यह एकबार की आवृत्ति में ही हुआ करता है ('छेको व्यञ्जनसंघस्य सकृत साम्यमनेकधा' ) / यहाँ एक से अधिक बार आवृत्ति है, अत वृत्त्यनुप्रास ही है। तारुण्यपुण्यामवलोकयन्त्योरन्योन्यमेणेक्षणयोरभिख्याम् / मध्ये मुहूर्त स बभूव गच्छन्नाकस्मिकाच्छादनविस्मयाय // 40 // अन्वयः-तारुण्येन पुण्याम् अन्योन्यम् अभिख्याम् अवलोकयन्त्योः एणेक्षणयोः मध्ये मुहूर्तम् गच्छन् स आकस्मिकाच्छादनविस्मयाय बभूव / टीका-तारुण्येन यौवनेन पुण्याम् मनोज्ञाम् रम्यामिति यावत् ('पुण्यं मनोज्ञ' इति विश्वः) अन्यस्या अन्यस्या इत्यन्योऽन्यम् परस्परम् पारस्परिकीमिति यावत् अभिल्याम् शोभाम् ( 'अभिख्या नाम-शोभयोः' इत्यमरः ) अवलोकयन्त्योः पश्यन्त्योः एणस्य मृगस्येव ईक्षणे नयने ( उपमान तत्पु० ) ययोः तथाभूतयोः (ब० बी० ) मृगीदृशोः इत्यर्थः मध्ये मध्यस्थाने मुहुर्तम् क्षणम् गच्छन् ब्रजन् स नलः आकस्मिकम् अकस्मात् जातम् यत् आच्छादनम् परस्परतिरोधानम् ( कर्मधा० ) तेन यः विस्मयः आश्चर्यम् तस्मै बभव जातः / सह गच्छन्त्योः द्वयोः युवत्योर्मध्ये सहसा आगत्य क्षणं व्यवधानं च कृत्वा नल आश्चर्यमजी जनदिति भावः // 40 // व्याकरण-तारुण्यम् तरुण्याः भाव इति तरुणी + ष्यन पुंवद्भाव / अन्यो। न्यम् कमव्यतिहारे द्वित्वम् / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति /ईक्ष् + ल्युट् ( करणे ) / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाः सर्गः 43 अभिख्या अभि + Vख्या + अङ् + टाप् / मुहूर्तम् (कालात्यत्तसंयोगे द्वि०) आकस्मिक-अकस्मात् + ष्ठक् टिलोप। अनुवाद-तरुणाई से रमणीय बनी परस्पर एक दूसरी की शोभा को देखती हुई दो मृगनयनियों के बीच में क्षणभर के लिए जाते हुए वह ( नल ) अकस्मात् व्यवधान कर देने से ( उनमें ) आश्चर्य उत्पन्न कर बैठे / / 40 / / / टिप्पणी-दो मृगनयनियों के बीच से अकस्मात् नल गुजर रहे थे तो रुकावट आ जाने से वे क्षणभर एक-दूसरी को न देख सकीं, तो हैरान हो बैठी कि यह क्या जादू है, जो सहेली एकाएक गायब हो गई है। यहाँ प्रश्न उठता है कि नल जब अदृश्य हैं, तो अपने शरीर से वे व्यवधान कैसे कर बैठे ? यह तो. सरासर विरुद्ध है यही बात प्रतिबिम्ब आदि में भी समझ लीजिए। इसके उत्तर के लिए हम पाठकों को सर्ग 5 श्लोक 13 , में इन्द्र द्वारा नल को दिए 'भूयादन्तधिसिद्धरनुविहितभवच्चित्तता यत्र तत्र' इस वरदान की ओर ले जाते हैं / इन्द्र ने सब कुछ नल की इच्छा पर छोड़ दिया है कि वे चाहें, तो न दिखाई देते हुए भी छूए जा सकते हैं, भूषणों और मणिमय कुट्टिमों में अपना प्रतिबिम्ब डाल सकते हैं, अपने शरीर से दूसरे को ढक सकते हैं इत्यादिइत्यादि / तभी तो युवतियों को आश्चर्य होता रहता था कि ये अनहोनी बातें क्या हैं। किन्तु दिव्य वरदान की शक्ति के सामने सब संभव है। विरोध की कोई बात नहीं। 'तारुण्यपूर्णया' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। * पुरस्थितस्य क्वचिदस्य भूषारत्नेषु नार्यः प्रतिबिम्बितानि / व्योमन्यदृश्येषु निजान्यपश्यन्विस्मित्य विस्मित्य सहस्रकृत्वः॥ 41 // अन्वयः-क्वचित् पुरःस्थितस्य अस्य अदृश्येषु भूषा-रत्नेषु निजानि प्रतिबिम्बितानि विस्मिल्य विस्मिल्य नार्यः सहस्रकृत्वः व्योमनि अपश्यन् / टीका-क्वचित कस्मिंश्चित् स्थाने युवतीनां पुरः अग्रे स्थितस्य वर्तमानस्य अस्य नलस्य भूषाणाम् आभरणानाम् रत्नेषु मणिषु निजानि स्वीयानि प्रतिबिम्बितानि प्रतिबिम्बानि विस्मित्य विस्मित्य पौन:पुन्येन आश्चर्य कृत्वा सहस्रकृत्वः सहस्रवारम् ब्योमनि आकाशे शून्ये इति यावत् अपश्यन् अवालोकयन् / नलस्य भूषणरत्नेषु युवतीनां छाया तु अपतत् किन्तु नलभूषारत्नानि अदृश्यान्यासन्निति शून्ये स्वप्रतिच्छायाः दृष्ट्वा ताः भृशं विस्मिताः जाताः इति भावः / / 41 // व्याकरण-भूषा इसके लिए पीछे श्लोक 28 देखिए / प्रतिविम्बितानि Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरित प्रतिबिम्ब + क्त ( भावे ) / विस्मित्य विस्मित्य आभीषणे क्त्वा, क्त्वा को * ल्यप् और द्वित्व / सहस्रकृत्वः सहस्र + कृत्वस् / ___ अनुवाद-किसी जगह सामने खड़े हुए इन ( नल ) के अदृश्य भूषणों के रत्नों के भीतर ( पड़ी ) अपनी परछाइयाँ बार-बार आश्चर्यचकित होकर नारियाँ हजारों बार शून्य में देखा करती थीं // 41 // टिप्पणी-भूषण नहीं दीख रहे हैं। किन्तु उनमें पड़ी नारियों की प्रतिछाया दीख रही है-इसका कारण हम पिछले श्लोक में बता आए हैं / मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ प्रतिछाया का आधार नहीं, इसलिये कारण के बिना कार्य होने से विभावना है, किन्तु विद्याधर ने 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कहा है / 'दृश्ये' “पश्य' तथा 'विस्मित्य विस्मित्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तस्मिन्विषज्यार्धपथात्तपातं तदङ्गरागच्छुरितं निरोक्ष्य / विस्मेरतामापुरविस्मरन्त्यः क्षिप्तं मिथः कन्दुकमिन्दुमुख्यः॥ 42 // अन्वयः-इन्दुमुख्यः मिथः क्षिप्तम् ( किन्तु ) तस्मिन् विषज्य अर्धपथात् आत्तपातम् तदङ्गरागच्छरितम् कन्दुकम् निरीक्ष्य अविस्मरन्त्यः विस्मेरताम् आपु:। टोका-इन्दुवत् चन्द्रवत् मुखम् ( उपमान तत्पु० ) यासां तयाभूताः (ब० बी० ) सुन्दयः मिथः परस्परम् क्षिप्तम् प्रेरितम् किन्तु मध्येमार्गम् तस्मिन् नले विषज्य लगित्वा संघस्य त्यर्थः अपंचासौ पन्थाः मार्गः तस्मात् ( कर्मघा० ) अथवा पथः अर्धम् इत्यधं पथः तस्मात् (ष० तत्पु० ) एष आत्त: गृहीतः प्राप्त इत्यर्थः पातः पतनम् ( कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (ब० बी० ) तस्य नलस्य अङ्गरागेण शरीरगतकुंकुमादिलेपेन (10 तत्पु० ) छुरितम् लिप्तम् कन्दुकम् गेण्डुकम् निरीक्ष्य दृष्ट्वा अविस्मरन्त्यः एतत् सम्यक् स्मरन्त्यः यदस्माभिः परस्परमेव कन्दुकः प्रक्षिप्तो न त्वन्यस्मिन् विस्मरताम् विस्मितत्वम् आयुः प्रापुः अदृश्यनलदेहसंघट्टितम् गृहीततदङ्गरागञ्च कन्दुकमवलोकयन्त्यस्ताः परमाश्चर्य प्राप्ता इति भावः // 42 // व्याकरण-विषज्य वि + /संज् + ल्यप् स को ष / आत्त आ + /दा + क्त ( कर्मणि)। अङ्गरागः रज्यते लिप्यतेऽनेनेति रंज + घञ् (करणे) अङ्गस्य देहस्य रागः = लेपनद्रव्यम् / छुरितम् /छुर् + क्त ( कर्मणि ) / विस्भेर Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काः सर्गः 45 ताम् विशेषेण स्मयन्ते इति + वि + स्मि + र + टाप् तासां भाव इति विस्मेर + मल् + टाप् पुवद्भाव आपः आप् + लिट् ब० व० / / ___ अनुवाद-चन्द्रमुखियां आपस में एक दूसरी के पास फेंके हुए ( किन्तु) नल से टकराकर आधे रास्ते में ही नीचे गिरे तथा उनके अङ्गराग से पुते हुए गेंद को देखकर अच्छी तरह न भूलती हुई ( कि हमने किसी गैर पर गेंद नहीं फेंका है ) भौंचक्की रह गईं // 42 // टिप्पणी-जिसके पास गेंद फेंका था उसको न पहुंचकर वह बीच में गिर पड़ा। उठाकर देखा तो उसपर अंगराग लगा हुआ था। इस घटना से उनका आश्चर्य-चकित होना स्वाभाविक ही था। विद्याधर ने कहा है-'अत्र हेत्वलंकारः' / 'विस्मे' 'विस्म' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अविस्मरन्त्यः-यहाँ निषेध के प्रधान होने से नन की प्रसज्य-प्रतिषेधता ही उचित थी, किन्तु समास में आ जाने से उसकी विधेयता जाती रही अतः विधेयाविमर्श दोष बन रहा है। पुंसि स्वभर्तृव्यतिरिक्त भूते भूत्वाप्यनीक्षानियमवतिन्यः / छायासू रूपं भवि वीक्ष्य तस्य फलं दशोरानशिरे महिष्यः॥४३॥ अन्वयः-महिष्यः स्वभर्तृ-व्यतिरिक्त-भूते पुसि अनीक्षा-नियम-बतिन्यः भूत्वा अपि भुवि छायासु तस्य रूपम् वीक्ष्य दृशोः फलम् आनशिरे / टीका-महिष्यः राजपत्न्यः स्वः स्वकीयः भर्ता पतिः ( कर्मधा० ) तस्मात व्यतिरिक्त भिन्ने भूते व्यतिरिक्तरूपे पुंसि परपुरुषे इत्यर्थः (पं० तत्पु० ) अनीक्षा न ईक्षणम् अनवलोकनमिति यावत् ( नञ् तत्पु० ) तस्यां यो नियमः व्यवस्था ( स० तत्पु० ) एव व्रतम् ( कमंधा०) आसामस्तीति तथोक्ताः भूत्वा अपि परपुरुषादर्शनरूपपातिब्रत्यमातिष्ठमाना अपि सत्य इत्यर्थः भुवि मणिमयकुट्टिमे छायासु प्रतिबिम्बेषु तस्य नलस्य रूपम् सौन्दर्यम् वीक्ष्य विलोक्य दशोः नयनयोः फलम् प्रयोजनम् आनशिरे प्रापुः / परपुरुषच्छायामात्रदर्शने तासां पातिव्रत्यभङ्गो नाभवन्नयनं च कृतकृत्यमभूदिति भावः // 43 // व्याकरण-भर्ता भरतीति /भृ + तृच / अतिरिक्त अति + /रिच + क्त ( कर्तरि ) / ईक्षा - ईक्ष् + अ + टाप् / आनशिरे /अश् + लिट, द्वित्व, अभ्यास को दीर्घ और नुडागम / अनुवाद-रानियां अपने पति से भिन्न पुरुष ( के मुख ) को न देखने के Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते खत में स्थित हुई भी ( मणिमय ) फर्शों पर (पड़े ) प्रतिबिम्बों में उन (नळ) का सौन्दर्य निहार आँखों का फल प्राप्त कर गईं // 43 // टिप्पणी पुरुष का प्रतिबिम्ब तो पुरुष नहीं होता है, इसलिए पातिव्रत्यभंग का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु विद्याधर पुरुष को न देखने और उसका प्रतिबिम्ब देखने में क्रिया-बिरोध बता रहे हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / नियमवतिन्यः-नियमो व्रतमस्त्री तत्' इस अमरकं.ष के अनुसार नियम और व्रत पर्याय शब्द हैं। प्रकृत में नियम या व्रत-दोनों में से एक ही पर्याप्त था। दूसरा शब्द भी दे देने से अधिकपदत्व दोष झांक रहा है। विलोक्य तच्छायमतकि ताभिः पतिं प्रति स्वं वसुध पि धत्ते / यथा वयं किं मदनं तथैनं त्रिनेत्रनेत्रानलकोलनीलम् // 44 / / अन्वयः-ताभिः (मुवि ) तच्छायाम् विलोक्य अतकि-'यथा वयम् स्वम् पतिम् प्रति मदनम् ( दध्महे ) तथा वसुधा अपि त्रिनेत्र 'नीलम् एनम् स्वम् पतिम् प्रतिधत्ते किम् ?' टीका-ताभिः महिषीभिः भुवि तस्य नलस्य छायाम् प्रतिच्छायाम् अनातपरेखाल्पाम् (10 तत्पु० ) विलोक्य दृष्ट्वा अतकि तकितम् कल्पना कृतेत्यर्थ“यथा येन प्रकारेण वयम् स्वम् स्वकीयम् पतिम् भर्तारम् भीममित्यर्थः प्रति लक्ष्यीकृत्य मदनम् कामम् (प्रेम ) वध्महे धारयामः, तथा तेन प्रकारेण वसुधा भूः अपि त्रीणि नेत्राणि यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) महादेवस्येति यावत् यत् नेत्रम् तृतीयं नयनम् तस्य अनलस्य अग्नेः कोल: ज्वालैः ('वह योलि-कोली इत्यमरः ( सर्वत्र प० तत्पु० ) नीलम् कृष्णवर्णम् एनम् कामम् स्वपतिम् भीमम् प्रति धत्त धारयति / सूमो पतितां नलस्य कृष्णवर्णाम् अनातपात्मिकी छायाम् अधिकृत्य महिष्यः 'वयमिव भूरपि स्वपति भीमनृपं प्रति शिवनेत्रदाहेन कृष्णवर्णीभूतं कामं विभर्तीत्यकल्पकन्निति भावः // 44 // व्याकरण-तच्छायाम् इसके पीछे श्लोक 31 देखिए / अकि-Vतर्क + लुङ ( भाववाच्य ) / वसुधा-वसूनि ( धनानि ) दधातीति वसु + /धा + क्विप् ( कर्तरि ) / ___ अनुवाद-वे ( रानियाँ ) उन ( नल ) की ( काली ) परछाई ( भूमिपर पड़ी ) देखकर यह कल्पना कर बैठीं कि -"जिस तरह हम अपने पति ( नृप Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 4. भीम ) के प्रति काम ( प्रेम ) रख रही हैं, वैसे ही भूमि भी महादेव के नेत्र की अग्नि की ज्वालाओं से ( जलकर ) काला पड़ा हुआ काम अपने पति (भीम ) के प्रति रखती है क्या ? // 44 // टिप्पणी-नारायण 'अपि' शब्द को वसुधा से हटाकर 'धत्ते के साथ जोड़ते हुए, भागुरि के मत से अपि के अ का लोप करके 'पिधत्ते' बनाकर विकल्प में यह अर्थ भी करते हैं 'जिस तरह हम लज्जा के मारे बाहर प्रकट न करती हुई पति के प्रति अपने 'काम' (प्रेम) को हृदय में छिपाये रहती हैं, वैसे ही भूमि भी रख रही है क्या' पिधान का अर्थ छिपाना और राजा भूपति होता ही है। यहाँ किम्' शब्द उप्रेक्षा का वाचक होने से उत्प्रेक्षा है जिसके साथ यथा-शब्दवाच्य उपमा भी है। शब्दालंकारों में से विद्याधर 'त्रिनेत्रनेत्रा' में छेक कह रहे हैं, किन्तु हम एक से अधिक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास ही कहेंगे / अन्यत्र भी वृत्त्यनुप्रास है। रूपं प्रतिच्छायिकयोपनीतमालोकि ताभिर्यदि नाम कामम् / तथापि नालोकि तदस्य रूपं हारिद्रभङ्गाय वितीर्णभङ्गम् // 45 // अन्वयः-ताभिः प्रतिच्छायिकयोपनीतम् रूपम् यदि नाम कामम् आलोकितम् तथापि हारिद्र-भङ्गाय वितीर्ण-भङ्गम् अस्य तत् रूपम् न आलोकि / टीका-ताभिः महिषीभिः प्रतिच्छायिकया प्रतिबिम्बेन अपनीतम् प्राप्तम् रूपम् नलस्य स्वरूपं सौन्दयं वा यदि चेत् नाम यद्यपीत्यर्थ: कामम् यथेच्छम् आलोकितम् दृष्टम् तथापि हारिद्र: हरिद्रासम्बन्धी यो भङ्गः खण्डः तस्मै ( कर्मधा० ) वितीर्णः दत्तः भङ्गः पराजयः ( कर्मघा० ) येन तथाभूतम् (ब० वी० ) अस्य नलस्य तत् प्रसिद्ध रूपम् न आलोकि: विलोलितम् ताभिः नलस्य कृष्णवर्णा प्रतिच्छायव दृष्ट्वा, न तु साक्षात् तस्य हारिद्र सौवर्णमिति यावत् वास्तवं रूपं दृष्ट मिति नास्ति तासां पातिव्रत्यभङ्गदोष इति भावः // 45 // व्याकरण-प्रतिच्छाथिका-प्रतिच्छाया एवेति प्रतिच्छाया + क (स्वार्थे ) इत्वम् / आलोकि आ + लोक + लुङ ( कर्मवाच्य ) / हारिद्रः हरिद्राया अयमिति हरिद्रा + अण् / वितीर्ण वि + Vतृ + क्त, त को न, न कोण, ऋ को ईत्व / अनुवाद -- यद्यपि वे ( रायियाँ ) परछाईं के रूप में सामने आया हुआ ( नल का ) रूप यथेच्छ देख चुकी थीं, तथापि उन्होंने हल्दी के टुकड़े को मात किये हुए उन ( नल ) का वह प्रसिद्ध रूप ( साक्षात् ) नहीं देखा // 45 // Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-परछाईं काली हुआ करती है, उसमें किसी का गौर अथवा स्वणिक रूप नहीं दिखाई पड़ता है रानियों ने नभ के रूप की स्वर्णिम कान्ति साक्षात् देखी ही नहीं, उनकी काली परछाई-मात्र देखी है। ध्यान रहे कि यहाँ कवि शब्दों का हेरफेर करके श्लोक 43 का अर्थ दोहरा गया है। 'रूपं रूपं" 'लोकि लोकि' 'भङ्गा भङ्गम्' में छेक, 'मालोकि मालोकि' में अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भवन्नदृश्यः प्रतिबिम्बदेहव्यूहं वितन्वन्मणिकुट्टिमेषु / पुरं परस्य प्रविशन्वियोगी योगीव चित्रं स रराज राजा // 46 / / अन्वयः-वियोगी स राजा अदृश्यःभवन् मणि-कुट्टिमेषु प्रतिबिम्ब-देह-व्यूहम् वितन्यम्, परस्य पुरम् प्रविशन् योगी इव रराज ( इति ) चित्रम् / टीका-वियोगी अयोगी योगरहित इति यावत् अथच विरही स राजा नृपनलः अदृश्यः दृष्टयगोचरः भवन् सन्, मणिखचिताः कुट्ठिमाः बद्धभूमयः ( मध्यमपदलोपी स० ) इति मणि-कुट्टिमाः तेषु प्रतिबिम्वाः प्रतिबिम्बरूपा अथ च प्रतिरूपा ये देहाः शरीराणि ( कर्मधाः० ) तेषाम् ब्यूहम समूहम् वितन्वन् विस्तारयन् जनयन्नियर्थः परस्य बन्यस्य भीमस्येति यावत् पुरम् नगरम् अथच अन्यस्य पुरुषस्य देहम् ( 'पुरं पुरि शरीरे च' इतिविश्व:) प्रविशन् प्रवेशं कुर्वन् योगी विरहरहितः अथ च अणिमादिसिद्धि-युक्तः इव रराज शुशुभे इति चित्रम् आश्चर्यम् / नलो वियोगी अपि सन् योगीव बभूवेतिभावः / 46 / व्याकरण-अदृश्यः द्रष्टमशक्य हनि न + /इश् + ण्यन् / व्यूहः वि + / ऊह + पत्र ( भावे ) / अनुवाद-वियोगी वह राजा ( नल ) अदृश्य होते हुए, मणि जड़ित फर्णी पर प्रतिबिम्ब-रूप देह-समूह का निर्माण करते हुए तथा दूसरे ( राजाभीम ) के पुर ( नगर ) में प्रवेश करते इस तरह शोभित हो रहे थे जैसे ( अणिमा शक्ति से ) अदृश्य होता हुआ, प्रतिरूप देह-समूह रचता हुआ तथा दूसरे के पुर ( शरीर ) में प्रवेश करता हुआ योगी शोभित होता है आश्चर्य है / 46 / / टिप्पणी-यहाँ नल की योगी से तुलना की जा रही है। योगी अणिमा शक्ति से अदृश्य बन जाता है। नल भी इन्द्र के वरदान से अदृश्य बने हुए थे / योगी पूर्व जन्म के सभी संचित कर्मों के उपभोग हेतु एक साथ कितने ही समान Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ सर्गः , शरीर बना देता है, नल भी मणिमय फर्शों में प्रतिबिम्ब डालकर कितने ही शरीर बनाये हुए थे। योगी दूसरे के पुर अर्थात् काय में प्रवेश कर लेता है, नल भी दूसरे ( भीम ) के पुर अर्थात् नगर में प्रवेश किये हुए थे। दोनों में पूरी समानता मिल जाती है अतः उपमा है जिसके मूल में विरोधाभास अलंकार काम कर रहा है। जो वियोगी-योग रहित है, योगी-योगशक्तिवाले के समान है-यह विरुद्ध बात है। वियोगी का विरही अर्थ करके विरोध-परिहार हो जाता है / 'योगी' 'योगी' में यमक, 'पुरं'. 'पर' तथा 'राजा' 'राजा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पुमानिवास्पशि मया वजन्त्या छाया मया पूंस इव व्यलोकि / ब्रुवन्निवाकि मयापि कश्चिदिति स्म स स्त्रैणगिरः शृणोति // 47 // अन्वयः-'वजन्त्या मया पुमान् इव अस्पशि' 'मया पुस इव छाया व्यलोकि' 'मया अपि कश्चित् ब्रुवन् इव अतकि' इति स स्त्रैणगिरः शृणोति स्म। टीका-वजन्त्या विचरन्त्या मया पुमान् पुरुष इव अस्पर्शि स्पृष्टः' 'मया पुसः पुरुषस्य इव छाया प्रतिबिम्बम् व्यलोक दृष्टा / मया अपि कश्चित् कोऽपि पुमान् ववन् वदन् इव अतकिं तकितः' इति एवम् स नल: स्त्रैणाश्च ताः गिरः स्त्रीसम्बन्धिनी: वाणी: शृणोति स्म आकर्ण यति स्म / 47 / व्याकरण-अस्पशि /स्पृश् + लुङ ( कर्मवाच्य ) / व्यलोकि वि + लोक + लुड् ( कर्मवाच्य ) / अतकिं /तक् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / स्त्रैणाः स्त्रीणामिमा इति स्त्री+ नञ् न को ण अथवा स्त्रीणां समूह इति स्त्री + नङ् ( समूहार्थे ) तस्य गिरः (10 तत्पु० ) / शृणोतिस्म 'लट् स्मे' ( 3 / 2 / 118 ) भूत. काल में लट् / अनुवाद -- "जाते हुए मैने पुरुष का-सा स्पर्श किया है" "मैंने पुरुष की-सी परिछाई देखी है", 'मैंने बोलते हुए जैसे किसी पुरुष का अनुमान लगाया है"-इस प्रकार वे ( नल ) स्त्रियों की वाणियाँ सुन बैठे // 47 // टिप्पणी-स्त्रियाँ दमयन्ती को ये बातें कह रही थीं या आपस में ही बोल रही होंगी। यहाँ तीन उपमाओं की संसृष्टि है / शब्दा-लंकार वृत्त्यनुप्रास है / अम्बां प्रणत्योपनता नताङ्गी नलेन भैमी पथि योगमाप। स भ्रान्तिभैमीषु न तां व्यविक्त सा तं च नादृश्यतया ददर्श // 48 // Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-नताङ्गी भैमी अम्बाम् प्रणत्य उपनता सती नलेन ( सह ) पथि योगम् आप ( किन्तु ) स भ्रान्ति-भैमीषु ताम् न व्यविक्त, सा च अदृश्यतया तम् न ददर्श / टोका-नतम् आनतम् अङ्गम गात्रम् ( कमंधा० ) यस्याः सा (व० वी०) सुन्दराङ्गीत्यर्थः भैमी दमयन्ती अम्बाम मातरम् ( 'अम्बा माताऽथ' इत्यमरः ) प्रणत्य प्रणम्य उपनता आगता सती नलेन सह पथि मार्गे योगम् मिलनम् आप प्राप्तवती किन्तु स नल: भ्रान्तेः भैम्यः (ष० तत्पु०) अथवा भ्रान्तिजनिताः भैम्यः मध्यमपदलोपी स० / तासु मिथ्याभैमीष्क्त्यिर्थः ताम् वास्तवीम् भैमीम् न ब्यविक्त न विवेचितवान् भ्रान्त्युत्थापितभैमीनाम् वास्तव भैम्याश्च परस्परमिलनात् तासां मध्ये का वास्तवी भैमी काश्च भ्रमात्मिक्यः भैम्य इति बिवेकं कर्तु नाशकदिति भावः सा वास्तवी भैमी च अदृश्यतया दृगतीततया तम् नलम् न वदर्श दृष्टवती / / 48 / / व्याकरण-प्रणत्य प्र + /नम् + ल्यप् विकल्प से अनुनासिक का लोप और तुगागम / योगम् / युज् + घञ् कुत्वम् / आप /आप् + लिट् / व्यविक्त वि + विज् + लुङ् / अनुवाद-परमसुन्दरी दमयन्ती माता को प्रणाम करके आती हुई मार्ग में नल को मिल पड़ी, ( किन्तु ) मोह-वश कल्पित दमयन्तियों में से वे उस ( असली ) की पहचान नहीं कर पाये, न ही अदृश्य होने के कारण उन्हें वह देख पायी // 48 // टिप्पणी-यहाँ विद्याधर के अनुसार न पहचानने और न देखने का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है, किन्तु मल्लिनाथ का कहना है कि रूप-साम्य होने से भ्रमात्मक दमयन्तियों और असली दमयन्ती का अभेद बताने से सामान्यालंकार है / सामान्य वहाँ होता है जहाँ गुण-साम्य के कारण विभिन्न वस्तुओं में अभेद हो जाय / 'नता' 'नता' 'भैमी' 'भैमी' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रसूप्रसादाधिगता प्रसूनमाला नलस्योद्ममवीक्षितस्य / क्षिप्तापि कण्ठाय तयोपकण्ठे स्थितं तमालम्बत सत्यमेव // 49 / / अन्वयः-प्रसू-प्रसादाधिगता प्रसूनमाला उभ्रम-वीक्षितस्य अपि नलस्य कण्ठाय तया क्षिप्ता उपकण्ठे स्थितम् सत्यम् एव तम् आलम्बत / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टः सर्गः टीका-प्रस्वाः मातुः ( ‘जनयिंत्री प्रसूर्माता' इत्यमरः ) प्रसादात् अनुग्रहात् (10 तत्पु० ) अधिगता प्राप्ता प्रसन्नभूतायाः मातुः सकाशात् प्राप्तेत्यर्थः प्रसूनानाम् पुष्पाणाम् माला हारः उद्भ्रमेण भ्रान्त्या मोहेनेति यावत् यीक्षितस्य दृष्टस्य अपि नलस्य कण्ठाय गलाय तया दमयन्त्या क्षिप्ता प्रक्षिप्ता उपकण्ठे सभीपे ( 'उपकण्ठान्तिकाभ्यर्ण०' इत्यमरः ) स्थित वर्तमानम् सत्यम् वास्तविकम् एन तम् नलम् आलम्बत आश्रयत् सत्यनलकण्ठे पपातेति भावः // 49 // ___व्याकरण -- प्रसूः प्रसूते इति प्र + /सू + क्विप ( कर्तरि ) / प्रसूनम् प्र + /सू+ क्तः त को न / उद्ध्मः उत् + भ्रम् + घञ् / अनुवाद-माता की कृपा से प्राप्त पुष्पमाला उस ( दमयन्ती ) द्वारा यद्यपि भ्रम में देखे गये कल्पित नल के गले में डाली गई थी, ( तथापि ) वह समीप में ही खड़े हुए असली नल को जा पड़ी // 49 // टिप्पणी-भ्रमात्मक नल के गले में फेंकी हुई माला असली नल के हो गले में जो जा पड़ी-यह संयोग की बात समझिए जो भविष्य की ओर कवि का यह संकेत कर रही है कि यद्यपि नल दूत का पूरा-पूरा धर्म निभाते हुए देवताओं का पक्ष समर्थन करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखेंगे, साथ ही देवताओं को दूतियाँ भी अपना-अपना पूरा जोर लगाएंगी, तथापि वे सफल नहीं हो सकेंगे और अन्ततोगत्वा दमयन्ती की वर माला नल के ही गले में पड़ेगी और हुआ भी ऐसा ही। 'प्रस्' 'प्रसू' में यमक, 'कण्ठा' 'कण्ठे' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्रग्वासनादष्टजनप्रसादः सत्येयमित्यद्भुतमाप भूपः / क्षिप्तामदृश्यत्वमितां च मालामालोक्य तां विस्मयते स्म बाला // 50 // अन्वयः-~-भूपः वासना-दृष्ट-जन-प्रसादः इयम् सत्या इति अद्भुतम् आप, बाला च क्षिप्ताम् अदृश्यत्त्रम् इताम् ताम् आलोक्य विस्मयते स्म / / तत्पु० ) यो जनः. दमयन्तीरूपः ( कर्मधा० ) तस्य प्रसादः अनुग्रह-रूपा (10 तत्पु० ) इयम् माला सत्या वास्तवी, न तु काल्पनिकी इति हेतोः अद्भुतम् आश्चर्यम् आप प्राप्तवान् दमयन्त्याः काल्पनिकत्वेऽपि मालाया वास्तवत्वात् आश्चर्य स्वाभाविकमेव, बाला तरुणी दमयन्ती च क्षिप्ताम् काल्पनिकनलकण्ठोपरि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 नैषधीयचरिते प्रक्षिप्ताम् अवृश्यत्वम् नयनागोचरताम् इताम् गताम् ताम् मालाम् आलोक्य दृष्ट्वा विस्मयते स्म चकिता भवति स्म / तस्या अपि आश्चर्य स्वाभाविकमेव // 50 // व्याकरण-वासना वास् + णिच् + युच् + टाप् / प्रसादः प्र + /सद् + अद्भुतम् यास्काचार्य के अनुसार 'अभूतमिव' ( पृषोदरादित्वात् साधुः ) / आप:/आप् + लिट् / इताम/इ + क्त ( कर्तरि ) / अनुवाद-राजा नल ( सतत ) भावना करते रहने से देखने में आई हुई दमयन्ती के अनुग्रह-स्वरूप यह ( माला ) वास्तविक है ( काल्पनिक नहीं) इस कारण अचम्भित हो उठे, तथा तरुणी ( दमयन्ती भी ) फेंकी और गायब हुई उस ( माला ) को देखकर हैरान हो गई ( कि कहाँ गई है ) // 50 // टिप्पणी-कल्पित नल के गले में फेंकी हुई माला जमीन में पड़ी कहीं नहीं दिखाई दे रही है, उसे कौन ले गया होगा-इस तरह दमयन्ती के आश्चर्य की भी सीमा नहीं रही। उसे क्या पता था कि माला को नल ले गया है / इस श्लोक में विद्याधर की व्याख्या खण्डित है। आश्चर्य का कारण बता देने से दो काव्य-लिगों की संसृष्टि स्पष्ट ही है। 'माला' 'मालो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अन्यान्यमन्यत्रवदीक्षमाणी परस्परेणाध्युषितेऽपि देशे। आलिङ्गितालीकपरस्परान्तस्तथ्यं मिथस्तौ परिषस्वजाते / / 51 // अन्वयः-परस्परेण अध्युषिते अपि देशे अन्योन्यम् अन्यत्रवत् ईक्षमाणी तो आलिङ्गि-रान्तः मिथः तथ्यम् परिषस्वजाते। ___टाका-परस्परेण अन्योन्येन सत्यरूपेणेति शेषः अध्युषिते अधिष्ठिते अपि देशे स्थाने अन्योन्यम् परस्परम् अन्यत्रवत् अनध्युषित स्थानबत् ईक्षमाणौ भ्रान्त्या काल्पनिको आत्मानौ पश्यन्तौ तौ नल-दमयन्त्यो आलिगितम् आलिङ्गनम् अलीकम् मिथ्या यस्मिन् तथाभूतम् ( ब० वी० ) यत् परस्परान्तः ( कर्मधा 0 ) परस्परस्य अन्योन्यस्य अन्तः अन्तःकरणम् (ष० तत्पु०) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात् तथा (ब० वी० ) अथवा 'चाण्डू पण्डितस्य शब्देषु-' आलिङ्गितम् ( आश्लिष्टम् ) यत् अलीकम् परस्परं तस्य अन्तःमध्ये / अलीकालिङ्गनमध्ये तथ्यम् सल्यमालिङ्गनं जातम् / मिथः परस्परम् तथ्यम् सत्यम् यथा स्यात्तथा अपि परिषस्वजाते आलिलिङ्गतुः / निरन्तरया भावनया काल्पनिकस्य परस्परस्यालिङ्गनं कुर्वाणी अपि ती तन्मध्ये वास्तविकस्य परस्परस्यापि आलिङ्गनं कृतवन्तौ इति मावः // 51 // Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः व्याकरण परस्परेण अन्योन्यम् क्रिया-व्यतिहार में सर्वनाम को द्वित्व और पूर्व पद की विभक्तियों को सु विभक्ति अर्थात् प्रथमा। अध्युषिते अधि + - वस् + क्त: ( कर्मणि) अधि उपसर्ग लगने से वस् सकर्मक हो जाता है / आलिगितम् आ + /लिङ्ग + क्तः / भावे ) परिषस्वजाते परि + /स्वज् + लिट् द्विवचन उपसर्ग लगने से स को ष / __ अनुवाद-परस्पर एक ही स्थान में खड़े हुए भी अन्य ( कल्पित ) स्थानों की तरह एक दूसरे को देखते हुए वे दोनों ( नल-दमयन्ती) परस्पर काल्पनिक आलिंगनों के मध्य वास्तविक आलिंगन भी कर गये // 51 / / टिप्पणी-आलिङ्गित० इस समस्त पद का विग्रह करने में कुछ कठिनाईसी अयुभव होती है। यदि 'परस्परालीकालिङ्गनान्तस्तथ्यम्' होता, तो सुगमता थी। विद्याधर यहाँ काव्यलिङ्ग कह रहे हैं। हमारे विचार से पीछे श्लोक 48 की तरह सामान्यालंकार बनना चाहिये / 'अन्योन्यमन्य' में न और य वर्गों की एक से अधिक बार आवृत्ति से छेक नहीं बन सकता है, परन्तु हाँ, 'परस्परे' 'परस्परा' में अवश्य छेक है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्पर्श तमस्याधिगतापि भैमी मेने पुनर्धान्तिमदर्शनेन / नृपः स पश्यन्नपि तामुदीतस्तम्भो न धर्तुं सहसा शशाक // 52 // अन्वयः-भैमी तम् स्पर्शम् अधिगता अपि तस्य अदर्शनेन पुनः म्रान्तिम् मेने। स नृपः ताम् पश्यन् अपि उदीतस्तम्भः सन् ( ताम् ) सहसा धर्तुम् न शशाक। ____टीका-भैमी दमयन्ती तम् तथ्यात्मकम् नलस्य स्पर्शम् त्वगिन्द्रियगोचरताम् अधिगता प्राप्ता अपि तस्य नलस्य अदर्शनेन दृष्टिविषयातीतत्वेन पुन: किन्तु भ्रान्तिम् भ्रमम् मेने स्वीकृतवती / यदि स्पर्शः सत्यः स्यात् तहि नलेन दर्शनीयेन भवितव्यम् , न चासो दृश्यते, तस्मात् स्पर्शो भ्रमात्मक इति साऽतर्कयदिति भावः / स नृपः राजा नलः ताम् दमयन्तीम् पश्यन् विलोकयन् अपि उदीतः उद्भूत इति यावत् यः स्तम्भः सात्विकभावरूपा शारीरिकी जडता ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( व० वी० ) सन् ताम् सहसा झटिति धतुम् ग्रहीतुं न शशाक नाशक्नोत्, स्तम्भोदये शरीरस्य निष्क्रियत्वादिति भावः // 52 // व्याकरण-भ्रान्तिः / भ्रम् + क्तिन् ( भावे ) / मेने मन् + लिट् / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते उदीत उत् +/ई + क्त ( कर्तरि ) / स्तम्भः, स्तम्भ + अच ( भावे ) / शशाक शक + लिट शक के योग में धर्तुम् को तुमुन् / अनुवाद-यद्यपि दमयन्ती ने नल का ( वास्तविक ) स्पर्श कर लिया था. किन्तु उनके साक्षात् न दीखने के कारण वह उसे भ्रम मान बैठी। वे राजा नल उसे ( वास्तविक रूप में ) देखते हुए भी शरीर के जड़ हो जाने, हक्का-बक्का रह जाने से सहसा पकड़ न सके / / 52 / / टिप्पणी-यहाँ स्तम्भ को पकड़ न सकने का कारण बता देने से काब्यलिङ्ग है। विद्याधर भाबोदयालंकार भी मानते हैं, किन्तु जैसा कि हम पीछे भी संकेत कर आये हैं भावोदय, भावशमन आदि रसवदलंकारों में भाव शब्द से रस का संचारी भाव विवक्षित है। स्तम्भ संचारी भाव नहीं है, बल्कि सात्विक भाव है, जो अनुभाव का ही एक रूप है। 'नृप', 'नपि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्पर्शातिहर्षादतसत्यमत्या प्रवृत्य मिथ्याप्रतिलब्धबाधौ / पुनर्मिथस्तथ्यमपि स्पृशन्तो न श्रद्दधाते पथि तौ विमुग्धौ // 53 // अन्वयः-स्पर्शा.मत्या प्रवृत्य मिथ्याप्रतिलब्ध-बाधौ पथि तथ्यम् मिथः पुनः स्पृशन्तो अपि विमुग्धौ तौ न श्रघाते। ___टीका-स्पर्शेन परस्परं तात्त्विक-संपर्केण यः अतिहर्षः स्पर्शजनितो महानन्द इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) अतिशयितो हर्षः इत्यतिहर्ष: (प्रादि तत्पु० ) तेन आदृता मानिता अभ्युपगतेत्यर्थः या सत्यमतिः ( कर्मधा० ) सत्यस्य मतिः बुद्धिः (10 तत्पु० ) तया सत्योऽयं स्पर्शः इति बुद्धय त्यर्थः प्रवृत्य आलिङ्गनादौं पुनः व्यापृत्य किन्तु तात्त्विक-स्पर्शालाभेन मिथ्या मिथ्यात्वेनेत्यर्थः प्रतिलब्धः ज्ञातः निश्चित इत्यर्थः बाधः सत्यत्वमतेः निरोधः ( कर्मधा० ) याभ्यां तथाभ्रती ( ब० वो० ) सन्तो पथि मार्गे तृतीयस्थाने तथ्यम् तात्त्विकत्वेन मिथः परस्परम् पुनः स्पृशन्तौ स्पर्शविषयीकुर्वन्तो अपि विमुग्धौ भ्रान्तौ तौ नलदमयन्त्यौ न श्रद्दधाते न श्रद्धां विश्वासमित्यर्थः कुरुते अर्थात् तात्त्विके स्पर्शे जायमानेऽपि तं तात्त्विकत्वेन न अपितु भ्रमात्मकत्वेनैव गृह्णीते स्मेति भावः / / 53 / / व्याकरण-आवृत आ + V + क्त ( कर्मणि ) बाधः बाध् + घन ( भावे ) / तथ्य तथा + यत् / श्रद्दधाते श्रत् + Vधा + लिट् श्रदन्तरोरुप संख्यानम्' इससे 'श्रत्' को उपसर्गत्व हो रखा है। . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 55 अनुवाद-( सत्य ) स्पर्श द्वारा हुए महान् आनन्द के कारण धारण की हुई सत्य-बुद्धि से ( फिर आलिंगनों में ) प्रवृत्त हो ( उनके ) मिथ्यात्व से ( सत्य-बुद्धि को) बाधित पाये हुए मार्ग में ( तीसरी बार ) सत्य रूप में फिर एक-दूसरे का स्पर्श करते हुए भ्रम-ग्रस्त उन दोनों का उस पर भी सत्यत्व का विश्वास नहीं होता था / / 53 // टिप्पणी-यहाँ कवि युगल के मध्य तीन तरह की स्थिति यहाँ रख रहा है -- पहली स्थिति में उन दोनों का परस्पर-स्पर्श सत्य रहता है जिससे वे आनन्द मग्न हो जाते हैं। पर्श में उन्हें सत्यत्व-बुद्धि हो जाती है। उसी सत्यत्व बुद्धि को लेकर वे दूसरी स्थिति में फिर कई बार परस्पर आलिगन करने लगते है, किन्तु उनमें वास्तविक स्पर्श न पाकर उनकी सत्यत्व बुद्धि जाती रहती है और उसे वे भ्रम ही समझने लगते हैं। किन्तु तीसरी स्थिति यह आती है कि कभी वे मार्ग में सत्य रूप से एक दूसरे का स्पर्श कर लेते हैं, तो दूसरी स्थिति की तरह उसे वे भ्रम ही समझते हैं, सत्य नहीं। दूसरी स्थिति में वे गलती जो खा बैठे थे, अतः सत्यत्व का विश्वास उन्हें कैसे होता ? विद्याधर के अनुसार सत्य पर श्रद्धा का कारण होने पर भी श्रद्धा रूप कार्य न होने से विशेषोक्ति अलंकार है / सत्य मत्या में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सर्वत्र संवाद्यमबाधमानौ रूपश्रियातिथ्यकरं परं तो। न शेकतुः केलिरसाद्विरन्तुमलीकमालोक्य परस्परं तु / / 54 / / अन्वयः-तौ रूप-श्रिया सर्वत्र संवाद्यम् ( अत एव ) परम् आतिथ्यकरम् अलीकम् परस्परम् तु आलोक्य अबाधमानी ( सन्तौ ) केलि-रसात् विरन्तुम् न शेकतुः। टीका-तौ नल-दमयन्त्यौ रूपस्य सौन्दर्यस्य श्रिया सम्पदा सौन्दर्यातिशयेनेत्यर्थः / 10 तत्पु० ) सर्वत्र सर्वाङ्गेषु अथवा सर्वथा संवाद्यम् संवादयोग्यम् अनुरूपमिति यावत् अतएव परम् अत्यन्तं यथा स्यात्तथा आतिथ्यम् सत्कारम् सुखमितियावत् करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) अलीकम् मिथ्या भ्रमोत्थापितमित्यर्थः परस्परम् अन्योन्यम् ( कर्मभूतम् ) तु पुन: आलोक्य दृष्ट्वा अबाधमानौ मिथ्येति न मन्यमानी सत्यत्वेन गृह्णानाविति यावत् सन्तौ केल्याः क्रीडाया रसान् प्रीतेः विरन्तुम् विरामं कर्तुम् न शेकतुः नाशक्नुवाताम् / भ्रमे मिथ्यात्मको अपितौ परस्परं क्रीडानन्दमनुभवितुमैच्छतामिति भावः // 54 // Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते - व्याकरण-संवाद्यम् समुद्यते इति सम् + Vवद् + ण्यत् / आतिथ्यम् अतिथि + व्यञ् / परस्परम् इसके लिए पीछे श्लोक 51 दे खए। केलिः /केल् ( क्रीडायाम् ) + इन् / रस: रस् + अच् ( भावे)। अनुवाद-वे दोनों ( नल-दमयन्ती ) रूप-सम्पदा में ( असली से ) सभी तरह मिलते-जुलते, ( अतएव ) अत्यन्त आनन्द देने वाले मिथ्यात्मक एक-दूसरे को देखकर मिथ्यात्मक न समझते हुए क्रीडा का आनन्द लेने से निवृत्त नहीं हो सके // 54 // टिप्पणी-दोनों के मोह वश कल्पनात्मक रूप असली-जैसे ही थे, इसलिए जिस तरह असली रूप में एक-दूसरे का स्पर्श करके वे आनन्द लिया करते थे, वैसे ही कल्पनात्मक रूपों में भी परस्पर काल्पनिक स्पर्श से उन्हें असली का-सा स्वाद आ जाता था। ध्यान रहे कि श्लोक 51 से लेकर कवि ने यहां नलदमयन्ती के जो असली और भ्रमात्मक चित्रों का विश्लेषण किया है, वह वास्तव में एक दार्शनिक प्रश्न है। भ्रम के सम्बन्ध में दर्शनकारों की विभिन्न विप्रतिपत्तियाँ हैं। सांख्य लोगों का सख्यातिवाद है अर्थात् शुक्ति (सीप) पर जो रजत की ख्याति (प्रतिभास ) होती है, वह सत् की ही होती है। बौद्ध असख्यातिवादी, नैयायिक अन्यथा-ख्यातिवादी, वेदान्ती अनिर्वचनीय-ख्यातिवादी और मीमांसक अख्यातिवादी होते हैं। प्रकृत में श्रीहर्ष मीमांसकों का अख्यातिवाद लेकर चले हैं अर्थात् 'शुक्तौ रजतम्' में रजत प्रातिाभसिक नहीं, बल्कि सत्य ही है, क्योंकि यहां का ग्रहण और स्मरण-दोनों ही ज्ञान सत्य हैं ! इसी तरह नल-दमयन्ती के भ्रमात्मक रूप सत्य ही है। हम यहाँ संकेत-मात्र कर रहे है। अधिक गहराई में जाना छात्रों के लिए अप्रासङ्गिक ही होगा। विद्याधर यहाँ काव्यलिङ्ग कह गये हैं / 'मलीक' 'मालोक्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। परस्परस्पर्शरसोर्मिसेकात्तयोः क्षणं चेतसि विप्रलम्भः / स्नेहातिदानादिव दीपिकाचिनिमिष्य किंचिद्विगुणं दिदीपे // 55 // अन्वयः -- परस्पर...सेकात् तयोः चेतसि विप्रलम्भः स्नेहातिदानात् दीपिकाचिः इव क्षणम् किञ्चित् निमिष्य द्विगुणम् दिदोपे / टीका-परस्परस्य अन्योन्यस्य यः स्पर्शः त्वगिन्द्रयेण ग्रहणम् (ष० तत्पु०) तेन यः रसः अनुरागः ( 'गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः ) ( तृ० तत्पु० ) यस्य Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ऊर्मिणा तरङ्गेण ( 10 तत्पु० ) सेकात् सेचनात् (तृ० तत्पु० ) तयोः नलदमयन्त्योः चेतसि हृदये विप्रलम्भः वियोगः स्नेहस्य तैलस्य अतिदानात् (10 तत्पु० ) अतिशयितं दानमिति तस्मात् कारणात् (प्रादि तत्पु० ) दीपिकाया: दीपस्य अचिः ज्वाला इव क्षणम् क्षणमात्रम् किञ्चित् ईषत् यथा स्यात्तथा निमिष्य निर्वाय मन्दीभूयेत्यर्थः द्विगुणम् द्वाभ्याम् गुण: गुणनम् आवृत्तिरिति यावत् यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा (ब० वी० / दिदीपे प्रदीप्तोऽभवत् / परस्परस्पर्शनोपचीयमानेऽनुरागे वियोगो वृद्धि गत इत्यर्थः / अमिलने जायमानो वियोगस्तथा पीडाकरो न भवति यथा मिलनानन्तरं जायमानो वियोग इतिभाव: // 55 // व्याकरण-परस्पर इसके लिए पीछे श्लोक 51 देखिए। ऊमि: ऋच्छ. तीति /ऋ+ मि, ऋ को ऊ / सेकः सिच्घन् / विप्रलम्भः-वि + प्र+ लभ् + घन मुम् / दीपिका दीपयतीति दीप् + णिच + ण्वल + टाप् इत्वम् / अनुवाद-परस्पर स्पर्श से हुए अनुराग रूपी तरंग द्वारा छिड़काव होने के कारण उन दोनों (नल-दमयन्ती) के हृदय में वियोग इस प्रकार दुगुना हो उठा, जैसे अधिक तेल डालने के कारण दीये की लौ क्षणभर कुछ 2 बुझकर ( फिर) दुगुनी हो जाया करती है // 55 // टिप्पणी-विद्याधर के अनुसार यहाँ इव शब्द द्वारा वाच्य उपमा है, किन्तु रस पर ऊमित्व की स्थापना से रूपक भी है। 'रस्प' 'रस्प' 'दीपि' 'दीपे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। वेश्माप सा धैर्यवियोगयोगाद्बोधं च मोहं च मुहुर्दधाना / पुनःपुनस्तत्र पुरः स पश्यन्बभ्राम तां सुभ्रवमुज्रमेण // 56 / / अन्वय:-सा धैर्य-वियोगयोगात् बोधम् च मुहः मोहम् च दधाना वेश्म आप स उद्भमेण ताम् सुभ्रुवम् पुनः पुनः पुरः पश्यन् तत्र बभ्राम / टीका-सा दमयन्ती धैर्य धृतिश्च वियोगः विरहश्च तयोः ( द्वन्द्वः ) योगात् सम्बन्धात् कारणादित्यर्थः बोघम् सम्यग् ज्ञानम् च मुहुः पुनः मोहम् भ्रमम् च बधाना धारयन्ती वेश्म स्वगृहम् आप प्राप्तवती, स नल: उध्रमेण भ्रान्त्या ताम् सुभ्रवम् सुः शोभने भ्रवी यख्याः तथाभूताम् (ब० वी० ) सुन्दरी दमयन्तीमित्यर्थः पुनः पुनः वारं-वारं पुरः अग्रे पश्यन् विलोकयन् तत्र तस्मिन्नेव स्थाने बभ्राम विचचार धैर्यस्य कारणात् तस्याः सम्यग् ज्ञानं जायते स्म कुतोऽत्र नलसम्भव इति, वियोगदुःख-कारणाच्च तस्या मिथ्याज्ञानं जायते स्म, मिथ्या नलं Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 नैषधीयचरिते पश्यति स्मेति यावत् नलोऽपि मिथ्यादमयन्तीस्पर्शलोभेन तत्रैव विचरति हमेति भावः / / 56 // व्याकरण-धैर्यम् धीराया भाव इति धीरा + ध्यञ् पुंवद्भाव / वोषः / बुध् + घन् / मोहः मुह + ( भावे) घन / उभ्रमः उत् + /भ्रम् + घन् / __ - अनुवाद-वह ( दममन्ती) धैर्य और वियोग के योग सम्बन्ध से ज्ञान और फिर भ्रम रखती हुई घर को चल दी ( जब कि ) वह ( नल ) भ्रम-वश उस सुन्दरी ( दमयन्ती ) को बार-बार सामने देखते हुए वहीं घूमते रहे // 56 // टिप्पणी-धैर्य से मनुष्य को सम्यक ज्ञान होता है जब कि अधीरता उसे मोह में डाल देती है। मोह देखो तो चञ्चलता उत्पन्न कर देता है। यहाँ धैर्य मोह और चञ्चलता नामक सञ्चारी भावों का सम्मिश्रण होने से भाव-शबलमा अलंकार है। धैर्य और वियोग के साथ बोध और मोह को यथाक्रम अन्वय होने से यथासंख्यालंकार भी है। 'योग' 'योगा' 'मोहं' 'मुहुर्' 'पुनः' 'पुनः' 'भ्राम' 'भ्रमे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पद्भयां नृपः संचरमाण एष चिरं परिभ्रम्य कथंकथचित् / विदर्भराजप्रभवाभिरामं प्रासादमभ्रंकषमाससाद // 57 // अन्वयः-पद्भयाम् संचरमाणः एष नृपः कथंकथञ्चित् चिरम् परिभ्रम्य विदर्भ "रामम् अभ्र कषम् प्रासादम् आससाद / टीका-पद्धयाम् पादाभ्याम् सञ्चरमाण: चलन् एष नृपः राजा नल: कथं कथंचित् केनापि प्रकारेण दमयन्तीप्रासादस्य पूर्व ज्ञानाभावकारणात् अतिकृच्छ्रेणेत्यर्थः चिरम् बहुकालम् परिभ्रम्य परितो भ्रमित्वा विदर्भाणां राजा भीमः ष. तत्पु० ) प्रभवः उत्पत्तिस्थानम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) दमयन्तीत्यर्थः तया अभिरामं शोभितम् अलंकृतमित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) अभ्रम् आकाशम् कषति बिलिखतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) गगनचुम्बिनमित्यर्थः प्रासादम् हर्म्यम् आससाद प्राप्तवान् / वियोगकारणात् परितो भ्रमन्नेव नल: प्रासादं प्राप्तवान् न तु बुद्धिपूर्वकमिति भावः / / 57 // व्याकरण-संचरमाणः सम् + /चर् + शानच् 'समस्तृतीयायुक्तात्' (11354 ) से आत्मने / प्रभवः प्रभवतीत्यस्मादिति प्र + Vभू + अप् ( अपादानार्थे ) / अभिराम अभितो रमयतीति अभि + / रम् + णिच् + घञ् (कर्तरि)। अभ्रंकष-अनं कषतीति अभ्र + /कष + खच , मुमागम / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अनुवाद-पैदल चलते हुए यह (राजा नल) देर तक घूम-फिर कर किसी न किसी तरह ( बड़ी कठिनाई से ) वैदर्भी-द्वारा सुशोभित, गगन चुम्बी महल में पहुंचे। टिप्पणी - महलों की कतारों में नल को भला क्या पता होना था कि दमयन्ती का महल कौन सा है। पहले कभी देखा ही नहीं था। इसलिए देर तक विरहातुरता में इधर-उधर उन्हें चक्कर काटने पड़े / एक ही कारक नल के साथ संचरण, परिभ्रमण और आसादन-अनेक क्रियाओं का अन्वय होने से कारक-दीपक है। 'चरचिरं' 'कथं कथं', 'साद साद' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सखीशतानां सरसैविलासैः स्मरावरोधभ्रममावहन्तीम् / विलोकयामास सभां स भैम्यास्तस्य प्रतोलीमणिवेदिकायाम् / / 58 // अन्वयः - नलः तस्य प्रतोलीमणिवेदिकायाम् सखी-शतानाम् सरसै: विलासैः स्मरावरोध-भ्रमम् आवहन्तीम् भैम्याः सभाम् विलोकयामास / टीका-नलः तस्य प्रासादस्य प्रतोल पुरोमार्गे प्रवेश वर्मनीत्यर्थः या मणिवेदिका ( स० तत्पु० ) मणिखचिता वेदिका वेदी तस्याम् ( मध्यमपदलोपी स०) सखीनाम् आलीनाम् शतानि ( 10 तत्पु० ) शतशः सखीनामित्यर्थः सरसैः शृङ्गाररससहितेः विलासै: लीलाभिः स्मरस्य कामस्य योऽवरोधः अन्तःपुरम् तस्य भ्रमम् भ्रान्तिम् आवहन्तीम् जनयतीम् भैम्याः दमयन्त्याः सभाम् सभामण्डपम् बाह्यप्रकोष्ठमिति यावत् विलोकयामास // 58 // व्याकरण-वेदिका वेदी एवेति वेदी + क ( स्वार्थे ) + टाप् ह्रस्व / सखी-सखि + ङीप, यास्काचार्य के अनुसार 'सखायः कस्मात् ? समानख्यानवन्तः' इति समान + Vख्या + डिन् समान को स (निपातित)। विलास वि+ Vलस् + घञ् ( भावे ) / स्मरः स्मृ + अप् ( भावे) काम प्रिय-प्रियतमाविषयक एक स्मृति ही तो है। अवरोधः अवरुध्यन्तेऽत्र महिलाः इति अव + रुध् + घञ् ( अधिकरणे)। अनुवाद-नल ने उस ( महल ) के प्रवेश-मार्ग में मणिमय चौतरे पर ( बना), सैकड़ों सहेलियों के रसीले विलासों से कामदेव के अन्तःपुर का सा भ्रम उत्पन्न करता हुआ भैमी का सभामण्डप (हॉल) देखा // 58 // Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-सहेलियां सौन्दयं में काम पत्नी रति से टक्कर ले रही थी; इसीलिए तो यह भ्रम हो रहा था कि मानो यह कामदेव का अन्तःपुर हो। कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है, जो वाचक शब्द के अभाव में गम्य है। शब्दालंकारों में 'रसैः' 'लासैः' ( रलयोरभेदात् ) छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। कण्ठः किमस्याः पिकवेणुवीणास्तिस्रो जिताः सूचयति त्रिरेखाः / इत्यन्तरस्तूयत यत्र कापि नलेन बाला कलमार पन्तो / / 59 // अन्वयः-यत्र कलम् आलपन्ती का अपि बाला नलेन किम् अस्याः त्रिरेखः कण्ठः पिक-वेणु-वीणाः तिस्रः जिताः सूचथति ?' इति अन्तः अस्तूयत / ____टीका-यत्र यस्यां सभायाम् कलम् मधुरं यथास्यात्तथा आलपन्ती रागालापं कुर्वाणा का अपि काचित् बाला युवति: नलेन-'किम् अस्याः बालायाः तिन: रेखाः यस्मिन् तथाभूतः ( ब० वी० ) कण्ठः गल: कम्बुग्रीवेत्यर्थः पिक: वेणुः मुरली च वीणा विपंची चेति वीणाः ( द्वन्द्व ) तिस्रः (कर्म) जिताः पराभूताः सूचयति बोधयति ?' इति अन्तः मनसि अस्तूयत स्तुता। गले तस्या रेखात्रयम् पिकादिपराजयसूचकचिह्न मेति भावः // 59 // व्याकरण - सरल है। अनुवाद - जहाँ मधुर आलाप भरती हुई किसी तरुणी की नल ने मन ही मन यों प्रशंसा की। 'तीन रेखाओं वाला इसका गला कोयल बाँसुरी तथा वीणा इन तीनों को पराजित किया हुआ सूचित करता है क्या ?' // 59 // टिप्पणी-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार तीन रेखाओं से चिह्नित ग्रीवा कम्बुग्रीवा कहलाती है। यह शुभ लक्षण माना जाता है, किन्तु कवि इन रेखाओं पर यह कल्पना कर रहा है। किन्तु मानो इसके गले में ये पिक, वेण और वीणा के पराजय के सूचक चिह्न हों, सामुद्रिक लक्षण नहीं : इससे यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक पद 'किम्' है। 'वेणु' 'वीणा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / ध्यान रहे कि 'यत्र' शब्द से आरम्भ हुआ यह श्लोक विशेषणरूप है जिसका पूर्व श्लोक में 'सभा' से सम्बन्ध है। इसे हम विशेषणात्मक उपवाक्य ( Adjectival Clause ) कहेंगे / एसे उपवाक्य आगे के चौदह श्लोकों तक चले गये हैं। एतं नलं तं दमयन्ति ! पश्य त्यजातिमित्यालिकुलप्रबोधान् / / श्रुत्वा स नारीकरवर्तिसारीमुखात्स्वमाशङ्कत यत्र दृष्टम् / / 60 / / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अन्वयः-यत्र स नारी...मुखात् 'दमयन्ति' तम् नलम् एतम् पश्य, आतिम् त्यज' इति आलि-कुल-प्रबोधान् श्रुत्वा स्वम् दृष्टम् आशङ्कत / ____टीका-यत्र सभायाम् स नलः नार्याः कस्या अपि सुन्दर्याः करे हस्ते (10 तत्पु० ) वर्तते तिष्ठतीति तथोक्ता (उपपद तत्पु०) या सारी सारिका (कर्मधा०) तस्याः मुखात् वक्त्रात्-हे दमयन्ति ! तम् हृदयानुभूतम् नलम् एतम् पुरःस्थितम् अथवा आगतम् पश्य विलोकय, आतिम् विरह-जनितां पीडाम् त्यज मुञ्च' इति एवं प्रकारेण आलीनां सखीनाम् कुलस्य समाजस्य प्रबोधान् प्रबोधकवचनानि आश्वासनानीति यावत् श्रुत्वा आकर्ण्य स्वम् आत्मानम् दृष्टम् सखीभिः विलोकि. तम् आशङ्कत-आशङ्कितवान् / सखीजनः दमयन्ती-कृते आश्वासने दत्त स्म, तच्च श्रुत्वा सारिकापि तथा रटतिस्म / नलस्तु तदाकर्ण्य ‘एताभिरहं दृष्टोऽस्मीति शङ्कां चकारेति भावः / / 60 / / व्याकरण-एतम आ + इ + क्त (कर्तरि ), आतिम् आच्छंतीति आ + Wऋ+ क्तिन् / प्रबोधान् प्रबोध्यतेऽनेनेति प्र+बुध् + घञ् ( करणे)। अनुवाद-जहाँ वे ( नल ) ( किसी ) सुन्दरी के हाथ में स्थित मैना के मुँह से-हे दमयन्ती ! वे नल आ गये हैं, देखो, मनोव्यथा छोड़ो" यों सखीजन के सान्त्वना-वचनों को सुनकर शंका कर बैठे कि इन्होंने मुझे देख लिया है क्या ? // 60 // टिप्पणी-राजा को शंका हो गई कि सखियों ने मुझे देख लिया है, नहीं तो वे मैना को ऐसा कहना क्यों सिखाती? शंका एक संचारी भाव है, जिसके उदय होने से यहाँ भावोदयालंकार स्पष्ट ही है। किन्तु मल्लिनाथ कहते हैं कि मैना की कही वात सुनकर राजा को उस पर नारी की कही बात का भ्रम हो उठा है, अर्थात् यह नारी ने कहा है, इसलिए यहाँ' वस्तु से भ्रान्तिमान अलंकार की ध्वनि है / 'नारी' 'सारी' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यत्रैकयालीकनलीकृतालीकण्ठे मृषाभीमभवीभवन्त्या / तदृक्पथे दौहदिकोपनीता शालीनमाधाय मधूकमाला // 61 // अन्वय-यत्र मृषा...वन्त्या एकया अलीक....कण्ठे दौहदिकोपनीता मधूकमाला तदृक्पथे शालीनम् अधायि / टीका-यत्र सभायाम् मृषा भीमभवा ( सुप्सुपेति समासः ) भीमात् भव: जन्म ( पं० तत्पु० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) भीमभवा = भैमी दमयन्ती Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते त्यर्थः, अभीमभवा भीमभवा सम्पद्यमाना भवतीति तया मिथ्या-दमयन्तीभूतया दमयन्ती वेषधरयेत्यर्थः एकया युवत्या अलीक: मृषा नल इत्यलीकनलः (कर्मधा०) अनलीकनल: अलीकनलः सम्पद्यमाना कृता इत्यलीकनलीकृता या माली सखी ( कर्मधा० ) तस्याः कण्ठे गले ( 10 तत्पु० ) अर्थात् नलवेषधारिण्याः सख्याः कण्ठे दौहदिकेन मालाकारेण उपनीता आनीता मधूकानां मधूकवृक्षपुष्पाणां माला हारः ( 10 तत्पु० ) तस्य अदृश्य-नलस्य दृक्पथे दृशः पन्थाः विषय इति तस्मिन् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) तदृष्टिगोचरतायामितियावत् शालीनम् शालीनतासहितं ___ व्याकरण-भीमभवीभवन्त्या, नली-कृताली–दोनों में अभूततद्भाव में च्वि प्रत्यय है। दोहदिक: वृक्षाणां दोहदे = उर्वरके नियुक्त इति दोहदि + ठक्. ठक को इक, आदि अच् की वृद्धि / दृक्पथे पथिन् शब्द को समासान्त अप्रत्यय / शालीन शालाप्रवेशमहंतीति शाला + ख, ख को ईन [ 'शालीन०' 5 / 2 / 20] / अनुवाद-जहाँ नकली दमयन्ती बनी एक तरुणी ने नकली नल बनाये गए सखी के गले में आली द्वारा लाई हुई महुवे के फूलों की माला उन ( नल ) की दृष्टि के सामने लजाते-लजाते डाल दी / / 61 // टिप्पणी-दमयन्ती के मनोविनोद के लिए सखियाँ ऐसे नाटक रचा करती थीं, नहीं तो विरह में उसका समय कटना कठिन हो रखा था। नल तो अदृश्य ही थे, लेकिन अपने सामने सहेलियों की ऐसी लीलायें देखते जा रहे थे। ध्यान रहे कि नल के गले में ही दमयन्ती द्वारा माला डलवाने में कवि का यही संकेत है कि अन्त में वरमाला नल के ही गले में पड़ेगी, किसी और दूसरे के नहीं। 'भवी' 'भव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'लीक' 'लीकृ' 'लीक' में एक से अधिक वार वर्णों की आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास ही है / चन्द्राभमानं तिलकं दधाना तद्वन्निजास्येन्दुकृतानुबिम्बम् / सखीमुखे चन्द्रसमे ससर्ज चन्द्रानवस्थामिव कापि यत्र / / 62 / / अन्वयः-यत्र का अपि ( सुन्दरी ) चन्द्राभम् आभ्रम् तिलकम् चन्द्रसमे सखीमुखे तद्वन् ...बिम्बम् दधाना चन्द्रानवस्थाम् इव ससर्ज / टीका--यत्र सभायाम् का आपि काचित् सुन्दरी चन्द्रवत् शशिवत् आभा ( उपमान तत्पु० ) शोभा यस्य तथाभूतम् (ब० बी० ) आभ्रम् अभ्रसम्बन्धि तिलकम् ललाटे चन्द्रकार-गोलचिह्नम् चन्द्रेण समे सदृशे ( तृ० तत्पु० ) सख्याः Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः आल्याः मुखे ललाटे इत्यर्थः तत् तिलकम् अस्मिन्नस्तीति तद्वत् चन्द्राकाराभ्रतिलकयुक्तमिति यावत् यत् निजम् स्वकीयम् आस्यम् एव इन्दुः चन्द्रः ( सर्वत्र कर्मधा ) तेन कृतम् विहितम् अनुबिम्बम् प्रतिबिम्बम् यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा दधाना रचयन्ती चन्द्रग्य अवःथाम् अव्यवस्थाम् इव ससर्ज जनितवती। तिलककारिण्याः मुखे तद्गततिलकञ्चेति द्वयं स्वयं चन्द्रतुल्यमासीत्, सा च यस्याः सख्याः तिलकं करोति, यस्याः मुखं क्रियमाणं तिलकञ्चापि द्वयमपि चन्द्रतुल्यम्इति एकैका द्वौ द्वौ चन्द्रौ परस्परं प्रतिबिम्बयन्ती चन्द्रस्याव्यवस्थाम् कृतवतीवेति भावः // 62 // - व्याकरण-आभ्रम् अभ्रस्येदमिति अभ्र + अण् / आस्यम् अस्यतेऽन्ना अवस्था अव + /स्था + अ / ससर्ज सृज + लिट् / ___ अनुवाद-जहाँ कोई ( सुन्दरी ) चन्द्र-जैसी ( गोल 2 ) अबरककी बिंदी सखी के चन्द्र-जैसे मुखपर इस तरह लगाती हुई कि जिससे वह अबरक की बिंदी वाले अपने मुख-चन्द्र का उस पर प्रतिबिम्ब डाले हुए थी, चन्द्र की अब्यवस्थाजैसी कर बैठी / / 62 // टिप्पणो-सुन्दरियों के मुख चाँद थे। उन पर लगी गोल-गोल चमकती हई अबरक की सफेद बिन्दयाँ भी चाँद थी। आमने-सामने खड़ी उन सुन्दरियों के मुखों और अबरक की बिन्दियों का परस्पर बिम्बप्रतिबिम्ब भाव होनेलगा। तो चन्द्र के एक होने का नियम न रहा, चन्द्रों की बाढ़-सी आ पड़ी। भाव यह निकला कि वहाँ सभी चन्द्रमुखियाँ ही थीं। 'चन्द्राभ' 'चन्द्रसमे' में उपमा' 'आस्येन्दु' में रूपक और 'अनवस्थेव' में उत्प्रेक्षा-इस सब का यहाँ अङ्गाङ्गिभाव संकर है शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / दलोदरे काञ्चनकेतकस्य क्षणान्मसीभावकवर्णलेखम् / तस्यैव यत्र स्वमनङ्गलेखं लिलेख भैमी नखलेखिनीभिः // 63 / / अन्वयः- यत्र भैमो काञ्चन केतकस्य दलोदरे क्षणात् मस्ती-भावुक-वर्णरेख तस्य एव स्वम् अनङ्गलेखम् नखलेखिनीभिः लिलेख / - टीका-यत्र समाय म् भैमी दमयन्ती काञ्चनम् स्वर्णवर्णम् यत् केतकम् केतकपुष्पम् ( कर्मधा० ) तस्य दल य पत्रस्य उदरे मध्ये क्षणात् क्षणानन्तरमेव मसोभावुका मसीभवनशीला वर्णलेखा अक्षरविन्यास इत्यर्थः ( कर्मधा० ) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते वर्णानाम् रेखा (10 तत्पु० ) यस्मिन् तथाभु तम् ( ब० वी० ) तस्य एव गलसम्बन्धि एव नलस्य कृते इतियावत् स्वम् निजम् अनङ्गस्य कामस्य लेखम् पत्रम् प्रेम-पत्रमिति यावत् नखा: करजाः एव लेखिन्यः लेखनसाधनानि (कर्मधा० ) ताभिः लिलेख लिखितवती। सौवर्ण-केतकीषु दलमध्ये लेखः वर्णान् आलिख्य नलाय प्रेमपत्रमलिखदितिभावः // 63 // व्याकरण-भावुक-भवितुं शीलमस्यति /भ्र + उकन् / लेखः /लिख + घन / लेखिनो लिखतीति /लिख + णिन् + ङीप् / अनुवाद-जहां दमयन्ती सुनहरे केवड़े के फूल की पंखुडी के भीतरी भाग में नखों-रूपी कलम से उसी नल के हेतु अपना प्रेम-पत्र लिखती थी, जिसमें वर्ण रेखायें क्षणभर में ही स्याही से लिखी ( जैसी ) हो जाती थीं // 63 // टिप्पणी-केवड़े की पंखुड़ी में स्वभावतः यह देखने में आता है कि यदि उसे नाखूनों से खरोचो, तो उसमें काली-काली रेखायें पड़ जाती हैं। यदि अक्षर लिखो, तो वे काली स्याही से लिखे जैसे लगते हैं। इसलिए लिखने के लिए दमयन्ती को कागज और स्याही स्वतः मिल गए। नाखून कलम का काम दे गये। झट पट प्रेम-पत्र लिख दिया / विरहिणी स्त्रियाँ प्रियतम को प्रेमपत्र लिखा ही करती हैं। नाखूनों से अक्षर कुरेदने के पीछे कवि की यह ध्वनि निकलती है कि दमयन्ती नल द्वारा नखक्षतादि चाह रही है। नखों पर लेखिनीत्व के आरोप में रूपक है। 'लेखम्' 'लेखम्' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास के साथ यमक का एकवाचकानुप्रवेश संकर है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विलेखितुं भीमभुवो लिपीषु सख्याऽतिविख्यातिभृतापि यत्र / अशाकि लीलाकमलं न पाणिरपारि कर्णोत्पलमक्षि नैव // 64 // अन्वयः-~-यत्र लिपीषु अतिख्यातिभृता अपि सख्या भीमभुवः लीला-कमलम् विलेखितुम् अशाकि, पाणिम् (तु विलेखितुम् ) न ( अशाकि; कर्णोत्पलम् ( विलेखितुम् ) अपारि, अक्षि ( तु विलेखितुम् ) न ( अपारि ) / टीका-- यत्र सभायाम् लिपोषु चित्रकर्मसु चित्रकलायामिति यावत् अतिशयिता ख्यातिः प्रसिद्धिः इति अतिख्यातिः (प्रादि तत्पु० ) ताम् विभर्ति धारयतीति तथोक्तया ( उपपद तत्पु० ) अत्यन्तप्रसिद्धयेति यावत् सख्या आल्या भीमः भूः उत्पत्तिस्थानम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाः भैम्याः इत्यर्थः (ब० वी०) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः लोलाया: क्रीडायाः कमलम् (10 तत्पु० ) अथवा लोलार्थ कमलम् ( च० तत्पु० ) विलेखितुम् चित्रे अङ्कयितुमिति यावत् अशाकि शक्तम्, पाणिम् तस्याः करं तु विलेखितुम् न अशाकीति पूर्वतोऽनुवृत्तम्, कमलापेक्षया करस्य अतिसुन्दरत्वात्, अतएव चित्रकर्या सख्या विलेखितुमशक्यत्वात्; कर्णयोः उत्पलम् इन्दीवरम् (10 तत्पु० ) अथवा कर्णार्थम् उत्पलम ( च० तत्पु० ) विलेखितुम अपारि पारितम्, अक्षि नयनं तु विलेखितुम् नैव अपारीति पूर्वतोऽनुवृत्तम् अक्षणः उत्पलापेक्षया अतिसुन्दरत्वात् / चित्रकलायाम् अतिनिपुणापि सखी भैम्याः करम् अक्षि च चित्रयितुं नाशक्नोत्सर्वोपमानातीतत्व दिति भावः // 64 // . व्याकरण-भीमभूः भवत्यस्मादिति भू + क्विप् ( अपादानार्थे ) / लिपीषु लिपि + ङीष् ( बिकल्प से ) ०भृता--भृन + क्विप ( कर्तरि ) / अशाकि शक् + लुङ् ( भाववाच्य ) शिक् के योग में ही विलेखितुम् में तुमुन् / अपारि - पार् + लुङ् (भाववाच्य ) / अनुवाद -- जहाँ चित्रकला में अत्यन्त प्रसिद्धि रखे हुए भी ( एक ) सखी दमयन्ती ( के हाथ ) का लीला कमल का (ही) चित्र खींच सकी, हाथ का. नहीं; कर्णोत्पल का (ही) चित्र खींच सकी आँख का नहीं / / 64 // टिप्पणी-चित्रपट या दीवार पर दमयन्ती का चित्र बनाती हुई उसकी कोई सखी उसका लीला कमल और कर्णोत्पल ही चित्रित कर सको, हाथ और आँख नहीं. क्योंकि वे दोनों सोंदर्य में चित्रकरी की कला की पकड़ से बाहर थे। कैसे चित्रित करती? विद्याधर यहाँ प्रतीपालंकार मान रहे हैं, क्योंकि हाथ और आँख के आगे लीलाकमल और कर्णोत्पल का यहाँ अपमान किया जा रहा . है, किन्तु हमारे विचार से यहाँ लीलाकमल और कर्णोत्पल की अपेक्षा कर और आँख में अतिशय बताने में व्यतिरेक बन रहा है। हाँ उक्त दोनों अलंकारों का सन्देह-संकर हो सकता हैं। ‘ख्याऽति' 'ख्याति' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भैमीमुपावीणयदेत्य यत्र कलिप्रियस्य प्रियशिष्यवर्गः / गन्धर्ववध्वः स्वरमध्वरीणतत्कण्ठनालकधुरीणबीणः // 65 / अन्वयः-यत्र कलिप्रियस्य प्रियशिष्यवर्गः गन्धर्ववध्वः स्वर''वीण: ( सन् ) एत्य भैमीम् उपावीणयत् / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टोका-यत्र सभायाम् कलिः कलहः प्रियो यस्य तथाभूतस्य (ब० बी० ) नारदस्यत्ययः प्रियः इष्टश्चासौ शिष्यवर्गः ( कर्मधा० ) शिष्याणां वर्गः समूहः (ष० तसु०) गन्धर्वाणाम् किन्नराणां वध्वः स्त्रियः ( 10 तत्पु० ) स्वरः कण्ठध्वनिः एव मधु क्षौद्रम् ( कर्मधा० ) तेन अरीणम् अरिक्तम् पूर्णमित्यर्थः तत्कण्ठनालम् ( कमंधा० ) तस्या दमयन्त्याः कण्ठस्य गलस्य नालम् दण्डः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) तेन एकधुरीणाः एकधुर्वहाः तुल्या इत्यर्थः (तृ० तत्पु०) वीणा: विपञ्च्यः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) सन् एत्य आगत्य भेमोम् दमयन्तीम् उपावीणयत् वीणया उपागायत् / दमयन्त्याः कण्ठस्वरेण स्ववीणास्वरं संमेल्य गायन्ति स्मेति भावः // 65 // व्याकरण-कलिप्रियस्य (ब० वी० ) में प्रिय शब्द का 'वा प्रियस्य' से परनिपात / वधः उह्यते पितृगृहात् पतिगृहमिति /वह + ऊधुक् / एत्य आ+ Vइ + ल्यप् तुगागम / अरीणम् न रीणम् रीङक्त ( कर्तरि ) त को न, न को ण / एकधुरोण एकधुराम् वहतीति एकधुरा + ख, ख को इन, न को ण [ 'एकधुराल्लुक च' 4 / 4 / 79] / उपावीणयत् -उप + /वीण् + लङ ( 'सत्यापपाश० 3 / 1 / 25) अनुवाद-जहाँ नारद की प्रिय शिष्या गन्धर्व स्त्रियाँ-जिनकी वीणायें ( माधुर्य में ) उस ( दमयन्ती) के स्वर रूपी मधुसे परिपूर्ण गल-दण्ड के समान थीं-आ करके वीणाओं द्वारा दमयन्ती का स्तुति-गान करती थीं / 65 / / टिप्पणी--पहले तो गन्धर्व स्त्रियाँ स्वभावतः संगीत कला में निपुण हुआ करती हैं, तिस पर वीणा सम्राट नारद ने उन्हें शिक्षा दे रखी है। वे तक भी वीणावादन नैपुण्य का अभ्यास करने हेतु जब दमयन्ती के पास आया जाया करती थी, तो इससे अनुमान लगा लीजिए कि उसकी कण्ठ माधुरी कितनी अधिक होगी। गल के साथ नाल शब्द जोड़ने से कवि यह ध्वनित करना चाह रहा है कि जिस तरह नाल के ऊपर कमल हुआ करता है, वैसे ही गल-दण्ड के ऊपर दमयन्ती का मुख कमल था। ‘एकधुरीण' शब्द सादृश्य-वाचक होता है, अतः उपमा है। स्वर पर मधुत्वारोप होने से रूपक है। 'वीण', 'वीणः' 'प्रिय' 'प्रिय' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। 'नावा स्मरः किं हरभीतिगुप्ते पयोधरे खेलति कुम्भ एव / इत्यर्धचन्द्राभनखाङ्कचुम्बिकुचा सखी यत्र सखीभिरूचे / / 66 // Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अन्वयः-यत्र अर्धकुचा ( कापि ) सखी 'समरः ते पयोधरे एव कुम्भे हरभीतिगुप् सन् नाबा खेलति किम् ?' इति सखीभिः ऊचे। टीका-यत्र सभायाम् अर्धश्चन्द्रः शशी ( कर्मधा० ) तस्य आभा शोभा (10 तत्पु०) इव आभा ( उपमान तत्पु० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) यो नखाङ्कः ( कर्मधा० ) नखस्य करजस्य करजक्षतस्येत्यर्थः यः अङ्कः चिह्नम् (10 तत्पु० ) तत् चुम्वति गृह्णातीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) कुचः स्तन: (कर्मधा० ) यस्यास्तथाभूता (ब० वी० ) कापि सखी आली-'स्मरः कामः ते तव पयोधरे स्तन्यधरे, अथ च जलाशये ('पयः स्यात्क्षीनीरयोः' इति विश्वः / कुचे एव कुम्भे कलशे हरात् महादेवात् या- भोतिः भयम् (60 तत्पु० ) तस्याः सकाशात् ( आत्मानम् ) गोपायर्यात रक्षतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) सन् नावा नौकया खेलति क्रीडति किम् ? इति सखीभिः आलीभिः सपरिहासम् ऊचे उक्ता। प्रियतमकृतनखक्षतोपलक्षितं सखीकुचमवलोक्य सखीनां तत्कुचे कुम्भस्य नखक्षतचिह्न च कामजलक्रीडार्थं नौकायाः कल्पना क्रियते // 66 // व्याकरण-पयोधरः धरतीति/धृ+ अच् ( कर्तरि) धरः पयसो धरः इति (10 तत्पु० ) 0 चुम्बि-चुम्ब् + णिन् ( कर्तरि / ऊचे वच् + लिट् ( कर्मवाच्य ) / ०गुप्/गुप् + क्विप् ( कर्तरि ) / अनुवाद-जहाँ अर्धचन्द्राकार नख (क्षत ) से चिह्नित कुचवाली (किसी) सखी को ( अन्य ) सखियाँ कह उठीं-'तेरे पयोधर ( दूधभरे ) कुच-रूपी पयोधर ( जल-भरे ) कलश पर महादेव के डर से ( अपनी ) रक्षा करता हुआ काम नौका से ( जल-) क्रीड़ा कर रहा है क्या ? // 66 // टिप्पणी-स्तनपर नखक्षत-चिह्न अर्ध-चन्द्राकार छोटी-सी किश्ती बन गई / उसके लिए कामदेव को जल-क्रीड़ा हेतु जलाशय चाहिए क्योंकि वह महादेव के तृतीयनेत्राग्नि से डरा हुआ है / एक वार जल जो गया था / जले हुए को शीतल जल अपेक्षित होता ही है। जलाशय मिलगया है सखी का पयोधर-रूपी कलश / फिर तो क्या था। वहाँ निर्भय हो खूब जल-क्रीड़ा अर्थात् नौका विहार करने लगा। भाव यह निकला कि मेरे नखक्षतचिह्नित पयोधर को देख किसे कामोद्रक नहीं होगा ? 'चन्द्राभ' में उपमा, पयोधर पर कुम्भत्वारोप में रूपक जो पय में श्लेषगभित है, 'और किम्' शब्द में उत्प्रेक्षा-इन सबका अङ्गाङ्गिभाव संकर हैं। 'सखी' 'सखी' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मल्लिनाथ, विद्याधर Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते नरहरि और चाण्डू पण्डित 'हरमीतिगुप्तेः' पाठ दे रहे हैं। मल्लिक की व्याख्या है-'हरभीत्या गुत्तेः गुप्त्यर्थमित्यर्थः सम्बन्ध-सामान्ये षष्टी' / विद्याधर-'ईश्वरभयगोपनात्' / नरहरि-हरभीतेगुप्तिः रक्षणं तस्या हेतोः' / चाण्डू पण्डित--'हरात् या भीतिर्भयं तस्या गुप्तेः रक्षणात्' / जिनराज 'हरभीतिगुप्तः' पाठ देकर यों व्याख्या करते हैं-'हरात् या भीतिः तस्याः सकाशात् आत्मानं गोपायतीति हरभीतिगुप्तः सन्'। स्मराशुगीभूय विदर्भसुभ्रवक्षो यदक्षोभि खलु प्रसूनैः / स्रज सृजन्त्या तदशोधि तेषु यत्रैकया सूचिशिखां निखाय // 67 // अन्वयः-यत्र प्रसूनैः स्मराशुगीभूय विदर्भ-सुभ्र-वक्षः अक्षोभि यत्, तत् तेषु सूची-शिखाम् निखाय स्रजम् सृजन्त्या एकया अशांधि खलु / टीका-यत्र सभायाम् प्रसूनैः कुसुमैः स्मरस्य कामस्य आशुगाः बाणाः (10 तत्पु०) अनाशुगा आशुगा भूत्वेति आशुगीभूय कामबाणा भूत्वेत्यर्थः कामस्य कुसुमबाणत्वात् विदर्भाणाम् विदर्भाख्यजनपदस्य सुभ्रः सु = शोभने भ्रवौ यस्याः तथाभूतायाः ( प्रादि ब० बी० ) दमयन्त्याः वक्षः हृदयम् ( 10 तत्पु० ) अक्षोभि क्षोभितम् यत् यस्मात् तत् तस्मात् तेषु पुष्पेषु सूच्या: शिखाम् अग्रभागम् निखाय प्रवेश्य स्त्रजम् मालाम् सृजन्त्या रचयन्त्या गुम्फन्त्येत्यर्थः एकया सख्या अशोधि बैर-निर्यातनं कृतम् खलु / मालां गुम्फन्ती कापि सुन्दरी कुमुमानि सूच्या आच्छिद्य बाणरूपकुसुमकृतदमयन्तीपीडायाः प्रतिशोघं करोतीवेति भावः // 67 / / ___ व्याकरण-प्रसून:--प्र++ क्त, त को न / आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + डः / आशुगीभूय आशुग + च्वि, ईत्व, ल्यप् / अक्षोभिक्षुभ + लुङ् (कर्मवाच्य) सूचिः सूचयतीति /सूच + इन् / निखाय नि + Vखन् + ल्यप् / अशोध / शुध् + णिच् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-जहाँ फूलों ने कामदेव के बाण बनकर विदर्भ-सुन्दरी (दमयन्ती) के हृदय को जो झकझोरा, इसी कारण मानो उन ( फूलों ) में सूई की नोक घुसेड़कर माला गूंथ रही एक ( सखी ) उनसे बदला ले बैठी / / 97 / / टिप्पणी-वैरी पर शस्त्र प्रहार करके बदला लिया ही जाता है / सखी ने सूई के रूप में बरछी शत्रु-भूत कुसुमों के पेट में घुसेड़ दी। दिल ठंडा हो गया। फूलों को सूई से पिरोना आम बात है, किन्तु कवि ने यहाँ वैर-निर्यातन की Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः कल्पना कर रखा है, इसलिए उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक खलु शब्द है। 'वक्षो' 'दक्षो' में पदान्तर्गत अन्त्यानुप्रास, 'स्रज' 'सृजन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यत्रावदत्तामतिभीय भैमी त्यज त्यजेदं सखि ! साहसिक्यम् / त्वमेव कृत्वा मदनाय दत्से वाणान्प्रसूनानि गुणेन सज्जान् // 68 // अन्वयः- यत्र भैमी अतिभीय ताम् अवदत्--सखि ! इदम् साहसिक्यम् त्यज बाणान् गुणेन सजान् कृत्वा मदनाय त्वम् एव दत्से' / टोका-यत्र यस्यां सभायाम् भैमी भीमनृपपुत्री दमयन्ती अतिभीय अतिशयेन भीत्वा ताम् मालाकारिणी सखीम् अवदत् अवोचत्--'हेसखि आलि ! इदम् मालागुम्फनरूपं साहसिक्यम् साहसकायं असमीक्ष्यकारित्वमिति यावत् त्यज, मुञ्च, मुञ्च, ( यतः ) प्रसूनानि पुष्पाणि बाणान् गुणेन सूत्रेण अथ च मौर्या सज्जान् सक्तान् सन्नद्धानिति यावत् कृत्वा मदनाय कामाय त्वम् एव वत्से प्रयच्छसि / मालां ग्रथ्नती त्वं पुष्पाणि शरान् ज्यासक्तान् कृत्वा मदुपरि प्रहतु' दद ना कामस्य साहाय्यमाचरसीति कोहक ते सखीत्वमिति भावः / / 68 // व्याकरण-अतिभीय-अति + / भी + ल्यप् / साहसिक्यम् सहसा वर्तते इति सहसा + ठक् ( 'ओजः सहोम्भसा वर्तते' 4 / 4 / 27) साहसिकी तस्याः भाव इति साहसिकी + ष्यन, पुंवद्भाव / त्यज, त्यज भये द्विरुक्तिः / प्रसूनानि इसके लिए पिछला श्लोक देखिए / सज्जान् सज्जतीति / सस्ज + अच् (कर्तरि)। अनुवाद---जहाँ भीमनन्दिनी अत्यन्त भयभीत हो उस माला गूंथने वाली सखी) को बोली-'सखी! यह साहसिक कार्य छोड़ दे, छोड़ दे, ( क्योंकि ) पुष्परूप बाणों को गुण (धागा, प्रत्यञ्चा) से संजोकर कामदेव के लिए तू ही तो दे रही है // 68 // टिप्पणी-डोरे से गूंथे फूलों पर दमयन्ती को प्रत्यञ्चा पर चढ़े कामदेव के षुष्य-बाणों का भ्रम हो जाता है, जिससे वह सखी को फटकारने लगती है कि तू अच्छो सखी बनी है, जो मुझ पर प्रहार हेतु पुष्प बाणों को प्रत्यञ्चा पर चढ़ाकर देती हुई कामदेव की सहायता कर रही है / यहाँ गुण शब्द श्लिष्ट है / फूलों का गुण-धागा और है तथा वाणों का गुण-प्रत्यञ्चा और है / कबि ने दोनों का अभेदाध्यवसाय कर रखा है, अतः भेदे अभेदातिशयोक्ति अलंकार है / त्यज, स्यज में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते आलिख्य सख्या: कुचपत्रभङ्गीमध्ये सुमध्या मकरी करेण / यत्रालपत्तामिदमालि ! यानं मन्ये त्वदेकावलिनाकनद्याः // 69 // अन्वयः--यत्र ( काचित् ) सुमध्या सख्याः कुचपत्रभङ्गीमध्ये करेण मकरीम् आलिख्य ताम् आलपत्-'हे आलि, त्वदेकाबलिनाकनद्याः इदम् यानम् ( अस्ति ) / टीका-यत्र सभायाम् काचित् सु = शोभनं मध्यम् उदरं यस्याः तथाभूता (प्रादि ब० वो० ) सुन्दरीत्यर्थः सख्या: आल्याः कुचयो: स्तनयोः या पत्राणाम् लतादलादीनाम् ( स० तत्पु० ) भङ्गयः रचनाः (10 तत्पु० ) तासां मध्ये मध्यभागे (प० तत्पु० ) करेण हस्तेन मकरीम् नक्रीम् आलिख्य चित्रयित्वा ताम् सखीम् आलपत् अबदत्-'हे आलि सखि ! तव एकावली एकयष्टिका ( 'एकावल्येकयष्टिका' इत्यमरः ) एकसूत्रगुम्फितमुक्तामालेत्यर्थः (10 तत्पु०) एव नाकनदो ( कर्मधा० ) नाकस्य स्वर्गस्य नदी गङ्गा. स्वर्गङ्गा मन्दाकिनीति यावत् ( 10 तत्पु० ) तस्याः यानं वाहनम् अस्तीति शेषः / पत्रभङ्गीमध्ये आलिखिता मकरी स्तनगतमौक्तिकमालारूपायाः स्वर्णद्याः वाहनमिव प्रतीयते इति भावः / / 69 // व्याकरण- भङ्गी/भञ्ज + इन्, कुत्व + ङीप् / मकरी मकर + ङीप् / यानम् यायतेऽनेनेति /या + ल्युट् ( करणे)। अनुवाद-जहाँ ( कोई ) सुन्दर कमर वाली युवति ( अपनी ) सखी के कुचों पर पत्र-रचना के मध्य में हाथ से मकरमत्स्यिका का चित्र बनाकर उसे बोल रही थी-'सखी! ऐसा लगता है जैसे यह तुम्हारी मोतियों की लड़ी-रूपी स्वर्गङ्गा की वाहन हो // 69 // टिप्पणी--प्राचीन काल में कस्तूरी आदि के द्रब से स्तनों, मुख आदि पर शोभार्थं फूल-पत्तियों को चित्रकारी की प्रधा स्त्रियों में प्रचलित थी। आजकल यह 'गोदने' के रूप में परिणत हो गई है। यहाँ स्तन पर चित्रकारी के बीच मगरमच्छी का चित्र ऐसा लग रहा था मानो वह स्तनों पर लटकी मुक्ता-लड़ी रूपी स्वर्गङ्गा की वाहन हो। स्वर्गङ्गा और मुक्ता-लड़ी दोनों श्वेत-वर्ण और लंबी होने से परस्पर साधर्म्य रखे हुए है। शास्त्रों में जैसे तत्तद् देवताओं के अपने-अपने वाहन अथवा सवारी का उल्लेख है, वैसे ही गंगा को 'मकरवाहिनी' कहा गया है अर्थात् वह मगरमच्छ पर सवार रहती है ( जैसे सरस्वती हंस पर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः . दुर्गा सिंह पर ) इस तरह 'मकरी' पर वाहनत्व की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है, जिसके मूल में “एकावली' पर 'नाकनदीत्व का आरोप कारण बना हुआ है, अतः यहाँ रूपक और उत्प्रेक्षा का संकर है। 'मध्या' 'मध्ये' तथा 'करी' 'कर' में छक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तामेव सा यत्र जगाद भूयः पयोधियादः कुचकुम्भयोस्ते। सेयं स्थिता तावकहृच्छयाङ्कप्रियास्तु विस्तारयशःप्रशस्तिः / / 70 // अन्वयः- यत्र सा ताम् एव सखीम् भूयः जगाद-(हे सखि ! ) पयोधियादः तावक-हृच्छयाङ्कप्रिया ते कुच-कुम्भयोः स्थिता सा इयम् ( मकरी) विस्तारयशः-प्रशस्तिः अस्तु। टीका-यत्र यस्यां सभायाम् सा पूर्वोक्ता सुमध्या युवतिः ताम् पूर्वोक्ताम् एव सखीम् आलिम् जगाद अब्रवीत् -'हे सखि ! पयोधेः समुद्रस्य याद: जन्तुः ( यादांसि जल-जन्तवः इत्यमरः ) तावकस्य त्वदीयस्य हृच्छयस्य ( कर्मधा० ) हृदयस्थितकामस्येत्यर्थः अङ्कः चिह्नम् चिह्रभूतो मकर इत्यर्थः (10 तत्पु० ) 'कामो हि मकरध्वजः' इत्युक्तेः तस्य मकरस्य प्रिया पत्नी ( 10 तत्पु० ) ते तव कुचौ स्तनो कुम्भौ कलशी इव ( उपमित तत्पु० ) तयोःस्थिता सा इयम् मकरी विस्तार य त्वत्कुचयोः परिणाहस्य पीवरत्वस्येति यावत् यत् यशः कीर्तिः तस्य प्रशस्तिः स्तुतिवर्णना अस्तु जायताम् / विशालसागरे निवसन्ती जलजन्तु: मकरी सागरं विहाय तब स्तनयोः स्थिता सती ते कुचयोः विशालतां सूचयतीति भावः // 70 // व्याकरण--पयोधिः पयांसि धीयन्तेऽत्रेति पयस् + Vधा + कि ( अधिकरणे ) तावकः तवायमिति युष्मत् + अण, युष्मत् को तवकादेश। हृच्छय: शेते इति शी + अच् ( कर्तरि ) शयः; हृदिशाय इति ( स० तत्पु० ) प्रशस्ति: प्र+ Vशंस + क्तिन् (भा वे ) / अनुवाद - जहाँ वह ( सुमध्या) उसी सखी को फिर बोल पड़ी-('हे सखी! ) सागर की जन्तुरूप तुम्हारे हृदयस्थित काम के चिह्न-भूत मकर की प्रिया, तुम्हारे कुच-कुम्भों में स्थित बह यह मकरी ( तुम्हारे कुचों के ) विस्तार के यश की प्रशस्ति बने / // 70 // टिप्पणी--विस्तृत सागर को छोड़ यदि मकरी तुम्हारे कुवों में रहती है, तो यह तुम्हारे कुचों की महती प्रशंसा उनके विस्तार की यशःप्रशस्ति ही Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 नैषधीयचरिते समझो / दूसरे तुम्हारे हृदय में स्थित काम का चिह्नभूत मकर भी जब वही है, तो मकरी को भी उसके प्रियतम से मिला देना उचित ही है। हृदय में काम के साथ मकर के रहने के सम्बन्ध में पीछे चौथे सर्ग का श्लोक ३५-'सतत तद्गत हृच्छयकेतुना हतमिव स्वतनूधनर्षिणा / ' देखिए / विद्याधर 'कुच-कुम्भयोः' में रूपक कह रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से उपमा ही ठीक रहेगी, क्योंकि विशे. षता यहाँ कुचों को ही दी गई है कुम्भों को नहीं'। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / शारी चरन्ती सखि ! मारयैतामित्यक्षदाये कथिते कयापि / यत्रस्वघातभ्रमभोरुशारीकाकूत्थसाकूतहसः स जज्ञे / / 71 / / अन्वयः-यत्र 'हे सखी! चरन्तीम् एताम् शारीम् मारय' इति कया अपि अक्ष-दाये कथिते सति स स्वघात...हस: जज्ञे / टोका~~यत्र सभायाम् हेसखि आलिj चरन्तीम् गृहाद् गृहान्तरं गच्छन्तीम् अथ च भ्रमन्तीम् शारोम् अक्षोपकरणविशेषम् अथ च सारिकाम् पक्षिविशेषमितियावत् मारय जहि' इति एवं कया अपि कयाचित् युवत्या अक्षाणां पाशकानां दाये दाने प्रक्षेपे इत्यर्थः ( 'दायो दाने योतकादिधन' इति विश्वः ) कथिते उक्ते सति स नलः स्वस्याः आत्मनः घातः मारणम् तस्य भ्रमः भ्रान्तिः (उभयत्र (10 तत्पु ) तस्मात् भोरु: भीता (पं० तत्पु. ) या शारी सारिका तस्याः या काकु: विकृतकण्ठस्वरः ( ष० तत्पु० ) तस्मात् उत्तिष्ठतीति तयोक्तः ( उपपद तत्पु०) साकूतः आकूतेन अभिप्रायेण सहितः ( व० वी० ) हसः हासः (कर्मधा०) यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) जज्ञे जातः / अक्षक्रीडायां शारीम् (अक्षोपकरणम् ) उपलक्ष्य तां हन्तुं कामपि सखीम् प्रेरयन्त्याः सख्याः वचनेन 'इयं मां हनिष्यतीति भ्रमेण भीता शारी ( पक्षिविशेषः ) ‘मा तावत्' मा तावदिति सकरुण-कण्ठध्वनि चकार, तमभिप्रेत्य च नलो जहासेति भावः / / 71 / / व्याकरण-दायः /दा + घञ् / घात: हिन् + णिच् + घञ् / भीरु भेतुं शीलुमस्येति + /भी + छ। उत्थः उत्तिष्टतीति उत् + स्था, क। हस: हस् + अप् ( भावे ) ( 'स्वन-हसोर्वा' 3 / 3 / 62 ) / जज्ञे जन् + लिट् / ___अनुवाद-जहाँ-हे सखी ! जा रही इस शारी ( चौरस = चौपड़ की गोटीं) को मार दे' / यों पासा डालते समय किसी ( युवति ) के कहने पर वह ( नल) घूमती हुई शारी ( शारिका = मैना ) की अपने मारे जाने के भ्रम के भय द्वारा उत्यन्न विकृत कण्ठ-ध्वनि के कारण साभिप्राय हँस दिये / / 71 // Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः - टिप्पणी-कवि ने शारी का प्रयोग करके अच्छा चमत्कार दिखाया है / वैसे तो युवतियां चौसर खेल रही थीं। पांसा फेंकते समय कोई युवति सखी को कह बैठी कि शारी को मार दो। शारी से अभिप्राय उसका चौसर की गोटी से था, लेकिन शारी मैना को भी बोलते हैं। मैना इधर-उधर उड़ रही यह सुन बैठी कि मुझे मारने को कहा जा रहा है। भयभीत हुई बेचारी के कण्ठ से 'नहीं' 'नहीं' की करुणध्वनि निकल उठी। सामने नल ने सुना, तो साभिप्राय हँस गये। यहाँ हमारे विचार से भ्रान्तिमान् इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि शारी की भ्रान्ति वास्तविक है। विद्याधर भावोदयालंकार कहते हैं, क्योंकि शारी को भय का उदय हो रखा है / 'शारी शारी' 'कुत्थ कूत' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भैंमीसमीपे स निरीक्ष्य यत्र ताम्बूलजाम्बूनदहंस लक्ष्मीम् / कृतप्रियादूत्यमहोपकारमगलमोहद्रढिमानमूहे // 72 // अन्वयः-यत्र स भैमी-समीपे ताम्बूल.......लक्ष्मीम् निरीक्ष्य कृत ...... मानम् ऊहे। टीका-यत्र सभायाम् स नलः भैम्याः भीमपुत्र्याः दमयन्त्याः समीपे निकटे ताम्बूलाय ताम्बूलधारणायेति यावत् यः जाम्बूनद-हंसः (च. तत्पु०) जाम्बूनदस्य सुवर्णस्य हंसः (10 तत्पु० ) सुवर्णनिमित-हंसाकार-ताम्बूल-भाजनमित्यर्थः तस्य लक्ष्मीम् शोभाम् ( उभयत्र प. तत्पु० ) निरीक्ष्य विलोक्य कृतः प्रियाया: प्रेयस्या दमयन्याः दूत्यम् दूतत्वम् (10 तत्पु० ) एव महान् विपुलः उपकारः उपकृतिः ( उभयत्र कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० वी० ) यो मराल: हंसः ( कर्मधा० ) तस्मिन् मोहस्य म्रमस्य ( स० तत्पु० ) द्रढिमानम् दृढंताम् (10 तत्पु० ) ऊहे उवाह / हंसाकारसुवर्णताम्बूलभाजने नलस्य 'एष प्रियतमायाः समीपे मे दूतः सुवर्णहंसः' इति भ्रान्तिरभूदिति भावः / / 72 // व्याकरण -जाम्बूनदम् जम्बूनदस्येदमिति जम्बूनद + अण् / सुमेरु के पास से बहने वाला स्बणिल नद जम्बूनद कहा जाता है। दूत्यम् दूतस्य कर्मेति दूत + यत् ( वैदिक प्रयोग)। दढिमानम् दृढस्य भाव इति दृढ + इमनिच, ऋ को र / ऊहे / वह + लिट् ( आत्मने० ) / अनुवाद-दमयन्ती के समीप सोने का हंसाकृति बाला पानदान देखकर उन ( नल ) को उसपर प्रिया के प्रति दूत के रूप में ( उनका ) महान् उपकार करने वाले हंस का पक्का भ्रम हो उठा // 72 // Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ भ्रान्ति कवि ने विच्छित्तिपूर्ण बताई है, अतः भ्रान्तिमान अलंकार है / 'ताम्बू' 'जाम्बू' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। 'महो' 'मोह' 'मूहे' में वर्णों की आवृत्ति एक से अधिक बार होने के कारण वृत्त्यनुप्रास ही है, छेक नहीं। "विलोकयामास सभाम्' ( श्लो० 58 ) में उल्लिखित सभा शब्द के विशेषणात्मक उपवाक्य इस श्लोक में समाप्त हुए हैं। तस्मिन्नियं सेति सखीसमाजे नलस्य संदेहमथ व्युदस्यन् / अपृष्ट एव स्फुटमाचचक्षे स कोऽपि रूपातिशयः स्वयं ताम् / / 72 // अन्वय:-अथ तस्मिन् सखी-समाजे नलस्य सन्देहम् व्युदस्यन् स कः अपि रूपातिशयः अपृष्टः एव स्वयम् ताम् स्फुटम् आचचक्षे / टीका-अथ सभामण्डपस्यावलोकनानन्तरम् तस्मिन् सखीनाम् आलीनाम् समाजे मण्डल्याम् नलस्य संदेहं संशयम् व्युदस्यन् अपाकुर्वन् निवारयन्निति यावत् स प्रसिद्धः कोऽपि विलक्षणः इत्यर्थः रूपस्य सौन्दर्यस्य अतिशयः उत्कर्षः लोका. तोतसौन्दर्यमिति यावत् अपृष्टः अकृतप्रश्नः एव स्वयम् आत्मानम् ताम् दययन्तीम् स्फुटम् स्पष्टं यथा स्यात्तथा आचचक्षे कथितवान् / सुन्दरीणां सखीनां मन्ये प्रथम नलस्य सन्देहोऽभवत् एतासु का दमयन्ती भविष्यतीति किन्तु यदा तेनैकस्यां युवत्यां सखीनामपेसया 'लोकोत्तर' सौन्दर्य दृष्टम्, तदा इयमेवास्ति दमयन्तीति सन्देहनिवारणपूर्वकं निश्चयमकरोत्' दमयन्ती स्वयमेव स्वसौन्दर्यातिशयेन परिचयमपृष्टापि आत्मानं परिचायितवतीति भावः / / 73 // ___ व्याकरण--सखी-- इसके लिए पीछे श्लोक 58 देखिए / समाजः सम् + V अज् + घञ् / व्युदस्यन् वि + उद् + / अस् + शतृ अतिशयः अति + Vशी + अच् / आचचक्षे आ + V चक्ष + लिट् ( आत्मने० ) / ___ अनुवाद - उस सखी मंडली में नलका संदेह मिटाता हुआ कोई प्रसिद्ध सौन्दर्यातिशय विना पूछे ही उस (दमयन्ती) का स्पष्ट ऐलान कर गया / / 73 // टिप्पणी-सभी सखियों के सौन्दर्य को अतिक्रमण कर देने वाला अद्भुत सौन्दर्य सामने आया देख कर नल तत्काल जान गये कि निस्सन्देह यही दमयन्ती है / विद्याधर के अनुसार 'अत्रातिशयोक्तिरलङ्कारः। रूपातिशय और रूपातिशयवाली में अभेद कर दिया है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / भैमीविनोदाय मुदा सखीभिस्तदाकृतीनां भुवि कल्पितानाम् / नाकि मध्ये स्फुटमप्युदीतं तस्यानुबिम्ब मणिवेदिकायाम् // 74 // Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सगः 75 अन्वयः-भैमी-बिनोदाय मुदा सखीभिः भुवि कल्पितानाम् तदाकृतीनाम् मध्ये मणिवेदिकायाम् स्फुटम् उदीतम् अपि तस्य अनुबिम्बम् न अतकिं / टीका-भैम्याः दमयन्त्याः विनोदाय मनोरञ्जनाय मुदा हर्षेण सखीभिः मुवि भूतले कल्पितानाम् रचितानाम् चित्रितानामिति याबत् तस्य नलस्य आकृतीनां प्रतिरूपाणाम् (10 तत्पु० ) मध्ये मणिखचिता वेदिका मणिवेदिका ( मध्यमपदलोपी स० ) तस्याम् स्फुटम् स्पष्टं यथा स्यात्तथा उदीतम् प्रकटितम् तस्य नलस्य अनुबिम्बम् प्रतिबिम्बम् न अकि-न तकितम् लक्षितमिति यावत् नल-प्रतिरूपाणां मध्ये सत्यमपि नलप्रतिबिम्बं सत्यत्वेन न गृहीतमिति भावः // 74 // व्याकरण-विनोदाय वि + /नुद् + धन् / मुद् मुद् + क्विप् ( भावे ) / आकृतिः आ + /कृ + क्तिन् / उदीतम् उत् + Vई + क्त ( कर्तरि ) / वेदिकायाम् वेदी एवेति वेदी + कन् ( स्वाथें ) + टाप , ह्रस्व / अतकित + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-दमयन्ती के मनोविनोद हेतु सहर्ष सखियों द्वारा भूमि पर खींचे नल के चित्रों के मध्य मणि-जडित वेदी पर स्पष्ट पड़ा हुआ उन ( नल ) का प्रतिबिम्ब देखने में नहीं आया // 74 // ___टिप्पणी-भूमि पर सखियों द्वारा बनाई नलकी आकृतियां ऐसी हूबहू थीं कि इनमें और नल के प्रतिबिम्ब में कोई भेद ही नहीं दिखाई दे रहा था, अतः वह पृथक्त्वेन उनकी बुद्धि में नहीं आ सका यद्यपि सच्चा था। विद्या. धर यहाँ मीलित अलंकार कहते हैं। मीलित वहाँ होता है जहाँ एकवस्तु समान चिह्न से दूसरी वस्तु को छिपा देती है। इसमें एक वस्तु प्रबल और एक कम प्रबल होती है लेकिन मल्लिनाथ यहाँ सामान्य अलंकार मान रहे हैं। सामान्य वहाँ होता है जहाँ गुणसाम्य से वस्तुओं में ऐकात्म्य हो जाता है / यहाँ चित्रों में समान चिह्नों से प्रतिबिम्ब को छिपा दिया है अथवा दोनों में गुण-साम्य से .ऐकात्म्य है-यह संदिग्ध होने से हम दोनों का संदेह संकर ही कहेंगे। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। हताशकीनाशजलेशदतीनिराकरिष्णोः कृतकाकूयाच्याः / भैम्या वचोभिः स निजां तदाशां न्यवर्तयदूरमपि प्रयाताम् // 75 // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 नैषधीयचरिते अन्वयः-कृतकाकुयात्राः हुताश' दूती: निराकरिष्णोः भैम्या वचोभिः स दूरम् अपि प्रयाताम् तदाशाम् न्यवर्तयत् / ____टीका-कृताः विहिताः काकु--याच्याः ( कर्मधा० ) काकुः कण्ठध्वनिविशेषः तयुक्ताः दैन्यस्वरबिशिष्टा इति यावत् याच्याः प्रार्थना ( मध्यमपदलोपी स०) याभिः तथाभूताः ( ब० बी० ) हुताश: अग्निश्च कोनाश: यमश्च ('प्रेतपतिः पितृपतिश्च कीनाशः' / इति हलायुधः' ! जलेशः वरुणश्चेति जलेशाः (द्वन्द्व ) तेषां दूतीः संदेशहरी: (10 तत्प०) निराकरिष्णोः निराकुर्वत्याः भैम्याः दमयन्त्याः वचोभि: वचनैः स नल: दूरम् अपि प्रयाताम् दूरोपेताम् क्षीणामपीति यावत् तस्याः दमयन्त्याः आशाम् प्राप्तिप्रत्याशाम् (10 तत्पु०) न्यवर्तयत् प्रत्यावर्तितवान् , अग्न्यादि-दूती-प्रार्थनामनाद्रियमाणां दमयन्तीं दृष्ट्वा नलस्य नले तद्विषये क्षीणापि आशा पुनर्जागरिता जातेति भावः / / 75 // व्याकरण-हुताशः अश्नातीति/अश + अच् ( कर्तरि० ) हुतस्य अशः / याचा याच + नङ् + टाप / निराकरिष्णुः निर् + आ + कृ + इष्णुच , 'न लोकाव्यय०' ( 2 / 3 / 69 ) से षष्ठी-निषेध होने पर द्वि० / न्यवर्तयत् नि + Vवृत् + णिच् + लङः / / अनुवाद ... काकू-भरी-दीनता-पूर्ण-प्रार्थनायें किये अग्नि, यम और वरुण की दूतियों को ठुकरा देने वाली दमयन्ती की बातों से वह ( नल) उसके विषय में दूर गयी हुयी भी अपनी आशा को फिर वापस ले आये / / 75 // टिप्पणी - नल इन्द्र की चालबाजी से दमयन्ती विषयक सारी आशा अपनी तरफ से छोड़ बैठे हैं किन्तु यह दमयन्ती है तो फिर आशा-सञ्चार कराने लगी है। पाठक देखेंगे कि कवि देवताओं की दूतियों की अवतारणा किये बिना ही एकदम अग्नि आदि की तरफ से उनकी प्रार्थनाओं को दमयन्ती द्वारा ठुकरवाकर सीधा इन्द्र की दूती हमारे सामने ला रहा है। यहाँ पर कथानक की कड़ी उखड़ी-पुखड़ी-सी लग रही है। छोटी-सी बात लेकर विस्तार में जाने वाले कवि का यहाँ इतना संक्षेप अखर रहा हैं। 'ताश' 'नाश' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विज्ञप्तिमन्तःसभयः स भैम्या मध्येसभं वासवसम्भलीयाम् / संभालयामास भृशं कृशाशस्तदा लवृन्दैरभिनन्द्यमानाम् // 76 // Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अन्वयः–स मध्येसभम् तदालिवृन्दैः अभिनन्द्यमानाम् वासवसम्भलीयाम् विज्ञप्तिम् अन्तः सभयः कुशाशः (च) सन् भृशम् संभालयामास / / टीका–स नलः सभायाः सभामण्डपस्य मध्ये इति मध्येसभम् ( अब्ययीभाव ) तस्याः दमयन्त्याः आलीनाम् सखीनाम् वृन्दै : गणेः ( उभयत्र प० तत्पु०) अभिनन्धमानाम् क्रियमाणाभिनन्दनाम् प्रोत्साह्यमानामिति यावत् वासवस्य इन्द्रस्य सम्भली कुट्टनी ('कुट्टनी सम्भली समे' इत्यमरः) दूतीत्यर्थः (10 तत्पु०) तस्या इयमिति सम्भलीया ताम् विज्ञप्तिम् विज्ञापनाम् अन्तः मनसि समय। भयेन सहितः ( ब० वी० ) कृशा क्षीणा आशा यस्य तथा भूतः (ब० वी० ) सन् संभालयामास सावधानं शुश्राब / दूतीकृतम् इन्द्रप्रस्तावं सखीभिरभिनन्द्यमानमवलोक्य नूनम् इन्द्रमेव सा वरिष्यतीति हृदये नलः पुनः दमयन्त्यां शिथिलाशो बभूवेति भावः ! / 76 / / व्याकरण-मध्येसभम् ‘पारे मध्ये षष्ठ्या वा' (2 / 1 / 18) से वैकल्पिक अब्ययो० / अभिनन्धमानाम् अभि + /नन्द + शानच् ( कर्मवाच्य ) सम्भलीयाम् सम्मली + छ, छ को ईय + टाप / विज्ञप्तिम् वि + /ज्ञा + णिच् + क्तिन् / यहाँ ज्ञाधातु के णिजन्त होने के कारण क्तिन् को बाधकर ( ण्यासश्रन्थो युच् ( 3 / 3 / 107 ) युच प्रत्यय होने से बिज्ञापना ही रूप बनता है विज्ञप्ति प्रयोग व्याकरण विरुद्ध है किन्तु लोग इसको प्रयोग में ला ही रहे हैं / संभालयामास सम् + /भल + णिच् + लिट् / 'अनुवाद-वह ( नल) सभामण्डप में उस ( दमयन्ती) के सखीगणों द्वारा अभिनन्दित की जाती हुई इन्द्र की दूती की बिज्ञप्ति मन में भीत ( एबं) आशाहीन हो ध्यानपूर्वक सुन रहे थे // 76 // टिप्पणो-नल समझ रहे थे कि इन्द्रदूती का प्रस्ताव जिसे दमयन्ती की सखियों का भी समर्थन मिल रहा था। वह स्वीकार कर लेगी, अतः मन में डरे उनकी आशा पर फिर पानी फिरने लगा कि वह अब मेरे हाथ से गई समझो इन्द्र तथा स्वर्ग का ऐश्वर्य भला कौन ठुकरायेगो ? 'सम्भलीया' 'संभालया' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। लिपिन दैवी सुपठा भुवीति तुभ्यं मयि प्रेषितवाचिकस्य / इन्द्रस्य दूत्यां रचय प्रसादं विज्ञापयन्त्यामवधानदानः // 77 // Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अन्वय--(हे दमयन्ति ) दैवी लिपिः भुवि न सुपठा' इति तुभ्यम् प्रेरित प्रसादम् रचय / टोका- हे दमयन्ति ) देवी देव-सम्बन्धिनी लिपि: लेखाक्षराणि भुवि भूलोके न सुपठा सुखेन पठितुं न शक्या अपाठयेत्यर्थः इति हेतोः तुभ्यम् तब कृते प्रेरितम् प्रेषितम् यत् वाचिकम् संदेशः ( कर्मघा० ) येन तथाभूतस्य (व० वी०) 'संदेश-बाग् वाचिकं स्यात्' इत्यमरः इन्द्रस्य देवराजस्य दूत्याम् संदेशवाहिन्याम् मयि विज्ञापयन्त्याम् विज्ञापनां कुर्बत्याम् तत्सन्देशं निवेदयन्त्यामिति यावत् त्वम् अवधानम् ध्यानम् तस्य दानम् प्रदानम् (10 तत्पु० ) एव प्रसादं कृपाम् रचय कुरु / कृपया ध्यानं दत्त्वा मत्सकाशात् तुभ्यं प्रेषितम् इन्द्रसंदेशं शृणु इति भावः // 77 // व्याकरण-देवी-देवानामियमिति देव + अण् + डीप लिपिः /लिप् + इक् / सुपठा सु/पठ् + खल् / वाचिकम् व्याहृता वाक् इति वाक् + ठक् ( स्वार्थे ) ( 'वाचो व्याहृतार्थायाम्' 5 / 4 / 35), किन्तु ध्यान रहे कि 'स्वार्थिकाः प्रकृतितो लिङ्गवचनान्यतिवर्तन्ते वा' इस नियम से नपुंसक बन जाते है जैसा सेना एव सैन्यम् माला एव माल्यम् इत्यादि / विज्ञापयन्त्याम् वि +/ ज्ञा + णिच् + शतृ डीप् सप्तमी / अवधानम् अव + Vधा + ल्युट ( भावे ) / __ अनुवाद-( हे दमयन्ती) देवताओं की लिपि भूलोक में पढ़ी नहीं जा सकती है इस कारण तुम्हारे लिए ( मौखिक ) संदेश भेजे हुए इन्द्र की ( मुझ ) दूती के निवेदन के प्रति ध्यान देने की कृपा कीजिये // 77 // __टिप्पणी-भूलोक में देवताओं का लेख यदि पढ़ा जा सकता तो इन्द्र स्वयं पत्र लिखकर तुम्हें अपना सन्देश भेजते / किन्तु ऐसा न हो सकने के कारण उन्होंने मेरे द्वारा मौखिक सन्देश ही भेजा है। हमारी समझ में नहीं आया कि जब देवताओं की लिपि ही भूलोक वासियों के पढ़ने में नहीं आ सकती, तो उनकी बोली कैसे समझ में आ गई। यदि सर्व शक्ति सम्पन्न होने से मानुषी वाणी बोल सकते हैं तो मानुषी लिपि भी लिख सकते हैं। कारण बताने से काव्यलिंग है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / सलीलमालिङ्गनयोपपीडमनामयं पृच्छति वासवस्त्वाम् / शेषस्त्वदाश्लेषकथापनिद्रैस्तद्रोमभिः संदिदिशे भवत्यै / / 78 // Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 79 अन्वयः- ( हे दमयन्ति ) बासवः सलीलम् आलिङ्गनया उपपीडम् त्वाम् अनामयम् पृच्छति / शेषः त्वदाश्लेषकथापनिद्र: तद्रोमभिः भवत्यै संदिदिशे / टोवा-(हे दमयन्ति ) वासव: इन्द्रः लीलया विलासेन सहितम् यथा स्यात् तथा ( ब० वी० ) आलिङ्गनया आलिङ्गनेन उपपीडम् उपपीड्य त्वाम् अनामयम आरोग्यम् पृच्छति / शेषः अवशिष्टम् कथनीयं तब आश्लेष: आलिङ्गनम् तस्य कथया कथनेन प्रसङ्ग नेति यावत् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) अपनिद्रैः ( तृ० तत्पु० ) अपगता निद्रा येषां तथाभूतैः (ब० वी० ) हृषितरित्यर्थः भवत्यै तुभ्यम् संदिदिशे संदिष्टः। आलिङ्गनप्रसङ्गेन जातै रोमाञ्चैः स्वयं कथितमेव स त्वयि अनुरज्यते इति भावः // 78 // व्याकरण-वासवः वसूनि = धनानि सन्त्यस्येति वसु + अण् / आलिङ्गनया आ + /लिग् + णिच् + युच + टाप् / उपपीडम् उप+पीड + णमुल ( सप्तम्यां चोपपीडरुधकर्षः' 3 / 4 / 49 सप्तमी और तृतीया उपपद में) विकल्प से समासाभाव ( तृतीया० 2 / 2 / 21 ) / आश्लेषः-आ + /श्लिष् + घञ् / संविदिशे सम् +दिश + लिट् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद- इन्द्रदेव बिलास के साथ कसकर आलिङ्गन द्वारा तुम्हें क्षेमकुशल पूछते हैं। शेष संदेश तुम्हारे आलिङ्गन की बात से उठे हुए रोमाञ्च तुम्हें दे (ही) बैठे हैं / / 78 // टिमणी-आलिङ्गन की बात कहते ही इन्द्र को रोमाञ्च हो उठा, जिसके साथ अन्य सात्विक भाव भी हो गये। स्तम्भ से गला रुंध गया। तुम प्रेम करने की बात मुह से निकल न सकी। इसलिए रोमाञ्च ही संदेश कह गया कि वे तुम पर आसक्त है, इसलिए उन्हें अनुगृहीत कीजिये / रोमाञ्च सात्विक भाव है, संचारी नहीं, अतः भावोदयालंकार नहीं बन सकता / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अनामयम्-यद्यपि आजकल 'कुशल' पूछने की प्रथा सभी वणों में एक-सी बनी हुई है, किन्तु धर्मशास्त्र में इसकी ब्यबस्था है-ब्राह्मण लोग 'कुशल' क्षत्रिय 'अनामय' वैश्य 'क्षेम' और शूद्र ‘आरोग्य' पूछा करते थे इसके लिए देखिए मनु--'ब्राह्मणं कुसलं पृच्छेत् क्षत्रं पृच्छेदनामयम् / वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च / वास्तव में यह शब्दों का ही हेरफेर है, अर्थ सबका एक ही निकलता है। प्रकृत में दमयन्ती के क्षत्रिय-कन्या होने के कारण इन्द्र का उसे 'अनामय' पूछना धर्मशास्त्रानुसार ही है / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते यः प्रेयमाणोऽपि हृदा मघोनस्त्वदर्थनायां ह्रियमापदागः / स्वयंवरस्थानजुषस्तमस्य बधान कण्ठं वरणरजाशु / / 79 / / अन्वयः- ( हे दमयन्ति ) मघोनः यः ( कण्ठः ) त्वदर्थनायाम् हृदा प्रेयंमाणः अपि ह्रियम् आगः आपत् स्वयंवररथानजुषः अस्य तम् कण्ठम् वरणस्रजा ( त्वम् ) आशु बधान / टीका-(हे दमयन्ति ) मघोन: इन्द्रस्य यः कण्ठः तव अर्थनायाम् याञ्चा• याम् त्वद्-याचना-विषये इत्यर्थः हृदा हृदयेन प्रेर्यमाणः प्रणुद्यमानः अपि ह्रियम् लज्जाम् एव आगः अपराधम् आपत प्राप्तः, स्वयंवरस्य स्थानम् (10 तत्पु० ) जुषते सेवते इति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) स्वयंवरस्थानस्थितस्येत्यर्थः अस्य नलस्य तम् कण्ठम् वरणस्य स्वयंवरस्य स्रक माला तया (10 तत्पु० ) त्वम् आशु शीघ्रम् बधान बन्धने प्रक्षिप / ह्रियः कारणात् इन्द्रस्य कण्ठः त्वयि अनुरागं बाचा यन्नावदत् तत्तेन महापराधः कृतः तस्य कृते दण्डस्वरूपं तस्य सञ्बन्धनं क्रियताम् , अपराधिने हि बन्धनं दीयते एवेत्यर्थः / गले वरमालां प्रक्षिप्य इन्द्र वृणीष्वेति भावः / 79 / / व्याकरण-प्रेयमाणः प्र + ईर् + णिच् + शानच् ( कर्मवाच्य ) अर्थना अर्थ + णिच् + युच् + टाप् / आपत् आप् + लुङ् / जुषः + क्विप् (10) / बधान बन्ध+लोट् म० पु० / ___ अनुवाद- हे दमयन्ती ) इन्द्र का जो गला तुम्हारी याचना के विषय में लज्जा-रूपी अपराध कर बैठा है, स्वयंवर-स्थान में पधारे इन ( इन्द्र ) के उस गले को स्वयंवर माला से बाँध दो // 79 // टिप्पणी-यहाँ कण्ठ का चेतनीकरण होने से समासोक्ति, ह्री पर अपराधत्व का आरोप होने से रूपक और दण्डरूप दोष का वरणरूप गुण बन जाने में लेशइन तीनों का संकर है / 'वर वर' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।। 80 // नैनं त्यज क्षीरधिमन्थनाद्यैरस्यानुजायोद्वमितामरैः श्राः / अस्मै विमर्यक्षुरसोदमन्यां श्राम्यन्तु नोत्थापयितुं श्रियं ते // 80 // अन्वयः-(हे दमयन्ति) त्वम् एनम् न त्यज / यैः अमरैः क्षीरधि-मन्थनात् अस्य अनुजाय श्रीः उद्गमिता, ते इक्षुरसोदम् बिमथ्य अन्याम् श्रियम् उत्थापयितुम् न श्राम्यन्तु / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः टोका-(हे दमयन्ति ) त्वम् एनम् इन्द्रम् न त्यज मुञ्च / यैः अमरे: देवैः क्षीरधेः क्षीरसमुद्रस्य मन्थनात् मथनात् (10 तत्पु० ) अस्य इन्द्रस्य अनुजाय कनीयसे भ्रात्रे उपेन्द्राय विष्णवे इति यावत् श्रीः लक्ष्मी उद्गमिता समुद्रात् उद्गन्तुं प्रेरिता निस्सारितेति यावत्, क्षीरसागरं मथित्वा ततः उद्गतां लक्ष्मीम् इन्द्राय देवा ददुरित्यर्थः, ते अमराः इक्षुरसः एव उदकं जलं यस्य तथाभूतम इक्षुरससमुद्रमित्यर्थः (ब० वी० ) विमथ्य मथित्वा अन्याम् श्रियम् क्षीरसागरमथनोद्गतश्रीभिन्नाम् लक्ष्मीम् उत्थापयितुम् उद्गमयितुम् न श्राम्यन्तु न क्लाम्यन्तु ज्यायसे भ्रात्रे इन्द्राय क्षीरसागरोत्थलक्ष्म्यपेक्षयाऽधिकसुन्दरी अन्या लक्ष्मी समपेक्ष्यते तदर्थं देवः इक्षुरससागरस्य मन्थनं कर्तव्यं स्यात् तच्च महाश्रमस्य कार्यमिति कृत्वा त्वमेव इन्द्र वृणीष्व विष्णुलक्ष्म्यपेक्षया तवाधिकसुन्दरत्वादिति भाव: / / 80 // ___ व्याकरण-- क्षीरधिः क्षीराणि धीयन्तेऽत्रेति क्षीर + Vघा + किः ( अधिकरणे ) / अनुजः अनु = पश्चात् जायते इति अनु + जन् + ड: ( कर्तरि ) उद्ग. मिता उत्/गम् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / अमरेः म्रियन्ते इति/मृ + अन ( कर्तरि ) मराः न मरा इत्यमराः / नत्र तत्पु० ) / इक्षुरसोकः इक्षरस + उदक, उदक को उदादेश ( संज्ञायाम् ) / उत्थापयितुम्-उत् + /स्था + णिच् + तुमुन् / ___ अनुवाद--( हे दमयन्ती ! ) तुम इन्द्र को मत छोड़ना / जिन देवताओं ने क्षीरसागर के मन्थन से इन ( इन्द्र ) के छोटे भाई (विष्णु ) हेतु लक्ष्मी निकाली है, वे इक्षुरस-सागर को मथकर दूसरी लक्ष्मी निकालने का श्रम न करने पावें / / 80 / / टिप्पणी-बड़े भाई होने के नाते इन्द्र की पत्नी अधिक ही सुन्दर होनी चाहिए। लक्ष्मी यदि क्षीरसागर से निकली है, तो क्षीरसागर से अधिक मीठा इक्षुरसागर ही है, जिसे मथकर ही अधिक सुन्दर दूसरी लक्ष्मी मिल सकती है / यह देखो तो महान् परिश्रम का काम है। तुम लक्ष्मी से अधिक सुन्दर हो ही, अतः तुम ही इन्द्र को अपना लो, तो देवताओं का श्रम बच जाएगा / मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ देवताओं के साथ दूसरी लक्ष्मी निकालने के प्रयत्न का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है, अतः असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते लोकस्रजि द्यौदिवि चादितेया अप्यादितेयेषु महान्महेन्द्रः / कि तुमर्थी यदि सोऽपि रागाउजागति कक्षा किमतः परापि / / 81 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) लोक-जि द्यौः ( महती ), दिवि च आदितेयाः ( महान्तः), आदितेयेषु अपि महेन्द्रो महान् / सः अपि रागात् यदि किंकर्तुम् अर्थी, अतः परा अपि कक्षा जागति किम् ? // 81 // ___टोका-(हे दमयन्ति ! ) लोकानाम् चतुर्दश-भुवनानाम् स्रजि मालायाम् शृङ्खलायामिति यावत् धौः स्वर्गः महती अस्तीति शेषः स्वर्गो हि सर्वलोकेभ्यः उत्कृष्ट इत्यर्थः, विवि स्वर्गे च आदितेयाः अदितिपुत्रा देवाः महान्तः सन्ति, आदितेयेषु अपि महेन्द्र: महान्; स महेन्द्रः अपि रागात् स्वाभाविकानुरागात् हेतोः पदि किंकर्तुम् तव किङ्करीभवितुम् अर्थों इच्छुकः तहि अतः इन्द्रभर्तृत्वात् परा उत्कृष्टा कक्षा काष्ठा उत्कर्षावस्थेश्यर्थः जागति किम् राजति किम् नेति काकुः / स्वमेतत् स्वभाग्यस्य परमोत्कर्ष मन्यस्व यत् इन्द्रः त्वयि किंकरतामभिलषतीति भावः // 81 // __व्याकरण-द्यो: यास्कानुसार 'द्योतते इति सतः'। आदितेयाः अदितेरपत्यानि पुमांस इति अदिति + ढक / किंकर्तुम् अर्थी अर्थ धातु के इच्छार्थक होने से समानकर्तृकता में तुमुन् / अनुवाद-(हे दमयन्ती ! ) (चौदह) भुवनों की शृङ्खला में स्वर्ग सब से बढ़-चढ़कर है; स्वर्ग में देवता बड़े हैं और देवताओं में महेन्द्र बड़े हैं, वे भी अनुरागवश यदि तुम्हारा सेवक बनना चाह रहे हैं, तो ( उत्कर्ष की ) इससे आगे पराकाष्ठा क्या है ? // 81 / / टिप्पणी-इससे बड़ी भाग्यवान् सुन्दरी विश्व में कौन हो सकती है, जिसका सभी लोकों का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति इन्द्र किंकर बनने जा रहा हो / यहाँ चौदह लोकों में से पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर में उत्कर्ष कहा गया है, इसलिए सार अलंकार है। 'दितेया' 'दितेये' तथा 'महा' 'महे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पदं शतेनाप मखैर्यदिन्द्रस्तस्मै स ते याचनचाटुकारः। कुरु प्रमादं तदलं कुरुष्व स्वीकारकृद्मनटनश्रमेण // 82 // अन्वयः-इन्द्रः शतेन मखैः यत् पदम् आप स तस्मै ते याचन-चाटुकारः ( अस्ति ) / ( त्वम् ) प्रसादम् कुरु / तत् स्वीकारः श्रमेण अलंकुरुष्व / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 83 टोका-इन्द्रः शतेन शतसंख्यकैः मखैः यज्ञैः यत् पवम् इन्द्रत्वरूपं स्थानमित्यर्थः आप प्राप्तवान्, स इन्द्रः तस्मै पदाय ते तव याचने प्रार्थनायां विषये (10 तत्पु. ) चाटुकारः ( स० तत्पु० ) चाटूनि प्रियमधुरवचनानि करोतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) अस्तीति शेषः अर्थात् तत्पदप्राप्त्यर्थ सचाटु त्वामर्थयते / त्वम् तस्मिन् इन्द्र प्रसादम अनुग्रहं कुरु विधेहि, तमनुगृह्य इन्द्राणीपदमवाप्नुहील्यर्थः / तत् ऐन्द्र पदम् स्वीकारं करोतीति स्वीकारकृत् ( उपपद तत्पु०) स्वीकारज्ञापकमित्यर्थः यत् भ्रनटनम् भूनर्तनम् भ्रूचालनमिति यावत् (कर्मधा०) भ्रुवोः नटनम् (10 तत्पु० ) तस्य श्रमेण प्रयासेन (10 तत्पु० ) अलंकुरुष्व शोभयस्व भ्रूचालनेन तदर्थं स्वीकृति देहीत्यर्थः // 82 // व्याकरण-चाटुकार: चाटु + /कृ + अण् ( कर्मणि)। प्रसादम् प्र+ सद् + घम् / स्वीकारकृत ०कृ + क्विप् , तुगागम / नटनम् नट् + ल्युट् ( भावे ) / अनुवाद-इन्द्र ने सौ यज्ञों द्वारा जो पद प्राप्त किया है, उसके लिए वे तुम्हारी याचना के विषय में चाटुकारिता ( खुशामद ) कर रहे हैं। तुम कृपा करो। उस ( ऐन्द्रपद ) को स्वीकृति रूप में भौंहें हिलाने का कष्ट करके शोभित करो // 82 // टिप्पणो-इन्द्र की दूती अपनी तरफ से दमयन्ती को फुसलाने में कोई भी कोर-कसर नहीं रख छोड़ रही हैं। कहती हैं कि तीनों लोकों में इतना महान् व्यक्ति तुम्हारी खुशामदें कर रहा है, तुम्हारा सेवक बनने को तय्यार हुआ बैठा है; उसका वरण करके तुम इन्द्राणी बनकर सारे स्वर्गलोक का आधिपत्य अपने हाथ में ले लोगी, अतः भौंह के इशारे मात्र से हाँ भर लो, बोलने का भी कष्ट न करो / विद्याधर यहाँ हेत्वलंकार कह रहे हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। मन्दाकिनीनन्दनयोविहारे देवे धवे देवरि माधवे च / श्रेयः श्रियां यातरि यच्च सख्यां तच्चेतसा भाविनि ! भावयस्व // 83 / / अन्वयः-हे भाविनि ! मन्दाकिनी-नन्दनयोः विहारे देवे धवे वा माधवे देवरि ( तथा.) यातरि सख्याम् श्रियाम् यत् श्रेयः, तत् चेतसा भावयस्व / टीका-हे भाविनि विचारशीले ! मन्दाकिनी स्वर्गङ्गा च नन्दनं एतदाख्यम इन्द्रोद्यानं चेति तयोर्मध्ये ( द्वन्द्व ) विहारे क्रीडायाम् देवे देवेन्द्र घवे भर्तरि वा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 नैषधीयचरिते अथवा माधवे उपेन्द्र विष्णी इत्यर्थः देवरि देवरे भर्तुः अनुजे इत्यर्थः ( श्याला: स्युतिरः पत्न्याः स्वामिनो देवदेवरी इत्यमरः ) तथा यातरि भर्तृभ्रातृजायायाम् ('भार्यास्तु भ्रातृवर्गस्य यातरः स्युः परस्परम्' इत्यमरः ) सल्यां सखी. रूपायाम् श्रियाम् लक्ष्म्याम् यत् श्रेय: आनन्द इति यावत् भविष्यति, तत् सर्वम् भानयस्व विचारय / इन्द्रस्य भर्तृत्वेन वरणे त्वं विष्णोः लक्ष्म्याश्चापि साहचर्यसुखमनुभविष्यसीति भावः // 83 // व्याकरण-विहारे वि + Jह + घन ( भावे ) / देवरि दीव्यति (क्रीडति) भ्रातृपल्या सहेति /दिव् + ऋ = देवा तस्मिन् ( औणादिक ) / भाविनी भाबयितुं शीलमस्या इति भू + णिच् + डीप / भावयस्व भू+ णिच / लोट / / __ अनुवाद-ओ समझदार ( दमयन्ती)। मन्दाकिनी और नन्दन वन में बिहार के समय इन्द्र भर्ता, विष्णु देवर और सखी-रूप लक्ष्मी देवरानी के साथ जो आनन्द आयेगा, उसका तो मन में खयाल करो / / 83 / / टिप्पणी-विष्णु के इन्द्र का अनुज होने के सम्बन्ध में सर्ग 5 श्लोक 38 देखिए, हम पीछे देख आये हैं कि इन्द्र अपने साथी अग्नि आदि को टरकाने के लिए जिस तरह गुह्य भाषा को प्रयोग में लाया था, वैसे ही उसकी कुट्टनी भी कर रही है। बह भी अन्य देवतानों को टरकाने के लिए मन्दाकिनी और नन्दनवन-विहार के आनन्द का प्रलोभन दे रही है। अग्नि आदि के वरण से उसे केवल मन्दाकिनी में ही जलविहार का आनन्द मिल सकेगा, नन्दन वन में विहार का नहीं। इसी तरह अन्य देवताओं के साथ उसे विष्णु देवर और लक्ष्मी देवरानी के साहचर्य का आनन्द भी नहीं मिलेगा, इसलिए ये दोनों बातें अन्य देवताओं को छोड़कर इन्द्र के वरण से ही प्राप्त हो सकती है, अन्यथा नहीं / विद्याधर यहाँ रूपक कह रहे हैं, क्योंकि लक्ष्मी पर सखीत्वारोप हो रखा है, किन्तु मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ समुच्चयालंकार का एक भेद विशेष है। समुच्चय का यह भेद-विशेष वहाँ होता है, जहाँ क्रिया और गुण का योगपद्य हो / यहाँ विहरण-क्रिया के साथ-साथ बिष्णु का देवरत्व और लक्ष्मी का यातृत्व गुण भी बताया गया है। शब्दालंकारों में 'देवे' 'देव' 'श्रेयः' "श्रियां' और 'भावि' 'भाव' में छेक 'धवे' 'धवे' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रज्यस्व राज्ये जगतामितीन्द्राद्याच्ञाप्रतिष्ठां लभसे त्वमेव / लघूकृतस्वं बलियाचनेन तत्प्राप्तये वामनमामनन्ति / / 84 // Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) 'जगताम् राज्ये रज्यस्व' इति इन्द्रात् याच्याप्रतिष्ठाम् त्वम् एव लभसे, यत्प्राप्तये बलियाचनेन लघूकृतस्वम् (विष्णुम् ) वामनम् आमनन्ति ( लोकाः ) / टीका-( 'हे दमयन्ति' ) जगताम् त्रयाणां लोकानाम् राज्ये आधिपत्ये रज्यस्त्र अनुरागं कुरु' इति इन्द्रात् देवराज-सकाशात् याच्या याचना प्रार्थनेति यावत् तया प्रतिष्ठाम् गौरवम् (तृ० तत्पु० ) इन्द्रकर्तृकप्रार्थनाजन्यमहत्त्वमिति यावत् त्वम् एव लभसे प्राप्नोषि / मम च त्रैलोक्य-राज्याधीश्वरी भवेतीन्द्रण प्रार्थ्यमाना त्वम् एवेतादृशम् महागौरवम् प्राप्स्यसे इति भावः, यस्य त्रैलोक्यराज्यस्य प्राप्तये लाभाय बले: वैरोचनस्य याचनेन प्रार्थनेन (ष० तत्पु० ) अलधुः लघुः सम्पद्यमानः कृतः इति लघूकृतः अवमाननां नीत इत्यर्थः स्वः आत्मा ( कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (विष्णुम् ) लोकाः वामनम् खर्वम् लघुमित्यर्थः आमनन्ति कथयन्ति / वलि राज्यं याचित्वा विष्णुर्लघूभूतः, त्वं तु विना याचनेनैव तल्लभसे इत्यहो ते महाभाग्यमिति भावः // 84 // व्याकरण --राज्यम् राज्ञो भावः कर्म वेति राजन् + ध्यञ् / रज्यस्व /रञ्ज + लोट् / याञा याच् + नङ् + टाप् / प्रतिष्ठा-प्रति + /स्था + अङ् + टाप् / लघूकृतस्य लघु + च्वि कृ + क्त; उ को दीर्घ / आमनन्ति आ + /म्ना + लट् म्ना को मनादेश / ___ . अनुवाद-(हे दमयन्ती ! ) तीनों लोकों के आधिपत्य पर अनुराग करो'यों इन्द्र की प्रार्थना से मिलने वाले गौरव का लाभ तुम्हें ही प्राप्त हो रहा है। जिस ( त्रैलोक्य-आधिपत्य ) की प्राप्ति हेतु वलि से याचना द्वारा अपनी आत्मा गिराये विष्णु को ( अब तक ) वामन कहते हैं // 84 // टिप्पणी-बलि के सम्बन्ध में सार्ग 5 श्लोक 130 देखिए। उसने जब तीनों लोकों का आधिपत्य अपने हाथ में ले लिया तो यह विष्णु ही थे जिन्होंने छोटा-सा भिखारी का रूप बनाकर अपनी कुटी हेतु तीन पग धरती के रूप में तीनों लोकों का राज्य मांगा था किन्तु मांगने से वे अपनी सारी प्रतिष्ठा गिरा बैठे और आजतक भी वामन ( लघु ) कहे जाते हैं। माँगना कितनी बुरी बात हैइस सम्बन्ध में एक कवि का विचार पढ़िए:-'तृणं लघु तृणात् तुलं तुलादपि हि याचकः / वायुना किं न नीतोऽसी मामपि प्रार्थयिष्यति // " उन्हें तो दमयन्ती ! Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते विना माँगे ही त्रैलोक्य-राज्य मिल रहा है। उसके लिए भी इन्द्र तुमसे प्रार्थना कर रहा है, यह तुम्हारे लिए कितने गौरव की बात है। यहाँ काव्यलिङ्ग हैं किन्तु विद्याधर समासोक्ति भी कह रहे हैं जो हमारी समझ में नहीं आ रहा है। संभवतः उनका यह विचार हो कि अनुराग चेतन से ही होता है, इसलिए यहाँ राज्यका चेतनीकरण है। मल्लिनाथ 'व्यतिरेकेण दृष्टान्तालंकारः' कह रहे हैं। यह भी हम नहीं समझे। दृष्टान्त में वाक्यद्वय-गत विभिन्न धर्म होते हैं, जिनका परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव होता है। यहाँ त्रैलोक्य-राज्य-प्राप्ति दोनों जगह समान धर्म है। व्यतिरेक अर्थात् वैधयं यदि है तो केवल इसी अंश में कि तुम्हें त्रैलोक्य-राज्य मिलने में गौरव है जबकि विष्णु को मिलने में लघुता है / 'रज्य' 'राज्य' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यानेव देवान्नमसि त्रिकालं न तत्कृतघ्नीकृतिचिती ते। प्रसीद तानप्यनृणान्विधातुं पतिष्ट तस्त्वत्पदयोस्त्रिसन्ध्यम् / / 85 / / अन्वयः--( हे दमयन्ति ! ) यान् एव देवान् ( त्वम् ) त्रिकालम् नमसि तत्कृतघ्नीकृतिः ते औचिती न / त्रिसन्ध्यम् त्वत्पदयोः पतिष्यतः तान् अपि अनृ. णान् विधातुम् प्रसीद। टीका--( हे दमयन्ति ! ) यान् एव देवान् देवताः त्वम् त्रिकालम् त्रयः कालाः प्रातः, मध्याह्नः, सायम् यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० वी० ) नमसि प्रणमसि नमस्करोषीति यावत् तेषाम् देवानाम् कृतघ्नीकृति कृतघ्नीकरणम् अकृतज्ञतापादनमित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) ते तव औचिती उचितत्वं न अस्तीति शेषः / त्वं नित्यं देवतानां प्रणामं करोषि अतः देवैरपि तव प्रत्युपकार: कर्तव्यः इति भाव: त्रिसन्ध्यम् तिस्रः सन्ध्याः प्रातःसन्ध्या, माध्यन्दिन-सन्ध्या, सायं सन्ध्या च यस्मिन् कर्मणि यथास्यात्तथा ( ब० वी० ) त्रिकालमिति यावत् तव ते पदयोः चरणयोः पतिष्यतः नमस्करिष्यतः तान् देवान् अपि न ऋणम् येषु तथाभूतान ( नञ् ब० बी० ) ऋणमुक्तानित्यर्थः विधातुम् कर्तुम् प्रसीद प्रसन्ना भव अनुगृहाणेति यावत् / देवान् प्रणमन्ती त्वं तान् ऋणीकरोषि इन्द्रवरणानन्तरम् इन्द्रं प्रणमन्तो देवाः त्वामपि प्रणंस्यन्तीति ते त्वत्तः ऋणमुक्ता भविष्यन्तीति भावः // 85 // व्याकरण-त्रिकालम् , त्रिसन्ध्यम् इन्हें क्रिया-विशेपण न बनाकर त्रयाणां Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्ग. कालानाम्, सन्ध्यानां समाहारः यों समाहार द्विगु भी कर सकते हैं। कालात्यन्तसंयोग में इन्हें द्वितीया हो जायेगी' कृतघ्नीकृति अकृतघ्नं कृतघ्नं करोतीति कृतघ्न + च्चि + ईत्व + /कृ + क्तिन् ( भावे ) / कृतघ्नः कृतं हन्तीति कृत + हन् + क्तः ( कर्तरि ) औचिती उचितस्य भाव इनि उचित+ प + ङीप् यलोप / पतिष्यतः /पत् + शतृ ( भविष्यदर्थ में ) / अनुवाद-(हे दमयन्ती। ) जिन्हीं देवताओं को तुम तीनों कालों में प्रणाम किया करती हो, उन्हें कृतघ्न बना देना तुम्हारे लिए उचित नहीं / ( इन्द्रवरण के बाद ) भविष्य में तीन सन्ध्या कालों में तुम्हारे पैरों को प्रणाम करने वाले उन ( देवताओं ) को भी ऋण-मुक्त करने की कृपा करो // 85 // टिप्पणी-दमयन्ती द्वारा नित्य तीन 2 बार किये जाने वाले प्रणामों का भार देवताओं के सिर पर चढ़ा हुआ है। वे तेरे कृतज्ञ हैं। कृतघ्न नहीं होना चाहते / वे अपना भार तभी उतार पायगे जब तुम इन्द्र का वरण कर लोगी और नित्य इन्द्र को प्रणाम करने आये हुए वे लोग इन्द्राणी को छोड़कर बदले में तुम्हें प्रणाम करेंगे। इसी तरह वे तुमसे ऋणमुक्त हो सकेंगे। अतः कृपया इन्द्र का वरण कर लो। देवताओं को कृतघ्न मत बनने दो / यहाँ 'कृत' 'कृति' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इत्युक्तवत्या निहितादरेण भैम्या गृहीता मघवत्प्रसादः / स्रक्पारिजातस्य ऋते नलाशां वासैरशेषामपुपूरदाशाम् / / 86 // अन्वयः- इति उक्तवत्या ( दूत्या ) निहिता भैम्या ( च ) आदरेण गृहीता मघवत्प्रसादः पारिजातस्य स्रक वासैः नलाशाम् ऋते अशेषाम् अपुपूरत् / टीका-इति उक्तप्रकारेण उक्तश्त्या कथितवल्या इन्द्रदूत्या निहिता उपनीता समर्पितेति यावत्, भैम्या दमयन्त्या च आदरेण सादरम् गृहीता स्वीकृता मधवतः इन्द्रस्य प्रसादः अनुग्रह-रूपा ( 10 तत्पु० ) पारिजातस्य स्वर्गस्थ-वृक्षविशेषस्य पुष्पाणाम् स्रक माला वास: परिमलैः नलस्य आशाम् आशंसाम् ऋते विना अशेषाम् न शेषो यस्यां तथाभूताम् ( नञ् ब० वी० ) निखिलाम् आशाम् ( जातावेकवचनम् ) सर्वाः दिशः इत्यर्थः अपुपूरत पूरयामास / पारिजातसौगन्ध्येन सर्वाः आशाः ( दिशाः ) पूरिता, नलस्याशा (तृष्णा) तु न पूरिता ( आशा तृष्णा-दिशोः इति विश्वः ) / इन्द्रप्रेषितमालां स्वीकृत्य 'एषा इन्द्रमेव वरिष्यति, न तु माम्' इति शङ्कित्वा नलो निराशोऽभवदिति भावः // 86 // Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते व्याकर-उनावत्या / वच् + क्तवत् + डीप त० / नलाशाम ऋते व्याकरगानुसार 'अन्यारादितरते.' 2 / 3 / 19 से यहाँ पञ्चमी वभक्ति होनी चाहिए थी, किन्तु कभी-कभी विद्वान् लोग विकल्प में द्वितीया भी करते आ रहे हैं, देखिए गीता--'ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे' ( 11 / 32 ) तथा फलति पुरुषाराधनमृते' इत्यादि / अपुपूरत् / पूर् + णिच् + लुङ् / नारायण के अनुसार व्याकरण की दृष्टि से यहाँ 'अपूपुरत्' रूप बनाना चाहिए था, 'अपुपूरत् 'चिन्त्य है / 'अगतिक गति' में /पूर से घन ( भावे ) पूर बनाकर पूरं करोतीति (नामधातु ) णिच् कर लें। ___अनुवाद-इस प्रकार कहकर दूती द्वारा भेंट की हुई और दमयन्ती द्वारा इन्द्र के प्रसाद रूप में स्वीकृत पारिजात की माला सौरभ से नल की आशा (प्रत्याशा, तृष्णा) को छोड़ सभी आशाओं (दिशाओ) को पूर्ण कर बठी / / 86 // टिप्पणी-दमयन्ती द्वारा इन्द्र की पारिजात-माला आदर-भाव के साथ प्रहण किये जाने पर जहाँ दूती को यह आशा बंध गई कि वह इन्द्र-वरण स्वीकार कर लेगी, वहीं नल के हृदय की इन आशाओं पर एक दम पानी फिर गया कि वह मेरा वरण करेगी। यहाँ दो विभिन्न आशाओं का अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है, जिसके साथ 'ऋते पद-वाच्य बिनार्थ में बनने वाली विनोक्ति तथा स्रक पर प्रसादत्व के आरोप से रूपक का संकर है। यहाँ विद्याधर मौन हैं / 'लाशां' 'दाशाम' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आर्य ! विचायोलमिहेति कापि योग्यं सखि ! स्यादिति काचनापि / ओंकार एवोत्तरमस्तु वस्तु मङ्गल्यमत्रेति च काप्यवोचत् // 87 // 'आर्ये / इह विचार्य अलम' (इति) का अपि अवोचत्; काचन अयि सखि ! इदम् ) योग्यम् स्यात्' ( इति अवोचत् ); का अपि 'अत्र ओंकार एब मङ्गल्यम् उत्तरम् वस्तु अस्तु' इत्यवोचत् / - टाका-आयें श्रेष्ठे। इह इन्द्रवरणविषये विचार्य अलम् अत्र विचारो न कर्तव्यः स वरणीय एवेत्यर्थः इति का अपि सखी अवोचत् अकथयत्; काचन कापि 'अयि सखि आलि ! इदम् इन्द्रवरणं योग्यम् उचितं स्यात्' इत्यवोचत्; का थपि 'अत्र इन्द्रवरणविषये ओंकारः स्वीकारः ( 'स्यादोमेवं परमं मते' Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 षष्ठः सर्गः इत्यमरः ) मङ्गल्यम् मङ्गलाहम्, माङ्गलिकमिति यावत् उत्तरम् प्रतिवचनम् वस्तु अर्थः अस्तु स्यात्' इति अवोचत् // 87 // व्याकरण--विचार्य अलम् प्रतिषेधार्थक अलम् के योग में क्त्वा, क्त्वा को ल्यप् / ओंकारः ओम् एवेति ओम् + कार ( स्वार्थे ) / मङ्गल्यम् मङ्गलमहतीति मङ्गल + यत् / अनुवाद -..-'आयें ! इस विषय में विचारने की क्या बात है' ? कोई यह बोल उठी, 'अरी सखी ! यह ( इन्द्रवरण ) ठीक रहेगा' कोई यह कहने लगी; कोई 'इस विषय में हाँ के रूप में उत्तर हो माङ्गलिक बात होगी' ऐसा बोल पड़ी // 87 // टिप्पणी-सभी सखियों ने इन्द्र-वरण के पक्ष में ही दमयन्ती को संमति दी। बात भी ठीक ही थी। यहाँ एक 'अवोचत्' क्रिया के साथ अनेक कारकों ( कर्ताओं) का सम्बन्ध होने से कारक-दीपक अलंकार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अनाश्रवा वः किमहं कदापि वक्त विशेषः परमस्ति शेषः। इतीरिते भीमजया न दूतीमालिङ्गदालोश्च मुदामियत्ता / 88 // अन्वयः .-- ( 'हे सख्यः ! ) अहम् कदा अपि वः अनाश्रवा किम् ? परम् वक्तम् विशेपः शेषः अस्ति / ' इति भीमजया ईरिते मुदाम् इयत्ता दूतीम् आली: च न आलिङ्गत् / ___टीका-( 'हे सख्यः ! ) अहम् कदापि वः युष्माकम् अनाथवा न आश्रवा ( नन तत्पु० ) वचने स्थिता (. 'वचने स्थित आश्रवः' इत्यमरः ) किम् ? मया कदापि भवतीनां वचनम् नोल्लङ्घितम् सर्वदैव भवद्वचने स्थिताऽस्मि, परम् किन्तु वक्तुम् कथयितुम् विशेष: विशिष्टोऽर्थः शेषः अवशिष्टोऽस्ति' इति भीमजया भैम्या ईरिते कथिते मुदाम् हर्षाणाम् इयत्ता पारिमित्यम् दूतीम् इन्द्रस्य कुट्टनीम् आलीः सखी: च न आलिङ्गत् नाश्लिष्टवती आस्पृशदित्यर्थः दमयन्ती नः संमति नोल्लंघयतीति विचिन्त्य सखीनां हर्षः पराकाष्ठामस्पृशदिति भावः / / 88 // व्याकरण-आषवा आसमन्तात् शृणोतीति आ + Vश्रु + अच्, ( कर्तरि ) +टाप् ( स्त्रियाम् ) / शेषः /शिष् + अच् ( भावे ) / ईरितम् / ईर् + क्त / इयत्ता इयतो भाव इति इयत् + त + टाप् / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते . अनुवाद-( 'सखियो ! ) मैं कभी तुम्हारे वचन में स्थित नहीं रही क्या? किन्तु ( कुछ ) विशेष बात कहने को शेष है' ! इस तरह दमयन्ती के कहने पर हर्ष की इयत्ता इन्द्र की दूती और सखियों को छू नहीं पाई / / 88 // टिप्पणी--दमयन्ती के मुंह से यह सुनकर कि वह सदा ही उनका कहना मानती रहती है, दूती और सखियों को पक्का आश्वासन मिल गया कि वह इन्द्र को बरेगी। इससे उनके हर्ष की कोई इयत्ता, सीमा अर्थात् पारावार नहीं रहा / किन्तु 'कहने को कुछ विशेष बात बाकी है'. उसके इस 'किन्तु' से वे कुछ संदेह में पड़ गई। इसीलिए नारायण श्लोक के उत्तरार्ध को विकल्प में काकुपरक भी ले रहे हैं अर्थात् हर्ष की इयत्ता क्या उन्हें नहीं छू गई ? अपि तु छू ही गई। उनका हर्ष सीमित अथवा परिमित हो गया अर्थात् हर्ष में कमा आ गई / 'शेष' 'शेष' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भमी च दूत्यं च न किंचिदापमिति स्वयं भावयतो नलस्य / आलोकमात्राद्यदि तन्मुखेन्दोरभून्न भिन्न हृदयारविन्दम् / / 89 // अन्वयः -- 'भैमीम् च दूत्यम् च ( तयोः मध्ये अहं ) न किञ्चित् आपम्' इति स्वयम् भावयतः नलस्य हृदयारविन्दम् यदि भिन्नम् न अभूत्, ( तर्हि ) तन्मुखेन्दोः आलोकमात्रात् / टीका-भैमीम् दमयन्तीम् च दूत्यम् दूतकर्म च तयोर्मध्ये न किञ्चित् न किमप्येकम् अहं न आपम् प्राप्तवानस्मि' इति एवम् स्वयम् आत्मना भावयतः चिन्तयतः नल य हृदयम् एव अरविन्दम् कमलम् ( कर्मधा० ) यदि चेत् भिन्नम् स्फुटितं न अभूत न जातम् तर्हि तस्याः भम्याः मुखम् वदनम् (10 तत्पु० ) एव इन्दुः चन्द्रः ( कर्मधा० ) तस्य आलोकात एवेति आलोकमात्रात् (ष० तत्पु० ) प्रकाशात् अथ च दर्शनात् न भिन्नमिति शेषः ( 'आलोको दर्शनोद्योती' इत्यमरः) नलेन न स्वयं दमयन्ती प्राप्ता नापि च सा इन्द्रप्रापितेति उभयात्मके स्वकार्येsसिद्धौ हृदये बहु दुःखमनुभूतमिति भावः / / 89 / / व्याकरण-दूत्यम् दूतस्य भावःकर्म वेति दूत + यत् ( वैदिक प्रयोग)। आपम् आप् + लुङ उत्तम पु० / भावयतः -भू + /णिच् + शतृ ष / भिन्नम् भिद् + क्तः, त को न / आलोकमात्रात् आलोक + मात्रच् / आलोक: आ + लोक् + घन् / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अनुवाद-'मै' न दमयन्ती, न ही दूतकर्म-( दोनों में से ) किसी को भी प्राप्त कर पाया'–यों स्वयं सोचते हुए नल का हृदय-कमल यदि स्फुटित ( विदीर्ण, विकसित ) नहीं हुआ, तो इसका कारण था उस ( दमयन्ती ) के भुख-चन्द्र का आलोक ( दर्शन, प्रकाश ) // 89 // टिप्पणी-नल ने देखा कि इन्द्र का काम तो उसकी दूती ही बना चुकी है, तो मेरा दूत-कर्म अब कहीं का न रहा। मैं ही दूत-रूप में यदि सफल होता, तो संसार में मेरा नाम फैल जाता कि परोपकार में नल ने कितना आत्मबलिदान किया। मैं तो अव कहीं का न रहा। न दमयन्ती मिली, न दूत कर्मसिद्धि / इस दुःख में नल का हृदय फट जाना चाहिए था। यदि नहीं फटा, तो इस कारण कि उनको आलोक ( देखने ) के लिए अपने सामने प्रेयसी दमयन्ती का चाँद-सा मुखड़ा मिल रहा था, जो उन्हें कुछ आश्वासन देता था। कमल भी तो चाँद का आलोक ( प्रकाश ) सामने रहते फटता-खिलता नहीं, बन्द ही रहता है। यहाँ हृदय पर अरविन्दत्वारोप होने से रूपक है, जो भिन्न और 'आलोक' शब्दों में श्लिष्ट है। "भिन्न' होने में आलोक की कारणत्वेन कल्पना की गई हैं, अतः उत्प्रेक्षा भी है। मल्लिनाथ के अनुसार 'इन्दुप्रकाशात् कथमरविन्दविकासः' इति विरोधो ध्वान्यते'। 'भिन्न' 'भिन्न' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्राश है। ईषत्स्मितक्षालितसृक्किभागा दृक्संज्ञया वारिततत्तदालिः / सजा नमस्कृत्य तयैव शक्रं तां भीमभूरुत्तरयांचकार // 60 / / अन्वयः-भीमभूः ईषत्""भागा, दृक्संज्ञया वारित-तत्तदालि: सती तया स्रजा एव ( सह ) शक्रम् नमस्कृत्य ताम् उत्तरयाञ्चकार / __टोका-भीमः भूः उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा ( ब० बी० ) भमीत्यर्थः ईषत् किमपि यथा स्यात्तथा स्मितेन मन्दहसितेन क्षालितौ धौतौ ( त० तत्पु० ) सृक्कभागौ ( कर्मधा० ) सृक्कयोः ओष्ठप्रान्तयोः भागो देशी ( 10 तत्पु० ) यया तथाभूता ( ब० वी० ) ( 'प्रान्तावोष्ठस्य सृक्कणी' इत्यमरः ) दृशोः नयनयोः संज्ञया संकेतेन (10 तत्पु० / वारिताः निषिद्धाः ताः ताः आलयः सख्यो यया तथाभूता सती तया इन्द्र-प्रेषितया स्रजा पारिजात-मालया एव सह शक्रम् इन्द्रम् नमस्कृत्य प्रणम्य ताम् इन्द्रदूतीम् उत्तरयाञ्चकार उत्तरयामास उत्तरं ददी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते इत्यर्थः / भक्तिभावेन मालां शिरसि निधाय प्राणमत्, प्रेमोपहार-रूपेण गृहीत्वा तां नाभरणीकृतवतीति भावः // 90 // व्याकरण-भूः भवत्यस्मादिति भू + क्विप ( अपादाने) / स्मितम् स्मि + क्त ( भावे ) / दृक पश्यतीति /दृश + क्विप् ( कर्तरि ) / संज्ञा सम् + Vज्ञा + अङ् - टाप् / उत्तरयाञ्चकार उत्तरम् = उत्तरवती ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते' ) करोतीति ( नामधातु ) उत्तर + णिच् + लिट् अथवा उत्तरम् आचष्टे इति उत्तर० / अनुवाद-थोड़ी-सी मुस्कान द्वारा ओष्ठ-प्रान्तभागों को प्रकाशित किये तथा आँखों के इशारे से उन-उन सखियों को ( आगे बोलने से ) रोके हुए दमयन्ती ने पारिजात-माला सहित इन्द्र को नमस्कार करके उस ( दूती ) को उत्तर दिया। 90 // टिप्पणी-जिस प्रकार लोग देवताओं के माल्य को श्रद्धा-भक्ति सहित शिर से लगाते हैं, उसे नमस्कार करते हैं, वही बात दमयन्ती ने भी की। उसको और उसे भेजने वाले के लिए उसके हृदय में भक्तिभाव ही उभरा, अनुराग नहीं, अन्यथा उसे चूमती, गले लगाती। वैसे भी लोक में हम देखते हैं कि जिस बात को हम स्वीकारते नहीं, उसके लिए 'नमस्कार है उसे' ऐसा मुहाविरा प्रयोग में लाते हैं। इस तरह 'माला और इन्द्र-दोनों को नमस्कार' इस लाक्षणिक रूप में लेकर यह अर्थ निकल जाता है कि दोनों मुझे स्वीकार नहीं / यहाँ वृत्त्यनुप्रास है। स्तुती मघोनस्त्यज साहसिक्यं वक्तुं कियत्तं यदि वेद वेदः / मृषोत्तरं साक्षिणि हृत्सु नृणामज्ञातृविज्ञापि ममापि तस्मिन् // 91 / / अन्वयः-(हे द्रति ! ) मघोनः स्तुतौ साहसिक्यम् त्यज / तम् वक्तुम् यदि ( कश्चित् ) वेद ( तर्हि ) वेदः, ( सोऽपि ) कियत् / नृणाम् हृत्सु साक्षिणि तस्मिन् अज्ञातृ विज्ञापि मम अपि उत्तरं मृषा। टीका-(हे दूति ! ) मघोनः इन्द्रस्य स्तुती स्तवे 'लोकस्रजि द्यौः' (6 / 81 ) इत्यादि-रूपेण त्वरिक्रयमाणायाम् इन्द्रस्य प्रशंसायामित्यर्थः साहसिक्यम् साहसिकत्वम् अविमृष्यकारित्वमिति यावत् त्यज जहि / तम् इन्द्रम् वक्तुम् प्रतिपादयितुम् स्तोतुमित्यर्थः यदि कश्चित् वेद जानाति, तहि वेदः श्रुतिः सोऽपि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टः सर्गः कियत् ? स्वल्पमित्यर्थः अर्थात् वेदोऽपि तम् किञ्चिदेव स्तोतुं शक्नोति न तु कात्स्न्येन / नृणाम् नराणाम् हृत्सु हृदयेषु साक्षिणि साक्षिभूते सर्वान्तर्वेदिनीति यावत् तस्मिन् इन्द्रे तमुद्दिश्येत्यर्थः अज्ञान न् अज्ञान विज्ञापयति बोधयतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) मम दमयन्त्याः अपि उत्तरम् प्रतिवचनम् मृषा व्यर्थम् / सर्वहृदयविज्ञः इन्द्रो ममापि हृदयं स्वयं जानात्येवेयम् नलेऽनुरज्यते इति तस्माद् व्यर्थ तं प्रति ममोत्तरदानमिति भावः // 91 // * व्याकरण-स्तुतौ----/स्तु + क्तिन् ( भावे ) / साहसिक्यम् इसके लिए पीछे श्लोक 8 देखिए / वेद -विद् + लट्, लट् को विकल्प से णमुल / साक्षिणि साक्षाद् द्रष्टा इति साक्ष + इन् ( 'साक्षाद् द्रष्टरि संज्ञायाम् 5 / 2 / 91 ) / विज्ञापि विज्ञापयतीति वि + ज्ञा + णिच् + णिन् / अनुवाद- हे इती! ) इन्द्र की स्तुति करने का साहस छोड़ दे। उनकी स्तुति करना यदि कोई जानता है, तो वेद (ही, अन्य नहीं ); वह भी कितनी? ( - बहुत कम ) / लोगों के हृदयों के साक्षी-भूत उन ( इन्द्र ) के प्रति अनजानों को ज्ञान कराने वाला मेरा भी उत्तर बेकार है / / 91 // टिप्पणी-ठीक है उत्तर उसी व्यक्ति को देते हैं, जो बात को नहीं जानता। सर्वान्तर्यामी होने के नाते भगवान् इन्द्र दमयन्ती के हृदय को स्वयं जानते ही हैं कि वह नल को चाहती है, फिर उन्हें वह क्या उत्तर देती ? उत्तर न देने का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है / 'वेद' 'वेद' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / आज्ञां तदीयामनु कस्य नाम नकारपारुष्यमुपैतु जिह्वा / प्रह्वा तु तां मूर्धिन विधाय मालां बालापराध्यामि विशेषवाग्भिः। 92 / / अन्वयः--कस्य नाम जिह्वा तदीयाम् आज्ञाम् अनु नकार-पारुष्यम् उपति ! तु प्रवा ( सती ) बाला ( अहम् ) ताम् मालाम् मूर्टिन विधाय विशेष वाग्भिः अपराध्यामि। टीका--करय नाम इति कोमलामंत्रणे जनस्य जिह्वा रसना वाणीत्यर्थः तदीयाम तत्सम्बन्धिनीम् ऐन्द्रीमित्यर्थः आज्ञाम् आदेशम् अनु लक्ष्यीकृत्य नकारस्य प्रतिषेधार्थकन-शब्दस्य पारुष्यम् रौक्ष्यं, कठोरतामिति यावत् उपैति प्राप्नोति न कस्यापीति काकुः तदाज्ञां प्रति 'न' इत्युक्त्वा न कोऽपि धाष्र्यमाचरिष्यतीति भावः / तु किन्तु प्रह्वा नम्रा सती बाला बालिका अहम् ताम् आज्ञा-रूपां मालाम् Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते मूनि शिरसि विधाय कृत्वा विशेषाः विशिष्टा वाचः वाण्यः ताभिः ( कर्मधा० ) अपराध्यामि अपराधं करोमि ! विशेष-रूपेण अग्रे 'अदेवदेहमिन्द्रं वृणे। इत्याद्यात्मकानि प्रोच्यमानानि बालोचितवचनानिप्रोच्य इन्द्रस्यापराधिनी भवामीति भावः // 92 // व्याकरण- तदीयाम् तस्येयमिति तत् + छ, छ को ईय / आज्ञाम् आ + ज्ञा + अङ् ( भावे + टाप् / पारुष्यम् परुषस्य भाव इति परुष + ष्यन् / प्रह्वा प्र + Vत + वन + टाप् / वाग्भिः वक्तीति वच क्विप, दीर्घ सम्प्रसारणाभाव / अनुवाद-~-भला किसकी जिह्वा उन ( इन्द्र) की आज्ञा के प्रति 'ना' (करने ) की रूक्षता अपनाती है ? किन्तु (मैं) बालिका विनम्र हो (आज्ञारूपी) उस माला को सिरसे लगा कर विशेष बात ( कहने ) से ( उनका ) अपराध करने जा रही हूँ॥ 92 // टिप्पणी- दमयन्ती आगे अपनी व्यक्तिगत-विशेष बात कहेगी कि मैं इन्द्र का ही वरण करूंगी, किन्तु वह इन्द्र विशेष इन्द्र अर्थात् नरेन्द्र होगा, देवेन्द्र नहीं। बाला शब्द से वह यह ध्वनित कर रही है कि बाला अज्ञान हुआ करती है, अतः आज्ञा पालन न भी करूं तो उसे अपराध नहीं माना जाना चाहिए। कारण बताने से यहाँ भी काव्यलिङ्ग है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। तपःफलत्वेन हरेः कृपेयमिमं तपस्येव जनं नियुङ्क्ते / भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावुपेयमाधुर्यमधैर्यजि // 93 // अन्वयः- इयम् हरेः कृपा तपःफलत्वेन इमम् जनम् तपसि एव नियुक्त हि उपेयमाधुर्यम् उपायम् प्रति प्रवृती अधैर्य-सजि ( भवति ) / टीका-इयम् एषा हरेः इन्द्रस्य कृपा अनुग्रहः तपसः तपस्यायाः फलत्वेन परिणामत्वेन इमम् एतम् जनम् व्यक्तिम् मामित्यर्थः तपसि एव नियुक्त प्रवर्त इन्द्रस्य कापि कृपा संजाता, तस्मात् तस्यैवाधिकृपार्थं मया इतोऽप्यधिकं तपः कर्तव्यम्, हि यतः उपेयस्य साध्यस्य फलस्येति यावत् माधुर्यम् स्वादुत्वम् श्रेष्ठत्वमित्यर्थः (10 तत्पु० ) उपायम् साधनं प्रति प्रवृत्ती अनुवर्तन आत्मनो नियोजने इतियावत् अधैर्यम् धैर्याभावं सृजति करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) भवति / केनापि साधनेन यदि मधुरं फलं लम्यते तहि मनुष्यः अधीरीभूय पुनरपि तदेव साधनम् अधिकमधुरफलप्राप्त्यर्थमनुवर्तते इति सार्वभौममानवमनोविज्ञानमिति भावः // 93 // Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः व्याकरण---उपेयम् उपेतुं योग्य मिति उप + इ + यत् / उपायः उपयतेऽनेनेति + उप + इ + घन ( करणे)। प्रवृत्तिः प्र + Vवृत् + क्तिन् ( भावे ) / माधुर्यम् अधैर्यम् उभयत्र भावे ष्यन् / सजि ताच्छील्ये णिनिः / __ अनुवाद- यह इन्द्र की कृपा तपःफल-रूप होने के कारण इस जन (मुझ) को ( फिर ) तप की ओर ही लगा रही है। कारण यह साध्य की मधुरता साधन की ओर लगाने में अधीरता उत्पन्न कर देती है / / 93 // टिप्पणी--दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि उसकी पूर्वजन्मकी तपस्याओंने उसे यह मधुर फल दे दिया कि इन्द्र उस पर कृपा कर रहे हैं, तो वह फल अर्थात् नल-प्राप्ति हो जाय / यहीं पूर्वार्ध-गत विशेष बात का उत्तरार्ध-गत सामान्य बात से समर्थन किया जा रहा है, अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है। 'तपः' 'तप' 'पाय' 'पेय' तथा 'धुर्य धैर्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / शुश्रूषिताहे तदहं तमेव पति मुदेऽपि व्रतसंपदेऽपि / विशेषलेशोऽयमदेवदेहमंशागतं तु क्षितिभृत्तयेह // 94 // अन्वयः-तत् मुदे अपि,व्रत-सम्पदे अपि अहम् तम् एव पतिम् शुश्रषिताहे, तु अयम् विशेष-लेशः (यत् इह क्षितिभृत्तया अंशागतम् अदेवदेहम् (शुश्रूपिताहे)। टीका-तत् तस्मात् मुदे हर्षार्थम् अपि व्रतस्य पातिव्रत्यस्य सम्पदे सिद्धयर्थम् अपि अहम् तम् इन्द्रम् एव पतिम् भर्तारम् भर्तृत्वनेत्यर्थः शुश्रूषिताहे सेवितुमिच्छामि, तु किन्तु अयम् एष विशेषस्य भेदस्य लेशः अंशः : 10 तत्पु०) स्वल्पो विशेषः इत्यर्थः वर्तते इति शेषः यत् इह भूलोके क्षिति विभीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) भावः तत्ता तया भूपतित्वेन अंशेन मात्रया आगतम् अवतीर्णम् न देवस्य देहः (10 तत्पु० ).शरीरम् यस्य तथाभूतम् ( ब० बी० ) मानुषदेहधारिणं शुश्रुषिता हे / 'अष्टानां लोकपालानां वपुर्धारयते नृपः' इतिमनूक्तानुसारेण राजसु अष्टलोकपालानाम् अंशो भवति / इन्द्रोऽपि लोकपालः स चांशिकत्वेन नले विद्यते एव, किन्तु मानुषरूपेण, न तु दिव्य रूपेण / तस्मादहं मानुषमिन्द्र सेविष्य, न तु साक्षादिन्द्रमिति भावः / / 94 // ___ व्याकरण-मुदे मुद् + क्विप् (भावे) सम्पदं सम् + /पद् + क्विप् (भावे)। शुभषिताहे -श्रु + सन् + लुट् + उत्तम पु० ए० व० / क्षितिभृत् क्षिति + /भृ+ क्विप् ( कर्तरि ) / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-इसलिए ( अपनी ) प्रसन्नता के लिए भी और ( पातिव्रत्य ) नियम पूर्ति के लिए भी मैं उन ( इन्द्र ) की ही पति-रूप में सेवा करूंगी। किन्तु थोड़ा सा अन्तर यह है कि इस लोक में भूपति होने के नाते अंशतः आये हुए अदेव-देहवाले अर्थात् मानुष इन्द्र ( नल) की सेवा करूंगी // 94 // टिप्पणी- दमयन्ती का अन्तर बडी बुद्धिमत्ता और तर्क-पूर्ण है। हर हालत में वह वर रही इन्द्र को ही है, भले ही वे दिव्य देह में हों या मानुष देह में / उसमें उसे बड़ी प्रसन्नता है, साथ ही उसका पातिव्रत्य धर्म भी निभ रहा है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र हेतुरलंकारः' / 'देपि' 'देपि' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अश्रौषमिन्द्रादरिणोगिरस्ते सतीव्रतातिप्रतिकूलतोवाः / स्वं प्रागहं प्रादिषि नामराय किं नाम तस्मै मनसा नराय // 95 / / अन्वयः-( हे दूति ! ) इन्द्रादरिणीः सती..........तीव्राः ते गिरः अश्रौषम् / अहम् स्वम् मनसा प्राक् अमराय न प्रादिषि किं नाम ? नराय तस्मै / टीका-(हे दूति ! ) इन्द्रे आदरः मानः आसु अस्तीति अथवा इन्द्रम् आद्रियन्ते इति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) इन्द्रस्तुतिपरा इत्यर्थः सत्याः पतिव्रतायाः व्रतम् नियमः तस्य अतिप्रतिकूला: अतिविरुद्धा ( उभयत्र प० तत्पु० ) अतिशयेन प्रतिकूला अतिप्रतिकूलाः (प्रादि तत्पु० ) अतः एव तीवा दुःश्रवाश्च ( कर्मधा० अथवा द्वन्द्व ) ते तव गिरः वाणी: अश्रौषम् श्रुतवती / अहम स्वम् आत्मानम् मनसा हृदयेन प्राक पूर्वम् अमराय देवाय इन्द्राय न प्रादिषि नप्रदत्तवती, कि नाम किं तर्हि ? नराय मनुष्याय तस्मै इन्द्राय क्षितीन्द्रत्वेन इन्द्रांशमादाय गृहीतमानुषदेहाय नलायेत्यर्थः / नृपतिः लोकपालांशमादाय वपुर्धारयतीति पूर्वमवोचाम // 95 // व्याकरण ----अशोषम् /श्रु + लुङ् उ० प्र० / प्रतिलोम प्रतिगतं लोमेति प्रति + लोम / प्रादिषि प्र + दा + लुङ् उत्तम पु० / अमरः म्रियते इति /मृ + अच् ( कर्तरि ) मरः, न मरः इत्यमरः / ___अनुवाद–इन्द्र के प्रति आदर दिखाने वाली, पातिव्रत्य धर्म के बिलकुल विरुद्ध ( अतएव ) तीव्र सुनने के अयोग्य तेरी बाते मैंने सुनीं। मैं पहले अपने आपको मन से अमर्त्य ( इन्द्र ) को नहीं दे पाई / "फिर किसको ( दे पाई ? ) 'मयं इन्द्र को' // 95 // Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः टिप्पणी-प्रश्न उठता है कि जब नल से अभी विवाह ही नहीं हुआ, तो दूती द्वारा इन्द्र-स्तुति की बातें सुनना दमयन्ती को सतीधर्म-विरोधी कैसे हो गई? इसका उत्तर वह यह देती है कि उसने मन में नल को बरण पहले से ही कर रखा है, कायिक वरण न भी हुआ तो कोई बात नहीं / वास्तव में वाचिक और कायिक विवाहों की अपेक्षा मानस विवाह मुख्य हुआ करता है, जिसे हम प्रणयविवाह भी कह सकते हैं। सती स्त्री के लिए पर-पुरुष-बिषयक बात तक नहीं सुननी चाहिए / इसलिए दमयन्ती को दूती की बातें सुनना अनुचित ही लगा। 'मराय' 'नराय' में अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तस्मिन्विमृश्यैव वृते हृदैषा मैन्द्री दया मामनुतापिकाभूत् / निर्वातुकामं भवसंभवानां धीरं सुखानामवधीरणेव // 96 // अन्वयः-तस्मिन् हृदा विमृश्य एव वृते ( सति ) एषा ऐन्द्री दया निर्वातुकामम् धीरम् भव-सम्भवानाम् सुखानाम् अवधीरणा इव माम् अनुतापिका मा भूत् / ___टीका-तस्मिन् म] इन्द्र नले इत्यर्थः हवा हृदयेन विमुश्य विचार्य एब मया घृते कृतवरणे सति, सम्यक् विचारं कृत्वा, अयमेव मे वरण-योग्य इति मया मनसा निश्चयः कृत इत्यर्थः / एषा इयम् ऐन्द्री इन्द्रसम्बन्धिनी दया कृपा निर्वातुम् निर्वाणं मोक्षमिति यावत् कामः अभिलाष! यस्य तथाभूतम् (ब० वी 0 ) धोरम् विद्वांसम् भवे संसारे संभवा उत्पत्तिः (स० तत्पु०) येषां तथाभूतानाम् (ब० वी०) सांसारिकाणामित्यर्थः सुखानाम् सौख्यानाम् अवधारणा अवहेलना इव माम् दमयन्तीम् अनुतापिका अनुतापकरी, पश्चात्तापप्रयोजिकेति यावत् मा भूत् न भवति / मुक्त्यर्थं मनसा कृतनिश्चयस्य विदुषः समक्षं यथा सांसारिकभोगविलाससुखानि नगण्यानि भवन्ति, तद्वदेव मनसा मत्येन्द्रार्थं कृतनिश्चयायाः मम समक्षमपि अमर्येन्द्रः स्वर्गभोगश्च नगण्य एवेति भावः / / 96 // __व्याकरण-ऐन्द्री इन्द्रस्येयमिति इन्द्र + अण + ङीप् / निर्वातुकामम् 'तुम्काममनसोरपि' से तुमुन के म का लोप। भवः भवत्यस्मात् (प्राणिजातम् ) इति भू + अप ( अपादाने ) / संभवः सम् + भू + अप ( भावे ) / अवधारणा अवधीर् + युच् + टाप् / अनुतापिका अनु + तप् + णिच् + ण्वल भविष्यत् अक होने के कारण षष्ठी निषेध से 'माम्' को द्वि० / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते __अनुवाद-हृदय से सोच-विचार कर ही उन ( मयं इन्द्र = नल ) का वरण कर चुकने पर ( अमर्त्य ) इन्द्र की यह कृपा मेरे लिए उसी तरह पश्चाताप-जनक नहीं जैसे मुक्ति चाहने वाले विद्वान् के लिए सांसारिक सुखों का त्याग पश्चात्ताप-जनक नहीं हुआ करता // 96 // टिप्पणी–मुक्ति-पथिक के लिए सभी सांसारिक सुख अपना आकर्षण खो बैठते हैं। उसे जरा भी पछतावा नहीं होता है कि ये सुख मेरे हाथ से कैसे जा रहे हैं। यही बात दमयन्ती की भी है। भूमीन्द्र ( नल ) को जब वह अपना मन दे चुकी, तो उसके लिए अब क्या स्वर्ग के इंन्द्र और क्या उनके साथ मिलने वाली स्वर्गीय आनन्द-मौज-कोई कुछ भी आकर्षण नहीं रखते / तुलना होने से उपमा है / 'भव' 'भवा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। वर्षेषु यद्भारतमार्यधुर्याः स्तुवन्ति गार्हस्थ्यमिवाश्रमेषु / तत्रास्मि पत्युर्वरिवस्ययेह शर्मोमिकिमारितधर्मलिप्सुः // 97 / / अन्वयः–आर्य-धुर्याः आश्रमेषु गार्हस्थ्यम् इव वर्षेषु यत् भारतम् स्तुवन्ति, तत्र पत्युः वरिवस्यया अहम् शर्मो 'लिप्सुः अस्मि / ____टीका–आर्येषु साघु धुर्याः अग्रगण्या श्रेष्ठा इत्यर्थः ( स० तत्पु० ) आश्र. मेषु ब्रह्मचर्य-गार्हस्थ्य-वानप्रस्थ-संन्यासावस्थासु गार्हस्थ्यम् गृहस्थाश्रमम् इव वर्षेषु इलावृतादिनवभूखण्डेषु यत् भारतम् भारतवर्षम् स्तुवन्ति प्रशंसन्ति तत्र इह भारतवर्षे पत्युः भर्तुः नलस्य वरिवस्यया सेवया ('वरिवस्या तु शुश्रूषा' इत्यमरः) अहम् शर्म सुखम् तस्य या ऊर्मय: तरङ्गाः परम्परः इत्यर्थः (10 तत्पु०) ताभिः किर्मोरितः कर्बुरितः मिश्रित इति यावत् (त० तत्पु० ) ( "चित्रं किर्मीरकल्माष-शबलताश्च कर्बुरे' इत्यमरः) यो धर्मः कर्मानुष्ठानम् ( कर्मधा० ) तम् लिप्सु अभिलाषुका ( मधुपिपासुवत् द्वि० तत्पु० ) अस्मि / वृतेन नलेन सहाहम् नाना सुखमपि लप्स्ये तत्सेवया पतिव्रतोचितधर्ममपि च विधास्ये इति भावः // 97 // व्याकरण-घुर्या धुरमर्हन्तीति धुर् + यत् / गाहस्थ्यम् गृहे तिष्ठतीति गृह + /स्था + क, तस्य भाव इति गृहस्थ + व्यञ् / भारतम् भरतस्य (क्षत्रियविशेषस्य) इदमिति भरत + अण् / वरिवस्या /वरिवस्य + आ + टाप् / किर्मीरित किर्मोरं करोतीति (नामधातु ) किर्मीर + णिच् + क्त ( कर्मणि)। लिप्सुः लब्धुमिच्छुः इति लभ् + सन् + उः / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अनुवाद-श्रेष्ठ आर्य लोग ( ब्रह्मचर्यादि ) आश्रमों में से गृहस्थाश्रम की तरह वर्षों में से जिस भारतवर्ष की सराहना किया करते हैं, वहीं मैं पति की सेवा द्वारा ढेरों सुखों से संमिश्रित धर्म का लाभ करना चाहती हूँ // 97 / / टिप्पणी-नल के वरण के पोछे मेरा यही ध्येय है कि भारत में उनको सेवा में रहकर जहाँ मुझे सभी तरह के सुख प्राप्त होंगे, वहाँ धर्माचरण की सुविधा भी मिलती रहेगी। यहाँ सभी आश्रमों से कवि ने गृहस्थाश्रम को जो प्रधानता दी है, वह धर्मशास्त्र के अनुसार ही है, देखिये मनु-“यथा वायु समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः / तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः / / यस्मात् त्रयोऽप्यामिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् / गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही" / / ( 377-78 ) / पुराणों के अनुसार पृथिवी जिन नौ खण्डों वर्षों में बंटी हुई है, वे ये हैं -१-कुरु, २-हिरण्मय, ३-रम्यक, ४-इलावृत, ५-हरि, ६-केतुमाल, 7 भद्राश्व, ८-किन्नर और ९-भारत / यहाँ भारत की गृहस्थाश्रम से तुलना करने में उपमा है / शब्दालंकार छेक और वृत्त्यनुप्रास है / स्वर्ग सतां शर्म परं न धर्मा भवन्ति भूमाविह तच्च ते च / शक्या मखेनापि मुदोऽमराणां कथं विहाय त्रयमेकमाहे // 98 // अन्वयः- स्वर्गे सताम् परम् शर्म ( अस्ति ), धर्माः न भवन्ति / इह भूमी तत् च ते च ( भवन्ति ) / अमराणाम् मुदः मखेन अपि शक्याः ; ( तस्मात् ) त्रयम् विहाय कथम् एक ईहे। ____टीका-स्वर्गे स्वर्गलोके सताम् निवसतामित्यर्थः परम् केवलम् शर्म सुखम् एवास्तीति शेषः भोगभूमित्वात् धर्माः सुकृतानि न भवन्ति / इह अस्यां भूमौ भारतवर्षे तत् सुखम् ते धर्माश्वापि भवन्ति भारतस्य भोग-धर्मोभयभूमित्वात् / अमराणाम् देवानाम मुदः हर्षाः मखेन यज्ञेन अपि शक्याः कर्तुं शक्याः, यज्ञकरणात् इन्द्रस्यापि प्रीतिः सुकरी / इह भोगा अपि सुप्रापाः, धर्माश्चापि सुकराः, देवप्रीतिरपि सुसाध्या इत्यर्थः / तस्मात् त्रयम् उक्तत्रीन् पदार्थान् विहाय परित्यज्य कथम् केन प्रकारेण एनम् भोगमेव ईहै इच्छाभि / इन्द्रवरणे स्वर्गे केवलम् आनन्द एब नलवरणे भुवि तु त्रयम्, अतः को नाम बुद्धिमान् वयं त्यजति, एकमेव चोपादत्ते ? // 99 // व्याकरण-सताम् / अस् + शतृ ष० / शक्याः Vशक् + यत् / कभी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. नैषधीयचरिते कभी शक् सकर्मक रूप में भी प्रयुक्त हो जाता है / मुद् /मुद्+क्विप् (भावे ) / त्रयम् त्रयोऽयवा अत्रेति त्रि + तयप् , तयप् को विकल्प से अयच् / अनुवाद-स्वर्ग में रहने वालों को सुख (ही) होता है, धर्म नहीं। इस ( भारत ) भूमि में सुख है और धर्म (भी) है। देवताओं को भी यज्ञों द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है, ( अतः ) तीनों को छोड़कर मै एक को (ही) कैसे चाहूँ? // 18 // टिप्पणी-दमयन्ती स्वर्गभूमिकी अपेक्षा भारत-भूमि को विशेपता दे रही है। वह तर्क देती है कि नल को छोड़ इन्द्र देवता का वरण करने से मुझे स्वर्गसुख मिलेगा और उन्हें भी प्रसन्न कर लूंगी, सुख तो नल के वरण में भी है, दूसरे पहले उनके वरण से उन्हीं के साथ पातिव्रत्य धर्म भी निभता रहेगा / अब इन्द्र के वरण से मेरा पातिव्रत्य धर्म भंग हो जाएगा। साथ ही अग्नि आदि अन्य देवता कुपित हो जाएंगे कि मैंने उन्हें ठुकराया है। नल के साथ रहने से यज्ञ द्वारा इन्द्र को ही नहीं, बल्कि अन्य देवताओं को भी प्रसन्न कर सकती हूं। इसलिए मेरे लिए नल-पक्ष ही बलवान है, इन्द्रपक्ष नहीं। नल-वरण एक कार्य करने से अन्य कार्य-सुखप्राप्ति, धर्मानुष्ठान और देवताओं का आराधन-भी युगपत् हो जाने से समुच्चय अलंकार है। 'शर्म, धर्मा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्य नुप्रास है। साधोरपि स्वः खलु गामिताधो गमी स तु स्वर्गमितः प्रयाणे / इत्यायती चिन्तयतो हृदि द्वे द्वयोरुदर्कः किमु शर्करे न // 99 // अन्वयः-साधोः अपि स्वः प्रयाणे खलु अधः गामिता, तु इतः प्रयाणे स स्वर्गम् गमी-इति द्वे आयती हृदि चिन्तयतः ( पुरुपस्य ) द्वयोः उदर्कः शर्करे न किमु ? ___टीका-साधोःसत्पुरुषस्य अपि स्वा स्वर्लोकात् प्रयाणे शरीरत्यागे खलु निश्चयेन अधः नीचैः भूलोके इत्यर्थः गामिता पतनम् भवतीति शेषः, तु किन्तु इत: भारतात् प्रयाणे मरणे स साधु खलु स्वर्गम् स्वर्गलोकम् गमी गमिष्यति पुण्यकर्मकारित्वात् / अत्र 'प्रयाणे' 'खलु' शब्दौ देहलीदीपकन्यायेन उभयत्र सम्बध्येते / इति एवम् द्वे आयती उत्तरकालो भविष्यत्कालाविति यावत् ( 'उत्तरःकाल आयतिः' इत्यमरः) हृवि मनसि चिन्तयतः विचारयतः पुरुषस्य द्वयोः उभयोः तयोः उदर्कः Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः उत्तरं फलम् परिणाम इति यावत् ('उदर्कः फलमुत्तरम्' इत्यमरः) शर्करे पाषाणलघुखण्डिका अथच खण्ड-विकृतिः न किमु ? अपितु शर्करे एवेति काकुः / स्वर्गात भुवि पतनं पाषाण-लधुकणिकातुल्यम् भूमितश्च स्वर्गगमनं सितसिताकणिकातुल्यमिति भावः // 99 // व्याकरण-गामिता गम् + णिन् + तल + टाप् यहाँ 'अधोगामिता' ही ठीक था। गमी गमिष्यतीति गम् + इन् (भविष्यदर्थे ) 'भविष्यति गम्यादयः' ( 3 / 3 / 3) इन्नन्त को षष्ठीनिषेध होने से द्वि० / प्रयाणे प्र + Vया + ल्युट्, यु को अन, न को ण / आयतिः आ + /यम् + क्तिन् ( भावे ) / ___ अनुवाद-साधु पुरुष तक का भी शरीर त्यागने पर स्वर्गलोक से नीचे ( भूलोक ) आ जाना निश्चित है. किन्तु शरीर त्यागने पर वह( फिर ) यहाँ ( भूलोक ) से निश्चय ही स्वर्ग जाएगा--इन दो प्रकार के भविष्य कालों का हृदय में विचार करते हुए व्यक्तिको दोनों का परिणाम शर्कराय ( कंकड़-पत्थर, शकर ) नहीं हैं क्या ? // 99 // टिप्पणी- स्वर्ग में स्थायी रूप से कोई नहीं रह सकता। गीताकार के 'ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति / ' इस उक्ति के अनुसार पुण्यक्षयानन्तर भू में आना ही पड़ेगा चाहे कोई कितना ही साधु पुरुष क्यों न हो। भू में फिर पुण्य करने के बाद स्वर्ग-प्राप्ति निश्चित है। स्वर्ग भोगभूमि जो ठहरी / यदि जीवन की उक्त दोनों स्थितियों पर विचार किया जाय तो अच्छी स्थिति यही है कि पहले भू में पुण्य कर्म करके, तप-ब्रतादि का क्लेश सहकर वाद को आनन्दोपभोगार्थ स्वर्ग जाया जाय नकि स्वर्ग में आनन्द भोगकर भू में आया जाय / स्वर्ग जाना शर्करा-चीनी की कणियाँ-जैसी हैं, जो मुख में माधुर्य भर देती हैं किन्तु स्वर्ग से नीचे उतरना शर्करा-पत्थर की कणियाँजैसी हैं, जो मुंह में चुभती हैं। इसी जीवन-तथ्य को लेकर शब्दों के हेरफेर के साथ शूद्रक कवि यों अभिव्यक्त करता है-'सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते घनान्धकारेष्विव दोपदर्शनम् , सुखात्तु यो याति नरो दरिद्रतां धृतः शरीरेण मृतः स जीवति' // कुछ श्लोकों में चुप रहकर विद्याधर 'अत्रोत्प्रेक्षालंकारसंकरः' लिख रहे हैं जो हमारी समझ में नहीं आता 'खलु और किमु' शब्द उत्प्रेक्षावाचक होने पर भी यहाँ हमारे विचार से उत्प्रेक्षायें नहीं बना रहे हैं। उत्प्रेक्षा की मूलभित्ति तो कल्पना हुआ करती है लेकिन कवि यहाँ जीवन का सत्य बता रहा है, कल्पना Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते नहीं कर रहा है। और किमु शब्द हम यहाँ क्रमशः निश्चय और प्रश्न के वाचक मान रहे हैं। मल्लिनाथ यहां निदर्शनालंकार कहते हैं, जो ठीक है, क्योंकि स्वर्ग से उतरना कंकड़-पत्थर और स्वर्ग जाना शक्कर पाना है, जो असम्भवद्वस्तु होने से परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव में पर्यवसित हो रहे हैं। हमारे विचार से दो विभिन्न शर्कराओं में अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति भी है। 'गामि' ‘गमी' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / प्रक्षीण एवायुष कर्मकृष्टे नरान्न तिष्ठत्युपतिष्ठते यः / / बुभुक्षते नाकमपथ्यकल्पं धोरस्तमापातसुखोन्मुखं कः // 100 // अन्वय-यः (नाक:) कर्म-कृष्टे आयुषि प्रक्षीणे (सति) एव नरान् उपतिष्ठते, तिष्ठति ( आयुषि ) न ( उपतिष्टते )' कः धीरः आपात-सुखोन्मुखम् अपथ्यकल्पम् तम् नाकम् बुभुक्षते ? टीका-यः नाकः स्वर्ग इत्यर्थः कर्मभिः पुण्यानुष्ठानैः कृष्टे अजिते (तृ तत्पु०) आयुषि जीवितकाले प्रक्षीणे क्षयं गते सति एव नरान् मनुष्यान् उपतिष्ठते प्राप्नोति, तिष्ठति अप्रक्षीणे इत्यर्थः आयुषि न उपतिष्ठते इति शेषः / कः धीरः विद्वान् आपाते प्रारम्भे सुखम् आनन्दःत स्मिन् उन्मुखम् प्रवणम् (उभयत्र सतत्पु०) तत्कालरम्यमित्यर्थः ऊनम् ईषद् अपथ्यम् अनारोग्यकरभोजनम् इत्यपध्यकल्पम् अपथ्यभोजनसदृशमिति यावत् तम्द नाकम् स्वर्गम् बुभुक्षते भोक्तुमिच्छति ? न कोऽपीति काकुः / लौकिक सुखवत् स्वर्गीयसुखान्यपि आपातरमणीयानि परिणामे च दुःखप्रयोजकानि भवन्तीति न विद्वान् तेषु रमते इतिभावः // 10 // __व्याकरण-कर्म क्रियते इति / कृ + मनिन् / कृष्ट कृष् + क्त: ( कर्मणि) उपतिष्ठतं संगतिकरणमें आत्मने / आपातः आ + /पत् + घन ( भावे ) / उन्मुख उत् = ऊर्ध्वं मुखं यस्येति (प्रादि ब० वी०)। पथ्यम् पथि हितम् इति पथिन् + यत् / अपथ्यकल्पम् अपथ्य + कल्पप् / नाकः यास्काचार्यानुसार कम् सुखम्, न कम् इत्यकम् दुःखम् न अकम् दुःखं यत्रेति नाकः / सुप्सुपेति समासः) आनन्दपूर्णो लोकः / बुभुमते भुज् + सन् + लट् / अनुवाद--जो ( स्वर्ग ) कर्मों द्वारा अजित आयु के क्षीण हो जाने पर ही मनुष्यों को मिला करता है, आयु के रहते रहते नहीं मिलता, कौन विद्वान् प्रारंभ में ही ( क्षणभर ) सुख देने वाले, कुपथ्य-जैसे उस स्वर्ग को भोगना चाहता है ? // 100 // Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः टिप्पणी-कोई भी ऐन्द्रिय और भौतिक सुख चाहे वह लौकिक हों अथवा स्वर्गीय हों, दीखने-दीखने में ही सुन्दर लगते हैं लेकिन परिणाम उनका अच्छा नहीं रहता। यह तो रोगी के लिए लड्डू-पेड़ा-जैसा कुपथ्य है। इसी लिए भत हरि ने 'भोगे रोगभयम्' और भारवि ने 'आपात-रम्या विषयाः पर्यन्तपरितापिनः' कहा है। तभी तो विद्वान लोग इन भौतिक सुखों को लात मारकर आध्यात्मिक सुख-मुक्ति-की ओर उन्मुख होते हैं। कल्पप् प्रत्यय सादृश्यवाचक होने से यहाँ उपमा है / 'तिष्ठत्युपतिष्टते' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इतीन्द्रदत्याः प्रतिवाचमर्धे प्रत्युह्य सैषाभिदधे वयस्याः / किचिद्विवक्षोल्लसदोष्ठलक्ष्मीजितापनिद्रद्दलपङ्कजास्याः // 10 // अन्वयः- इति इन्द्रदूत्याः प्रतिवाचम् अर्धे प्रत्युह्य सा एषा किञ्चिद्...... जास्याः वयस्याः अभिदधे / __टीका-इति एवम् इन्द्रस्थ दूत्याः सम्बन्ध-विवक्षायां षष्ठी इन्द्रदूत्यामित्यर्थः प्रतिवाचम् प्रतिवचनम्, उत्तरमिति यावत् अर्धे अर्धभागे मध्ये एवेत्यर्थः प्रत्युह्य विच्छिद्य, परिसमाप्य स एषा दमयन्ती किञ्चित् किमपि यथा स्यात्तथा विवक्षया वक्तुमिच्छया उल्लसन्तौ स्फुरन्तौ ( त० तत्पु० ) यो ओष्ठौ दन्तच्छदी (कर्मघा०) तयोः लक्ष्म्या शोभया ( 10 तत्पु० ) जितम् पराभूतम् (तृ० तत्पु० ) अपनिद्रहलम् अपनिद्रन्ति निद्रां त्यजन्ति विकसन्तीत्यर्थः दलानि ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) यत् पङ्कजम् कमलं ( कर्मधा० ) तद्वत् आस्यम् मुखम् ( उपमान तत्पु०) यासां तथाभूताः (ब० वी०) वयस्याः सखी: अभिवधे कथितवती / दूतीं प्रति दीयमानमुत्तरं मध्ये निरुध्य सा किमपि वक्तुमिच्छन्तीः स्वसखी:प्राहेति भावः // 101 // व्याकरण-प्रतिवाचम् प्रतिगता वाक् इति प्रति + वाक् / प्रत्युह्य प्रति + Vऊह, + ल्यप, ऊको ह्रस्व / विवक्षया Vवच् + सन् + अ + टाप् / अपनिटत् अप + V निद्र + शतृ / पङ्कजम् पङ्कात् जायते इति पङ्क + V जन् + डः ! अभिदधे अभि + Vधा + लिट् ( कर्तरि ) / ___ अनुवाद-इस प्रकार इन्द्रदूती के प्रति ( दिये जा रहे ) उत्तर को आधे में ही रोककर वह ( दमयन्ती) सखियों को बोल उठी-जिनका मुख उस कमल के समान था, जिसकी खिलती हुई पंखुड़ियों को कुछ कहने की इच्छा से फड़कते हए ( उनके ) ओंठ ( अपनी ) शोभा से पराजित किये हुए थे // 11 // Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधीयचरिते टिप्पणी-विद्याधर उपमा कहते हैं, क्योंकि मुख की पंकज से तुलना की ना रही है / ओंठ कमल की पंखुड़ियों को जीत रहे हैं हमारे विचार से यहाँ भी उपमा है, क्योंकि दण्डी ने जीतने आदि लाक्षणिक प्रयोगों का. सादृश्य में ही पर्यवसान मान रखा है / शब्दालं पर वृत्त्यनुप्रास है। 'अनादिधाविस्वपरम्पराया हेतुस्रजः स्रोतसि वेश्वरे वा। आयत्तधीरेष जनस्तदार्या: ! किमादृशः पर्यनुयोगयाग्यः // 102 // अन्वयः-अनादि...रायाः हेतु-स्रजः स्रोतसि वा ईश्वरे आयत्तधीः एष जनः ( अस्ति ), तत् हे आर्याः ! ईदृशः ( जनः ) पर्यनुयोग-योग्यः किम् ? टीका-न आदिः आरम्भः यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० वी० ) अनादिकालादित्यर्थः धाविती भ्रमन्ती या स्व-परम्परा ( कर्मधा० ) स्वस्य जीवात्मनः परम्परा पङ्क्तिः (10 तत्पु० ) तस्याः हेतूनाम् कारणानाम् अदृष्टरूपशुभाशुभकर्मणाम् सजः मालायाः शृङ्खलाया इत्यर्थः (10 तत्पु० ) स्रोतसि प्रवाहे वा अथवा ईश्वरे परमात्मनि आयत्ता अधोना धी: बुद्धिः ( कर्मधा० )यस्य तथाभूतः (ब० वी०) एष मल्लक्षणः जनः व्यक्तिः अस्तीति शेषः, अनादिकालात् पूर्वजन्म-परम्परासु कृतानाम् शुभाशुभकर्मणाम् फलभूतेषु अदृष्टेषु ईश्वरे वा सर्वे जीवात्मनः अधीनभूताः सन्ति, तस्मात् न ते स्वेच्छया स्वबुद्धया वा किमपि कतुं स्वतन्त्रा इति भावः / तत् तस्मात् भो आर्याः ! प्राज्ञधियः सख्यः ! ईदृशः पराधीनः मत्सदृशो जनः पर्यनुयोगः परितः प्रश्नः किमर्थं नले अनुरज्यसे ? न पुनरिन्द्र इत्यादि-रूपः तस्य योग्यः अहः (10 तत्पु० ) किम् ? अपितु न योग्य इतिकाकुः पूर्वादृष्टस्य परमात्मनो वा प्रेरणयैव नलेऽहमनुरक्तास्मि न पुनरिन्द्र', तस्मात् मयि भवतीनां 'कथं नेन्द्र'ऽनुरज्यसे ?' इति प्रश्नस्य नास्त्येवावश्यकतेति भावः // 102 // व्याकरण-०धाविनी धावतीति/धाव् + णिन् (ताच्छील्ये ) / आयत्त आ + V यत् + क्तः ( कर्तरि ) / ईश्वरः ईष्टे इति/ ईश् + वरच् / पर्यनुयोगः परि + अनु + युज् ( भावे ) कुत्वम् / योग्यः योगमहतीति योग + यत् अथवा युज्यते इति/ युज् + ण्यत् / अनुवाद-यह व्यक्ति बुद्धि में अनादि चली आरही आत्मा ( शरीर ) की परम्परा के कारणों-अदृष्टरूप शुभाशुभ कर्मों की शृङ्खला के प्रवाह के अथवा 1. अनादिधाविश्व० / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 105 ईश्वर के अधीन है, इसलिए ऐसा ( मुझ जैसा ) जन (कैसे भी) प्रश्न पूछे जाने के योग्य है क्या ? ( बिलकुल नहीं) // 102 // टिप्पणी-यहाँ कवि 'अनादिः शरीरसर्गः' इस दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा का फिर-फिर शरीर धारण करना, और पूर्वजन्मानुष्ठित सदसत्कर्मों के फल-स्वरूप सुख दुःख बुद्धि आदि प्राप्त करना मान रहा है। हम कर्माधीन हैं और कर्मों से प्रेरित होकर ही सब कुछ करते हैं / नदी की तरह इन कर्मों का ऐसा सशक्त प्रवाह है, कि हम उससे बाहर नहीं निकल सकते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो जगत् को सभी क्रियाओं के भीतर ईश्वर का हाथ मानते हैं। वही संसार-चक्र चला रहा है, इसलिए कवि 'ईश्वरे वा' में उनका भी पक्ष लेकर सांसारिक जीव को 'परायत्त' ही बता रहा है। ऐसी स्थिति में दमयन्ती की सखियाँ यदि उससे 'तुम नल में अनुरक्त न होकर इन्द्र में क्यों अनुरक्त नहीं होती?' इत्यादि बातें पूछे या उलाहना दें, तो यह उक्त दार्शनिक सिद्धान्त के आलोक में मूर्खता ही समझें / नल के साथ दमयन्ती का पूर्व जन्म सम्बन्ध है, इन्द्र के साथ नहीं है। वह बेचारी विवश है। विद्वान का भी यही कहना है-'किं करोति नरः प्राज्ञः प्रेर्यमाणः स्वकर्मभिः / एवं किं करोति सुधीरस्मिन् ईश्वराज्ञावशंवदः' 'ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा' इत्यादि / नल के प्रति ही अनुरक्त होने का कारण बताने से यहाँ काव्य लिङ्ग अलंकार है। 'योग' 'योग्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अनादिधावि-विद्याधर और चाण्डूपंडित अनादिधाबिश्व० पाठ देते हैं अर्थ करते हैं-'आदि दधातीत्यादिधा, न आदिधा अनादिधा आदिरहिता या विश्व-परम्परा / नित्यं नियत्या परवत्यशेषे कः संविदानोऽप्यनुयोगयोग्यः / अचेतना सा च न वाचमहँद्वका तु वक्त्रश्रमकर्म भुङ्क्ते // 103 // अन्वयः-अशेषे ( जने ) नित्यम् नियत्या परवति ( सति ) संविदानः अपि कः अनुयोग-योग्यः ? सा च अचेतना (अतः) वाचम् न अर्हेत् / वक्ता तु वक्त्रश्रम-कर्म भुङ्क्ते / टोका-अशेषे न शेषो यस्य तथाभूते ( नञ् ब० वी० ) निखिले जने इति शेषः नित्यम् सर्वदा यथा स्यात्तथा नियत्या अदृष्टेन पूर्वजन्मसंस्कारेणेति यावत् परवति पराधीने सति, निखिलं प्राणिजगत् दैवाधीनमित्यर्थः एवं सति संविदानः विद्वान् अपि क: अनुयोगस्य कस्मादेतत् करोषि एतच्च न करोषीत्याद्यात्मक Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते प्रश्नस्य उपालम्भस्य वा योग्यः ? न कोऽपीति काकुः / सा नियतिः च अचेतना जडा अस्ति अतः वाचम वाणीम् प्रश्नामिकाम् उपालम्भात्मिकां वा न अर्हेत जडा नियतिरपि नोपालम्भयोग्येत्यर्थः / वक्ता आलोचकः जडनियस्याः उपालम्भक इति यावत् तु पुनः वक्त्रस्य मुखस्य श्रमः क्लमः ( 10 तत्पु०) एव कम क्रियाम् / कर्मधा०) भुङ्क्ते प्राप्नोतीत्यर्थः / जनो यत्किमपि करोति, तन्नियत्याः प्रेरणया करोति, न स्वातन्त्र्येण; नियतिरपि पूर्वजन्मकृतशुभाशुभकर्मसंस्काररूपा जडा, तस्मात् स जनः तत्प्रेरिका नियतिरपि नोपालब्धुम् वा समालोचयितुं वा प्रष्टु वा योग्येति भावः / / 103 // व्याकरण-नियतिः नियम्यतेऽनयेति नि + /यम् + क्तिन् (करणे) / परवति पर + मतुप म को व / संविदान: सम्यक वेत्तीति सम् + /विद् + शानच् 'समो गम्वृच्छिभ्याम्' ( 1 / 3 / 29 ) के अन्तर्गत 'विदितच्छिस्वरतीनाम् उपसंख्यानम्' वार्तिक से आत्मने / चेतना चेतयतीति /चित् + ल्युट् (कर्तरि ) / वक्ता वक्तीति Vवच् + तृच् ( कर्तरि ) / वक्त्रम् वक्ति अनेनेति वच् + ष्ट्रन ( करणे ) / अनुवाद-सभी ( लोगों ) के सदा नियति ( भाग्य ) के अधीन रहने के कारा विद्वान तक भी कोई ( व्यक्ति ) उलाहने का पात्र नहीं है / और नियति जड़ है, ( अतः ) उसे उलाहना देना ठीक नहीं। ( उलाहने के रूप में ) बोलने वाला व्यक्ति मुंह थकाने का काम करता है // 103 // टिप्पणी-यहाँ कवि पुनरुक्ति कर गया है। जो उसने पिछले श्लोक में कहा है, शब्दान्तर में यहाँ उसे ही दोहरा रखा है / सारे जगत् के निर्माण, जीवों की सृष्टि, उनको मिलने वाली विविध योनियों तथा उनके स्वभाव विवाह, मृत्यु आदि कार्यजात के पीछे नियति का ही हाथ है। गीताकार भी अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं -स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा / कतु नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत् / (18560) / इसी तरह जब दुर्योधन को पूछा गया कि तुम धर्म का मार्ग छोड़ अधर्म की ओर क्यों प्रवृत्त हो रहे हो ? उसका भी यही उत्तर था-'जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः। केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा चरामि // ' श्लोक में पूर्ववत् काव्यलिङ्गालंकार है / 'योग' 'योग्यः' 'वक्ता' 'वक्त्र' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / पुनरुक्ति दोष स्पष्ट ही है / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 107 क्रमेलकं निन्दति कोमलेच्छुः क्रमेलकः कण्टकलम्पटस्तम् / प्रीती तयोरिष्टभुजोः समायां मध्यस्थता नैकतरोपहासः // 104 // अन्वयः--- कोमलेच्छ: क्रमेलकम् निन्दति, कण्टकलम्पट: क्रमेलकः ( च ) तम् ( निन्दति ) इष्टभुजोः तयोः समायाम् प्रीती एकतरोपहासः न ( उचितः) मध्यस्थता ( एवोचिता ) / ____टीका-कोमलं मृदुम् पदार्थम् इच्छु: अभिलाषुकः ( मधुपिपासुवत् द्वि० तत्पु०) जीव इति शेषः क्रमेलकम् उष्ट्रम् ( 'उष्ट्र क्रमेलक मय-महाङ्गाः' इत्यमरः) निन्वति गर्हते, कण्टकेषु वृक्षशिताग्रेषु लम्पट: लोलुपः ( स० तत्पु० ) ( 'लोलुपं लोलुभं लोलं लम्पटं लालसं विदुः'। इति हलायुधः ) क्रमेलकः तम् कोमलेच्छम् निन्दति / इष्टं स्वरुचिकरं कण्टकं वा घासादिकं वा भुंक्ते इति तथोक्तयोः ( उपपद तत्पु० ) तयोः क्रमेलक-गवा-श्वाद्ययोः समायां समानायां प्रीतो प्रसन्नतायाम् रुचौ वा एकतरस्य द्वयोमध्ये अन्यतरस्य उपहास: आक्षेपः न उचित इतिशेषः किन्तु मध्यस्थता औदासीन्यम् आश्रयणीयमिति शेषः / सर्वेऽपि जीवाः स्व-स्व-पूर्वजन्मकृतकर्मनिर्मितस्वभावानुसारं जगतो वस्तूनि रोचयन्ति अभिद्र - ह्यन्ति च / तेषां रुचिभेदमधिकृत्य एकतरस्य समालोचना-गर्हा स्तुतिर्वा-नास्माभिः कार्या तटस्थैरेव भाव्यमिति भावः // 104 // व्याकरण- इच्छुः / इष् + उ ( कर्तरि ) 'न लोकाव्यय०' से षष्टी निषेध होने पर द्वि० / भुजोः /भुज + क्विप ( कर्तरि)। मध्यस्थता मध्ये तिष्ठतीति मध्य +/स्था + कः, तस्य भावः इति + तल + टाप् / एकतरः द्वयोः अन्य इति एक + तरप् / अनुवाद-मृदु ( आहार ) चाहने वाला ( जीव ) ऊँट की निन्दा किया करता है और ऊँट उस ( मृदुभंक्षी ) की ( निन्दा किया करता है ) (अपना 2) अभीष्ट ( आहार ) खानेवाले उन दोनों को एक-जैसी प्रीति होती रहने से उनमें से किसी एक का उपहास नहीं होना चाहिए ), तटस्थता रखनी चाहिए // . 104 // टिप्पणी-पिछले दो श्लोकों में कवि ने नियतिवाद का सामान्यतः ही प्रतिपादन किया था, उसका समन्वय नहीं दिखाया था। इस श्लोक में वह समन्वय कर रहा है। पूर्वकर्मानुसार किसी जीव को ऊँट की योनि मिली है। उसे इस योनि को देने वाले कर्म ने ही उसका उष्ट्रजातीय स्वभाव बना कर Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते कांटों के भक्षण में रुचि उत्पन्न कर दी, और घास फल आदि से घृणा। फलतः वह कांटे ही खाया करता है / विष्ट-कीट को भी विष्टा ही पसन्द है। गाय आदि 'घास खाते हैं / यही बात मानव जगत की भी समझ लीजिए। इसीलिए कहावत बनी हुई हैं-'भिन्नरुचिहि लोकः' / नास्तिकदर्शनों में से चार्वाकों को छोड़कर बौद्ध, जैन तथा अन्य सभी आस्तिकदर्शन नियतिवाद अथवा पूर्वजन्म के प्रबल समर्थक हैं। दमयन्ती का अपनी सखियों को कहने का अभिप्राय यह है कि पूर्वजन्म के संस्कारानुसार मुझे नल अभाष्ट हैं इन्द्र अभीष्ट नहीं; तुम इन्द्र-पक्ष न लो, तटस्थ सी रहो / विद्याधर ने यहाँ हेतु अलंकार कहा है क्योंकि यहाँ कारण कार्य-सहित वर्णन किया गया है। 'क्रमेलकं' 'क्रमेलकः' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। गुणा हरन्तोऽपि हरेनरं मे न रोचमानं परिहापयन्ति / न लोकमालोकयथापवर्गात्त्रिवर्गमर्वाञ्चसमुञ्चमानम् // 105 // अन्वयः-हरन्तः अपि हरेः गुणाः मे रोचमानम् नरम् न परिहापयन्ति / { हे सख्यः / ) अपवर्गात् अर्वाञ्चम् त्रिवर्गम् अमुञ्चमानम् लोकम् (यूयम् ) न आलोकयथ किम् // 105 // टीका-हरन्त: मन आकर्षन्त: अपि हरेः इन्द्रस्य गुणा: ये तद्-दूत्या प्रति पादिताः मे मह्यम् रोधमानम् रुचिकरम् नरम् अथ च रलयोरभेदात् नलं न परिहापयन्ति न परिहातुं प्रेरयन्ति परित्याजयन्तीत्यर्थः यतः अपवर्गात् मोक्षात् ( 'मोक्षोऽपवर्गः' इत्यमरः ) अर्वाञ्चम् निम्नम् मोक्षापेक्षया हीनमित्यर्थः त्रिवर्गम् त्रयाणां धर्मार्थकामानाम् वर्गम् समूहम् (10 तत्पु० ) अमुञ्चमानम् न परित्यजन्तम् लोकम् संसारम् यूयम् न आलोकयथ न पश्यथ किम्, अपितु पश्यथ एवेति काकुः चतुर्वर्गे उत्कृष्टं मोक्षम् अनादृत्य लोकाः तदपेक्षयाऽपकृष्टम् त्रिवर्गमुपाददते इति सर्वजनप्रत्यक्षमेव, तद्वत् अहमपि इन्द्र परित्यज्य नलमेवोपाददे इति भावः // 105 // ___ व्याकरण-रोचमानम् / रुच + शानच ( कर्तरि ) रुच्यर्थ में 'मे' का च० / परिहापयन्ति परि + हा + णिच् + लिट, पुगागम ! अपवर्ग: अप + वृज + घन ( भावे ) / अर्वाञ्चम् अवरे निम्नदेशे अञ्चति = गच्छतीति अवर + /अञ्च् + क्विन् अर्वाच् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / अनुवाद-( सखियो ! ) ( मन ) हरण करते हुए भी इन्द्र के गुण मुझे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अच्छे लगने वाले नर-नल-को नहीं छुड़वा ( सक ) ते मोक्ष से निम्नस्तर के त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम को न छोड़ते हुए लोगों को तुम नहीं देख रही. हो क्या ? // 105 // टिप्पणी-शास्त्रकारों ने मानव-जीवन के ध्येय बताये हैं, जिन्हें 'चतुर्वर्ग' अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहते हैं। इनमें मोक्ष को सर्वोत्तम माना गया है, लेकिन लोग भला कहाँ उसकी ओर जाते हैं ? त्रिवर्ग के चक्कर में ही फंसे रहते हैं। यह क्यों ? रुचि के कारण जो प्राक्तन संस्कारों की शृङ्खला से बँधी चली आती रहती हैं / त्रिवर्ग में दोष होने पर भी उसे कोई नहीं छोड़ता, इसलिए दमयन्ती का कहना है-भले ही इन्द्र में अधिक गुण हों नल में कम तथापि मैं तो नल पर ही मर रही हूं। राग-गुण दोषों का लेखा-जोखा नहीं करता है। वह अन्धा होता है ( Love is blind ) / महादेव में कितने ही अवगुण बताने वाले ब्रह्मचारो को पार्वती ने भी तो यही कहा था- 'न काम वृत्तिर्वचनीयमीक्षते'। मल्लिनाथ के अनुसार यहां दृष्टान्त अलंकार है / नल को न छोड़ना और त्रिवर्ग को न छोड़ना-इन दोनों के प्रतिपादक वाक्यों में वे बिम्बप्रतिबिम्बभाव मान रहे हैं लेकिन धर्मभेद नल और त्रिवर्ग में ही है, छोड़ना में धर्मभेद नहीं है। नल को छोड़ने का ( गुणाधिक्य ) कारण होने पर भी छोड़ना न होने से हम विशेषोक्ति भी कहेंगे। विद्याधर ने विभावना कहा है। उनका अभिप्राय यह रहा हो कि बिना कारण के दमयन्ती इन्द्र को छोड़ रही है / 'हर' 'हरे' में छेक, 'लोक' 'लोक' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आकीटमाकैटभरि तुल्यः स्वाभीष्टलाभात्कृतकृत्यभावः। भिन्नस्पृहाणां प्रति चार्थमर्थं द्विष्टत्वमिष्टत्वमपव्यवस्थम् // 106 / / अन्वयः-आकीटम् आकैटभरि स्वाभीष्ट-लाभात् कृतकृत्यभावः तुल्यः / भिन्न-स्पृहाणाम् अर्थम् अर्थम् प्रति द्विष्टत्वम् इष्टत्वम् च अपव्यवस्थम् (भवति ) / टीका-कोटम् आ = अभिव्याप्य, आरभ्येति यावत् ( अव्ययी० ) कैटभस्य राक्षस-विशेषस्य वैरिणम् शत्रु विष्णुम् आ = पर्यन्तम् ( अव्ययी० ) कीटमारभ्य विष्णुपर्यन्तमित्यर्थः सर्वस्यापि जीवजगतः स्वम् स्वकीयम् यत् इष्टम् अभीप्सितम् ( कर्भधा० ) तस्य लाभात प्राप्तेः कृतं कृत्यम् करणीयम् ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० वी०) तस्य भावः (ष० तत्पु०) कृतकृत्यत्वमित्यर्थः Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते तुल्यः समानः / सर्वोऽपि प्राणिवर्गः स्व-स्वाभीष्टवस्तू-प्राप्त्या समानरूपेण आत्मानं कृतकृत्यं मन्यते / ममाभीष्टो नल: तल्लाभे एव मज्जीवनस्य सार्थकता नेन्द्रलाभे इति भावः / भिन्ना पृथक-पृथक् स्पृहा रुचिः ( कर्मधा०) येषां तथाभूतानाम् ( व० वी० ) जनानामिति शेषः अर्थम् अर्थम् प्रति प्रार्थम् प्रतिवस्तु द्विष्टत्वम् द्वेषः इष्टत्वम् इच्छाविषयत्वम् च अपगता अपसृता व्यवस्था नियमः यस्य तथाभूतम् (प्रादि ब० वी०) भवतीति शेषः / पूर्वजन्मकृत-रुचिमेदकारणात् कोऽपि किमपीच्छति किमपि च द्वेष्टि / सर्वेषु वस्तुषु सर्वेषाम् समाना स्पृहा समानञ्च द्वेषो भवेदिति नास्ति लोके नियमः / तस्मात् नले एव मे स्पृहा नेन्द्र इति भावः // 106 / / ___व्याकरण-अभीष्ठ अभि इष् + क्तः ( कर्मणि ) / कृत्यम् क्रियते इति कृ + क्यप, तुगागम / स्पृहा/ स्पृह + अ + टाप् / अर्थम् अर्थम् वीप्सायां द्वित्वम् / द्विष्टत्वम् /द्विष् + क्त+ त्व। अनुवाद-कीट से लेकर विष्णु पर्यन्त ( जीव-जगत् में ) अपनी अभिलषित वस्तु पा जाने से कृतकृत्यता समान है / भिन्न-भिन्न रुचि वालों की वस्तुवस्तु के प्रति इच्छा और द्वष की व्यवस्था नहीं // 106 // टिप्पणी-यहाँ कवि मानव-मनोविज्ञान का यह पहलू खोल रहा है कि मनुष्य रूपेण समान होने पर भी सब में रुचिभेद अपना-अपना है। जिसे हम चाहते हैं, उससे दूसरा द्वोष रखता है। जिससे दूसरे का द्वष है, उससे हमारा अनुराग है। हमारा भी इससे द्वष ही हो, ऐसी कोई बात हम मानव-स्वभाव में नहीं पाते। इसीलिए मनुष्यों को लक्ष्य करके वेद ने भी कहा है-'मनोजवेष्वसमा बभवः / ' मनोविज्ञानवादी जहाँ इस जीवन-सत्य का कारण नहीं बता सके, स्वाभाविक करार देकर छोड़ गये हैं, वहाँ हमारे दर्शनकारों ने इसका कारण पूर्वजन्म के संस्कारों में हूँढ़ा है। इसी तथ्य को अपने तर्क का आधार बनाकर दमयन्ती को अपनी सखियों के प्रति यह उलाहना है कि मेरी रुचि जब नल पर है, तो तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि नल को छोड़कर इन्द्र से अनुराग करो ? यहाँ विद्याधर काव्यलिङ्ग कह रहे हैं। हमारे विचार से पूर्वाध में कीट से लेकर विष्णु तक कही विशेष बात को उत्तरार्ध-गत सामान्य बात से समर्थन मिलने से अर्थान्तरन्यास है / 'कीट' 'कैट" कृत' 'कृत्य' 'चार्थमर्थं' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टः सर्गः अध्वाग्रजाग्रन्निभृतापदन्धुबन्धुर्यदि स्यात्प्रतिबन्धुमहः / जोषं जनः कार्यविदस्तु वस्तु प्रच्छ्या निजेच्छा पदवीं मुदस्तु // 107 // अन्वयः (हे सख्यः / ) यदि अध्वा दन्धुः स्यात् ( तर्हि ) बन्धुः प्रतिबन्धुम् अर्हः / कार्यविद् जनः जोषम् अस्तु / मुदः पदवीम् वस्तु निजेच्छा प्रच्छया। टीका-(हे सख्यः ! ) यदि चेत् अध्वनः मार्गस्य अग्रे पूरो भागे / ( 10 तत्पु० ) जाग्रत् स्थित इत्यर्थः निभृतः प्रच्छन्नः पत्रादिभिरावृत इति यावत् आपद् विपत्तिः एव अन्धुः कूपः ('पुंस्येवान्धुः प्रहिः कूपः' इत्यमरः) ( सर्वत्र कर्मचा०) स्यात्, तर्हि बन्धुः सुहृत् प्रतिबन्धुम् अग्रे गच्छन्तं स्वमित्रं गमनात् प्रतिषेद्धमित्यर्थः अर्हः, योग्यः, मार्गे घासादिभिराच्छादितेषु गर्तेषु को नाम बन्धुः पतन. भयात् स्वसुहृदं तत्र गन्तुमनुमन्येत? इति भावः / कार्य वस्तु, वस्तुस्थितिमित्यर्थः वेत्ति जानातीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) जनः जोषम् तूष्णीम् अस्तु भवेत, अत्र नास्ति प्रच्छन्न-कूप इति सम्यक् जानन् बन्धुः तूष्णीं तिष्ठेत् मित्रं च गमनात् न वारयेदित्यर्थः / मुदः हर्षस्य पदवीम् मार्गम् एव वस्तु निजा स्वकीया इच्छा ईहा ( कर्मधा० ) प्रच्छया प्रष्टव्या, आनन्द-मार्ग-गमने जनेन स्वेच्छेवानुसतव्येति भावः // 107 // __व्याकरण . आपत् आपततीति आ + पत् + क्विप् ( कर्तरि) / बन्धुः यास्कानुसार 'बध्नातीति सतः' /बन्ध् + डः / अर्हः अर्हतीति /अर्ह + अच ( कर्तरि ) / कार्यवित कार्य +/विद् + क्विप् ( कर्तरि ) / प्रच्छ्या प्रच्छ + ण्यत्, प्रच्छ धातु के द्विकर्मक होने से गौण कर्म निजेच्छा को कर्मवाच्य में प्रथमा / ___ अनुवाद--( हे सखियो ! ) यदि मार्ग में विपत्ति-रूप कुआँ ( घारा आदि से ) ढका हुआ आगे पड़ता हो, तो बन्धु को उचित है कि वह ( मित्र को ) रोक दे। किन्तु वास्तविक स्थिति को जानने वाला ( बन्धु ) चुप ही रहे। आनन्द-मार्ग की वात के लिए ( मनुष्य को ) अपनी इच्छा पूछनी चाहिए // 107 // टिप्पणी-यहाँ कवि सामान्य बात उठाकर प्रस्तुत दमयन्ती की ओर लगा रहा। दमयन्ती का सखियों को कहने का अभिप्राय यह है कि नल के साथ मेरे अनुराग के पथ में यदि तुम प्रच्छन्न कुआँ, भयानक खतरा देख रही Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 नैषधीयचरिते हो तो ठीक है कि तुम मुझे रोको, सखी जो हों, लेकिन जब वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है, मार्ग साफ है तो तुम्हें चुप ही रहना चाहिए। रही बात मेरे आनन्द की कि वह नल के साथ है या इन्द्र के; इसे तुम मेरी इच्छा पर छोड़ दो। मनु के शब्दों में 'सर्वमात्मवशं सुखम्' / इस तरह यहाँ हमारे विचार से अप्रस्तुत सामान्य के द्वारा प्रस्तुत दमयन्ती-रूप विशेष के व्यङ्गय होने से अप्रस्तुत-प्रशंसा अलंकार है। आपद् पर कूपत्वारोप होने से रूपक है। विद्याधर ने काव्यलिङ्ग भी माना है, इस तरह इन सभी का संकर समझिये / शब्दालंकारों में से 'दन्धुर्' 'बन्धुर्' 'दस्तु' 'वस्तु' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'बन्धु' 'बन्धु' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इत्थं प्रतीपोक्तिमति सखीनां विलुप्य पाण्डित्यबलेन बाला। अपि श्रुतस्वर्पतिमन्त्रिसूक्ति दूतों बभाषेऽद्भुतलोलमौलिम् / / 108 // अन्वयः-बाला सखीनाम् प्रतीपोक्तिमति पाण्डित्यबलेन इत्थम् बिलुप्य श्रुत 'सूक्तिम् अपि अद्भुतलोलमौलिम् दूतीम् वभाषे / टीका-बाला युवतिः दमयन्ती सखीनाम् आलीनाम् प्रतीपा प्रतिकूला नलविरोधिनीत्यर्थः या उक्ति: वचनम् ( कर्मधा० ) तस्याः मतिम् बुद्धिम् (10 तत्पु० ) नलविरुद्धविचारानिति यावत् पण्डितायाः विदुष्याः भावः इति पाण्डित्यम् वैदुष्यम् तस्य बलेन सामर्थ्येन इत्यम् उक्तप्रकारेण विलुप्य अपाकृत्य श्रुता आकर्णिता स्वः स्वर्गस्य पत्युः इन्द्रस्य मन्त्रिणः सचिवस्य वृहस्पतेरित्यर्थः सूक्तिः सुभाषितम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) यया तथाभूताम् ( व० वी० ) अपि अद्भुतेन दमयन्त्या पाण्डित्येन जनितेन आश्चयेंण लोल: सकम्पः ( तृ० तत्पु० ) मौलि: शिरः ( कर्मधा० ) यस्या तथाभूताम् ( ब० वी० ) दूतीम् इन्द्रस्य कुट्टनीम् बभाषे जगाद // 108 // ___ व्याकरण-प्रतीप-प्रतिगता आपो यत्रेति प्रति + अप् + अच् , अप को ईप / मतिः /मन् + क्तिन् ( भावे ) / पाण्डित्यम् पण्डिताया भाव इति पण्डिता + ष्य , पुंवद्भाव / स्वर्पतिः स्वः पतिः ( सुप्सुपेति समास ) 'अहरादीनां पत्यादिषु' से रेफादेश। . अनुवाद-बाला ( दमयन्ती ) सखियों के विरोधोक्ति भरे विचारों का ( निज ) पाण्डित्य के बल से खण्डन करके ( इन्द्र की ) दुती को बोली, जो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 113 इन्द्र के मंत्री ( वृहस्पति ) की सूक्तियों को सुने हुए भी ( दमयन्ती के पाण्डित्य से ) आश्चर्य में सिर धुनने लगी थी॥ 108 // टिप्पणी-यहाँ दमयन्ती के पाण्डित्य के पीछे कवि का निजी दार्शनिक पाण्डित्य ही मुखरित हो रहा है, जिसके द्वारा उसने पूर्वजन्म-सिद्धान्त सिद्ध किया है / ध्यान रहे कि छठे सर्ग का यह सारा का सारा प्रतिपाद्य, कवि का स्वोपज्ञ है, स्वकल्पना-विलास है मूल का नहीं। 'बले' 'बाला' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। परेतभर्तुर्मनसेव दूती नभस्वतेवानिलसख्यभाजः। त्रिस्रोतसेवाम्बुपतेस्तदाशु स्थिरास्थमायातवतीं निरास्थम् // 109 // अन्वयः-तत् स्थिरास्थम् मनसा इव आशु आयांतवतीम् परेत-भर्तुः द्रतीम. ( स्थिरास्थम् ) नभस्वता इव ( आशु आयातवतीम् ) अनिलसख्यभाजा (दूतीम् ), ( स्थिरास्थम् ) त्रिस्रोतसा इव ( आशु आयातवतीम् ) अम्बुपतेः (दूतीम् अहम् ) निरास्थम् / टीका-तत् तस्मात् कारणात् अर्थात् यतोऽहं नलमेवाभिलषामि, स्थिरा दृढा आस्था विश्वासः धारणा वा यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( व० वी० ) अहं दमयन्तीं स्ववशीकरिष्यामीति दृढविश्वासं कृत्वेत्यर्थः मनसा मानसेन इव मनसः शीघ्रगामित्वात् आशु शीघ्रम् आयातवतीम् परेतानाम् प्रेतानाम भात: स्वामिनः यमस्येत्यर्थः दूतीम् अहं निरास्थम् निराकृतवती इति क्रियान्वयः एवमेव स्थिरास्थम् नभस्वता वायुना इव वायोरपि शीघ्रगामित्वात आश आयातवतीम् अनिलस्य वायोः सख्यम् सख्युर्भावं मैत्रीनिति यावत् (10 तत्प०) भजतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्षु० ) अग्नेरित्यर्थः दूतीम् निरास्थम् एवमेव स्थिरास्थं त्रीणि स्रोतांसि धारा यस्याः तथाविधया (ब० वी० ) त्रिपथया गङ्गया इत्यर्थः इव तस्याः प्रवाहस्यापि शीघ्रगामित्वात् आशु आयातवतीम अम्बुपतेः अम्बूनां जलानां पत्युः स्वामिनः वरुणस्येत्यर्थः दूतीम् निरास्थम् / मनसि स्व-स्व-स्वामिनः कृते मद्वशीकरणस्य दृढधारणां कृत्वा क्रमशो मनसेव, वायूनेव. गङ्गास्रोतसेव वाहनैः आयाताः यम-वह्नि-वरुणानां दूतीरहं तदानीं दूरादेव निराकरवम् , ताभिः वार्तालापोऽपि न कृतः, त्वया सह तु इन्द्रप्रति गौरवात् कियत्कालं वार्तालापः कृत इतिभावः // 109 / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते व्याकरण-स्थिर तिष्टतीति /स्था + किरच / आस्था आ + /स्था + अङ् + टाप् / आयातवतीम् आ + /या + क्तवत् ( कर्तरि ) + ङीप् / परेतः परा+ इ + क्तः ( कर्तरि ) / नभस्वान् नभः प्रचलनार्थस्थानम् आकाशम् अस्यास्तीति नभस् + मतुप , म को व, यास्कानुसार नभसि-आकाशे श्वसितीति / सख्यम् सख्युर्भाव इति सखिन् + यत् / निरास्थम् निर् + /अस् + लुङ आदेश, थुक् का आगम / अनुवाद-(क्योंकि मैं नल को चाहती हूँ ) इसलिए ही ( हे दूती ) दृढ़ विश्वासपूर्वक मन से-जैसे शीघ्र आई यम की दूती को, वायु से जैसे ( शीघ्र आई ) अग्निकी दूतीको और गंगा से जैसे ( शीघ्र आई ) वरुण की दूती को ( मैंने दूर से ही ) टरका दिया ( तुझसे तो दो बातें भी करली ) // 109 // टिप्पणी-इस श्लोक में अर्थ कुछ क्लिष्ट है। इस कारण टीकाकार गड़बड़ा रहे हैं। मल्लिनाथ मनसैव, नभस्वतैव, त्रिस्रोतसैव' पाठ देकर 'मन से ही' "वायु से ही' 'गङ्गा से ही शीघ्र आई' अर्थ कर रहे हैं। जो जच नही रहा है। इन पर ही सवार हो दूतियों का आना अर्थ कुछ अटपटा-सा ही है। नारायण 'मनसेव' का 'मनसैव' व्याख्या करके 'दूतीम् मनसैव निरास्थम् निराकृतवत्यस्मि' अर्थात् मन से ही मैंने दूती को हटा दिया, लेकिन आगे 'नभस्वतेव = वायुनेव, त्रिस्रोतसा = मन्दाकिन्या इव निरास्थम् 'अर्थात् वायु से जैसे मन्दाकिनी से जैसे दूती को मैंने हटा दिया। यह अर्थ भी स्पष्टतः कुछ समझ में नहीं आ रहा है। चाण्डू पण्डित ने भी दो-तीन विकल्प लेकर व्याख्या की है। उनकी अन्तिम विकल्पवाली व्याख्या ही हमें ठीक लगी जो हमने भी अपनायी है। कवि वड़े वेग के साथ आई हुई दूतियों के सम्बन्ध में तीन कल्पनायें कर रहा है / यमकी दूती मानो मन से आई हो। यम प्रेतपति हैं, प्रेतों के प्राण उसके हाथ हैं और मन प्राणाधीन होते ही ऐसा लगता है प्राण के साथ आए किसी प्रेत के मन को उसने अपनी दूती को देकर कहा हो जा इसको अपना वाहन बनाकर शीघ्र दमयन्ती के पास पहुंच जा। मन बहुत तेज चलने वाला है / इस कल्पना से सूचित हो जाता है कि दूती इतनी द्रुत गति से आई जैसे कि मन हो इसी तरह अग्नि का मित्र वायु होता है, जिसे उसने अपनी दूती को सोंप दिया, अतः वह वायु के कन्धों पर चढ़ी जैसी आई अर्थात् वह वायु कीसी तेज गति से आई / इसी तरह 'वरुणः सरितां पतिः' कहा जाता है। उसने भी मानो Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः मन्दाकिनी अपनी दूती को सौंपदी जो उसे तीव्र गति से पहुंचा बैठी / मन्दाकिनी तीव-गति होती ही है। इस तरह कवि की तीन कल्पनाओं में यहाँ तीन उत्प्रेक्षायें हैं, जिनकी संसृष्टि हो रखी है / विद्याधर अतिशयोक्ति मान रहै हैं जो हमारी समझ में नहीं आती। 'रास्थ' 'रास्थम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूयोऽर्थमेनं यदि मां त्वमात्थ तदा पदावालभसे मघोनः / सतीव्रतैस्तीवमिमं तु मन्तुमन्तर्वरं वज्रिणि मार्जितास्मि // 110 / / अन्वयः-( है इन्द्रदूति ) त्वम् भूयः एनम् अर्थम् यदि माम् आत्थ, तदा मघोनः पदी आलभसे / ( अहम् ) संतीव्रतैः वज्रिणि अन्तः तीव्रम् इमम् मन्तुम् तु वरं मार्जितास्मि ( न तु ते वार्ता श्रोष्यामि ) / ___टीका-( हे इन्द्रदूति ) त्वम् भूयः पुनः एनम् एतम् इन्द्रवरणरूपम् अर्थम् यदि चेत् माम् आत्थ कथयसि, तदा तर्हि मघोनः इन्द्रस्य पदौ चरणी आलभसे स्पृशसि अर्थात् इन्द्रस्य शपथं तुभ्यं ददामि त्वम् इन्द्रवरणरूपम् अर्थ मा मह्यं कथय / अहम् सत्याः प्रतिव्रतायाः व्रतैः नियमः ( 10 तत्पु० ) वञिणि इन्द्र विषये अन्तः अन्तःकरणे तीव्रम् दुःसहम् इमम् मन्तुम् अपराधम् ('आगोऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः) तु वरम् सम्यक् माजितास्मि प्रोच्छितास्मि, निजपातिव्रत्येन प्रतिकरिष्यामीति भावः / / 110 // व्याकरण-आत्थ/+ लट् मध्यम पु०, जू को आह आदेश और ह को थ / वम्री वज्रमस्यास्तीति वज्र + इन् ( मतुबथं)। मार्जितास्मि - मृज + लुट् उत्तम पु० / अनुवाद-(हे दूती!) तुमने यदि फिर यह ( इन्द्रवरणवाली) बात कही, तो तुम्हें इन्द्र की सौगन्ध / अच्छा है इन्द्र के प्रति इस अपराध को मैं हृदय में पातिव्रत्य द्वारा पोंछलूँ ( लेकिन सुनूँगो नहीं ) // 110 / / टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाब यह है कि इन्द्र अन्तर्यामी देव हैं / मेरे हृदय को भलीभाँति जानते ही हैं कि वह नल को समर्पित हो चुका है और अब दूसरे किसी को पति मानने से रहा, इसलिए मेरे इस पतिव्रत धर्म के कारण प्रसन्न हो वे उन्हें न वरने के मेरे अपराध को क्षमा कर देंगे। 'सतीव्र' 'स्तीव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 नैषधीयचरिते इत्थं पुनर्वागवकाशनाशान्महेन्द्रदूत्यामपयातवत्याम् / विवेश लोलं हृदयं नलस्य जीवः पुनः क्षीवमिव प्रबोधः // 11 // अन्वयः-इत्थम् पुनः वागवकाश-नाशात् महेन्द्र-दूत्याम् अपयातवत्यां (सत्याम्) नलस्य जीवः लोलम् हृदयम् प्रबोधः लोलम् क्षीबम् इव विवेश // 111 // टीका-इत्थम् उक्तप्रकारेण पुनः भूयः वाचः कथनस्य अवकाशस्य अवसरस्य नाशात् अपगमात् ( उभयत्र ष. तत्पु० ) महेन्द्रस्य देवराजस्य दूत्याम् शम्बल्याम् अपयातवत्याम् अपगतायां सत्याम् नलस्य श्रीवः प्राणः लोलं चञ्चलं हदयम् प्रबोधः मानस-स्वस्थता अविक्षिप्तता विवेक इति यावत् लोलम् क्षीवम् मदिरा मत्तम् पुरुषम् ('मत्ते शीण्डोत्कटक्षीबाः' इत्यमरः ) इव पुनः भूयः विवेश आगतवान् / चिन्ता-विचलित-हृदयस्य नलस्य गतप्रायाः प्राणाः तथा पुनरागताः यथा मत्तम् प्रबोधः पुनरागच्छतीति भावः // 111 // व्याकरण-इत्थम् इदम् + थम् (प्रकाश वचने ) / नाश: नश् + घन (भावे) अपयातवत्याम् अप + या+ क्तवत्, ( कतरि)+ ङीप् / जीव: /जीव + अच् ( भावे) / क्षीवः क्षीब् + क्तः ( कर्तरि ) / 'अनुपसर्गात फुल्ल-क्षीब० (8 / 2 / 54 ) से निपापित / / अनुवाद-इस प्रकार दोबारा बोलने का अवसर समाप्त कर दिए जाने से ( इन्द्र की) दूती के चले जाने पर नल के चंचल हृदय में इस तरह फिर प्राण आ गया जैसे चंचल शराबी को होश आ जाती है / / 111 // टिप्पणी-हम पीछे श्लोक 89 में देख आये है कि नल का हृदय कितना वेचैन हो रहा था कि न दूत-कर्म करके यश ही मिला, न दमयन्ती ही मिली। न घर का रहा न घाट का। लेकिन इन्द्र की दूती के विफल हो चले जाने पर उन्हें हृदय में आशा बंध गई कि दूत-कर्म का अवसर मिल गया है। यदि उसमें सफल हुआ तो जगत् में अविनश्वर यश है, विफल हुआ तो दमयन्ती धरीधरायी है ही। दोनों हाथों में लड्डू है / इसलिए जान में जान आ गई / क्षीब के साथ तुलना में उपमा, 'जीव:' 'क्षीब' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। श्रवणपुटयुगेन स्वेन साधूपनीतं दिगधिपकृपयाप्तादीदृशः संविधानात् / अलभत मधु बालारागवागुत्थमित्थं निषधजनपदेन्द्रः पातुमानन्दसान्द्रम् // 112 // Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 117 अन्वयः-निषधजनपदेन्द्रः दिगधिपकृपया आप्तात् ईदृशः संविधानात् स्वेन श्रवण-पुट-युगेन साधु अपनीतम् इत्थम् बाला-रागवागुत्थम् मधु आनन्द-सान्द्रम् पातुम् अलभत / ____टीका-निषधानाम् एतदाख्यस्य जनपदस्य देशस्य इन्द्रः प्रभुः नलः (10 तत्पु० ) दिशः पूर्वदिशायाः अधिपः स्वामी इन्द्र इत्यर्थः तस्य कृपया अनुग्रहेण अदृश्यीभवनशक्तिदानरूपेण आप्तात् प्राप्तात् ईदृशः एतादृशात् दूत्यात्मकादित्यर्थः संविधानात् उपायात् स्वेन निजेन श्रवणयोः कर्णयोः पुटयोः शष्कुल्योः पात्रयोरिति यावत् युगेन द्वयेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) साधु सम्यक् यथा स्यात्तथा उपनीतम् आनीतम् इत्थम् उक्त-प्रकारेण वालायाः दमयन्त्याः रागस्य मयि अनुरागस्य या वाक् वचनानि ( उभयत्र ष० तत्पु० ) तस्मात् उत्तिष्ठति उपजायते इति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) मधु क्षौद्रम् आनन्देन सान्द्र घनं यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा पातुम् पानविषयीकर्तुम् अलभत प्राप्तवान्, अदृष्टः सन् आदरेण स्वविषयकानुरागबोधकानि दमयन्ती-मधुरवचनानि कर्णाभ्यां श्रुतवानित्यर्थः // 112 // व्याकरण-अधिपः अधिकं पातीति अधि + /पा + कः / संविधानात् संविधीयतेऽनेनेति सम् + वि + /धा + ल्युट ( करणे ) / श्रवणम् श्रयतेऽनेनेति + ल्युट ( करणे) / इत्थम् इसके लिए पिछला श्लोक देखिए / ०वागुत्थम् उत् +/स्था + क / आनन्दः आ + नन्द + घन (भावे ) / पातुम् में लभ् के योग में तुमुन् है। ___ अनुवाद-निषध-नरेश ( नल ) को (पूर्व ) दिशा के स्वामी ( इन्द्र ) की कृपा द्वारा प्राप्त ऐसे उपाय से अच्छी तरह लाया हुआ, इस तरह बाला ( दमयन्ती ) के प्रेम-वचनों से उत्पन्न मधु बड़े आनन्द के साथ दो कर्ण-पुटों ( पात्रों ) से पीने को मिली // 112 // टिप्पणी-नल के हर्ष का पाराबार नहीं रहा जब उन्होंने दमयन्ती के वचनामृत का पान किया जिसमें उसका उन्हीं के प्रति असीम प्रेम छलक रहा था—ऐसा प्रेम जो यम, अग्नि, वरुण देवताओं को तो क्या, इन्द्र तक को भी ठुकरा गया था। नल इन्द्र के बड़े कृतज्ञ हैं। यदि वह उन्हें दूत न बनाता, अदृश्य होने की शक्ति न देता तो उन्हें भला दमयन्ती के पास आकर अपने आँखों उसका अतुल लावण्य देखने का, उसका अपने प्रति निश्छल प्रेम जानने का तथा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते उसका मधुर वचनामृत पान करने का अवसर ही कैसे आता। यहाँ विद्याधर रूपक कह रहे हैं / वे 'वाक्' पर मधुत्वारोप मानते हैं, लेकिन कवि ने वाक् को मधु न कहकर 'वागुत्थ' को मधु कहा है। कानों पर पात्रत्वारोप गम्य है। है। सन्ति होने से कवि ने यहाँ छन्द वदल दिया है। यह प्रतिपाद में 15 वर्गों का मालिनी छन्द है, जिसका लक्षण 'ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः' है। श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं / . श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / षष्ठः खण्डनखण्डतोऽपि सहजात्क्षोदक्षमे तन्महा काव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 113 // अन्वयः-कविराज'''यम्, पूर्ववत्, सहजात् खण्डनखण्डतः अपि क्षोदक्षमे नलस्य चरिते तन्महाकाव्ये अयम् निसर्गोज्ज्वलः षष्ठः सर्गः ब्यगलत् / टीका-कविराज""यम् पूर्ववदेव टीका ज्ञेया; सहजात् सहोदरात् भ्रातुरित्यर्थः खण्डनखण्डतः खण्डनखण्डखाद्यनामकात् ग्रन्थात् तदपेक्षयेत्यर्थः अपि क्षोदस्य आलोचनस्य क्षमे समर्थे ( 10 तत्पु० ) नलस्य चरिते नैषधीयचरिते समाप्तिम् अगात् // 113 // इति मोहनदेवपन्त प्रणीतायां छात्रतोषिण्यां षष्टः सर्गः। व्याकरण-सहजात् सहजायते इति सह + /जन् + डः / क्षोदः क्षुद् + घन् / क्षमः क्षमते इति + क्षम् + अच् ( कर्तरि ) / अनुवाद - कविराज जन्म दिया, उसके 'नैषधीय चरित' महाकाव्य में, जो अपने सहोदर 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थ की भी अपेक्षा आलोचना का ( अच्छी तरह ) सामना कर सकता है, निसर्ग से उज्ज्वल छठा सगं समाप्त हुआ। मोहनदेव पन्त-प्रणीत 'छात्रतोषिणी' में छठा सर्ग समाप्त / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નૈષઘીયારતે सप्तमः सर्गः अथ प्रियासादनशीलनादौ मनोरथः पल्लवितश्चिरं यः। विलोकनेनैव स राजपुत्र्याः पत्या भुवः पूर्णवदभ्यमानि // 1 // अन्वयः-अथ भुवः पत्या प्रिया''दो यः मनोरथः चिरम् पल्लवितः ( आसीत् ) स राजपुत्र्या: विलोकनेन एव पूर्णवत् अभ्यमानि / टीका-अथ इन्द्रदूत्या अपगमनानन्तरम् भुवः पृथिव्याः पत्या भर्ना नलेनेत्यर्थः प्रियायाः प्रेयस्या दमयन्त्याः आसादनम् प्राप्तिः (10 तत्षु० ) च शीलनादि साहचर्यानुभवश्च ( द्वन्द्व ) आदी यस्य तथाभूते आलिङ्गन-संभोगविषये (ब० वी० ) यः मनोरथः अभिलाषः चिरम् चिरकालात् पल्लवितः सातपल्लव: पूर्व हृदये कल्पित आसोदित्यर्थः स मनोरथः राज्ञः भीमनृपस्य पुत्र्याः दुहितुः विलोकनेन एव दर्शनमात्रेण एव पूर्णवत् पूर्ण इव अभ्यमानि मेने। दमयन्ती प्राप्य तया सहाहं विविधानन्दोपभोगं करिष्यामीति नलेन या स्वप्नसृष्टिर्मनसि रचितपूर्वाऽऽसीत्, सेदानीं तस्याः दर्शनमात्रेण सफलीभूतां पूर्णा चामन्यतेति भावः। व्याकरण-पत्या बिना समास के घिसंज्ञा न होने से यहाँ पतिना नहीं बनने पाया / प्रिया-प्रीणातीति / प्री + ल + टाप् / आसावनम् आ + /सद् + णिच् + ल्युट ( भावे ) / शीलनम् शील् + ल्युट ध्यान रहे कि यहाँ द्वन्द्व आसादनश्च शीलनादि च यों हमें करना पड़ा। अन्यथा अल्पाच होने के कारण 'शीलन' को पूर्वनिपात प्राप्त है / पल्लविता पल्लवोऽस्य सञ्जातः इति पल्लव + इतच अथवा पल्लववत् ( सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते ) करोतीति (नामधातु ) पल्लव + णिच् + क्तः ( कर्मणि ), अभ्यमानि अभि + मन् + लुङ् ( कर्मणि)। अनुवाद-( इन्द्रदूती के चले जाने के ) अनन्तर भूपति ( नल ) ने प्रिया की प्राप्ति, उसके साहचर्य आदि के सम्बन्ध में जो मनोरथ-स्वप्न-चिरकाल से Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 नैषधीयचरिते खूब संजोए रखा हुआ था, वह ( आज ) उसके देखने मात्र से ही पूर्ण हुआ जैसा मान लिया // 1 // टिप्पणी-'पल्लवित' शब्द से यह ध्वनित होता है कि नल ने मनोरथ को स्वयं लगाये एक वृक्ष का रूप दे रखा था; उसे पुष्पित और फलित देखकर उनके आनन्द की सीमा ही नहीं रही। यद्यपि उन्हें अभी प्रिया प्राप्त नहीं हुई है उसका साहचर्य भोग का आनन्द भी नहीं मिला है, तथापि इन्द्र-दूती के साथ उसकी बातों से उन्हें दृढ़ निश्चय हो गया कि वह उन्हें ही प्रेम करती है इसलिये उसके दर्शन मात्र से वे अपने को सफल मनोरथ समझने लगे और मानस पटल पर उसके अनुपम सौन्दर्य के चित्र खींचना आरम्भ कर देते हैं। पाठक जानते हैं कि उसके सौन्दर्य-चित्र पहले स्वयं कवि ने पोछे खींच रखे फिर उसने हंस के द्वारा भी खिंचवाये और अब फिर नल द्वारा खिचवा रहा है। सारे सप्तम सर्ग में उसी के चित्र हैं, लेकिन पाठक पायेंगे कि उनका रंग और ढंग कुछ और ही है। कहीं भी पुनरुक्ति नहीं मिलेगी सर्वत्र नवीकरण है / यही कवि की विशेष कला-नैपुणी है। विद्याधर ने यहाँ पूर्ववत् में 'विषमोपमा' कही है और उसका समन्वय यों किया है-'दर्शनमात्रेणैव नलस्य हृष्टत्वात् अथ मनोरथकार्यस्य महत्त्वे दमयन्ती विलोकनस्य कारणस्य अल्पत्वे विरोधे सति हर्षाधिक्येन समाधीयते / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / इस सर्ग में किन्हीं श्लोकों में इन्द्रवज्रा है और किन्हीं में उपेन्द्रवज्रा है, जिनके लक्षणों के लिए पिछले सर्ग के प्रथम श्लोक की टिप्पणी देखिए / प्रतिप्रतीकं प्रथमं प्रियायामथान्तरानन्दसुधासमुद्रे / ततः प्रमोदाश्रुपरम्परायां ममज्जतुस्तस्य दृशौ नृपस्य // 2 // अन्वयः तस्य नृपस्य दृशौ प्रथमम् प्रतिप्रतीकम् प्रियायाम् ममज्जतुः, अथ अन्तरा "समुद्र ( ममज्जतुः ) ततः प्रमोद याम् (ममज्जतुः ) / ____टीका तस्य नृपस्य नरेशस्य नलस्य दृशौ नयने प्रथमम् आदी प्रतीके प्रतीके इति प्रतिप्रतीकम् प्रत्यवयवम् (अङ्गम् प्रतीकोऽवयव:) इत्यमरः (अब्ययी०) पियायाम् दमयन्त्याम् ममज्जतुः मग्ने बभूवतुः, अथ तत्पश्चात् अन्तः अन्तः करणे यः आनन्दः प्रत्येकावयवदर्शन-जनितामोदः ( सुप सुपेति समासः ) स एव सुधा लमृतम् ( कर्मधा० ) तस्याः समुद्रे सागरे ममज्जतुः, ततः तदनन्तरम् प्रमोदेन Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः प्रकृष्टेन हर्षेण या अश्रु-परम्परा (तृ० तत्पु० ) अश्रुणः बाष्पस्य परम्परा ओघ: (ष० तत्पु०) तस्याम् ममज्जतुः / समुद्र जलौघे च मज्जनं स्वाभाविकमेव // 2 // व्याकरण-दृक् पश्यतीति /दृश + क्विप् ( कर्तरि ) / प्रथम यास्काचार्यानुसार 'प्रकृष्टतम' इति प्र + तमम् , त को थ निपातित / समुद्रः यास्कानुसार समुद्रवन्त्येनमापः समुन्नमन्तीतिवा। प्रमोदः प्र + मुद् + घञ् / ममज्जतुः मज्ज +लिट् / अनुवाद-उस नरेश ( नल ) की आँखें पहले तो प्रिया के अङ्ग-अङ्ग ( के सौन्दर्य ) में डूबी, तब हृदय-गत आनन्द रूपी अमृत के समुद्र में डूबी और उसके बाद आनन्दाश्रप्रवाह में डूबी // 2 // टिप्पणी-नल की आँखों ने दमयन्ती के अङ्ग अङ्ग का सौन्दर्य निहारा तो उनके हृदय में आनन्द का समुद्र उमड़ पड़ा। बाद को आँखें आनन्द के आंसुओं के प्रवाह में डूब गई और आगे देख न पाई। भाव यह कि उसके अङ्ग-अङ्ग में अद्भुत सौन्दर्य-छटा दमक रही थी। जिसे देख नल युग्ध हो गया। यहाँ एक ही दृग-रूपी आधेय को क्रमशः प्रिया सुधा-समुद्र और अश्रु-परम्परा-रूपी अनेक आधारों में बताने से पर्याय अलंकार है। आनन्द पर सुधा-समुद्रत्वारोप होने से रूपक है 'प्रति' 'प्रती' में छेक, 'तस्य' 'नृपस्य' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ब्रह्माद्वयस्यान्वभवत्प्रमोदं रोमान एवाग्रनिरीक्षितेऽस्याः। यथोचितीत्थं तदशेषदृष्टावथ स्मराद्वैतमुदं तथासौ // 3 // अन्वयः-असौ अस्याः रोमाने एव अग्रनिरीक्षिते सति ब्रह्माद्वयस्य प्रमोदम् अन्वभवत्, अथ इत्थम् तदशेषदृष्टौ यथा औचिती तथा स्मराद्वैतमुदम् ( अन्वभवत् ) / टीका-असौ नल: अस्याः दमयन्त्याः रोम्णः शरीर-लोम्नः अग्रे अग्रभागे (10 तत्पु० ) एव अग्रे प्रथमम् निरीक्षिते दृष्टे (स० तत्पु० ) सति ब्रह्मणा ( सह) अद्वयम् अद्वैतम् ऐकात्म्यमिति यावत् (तृ० तत्पु० ) तस्य प्रमोदम् आनन्दम् अन्वभवत् अनुभूतवान्, अथ अनन्तरम् इत्थम् एवम् तस्याः दमयन्त्याः अशेषदृष्टि: (10 तत्पु० ) न शेषः यस्यां तथाभूता ( ब० वी० ) चासो दृष्टिः ( कर्मधा० ) तस्याम् कात्स्न्येन दमयन्त्यां विलोकितायां सत्या Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 नैषधीयचरिने मित्यर्थः यथा येन प्रकारेण औचितो औचित्यम् तथा स्मरेण कामेन सह अद्वैतम् ऐक्यम् ( तृ० तत्पु० ) तस्य मुदम् अन्वभवदित्यनुवर्ततो दमयन्त्याः शरीरगतरोमानमात्रस्य दर्शनेनैव यदा जीवस्य ब्रह्म कतानुभवानन्दमिवानन्दं नलोऽन्वभबत्, तर्हि तस्याः सर्वस्यापि शरीरस्य दर्शने तस्य ततोऽप्यधिकः कामैकतानुभवानन्दो भवेदिति समुचितमेवेति भावः // 3 // व्याकरण - अद्वयम् द्वौ अवयवौ अत्रेति द्वि + तयप्, तयप् को विकल से अयच् / न द्वयम् इत्यद्वयम् ( नन तत्पु० ) ब्रह्मन् वृंहति ( व्याप्नोति ) इति Vवृह + मनिन्, ऋको र / इत्थम् इदम् + थम् / औचिती उचितस्य भाव इति उचित + ष्यन् + ङीप , यलोपः / अद्वैतम् द्वयोः भावः इति द्वि + तल + टाप् = द्विता, द्वितैवेति द्विता + अण् ( स्वार्थे ) / अनुवाद-वह ( नल ) पहले उस ( दमयन्ती ) के रोम का अग्रभागमात्र देखते ही ब्रह्म कात्म्यका आनन्द अनुभव कर बैठे। बाद को इस तरह उस ( दमयन्ती के शरीर ) को सारा ही देखने पर-जैसा कि उचित था-उन्हें मदनैकात्म्य का आनन्द हो गया // 3 // टिप्पणी-वृहदारण्यक उपनिषद् में पति-पत्नी के मिलन से जीव-ब्रह्म के मिलन की तुलना इस तरह की गई है-'तद् यधा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो न बाह्य किञ्चन वेद नान्तरम् , एवमेवायं पुरुषः प्राज्ञेनात्मना संपरिष्वक्तो न बाह्य किञ्चन वेद नान्तरम्' / कवि ने इसी आधार पर उपमान होने के नाते पतिपत्नी मिलन के आनन्द को जीव-ब्रह्म के मिलन के आनन्दं से ऊँचा उठाया है, उसे बहुत ही उत्कृष्ट सिद्ध किया है। भाव यह निकला कि ब्रह्मानन्द तो नल को प्रिया के रोम मात्र देखने से ही मिल गया, लेकिन मदनानन्द तब मिला जब उन्होंने उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर दृष्टि डाली। प्रिया का समूचा शरीर देखकर वे मदनानन्द में निमग्न हो गये / मुक्ति का आनन्द उनके सामने तुच्छ था। दुष्यन्त ने भी तो शकुन्तला को देखने पर यही कहा था-'अहो लब्धं नेत्रनिर्वाणम्' / विद्याघर यहाँ विषम और उपमा कहते हैं। लेकिन मदनानन्द को अधिक बता देने से हमारे विचार से व्यतिरेक होना चाहिए। मल्लिनाथ के अनुसार पर्याय अलंकार है, क्योंकि एक ही नल में यहां क्रमशः पहले ब्रह्मानन्द बताया, तब मदनानन्द / 'मोदं' 'मुदं' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः वेलामतिक्रम्य पृथु मुखेन्दोरालोकपीयूषरसेन तस्याः। नलस्य रागाम्बुनिधौ विवृद्धे तुङ्गौ कुचावाश्रयतः स्म दृष्टी॥ 4 // अन्वयः- नलस्य दृष्टी तस्याः मुखेन्दोः आलोक-पीयूष-रसेन पृथुम् वेलाम् अतिक्रम्य रागाम्बुनिधी विवृद्धे सति तुङ्गो कुची आश्रयतः स्म / ____टोका- नलस्य दृष्टी नयने तस्याः दमयन्त्याः मुखम् वदनम् एव इन्दुः चन्द्रः तस्य ( कर्मधा० ) आलोक: विलोकनम् अथ च प्रकाशः (आलोको दर्शनोद्योती' इत्यमरः ) एव पीयूषम् अमृतम् ( कर्मधा० ) तस्य रसेन स्वादेन अथ च जलेन जलप्रवाहेणेति यावत् (10 तत्पु०) ( 'गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः ) पृथुम् महतीम् वेलाम् कालम् दूत्यसमयमित्यर्थः अथ च मर्यादाम् तटसीमामित्यर्थः ( 'वेला काल-मर्यादयोरपि' इत्यमरः ) अतिक्रम्य उल्लङ्घय रागः अनुराग एव अम्बुनिधिः समुद्रः तस्मिन् ( कर्मधा० ) विवृद्ध वृद्धि प्राप्ते सति दमयन्त्याः तुङ्गो उच्चौ कुचौ स्तनौ आश्रयतः स्म जुषाते स्म / यथा चन्द्रप्रकाशेन समुद्रस्य जलप्रवाहे वृद्धि गते सति विमजनभयात् कोऽपि जन उच्चस्थानम् आश्रयति, तद्वत् नलस्य नयने अपि प्रियायाः मुखदर्शनेन अनुरागे वृद्धि गते सति पश्चात् तस्याः उच्चकुचयोः स्थिति लेभाते इति भावः // 4 // __व्याकरण-आलोक: आ + लोक + घञ् ( भावे ) / पृथु प्रथते इति /प्रथ् + कु सम्प्रसारण / अम्बुनिधी अम्बूनि निधीयन्तेऽत्रेति अम्बु + नि + Vघा + कि ( अधिकरणे)। अनुवाद-नल की आँखें उस ( दमयन्ती) के मुख-रूपी चन्द्रमा के समय, तीरभूमि ) को अतिक्रमण करके राग-रूपी समुद्र के बढ़ जाने पर ऊंचे कुचों का आश्रय ले बैठे // 4 // टिप्पणी-सीधी-सी बात यह है कि नल ने दमयन्ती का चाँद-जेसा चेहरा देखा तो उसके प्रति अनुराग उमड़ पड़ा। निज दृष्टि उन्होंने उसके उभरे उरोजों पर टिका दी। अपने इस आनन्द-क्षण में वे बिलकुल भूल गये कि वे दूत बनकर आये हुए हैं, प्रेमी बनकर नहीं / इसपर कवि ने साङ्गोपाङ्ग रूपक का अप्रस्तृतविधान प्रयुक्त किया है ( मुख बना चांद, उसका दर्शन बना चांद का प्रकाश. वही बना अमृत-प्रवाह जिससे राग-रूपी समुद्र दौत्यरूपी सीमा को लाँघ गया / ) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 नैषधीयचरिते जलौघ से वेचारे नयन डर गये कि अब बहे तब बहे / कुच-रूप में उन्हें दो ऊँचे गोल टीले मिल गये / वहीं चढ़कर शरण ले ली। इसे हम समस्त वस्तुविषयक रूपक मान लेते, लेकिन कवि एक कमी रख गया और वह यह कि वह कुचों पर ऊंचे टीलों का आरोप नहीं दिखा सका, अतः रूपक पूरा न होकर एकदेशी रह गया। रूपक यहाँ श्लिष्ट है। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति भी मानते हैं, क्योंकि आलोक, वेला और रस के 'भिन्न-भिन्न होने पर भी यहाँ अभेदाध्यवसाय कर रखा है / मल्लिनाथ नयनों पर चेतनव्यवहार समारोप होने से समासोक्ति कहा कर यह उत्प्रेक्षा-ध्वनि भी मानते हैं कि मानो आँखें बह जाने से डरकर कुचों पर जा टिकी / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / मग्ना सुधायां किमु तन्मुखेन्दोर्लग्ना स्थिता तत्कुचयोः किमन्तः / चिरेण तन्मध्यममुञ्चतास्य दृष्टि: क्रशोयः स्खलनाद्भिया नु / / 5 / / अन्वयः-अस्य दृष्टिः तन्मुखेन्दोः सुधायाम् मग्ना किमु ? तत्कुचयोः अन्तः लग्ना ( सती ) स्थिता किम् ? क्रशीयः तन्मध्यम् स्खलन-भयात् नु चिरेण अमुञ्चत् ? टीका-अस्य नलस्य दृष्टि: नयनम् तस्याः दमयन्त्याः मुखम् आननम् (ष. तत्पु० ) एव इन्दुः चन्द्रः तस्य ( कर्मधा० ) सुधायाम् अमृते मग्ना डिता किमु ? अथबा तस्याः दमयन्त्याः कुचयोः उरोजयोः अन्तः अन्तराले मध्ये इति यावत् लग्ना निरवकाशत्वात् गमनमार्गमलब्ध्वा स्थिता किम् ? क्रशीयः अतिशयेन कृशम् तस्याः दमयन्त्याः मध्यम् कटिम् ( ष. तत्पु०) स्खलनात् पतनात् भयात् भीतेः कारणात् नु किम् चिरेण चिरकालानन्तरम् अमुञ्चत मुमोच ? // 5 // व्याकरण-मग्ना मस्ज + क्त (कर्तरि त को न + टाप् / लग्ना लग् + क्त ( कर्तरि ) त को न + टाप् / क्रशीयः कृश + ईयसुन् ( अतिशयार्थ में ) ऋ को र / स्खलनात् भयार्थ में पञ्चमी। अनुवाद-उन ( नल ) की दृष्टि उस ( दमयन्ती के मुख-चन्द्र के अमृत में डूब गई हैं क्या ? उसके कुचों के बीच में फंसी ठहर गई है क्या ? गिर पड़ने के भय से देर बाद उसकी पतली कमर को छोड़ रही थी क्या ? टिप्पणो-नल की आँखें देर तक दमयन्ती के मुख उरोज और कमर को देखती रही। इस पर कवि की तीन कल्पनायें हैं, पहली-मुख चन्द्र के अमृत Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 125 प्रवाह में मानो डूब गई हों / डूबा हुआ व्यक्ति बड़ी देर से बाहर निकल पाता है, दूसरी-उरोज आपस में इतने सटे हुए थे कि बीच में से निकलने की खाली जगह बहुत कम थी, इसी लिए अटककर खिसकते 2 बड़ी कठिनाई से बाहर निकल सकी, तीसरी-कमर इतनी पतली थी कि मानो नीचे दोनों तरफ की खाइयों में गिर जाने के भय से आँखें धीरे 2 पैर रख रही थीं। पहाड़ी यात्री भली भांति जानते हैं कि पहाड़ों की पतली पगडंडी पर जल्दी 2 चलना कितना खतरनाक होता है / 'गिरे तो चकना चूर' इस तरह यहाँ पृथक् 2 तीन उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि है। मुख पर इन्दुत्वारोप में रूपक है / 'मग्ना, लग्ना' में पादादि-गत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र बृत्त्यनुप्रास है / प्रियाङ्गपान्था कूचयोनिवत्य निवृत्य लोला नलदग्भ्रमन्ती। बभौतमां तन्मृगनाभिलेपतमः समासादितदिग्भ्रमेव // 6 // अन्वयः-प्रियाङ्ग-पान्था लोला नलहक निवृत्य निवृत्य कुचयोः भ्रमन्ती तन्मृग 'भ्रमा इव बभौतमाम् / ____टीका-प्रियायाः दमयन्त्याः अङ्गेषु तत्तदवयवेषु ( 10 तत्पु० ) पान्था नित्यपथिकी ( स० तत्पु०) अत एव लोला सतृष्णा ( लोलश्चलसतृष्णयोः' इत्यमरः ) नलस्य दृक दृष्टि; (10 तत्पु० ) निवृत्य निवृत्य प्रत्यागम्य प्रत्यागम्य कुचयोः उरोजयोः भ्रमन्ती भ्रमणं कुर्वती तयोः कुचयोः मृगनाभिलेपः ( स० तत्पु० ) मृगनाभे: कस्तूरिकायाः लेपः (10 तत्पु० ) एव तमः कृष्णवर्णत्वात् अन्धकारः ( कर्मधा० ) तेन समासादितः प्राप्तः ( तृ० तत्पू०) दिग्भ्रमः ( कर्मधा० ) दिशाम् भ्रमः भ्रान्तिः दिङ्मोह इति यावत् (10 तत्पु० ) यया तथाभूता ( ब० वी० ) इव बभौतमाम् अतितरां बभी शुशुभे इति यावत् / अन्योऽपि जनः निशान्धकारे दिङ्मोहमवाप्तः सन् निवृत्त्य पुनः पूर्वस्थाने एवागच्छति / नल नयने सतृष्णं वारं-वारं तस्या उरोजी पश्यतः स्मेति भावः // 6 // व्याकरण-पान्था पन्थानं नित्यं गच्छतीति पथिन् + ण, पन्थादेश + टाप् चाण्डू पण्डित और विद्याधर पान्थी' पाठ दे रहे हैं, जो व्याकरण से अशुद्ध है, क्योंकि ण प्रत्यय को ङीप् या ङीष् नहीं होता है पथिन् पथ्यते ( गम्यते ) अत्रेति /पथ + इन् ( अधिकरणे) / निवृत्य निवृत्य आभीक्ष्ण्य मे द्विरुक्ति / बभौतमाम् /भा + लिट् + तमप् ( अतिशय में ) + आम् ( स्वार्थ में ) / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 नैषधीयचरिते ___अनुवाद-प्रिया ( दमयन्ती ) के अंगों की पथिका ( अतएव ) ललचाई हुई नलकी आँखें मुड़-मुड़कर कुचों पर भ्रमण करती हुई ऐसी शोभा दे रही थी जैसे कि उन ( कुचों) पर हुए कस्तूरी के लेप के रूप में अन्धकार के कारण वे रास्ता भूल गई हों।६।। टिप्पणी-कुचों पर कस्तूरी-द्रव का लेप काला-काला था, जो आँखों के लिए अंधेरा बन गया। वे बेचारी मार्ग भटक गई, और लौट-लौट कर कुचों पर ही आ जाती थीं जैसे कि दिग्भ्रम में सभी किया करते हैं। भाव यह है कि नल की आँखें वार-बार उसके कुचों पर पड़ती रहती थी; वहाँ से हटती ही नहीं थीं। थहाँ मृगनाभि-लेप पर तमस्त्वारोप होने से रूपक है जो आँखों को हुए दिग्भ्रम की कल्पनायें उत्प्रेक्षा बना रहा है। इस तरह इन दोनों का अङ्गांगिभाव संकर है / 'निवृत्त्य निवृत्त्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विभ्रम्य तच्चारुनितम्बचक्रे दूतस्य दृक्तस्य खलु स्खलन्ती। स्थिरा चिरादास्त तदूरुरम्भास्तम्भावुपाश्लिष्य करेण गाढम् // 7 // अन्वयः-तच्चारु-नितम्बचक्रे विभ्रम्य स्खलन्ती खलु तस्य इतस्य दृक् तदूरु-रम्भास्तभी करेण गाढम् उपाश्लिष्य चिरात् स्थिरा आस्त / टोका-तस्याः दमयन्त्या चारु सुन्दरम् (10 तत्पु० )नितम्बः श्रोणिः एव चक्रम् मण्डलम् तस्मिन् ( उभयत्र कमंधा० ) विभ्रम्य मण्डलाकारेण भ्रमणं कृत्वा अतएव स्खलन्ती पतन्ती खलु इव तस्य दूतस्य नलस्य दृक् दृष्टिः तस्याः दमयन्त्याः ऊरू सक्थिनी एव रम्भास्तम्भौ ( कर्मधा०) रम्भायाः कदल्याः स्तस्भौ काण्डी ( 10 तत्पु० ) करेण रश्मिना एव करेण हस्तेन गाढम् दृढम् यथा स्यात्तथा उपाश्लिष्य आलिङ्गय गृहीत्वेति यावत् चिरात् चिरकालम् स्थिरा निश्चला आस्त स्थितवतीत्यर्थः, यथा कापि बालिका मण्डलाकारे भूखण्डे मण्डलाकारेण भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा अन्ते आत्मानं पतनात् रक्षितुं कमपि स्तम्भ हस्ताभ्याम् आलिङ्गय तिष्ठति तथैव नल-दृष्टिरपि दमयन्त्याः गोलाकारे नितम्बे भ्रमन्ती पश्चात् ऊरु-प्रदेशे तस्याः स्थिराऽभवदिति भावः // 7 // व्याकरण-स्खलन्ती /स्खल् + शतृ + ङीप् / दृक् पश्यतीति दृश् + क्विप् ( कर्तरि ) / गाढ /गाह + क्त ( कर्तरि ) / आस्त/आस् + लट् / / अनुवाद-उस ( दमयन्ती ) के सुन्दर नितम्ब-रूपी चक्र पर धूमकर Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः (नीचे ) गिरती-गिरती-जैसी उस दूत ( नल ) की दृष्टि उस ( दमयन्ती) की जाँघों-रूपी केले के स्तम्भों ( तनों ) को कर ( किरण ) रूपी पर ( हाथ ) से खूब आलिंगन करके देर तक खड़ी रही // 7 // टिप्पणी-बालिकायें यदि किसी गोल घेरेका चक्कर काटती रहें तो उनका सिर रीगने चकराने लगता है और वे गिरने को तय्यार हो जाती हैं / अपने को गिरने से बचाने के लिए वे पास में खम्भे को हाथ से पकड़ लेती हैं और देर तक वहीं खड़ी रहती हैं। यही हाल नल की दृष्टि का भी हुआ। काफी देर तक वह दमयन्ती के नितम्बों का चक्कर काटती रही और बाद उसकी जाँघों पर जा टिकी। यहाँ नितम्ब पर चक्रत्वारोप, ऊरुओं पर रम्भास्तम्भारोप और कर पर करत्वारोप होने से साङ्ग-रूपक है जो कर शब्दों में रिलष्ठ है / उसके साथ 'स्खलन्ती खलु' में उत्प्रेक्षा का संकर है / मल्लिनाथ के अनुसार दृक् पर चेतन बालिका का ब्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति भी है। 'तस्य' 'तस्य' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। करेण-आँखों की रश्मि बताकर कवि का यहाँ न्यायसिद्धान्त की ओर संकेत है। उसके अनुसार किसी भी पदार्थ के प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रियार्थ-सन्निकर्प आवश्यक होता है / आँख भी बिना संनिकर्ष के ग्रहण नहीं कर सकती। संनिकर्ष सम्बन्ध को बोलते हैं, लेकिन हम देखते है कि आँख पदार्थों के बिना संयोग को दूर से ही ग्रहण कर लेती है। इससे अनुमान किया जाता है कि आँख में रश्मि होती हैं जिसके द्वारा पदार्थों के साथ उसका संनिकर्ष होता है। किन्तु दीये की रश्मि की तरह हमारी आँखों की रश्मि दिखाई नहीं पड़ती हैं अदृश्य रहती है यद्यपि मानवेतर कुछ नक्तचर जीवों-बिल्ली, बाघ, सिंह, उल्लू आदि की आँखों की रश्मि रात को चमकी रहती है ( अधिक के लिए न्यायदर्शन पढ़िये ) / वासः परं नेत्रमहं न नेत्रं किमु त्वमालिङ्गय तन्मयापि / उरोनितम्बोरु कुरु प्रसादमितीव सा तत्पदयोः पपात // 8 // अन्वयः-"(हे दमयन्ति ! ) वासः परम् नेत्रम्, अहं नेत्रम् न किमु ? तत् मया अपि उरोनितम्बोरु आलिङ्गय, प्रसादम् कुरु" इति इव सा तत्पदयोः पपात / टीका-(हे दमयन्ति !) वासः वसनम् उत्तमजातीय-कौशेय-वस्त्रमिति यावत् परं केवलम् नेत्रम् नेत्रशब्दवाच्यम् ( 'स्याज्जटांशुकयोर्नेत्रम्' इत्यमरः) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 नैषधीयचरिते अस्तीति शेषः अहम् अपि नेत्रम् नेत्रशब्द-वाच्यम् न किमु ? अपि तु अहमपि नेत्रमस्मीति काकुः / तत् तस्मात् उभयोरपि नेत्रशब्दवाच्यत्वकारणादिति यावत् त्वम् नेत्रेण वाससा इव नेत्रेण इन्द्रियेण मया अपि स्वकीयम् उरः वक्षश्च नितम्बः सक्थि जघनयोः पश्चाद्-भाग इति यावत् च ऊरु जघने चेतसां समाहारः इति ( समाहार द्वन्द्व ) आलिङ्गय आश्लिष्य यथा नेत्राख्यं वासः त्वम् स्वाङ्गानि आलिङ्गितुं ( वेष्टयितुम् ) अनुमन्यसे तथा नेत्राख्यम् इन्द्रियं मामपि स्वाङ्गानि आलिङ्गितुं ( द्रष्टुम् ) अनुमन्यस्व तुल्यन्यायादिति भावः / (हे दमयन्ति !) मयि प्रसादं कृपां कुरु विधेहि इति एतत्कारणात् इव सा नलस्य दृक् तस्याः दमयन्त्याः पदयोः चरणयोः प्रार्थना-रूपेण पपात अपतत् / / // 8 // __व्याकरण--- वासः वस्ते (आच्छादयति शरीरम् ) इति वस् + अस्, णिच्च / प्रसादः प्र + /सद् + घञ् ( भावे ) / पपात/पत् + लिट् / अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) रेशमी वस्त्र ही नेत्र नहीं, मैं ( आँख ) भी नेत्र नहीं हूँ क्या ? इसलिए मुझको भी ( अपने ) वक्षः, नितम्व और जधन का आलिंगन कराओ" इस कारण से मानो वह ( नल की दृष्टि) उस ( दमयन्ती) के पाँवो में गिर गई // 8 // टिप्पणी- कवि ने द्वयर्थक-रेशमी वस्त्र और आँख का वाचक - नेत्र शब्द को लेकर बड़ी मार्मिक कल्पना की है। रेशमी वस्त्र ( नेत्र ) दमयन्ती के अंगों का आलिंगन अर्थात् आच्छादन किये हुए हैं। दूसरे नेत्र ( आँख ) को ईर्ष्या हो गई कि नेत्र होने के नाते ही उसे भी अंगों के आलिंगन अर्थात् देखने की यह सुविधा मिलनी चाहिए, क्योंकि वह भी तो नेत्र है। यह सुविधा देने की कृपा करने के लिए मानो वह प्रार्थना के रूप में दमयन्ती के पाँवों में गिर गया। भाव यह है कि नल की आँख उसकी छाती, नितम्ब और जाँघों को देखने के बाद उसके पाँव निहारने लगी। यहाँ उत्प्रेक्षा स्पष्ट ही है, जिसका वाचक शब्द 'इव' है / 'नेत्र' 'नेत्रं' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दशोर्यथाकाममथोपहृत्य स प्रेयसीमालिकूलं च तस्याः। इदं प्रमोदाद्भुतसंभृतेन महीमहेन्द्रो मनसा जगाद // 9 // अन्वयः-अथ महीमहेन्द्रः स प्रेयसीम् तस्याः आलिकुलम् च दृशोः यथाकामम् उपहृत्य प्रमोदाद्भुतसंभृतेन मनसा इदम् जगाद / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः टीका-अथ अनन्तरम् मह्याः पृथिव्याः महेन्द्रः (10 तत्पु० ) महान इन्द्रः ( कर्मघा० ) अधिपतिः स नलः प्रेयसीम् प्रियतमाम् तस्याः प्रेयस्याः दमयन्त्या आलीनाम् सखीनाम् कुलम् समूहम् ( 10 तत्पु०) च दृशोः नयनयोः कामम् इच्छाम् अनतिक्रम्य इति यथाकामम् यथेच्छम् ( अव्ययी० ) उपहृत्य उपायनीकृत्य पुरः स्थापयित्वेत्यय: प्रमोदः प्रेयस्याः दर्शनेन प्रकृष्ट आनन्दश्व अद्भुतम् तत्सौन्दर्यदर्शनेन आश्चर्य चेति ताभ्याम् ( द्वन्द्वः ) संभृतेन पूर्णेन मनसा अन्तःकरणेन इदम् अग्रे वक्ष्यमाणं जगाद अकथयत् / प्रेयसी दमयन्तीम् तत्सखीञ्च विलोक्य तत्सौन्दर्यातिशयेन प्रमुदितश्चकितश्च नलो मनसि व्यचिन्तयदिति भावः // 9 // व्याकरण-इन्द्र इन्दतीति इद्-(ऐश्वर्ये )+रन् ( कर्तरि ) प्रेयसी अतिशयेन प्रिया इति प्रिय + ईयसुन् + ङीप् / काम: कम् + घन ( भावे ) / अद्भुतम् यास्कानुसार अभूतमिवेति ( पृषोदरादित्वात् साधुः ) / अनुवाद--इसके बाद पृथिवी के महान् इन्द्र वह ( नल) प्रियतमा और उसकी सखियों को ( अपनी ) आँखों के प्रति भेंट करके अतिशय आनन्द और आश्चर्य-भरे मन में बोले / टिप्पणी-'भृत' 'भृते' तथा 'मही' 'नहे' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / पदे विधातुर्यदि मन्मथो वा ममाभिषिच्येत मनोरथो वा। तदा घटेतापि न वा तदेतत्प्रतिप्रतीकाद्भुतरूपशिल्पम् // 10 // अन्वयः-यदि विधातुः पदे मन्मथः वा मम मनोरथः वा अभिषिच्येत, तदा अपि तत् एतत् प्रतिशिल्पम् घटेत न वा (घटेत ) / टीका-यदि चेत् विधातुः सर्वजगन्निर्मातुः ब्रह्मणः पदे स्थाने मन्मथ: कामः वा अथवा मम मे मनोरथः अभिलाषो भावना कल्पनेति यावत् अभिषिच्येत प्रतिष्ठाप्येत ब्रह्मणः जगन्निर्माणाधिकारः कामस्य मम कल्पनाशक्तेर्वा हस्ते आगच्छेत् चेदिति भावः, तदा अपि तद्यपि तत् अनिर्वचनीयम् एतत् पुरः स्थितम् प्रतीके प्रतीके इति प्रतिप्रतीकम् प्रत्यवयवम् ( अव्ययी० ) यत् अद्भुतम् आश्चर्यकरम् रूपम् सौन्दर्यम् तस्य शिल्पम् निर्माण-नैपुणी घटेत जायेत न वा घटेत / एतादृशं प्रत्यवयव-निर्माण-कौशलं न कामेन, न मे कल्पनया वापि निर्मातुं शक्यते किं पुनर्ब्रह्मणेति भावः // 10 // ध्याकरण-विधातु: विदधाति (निर्माति ) इति वि + /धा + तृच् Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 नैषधीयचरिते ( कर्तरि ) / मन्मथः मथ्नातीति /मथ + अच ( कर्तरि ) मनसः मथ इति (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / अभिषिच्येत अभि + /सिच् + वि० लिङ्, स को ष ( कर्मवाच्य ) / अद्भुत इसके लिए पिछला श्लोक देखिए। . - अनुवाद-यदि ब्रह्मा के स्थान में कामदेव अथवा मेरी कल्पना को बिठा दिया जाय, तब भी अनिर्वचनीय यह प्रत्येक अङ्ग के अद्भुत सौन्दर्य का निर्माण-कौशल बन सके या न बन सके / / 10 // टिप्पणी-दमयन्ती के अङ्ग-अङ्ग का अद्भुत सौन्दर्य देखकर मुंह बाये नल मनमें यह कल्पना करने लगे कि बूढ़ा ब्रह्मा भला ऐसा शिल्प-निर्माण कैसे कर सकता है ? स्वयं कामदेव तक भी ऐसी सजीव मूर्ति क्या ही गढ़ पायेगा / यह तो मेरी कल्पना से भी परे की नैपुणी है। मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ ब्रह्मा के दमयन्ती के निर्माण से सम्बन्ध होते भी असम्बन्ध बताने में सम्बन्धे असम्बन्धातिशयोक्ति और कामदेव अथवा नलकल्पना द्वारा निर्माण से असम्बन्ध होते हुए भी सम्बन्ध की संभावना में असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है। 'प्रति' 'प्रती' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास हैं। तरङ्गिणी भूमिभतः प्रभूता जानामि शृङ्गाररसस्य सेयम् / लावण्यपूगेऽजनि यौवनेन यस्यां तथोच्चैस्तनताघनेन // 11 // अन्वयः-'सा इयम् भूमिभृतः प्रभूता शृङ्गाररसस्य तरङ्गिणी' ( इति ) जानामि, यस्याम् तथा उच्चस्तनताधनेन यौवनेन (एव) उच्चस्तनता घनेन लावण्य-पूरः अजनि / टाका-सा इयम् दमयन्ती भूमिम् बिति धारयतीति तथोक्तात् भूभृतः ( उपपद तत्पु० ) भूमिपालात् भीमात् नृपात् एव भूमिभृतः पर्वतात् प्रभूता उत्पन्ना शृङ्गाररसस्य एतदाख्यरसविशेषस्य एव रसस्य जलस्य तरङ्गः उद्भकः एव तरङ्गाः वीचयः अस्यां सन्तीति तथोक्ता नदीत्यर्थः ( 'अथ नदी सरित् / तरांझणी' इत्यमरः ) अस्तीत्यहं जानामि अवगच्छामि, यस्याम् दमयन्तीरू - तरङ्गिण्याम् तथा तेन प्रकारेण उच्चैः उन्नती स्तनो कुचौ यस्यास्तथाभूतायाः * ( ब० बी० ) भावः तत्ता तया घनेन निविडेन यौवनेन तारुण्येन एव उच्चैः तारं यथा स्यात्तथा स्तनता गर्जता घनेन मेघेन लावण्यम् सौन्दर्यम् तस्य पूरः पूतिः एव पूरः जल-प्रवाहः ( 'पूरो जलप्रवाहः स्यात्' इति विश्वः ) ( 10 तत्पु० ) अजनि जनितः / यौवनजनितकामोद्र का दमयन्ती सौन्दर्य-नदी प्रतीयते इति भावः // 11 // Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 3. व्याकरण-भूमिभृत भूमि/भृ + क्विप् ( कर्तरि ) तुगागम / शृङ्गारः 'शृङ्ग हि मन्मथोद्भेदः' तस्य आरः प्रापकः आरयतीति /ऋ+ णिच् + अच् ( कर्तरि ) / 'सेयम् 'तङ्गिणी' यह सारा विशेष्यात्मक उपवाक्य 'जानामि' का कर्म वना हुआ है। यौवनम् यूनो युवत्या वा भावः इति युवन् + अण् / पूरः पूर् + घन्। अनुवाद—'वह यह ( दमयन्ती ) भूमिभृत् ( पर्वत ) से निकलो, तरङ्ग ( कामोद्रक ) रूपी तरङ्गों वाली शृङ्गाररस-रूपी रस ( जल ) की नदी है, जिसमें उच्चस्तनता (उच्चकुचता ) से घने (निविड़ ) यौवन-रूपी उच्चस्तनन ( जोर की गर्जना ) करने वाले धन ( मेघ) ने लावण्य के पूर ( अतिशयता) के रूप में पूर-जल की बाढ़ ला दी है // 11 // टिप्पणी-दमयन्ती भरकर जवानी में है। हृदय में काम-वासना लहरा रही है / स्तन ऊँचे उठे हुए हैं तथा सौन्दर्य में पूरा निखार आया हुआ है। इस वात को कवि रूपक की सर्वाङ्गीण अप्रस्तुत योजना द्वारा अभिव्यक्त कर रहा है। रूपक का कोई अंग अछूता नहीं रहा, अतः वह समस्त वस्तु-विषयक बना हुआ है / शब्दों में श्लेष का पुट है / राजा भीम बना पर्वत, शृङ्गार बना जल, कामोद्रक बना तरङ्ग, दमयन्ती बनी नदी, उसकी घनी उच्चस्तनता बनी ऊँची मेघ गर्जना, यौवन बना धन ( मेघ ) लावण्य-पूर ( पूरा सौन्दर्य-निखार ) बना बाद। रूपक के साथ भूमिभृत् आदि में भेदे अभेदातिशयोक्ति भी है, क्योंकि वे सब भिन्न-भिन्न अर्थों के प्रतिपादक हैं. लेकिन कवि ने श्लेष द्वारा उनमें अभेदाव्यवसाय कर रखा ह / मल्लिनाथ 'जानामि' शब्द को संभावना-वाचक मानकर उत्प्रेक्षा भी कह रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से यहाँ उत्प्रेक्षा नहीं बनती क्योंकि वह उपमा और रूपक के बीच की कड़ी होती है। यहाँ देखा तो दमयन्ती आदि के साथ पूरा तादात्म्य स्थापित है, कल्पना नहीं है। शब्दालंकारों में 'भृतः' "भूना' में छेक, 'वनेन' 'घनेन' में तुक मिलने से पादान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अस्यां वपुयू हविधानविद्यां किं द्योतयामास नवां' स कामः / प्रत्यङ्गसङ्गस्फुटलब्धभूमा लावण्यसोमा यदिमामुपास्ते // 12 // 1. नवामवाप्ताम् Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 नैषधीयचरिते अन्वयः यत् प्रत्यङ्ग भूमा लावण्यसीमा इमाम् उपास्ते, ( तत् ) स काम नवाम् वपुः"विद्याम् अस्याम् द्योतयामास किम् ? टोका-यत् यस्मात् अङ्गम् अङ्गम् प्रति इति प्रत्यङ्गम प्रत्यवयवम् ( अब्ययी० ) प्रत्येकाने इति यावत् संग: ( लावण्यस्य ) सम्बन्धः तेन स्फुटलब्धः (तृ० तत्पृ०) स्फुटं स्पष्टं यथा स्यात् तथा लब्धः प्राप्तः (सुप्सुपेति समास:) भूमा वैपुल्यं विस्तार इति यावत् ( कर्मधा० ) येन तथाभूता ( ब० बी० ) लावण्यस्य सौन्दर्यस्य सीमा अवधिः पराकाष्ठेति यावत् इमाम् दमयन्तीम् उपास्ते भजते यतः दमयन्त्याम् अङ्गेनाङ्गेन समृद्धि नीता लावण्यस्य पराकाष्ठा विद्यते इत्यर्थः तस्मात् स प्रसिद्धः कामः मदनः नवाम् अपूर्वाम् वपुः शरीररूपः व्यूहः समूहः ( कर्मधा० ) वपृव्यूहः, वपुर्हि तत्तद्धस्तपादादीनां संघातरूपम्, भवति तस्य विधानस्य निर्माणस्य विद्याम् शास्त्रम् कलामिति यावत् अस्याम् दमयन्त्याम् नत्वन्यस्याम् द्योतयामास प्रकाशयामास किम् ? बाल्यावस्थानन्तरम् यौवने उदयति कामेन प्रत्यङ्गं विलक्षण-सौन्दर्यमाधाय तस्याः शरीर-संघाते अपूर्व-परिवर्तनकौशलम् प्रदर्शितमिति भावः // 12 // __व्याकरण-भूमा बहोर्भाव इति वहु+ इमनिच, इ का लोप और भू आदेश नान्त होने से ङीप् प्राप्त था किन्तु 'मन.' ( 4 / 1 / 11 ) से निषेध हो गया। सीमा यास्काचार्यानुसार 'विसीव्यति' देशौ इति /सीव + मनिन् ( पृषोदरादित्वात् साधुः ) / यहाँ भी उपरोक्त की तरह ङीप-निषेध है। व्यूहः वि + V ऊह + घम् / द्योतयामास/द्युत् + णिच्+लिट् / अनुवाद- क्योंकि अंग-अंग से सम्बन्ध होने के कारण स्पष्टतः अतिशय में पहुँचे सौन्दर्य की पराकाष्ठा इस ( दमयन्ती ) में विद्यमान है, इसलिए काम ने इसके शरीर-संघात की रचना में अपूर्व कला-कौशल दिखाया है क्या ? // 12 // टिप्पणी-दमयन्ती का शरीर वाल्यावस्था चलौ जाने पर युवावस्था में पदार्पण करते ही आंगिक संरचना में विलकुल नयापन अपना बैठा / कामदेव स्वयं दौन्दर्य की पराकाष्ठा है। अतः ऐसा लगता है कि उसने ही दमयन्ती के अंग-प्रत्यंग में लोकातीत सौन्दर्य भरकर उसकी युवा-कालीन शारीरिक रचना के गठन में अपनी कला का कमाल कर दिखाया है। नारायण के अनुसार भैमी के अंग-अंग में काम के विद्यमान होने से उसने उसमें अपना बहु-रूपत्व प्रकट किया है। जिस तरह उसका मुख देखने से काम का प्रादुर्भाव होता है, उसी तरह उसकी Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 133 आंखों के देखने से भी / अभिप्राय यह कि उसका एक-एक अंग देखने से समूचे काम का प्रादुर्भाव हो जाता है। यहाँ उत्प्रेक्षा है, जो 'किम्' शब्द द्वारा वाच्य हो रही है। 'त्यङ्ग' 'सङ्ग' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। जम्बालजालात्किमर्षि जम्बूनद्या न हारिद्रनिभप्रभेयम् / अप्यङ्गयुग्मस्य न सङ्गचिह्नमुन्नीयते दन्तुरता यदत्र // 13 // ___ अन्वयः-हारिद्र-निभ-प्रभा इयम् जम्बूनद्याः जम्बाल-जालात् न अकर्षि किम् ? यत् अत्र अङ्गयुग्मस्य सङ्ग-चिह्नम्, दन्तुरता अपि न उन्नीयते / टीका-हरिद्रया काञ्चन्या ( 'निशाख्या काञ्चनी पीता हरिद्रा' इत्यमरः) रक्तं वसनम् हारिद्रम् तद्वत् इति तन्निभा ( उपमान तत्पु० ) प्रभा कान्तिः यस्याः तथाभूता ( ब० ब्रो० ) इयम् एषा दमयन्ती जम्बूनद्याः सुमेरुपर्वतसमीपात् वहन्त्याः स्वर्णनद्याः जम्बालस्य कर्दमस्य मृत्तिकाया इति यावत् ('निषद्वरस्तु जम्बालः पङ्कोऽस्त्री शाद-कर्दमौ' इत्यमरः ) जालात् समूहात् ( जालं समूह मानायः' इत्यमरः ) न अकर्षि आकृष्टा किम् ? अकर्षि एवेति काकुः / यत् यतः अत्र अस्याम् दमयन्त्याम् अङ्गयोः अवयवयोः युग्मस्य यस्य (10 तत्पु०) सङ्गस्य सन्धानस्य चिह्नम् लक्षणं दन्तुरता उन्नतावनतत्वम् अपि न उन्नीयते नानुमीयते; अस्याः हस्तपादादीनां सन्धि-स्थानानि सुसंघटितानि सन्तीति भावः // 13 // व्याकरण-हारिद्र हरिद्रा + अण् / प्रभा प्र + /भा + अङ् ( भावे ) + टाप् / अकर्षि/कृष् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / युग्म/युज् + मक् कुत्वम् / दन्तुरता उन्नताः दन्ताः सन्त्यस्येति दन्त + उरच = दन्तुरः तस्य भाव इति दन्तुर + तल् + टाप / उन्नीयते उत् + /नी + लट् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-हल्दी-रंगे वस्त्र की-सी कान्ति वाली यह ( दमयन्ती ) जम्बू नदी की मिट्टी के ढेर में से नहीं खींच निकाली गई है क्या ? कारण यह है कि ( दमयन्ती ) में दो अंगों के सन्धान-जोड़ का चिह्न और ऊँचा-नीचापन नहीं मालूम हो रहा है // 13 // टिप्पणी-दमयन्ती की शारीरिक कान्ति हल्दी-की-सी पीली थी जिससे ऐसा लगता था मानो जम्बू नदी की मिट्टी के बीच में से किसी ने इसे निकाला Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 नैषधीयचरिते हो / जैसा हम पीछे सर्ग 6 श्लोक 72 में स्पष्ट कर चुके हैं-जम्बू नदी सुवर्णपवंत सुमेरु से निकलती है, जिसकी मिट्टी स्वर्णिल ही है। इसीसे सोना भी निकलता है जिसके कारण सोना का नाम 'जाम्बूनद' पड़ा है। नारायण 'जम्बूनद्याः = जम्बूफलरसजातनद्याः' अर्थ करते हैं, जो हमारी समझ में नहीं आता है / जामुन के रस की नदी हमने कहीं नहीं सुनी है, दूसरे दमयन्ती की देहकान्ति जामुनी रंग की नहीं, बल्कि स्वणिल रंग की थी। स्वर्णिल मिट्टी शरीर पर लग जाने से मानो उसके शरीर के जितने भी जोड़ के स्थान--कन्धे, कोहनी, घुटने टखने हैं, वे सब बराबर अथवा भरे हुए हैं, ऊंचे-नीचे नहीं हैं जैसे दुर्बलों के देखे जाते हैं / सन्धि स्थानों से भिन्न स्थान जैसे कुच अथवा कमर का ऊँचा नीचापन तो स्वाभाविक ही था / 'हारिद्रनिभप्रभा' में उपमा है / जम्बू नदी की मिट्टी में से निकाली जाने की कल्पना में उत्प्रेक्षा है, जो 'किम्' शब्द द्वारा वाच्य हो रखी है, लेकिन विद्याधर यहाँ अनुमानालंकार मान रहे हैं। 'जम्बा' 'जम्बू' में छेक, 'प्यङ्ग' 'सङ्ग' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सत्येव साम्ये सदशादशेषाद्गुणान्तरेणोच्चकृषे यदङ्गैः। अस्यास्ततः स्यात्तुलनापि नाम वस्तु त्वमीषामुपमापमानः // 14 // अन्वयः-यत् अङ्गः साम्ये सति एव सदृशात् अशेषात् गुणान्तरेण उच्चकृष, ततः अस्याः ( अङ्गः ) तुलना अपि स्यात् नाम, तु अमीषाम् वस्तु उपमा अपमानः / ___टीका-यत् यस्मात् अङ्गैः दमयन्त्याः अवयवैः मुख-नयनादिभिः (कर्तृभिः) यत्किञ्चिद्गुणेन चन्द्रादिना साम्ये सादृश्ये सति वर्तमाने एव अपि सदृशात् समानात् अशेषात् चन्द्रादिरूपानिखिलवस्तुजातात् निखिलवस्तुजातापेक्षयेत्यर्थः / अन्यो गुणः विशेषधर्मः निष्कलंकत्वादिः तेन उच्चकृषे उत्कृष्ठीभूतम्, चन्द्रादिना सह दमयन्त्या अङ्गानां यत्किञ्चित् गुणेन वर्तुलाकारत्वाह्लादजनकत्वादिना यद्यपि साम्यं वर्तते, तथापि गुणान्तरेण निष्कलङ्कत्वादिना तानि सर्वमपि सदृशं चन्द्रादिकम् अतिशेरते एवेति तानि चन्द्राद्यपेक्षयोत्कृष्टानि सन्तीति भावः, ततः तस्मात् अस्याः दमयन्त्याः अङ्गरिति शेषः चन्द्रादीनां तुलना उपमा स्यात् भवेत् नामेति कोमलामन्त्रणे / चन्द्रादीनि दमयन्त्याः अङ्गानां सदृशानि सन्तीत्युपमया अपि भाज्यम् अङ्गानामधिकगुणत्वात्, अधिकगुणस्यैवचोपमानत्वनियमात्, तु किन्तु Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सगः 135 अमीषाम् एतेषां दमयन्त्याः अङ्गानामित्यर्थः वस्तु चन्द्रादि-पदार्थः उपमा उपमानम् अपमान: अवमानना अस्तीतिशेषः / दमयन्त्या अङ्गानि चन्द्रादितुल्यानि सन्तीति तेषामपमानः / वस्तुतः चन्द्रादीनि अस्या मुखादीनां सदृशानीत्येव वाच्यम् न पुनः अस्याः मुखादीनि चन्द्रादिसदृशानीति भावः // 14 // व्याकरण-साम्ये समस्य भाव इति सम + व्यञ् / “उच्चकृषे उत् + कृष् + लिट ( भाववाच्य ) / तुलना तुल + णिच् + युच्, यु को अन + टाप् / उपमा उपमीयतेऽनयेति उप + /मा + अङ् (करणे) + टाप् ( उपमानमित्यर्थः)। अनुवाद-क्योंकि ( दमयन्ती के ) अङ्ग ( यत्किञ्चित् गुण में ) साम्य रखते हुए भी अन्य गुण के कारण उन सभी समानों-चन्द्रादि पदार्थों-की अपेक्षा उत्कृष्ट हुए पड़े हैं, इसलिए इस ( दमयन्ती के अंगों से उनकी तुलना भले हो भी जाय, लेकिन चन्द्रादि पदार्थों को इनका उपमान वनाना ( इनका ) अपमान है / / 14 ! / टिप्पणी-यह साहित्य-जगत् का नियम अथवा कवि-ख्याति है कि उपमान को हमेशा गुण में उपमेय की अपेक्षा अधिक ही होना चाहिए / मुख की चन्द्र से, आँख की इन्दीवर से, अधर की बिम्ब से उपमा में यही बात दीखनी चाहिए, लेकिन कवि दमयन्ती के इन अंगों के आगे चन्द्रादि को हीन बताकर उपमान कोटि से हटा रहा है। चन्द्र में मुख का-सा वतुंलाकार और आह्लादजनकता ठीक है, किन्तु सभी गुणों में वह मुख की बराबरी नहीं कर सकता। चन्द्र क्षयशील है, सकलंक है, लेकिन मुख में यह बात नहीं। इन्दीवर भले ही आकार और नीलिमा में आँख-जैसा हो, किन्तु आँख में कटाक्षपातादि गुण उससे अधिक हैं। इसी तरह अन्य उपमानों में भी कमी का और अंगों में गुणाधिक्य का अन्दाज लगा लीजिए। ऐसी स्थिति में गुणाधिक्य के कारण दमयन्ती के अंगों को ही चन्द्रादि का उपमान बनना चाहिए, उपमेय नहीं। उनकी चन्द्रादि से तुलना करना अन्याय है, उनका घोर अपमान है। यहाँ उपमानों को उपमेयों की अपेक्षा गिराकर दिखाया गया है, अतः प्रतीपालंकार है। शब्दालंकारों में 'दृशा' 'दशे' 'मुप' 'मार' में छेक है, जिसके साथ ‘पमा' 'पम' से बन रहे यमक का एकवाचकानुप्रवेश संकर है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / वस्तु''मान:-विश्वेश्वर के अनुसार 'अमीषाम् अङ्गानाम् उपमा समीकरणम् वस्तु यथार्थस्तु अपमानो लघुकरणम् अर्थ हैं / श्लोक में शब्दों के अध्याहार के कारण अर्थगत क्लिष्टता दोष Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधीयचरिते है, साथ ही 'सत्येव' में अवधारणार्थक एव शब्द को कवि ने विरोधार्थक अपि शब्द के स्थान में प्रयुक्त किया है। एव विरोधवाचक होता ही नहीं, अतः अवाचकत्व दोष भी है। पुराकृतिस्त्रैणमिमां विधातुमभूद्विधातुः खलु हस्तलेखः / येयं भवद्भाविपुरंध्रिसृष्टिः सास्यै यशस्तज्जयजं प्रदातुम् // 15 // अन्वयः-पुराकृतिः स्त्रैणम् इमाम् विधातुम् विधातुः खलु.हस्तलेखः अभूत्; या इयम् भवद् सृष्टिः सा अस्य तजयजम् यशः प्रदातुम् ( अस्ति ) / ____टोका-पुरा पूर्व कृतिः निर्माणम् ( सुप्सुपेति समासः ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) स्त्रैणम् ( उर्वश्यादि ) स्त्रीसमूहः इमाम् दमयन्तीम् विधातुम् निर्मातुम् खलु इव हस्तस्य लेख:: (10 तत्सु० ) हस्तकृतं स्थूल-लेख्यमित्यर्थः स्थूलरूपरेखेति यावत् अभूत जातः / विधात्रा पूर्व या अपि सुन्दर्यः सृष्टाः ताः सर्वा दमयन्ती-निर्माणार्थं पूर्वाभ्यास-रूपा एवेति भावः / या च इयम् भवन्त्यः वर्तमानाश्च भाविन्यः भविष्यन्त्यश्च पुरंध्रयः स्त्रियः ( उभयत्र कर्मधा० ) तासां सृष्टिः निर्माणम् (10 तत्पु०) अस्तीति शेषः, सा सृष्टिः अस्यै दमयन्त्यै तासा, भवद्-भावि-पुरंध्रीणाम् यो जयः सौन्दर्येण पराभवः (10 तत्पु० ) तस्मात् जायते उत्पद्यते इति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) यशः कीर्तिम् प्रदातुम् वितरीतुम् अस्ति / पूर्वा स्त्रीसृष्टि: दमयन्ती-निर्माणार्थम् ब्रह्मणो हस्ताभ्यासः वर्तमानभविष्यत्कालयोश्च क्रियमाणा स्त्रीसृष्टिश्च दमयन्तीकृते तज्जयोत्थयशोलाभायेति भावः // 15 // व्याकरण-कृतिः कृञ् + क्तिन् ( भावे ) / स्त्रैणम् स्त्रीणाम् समूह इति स्त्री + नञ् , णत्व / पुरंध्रिः पुरम् = गृहजनम् धारयतीति पुर + + खच् + डीप विकल्प से ह्रस्व ( ‘ड्यापोः संज्ञा०' 6 / 3 / 63 ) / जयजम् जय + / जन् + ड। अनुवाद-पहले की रची हुई स्त्रियाँ तो इस ( दमयन्ती ) को रचने हेतु मानो विधाता की स्थूल रूपरेखायें-पूर्वाभ्यास थीं और जो यह वर्तमान और मविष्यकाल की स्त्रियों की सृष्टि है, वह इस ( दमयन्ती ) को उनके पराजय से होनेवाला यश प्रदान करने हेतु है // 15 // टिप्पणी-कवि नल के हाथों दमयन्ती को सर्वसौन्दर्यातिशयी रूप में Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 130 चित्रित कर रहा है / इसे बनाने में विधाता को बड़ा प्रयत्न करना पड़ा। पहले कितने ही 'हस्तलेख' हस्तकौशल प्राप्त करने के लिए स्थूल खाकियां-रफ स्केच ( Rough Sketch )-खींचने पड़े, जो उर्वशी आदि सुन्दरियों के रूप में थे। जब पूरा हस्तकौशल प्राप्त हो गया, तब जाकर कहीं उसके हाथों दमयन्ती की रचना हो सकी है। प्रश्न उठता है कि विधाता जब सौन्दर्य की चूड़ान्तरचना दमयन्ती के रूप में कर बैठा है तो वह अब फिर क्यों स्त्रियों की रचना कर रहा है और भविष्य में भी क्यों करता जायगा ? इसका उत्तर कवि के पास यह है कि वर्तमान और भविष्यत्कालीन अन्य स्त्रियों की रचना के पीछे ब्रह्मा का यह प्रयोजन है कि वह दमयन्ती को यह यश भी तो दे दे कि वह भूत-भविष्यत्-वर्तमान-तीनों कालों की स्त्रियों को पराजित किये हुए हैं / यहाँ 'पुराकृति स्त्रैण' पर विधाता के 'हस्तलेख' की कल्पना पर उत्प्रेक्षा है, जो खलुशब्द-बाच्य है / 'विवातुं' 'विधातुः' 'भव' 'भावि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भव्यानि हानीरगरेतदङ्गाद्यथा यथानति तथा तथा तैः / अस्याधिकस्योपमयोपमाता दाता प्रतिष्ठां खलु तेभ्य एव // 16 // अन्वयः-भव्यानि ( वस्तूनि ) एतदङ्गात् यथा यथा हानीः अगुः, तथा तथा तैः अनति / खलु अधिकस्य अस्य उपमया उपमाता तेभ्यः प्रतिष्ठाम् एव दाता। टीका-यानि रमणीयानि चन्द्रादिवस्तूनीति शेषः एतस्याः दमयन्त्याः अङ्गात् ( जातावेकवचनम् ) अवयवेभ्य इत्यर्थः तथा यथा येन येन प्रकारेण हानी: अपकर्षान् अगुः प्रापुः तथा तथा तेन तेन प्रकारेण तैः चन्द्रादिवस्तुभिः अनति नृत्तम् / खलु यतः अधिकस्य गुणः उत्कृष्टस्य अस्य दययन्त्या अङ्गस्य उपमया तुलनया उपमाता उपमाप्रयोक्ता कविरित्यर्थः तेभ्यः चन्द्रादिभ्यः प्रतिष्ठाम् गौरवम् एव दाता दास्यति / दमयन्त्मा अङ्गापेक्षया गुणैरपकृष्टत्वेऽपि उपमान्तरस्याभावात् चन्द्रादयः तन्मुख सदृशा इति औपम्यं प्रयुञ्जानस्य कवेः हस्ते तेषां गौरवमेव सम्पत्स्यते इति भावः // 16 // व्याकरण-भव्यानि भवतीति /भू + यत् कर्तरि ( 'भव्य-गेय.' 3 / 4 / 68) से ( निपातित ) / हानिः /हा + नि ( 'ग्लाम्ला-जहातिभ्यो निर्वक्तव्यः' Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 नैषधीयचरिते क्तिनोऽपवादः)। अगुः /इ + लुङ, इ को गा आदेश, सिच का लोप / अनति /नृत् + लुङ ( भाववाच्य ) ! उपमा उप + /मा + अङ् ( भावे ) + टाप् / उपमाता उपमिनोतीति उप + /मा + तृच ( कर्तरि ) / प्रतिष्ठाम् प्रति + स्था + अङ् ( भावे ) + टाप् / दाता /दा+ लुट् ! अनुवाद-( चन्द्रादि ) सुन्दर वस्तुयें इस ( दमयन्ती ) के अंगों की अपेक्षा जैसे-जैसे ( गुणों में ) हीन होती गई, वैसे-वैसे वे ( आनन्द में ) नाचीं, क्योंकि गुणों में ( अधिक ) इन ( अंगों ) के साथ उपमा देने के कारण उपमाता ( कवि ) उन्हें गौरव ही प्रदान करेगा / / 16 // टिप्पणी-दमयन्ती के मुख, आँख, अधर आदि तो चन्द्र, इन्दीवर, बिम्ब आदि की अपेक्षा गुण में कहीं अधिक उत्कृष्ट हैं, फिर भी जब मुखादि के लिए कोई अन्य उपमान न होने से कवि लोगों को उनको चन्द्रादि से तुलना करनी पड़ेगी अर्थात् उनकी तरह चन्द्रादि हैं, तो यह चन्द्रादि के लिए कितने गौरव को बात होगी कि वे गुणहीन होने पर भी कवियों की कृपा से दमयन्ती के मुख आदि के उपमेय बने हुए हैं। वे अपने को धन्य समझेंगे। उनके हर्ष में नाचने का यही कारण है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र हानि-गमन-नर्तनक्रिया विरोधालंकारः'। हम यहाँ नर्तनक्रिया का कारण बताने से कालिंग कहेंगे / 'यथा' 'यया', 'तथा तथा' और 'पम' 'पमा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। नास्पशि दृष्टापि विमोहिकेयं दोषरशेषैः स्वभियेति मन्ये / अन्येषु तैराकुलितस्तदस्यां वसत्यसापत्न्यसुखी गुणोघः // 17 // अन्वयः-( यत् ) दृष्टा अपि विमोहिका इयम् स्वभिया अशेषः दोषः न अस्पशि' इति मन्ये, तत् अन्येषु तैः आकुलितः गुणोधः असापत्न्य-सुखी सन् अस्याम् वसति / टोका-( यत् यस्मात् ) दृष्टा दृष्टिगोचरीभूता अपि विमोहिका विमुग्धीकारिका मूर्छाकारिणीति यावत् इयम् दमयन्ती स्वस्य आत्मनो भिया भयेन अशेषैः न शेषो येषां तथाभूतः ( नन व० वी० ) निखिलैरित्यर्थः वोः अवगुणः न अपशि न स्पृष्टा, हमाष्टित्रे आगतापि या लोकान् विमोहयति, स्पर्श सा कि करिष्यतीति भीत्या न केनापि दोषेण सा स्पृष्टा, सा सर्वथा दोषरहिताऽऽस्तीत्यर्थः इति मन्ये जाने, तत् तस्मात् कारणात् अन्येषु दमयन्त्यतिरिक्तस्थानेषु तैः दोषैः Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 139 आकुलितः आकुलीकृतः पीडित इति यावत् गुणानाम् ओघः समूहः (10 तत्पु० ) न सपत्नः शत्रुर्यस्य तथाभूतस्य ( नञ् ब० वी० ) भावः असापत्न्यम् शत्रुराहित्यम् तेन सुखी सुखयुक्तः ( त० तत्पु० ) सन् अस्याम् दमयन्त्याम् वसति वासं करोति / दोषा हि गुणानां शत्रवः, तैः सह वासे गुणा नित्यसंघर्षेण व्याकुला भवन्ति किन्तु दमयन्त्यां शत्रुभूतस्य कस्यापि दोषस्याभावे गुणा: निष्कण्टकाः सन्तः शान्ति-सुखेन तिष्ठन्तीति भावः / / 17 // ___ व्याकरण-विमोहिका विमोहयतीति वि + /मुह + णिच् + ण्वुल, ज्वल को अक + टाप् / अस्पशि स्पृश् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) आकुलित: आकुलं करोतीति ( नामधातु) आकुल + णिच् + क्त ( कर्मणि)। असापत्न्यम् न सापन्यम् , समानः पतिः यस्येति सपलः तस्य भाव इति सपत्न + व्यङ् / ओघः याख्काचार्यानुसार वह + घन (पृषोदरादित्वात साधुः ) / अनुवाद--( क्योंकि ) दृष्टि में आई हुई भी ( सौन्दर्य से ) मोहित-मूछित कर देने वाली इस (दमयन्ती) का अपने भय के कारण सभी दोषों ने छूआ नहीं है ऐसा मैं मानता हूँ। इसलिए दूसरों में रह रहे उन ( दोषों ) से प्रपीड़ित हुआ गुण-समूह इस ( दमयन्ती) में शत्रु-अभाव के कारण सुखपूर्वक रह रहा है // 17 // टिप्पणी--गुण-दोष सर्वत्र रहते ही हैं और उनका परस्पर नित्य का संघर्ष चलता रहता है / एक-दूसरे के शत्रु जो ठहरे। गुण दोषों से तंग आये हुए रहते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि दोष अपवाद स्वरूप दमयन्ती के पल्ले फटकते ही नहीं / वे डरते हैं कि यह ऐसी जादूगरनी है कि जिसे देखने मात्र से ही लोग विमोहित हो जाते हैं / यदि हम इसे छू लेंगे, तो यह हमारी प्राणलेवाही बन जाएगी। अतः दोषों के न आने से इसमें गुण निष्कण्टक हो आनन्द से रह रहे हैं ! भय से मानो दोषों ने इसे नहीं छूआ है-यह कवि की कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। ओज्झि प्रियाङ्गघृणयेव रूक्षा न वारिदुर्गात्तु वराटकस्य / न कण्टकैरावरणाच्च कान्तिधूलीभृता काञ्चनकेतकस्य // 18 // अन्वयः-प्रियाङ्गः बराटकस्य रूक्षा कान्तिः घृणया एव औज्झि न तु वारि-दुर्गात्, काञ्चन-केतकस्य च धूलि-भृता कान्तिः घृणया एव औज्झि, न तु कण्टकैः आवरणात् / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 नैषधीयचरिते टीका-प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः अङ्गः अवयवैः पराटकस्य बीजकोषस्य ( 'बीजकोषो वराटकः' इत्यमरः ) रूक्षा परुषा अस्निग्धेति यावत् कान्तिः प्रभा घृणया जुगुप्सया एव औज्झि अत्याजि न तु वारि जलम् एव दुर्गम् दुर्गमस्थानम् तस्मात् ( कर्मधा० ) कमलबीजकोषस्य कान्तिः रूमा भवति, न तु स्निग्धा इत्यस्मात् कारणात् धृणया एव तद्देहकान्त्या वराटककान्तिः त्यक्ता न पुनः सा जलदुर्गे तिष्ठति, अत एव पराजेतुं न शक्यते इत्यस्मात् कारणादिति भावः / काञ्चनं काञ्चनवणं पीतमित्यर्थः यत् केतकम् केतक्याः पुष्पम् तस्य ( कर्मधा० ) धूल्या रजसा भृता पूर्णा ( तृ० तत्पु० ) कान्तिः घृणयव औज्झि इति पूर्वतोऽनुवर्तते न तु कण्टकैः तरुनखैः आवरणात् परिवेष्टनात् कारणात्, सौवर्णकेतकीपुष्पकान्तिः धूलीभरिताऽस्तीत्येतस्मात् कारणात् ताम् तद्देहकान्तिः घृणया एव परिजहार, न तु तदावरककण्टकभयादिति भावः // 18 / व्याकरण- प्रिया प्रीणातीति /प्री + क + टाप् / कान्तिः /कम् + क्तिन् (भावे ) / औजिम /उज्झ् + लुङ ( कर्मवाच्य ) / दुर्गम् दुः = दुखेन गम्यते इति दुर् - गम् + उ ( कर्मणि ) / आवरणात् आ + + ल्युट् ( भावे ) / अनुबाद -प्रिया ( दमयन्ती ) के अंगों ने कमल-डोडे की कान्ति को रूखी होने के कारण घृणा से ठुकरा दिया, न कि ( उसके ) जल-प दुर्गम स्थान में रहने के कारण तथा सुनहरे केवड़े के फूल की कान्ति को धूल भरी होने के कारण घृणा से ठुकरा दिया न कि ( उसके ) काँटों घिरी होने के कारण // 18 // टिप्पणी-दमयन्ती की स्निग्ध स्वणिल देह-प्रभा कमलगट्टे मौर केवड़े के फूल की कान्ति से दूर से ही घृणा कर गई। एक थी रूक्ष और दूसरी थी धूल भरी। कमलगट्टा जलीय किले के भीतर सुरक्षित है और केवड़ों की रक्षा हेतु सिपाहियों की तरह चारों ओर काँटे खड़े हैं-इस डर से इसकी देहकान्ति उनसे न लड़ सकी हो, सो बात नहीं। जब ये उसकी बराबरी के थे ही नहीं तब में / भाव यह निकला कि इसकी देह-प्रभा कमलगट्टे की अपेक्षा कितनी ही अधिक स्निग्ध और कनक-केतक की अपेक्षा कितनी ही अधिक स्वर्णिल-गौर वर्ण की थी। विद्याधर ने यहाँ उत्प्रेक्षा कही है, जो हम नहीं समझ पाये / संभव है उन्होंने 'घृणयव' के स्थान में 'घृणयेव' पाठ दे रखा हो, जो उसके लिए उत्प्रेक्षा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 141 * की भूमि बना देता है / हम कारण बता देने से काव्यलिङ्ग कहेंगे / 'वरा' 'वर' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रत्यङ्गमस्यामभिकेन रक्षा कर्तुं मघोनेव निजास्त्रमस्ति / वज्रं च भूषामणिमूर्तिधारि नियोजितं तद्युतिकार्मुकं च // 19 // अन्वयः–अभिकेन मघोना प्रत्यङ्गम् रक्षाम् विधातुम् भूषामणिमूर्तिधारि निजास्त्रम् वज्रम् च तद्-द्युति-कार्मुकम् च अस्याम् नियोजितम् इव / टीका-अभिकेन कामुकेन ( 'कमनः कामनोऽभिकः' इत्यमरः ) मघोना इन्द्रेण अङ्गम् अङ्गम् प्रति इति प्रत्यङ्गम् ( अव्ययी० ) प्रत्यबयवम् रक्षाम् दोषसकाशात् रक्षणं विधातुम् कर्तुम् भूषार्थ मणयो भूषामणयः ( च० तत्पु०) अलंकरणार्थ-रत्नानि तेषाम् मूर्तिम् आकारम् वेषमित्यर्थः (10 तत्पु० ) धारयतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्सु० ) निजं स्वकीयम् अस्त्रम् आयुधम् ( कर्मधा० ) वज्रम् हीरकम् च तेषाम् मणीनाम् द्युतयः कान्तयः (10 तत्पु० ) एव कामु कम् नानावर्णद्युति धनुः ( कर्मधा० ) अस्याम् दमयन्त्याम् नियोजितम् स्थापितम् इव / दमयन्त्या स्वशरीरे अलंकार-रूपेण हीरकम् ( वज्रम् ) अन्यानि च रत्नानि धारितानि एवं प्रतीयन्तेस्म यत् दमयन्त्याः कामुकेन मधोना दोषेभ्यस्तस्या रक्षार्थ स्ववज्रम् नानावर्णश्च स्वधनुः स्थापितमासीदिति भावः // 19 // व्याकरण-अभिकेन अभिकामयते इति अभि + /कन् , ( अनुकाभिकाभीकः कमिता 5 / 2 / 74 से निपातित ) / मधोना मघम् = धनम् अस्यास्तीति मघ + मतुप् / भूषा भूष् + क + टाप् / मूर्तिः मूर्छ + क्तिन् / अस्त्रम् अस्यते ( प्रक्षिप्यते ) इति/अस् + स्ट्रन ( कर्मणि)। वज्रम् यास्कानुसार 'वर्जयतोति सतः' अर्थात् प्राणों से वजित ( रहित ) कर देता है। कामुकम् कर्मन् + उकञ् / नियोजितम् नि + /युज् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / ___ अनुवाद-( दमयन्ती के ) कामुक इन्द्र ने ( उसके ) अङ्ग-अङ्ग की ( दोषों से ) रक्षा करने हेतु अलंकार-रूप मणियों का वेष बनाये अपनो अस्त्र वज्र (हीरा ) और उनकी चूति-रूप धनुष ( इन्द्रधनुष ) इस दमयन्ती के पास जैसे धर रखे हों // 19 // टिप्पणी-दमयन्ती ने शरीर पर अलंकार-रूप में हीरा-पन्ना आदि मणियां धारण कर रखी हैं। इस पर कवि की यह कल्पना है कि अलंकार का वेष, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 नैषधीयचरिते अपनाये अर्थात् अलंकार के ब्याज से हीरा मानो इन्द्र का वज्र और रत्नों की नाना-वर्णद्युति मानो इन्द्र-धनुष हो, जिनसे दमयन्ती की दोषों के आक्रमण से रक्षा हो सके। इस तरह यहाँ अपहनुत्युत्थापित उत्प्रेक्षा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अस्याः सपक्षेकविधोः कचौधः स्थाने सुखस्योपरि वासमाप / पक्षस्थतावद्वहुचन्द्रकोऽपि कलापिनां येन जितः कलापः // 20 // अन्वयः-अस्याः सपक्षकविधोः मुखस्य उपरि कचौधः वासम् आप-(इति) स्थाने; येन पक्षकः अपि कलापिनां कलापः जितः / टोका-अस्याः दमयन्त्याः सपक्षः समानः पक्षो यस्य सः ( ब० वी० ) सादृश्यकारणात् मित्रम् सहायक इति यावत् एक: केवल: विधुः चन्द्रः (कर्मधा.) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) मुखस्य आननस्य उपरि शिरसीत्यर्थः कचानाम् केशानाम् ओघः . समूहः केशकलाप इत्यर्थः वासम् स्थितिम् आप लब्धवान् इति स्थाने युक्तमेव ( 'युक्ते द्वसाम्प्रतं स्थाने' इत्यमरः) केशकलापः शिरसि तिष्ठतीत्युचितमेव, येन कचौघेन पक्षेषु गरुत्सु तिष्ठन्तीति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) तावन्तः बहवः चन्द्रकाः मेचका अथ च चन्द्रा एव चन्द्रकाः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी०) अपि कलापिनाम् मयूराणां कलापो बहः पिच्छ इति यावत् ( 'कलापो भूषणे बहें तूणीरे संहतावपि' इत्यमरः ) जितः पराजितः अनेकचन्द्रकसहायकोऽपि मयूर-कलापो येन पराजितः तादृशः एकचन्द्रसहायकः कलापो यदि शिरसा धार्यते तहि सर्वथा समुचितमेव यतः उत्तमाः शिरसा धार्यन्ते एवेति भावः // 20 // व्याकरण-ओधः इसके लिए पीछे श्लोक 17 देखिए / वास: /बस् + ( भावे ) / पक्षस्थ पक्ष + /स्था + क ( कर्तरि ) चन्द्रक: चःद्र + क ( स्वार्थे ) कलापिनाम् कलापः ( बर्हः ) एषामस्तीति कलाप + इन् ( मतुबर्थ ) / अनुवाद-एकमात्र चन्द्र को सपक्ष-सहायक रखने वाला इस ( दमयन्ती) का केश-कलाप-जिसने पक्ष ( पंखों) में बहुत से चन्द्रकों ( चन्दाअं, चन्द्रमाओं) को रखे हुए भी मयूर के कलाप ( पुच्छ ) को जीत लिया-मुख के ऊपर ( सिर पर ) स्थान प्राप्त कर गया है, ठीक ही है / / 20 // . टिप्पणी-कवि नल को माध्यम बनाकर यहां से लेकर सर्गान्त तक दम Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 143 यन्ती का नख-शिख अर्थात् शिर से लेकर पाँव तक का वर्णन करने जा रहा है। इस और अगले दो श्लोकों में कवि उसके केश-कलाप का चित्र खींच रहा है / केश-कलाप को दमयन्ती ने सिर पर स्थान दिया है, क्योंकि वह उत्तम है, ऐसा वीर है कि जिसने मुख के रूप में एकमात्र चन्द्रमा का साथ रखकर अनेकों चन्द्रमाओं को साथ रखने वाले मयूर के कलाप को परास्त कर दिया है। मुख और चन्द्र की मित्रता परस्पर सादृश्य रखने के कारण ही हुई है / मयूर-पक्ष में चन्द्र का अर्थ है चन्दा अर्थात् रंग-बिरंगे चन्द्राकार चिह्न। पक्ष का अर्थ मुख के सम्बन्ध में मित्रता है जब कि मयूर के सम्बन्ध में पंख / अच्छा होता यदि कवि 'कचौघः' के स्थान में कचकलापः देता। हमारे विचार से पक्ष और चन्द्र के विभिन्न अर्थों का श्लेष-वश अभेदाध्यवसाय होने से यहाँ भेदे अभेदाति. शयोक्ति है। विद्याधर और मल्लिनाथ चुप हैं। 'पक्ष' 'पक्ष' और 'कलापि' 'कलाप' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अस्या यदास्येन पूरस्ति रश्च तिरस्कृतं शीतरुचान्धकारम् / स्फुटस्फुरद्भङ्गिकचच्छलेन तदेव पश्चादिदमस्ति बद्धम् // 21 // अन्वयः-अस्याः आस्येन शीतरुचा पुरः तिरः च यत् अन्धकारम् तिरस्कृतम्, तत् एव इदम् स्फुट च्छलेन पश्चात् बद्धम् अस्ति। टीका-अस्याः दमयन्त्याः आस्येन मुखेन एव शीता रुक कान्तिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन ( ब० वी० ) शीतांशुना चन्द्रणेति यावत् पुरः अग्रे तिरः दक्षिण-वामभागयोरित्यर्थः च यत् अन्धकारम् तमः ( 'अन्धकारोऽस्त्रियाम्' इत्यमरानुसारेणात्र नपुं. ) तिरस्कृतम् अपसारितम् पराजितमित्यर्थः तत् अन्धकारम् एव इदम् स्फुट स्पष्टं यथास्यात्तथा स्फुरन्तः लसन्तः भङ्गिनः भङगुराश्च ये कचाः केशाः ( कर्मधा० ) तेषां छलेन ब्याजेन (10 तत्पु० ) पश्चात् पश्चाद्भागे बद्धम् संयतम् अस्ति / दमयन्त्याः मुख-पश्चाद्-भागे केश-कलापो बद्धोऽस्ति / अत्र कविरुत्प्रेक्षते मुखरूपचन्द्र णाग्रतः वाम-दक्षिणभागतश्चापि निरस्तोऽन्धकारः केशकलाप-च्छलेन पश्चात्तिष्ठति, पश्चाद्भागे चन्द्रप्रकाशागमनादिति भावः // 21 // व्याकरण-आस्येन अस्यतेऽनादिकमत्रेति अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / रुक रुच् + क्विप् ( भावे) / भनिन् भङ्गः ( कौटिल्यम् ) अस्यास्तीति भङ्ग + इन् ( मतुबर्थ ) / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) के मुख-रूपी चन्द्रमा ने आगे और अगलबगल से जिस अन्धकार को हटा दिया–पराजित कर दिया था, वही यह ( अन्धकार ) ( मानो ) स्पष्ट रूप में चमक रहे, घुघराले केशों के बहाने पीछे बँधा हुआ है // 21 // टिप्पणी-पीछे बँधे हुए केश-कलाप के सम्बन्ध में कवि की कल्पना है कि मानो यह अन्धकार हो जिसे पीछे होने के कारण मुख-चन्द्रमा हटा न सका। वैसे भी पराजित किये हुए किसी व्यक्ति को पराजय-चिह्न के रूप में हाथ पीछे बाँधे रखते हैं। भाव यह निकला कि दमयन्ती के केश बड़े काले और घुघराले थे। यहाँ मुख पर चन्द्रत्वारोप होने से रूपक और कच के छल से हाथ-बंधे अन्धकार की कल्पना में अपहनुति तथा उत्प्रेक्षा है, जो प्रतीयमान ही है, वाच्य नहीं, 'अस्या' 'दास्ये' में स और य तथा 'स्फुट' 'स्फुर' में स और फ की सकृत् आवृत्ति में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अस्याः कचानां शिखिनश्च किंनु विधि कलापौ विमतेरगाताम् / तेनायमेभिः किमपूजि पुष्पैरभत्सि दत्त्वा स किमर्धचन्द्रम् // 22 // अन्वयः-अस्याः कचानाम् शिखिनः च कलापो विमतेः विधिम् अगाताम् किम् नु ? तेन अयम् एभिः पुष्पैः अपूजि किम् ? सः अर्धचन्द्रम् दत्त्वा अत्सि किम् ? टीका-अस्याः दमयन्त्याः कचानाम् केशानाम् शिखिनः मयूरस्य च कलापो समूहः अथ च पिच्छ: विमतेः वमत्यात् विधिम् ब्रह्माणम् अगाताम् अगच्छताम् किं नु ? / केश-कलापः मयूरकलापश्च अहमुत्कृष्टः अहमुत्कृष्टः इति परस्परं विवदमानी निर्णयार्थ ब्रह्मणः पार्वे जग्मतुः किं नु ? इत्यर्थः / तेन ब्रह्मणा च अयं दृश्यमानः केश-कलापः एभिः दृश्यमानैः कचगतैः पुष्पैः कुसुमैः अपूनि पूजितः अचितः किम् ? मध्यस्थीभूतेन ब्रह्मणा 'केशकलापः उत्कृष्टः' इति निणंयं दत्त्वा तं पुष्पैः सत्कृतवान् किम् ? इति भावः / स मयूर-कलापः अर्धचन्द्रम् अर्धचन्द्राकारचिह्नम् अथ च गलहस्तं दत्त्वा अत्ति भत्सितः किम् ? दमयन्त्याः केशकलापापेक्षया हीनं मत्वा ब्रह्मा मयूर-कलापं गलहस्तदानपूर्वकं भत्सितवान् किम् ? उत्कृष्टो महांश्च सर्वत्र पूजां हीनो निकृष्टश्च भर्त्सनामेव लभते इति भावः // 22 // व्याकरण-शिखी शिखाऽस्यास्तीति शिखा + इन् (मतुबर्थे 'शिखामाला संज्ञादिभ्य इनिः' ) / विमतिः विरुद्धा मतिः इति वि + मतिः (प्रादि तत्पु० ) / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम सर्गः 145 विधिः विदधाति ( जगत् ) इति वि + /धा + किंः ( कर्तरि ) / अगाताम् Vइ + लुङ् इ को गा आदेश / अपूजि पूज् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अत्सि / भर्त्स + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / ___ अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) का केशकलाप और मयूर-कलाप ( परस्पर) वैमत्य होने के कारण ब्रह्मा के पास चल पड़े होंगे क्या ? उस ( ब्रह्मा ) ने इस ( केशकलाप ) की फूलों से पूजा की है क्या ? उस ( मयूर-कलाप ) को अर्धचन्द्र ( चंदा; गलहत्थी ) देकर फटकारा क्या ? टिप्पणी-केश-कलाप और मयूरकलाप ( मोर का पिच्छभार ) दोनों घने होने से अपने-अपने उत्कर्ष के सम्बन्ध में झगड़ा करके निर्णयार्थ ब्रह्मा के समीप चल दिए होंगे। ब्रह्मा का निर्णय केशकलाप के पक्ष में गया होगा। विजयी होने से इह्मा ने उसका फूलों से पूजन किया होगा और पिच्छ को अर्धचन्द्र देकर तिरस्कृत किया होगा / दमयन्ती का केशकलाप घना था और उसपर उसने नाना रंग के फूल भौ ठू से हुए थे। मोर-पिच्छ भी घना और फूलों-जैसे रंगबिरंगे चन्दाओं से शोभित रहता है। लेकिन बेचारा दमयन्ती के केशकलाप के हाथों हार खा बैठा। यह कवि की अद्भुत कल्पना है। इसमें 'अर्धचन्द्र' शब्द का विशेष महत्त्व है। संस्कृत में अर्धचन्द्र शब्द पाँच अर्थों का प्रतिपादक होता है आधा चन्द्रमा जो अष्टमी का होता है और अर्धचन्द्राकार गलहत्थी, नखक्षत'चिह्न, बाणविशेष तथा मोर के पंख की आँख जिसे चन्दा कहते हैं / कवि ने यहां गलहत्थी और चन्दा अर्थ में अर्धचन्द्र शब्द का प्रयोग किया है। चन्दा के रूप में मानो ब्रह्मा ने मयूर-पिच्छ को गलहत्थी देकर दमयन्ती के केश-कलाप के साथ प्रतियोगिता में से भर्सना-पूर्वक हटा दिया है कि तू इसकी बराबर का नहीं / यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में दो उत्प्रेक्षाओं के परस्पर सापेक्ष होने से संकर है / उपमान-भूत मयूर-कलाप का तिरस्कार होने से प्रतीप है, एवं श्लेषमुखेन विभिन्न अर्धचन्द्रों का अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति भी है / कलाप शब्द में श्लेष है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। केशान्धकारादथ दश्यभालस्थलार्धचन्द्रा स्फुटमष्टमीयम् / एनां यदासाद्य जगज्जयाय मनोभुवा सिद्धि रसाधि साधु // 23 / / अन्वयः-केशान्धकारात् अथ दृश्य' 'चन्द्रा इयम् स्फुटम् अष्टमी / एनाम् आसाद्य जगतः जयाय मनोभुवा सिद्धिः यत् असाधि तत् साधु / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टीका-केश: केशकलापः एव अन्धकारः तस्मात् ( कर्मधा० ) अथ अनन्तरम् अधस्तादित्यर्थः दृश्यः दर्शनीयः भालस्थलम् ललाट-पटलम् एव अधः चन्द्रः ( सर्वत्र कर्मधा० ) यस्याः, तथाभूना ( ब० बी० ) इयम् दमयन्ती दृश्य: दृष्टिगोचरः अर्धचन्द्रः यस्यां तथाभूता अस्फुटम् स्पष्टम् यथा स्यात्तथा अष्टमी कृष्णपक्षाष्टमी अस्तीति शेषः / एनाम् कृष्णाष्टमीरूपां दमयन्तीम् आसाद्य प्राप्य जगत: संसारस्य जयाय विजयार्थ (10 तत्पु० ) मनोभुवा कामेन सिद्धिः साधनशक्तिरित्यर्थः यत् असाधि साधिता ( तत् ) साधु युक्तमेव / कृष्णपक्षीयाष्टमीसदृशभालेयं दमयन्ती कामदेवहस्ते . जगद्वशीकरणशक्तिरस्तीति भावः // 23 // व्याकरण-दृश्य द्रष्टु योग्य इति /दृश् + यत् / एनाम् अन्वादेश में एताम् का रूप है / मनोभुवा मनः भूः उत्पत्तिस्थानं यस्य (ब० वी० ) अथवा मनसो भवतीति मनस् + भू./क्विप् ( उपपद तत्पु० ) / सिद्धिः / सिध् + क्तिन् ( भावे ) असाधि /सिध् + णिच् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / - अनुवाद केशरूपी अन्धकार के निचले भाग में दृश्य ( सुन्दर ) ललाटपटलरूपी अर्धचन्द्रवाली यह ( दमयन्ती) स्पष्टतः ( अन्धकार के बाद दृश्य - दिखाई पड़ने वाले अर्धचन्द्र वाली कृष्ण पक्ष की) अष्टमी है। इस ( दमयन्ती, अष्टमी ) को प्राप्त करके विश्व-विजय हेतु कामदेव ने सिद्धि जो साधी, बह ठीक ही है / / 23 / / टिप्पणी-पिछले तीन श्लोकों में दमयन्ती के केश-कलाप का चित्रण करके इस श्लोक में कवि उसके ललाट का चित्र खींच रहा है। केशों को अन्धकार का रूप देकर उनके नीचे ललाट को वह कृष्णपक्ष के अर्धचन्द्र का रूप दे रहा है / कृष्णाष्टमी में अन्धकार के बाद चन्द्रमा दो प्रहर बीतने पर देखने को मिलता है / ललाट भी केशों के बाद आता है। भाव यह कि दमयन्ती के सुन्दर ललाट द्वारा कामदेव विश्वविजय की सिद्धि प्राप्त किये हुए हैं। कोई साधक भी विश्वविजय हेतु कृष्णपक्ष की अष्टमी को सिद्धि प्राप्त किया करता है। ज्योतिष शास्त्र में कृष्णाष्टमी को जयसिद्धि देने वाली कहा गया है-'जयदा विजिगीषूणां यात्रायामसिताष्टमी' / मल्लिनाथ 'स्फुटम्' को उत्प्रेक्षा-वाचक मानकर यहाँ उत्प्रेक्षा मान रहे हैं। हम उसे स्पष्टार्थ में क्रियाविशेषण मानकर Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 147 दमयन्ती पर कृष्णाष्टमी के आरोप से रूपक मानेंगे जो 'अथ' 'दृश्य' और '०चन्द्रा' के विग्रह से श्लिष्ट है / 'साधि' 'साधु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पौष्पं धनुः किं मदनस्य दाहे श्यामीभवत्केसरशेषमासीत् / व्यधाद्विधेशस्तदपि क्रुधा किं भैमीभ्रुवौ येन विधिय॑धत्त / / 24 // अन्वयः-मदनस्य दाहे पौष्पम् धनुः श्यामी... शेषम् आसीत् किम् ? ईशः तत् अपि क्रुधा द्विधा व्यधात् किम् ? येव विधिः भैमी भ्रुवौ व्यधत्त / टोका-मदनस्य दाहे भस्मीकरणसमये पौष्पम् पुष्पसम्बन्धि पुष्परूपमित्यर्थः धनुः चापः अश्यामाः श्यामाः सम्पद्यमानाः भवन्तः इति श्यामीभवन्तः श्यामायमानाः इत्यर्थः केसराः किञ्जल्काः एव शेषाः अवशिष्टभागाः ( सर्वत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) आसीत् किम् ? ईशः महादेवः तत् केसरमात्रावशिष्टं धनुः अपि धा क्रोधेन द्विधा द्विप्रकाराभ्याम् व्यधात् अकरोत् किम् ? भक्त्वा द्वयोः खण्डयोः पृथक् कृतवान् किमित्यर्थः येन द्विधा विभक्तेन केसरावशिष्टपौष्पचापेन विधि: ब्रह्मा भैम्याः दमयन्त्याः ध्रुवी भ्रूलते ( 10 तत्पु० ) व्यधत्त रचितवान् / दमयन्त्याः ध्रुवौ ब्रह्मणा कामस्य दग्धश्यामीभूतपौष्पधनुःखण्डाभ्यां विनिर्मित इव प्रतीयेते / धनुर्द्वयाकारं तस्याः भ्रूद्वयं कामोद्दीपकमस्तीति भावः // 24 // व्याकरण --मदनः माद्यति जनो येनेति /मद् + ल्युट ( करणे ) अथवा मदयतीति/मद् + णिच् + ल्यु ( कर्तरि ) / पौष्पम् पुष्पस्येदमिति पुष्प + अण् / व्यधात् , व्यधत्त वि + /धा + लुङ् / अनुवाद--कामदेव के ( महादेव द्वारा ) जलाये जाते समय ( उसका ) पुष्प-रूप धनुष ( जलकर ) काले पड़े केसर ( रेशे ) मात्र रूप में शेष रह गया था क्या ? महादेव ने क्रोध के मारे उसके भी दो टुकड़े कर दिये, जिनसे ब्रह्मा ने दमयन्ती की दो भौहें बनाईं क्या ? / / 24 // टिप्पणी----कवि इस श्लोक और अगले दो श्लोकों में दमयन्ती की भौंहों का वर्णन कर रहा है। काले-काले वक्राकार भौंहों पर कामदेव के जले, केसरमात्र अवशिष्ट पुष्प-धनुष के दो टुकड़ों की कल्पना की जा रही है। केसर इसलिए उल्लिखित किये जा रहे हैं कि भौहों के रोम फूलों के केसर-जैसे Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 नैषधीयचरित होते हैं। भौहों के काले होने के कारण केसरों के जल जाने से काले पड़ने की कल्पना करनी पड़ी है, अतः दो श्लोकार्थों में परस्पर सापेक्ष दो उत्प्रेक्षाओं का संकरालंकार है। 'किम्' शब्द उत्प्रेक्षा के वाचक हैं। विद्याधर यतिशयोक्ति भी बता रहे हैं / 'व्यधा' 'व्यध' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / म्रभ्यां प्रियाया भवता मनोभूचापेन चापे धनसारभावः / निजां यदप्लोषदशामपेक्ष्य संप्रत्यनेनाधिकवीर्यताजि // 25 // अन्वयः-प्रियायाः भ्रूभ्याम् भवता मनोभूचापेन घनसारभावः च आपे यत् निजाम् अप्लोषदशाम् अपेक्ष्य सम्प्रति अनेन अधिकवीर्यता आजि / टीका--प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः भ्रूभ्याम् भ्रूद्वयेन भवता उत्पद्यमानेन भ्र द्वये परिणमतेत्यर्थः मनोभुवः मनसिजस्य चापेन धनुषा (ष० तत्पु०) धन: दृढश्च सारः सुसंहतश्च ( कर्मधा० ) तयोः भावः तत्तेत्यर्थः च आपे प्राप्तः, दमयन्त्याः भ्रूयुगलत्वमवाप्य कालचापो दृढः सुसंहतश्च जातः इति भावः / यत् यस्मात् न प्लोषः दाह इत्यप्लोपः ( नन तत्पु० ) तस्य वशाम् अवस्थाम् अपेक्ष्य अदग्धावस्थापेक्षयेत्यर्थः सम्प्रति इदानीम् भ्रूत्वप्राप्ति-दशायाम् अनेन मूभूतेन कामचापेन अधिकं वोर्यम् शक्तिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) भावः तत्ता आजि अजिता प्राप्तेत्यर्थः / पुष्पदशायाम् वर्तमानः कामचापो मृदुः निस्सारश्वासीत्, किन्तु सम्प्रति दाहानन्तरं भ्रूप्राधिदशामापन्नः सन् असी अधिकं दृढत्वं सारत्वं चावाप्य लोकवशीकरणेऽधिकसमर्थो जातोऽस्तीति भावः // 25 // व्याकरण-मनोभूः इसके लिए पीछे श्लोक 23 देखिए / आपे आप् + लिट् ( कर्मवाच्य ) / प्लोष:/प्लुष् + घम् / वीर्यम् वीरस्य भाव इति वीर + यत् / आजि / अर्ज + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / __अनुवाद-प्रिया ( दमयन्ती ) की भौंह बनते हुए कामदेव के धनुष ने दृढ़ता और ठोसपन अपना लिया है, क्योंकि अदग्धावस्था की अपेक्षा इस समय उसने अधिक शक्तिशालिता प्राप्त कर रखी है // 25 // टिप्पणी-विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है, क्योंकि भ्रू और चाप भिन्न होते हुए भी उनका अभेदाध्यवसाय हो रखा है। साथ ही अनुमानालंकार भी है, क्योंकि जगत को वश में करने की इसकी सामर्थ्य से यहाँ उसकी दृढ़ता और ठोसपन का अनुमान किया जा रहा है / तात्पर्य यह निकला कि पुष्प-रूप में Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 149 कामचाप उतना सशक्त नहीं था जितना कि दमयन्ती के भ्रूरूप में इस समय है, अर्थात् उसकी भौंहें बड़ी कामोद्दीपक हैं / शब्दालंकारों में 'चापे' 'चापे' में यमक 'भव' 'भावः' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। घनसारभावः-घनसार शब्द में श्लेष रखकर इसके कर्पूर-रूप अर्थ की ओर भी कवि का संकेत मालूम पड़ता है। कपूर भी अपनी 'अप्लोष-दशा' की अपेक्षा 'प्लोष दशा' में अधिक वीर्यशाली अर्थात अधिक सुगन्धि-उत्पन्न करने की क्षमता वाला हुआ करता है। प्रकरण में यह कर्पूर-रूप अर्थ असंगत होने से उसका प्रकृत के साथ उपमानोपमेयभाव सम्बन्ध बनाकर इसे हम उपमाध्वनि ही कहेंगे अर्थात जिस प्रकार कपूर अदग्धावस्था की अपेक्षा दग्धावस्था में अधिक सक्षम होता है, वैसे ही कामधनुष की बात भी है / स्मारं धनुर्यद्विधुनोज्झितास्या यास्येन भूतेन च लक्ष्मलेखा। एतद्धृवी जन्म तदाप युग्मं लीलाचलत्वोचितबालभावम् // 26 // अन्वयः--यत् स्मारम् धनुः, अस्याः आस्येन भूतेन विधुना उज्झिता या लक्ष्मलेखा च तत् युग्मम् एतद्-भ्रुवो लीला""भावम् जन्म आप। टीका-यत् स्मारम् स्मर-सम्बन्धि धनुः चापः, अस्याः दमयन्त्याः आस्येन मुखेन भूतेन जातेन विधुना चन्द्रेण आस्ये परिणतेन चन्द्रणेत्यर्थः उज्झिता त्यक्ता या लक्ष्मण: कलङ्कस्य लेखा रेखा च चन्द्रगतकालिम्नो राजिरित्यर्थः तत् युग्मम् द्वयम्-दाहे श्यामीभवत्केसरशेषं स्मरधनुः, चन्द्रीया कलङ्कात्मक श्यामरेखा. चेति यावत् एतस्याः दमयन्त्याः भ्रवौ लीला विलासश्च चलत्वं चाञ्चल्यञ्चेति लीलाचलत्वे ( द्वन्द्व ) तयोः उचितः योग्यः (10 तत्पु०) बालभावः (कर्मधा०) वालानां रोम्णाम् भाव: सत्ता बालत्वं वा यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) जन्म उत्पत्तिम् आप प्राप ! दममन्त्याः सविलासं चञ्चलं च भ्रूयुगलम् गृहीतुं जन्मान्तरं दग्धकामधनुः चन्द्रलाञ्छनं चेति द्वयमिति भावः / / 26 // व्याकरण- स्मारम् स्मरस्येदमिति स्मर + अण् / आस्येन इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिए / युग्मम् / युज् + मक् ज को ग / जन्म / जन् + मनिन् / अनुवाद-(एक ) जो कामदेव का ( दग्ध ) धनुष है और ( दूसरी) इस ( दमयन्ती) का मुख बने हुए चन्द्र द्वारा छोड़ी हुई जो कलंक-रेखा है, वे दोनों इस ( दमयन्ती ) के दो भौहों के रूप में जन्म ले बैठे हैं, जिसमें विलास और चञ्चलता के योग्य रोम विद्यमान है // 26 / / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-यहाँ कवि की कल्पना यह है कि चन्द्र अपना कलंक छोड़कर दमयन्ती का मुख बना हुआ है। मुख निष्कलंक होने के कारण चन्द्र को अपना कलंक छोड़ना पड़ा। उसका छोड़ा हुआ काला कलंक और महादेव द्वारा जलाये जाने पर काला हुआ पडा कामदेव का धनुष-ये दोनों दमयन्तो की दो भौंहें बनीं / हमारे विचार से यहाँ उत्प्रेक्षा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। / बालभावम्-यहाँ 'वबयोरभेद:' नियम के अनुसार वालभाव का अर्थ बालत्व लेकर कवि को यह दूसरा अर्थ भी विवक्षित है कि धनुष और कलंक ने भ्रू के रूप में जन्म लिया, तो उनमें बालत्व उचित ही है अर्थात् उनमें बालस्वभाव-सुलभ लीला-क्रीडा और चपलता होनी ठीक ही है। पिछले श्लोक की तरह इसे हम उपमाध्वनि ही कहेंगे। . इषुत्रयेणैव जगत्त्रयस्य विनिर्जयात्पुष्पमयाशुगेन / शेषा द्विबाणी सफली कृतेयं प्रियाहगम्भोजपदेऽभिषिच्य / / 27 / / - अन्वयः-पुष्पमयाशुगेन इषुत्रयेण एव जगत्-त्रयस्य विनिर्जयात् शेषा इयम् द्विबाणी प्रियादृगम्भोजपदे अभिषिच्य सफलीकृता। टीका-पुष्पाणि कुसुमानि एवेति पुष्पमयाः पुष्परूपाः आशुगाः बाणा: ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी० ) कामदेवेनेत्यर्थः इषूणाम् बाणानाम् त्रयेण ( 10 तत्पु० ) त्रिनिर्वाणरित्यर्थः एव जगताम् लोकानाम् त्रयस्य ( 10 तत्पु० ) विनिर्जयात् जयकारणात्, अर्थात् एकैकेन बाणेन कामेन त्रीणि जगन्ति जितानि, अवशिष्टं बाणद्वयम् मा तावद् व्यर्थं स्यादिति मनसि कृत्वा तेन शेषा अवशिष्टा इयम् पुरोदृश्यमाना द्वयोः बाणयोः समाहारः इति द्विबाणी बाणद्वयम् ( समाहारद्विगु ) प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः दृगम्भोजे ( 10 तसु० ) दृशौ एव अम्भोजे इन्दीवरे ( कर्मधा० ) तयोः पदे स्थाने अभिषिच्य अभिषेकं कृत्वा प्रतिष्ठाप्येति यावत् असफला सफला सम्पद्यमाना कृतेति सफलोकृता साफल्यं नीता / दमयन्त्याः द्वे दृगिन्दीवरे कामस्य द्विबाणीव प्रतीयते सकलयुवककामोद्दीपकत्यादिति भावः // 27 // व्याकरण-पुष्पमय पुष्प + मयट ( स्वरूपार्थे ) / आशुगः आशु (शीघ्रम्) गच्छतीति आशु + गम् + ड। त्रयेण त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि+ तयप् , तयप् को विकल्प से अयच् / शेष शिष्यते इति / शिष् + अच् / यहाँ यह विशेषण शब्द है / अम्भोजम् अम्भसि जायते इति अम्भस् + / जन् + ड / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 सप्तमः सर्गः अनुवाद-पुष्पमय बाण वाले कामदेव ने तीन बाणों से ही तीनों लोकों को जीत लेने के कारण शेष बचे दो बाणों को प्रिया ( दमयन्ती ) के नयन रूपी इन्दीवरों के स्थान पर अभिषिक्त करके सफल बना दिया // 27 // टिप्पणी--इस श्लोक से लेकर आगे आठ श्लोकों तक कवि अब दमयन्ती के नयनों का वर्णन कर रहा है। काम के तीन बाणों ने जब तीन लोक जीत लिए, तो दो बाण व्यर्थ पड़े देखकर उसने उन्हें दमयन्ती के दो नयनों के रूप में अभिषिक्त कर दिया जिससे वे सफल हो गये / काम को पञ्चबाण कहा जाता है / उसके पाँच वाणों के भीतर अम्भोज भी आता है। इसके लिए कवि ने दृगों पर अम्भोजत्व का आरोप किया है। इससे यहाँ यह ध्वनि निकलती है कि तीन बाणों ने तीन लोक जीते हैं-इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि दमयन्ती के दृगम्भोज-रूप दो ही बाणों ने तीन लोक जीत लिए हैं। वास्तव में सफल तो ये दो बाण ही हैं, वे तीन बाण नहीं। दृगों पर अम्भोजत्व के आरोप में रूपक है और उनपर काम-बाणों की कल्पना में उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है वाच्य नहीं। विद्याधर विषम और अतिशयोक्ति मान रहे हैं। शब्दालंकार 'त्रये' 'त्रय' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सेयं मृदुः कौसुमचापयष्टिः स्मरस्य मुष्टिग्रहणाहंमध्या। तनोति नः श्रीमदपाङ्गमुक्तां मोहाय या दृष्टिशरोघवृष्टिम् // 28 // अन्वयः- मुष्टिग्रहणाहमध्या, मृदुः सा इयम् स्मरस्य ( मुष्टिाहणार्हमध्या मृदुः ) कोसुम-चापयष्टिः ( अस्ति ) या नः मोहाय श्रीमदपाङ्गमुक्ताम् दृष्टिशरोधवृष्टिम् तनोति ! टोका-मुष्ट या ग्रहणम् धारणम् (तृ० तत्पु० ) तस्य अर्हम् योग्यं ( 10 तत्पु० ) मध्यं कटिभागोऽथ च लस्तकः धनुर्मध्यभाग इति यावत् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) मदुः कोमला सा प्रसिद्धा इयम् एषा दमयन्ती स्मरस्य कामस्य कुसुमानाम् अयमिति कौसुमः पुष्पमयः चापः धनुः ( कर्मधा० ) तस्य यष्टिः दण्डः ( 10 तत्पु०) अस्तीति शेषः / दमयन्त्याः सूक्ष्म मध्यं ( कटिः ) तथा मुष्टिग्राह्यं मुष्टिमेयमिति यावत् अस्ति यथा कामस्य पौष्पधनुषा मध्यं ( मध्य भागः ) मुष्टिग्राह्यं हस्तधार्यमिति यावद् भवतीत्यर्थः, या कोसुमचापयष्टिरूपा दमयन्ती न: अस्माकं मोहाय मूर्च्छनाय श्रीः शोभा अस्यास्तीति Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 नैषधीयचरिते श्रीमान शोभन इत्यर्थः यः अपाङ्गः नेत्र-प्रान्तः (कर्मधा० ) तेन मुक्ताम् प्रक्षिप्ताम् (तृ० तत्यु० ) दृष्टयः अवलोकनानि दृगम्भाज-विलोकितानीति यावत् एव शराः बाणाः ( कर्मधा० ) तेषाम् ओघस्य समूहस्य वृष्टिम् वर्ष ( उभयंत्र ष० तत्पु. ) तनोति करोति / यथा कामः धनुषा लोकविमोहनाय स्वशरवृष्टि करोति, तथा दमयन्त्यपि दृशा अस्मद्-विमोहनाय कटाक्ष-विक्षेपान् करोतीति भावः / / 28 / / व्याकरण-अर्ह अर्हतीति /अर्ह, + अच् ( कर्तरि ) / मृदु मृद्यते इति मद् + कु (कर्मणि ) / कौसुम कुसुम + अण् / अपाङ्गः अप (तिर्यक् ) अङ्गति ( अञ्चति ) इति अप + अङ्ग, + अच् / दृष्टि: दृष्टि: क्तिनन्त रूप / अनुवाद-मुट्ठी से पकड़े ( मापे ) जाने योग्य मध्य ( कमर ) वाली कोमल वह यह ( दमयन्ती ) मुट्ठी से पकड़े जाने योग्य मध्य ( बिचले भाग) वाली काम की कोमल पुष्पमय धनुष यष्टिका है, जो हमें मोहित कर देने हेतु सुन्दर अपांगों से चितवन-रूपी बाण-समूह की वृष्टि करती है / / 28 // टिप्पणी-यहां दमयन्ती पर काम की कौसुम धनुर्यष्टि का आरोप और उसकी चितवनों पर बाणवृष्टि का आरोप होने से दो रूपक हैं जिनका परस्पर कार्यकारण-भाव होने से परम्परित-रूपक बना हुआ है / मध्य शब्द में श्लेष है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। आपूणितं पक्ष्मलमक्षिपद्मं प्रान्तद्युतिश्वैत्यजितामृतांशु / अस्या इवास्याश्चलदिन्द्रनीलगोलामलश्यामलतारतारम् // 29 // अन्वयः-आपूर्णितम् पक्ष्मलम् प्रान्त "तांशु चल.''तारम् अस्याः अक्षिपद्मम् अस्याः ( अक्षिपद्मम् ) इव ( अस्ति ) / टीका-घूणितम् कृतघूर्णनम् मन्दमुन्मिषदित्यर्थः अथ च विकसत्, पक्ष्माणि रोमाणि अथ च दलानि अस्यास्तीति पक्ष्मलम् प्रान्तस्य अपाङ्गस्य धुते: कान्तेः (10 तत्पु० श्वत्येन श्वेतिम्ना जितः परास्तः (तृ० तत्पु० ) अमृतांशुः ( कर्मधा० ) अमृतं पीयूषम् अंशुषु किरणेषु यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) चन्द्र इत्यर्थः येन तथाभूतम् (ब० वो० ) चलन चञ्चलः इन्द्रनीलगोल: ( कर्मधा० ) इन्द्रनीलस्य नीलमणेः गोलः गोलकः मण्डलम् इति यावत् (10 तत्पु० ) तद्वत् अमला निर्मला ( उपमान तत्पु० ) च श्यामला कृष्णवर्णा च तारा उज्ज्वला च तारा कनीनिका ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् ( ब० वी० ) अथ च चलदिन्द्र Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 15 नीलगोलामलश्यामलतां राति गृह्णातीति तारो भ्रमरः तेन तारम् अस्याः दमयन्त्या अक्षि नयनमेव पद्मम् कमलम् ( कर्मधा० ) अस्याः दमयन्त्याः अक्षिपद्मम् इव अस्तीति शेषः / दमयन्त्या अक्षिपमेन सदृशम् अन्यत् किमप्युपमानं नास्तीति भावः // 29 // व्याकरण-आधूणितम् आ + /घूर्ण + क्त (कर्तरि)। पक्ष्मलम् पक्ष्म + लच ( मतुबर्थ)। अक्षि-अश्नुते ( व्याप्नोति) विषयानिति -अश् + क्सिः / श्वत्यम श्वेतस्य भाव इति श्वेत + ष्यन् / श्यामल श्यामरूपमस्यास्तीति श्याम + लच् ( मतुबर्थे ) / __ अनुवाद-धीरे-धीरे खुलने के रूप में खिलते हुए, रोमों के रूप में पंखुड़ियां रखे, कोरों की कान्ति की सफेदी से चन्द्रमा को परास्त किये एवं हिल रहे इन्द्रनील मणि के गोलक ( बंटे) की तरह निर्मल श्याम और उज्ज्वल पुतलियों के रूप में भ्रमरों से गुञ्जायमान इस ( दमयन्ती ) के नयन-कमल इसके नयन-कमल के ही तरह हैं // 29 // टिप्पणी-यहाँ दमयन्ती के घूमते-धीरे-धीरे खिलते हुए, पक्ष्मों (बरौनियों) वाले, प्रान्त भाग की श्वेतिमा से चन्द्रमा को जीते हुए, इन्द्रनील की तरह काली पुतलियों वाले नयनों पर धीरे-धीरे खिलते हुए, पंखुड़ियों तथा शब्द करते हुए भ्रमरों से युक्त नीलकमलों का तादात्म्य स्थापित करने से रूपक हैं, जो श्लेष द्वारा समस्तवस्तुविषयक बना हुआ है। नयन जब कमल बन गये, तब उनकी बराबरी का कोई रहा ही नहीं। वैसे तो नयन कमलों की तरह होते है, लेकिन नयन-कमलों की कमलों से तुलना कैसे हो सकती है / तुलना के लिए तो अन्य ही हुआ करता है / कमल कमल तो एक ही हुए / इस तरह दमयन्ती के नयन-कमलों की ही तरह होने में अनन्वयालंकार भी बन रहा है / 'तार' 'तार' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / कर्णोत्पलेनापि मुखं सनाथं लभेत नेत्रद्युतिनिजितेन / यद्येतदीयेन ततः कृतार्था स्वचक्षुषी किं कुरुते कुरङ्गी // 30 / / अन्वयः-कुरङ्गी नेत्रतिनिजितेन एतदीयेन कर्णोत्पलेन अपि सनाथम् मुखम् ( यदि ) लभेत, ततः कृतार्था ( सती ) स्वचक्षुषी किम् कुरुते ? टोका-कुरङ्गी मृगी नेत्रयोः दमयन्त्याः नयनयोः धुत्या कान्त्या ( 10 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 नैषधीयचरिते तत्पु० ) निजितेन पराजयं प्रापितेन ( तृ० तत्पु० ) एतदीयेन एतस्या दमयन्त्याः कर्णयोः श्रोत्रयोः उत्पलेन कमल-कलिकया अवतंसरूपेण कर्णयोः धृतयेत्यर्थः ( स० तत्पु० ) अपि सनाथम नाथेन सहितम् (ब० वी० ) युक्तमित्यर्यः मुखम् आननम् यदि लभेत प्राप्नुयात् ततः तहि कृतः अर्थः कृत्यं यया तथाभूता ( ब० वी० ) कृतकृत्येति यावत् सती स्वचक्षुषी स्वनयनद्वयम् (कर्मधा० ) किम किमर्थम् कुरुते धत्ते इत्यर्थः वैयर्थ्यात् ते त्यक्तुमेवोचितेत्यर्थः // 30 // व्याकरण-एतदीयेन एतस्या इदमिति एतत् + छ, छ को ईय, पुंवद्भाव / चक्षुः चष्टे ( पश्यति ) इति /चक्ष + उस् ( कर्तरि ) / अनुवाद-यदि मुगी ( दमयन्ती के ) नेत्रों की कान्ति द्वारा पराजित हुए इसके कर्णोत्पलों से युक्त भी मुख प्राप्त कर ले तो धन्य हुई उसने अपने नेत्रों का क्या करना है ? // 30 // टिप्पणी-दमयन्ती की वैसी आँखों वाले मुख की बराबरी तो दूर रही, उसकी आँखों से हार माने हुए उसके कर्णोत्पलों से युक्त मुख तक को भी यदि मृगी प्राप्त कर ले, तो अपनी आँखें उसे उनसे भी निकृष्ट प्रतीत होने लग जायेंगी और उन्हें वह ठुकरा ही देगी। भाव यह है कि मृगी की आंखों की अपेक्षा दमयन्ती के कर्णोत्पल ही उत्कृष्ट हैं और कर्णोत्पलों की अपेक्षा उसकी आँखों का उत्कृष्ट होना स्वतः ही सिर है। मृगी का यही परम सौभाग्य होगा यदि वह आँखों में दमयन्ती के कर्णोत्पलों की बराबरी प्राप्त करे। उसके नेत्रों की बराबरी का स्वप्न छोड़ दे। विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है, क्योंक यदि शब्द के बल से कर्णोत्पल-सनाथ मुख का मृगी के साथ असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध की सम्भावना की गई है। हमारे विचारानुसार आँखों में अधिकता बताने से व्यतिरेक भी है / 'कुरु' 'कुर' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / त्वचः समुत्तार्य दलानि रीत्या मोचात्वचः पञ्चषपाटनायाम् / सारैर्गृहीतैर्विधिरुत्पलौघादस्यामभूदीक्षणरूपशिल्पी // 31 // अन्वयः-मोचा-त्वचः त्वचः उत्पलौघात् दलानि च रीत्या समुत्तार्य पञ्चषपाटनायाम् ( सत्याम् ) ( मोचात्वचः ) उत्पलौधात् च गृहीतः सारैः अस्याम् विधिः ईक्षण-रूपशिल्पी अभूत् / टीका-मोचाया रम्भायाः कदल्या इति यावत् ( रम्भा-मोचांशुमत्फला' Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः इत्यमरः) (10 तत्पु०) त्वचः गर्भस्थ-वल्कलात् त्वचः बाह्य-वल्कलानि उत्पला. नाम् नील-कमलानाम् ओघात् समूहात् (10 तत्पु० ) दलानि पत्राणि च रोत्या प्रकारेण क्रमेणेत्यर्थः समुत्तार्य समुत्पाटय पृथक्-कृत्येत्यर्थः पञ्च षट् वा संख्या येषां तथाभूतानां (ब० वी० ) कदली-वल्कलानां उत्पलौघदलानां च पाटनायां समुत्तारणायां सत्याम् मोचात्वचः उत्पलौघात् च गृहीत: उपात्तः सारैः सारभूतैः श्रेष्ठांशैः अस्याम् दमयन्त्याम् विधिः ब्रह्मा ईक्षणयोः नयनयोः रूपस्य सौन्दर्यस्य (10 तत्पु० ) शिल्पी निर्माता अभत अभवत् / ब्रह्मणा कदलीवृक्षस्य क्रमशः पञ्चषाणि वल्कलानि उत्पलस्य चापि क्रमशः पञ्चषाणि दलानि समुत्पाटय तदन्तर्भूतश्वेतनीलसारांशः दमयन्तीनेत्रसौन्दर्य सृष्टमिति भावः // 31 // व्याकरण-समत्तार्य सम् + उत् + Vत + णिच् + ल्यप् / पञ्चष 'संख्यया. व्ययासन्ना०' ( 2 / 2 / 25 ) से ब० वी०; 'बहुव्रीही सङ्घचये. ( 5 / 4 / 73 ) से डच् / पाटनायाम् पट + णिच + युच, यु को अन + टाप / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति /ईक्ष + ल्युट ( करणे)। शिल्पी शिल्पम् अस्यास्तीति शिल्प + इन् ( मतुबर्थ)। __ अनुवाद केले के ( भीतरी ) वल्कल के ऊपर से ( बाहरी ) वल्कलों को तथा उत्पलसमूह की ( भीतरी ) पंखुड़ियों के ऊपर से ( बाहरी ) पंखुड़ियों को ढंग से उतारकर पाँच-छ: तक की तहों के निकल जाने पर ( केले के वल्कलों तथा उत्पल-समूह से ) लिये हुए मूल-तत्त्वों से इस ( दमयन्ती) में ब्रह्मा आँखों के सौन्दर्य का निर्माता बना // 31 // टिप्पणी-दमयन्ती की सौन्दर्य-भरी, कोमल, श्वेत-नील आँखों पर कवि की यह कल्पना है कि उनके बनाने में ब्रह्मा ने जिन उपादानों-मूलतत्त्वों को अपनाया है वे हैं केले के वल्कलों तथा नीलोत्पलों की पंखुड़ियों की पाँच-छ परतों को हटाकर रह रहे भीतरी मूलतत्त्व अर्थात् सार-भूत अंश / शब्दान्तर में, स्रष्टा ने उसकी आँखों हेतु केले के भीतरी कोमल भाग से श्वेतिमा और नीले कमल की पंखुड़ियों के भीतरी भाग से नीलिमा ली हैं। कल्पना होने से यहाँ उत्प्रेक्षा है, लेकिन वह प्रतीयमान है, वाच्य है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र यथासंख्यातिशयोक्तिरलङ्कारः' / 'त्वचः' 'त्वचः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। श्लोक में शब्दों के अन्वय और अध्याहार के कारण अर्थ में क्लिष्टता आ जाने से अर्थगत क्लिष्टत्व दोष है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैषधीयचरिते चकोरनेत्रणदगुत्पलानां निमेषयन्त्रण किमेष कृष्टः / सारः सुधोद्गारमयः प्रयत्नैर्विधातुमेतन्नयने विधातुः // 32 // अन्वयः-एतन्नयने विधातुम् विधातुः प्रयत्नैः चकोरलानाम् सुधोद्गारमयः एष सारः निमेष-यन्त्रेण कृष्टः किम् ? टीका-एतस्याः दमयन्त्याः नयने द्वे नेत्रे विधातुम् रचयितुम् विधातुः ब्रह्मणः प्रयत्नः प्रयासै: चकोराणां नेत्राणाम् नयनानां (10 तत्पु० ) च एणानाम् मृगाणाम् दृशाम नयनानाम् (10 तत्पु०) च. उत्पलानां नीलकमलानां च ( द्वन्द्व ) सुधायाः अमृतस्य उद्गारः स्रावः निष्यन्द इति यावत् (ष० तत्पु० ) एवेति ०मयः अमृतरूप इत्यर्थः एष सारः सारभूततत्वम् निमेष: पक्ष्मणां दलानाञ्च संकोचः एव यन्त्रम् निष्पीडन-साधनविशेषः तेन ( कर्मधा० ) कृष्ठः आकृष्टः किम् ? चकोर-नेत्रेभ्यः मृगीनेत्रेभ्यः नीलकमलेभ्यश्च सुधारसः निमेष-यन्त्रेण निष्पीड्य तेन ब्रह्मा दमयन्त्याः नयने रचितवान् किम् ? इति भावः // 32 // व्याकरण-निमेष: नि + /मिष् + घन ( भावे ) / सुधोद्गारमयः स्वरूपार्थे मयट् / सारः सरतीति / +घञ् ( भावे ) प्रयत्नः प्र+यत् + नङ् / अनुवाद-इस ( दमयन्ती) के नयनों के बनाने हेतु ब्रह्मा के प्रयत्नों से चकोर और मृगों के नयनों तथा नीलोत्पलों का अमृतरसमय यह सार निमेषरूपी यन्त्र द्वारा खींचा है क्या ?! 32 // टिप्पणी-यहाँ भी दमयन्ती के नयनों पर कवि की यह कल्पना है कि ब्रह्मा ने चकोरों और मृगियों के नयनों तथा नीलकमलों के निमेष को गन्ने की तरह रस निकालने का यन्त्र बनाया है। नयनों का निमेष पलकों का झपकना और कमलों का निमेष पंखुड़ियों का बन्द होना है ! इस निमेष से ब्रह्मा ने चकोरों और मृगियों के नयनों से उनके भीतर का अमृत रस खींचा, तब उससे दमयन्ती के नयन बनाये। चकोर आँखों से चन्द्र की ज्योत्स्ना को पीते ही हैं जिसमें अमृत रहता है। "मृगलाञ्छन' होने के कारण मृग चन्द्र की गोद पर बैठा ही रहता है, इसलिए उसकी आँखों से भी अमृत का सम्बन्ध बराबर बना ही रहता है। नीलोत्पल रात को विकसित होते हुए ज्योत्स्ना द्वारा अमृत से सम्बन्ध बनाये हुए रहते ही हैं। इन तीनों के निमेषों को रस निकालने की मशीन बनाकर इनकी आँखों के भीतर का अमृतमय सार-तत्त्व ब्रह्मा ने खींच Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः लिया। निमेष पर यन्त्रत्वारोव होने से रूपक है, जो उत्प्रेक्षा के लिए भूमि बना रहा है जिसका वाचक 'किम्' है, इसलिए यहाँ इन दोनों का संकर है। विद्या. धर अतिशयोक्ति भी कहते हैं। 'मेश' 'मेष' में यमक 'विधातु' 'विधातुः' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ऋणीकृता कि हरिणीभिरासीदस्याः सकाशान्नयनद्वयश्रीः। भूयोगुणेयं सकला बलाद्यत्ताभ्योऽनयाऽलभ्यत बिभ्यतीभ्यः // 33 / अन्वयः-हरिणीभिः अस्याः सकाशात् नयनद्वयश्रीः ऋणीकृता किम् ? यत् अनया बिभ्यतीभ्यः ताभ्यः भूयोगुणा सकला इयम् बलात् अलभ्यत / टोका-हरिणीभिः मृगीभिः अस्याः दमयन्त्याः सकाशात् पाश्वत् नयनयोः नेत्रयोः द्वयम् युग्मम् तस्य श्रीः शोभा सौन्दर्यमिति यावत् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) अनृणम् ऋणं सम्पद्यमाना कृतेति ऋणीकृता ऋणरूपेण गृहीतेत्यर्थः किम् ? यत् अनया दमयन्त्या बिभ्यतीभ्यः त्रस्यन्तीभ्यः ताभ्यः हरिणीभ्य:: भूयान् अत्यधिकः गुणः गुणनम् ( कर्मधा० ) यस्यां तथाभूता बहुगुणितेत्यर्थः (ब० वी० ) सकला निखिला इयम् श्रीः बलात् बलपूर्वकम् अलभ्यत लब्धा / मृगीभिः दमयन्तीतः ऋणत्वेन तन्नयनसौन्दर्यं गृहीतम् यत् समस्तम् ऋणम् सा चक्रवृद्धया बलपूर्वकं गृहीतवतीति भावः // 33 // व्याकरण-द्वयम् द्वौ अवयवावत्रेति द्वि + तयप , तयप को विकल्प से अयच् / ऋणीकृता ऋण + च्वि ईत्व कृ + क्त (कर्मणि) / बिभ्यतीभ्यः भी + शतृ + ङीप। अनुवाद-हिरनियों ने इस ( दमयन्ती ) के पास से इसकी दो आँखों की सुन्दरता ऋण-रूप में ले रखी थी क्या, जो इसने डरी हुई उन ( हिरनियों ) से सारी की सारी ( सूद द्वारा) कई गुणा बड़ी हुई बलपूर्वक प्राप्त कर ली है ? // 33 // टिप्पणी-ऋणी हिरनियाँ बेचारी डर रही थीं जब साहूकारिन दमयन्ती चक्रवृद्धि ब्याज के साथ अपना सारा का सारा ऋण बलात् उनसे ले बैठी। 'बिभ्यतीभ्यः' शब्द यहाँ साभिप्राय है, क्योंकि डरी हुई हिरनियों की चञ्चल चितवन में अनोखा सौन्दर्य थिरकता रहता है। इससे यह ध्वनित होता है कि दमयन्ती की आँखें चञ्चल नयनों वाली हरिणियों से भी अधिक सुन्दर और Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 नैषधीयचरिते चञ्चल हैं। ऋण देने और लेने की कवि-कल्पना में उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक 'किम्' शब्द है। उसके साथ-साथ विद्याधर के अनुसार समासोक्ति भी है, क्योंकि हिरनियों और दमयन्ती में ऋण लेने वाली और ऋण देने वाली का व्यवहार बताया गया है। किन्तु हमारे विचार से उत्प्रेक्षा ही पर्याप्त है। समासोक्ति में जड का चेतनीकरण हुआ करता है। यहाँ हिरनियाँ और दमयन्ती पहले से ही चेतन हैं / विद्याधर यहां छेकानुप्रास भी कहते हैं। 'ऋणी' 'रिणी' में तो छेक नहीं बन सकता, क्योंकि 'ऋ' स्वर है जब कि 'रि' व्यञ्जन है। व्यञ्जन-संहति-साम्य ही छेक का प्रयोजक होता है। हाँ उनका अभिप्राय 'भ्यत' "भ्यती' से ही होगा, जो ठीक ही है। दृशौ किमस्याश्चपलस्वभावे न दूरमाक्रम्य मिथो मिलेताम् / न चेत्कृतः स्यादनयोः प्रयाणे विघ्नः श्रवःकूपनिपातभीत्या॥ 34 // अन्वयः-चपल-स्वभावे अस्याः दृशौ दूरम् आक्रम्य मिथः न मिलेताम् किम् ? चेत् अनयोः प्रयाणे श्रवःकूप-निपात भीत्या विघ्नीकृतः न स्यात् / टीका-चपल: चञ्चल: स्वभावः प्रकृतिः ( कर्मधा० ) ययोः तथाभूते (ब० बी० ) अस्याः दमयन्त्याः दृशो नयने दूरम् यथा स्यात्तथा आक्रम्य गत्वा मिथः परस्परम् न मिलेताम् संमिलिते न भवेताम् किम् अपि तु मिलेतामेवेति काकुः (किन्तु ) चेत् अनयोः दृशोः प्रयाणे गमने श्रवसी श्रोत्रे ( 'श्रुतिः स्त्री श्रवणं श्रवः' इत्यमरः) तयोः कूपौ छिद्रे इत्यर्थः (10 तत्पु० ) तयोः निपातः पतनम् ( स० तत्पु० ) तस्मात् भीत्या भयेन (पं० तत्पु० ) निघ्नः अन्तरायः कृतः विहितः न स्यात् / दमयन्त्याः दृग्भ्याम् शिरःपश्चाद्-भागेन परिभ्रम्य परस्परं संमिलिताभ्याम् भवितव्यमासीत्, किन्तु मध्येमार्ग श्रवणकूपपतनभयेन विघ्नः कृतः, तस्मात् ते निवृत्ते इति भावः // 34 // व्याकरण-दृक् पश्यतीति /दृश् + क्विप् ( कर्तरि, कर्तृत्वं चात्रौपचारिकम् ) श्रवस् श्रूयतेऽनेनेति श्रु+ अस् ( करणे ) / भोतिः /भी + क्तिन् ( भावे ) / विघ्नः विहन्तीति वि + हन् + कः / अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) की चंचल स्वभाव वाली आखें दूर जाकर आपस में नहीं मिल जाती क्या, यदि इनके जाने में कर्ण-छिद्रों में गिर पड़ने का भय आड़े न आता ? // 34 // Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 159 टिप्पणी-दमयन्ती के नयन बड़े चञ्चल हैं और चञ्चल का काम चलना ही होता है। दोनों नयनों ने शिर के पीछे से चलकर आपस में मिल जाना था, किन्तु बीच में कानों की खाइयों ने उनके लिए गिर पड़ने का खतरा खड़ा कर दिया। बेचारे वापस मुड़ गये, मिल न सके / भाव यह निकला कि उसके नयन कानों तक गये हुए हैं और बड़े चंचल हैं। यहाँ भी कवि की कल्पना ही है कि वे गिर पड़ने से डर गये। अतः उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है / इसके साथ नयनों में चेतन व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / केदारभाजा शिशिरप्रवेशात्पुण्याय मन्ये मृतमुत्पलिन्या। जाता यतस्तत्कुसुमेक्षणेयं यातश्च तत्कोरकदृक्चकोरः // 35 // अन्वयः- केदारभाजा उत्पलिन्या शिशिर-प्रवेशात् पुण्याय मृतम् ( इति ) मन्ये यतः इयम् तत्कुसुमेक्षणा जाता, चकोरः च तत्कोरक-दृक् जातः / टीका-केवारं जलपूर्ण क्षेत्रम् ('केदारः क्षेत्रस्य तु' इत्यमरः) भजति सेवते इति तथोक्तया केदारस्थयेत्यर्थ: ( उपपद तत्पु० ) उत्पलिन्या नीलकमलिन्या शिशिरस्य शिशिरों: प्रवेशात् प्रारम्भात् कारणात् पुण्याय जन्मान्तर-सुकृताय सुकृतं प्राप्तुमित्यर्थः मृतम् मृत्युः प्राप्त: इति मन्ये अवगच्छामि यतः यस्मात् इयम् दमयन्ती तस्याः उत्पलिन्याः कुसुमे पुष्पे नीलोत्पले इति यावत् (10 तत्पु० ) एव ईक्षणे नयने ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी०) जाता संवृत्ता, चकोरः च तस्या उत्पलिन्याः कोरके मुकुले ( 10 तत्पु० ) एव दृशौ नयने ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) जातः / उत्पलिनी पुण्यार्जनायेव शिशिरे स्वतनूबलिदानमकरोत्, तत्फलस्वरूपं चेह जन्मनि तस्याः कुसुमद्वयम् दमयन्त्याः नयनयुगलं तस्याः कोरकद्वयं च चकोरस्य नयनयुगलं जातमिति भावः // 35 // व्याकरण केदारः के ( शरीरे ) दारो ( हलेन) दारणम् यस्य (ब० वी०) ०भाजाभज् + क्विप ( कर्तरि ) तृ० / शिशिरः यास्काचार्यानुसार शीर्यन्तेऽस्मिन् पत्राणि ( पृषोदरादित्वात् साधुः)। पुण्याय पुण्यम् अर्जयितुम्, तुमुन् के कर्म को चतुर्थी ("क्रियार्थोपपदस्य-२।३।१४)। मृतम् /मृ + क्त ( भाववाच्य ) / उत्पलिन्या उत्पलान्यस्यां सन्तीति उत्पल + इन् + ङीप् / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति ईक्ष् + ल्युट् ( करणे ) / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 नैषधीयचरिते ही पुण्य अर्जन हेतु शरीर-त्याग कर बैठी-ऐसा मैं मानता हूँ। तभी तो (पुण्यफल स्वरूप ) उस ( उत्पलिनी ) के फूल इस ( दमयन्ती) की आँखें बनी और उसकी कलियाँ चकोर की आँखें बनौं / / 35 // टिप्पणी-वैसे तो शिशिर ऋतु में नीलकमलों का क्षय स्वाभाविक ही है, किन्तु नल यह कल्पना कर रहे हैं मानो अगले जन्म में पुण्यार्जन करने के लिए ही उसने आत्मबलिदान किया हो। इस बात का अनुमान इससे किया जाता है कि नील-कमलिनी के पुष्प दमयन्ती की आँखें बनीं, जो महान् पुण्यकर्म के बिना हो ही नहीं सकता। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा और अनुमानालंकार का संकर है। 'मन्ये' शब्द, उत्प्रेक्षा-वाचक होता ही है / 'जाता' 'जात' तथा 'कोर' 'कोरः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / केदारभाजा-हमारे विचार से यहाँ कवि ने केदार और शिशिर शब्दों में श्लेष रखकर यह भी ध्वनित किया है कि केदारखण्ड की भूमि में भगवान केदारनाथ ( महादेव) का भजन करता हुआ कोई भी व्यक्ति शिशिर-हिम में प्रवेश करके आत्मत्याग से महान् पुण्य कमा लेता है। महाभारत के अनुसार पाण्डव भी इसी तरह हिम में गलकर पुण्यार्जन द्वारा स्वर्ग सिधारे थे। नासादसीया तिलपुष्पतूणं जगत्त्रयन्यस्तशरत्रयस्य / श्वासानिलामोदभरानुमेयां दधद्विबाणी कुसुमायुधस्य // 36 // अन्वयः-अदसीया नासा जग""यस्य कुसुमायुधस्य श्वासा "मेयाम् द्विबाणीम् दधत् तिलपुष्प-तूणम् ( अस्ति ) / टीका-अमुष्याः इयम् अदसीया अस्याः दमयन्त्या इत्यर्थः नासा नासिका जगताम् लोकानाम् त्रयम् त्रितयम् (10 तत्पु० ) तस्मिन् तद्विजयायेत्यर्थः न्यस्तम् प्रक्षिप्तम् ( स० पु० ) शरत्रयम् ( कर्मधा० ) शराणां बाणानां त्रयम् त्रितयम् (10 तत्पु० ) येन तथाभूतस्य (ब० वी० ) कुसुमानि पुष्पाणि आयुधानि शस्त्राणि (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः श्वासस्य निश्वासस्य अनिलस्य वायोः (10 तत्पु० ) अथवा श्वासश्चासो अनिल: निश्वासरूपवायुःतस्य (कर्मधा०) तस्य आमोवस्य सौरभस्य भरेण अतिशयेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) अनुमेयाम् अनुमातुं शक्याम् अनुमिति-गम्याम् Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षमः सर्गः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० / द्वयोः बाणयोः समाहारः द्विबाणी ताम् ( समाहार द्विगु ) दधत् धारयत् तिल-पुष्पस्य तूणम् तूणीरः (10 तत्पु० ) तिलपुष्पबाणधिरित्यर्थः अस्ति / दमयन्त्याः नासिका कामस्य वाणद्वय-धारकः तूणीरोऽस्तीति भावः // 36 // व्याकरण-अदसीया अदस् + छ, छ को ईय + टाप / त्रयम् त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि + तयप, तयप् को विकल्प से अयच , अन्यथा त्रितयम् / व्यस्त वि + /अस् (क्षेपे ) क्तः ( कर्मणि ) / अनुमेय अनु + /मा + यत् / द्विघाणीम् द्विगु होने से डी। अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) की नाक तीनों लोकों पर ( विजयाथं ) फेंके जा चुके तीन बाणों वाले पुष्पायुध ( काम ) का तिल-पुष्परूप तूणीर है, जो ( शेष बचे उसके ) दो बाणों को रख रहा है, जिनका अनुमान ( दमयन्ती ) के निश्वासों की अतिशय सुगन्धि से किया जा सकता है // 36 // टिप्पणी-- नयनों के वर्णन के बाद इस श्लोक में कवि दमयन्ती की नाक का वर्णन कर रहा है / उसे वह कामदेव की तिल-पुष्प निर्मित तरकस बता रहा है, जिसके अन्दर कामदेव ने अपने पाँच बाणों में से तीन को तीन लोकों के विजयार्थ छोड़ देने पर बचे हुए दो बाण धर रखे हैं। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि दमयन्ती की नाक से निकल रहे निश्वासों में बड़ी भारी सुगन्ध आ रही है / यह तभी हो सकता है जब तरकस रूप में नाक के भीतर पुष्पमय बाण हों / भाव यह निकला कि दमयन्ती के निश्वासों में सौरभ भरा हुआ है और उसकी नाक बनावट में तिल-पुष्प जैसी है। मल्लिनाथ यहाँ नाक पर तूणीरत्व की कल्पना मानकर उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जो गम्य ही हो सकती हैं। विद्याधर ने अतिशयोक्ति कही है, जो समझ में नहीं आ रही है। हम नाक पर तिलकुसुमनिर्मित तूणीरत्व का आरोप मानकर रूपक कहेंगे। उसके साथ काव्यलिङ्ग तो है ही / 'त्रय' 'त्रय' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। बन्धूकबन्धुभवदेतदस्या मुखेन्दुनानेन सहोज्जिहाना। रागश्रिया शैशवयौवनीयां स्वमाह संध्यामधरोष्ठलेखा / / 37 // अन्वयः अनेन मुखेन्दुना सह उज्जिहाना अस्याः अधरोष्ठलेखा राग-श्रिमा बन्धूक-बन्धू-भवत् एतत् स्वम् शैशव-यौवनीयाम् सन्ध्याम् आह ( Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते ___टीका-अनेन प्रत्यक्षं दृश्यमानेन मुखं वदनम् एव इन्दुः चन्द्रः ( कर्मधा० ) तेन सह सार्धम् उज्जिहाना उद्वयन्ती उत्पद्यमानेत्यर्थः अस्या: दमयन्त्या अधरः निम्नश्चासौ ओष्ठः दन्तच्छदः ( कर्मधा० ) तस्य लेखा रेखा ( 10 तत्पु० ) रेखारूपेण स्थितः अधरोष्ठ इत्यर्थः रागस्य लालिम्नः श्रिया कान्त्या ( 10 तत्पु०) बन्धूकः बन्धुजीवकः रक्तपुष्पजातिविशेषः ( 'बन्धूको बन्धुजीवकः' इत्यमरः) तस्य अबन्धुः बन्धुः सखा सम्पद्यमानो भवत् इति बन्धूभवत्ब न्धूकपुष्पसादृश्यं प्राप्नुवदित्यर्थः एतत् प्रत्यक्ष-दृश्यमानम् स्वम् आत्मानम् ( 'आत्मनि स्वम्' इत्यमरः ) शैशवं बाल्यं च यौवनं तारुण्यं चेति ( द्वन्द्व ) तयोः इमाम् सन्ध्याम् आह कथयति / दमयन्त्याः उत्तरोत्तर-वर्धमानाधरोष्ठरक्तिमा आत्मानं शैशव-यौवनवयःसन्धिस्थितम् कथयतीति भावः / व्याकरण---उज्जिहाना उत्/हा + शानच् + टाप् / बन्धभवत् बन्धु + वि, उ को दीर्घ +/भू + शत। यौवनीयाम् ०यौवन + छ, छ को ईय / आह /+ लट् , ब्रू को आह आदेश / - अनुवाद -इस मुख-रूपी चन्द्रमा के साथ ही उदय होती हुई इस ( दमयन्ती) की अधरोष्ठ की रेखा ( अपनी) लालिमा की छटा से गुड़हल के फूल की तरह होते हुए अपने को शैशव और यौवन के वीच की सन्ध्या कह रही है // 37 // टिप्पणी-यहाँ से लेकर आगे के पाँच श्लोकों तक कवि दमयन्ती के अधर का वर्णन कर रहा है / अधर की लाली ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों यौवन अपना अधिकार जमाने लगता है। शैशव में लाली उतनी अधिक नहीं होती है ! मुख-रूपी चन्द्र भी साथ होने से चेहरे पर गौर वर्ण भी झलक रहा है। इस तरह दमयन्ती मुख-गौरत्व और अधर-लालिमा से अपने को शिव और यौवन की सन्ध्या बनाये हुए हैं / सन्ध्या 'सन्धौ भवा' को कहते हैं / दिन और रात की सन्धि को भी इसीलिए सन्ध्या कहते हैं कि उसमें भी उदय होते हुए चन्द्रमा की कुछ सफेदी रहती है और साथ में अस्त होते हुए सूर्य की लाली भी रहती है / 'स्वम्' पर सन्ध्यात्वारोप और मुख पर इन्दुत्वारोप होने से रूपक और 'बन्धूभवत्' में उपमा है / बन्धू 'बन्धू' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अस्या मुखेन्दावधर: सुधाभूबिम्बस्य युक्तः प्रतिबिम्ब एषः / तस्याथ वा श्रीगुमभाजि देशे संभाव्यमानास्य तु विद्रुमे सा // 38 // Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 163 अन्वयः-अस्याः मुखेन्दौ एषः अधरः सुधाभू-बिम्बस्य प्रतिबिम्बः युक्तः, अथवा तस्य श्री: द्रुमभाजि देशे, अस्य तु सा विद्रुमे संभाव्यमाना ( अस्ति ) / टीका-अस्याः दमयन्त्याः मुखम् वदनम् एव इन्दुः चन्द्रः तस्मिन् ( कर्मधा० ) वर्तमान इति शेषः एष पुरो दृश्यमानः अधरः अधरोष्ठः सुधा अमृतम् तस्य भूः भूमिः स्थानमिति यावत् ( 10 तत्पु० ) तस्मिन् बिम्बस्य बिम्बफलस्य अमृतभूम्यां समुत्पन्नस्य बिम्बफलस्येति यावत् प्रतिबिम्बः प्रतिच्छायासदृशः इत्यर्थः युक्तः उचितः अर्थात् तदेव बिम्बफलम् अपरेण साम्यमाप्तुमर्हति यत्खलु अमृतभूमौ न तु वनभूमौ समुत्पन्नं भवेत् यतोऽधरः मुखेन्दौ समुत्पन्न इन्दुश्चामृतभूमिरस्त्येव / वनभूमावुलन्नं बिम्बफलं कामं लोहित्येन किमपि साम्यं वहेन्नाम, किन्तु अमृतभम्यामनुत्पन्नत्वात् तत्, अधरात् सुतरां निकृष्टमेवेति भावः अथवा विकल्पे, वैषम्यस्य कारणान्तरमस्तीत्यर्थः तस्य बिम्बस्य श्रीः शोभा द्रुमान् वृक्षान् भजतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) देशे स्थाने अस्तीति शेषः तु किन्तु अस्य अधरस्य विद्रमे विगताः द्रुमाः यस्मात् तथाभते (प्रादि ब० बी० ) द्रमरहिते देशे अथ च प्रवाले संभाव्यमाना अस्ति संभाव्यते इत्यर्थः / बिम्बफलं द्र मबहुले वनादि-प्रदेशे जायते तल्लतायाः वृक्षाश्रयत्वात् अधरस्तु वृक्षरहिते नगरे तिष्ठतीति तयोः कथं नाम सादृश्यं भवेदिति भावः // 38 // व्याकरण--श्रीः श्रयतीति श्री + क्विप् (निपातित) / द्रुमः द्रु : ( शाखा ) अस्यास्तीति द्रु + मः ( मतुबर्थ ) / भाजि भज् + क्विप् / संभाव्यमाना सम् + /भू + णिच् + शानच ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-इस ( दमयन्ती) के मुख-रूपी चन्द्र में (स्थित ) इस अधर का उचित प्रतिरूप अमृत-भूमि में उत्पन्न बिम्ब फल ही है अथवा उस ( बिम्बफल ) की शोभा द्रम-भरे प्रदेश में है, किन्तु इस ( अधर ) की शोभा द्रमरहित प्रदेश में ही संभव है // 38 // __ टिप्पणी-कवि-जगत् में साधारण स्त्रियों के अधर की तुलना बिम्ब फल से की जाती है, लेकिन चांद से चमकते हुए चेहरे पर दमयन्ती के अधर की बराबरी में बिम्बफल भला कैसे टिक सकता है ? चाँद के पास होने से वह दर्शकों के नेत्रो को अमृत छका रहा है। क्या विम्ब भी कभी ऐसा कर सकता है ? बराबरी के लिए पहले उसे अमृत-भू पर जन्म लेना पड़ेगा। दूसरे बिम्ब की Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 नैषधीयचरिते शोभा वृक्ष भरे जंगल में ही रहती है, इधर अधर की शोभा का जंगल से क्या काम ? वह तो नगर में जगमगा रही है। भाव यह निकला कि बिम्बफल की सुन्दरता जंगली और रूक्ष है, जब कि अधर की शोभा नागरिक और परिष्कृत है। इनका परस्पर विरोध भी तो है क्योंकि एक द्रमसहित प्रदेश की है. तो दूसरी द्रमरहित प्रदेश की। इसलिए बिम्ब की अपेक्षा अधर ही उत्कृष्ट हैं। कवि विद्रुम शब्द में इलेष रखकर दूसरा अर्थ मूंगा भी ले रहा मालूम पड़ता है, अर्थात् बिम्बफल तो नहीं, किन्तु हाँ मूंगे के साथ अधर को समता 'संभाव्य वह भी बराबरी में नहीं आता है। यहाँ मुखपर इन्दुत्वारोप में रूपक, अधर में अधिकता बताने में व्यतिरेक, 'बिम्ब' 'बिम्ब' में यमक, 'द्र म' 'द्रुमे' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। जानेऽतिरागादिदमेव बिम्बं बिम्बस्य च व्यक्तमितोऽधरत्वम् / द्वयोविशेषावगमाक्षमाणां नाम्नि भ्रमोऽभूदनयोजनानाम् // 39 // अन्वयः-अतिरागात् बिम्बम् इदम् एव ( अस्तीति ) जाने / बिम्बस्य च इतः अधरत्वम् व्यक्तम् / द्वयोः अनयोः विशेषावगमाक्षमाणाम् जनानाम् नाम्नि भ्रमः अभूत् / टीका-अतिशयितः रागः अतिरागः अतिलौहित्यम् (प्रादि तत्पु० ) तस्मात् कारणात् बिम्बम् उपमानत्वेन प्रसिद्धं बिम्बफलम् इदम् पुरो दृश्यमानं दमयन्त्या अधरस्वरूपमेव, अर्थात् वास्तविकदृष्ट्या तस्या अधरः एव बिम्बम् अस्ति / बिम्बस्य च इतः अधरात् सकाशात् अधरत्वम् निम्नकोटिकत्वं व्यक्तं स्पष्टमेवास्ति / लौहित्ये बिम्बम् अधरात् निकृष्टमिति हेतोः तदेव अधरम् / द्वयोः अनयोः बिम्बफलाधरयोः विशेषो भेदः तस्य अवगमः बोधः तस्य अक्षमाणाम् असमर्थानाम् ( उभयत्र 50 तत्पु० ) जनानां लोकानाम् नाम्नि नामविषये भ्रमः भ्रान्तिः अभूत् जातः / बिम्बफलाधरयोः पारस्परिकभेदम् अज्ञात्वा अविवेकिभिः जनैः भ्रान्त्या यस्य बिम्बस्य अधर इति नाना भवितव्यमासीत् तस्य बिम्बमिति नाम कृतम्, यस्य च अधरस्य बिम्बमिति नाम्ना भवितव्यम् तस्य अधर इति नाम कृतम् , भ्रमकृतोऽयं नाम-व्यत्यय इति भावः // 39 // Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 165 व्याकरण-विशेषः वि + /शिष् + घन ( भावे ) / अक्षमाः न क्षमाः क्षमन्ते इति क्षम् + अच् ( कर्तरि ) / भ्रमः भ्रम् + घन ( भावे)। अनुवाद-अत्यन्त लाल होने के कारण बिम्ब फल तो सामने यही ( दमयन्ती का निम्न ओष्ठ ) है-ऐसा मैं समझता हूँ। बिम्बफल इसकी अपेक्षा अधर-निम्नकोटि का-स्पष्ट ही है। इन दोनों-विम्ब फल और अधर-में विशेष भेद न समझकर रुकने वाले लोगों को नाम के विषय में भ्रम हो रखा है // 39 // टिप्पणी--यह सर्वविदित है कि उपमान गुण में उपमेय की अपेक्षा अधिक और उपमेय न्यून ही हुआ करता है। इस कसौटी से परखने पर बिम्ब को अधर कहना चाहिए, क्योंकि वह गुण में अधर -हीन है और अधर को बिम्ब कहना चाहिए, क्योंकि वह गुण में अधिक है। गलती से लोगों ने नामों को उलट-पलट कर दिया है। निष्कर्ष यह निकला कि दमयन्ती का अधर लाली में बिम्ब से कई गुना अधिक सुन्दर है। 'इदम्' पर विम्बत्वारोप होने से रूपक है, जो 'जाने' शब्द से वाच्य हुई उत्प्रेक्षा को बना रहा है। 'बिम्ब' 'बिम्ब' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मध्योपकण्ठावधरोष्ठभागौ भातः किमप्युच्छ्वसितौ यदस्याः / तत्स्वप्नसंभोगवितीर्णदन्तदंशेन किं वा न मयापराद्धम् // 40 // अन्वयः- अस्याः मध्योपकण्ठौ अधरोष्ठभागो किम् अपि उच्छ्वसितो यत् भातः तत् स्वप्न 'दंशेन मया वा न अपराद्धम् किम् ? टीका-अस्या दमयन्त्याः मध्यम्य मध्यवर्ति-भागस्य उपकण्ठौ समीपस्थिती ( 10 तत्पु० ) ( उपकण्ठान्तिकाभ्याभ्यना' इत्यमरः ) अधरोष्ठस्य निम्नदन्तच्छदस्य भागो प्रदेशी ( 10 तत्पु० ) किमपि ईषत् यथा स्यात् तथा उच्छवसिती उच्छूनौ यत् यस्मात् भातः लसतः तत् तस्मात् स्वप्ने स्वप्नावस्थायाम् यः संभोगः दमयन्त्या सह इन्द्रियोपभोगः ( स० तत्पु० ) तस्मिन् वितीर्णः दत्तः ( स० तत्पु० ) दन्तदशः दन्तक्षतम् ( कर्मधा० ) दन्तः क्षतम् ( तृ० तरपु०) येन तथाभूतेन ( ब० वी० ) मया वा सम्भवतः न अपराद्धम् मयाऽपराधः कृतः किम् ? अधर-मध्यभागस्य समीपतिनौ वाम-दक्षिण पाश्वौं किमपि प्रवृद्धी विलोकयतो नलस्य शंकाऽभत् 'स्वप्ने मया दन्तक्षतं कृतं स्यात् यत्कृनेयमुच्छूनतेति भावः // 40 // Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते - व्याकरण-उपकण्ठ उपगतः कण्ठमिति (प्रादि तत्पु०) / उच्छ्वसित उत् + /श्वस् + क्तः ( कर्तरि ) / स्वप्न: स्वप् + नक् / वितीर्ण वि + तृ + क्त ( कर्मणि ) रपरत्व, त को न, न को ण / दंशः दंश + घन / अपराद्धम् अप + /राध् + क्त ( भाववाच्य ) / अनुवाद-इस ( दमयन्ती) के अधरोष्ठ के आस-पास के भाग कुछ ऊपर उठे-सूजे से जो लग रहे हैं, स्वप्न में संभोग के समय दन्तक्षत किये हुए मेरा अपराध तो नहीं है यह ? // 40 // . टिप्पणी-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार अधर के पाव-भागों का कुछ उठा होना शुभ लक्षण होता है। इस पर कवि की यह कल्पना है कि मानो दन्तक्षत के कारण ये सूज गये हों। इस तरह यह उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'किम्' शब्द है / 'भागौ' 'भोग' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विद्या विदर्भेन्द्रसुताधरोष्ठे नृत्यन्ति कत्यन्तरभेदभाजः / इतीव रेखाभिरपश्रमस्ताः संख्यातवान् कौतुकवान्विधाता // 41 // अन्वयः-अन्तरभेदभाजः कति विद्याः विदर्भेन्द्रसुताधरोष्ठे नृत्यन्ति इति इव कौतुकवान् विधाता अपश्रमः सन् ताः संख्यातवान् / टोका-अन्तराः अवान्तराः ये भेदा: विशेषाः ( कर्मधा० ) तान् भजन्तीति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) कति कियत्यः विद्याः विदर्भाणाम् इन्द्रः स्वामी विदर्भनरेशः तस्य सुतायाः पुत्र्याः दमयन्त्याः अधरोष्ठे निम्नौष्ठे ( उभत्रय ष० तत्पु० ) नृत्यन्ति स्फुरन्तीत्यर्थः इति (जिज्ञासया) इव कौतुकवान् कुतहली विधाता ब्रह्मा अपगतः श्रमः यस्य तथाभूतः (प्रादि ब० वी० ) श्रमरहितः सन् विनापि कठिनतयेत्यर्थः ताः विद्याः संख्यातवान् गणितवान् / अधरगतसूक्ष्मरेखाभिः विधाता दमयन्तीगताः विद्याः गणितवानिवेति भावः / / 41 / / व्याकरण-भाजः भज + क्विप् ( कर्तरि ) / सुता/सु + क्त + टाप / कौतुकवान् कौतुक + मतुप, म को व / विधाता विदधाति ( जगत् ) इति वि + Vधा + तृच् ( कर्तरि)। ___ अनुवाद-अवान्तर भेदों सहित कितनी विद्यायें विदर्भराज-पुत्री के अधरोष्ठ पर थिरकती हैं-इस ( जिज्ञासा ) से मानो कुतहली ब्रह्मा बिना कठिनाई के उन्हें गिन बैठा है / / 81 / / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्ग. 167 टिप्पणी-रेखा खींचकर गिनती करना प्रसिद्ध ही है। दमयन्ती के अधर पर पड़ी छोटी-छोटी सुन्दर रेखाओं पर कवि की यह कल्पना है कि वे मानो ब्रह्मा द्वारा विद्याओं के सूचक चिह्न बनाये हुए हों। उत्प्रेक्षा अलंकार है। विद्याधर हेतु अलंकार भी कह रहे हैं / 'विद्या' 'विदर्भे' में छेक 'संख्यातवान्' 'कौतुकवान' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। संभुज्यमानाद्य मया निशान्ते स्वप्नेऽनुभूता मधुराधरेयम् / असोमलावण्यरदच्छदेत्थं कथं मयैव प्रतिपद्यते वा // 42 // अन्वयः--निशान्ते स्वप्ने मया संभुज्यमाना इयम् मधुरांधरा अनुभूता, वा ( इयम् ) इत्थम् असीम लावग्य-रदच्छदा ( अस्तीति ) कथम् मया एव प्रतिपद्यते ? टीका--निशायाः रात्रेः अन्ते अवसाने रात्रेः अन्तिम प्रहरे इत्यर्थः (10 तत्पु०) स्वप्ने स्वप्नावस्थायाम् मया संभुज्यमाना संभोगविषयीक्रियमाणा इयम् एषा दमयन्ती मधुरः माधुर्यपूर्ण: अधरः अधरोष्ठः (कर्मधा०) यस्याः तथाभूता (ब०वी०) अनुभूता अनुभवविषयीकृता वा अथवा अन्यथेत्यर्थः इयम् इत्थम् एवम् न सीमा अवधिः यस्य तथाभूतम् ( नन ब० वी० ) लावण्यं सौन्दर्यम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) रदच्छदः ओष्ठः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) अस्ती कथम् केन प्रकारेण मया एव प्रतिपद्यते स्वीक्रियते विश्वस्यते इति याक्त् / यथा संभोगं कुर्वंता मया मधुराधरत्वेनेयं स्वप्नेनुभूता तथा जाग्रदवस्थायामपि दृश्यते इति भावः / / 42 // व्याकरण-संभुज्यमाना सम् + /भुज् + शानच् ( कर्मवाच्य ) / मधुर मधुः माधुर्यमस्यास्तीति मधु + र ( मतुबर्थ ) / इत्थम् इदम् + थम् ( प्रकारवचने ) / रदच्छदः छदतीति छद् + अच् ( कर्तरि ) रदानां ( दन्तानाम् ) छदः। अनुवाद-रात्रि की समाप्ति पर स्वप्न में संभोग करते समय यह ( दम. यन्ती ) मुझे मधुर अधर वाली अनुभूत हुई. अन्यथा यह इस प्रकार असीम लावण्य-भरे अधर वाली है-इस ( बात ) का कैसे मैं ही विश्वास कर पाता ? टिप्पणो-जैसे सपने में दमयन्ती के साथ भोग-विलास में नल ने चुम्बन के समय उसे मधुर अधरवाली पाया, वैसे ही वह जाग्रदवस्था में भी थी। वैसे Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 नैषधीयचरिते जो बात स्वप्नावस्था में लोग देखते हैं, वह जाग्रदवस्था में वैसी नहीं मिलती है, किन्तु आश्चर्य है कि यहाँ स्वप्न और जाग्रत-दोनों अवस्थाओं में बिलकुल तालमेल बैठ रहा है। वास्तव में निशान्त का स्वप्न सच्चा ही होता है। शास्त्र में लिखा भी है-'गोविसर्जन-वेलायां दृष्ट्वा सत्यं फलं भवेत्' / विद्याधर यहाँ विरोधाभास अलंकार कह रहे हैं। जो 'मधुराधरा' हैं वह 'असीमलावण्यरदच्छदा' कैसे हो सकती है, क्योंकि मधुर मीठा और लवण ( नमकीन )दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। लवण शब्द का सुन्दर अर्थ करके विरोध का परिहार हो जाता है / 'धुरा' 'धुरे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / यदि प्रसादीकुरुले सुधांशोरेषा सहस्रांशमपि स्मितस्य / तत्कौमुदीनां कुरुते तमेव निमिच्छय देवः सफलं स जन्म / / 43 // अन्वयः एषा स्मितस्य सहस्रांशम् सुधांशोः यदि प्रसादीकुरुते, तत् स देवः तम् एव निमिच्छय कौमुदीनाम् जन्म सफलम् कुरुते / टीका-एषा इयम् ( दमयन्ती ) स्मितस्य मन्दहासस्य सहस्र सहस्रतममित्यर्थः अंशम् भागम् ( कर्मधा० ) अपि सुधा अमृतम् अंशुषु किरणेषु यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) चन्द्रस्येत्यर्थः यदि चेत् प्रसादीकुरुते प्रसादरूपेण चन्द्राय ददाति, तत् तर्हि स देवः चन्द्रः तम् स्मितसहस्रांशम् एव निमिच्छ्य पूजयित्वा कौमुदीभिः तस्य नीराजनं कृत्वेति यावत् कौमुदीनाम् ज्योत्स्नानाम् किरणानामित्यर्थः जन्म जनिम् सफलं सार्थकम् कुरुते विधत्ते / तस्याः सकाशात् स्मितं लेशं लब्ध्वा चन्द्रः स्वकौमुदीभिः तस्यैव नीराजना-रूपेण पूजां कृत्वा ताः कृतकृत्यीकरोति / चन्द्रकौमुदी दमयन्त्याः स्मितस्य सहस्रतमांशेनापि सादृश्यं न धत्त इति भावः // 43 // व्याकरण-स्मितस्य /स्मि + क्त ( भावे ) सहस्रांशः यहाँ सहस्र शब्द वृत्ति विषय में त्रिदश, त्रिभाग आदि शब्दों की तरह पूरणार्थक हैं अर्थात् सहस्रतमांशः / प्रसादीकुरुते प्रसाद + च्वि ईत्व /कृ + लट् / कौमुदी इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है-“को (पृथिव्यां ) मोदन्ते जना यस्यां तेनासौ कौमुदी मता" इति कु + /मुद् + धन + ङीप् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / निमिच्छय नि + /मिच्छ् + ल्यप् / अनुवाद-यह ( दमयन्ती ) मुस्कान का हजारवाँ भाग भी यदि प्रसाद के Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 169 रूप में चन्द्रमा को दे दे, तो वह देव ( चन्द्रमा ) उसी की (निज किरणों द्वारा) आरती के रूप में पूजा करके किरणो का जन्म सफल कर दे // 43 // टिप्पणी-अधर के बाद अब कवि दमयन्ती के स्मित-मुसकान का वर्णन करने चला है, जो इतनी शुभ्र एवं निर्मल है कि चाँदनी उसके हजारवाँ भाग की भी बराबरी नहीं कर सकती। यदि दमयन्ती कृपा करके स्मित का हजारवाँ भाग चन्द्रमा को दे देवे, तो चन्द्र ही अपनी चाँदनी से उस (स्मित) को आरती उतार कर अपनी चाँदनी का जन्म सार्थक कर दे। यहाँ 'निमिच्छय' शब्द संदिग्ध है। नारायण ने नि-पूर्वक मिच्छ धातु का नीराजना अर्थ लिया, जिसे हम भी अपना रहे हैं। मल्लिनाथ ने 'निमित्य' पाठ दिया है और उसका अर्थ 'स्वकौमुदीषु निक्षिप्य' किया है। चाण्डू पण्डित ने 'निर्मच्छय' पाठ देकर श्लोकार्ध की-तत् स देवः स्मितस्य अंशं निर्मच्छय कौमुदीनां स्वं जन्म सफलं कुरुते = निजाः कौमुदी: स्मितस्य उपरि उत्तार्य त्यजति / अथवा कौमुदीनां देवः तं स्मितांशं निर्मच्छय स्वं जन्म सफलं कुरुते।' ऐसी व्याख्या की है। विद्याधर और ईशानदेव ने 'निमिच्छ्य' पाठ देकर उसका 'भ्रामयित्वा' अर्थ किया है / विद्याधर और चाण्डू पण्डित ने यहाँ अतिशयोक्ति कहा है, क्योंकि कौमुदी से स्मित का सम्बन्ध न होने पर भी यदि शब्द के द्वारा सम्बन्ध की संभावना की गई है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / चन्द्राधिकैतन्मुखचन्द्रिकाणां दरायतं तत्किरणाद्धनानाम् / पुरःसरस्रस्तपृषद्वितीयं रदावलिद्वन्द्वति विन्दुवृन्दम् / 44 // अन्वयः-तत्किरणात् घनानाम् चन्द्रा' 'काणाम् दरायतम् पुरः "तीयम् बिन्दुवृन्दम् रदावलिद्वन्द्वति। टीका-तस्ग पूर्वोक्त-चन्द्रस्य किरणात् किरणेभ्य इत्यर्थः जाती एकवचनात् चन्द्रकिरणापेक्षयेति यावत् (10 तत्पु० ) धनानाम् निबिडानाम् चन्द्रात् अधिकम् उत्कृष्टम् ( पं० तत्पु० ) एतन्मुखम् ( कर्मघा० ) एतस्या दमयन्त्याः मुखम् आननम् ( 10 तत्पु० ) तस्य चन्द्रिकाणाम् कौमुदीनाम् किरणानामित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) दरम् ईषत् यथा स्यात् तथा आयतम् दीर्घम् ( सुप्सुपेतिसमासः ) पुरः अग्रे सरन्तीति तथोक्तानि ( उपपद तत्पु० ) सम्तानि क्षरितानि निःसृतानीति यावत् पृषन्ति बिन्दवः द्वितीयानि ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 नैषधाय चरिते (ब० वी० ) बिन्दुनां पृषताम् वन्दम् समूहः रदानां दन्तानाम् आबलिः पंक्तिः तयोः द्वन्द्वम् युगलम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) इव आचरति तत्सदृशमस्तीत्यर्थः / असंभावः-दमयन्त्याः मुखं चन्द्रादपि उत्कृष्टं वर्तते अतः चन्द्रकिरणापेक्षया तत्किरणाः अधिकघनाः सन्ति / तेषां प्रथमक्षरितबिन्दुसमूहात दमयन्त्याः नीचैःस्था लघुदन्तपक्तिः अनन्तरक्षरितबिन्दुसमूहेन च किमपि आयता उपरितनदन्तपंक्तिः जाता / 44 // व्याकरण-चन्द्रिका चन्द्र + ठन् + टाप / आयत आ + यम् + क्त ( कर्तरि ) / पुरःसर पुरः सरतीति पुर + सु + अच् ( कर्तरि ) / द्वितीय द्वयोः पूरणम् इति द्वि + तीय / द्वन्द्वति द्वन्द्वम् इव आचरतीति द्वन्द्व + क्विप् ( आचारार्थे) + लट् / द्वन्द्वम् द्वौ द्वौ इति इ को अम् और नपुंसक (निपातनात्) / ___ अनुवाद-उस ( चन्द्रमा ) की किरणों की अपेक्षा घने-ठोस-चन्द्रमा से उत्कृष्ट इस ( दमयन्ती ) के मुख ( चन्द्र ) की किरणों से पहले टपकी बूंदों का समूह ( नीचे की) दन्तपंक्ति और ( बाद को ) टपकी बूंदों का समूह ( ऊपर की ) दन्तपंक्ति की जोड़ी का काम दे रहे हैं // 44 // टिप्पणी-यहां से लेकर कवि अब तीन श्लोकों में दमयन्ती के दाँतों का वर्णन करने जा रहा है / लौकिक चन्द्र से दमयन्ती का मुख-चन्द्र कितना ही अधिक उत्कृष्ट है। उसकी किरणें भी अपेक्षाकृत घनी और ठोस-सी हैं। घनी होने से जो किरणें बूंदों के रूप में पहले पतली-ठोस सी गिरी वे निचली दन्तपंक्ति बन गईं और बाद को गिरने वाली किरणों की बूंदें जो कुछ स्थूल-सी थीं वे ऊपर की दन्तपंक्ति बन गईं। शब्दान्तर में उसकी दो दन्तपंक्तियां उसके मुखचन्द्र की ज्योत्स्ना से टपके बूंदों के ठोस रूप हैं। 'घनानाम्' पद देकर कवि यह ध्वनित करता है कि जैसे बादल की पहले गिरी बूदें छोटी होती हैं एवं बाद की गिरी मोटी, उसी तरह मुखज्योत्स्ना की बूंदों का भी हाल है / विद्याधर ने चन्द्रिकाओं पर घनत्वारोप किया है। दांतों का कुछ बड़े घने और छोटे होना सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभ लक्षण है / मुख पर गम्य रूप में चन्द्रत्वारोप होने से रूपक है। आचारार्थ में 'द्वन्द्वति' में क्विप होने से यहाँ विद्याधर उपमा कह रहे हैं / आचार सादृश्य का ही नामान्तर है, लेकिन हमारे विचार से आचार यहाँ संभावना-परक समझा जाना चाहिए क्योंकि यह कवि-कल्पना ही Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः है कि दन्तपंक्तियाँ मानो मुखचन्द्र से टपकी ज्योत्स्ना की ठोस अवस्था को प्राप्त बूंदें हों। इसलिए यह उत्प्रेक्षा ही है। चन्द्र से आधिक्य बताने में व्यतिरेक है। विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति भी मानी है / 'चन्द्रा' 'चन्द्रिका' तथा 'बिन्दु' 'वृन्द' मे छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सेयं ममैतद्विरहातिमूर्छातमोविभातस्य विभाति संख्या। महेन्द्रकाष्ठागत रागक/ द्विजैरमीभिः समुपास्यमाना // 45 // अन्वयः-सा इयम् मम एतद्वि."तस्य महेन्द्र.. की अमीभिः द्विजैः समुपास्यमाना संध्या विभाति / टीका-सा इयम् एषा दमयन्ती मम एतया दमयन्त्या सह यो विरहः वियोगः तेन या आति: तजनिता पीडेत्यर्थः तया या मूर्छा मोहः ( सर्वत्र 40 तत्पु० ) एव तमी रजनी रात्रिरिति यावत् ( 'रजनी यामिनी तमी' / इत्यमरः) (कर्मधा० ) तस्याः विभातस्य प्रातःकालस्य (10 तत्पु० ) महेन्द्रस्य मघोनः काष्ठागतरागः (10 तत्पु० ) काष्ठम् उत्कर्षम् गतः प्राप्तः ( द्वि० तत्पु० ) यो रागः प्रणयः अथ च महेन्द्रस्य काष्ठां दिशाम् पूर्वदिशामित्यर्थः ( 'काष्ठोत्कर्षे स्थितौ दिशि' / इत्यमरः) गतः रागः लालिमा तस्य की जनिका (10 तत्पु०) अमोभिः एतैः प्रत्यक्षं दृश्यमानैः द्विजैः दन्तः अथ च विप्रैः ( 'दन्त-विप्राण्डजाः द्विजाः' / इत्यमरः ) समुपास्यमाना सेव्यमाना सन्ध्या प्रातःसन्ध्या निशान्तः इति यावत् बिभाति राजति / दन्तज्योत्स्नया मे विरहाधिमूर्छानिशाम् अपाकुर्वतीयं दमयन्ती प्रातःसन्ध्येव प्रतीयते इति भावः // 45 // व्याकरण-आर्तिः आ + /ऋ + क्तिन् ( भावे ) / मूर्छा मूर्छ + अङ् ( भावे ) + टाप् / तमी तमम् अस्यामस्तीति तम + इन् (मतुबर्थ ) + ङीप् / द्विजैः द्वाभ्यां जायते इति द्वि + / जन् + ड। ब्राह्मण पहले गर्भ से तब संस्कारों से होता है ( 'जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते' ) / दांतों के सम्बन्ध में व्युत्पत्ति द्विर्जायते होगी, क्योंकि दांत दो बार होते हैं (पृषोदरादित्वात् रेफ लोप ) / समपास्यमाना सम् + उप् + आस् + शानच् ( कर्मवाच्य ) उप उपसर्ग लगने से आस् धातु सकर्मक हो जाता है / अनुवाद - ( अपने में ) इन्द्र के राग (प्रेम ) को काष्ठा (चरम सीमा) को पहुँचा देने वाली, इन द्विजों ( दांतों) से शोभायमान वह यह ( दमयन्ती) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 नैषधीयचरिते मेरे लिये इसके साथ वियोग के कारण वेदना से उत्पन्न मूर्छा-रूपी निशा की प्रभात सन्ध्या के रूप में चमक रही है (प्रभात-सन्ध्या भी इन्द्र की काष्ठा (पूर्व दिशा ) में राग (लाली) उत्पन्न करने वाली एवं द्विजों (ब्राह्मणों) द्वारा पूजी जाती है) / / 45 // टिप्पणी-नल दमयन्ती के वियोग में वेदना से तड़पते हुए कभी मूर्छा को भी प्राप्त कर लेते थे, लेकिन आज शुभ्र दन्तावली में चमकती हुई प्रेयसी को रखा था और स्वयं भी वे उसका दूत बनकर आये हुए थे। उनके लिए वह उनकी मूर्छा-निशा की प्रातः सन्ध्या बन बैठी। यहाँ मूर्छा पर निशात्वारोप होने से रूपक है। कवि ने श्लिष्ट भाषा का प्रयोग करके दमयन्तो के साथ सन्ध्या का सादृश्य भी बता रखा है। वे दोनों राग करने वाली, श्वेतिमा लिए और द्विजोपासित हैं। सादृश्य-वाचक शब्द यहाँ कोई नहीं दिया गया है, अतः दमयन्ती पर सन्ध्यात्वारोप मानकर यहाँ श्लिष्ट रूपक कहैं या फिर विभाति शब्द को कल्पना-वाचक मानकर श्लिष्ट उत्प्रेक्षा कहैं-यह सन्देह बना रहने से इसे हम सन्देहसंकर कह सकते हैं मल्लिनाथ शुद्ध उत्प्रेक्षा मान बैठे हैं। 'विभात' 'विभाति' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। राजौ द्विजानामिह राजदन्ताः संविभ्रति श्रोत्रियविभ्रमं यत् / उद्वेगरागादिमृजावदाताश्चत्वार एते तदवैमि मुक्ताः // 46 // अन्वयः-इह द्विजानाम् राजौ उद्वेग दाता एते चत्वारः राजदन्ताः यत् श्रोत्रिय-विभ्रमम् संविभ्रति तत् मुक्ताः अवैमि ! टीका-इह अस्याम् पुरोदृश्यमानायाम् द्विजानाम् दन्तानाम् अथ च विप्राणाम् राजौ पंक्तौ उद्वेगः पूग-फलम् ( 'घोण्टा तु पूगः क्रमुको गुवाकः खपुरोऽस्य तु / फलमुद्वेगम्' इत्यमरः) तेन रागः लौहित्यम् ( तृ० तत्पु० ) आदी यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) खदिरादिकस्य मृजया शोधनेन (10 तत्पु० ) अवदाता: उज्ज्वलाः ( तृ० तत्पु० ) अथ च उद्वेगः उद्विग्नता चित्तविक्लवतेति यावत् च राग: विषयाभिलाषश्च ( द्वन्द्व ) आदी येषान्तथाभूतो द्वषादिः तस्य मृजया मार्जनेन त्यागेनेत्यर्थः अवदाताः निष्पापाः एते पुरो दृश्यमानाः चत्वारः चतुःसंख्यकाः राजदन्ताः दन्तानां राजानः श्रेष्ठदन्ता इत्यर्थः अथ च राजत् अन्तः Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सगः स्वरूपं येषाम् यत् यस्मात् श्रोत्रियाणाम् वेदपाठिनाम् विभ्रमम् भ्रान्तिम् अथवा शोभाम् ( 10 तत्पु० ) संविभ्रति धारयन्ति तत् तस्मात् मुक्ताः मौक्तिकानि अथ च मुक्ति प्राप्तान् अवैमि वेभि / दमयन्त्याः अग्रीयाश्चत्वारो दन्ताः दन्तशोधनचूर्णेन दन्तधावनकूर्चकेन वा अपाकृतपूगीफलताम्बूलादिरागा: अतएव शुभ्राः सन्तो मौक्तिकानीव प्रतीयमानाः आत्मनि तादृशानां श्रोत्रियाणां भ्रम जनयन्तिस्म ये रागद्वष-वैक्लव्यादि दोष परित्यागेन निष्पापाः स्वरूपतो राजदन्ता जीवन् मुक्ताः सन्तीति भावः // 46 / / व्याकरण-द्विजानाम् इसके लिए पिछला श्लोक देखिए / मृजा - मृज् + अङ् ( भावे ) + टाप् / अवदात अव + //दै ( शोधने ) + क्तः श्रोत्रियः श्रोत्रं ( वेदम् ) अधीते वेत्ति वेति श्रोत्र + घ, घ को इय / राजदन्ताः राजन् का विकल्प से पूर्वनिपात / अनुवाद-इन द्विजों ( दाँतों ) की पंक्ति में उद्वग ( सुपारी ) की लाली आदि को साफ कर देने से उज्ज्वल बने इन ( आग के ) चार श्रेष्ठ दाँतों को मैं मुक्ता ( मोती) समझता हूँ, जो चार ऐसे श्रोत्रियों की शोभा अपना रहे हैं, जो द्विजों ( ब्राह्मणों ) की पंक्ति में राजदन्त--चेहरे से प्रकाशमान-उद्वेग (चित्तवैक्लव्य ) तथा रागादि ( दोषों ) का परित्याग कर देने से निर्मल हुए जीवन्मुक्त हैं // 46 // टिप्पणी-दमयन्ती के सामने के चार उच्च दाँतों पर कवि मोतियों की कल्पना करके उनके लिए चार श्रोत्रियों का अप्रस्तुत विधान कर रहा है / श्लिष्ट विशेषण के कारण विद्याधर प्रस्तुत दांतों पर अप्रस्तुत श्रोत्रियों के व्यवहार का समारोप मानकर समासोक्ति मान रहे हैं किन्तु अप्रस्तुत श्रोत्रिय यहां वाच्य है, व्यङ्गय है ही नहीं। मल्लिनाथ 'अवैमि' को 'मन्ये' के अर्थ में लेकर उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जिसे श्लिष्ट ही कहा जायेगा। हमारे विचार से यहां 'विभ्रम' शब्द अलंकार का निर्णायक है। साधारणतः विभ्रम भ्रान्ति और कामुक चेष्टा अर्थात् विलास को कहते हैं। भ्रान्ति अर्थ लेकर यहां भ्रान्तिमान् तो नहीं बन सकता है, क्योंकि दांतों और श्रोत्रियों में आर्थ सादृश्य कोई नहीं है। केवल शाब्द सादृश्य है। विभ्रम का शृङ्गारिक चेष्टा अर्थ भी यहां संगत नहीं होता है / हां विभ्रम शब्द को कवियों ने शोभा के अर्थ में भी कहीं-कहीं प्रयुक्त किया Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 नैषधीयचरिते है, देखिए माघ-'रुचिरे रुचिरेक्षणविभ्रमाः' ( 6-46) / मल्लिनाथ ने इसका अर्थ शोभा ही किया है / माघ ने अन्यत्र भी (7 / 15, 16 / 64 ) विभ्रम को इसी अर्थ में प्रयुक्त किया है। भवभूति के भी प्रयोग मिलते हैं। अतः हम भी शोभा ही अर्थ लेंगे। श्रोत्रियों की शोभा श्रोत्रियों में ही हो सकती है, दांतों में नहीं, अतः असंभवद्वस्तु सम्बन्ध होने से यहां विभ्रमम् इव विभ्रमम्-यों बिम्बप्रतिबिम्बभाव मानकर हम निदर्शना कहेंगे जिसका पर्यवसान सादृश्य में होता है। 'राजी' 'राज' में छेक, 'बिभ्र' विभ्र' में ( बवयोरभेदात् ) यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। शिरीषकोषादपि कोमलाया वेधा विधायाङ्गमशेषमस्या प्राप्तप्रकर्षः सुकुमारसर्गे समापयद्वाचि मृदुत्वमुद्राम् // 47 // अन्वयः- वेधाः शिरीषकोषात् अपि कोमलायाः अस्याः अशेषम् अङ्गम् विधाय सुकुमार-सर्गे प्राध-प्रकर्षः सन् वाचि मृदुत्व-मुद्राम् समापयत् / टोका-वेषा: विधाता शिरीषस्य पुष्पविशेषस्य कोषात् कुड्मलात् कलिकातः इत्यर्थः ( 'कोषोऽस्त्री कुडमले' इत्यमरः ) कोमलायाः मृदोः अस्याः दमयन्त्याः अशेषम् न शेषोऽस्यास्तीति तथाभूतम् ( नन् ब० वी० ) निखिलम् समग्रम् अंगम् जातावेकवचनम् अवयवान् विधाय निर्माय सुकुमाराणाम् मृदूनाम् पदार्थानाम् इति शेषः सर्गे सृष्टी ( 10 तत्पु० ) प्राप्तः लब्धः प्रकर्ष: उत्कर्षः (कर्मधा०) येन तथाभूतः ( ब० वी० ) सन् वाचि वाण्याम् मृदुत्वस्य सौकुमार्यस्य मुद्राम् विशेषचिह्नमित्यर्थः, (ष. तत्पु.) समापयत् समाप्तिम् अनयत् / दमयन्त्याः सुकुमार-सुकुमारतराण्यङ्गानि विनिर्माय ब्रह्मा अन्ते सुकुमारवस्तुनिर्माणनैपुणीं तस्या वा निर्माण पराकाष्ठामनयदिति भावः // 47 // व्याकरण-वेधाः विदधाति इति वि + Vधा + असुन्, गुण / प्रकर्षः प्र + कृष् + घन् / वाक् वक्तीति इति/वच + क्विप्, दीघ, सम्प्रसारणाभाव / समापयत् सम् + आप् + णिच् + लङ् ! अनुवाद-शिरीष पुष्प की कली से भी कोमल इस ( दमयन्ती ) के सभी अङ्गों को बनाकर कोमल वस्तुओं के निर्माण में पूर्ण उत्कर्ष प्राप्त किये हुए ब्रह्मा ने इस ( दमयन्ती ) की वाणी के ( निर्माण ) पर कोमलता की अन्तिम छाप लगा दी है // 47 // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः टिप्पणी -अब कवि चार श्लोकों में दमयन्ती की वाणी का वर्णन करता है / ब्रह्मा ने कोमलता निर्माण की निपुणता दमयन्ती का कण्ठ-स्वर बनाने में समाप्त कर दी अर्थात् उसका कण्ठस्वर अति मृदु और अति मधुर था / विद्याधर के शब्दों में ( अत्रातिशयोक्तिपरिसंख्यालंकारसंकरः) अतिशयोक्ति इस रूप में हो सकती है कि ब्रह्मा की मृदुत्व-मुद्रा के साथ समाप्ति का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है / परिसंख्या भी इस रूप में हो सकती है कि मृदुत्वमुद्रा अन्य पदार्थों से हटाकर दमयन्ती की वाणी पर ही स्थापित की गई है। 'वेधा' 'विधा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रसूनवाणाद्वयवादिनी सा काचिद्विजेनोपनिषपिकेन / अस्याः किमास्यद्विजराजतो वा नाधीयते भैक्षभुजा तरुभ्यः // 48 // अन्वयः-वा तरुभ्यः भैक्ष-भुजा पिकेन द्विजेन प्रसूनबाणाद्वयवादिनी सा का अपि उपनिषत् अस्याः आस्य-द्विजराजतः न अधीयते किम् ? टीका-तरुभ्यः आम्रादिभ्यो वृक्षेभ्यः भैक्षम् भिक्षा-समूहम् भुङ्क्ते भक्षयतीति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) वृक्षेभ्यः फल-पुष्प-मञ्जर्यादिरूपेण भिक्षाम् आदायेत्यर्थः पिकेन कोकिलेन द्विजेन पक्षिणा प्रसूनानि पुष्पाणि बाणाः शराः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः अद्वयम् अद्वतं ( 10 तत्पु० ) वदतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) सा दमयन्ती-वाक का अपि अविर्वचनीया उपनिषत् रहस्यात्मकग्रन्थ इत्यर्थः अस्याः दमयन्त्याः आस्यम् मुखम् एव द्विजराजः ( कर्मधा० ) द्विजानां नक्षत्राणां राजा स्वामी तस्मात् चन्द्रादित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) न अधीयते पठ्यते किम् ? अपि तु अधीयते एवेति काकुः / जगति कामसन्देशप्रदायिना पिकेन कामाद तसिद्धान्तप्रतिपादकदमयन्तीमुखचन्द्रसकाशात् कामरहस्यशिक्षा गृह्यते इवेति भावः / अत्र व्यञ्जनया अयमपरोऽप्यर्थों ध्वन्यते यथा-तरुसदृशेभ्यो गृहस्थेभ्यः भैक्षमादाय केनापि द्विजेन-ब्राह्मणेन-द्विजराजस्य श्रेष्ठब्राह्मणस्य आचार्यरूपस्य सकाशात् ब्रह्माद्व तसिद्धान्तप्रतिपादिका उपनिषद् अधीयते / / 48 // व्याकरण-भैक्षम् भिक्षाणां समूह इति भिक्षा + अण् / द्विजेन इसकी व्युत्पत्ति हेतु पीछे श्लोक 45 देखिए। द्विज नक्षत्रों को भी संभवतः इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे भी एकबार उत्पन्न होकर दिन में नष्ट हो जाते हैं और फिर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते रात को उत्पन्न हो जाते हैं। इसी तरह द्विज पक्षी को भी इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह पहले गर्भ से और फिर अण्डे से उत्पन्न होता है। आस्यम् इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिए / अधीयते अधि + इ + लट् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-अथवा वृक्षों से ( फलपुष्पादि-रूप में भीख ( मांगकर ) खाने वाली कोयल द्विज ( पक्षी ) कामाद तवाद की वह अनोखी रहस्यात्मक बात इस ( दमयन्ती ) के मुख-रूपी द्विजराज ( चन्द्रमा ) से नहीं सीखती रहती है क्या ? (जिस तरह कि भीख ( मांगकर ) खाने वाला कोई द्विज ( ब्राह्मण) ब्रह्माद्वैत-प्रतिपादक गूढ़ उपनिषद् ग्रन्थ द्विजराज ( श्रेष्ठ ब्राह्मण ) से सीखा करता है ) // 48 // टिप्पणी-दमयन्ती का मुख और वाणी कामोद्दीपक हैं। उनके सामने आते ही सर्वत्र काम के अद्वैतवाद का एकच्छत्र साम्राज्य छा जाता है / काम के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता। कोयल की स्वर-माधुरी भी निस्सन्देह कामोद्दीपक होती है, लेकिन वह तो दमयन्ती की वाणी की चेली ही ठहरी / कहाँ चेली, कहाँ गुरुआणी। यहाँ आस्य-द्विजराज पर आरोप होने से रूपक है; विद्याधर ने कोयल और आस्य पर चेली और गुरु का व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति कही है, किन्तु हम उत्प्रेक्षा कहेंगे। वाणी को कोयल की वाणी से अधिक बताने में व्यतिरेक भी है, 'द्विजे' 'द्विज' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास हैं। कवि ने अपनी भाषा को श्लिष्ट बनाकर यहां एक दूसरे अर्थ की ओर भी स्पष्टतः संकेत कर रखा है। उस अप्रस्तुत अर्थ का प्रकृत से कोई सम्बन्ध नहीं, अतः उनका उपमानोपमेय भाव सम्बन्ध बनाकर प्रतीयमान अर्थ को हम उपमाध्वनि ही कहेंगे। आस्यद्विजराजत:--- संस्कृत भाषा में यह एक विचित्र बात देखने में आती है कि मुख और उसके पर्यायवाची आनन, वक्त्र आदि सभी शब्द चेहरा और मुंह-दोनों के वाचक होते हैं यद्यपि चेहरा ( Face ) और मह ( Mouth ) ( जिससे हम बोलते, खाते हैं ) दो विभिन्न वस्तुयें होती हैं। यहां कवि दमयन्ती के मुंह अर्थात् वाणी का वर्णन करके कोयल के सम्बन्ध में कल्पना कर रहा है कि मानो वह दमयन्ती के 'आस्य द्विजराज' से शिक्षा पा रही हो / चन्द्रमा जैसा तो चेहरा होता है, जिससे कोयल का क्या सम्बन्ध ? प्रकरण तो वाणी का चल रहा है न कि चेहरे का। चेहरे का वर्णन तो कवि फिर आगे आठ-नौ श्लोकों में करेगा। कोयल दमयन्ती की अमृत-जैसी मधुर-कोमल वाणी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः न. से जैसे शिक्षा पा रही हो-ऐसा वर्णन उचित है। उसके चाँद-जैसे चेहरे से शिक्षा पाने में हमें कवि की विसंगति-सी लग रही है / इसे कवि ने अगले श्लोक में भी दोहरा रखा है। पद्माङ्कसद्मानमवेक्ष्य लक्ष्मीमेकस्य विष्णोः श्रयणात्सपत्नीम् / आस्येन्दुमस्या भजते जिताब्जं सरस्वती तद्विजिगोषया किम् // 49 // __अन्वयः-सरस्वती एकस्य विष्णोः श्रवणात् सपत्नीम् लक्ष्मीम् पद्माङ्कसद्मानम् अवेक्ष्य तद्विजिगीषया जितान्जम् अस्याः आस्येन्दुम् भजते किम् ? टीका-सरस्वती वाग्देवी एकस्य केवलस्य विष्णोः हरेः श्रयणात् आश्रयणात् कारणात् सपत्नीम् समानः एकः पतिः यस्याः तथाभूता (ब० वी०) पत्युः द्वितीया पत्नीत्यर्थः ताम् लक्ष्मीम् श्रियम् पद्मस्य कमलस्य अङ्कः क्रोर: (10 तत्पु० ) सद्म गृहम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूताम् (व० बी० ) कृतकमलगृहाम् सतीम् अवेक्ष्य दृष्ट्वा तम्याः सपत्नीभूतायाः लक्ष्म्याः विजिगीषया विजेतुमिच्छया ( 10 तत्पु० ) जितं पराजितम् अन्जं कमलं येन तथाभूतम् (ब० वी०) अस्याः दमयन्त्याः आस्यम् मुखम् इन्दुमिव ( उपमित तत्पु० ) भजते सेवते किम् ? स्वां सपत्नी लक्ष्मी पद्मे कृतगृहां दृष्ट्वा ईय॑या ज्वलन्ती सरस्वती पद्मापेक्षया उत्कृष्टम् पद्मविजयि दमयन्ती-मुखं स्वगृहं करोतीवेति भावः // 49 // व्याकरण-सपत्नी समान + पतिः ( "नित्यं सपल्यादिषु 4 / 1 / 35 ) + डीप, नकार और समान शब्द को स / सद्मन् सीदन्त्यस्मिन्निति / सद् + मनिन् / विजिगीषा वि + /जि + सन् + अ + टाप / अब्जम् अप्सु जायते इति अप् + चन् + ड। आस्यम् इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिये। __ अनुवाद-सरस्वती एक ही ( पति ) विष्णु को अपनाने के कारण सौत ( बनी ), लक्ष्मी को कमल की गोद को ( अपना ) घर बनाये हुए देखकर उसको जीतने की इच्छा से कमल को जीतने वाले इस ( दमयन्ती ) के चांदजैसे मुख का आश्रय ले रही है क्या ? टिप्पणी-विष्णु की लक्ष्मी और सरस्वती दो पत्नियां होने से उनमें परस्पर सौतिया. डाह होना स्वाभाविक है। एक दूसरी को नीचा दिखाना सौतों का काम होता ही है। सरस्वती ने देखा कि लक्ष्मी ने कमल को अपना घर बना रखा है, तो उसके कमल से बढ़ा-चढ़ा दमयन्ती का मुख अपना घर बना Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 नैषधीयचरिते दिया। दमयन्ती के मुख में सरस्वती के वास से यह सिद्ध हुआ कि वह बड़ी विदुषी है / यह कवि की कल्पना ही है, इसलिए उत्प्रेक्षा है; आस्य पर इन्दुत्वारोप में रूपक है 'पद्मा' सद्मा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, जिते' 'जिता' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सरस्वती-हम पीछे सर्ग 3 श्लोक 30 में देख आये हैं कि कवि ने सरस्वती को ब्रह्मा की पत्नी कहा है, लेकिन वह यहां उसे विष्णु की पत्नी कह रहा है / सर्ग 11 श्लोक 66 में भी उसने सरस्वती को विष्णुपत्नी के रूप में उल्लिखित किया है। यह एक असंगत बात ही समझिये। इस सम्बन्ध में जैसे कि राजशेखर ने भी कहा है-यह कथा प्रचलित है कि श्रीहर्ष ने अपने नैषधकाव्य को काश्मीर में भारती-पीठ में शुद्धाशुद्ध परीक्षार्थ जब भारती के हाथ में दिया, तो उसने उसे नीचे पटक दिया यह कहकर कि यह अशुद्ध है, क्योंकि तुमने इसमें मुझे विष्णुपत्नी कहा है। इस पर श्रीहर्ष बोले कि एक अवतार में क्या तुमने विष्णु को अपना पति नहीं बनाया था ? पुराणों में भी तुम विष्णुपत्नी के रूप में उल्लिखित हो ही। सचाई से मुकरकर क्यों कुपित होती हो ? कुपित होकर कोई कलंक से छूट सकता है क्या ? श्रीहर्ष का यह उत्तर सुनकर सहमी हुई वाग्देवी ने उनका काव्य हाथ में ले लिया और शुद्ध कहकर सभा में उसकी प्रशंसा की। सरस्वती के विष्णु-पत्नी होने के सम्बन्ध में मल्लिनाथ ऋचा भी प्रमाण में दे रहे हैं—'तथास्वपि दृश्यते यथा-'पुरुषोत्तमस्य जगन्नाथस्य पाइँ लक्ष्मी-सरस्वत्यौ तयोः सुरतवादापचारश्च' / कण्ठे वसन्ती चतुरा यदस्याः सरस्वती वादयते विपञ्चीम् / तदेव वाग्भूय मुखे मुमक्ष्यिाः श्रोतुः श्रुतो याति सुधारसत्वम् // 50 // अन्वयः-अस्याः कण्ठे वसन्ती चतुरा सरस्वती यत् विपञ्चोम् वादयते, तत् एव मृगाक्ष्याः मुखे वाग्भूय श्रोतुः श्रुतौ सुधारसत्वम् याति / ___टोका--अस्याः दमयन्त्याः कण्ठे गले वसन्ती निवासं कुर्वती चतुरा निपुणा सरस्वती यत् विपञ्चीम् वीणाम् वादयते वादनं करोति तत बादनम् एव मृगस्याक्षिणी इवाक्षिणी यस्यास्तथाभूतायाः ( ब० वी० ) मृगनयन्याः दमयन्त्याः इत्यर्थः मुखे कण्ठे वाग्भूय वाणीरूपेण परिणम्येत्यर्थः श्रोतुः श्रवणकर्तुः जनस्य श्रुतौ कर्णे सुधा अमृतम् एव रसः द्रवः ( कर्मधा० ) तस्य भावः तत्त्वम् याति प्राप्नोति / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः दमन्तीकण्ठाधिवासि-सरस्वती-वीणावादनध्वनिरेव व्यक्ता दमयन्या अमृतस्राविणी वाण्यस्तीति भावः / / 50 // व्याकरण-वसन्ती Vवस् + शतृ + ङीप् / वागभूय अवाक वाक् सम्पद्यभाना भूत्वेति वाक् + /भू + च्चि + ल्यप् / श्रुतिः श्रूयतेऽनयेति Vश्रु + क्तिन् ( करणे)। अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) के कण्ठ में निवास करती हुई ( वीणावादन में ) निपुण सरस्वती ज्योंही वीणा बजाती है, वही ( वीणाध्वनि ) मृगनयनी ( दमयन्ती ) के मुख में वाणी बनकर श्रोता के कानों में अमृतरस घोल देती है // 50 // टिप्पणी-दमयन्ती की वाणी में अमृत की सी मिठास है, जिसपर कवि यह कल्पना कर रहा है कि मानो वह सरस्वती को व्यक्त रूप में प्रकट हुई वीणाध्वनि हो / इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, जो वाचक शब्द के अभाव में प्रतीयमाना ही है / विद्याधर ने अतिशयोक्ति कहा है क्योंकि यहाँ देवो रूपी सरस्वती एवं वाणी रूपी सरस्वती दोनों में अभेदाध्यवसाय है / 'श्रोतुः' 'श्रुतौ' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। विलोकितास्या मुखमुन्नमय्य किं वेधसेयं सुषमासमाप्तौ। धृत्युद्भवा यच्चिबुके चकास्ति निम्ने मन गङ्गुलियन्त्रणेव // 51 // अन्वयः-विधिना इयम् सुषमा-समाप्तौ मुखम् उन्नमय्य विलोकितास्या (कृता ) किम् ? यत् मनाक् निम्ने चिबुके धृत्युद्भवा अगुलियन्त्रणा इव चकास्ति। टोका-विधिना ब्रह्मणा इयम् एषा दमयन्ती सुषुमायाः सौन्दर्यस्य समाप्तौ अवसाने ( 10 तत्पु० ) मुखम् वदनम् उन्नमय्य उत्थाप्य विलोकितं दृष्टम् आस्यम् मुखम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी०) कृता किम् ? मुखसौन्दर्यं विनिर्माय कीदृशमिदं मुखं जातमिति द्रष्टु करेण तत् उत्थापितं किम् इति भावः / यत् यस्मात् मनाक किमपि यथा स्यात्तथा निम्ने नते, नीचैः भूते गभीरे इति यावत् चिबुके अधरस्याधस्तात् स्थिते अङ्गविशेषे धृते. धारणात् उद्धव: संभवः ( पं० तत्पु० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी०) अगुल्या करशाखया अङ्गुष्ठेनेत्यर्थः यन्त्रणा नियमना संपीडनेति यावत् ( तृ० तत्पु० ) इव Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 नैषधीयचरिते चकास्ति भाति / अङ्गुष्ठ द्वारा ग्रहणेन संपीडितः चिबुकमध्यभागः किमपि अधोगत इव प्रतीयते इति भावः / / 51 // व्याकरण-विधि: विदधाति ( जगत् ) इति वि+Vधा + कि / समाप्तौ सम् + आप् + क्तिन् ( भावे) / उन्नमय्य उत् +/नम् + णिच् + ल्यप् , अयादेश / आस्थम् इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिए / धृतिः धृ + क्तिन ( भावे ) / उद्भवः उत् + Vभू + अप् ( भावे)। यन्त्रणा यन्त्र + णिच् + युच् , यु को अन, न को ण + टाप् / अनुवाद-विधाता ने सौन्दर्य ( निर्माण.) की समाप्ति पर ( दमयन्ती का) मुख ऊपर उठाकर देखा होगा क्या? तभी तो कुछ नीचे गई ठुड्डी का अंगुलि द्वारा दबाये जाना जैसा लग रहा है / 51 // टिप्पणी-वाणी-वर्णन के वाद नल अब दमयन्ती की ठुड्डी का वर्णन कर रहा है। विधाता ने उसके मुख के निर्माण पर अपना सारा सौन्दर्य लगा दिया, तो आत्म-तुष्टि हेतु जैसे कि सभी कलाकार किया करते हैं—उसने सोचा कि देखू मुख कितना सुन्दर बना है। उसने हाथ से मुख उठाया, तो कोमल होने के कारण अंगूठे का दबाव पड़ने से छुड्डी कुछ बीच में धंस-सी गई लग रही है / वीच में कुछ धंसी ठुड्डी सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभ लक्षण रूप में मानी गई है / यह कवि की कल्पना है, अतः उत्प्रेक्षा है, जिसके साथ अनुमान भी है / 'षमा' 'समा' में ( षसयोरभेदात् ) छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रियामुखीभूय सुखो सुधांशुर्जयत्ययं राहुभयव्ययेन / इमां दधाराधरबिम्बलीलां तस्यैव बालं करचक्रबालम् / / 52 // अन्वयः-अयम् सुधांशुः प्रियामुखीभूय राहुभयव्ययेन सुखी सन् जयति / तस्य एव करचक्रवालम् इमाम् अधरविम्बलीलाम् दधार / ___टीका-अयम् एष सुधा अमृतम् अंशुषु किरणेषु यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) चन्द्र इत्यर्थः प्रियायाः प्रेयस्याः अस्याः दमयन्त्याः अमखं मुखं सम्पद्यमानं भूत्वेति मुखीभूय राहोः विधुन्तुदात् भयस्य (पं० तत्पु० ) व्ययेन अपगमनेनेत्यर्थ: (प० तत्पु० ) सुखी निश्चिन्तः सन् जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते / तस्य सुधांशोः एव कराणाम् चक्रवालम् उदयकालीन लोहित-रश्मिसमूह इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) इमाम् पुरः प्रत्यक्षं दृश्यमानाम् अवरः बिम्बमिव ( उपमित तत्पु० ) तस्य लोलाम् विलासम् (10 तत्पु० ) वघार दधौ / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 181 व्याकरण-०मुखीभूय मुख + भू + च्चि, ईत्व + /भू + ल्यप् / भयम् भी + अच् ( भावे ) / व्ययः वि + /इ + अच् ( भावे ) / वधार/धु + लिट् / ___ अनुवाद-यह चन्द्रमा प्रियतमा का मुख बनकर राहु का डर चले जाने से सुखो हो मौज कर रहा है। उसी ( चन्द्रमा ) का किरण-समूह यह (सामने) बिम्ब-जैसे अधर की लीला अपना बैठा है // 52 // टिप्पणी-यहाँ से कवि नौ श्लोकों तक दमयन्ती के मुख का चित्रण कर रहा है। मुख पर पहली कल्पना तो उसकी यह है कि मानो आकाश को छोड़कर चन्द्रमा दमयन्ती का मुख बन गया हो जिससे कि उसे सदा के लिए राहु का डर न रहे। दूसरी कल्पना यह है कि उसी चन्द्रमा की उदय-कालीन लाललाल किरणें इकट्ठी हो दमयन्ती का अधर बन गई हों। परस्पर निरपेक्ष होने से यहाँ दो गम्य उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि है। विद्याधर ने अतिशयोक्ति और व्यतिरेक माना है। आरोप-बिषय मुख 'अयम्' और अधर 'इमाम्' शब्दों से अनिगीण-स्वरूप होने के कारण भेदे अभेदातिशयोक्ति के लिए तो स्थान नहीं है। हाँ रूपक माना जा सकता है / यदि विद्याधर का अभिप्राय मुख से चन्द्रमा का और अधर से किरणों का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताना हो, तो बात दूसरी है। शन्दालंकारों में से 'मुखी' 'सुखी' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'धारा 'धर' में छेक, 'वालं' 'वालं' में यमक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। अस्या मुखस्यास्तु न पूर्णमास्यं पूर्णस्य जित्वा महिमा हिमांशुम् / भ्रलक्ष्म खण्डं दधदर्धमिन्दुर्भालस्तृतीयः खलु यस्य भागः // 53 // अन्वयः- पूर्णमास्यम् हिमांशुम् जित्वा अस्याः पूर्णस्य मुखस्य महिमा न अस्तु / यस्य तृतीयः भागः भालः खलु भ्रलक्ष्म दधत् अर्धम् खण्डम् इन्दुः ( अस्ति ) / टीका-पूर्णमा पूर्णिमा ( 'पूर्णमा पौर्णमासी च' इति केशवः ) आस्यम् मुखम् आरम्भ इति यावत् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) यस्या उदये पूर्णिमास्ति अथवा पूर्णमास्यां साधुः पूर्णमास्यम् पूर्णमातिथिजातम् सकलकलासम्पूर्णमित्यर्थः हिमाः शीताः अंशवो रश्मयो यस्य तथाभूतम् ( ब० बी० ) चन्द्रमित्यर्थः जित्वा पराभूय पूर्णस्य समग्रस्य मखम्य आननस्य महिमा माहात्म्यम् श्रेष्ठत्वम् न अस्तु ? अपि तु अस्तु एवेति काकुः यस्य मुखस्य तृतीय: Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 नषधीयचरिते भागः अंशः भाल: ललाटम् भ्रवौ एव लक्ष्म कलङ्कम् ( कर्मधा० ) दधत् वहत् अर्थम् खण्डम इन्द्रः अर्घचन्द्रखण्डः अस्तीति शेषः / दमयन्त्याः समनं मुखं पूर्णमासी चन्द्रतोऽधिकसुन्दरम् भालम् अर्धचन्द्रखण्डतुल्यम् , ध्रुवौ च कलङ्क: तुल्यमिति भावः / / 52 // व्याकरण-महिमा महतो भाव इति महत् + इमनिच् / लक्ष्मन् लक्ष्यतेऽनेनेति लक्ष् + मनिन् / दधत् Vधा + शतृ / तृतीयः त्रयाणां पूरण इति त्रि + तीय, सम्प्रसारण / अनुवाद-- पूर्णमासी के ( पूर्ण ) चन्द्र को जीतकर इस ( दमयन्ती ) के संपूर्ण मुख की महिमा नहीं बढ़े क्या ? जिसका तृतीय भाग --- मस्तक भौंह-रूपी कलङ्क धारण करता हुआ सचमुच चन्द्रमा का अर्ध खण्ड है / / 53 // टिप्पणी- दमयन्ती के समग्र मुख की तुलना करें, तो वह सम्पूर्ण कलाओं से युक्त पूर्णमासी के चन्द्र को मात किये हुए है और आधा मुख अर्थात् भाल तक का हिस्सा अर्धचन्द्र है, जिसमें भौंहे कलंक का काम कर रही हैं / मुख को पूर्ण चन्द्र से उत्कृष्ठ बताने में व्यतिरेक, एवं भाल पर अर्धचन्द्रत्वारोप में रूपक है / मल्लिनाथ खलु शब्द को संभावना के अर्थ में लेकर उत्प्रेक्षा और साथ ही रूपक भी मान रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से “भाल मानो अर्धचन्द्र हो' ऐसी कल्पना करने से रूपक के लिए स्थान नहीं रहता है। विद्याधर अतिशयोक्ति कह रहे हैं, जो हमारी समझ में नहीं आता / 'पूर्ण' 'पूर्ण' 'हिमा' 'हिमां' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / व्यधत्त धाता बदनाब्ज'मस्याः सम्राजमम्भोजकुलेऽखिलेऽपि / सरोजराजौ सृजतोऽदसीयां नेत्राभिधेयावत एव सेवाम् // 54 // अन्वयः-धाता अखिले अपि अम्भोजकुले अस्याः वदनाब्जम् सम्राजम् व्यधत्त, अतएव नेत्राभिधेयौ सरोजराजो अदसीयाम सेवाम् सृजतः / टीका-धाता ब्रह्मा अखिले समग्रे अपि अम्भोजानाम् कमलानाम् कुले समूहे ( 10 तत्पु. ) अस्याः दमयन्त्याः वदनम् मुखम् एव अब्जम् अम्भोजम् ( कर्मधा० ) सम्राजम् चक्रवर्तिनम् व्यधत्त कृतवान्, अतएव नेत्रम् नयनम् अभिधेयम् नाम ( कर्मधा० ) ययोस्तथाभूतौ ( व० वी० ) नैत्रसंज्ञको इत्यर्थः सरोजा. 1. मुखपद्म / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः नाम कमलानाम् राजानौ इति सरोजराजी ( 10 तत्पु० ) अमुष्य इति अदसीयाम् मुखकमलसम्बन्धिनीमित्यर्थः सेवाम शुश्र षां सुजतः कुरुतः / दमयन्त्याः मुखकमलं निखिलकमलजातस्य सम्राडस्ति, अतएव तन्नेबेन्दीवरराजी तत्सेवां कुरुतः, सम्राट राजभिः सेव्यते एवेति भावः / / 54 / / व्याकरण-अम्भोजम् अनम् अम्भसि, अप्सु जायते इहि अम्भस्, अप + जन् + ड / सम्राजम् सम्यक् राजते इति सम् + / राज् + क्विप् कर्तरि ) सम्राट् / ब्यवत्त वि + Vधा + लुङ / अभिधेयम् अभिधातुं योग्यमिति अभि + Vधा + यत् / अदसीयाम् अदम् + छ, छ को ईय / अनुवाद-विधाता ने इस ( दमयन्ती ) का मुख-कमल निखिल कमलसमूह का मम्राट बनाया; तभी तो नेत्रनामक दो कमल-राज इस ( मुखकमल ) की सेवा कर रहे हैं // 54 / / टिप्पणो - ऐसा लगता है कि ब्रह्मा ने दमयन्ती के मुख को कमल-जगत् का सम्राट बनाया है। यह इस बात से सिद्ध होता है कि कमलों के राजे नेत्र उसकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ! जो राजों द्वारा सेवित होता है वह सम्राट् ही होता है / सम्राट का लक्षण अमरकोष में इस तरह किया गया है-"येनेष्ट राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः / शास्ति यश्चाज्ञया राज्ञः स सम्राट् / " मल्लिनाथ सम्राट् की कल्पना किये जाने से उत्प्रेक्षा है। हम नेत्रसरोजराज में रूपक भा कहेंगे / विद्याधर अतिशयोक्ति और समासोक्ति कह रहे हैं। कारण बता देने से काव्यलिङ्ग तो है ही। 'धत्त' 'धाता', 'रोज' 'राजी' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / दिवारजन्यो रविसोमभीते चन्द्राम्बुज निक्षिपतः स्वलक्ष्मीम् / आस्ये यदास्या न तदा तयोः श्रोरेकत्रियेदं तु कदा न कान्तम् / .54 / / अन्य:--दिवा-रजन्योः रवि-सोमभीते चन्द्राम्बुजे यदा स्वलक्ष्मीम् अस्याः आस्ये निक्षिपतः, तदा तयोः श्रीः न ( भवति ) / इदम् तु एकश्रिया कदा। कान्तम् ? टीका-दिवा दिनं रजनी रात्रिश्च तयोः (सुप्सुपेति समासः) दिने निशि चेत्यर्थ! क्रमशः रविः सूर्यश्च सोमः चन्द्रश्च ( द्वन्द्व ) ताभ्याम् भीते त्रस्ते (पं० तत्पु० ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 नैषधीयचरिते चन्द्रश्च अम्बुज कमलं चेति ( द्वन्द्व ) यदा यस्मिन् समये स्वां निजां लक्ष्मी शोभाम् ( कर्मधा० ) अस्याः दमयन्त्याः आस्ये मखे निक्षिपतः स्थापयतः तदा तस्मिन् समये तयोः चन्द्राम्बुजयोः भोः न भवतीति शेषः / सूर्यात् भीतश्चन्द्रः, चन्द्रात् भीतञ्च अम्बुजम् स्व-स्वशोभां दमयन्त्याः मुखे निक्षिपतः स्वयं च तद्द्वयं शोभारहितं भवति अर्थात् चन्द्रस्य शोभा सूर्याभिभवात् दिवा न तिष्ठति कमलस्य च शोभापि सूर्यप्रकाशाभावात् रात्रौ न तिष्ठति / इदम दमयन्त्या मुखम् तु एकस्य चन्द्राम्बुजयोरेकतरस्य श्रिया शोभया (10 तत्पु० ) कदा कस्मिन् समये न कान्तं शोभापूर्णम् भवति ? अपि तु किं वा दिवा किं वा नक्तंसर्वदैव कान्तमिति काकुः // 55 // व्याकरण--अम्बुजम् अम्बुनि जायते इति अम्बु + Vजन + ड / आस्ये इसके सम्बन्ध में पीछे श्लोक 21 देखिए / श्री: इसके लिए भी पीछे श्लोक 38 देखिए / कान्त कम् + क्त ( कर्मणि ) / अनुवाद--दिन को और रात को (क्रमशः ) सूर्य और चन्द्रमा से भय खाये हुए चन्द्रमा और कमल जब अपनी-अपनी लक्ष्मी शोभा-इस ( दमयन्ती) के मुख में रख देते हैं, तब उन दोनों में शोभा नहीं रहती, किन्तु यह ( दमयन्ती का मुख ) उन दोनों में से किसी एक की शोभा द्वारा कब सुन्दर नहीं रहता है ? टिप्पणी-हम देखते हैं कि चन्द्रमा की शोभा रात में ही रहती है, दिन में नहीं। इसी प्रकार कमल की शोभा भी दिन में ही रहती है, रात में नहीं। किन्तु दमयन्ती का मख दिन और रात शोभा रखे ही रहता ह। निक्षिपतः शब्द से यह ध्वनि निकलती है कि दमयन्ती का मुख चन्द्र द्वारा दिन में उसकी धरोहर रखी शोभा को लौटा देता है, क्योंकि दिन में वह सूर्य से डरा रहता है कि कहीं छीन न ले / धरोहर वस्तु तो लौटा देने वाली होती है; हमेशा के लिए रखने की नहीं। यही बात कमल के सम्बन्ध में भी है। वह भी अपनी शोभा रात को दमयन्ती के मुख के हाथों धरोहर रख देता है, क्योंकि रात में वह चन्द्रमा से डरता है। दिन में फिर वापस ले लेता है। भाव यह निकला कि दमयन्ती का मुख दिन में चन्द्रमा की दीप्ति से और रात को कमल की दीप्ति से चमकता ही रहता है। यहाँ श्री (शोभा) पर श्री ( धन ) का, मुख पर धनी और चन्द्र तथा कमल पर धन धरोहर रखने वाले व्यक्ति का व्यवहार Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 145 समारोप होने से समासोक्ति, चन्द्र और कमल की अपेक्षा मुख में अधिकता बताने से व्यतिरेक और क्रमशः शब्दों का अन्वय होने से यथासंख्य है, किन्तु मल्लिनाथ धरोहर की कल्पना में उत्प्रेक्षा मान रहे हैं / विद्याधर अतिशयोक्ति भो कह रहे हैं क्योंकि दो विभिन्न श्रियों शोभा और धन में अभेदाध्यवसाय हो रखा है / 'आस्ये' 'दास्ये' स और य की तथा 'श्री श्रिये' में श र की आवृत्ति होने से छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अस्याः मुखश्रीप्रतिबिम्बमेव जगाच्च तातान्मुकुराच्च मित्रात् / अभ्यर्थ्य धत्तः खलु पद्मचन्द्रो विभूषणं याचितकं कदाचित् // 56 / / अन्वयः-पद्म-चन्द्रौ ( क्रमशः ) तातात् जलात् च मित्रात् मुकुरात च अभ्यर्थ्य अस्या मुखश्रीप्रतिबिम्बम् एव याचितकम् विभूषणम् कदाचित् धत्तः खलु। टीका-पद्मम् कमलम् च चन्द्रः चन्द्रमाः च तौ ( द्वन्द्व ) यथासंख्यम् तातात् पितुः जलात् सलिलात् मित्रात् सुहृदः मुकुरात् दर्पणात् च अभ्यय याचित्वा अस्याः दमयन्त्याः मुखस्य वदनस्य श्रियः शोभायाः प्रतिबम्बम् प्रतिच्छायाम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) एव याचितकम् याचनया लब्धं वस्तु विभूषणम् कदाचित् न तु सर्वदा धत्तः धारयतः खलु। जलोत्पन्नत्वात् पद्मस्य पिता जलम् , उज्ज्वलत्वात् गोलाकारत्वाच्च सादृश्येन मुकुरः चन्द्रमित्रम् / स्तानसमये जले, मुख-प्रसाधनसमये च मुकुरे दमयन्त्या मुखश्रियः प्रतिबिम्बं पतति तदेव च पितुः जलस्य सकाशात् याचित्वा पद्मदिवा, मित्रस्य मुकुरस्य च सकाशात् याचित्वा चन्द्रमा रात्री भषणत्वेन धत्त / पद्मचन्द्रयोः शोभा निजा न, किन्तु याचनया लब्धास्तीति भावः // 56 // . व्याकरण-श्रीः इसके लिए पीछे श्लोक 38 देखिए। अभ्यर्थ्य अभि + अर्थ + ल्यप् / याचितकम् योचितेन प्राप्तमिति याचित + कन् / विभूषणम् विभूष्यतेऽनेनेति वि + /भूष् + ल्युट् ( करणे ) / अनुवाद-कमल और चन्द्रमा ( क्रमशः ) पिता जल और मित्र दर्पण से माँगकर इस ( दमयन्ती ) की मुख-शोभा के प्रतिबिम्ब को ही माँगे हुए भूषण के रूप में कभी धारण कर लेते हैं, ( कभी नहीं ) // 56 // टिप्पणो-अन्य स्त्रियों के मुख कमल और चन्द्रमा के सदृश भले ही हों, Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते किन्तु दमयन्ती के मुख के यहाँ तो वे पानी भरा करते हैं। कमल दिन में ही शोभा पाता है, और चन्द्रमा रात में ही। ऐसा समझ लें कि वह शोभा भी उनकी अपनी स्वाभाविक नहीं बल्कि माँगी हुई चीज है। नहाते समय दमयन्ती के मुख की शोभा पानी में प्रतिबिम्ब रूप से पड़ी तो कमल ने अपने पिता से पानी माँगकर धोरण कर ली। वह भी दिन-दिन में मांगी हुई चीज भला कब हमेशा रहती है। पिता को वापस देनी पड़ी। यही हाल चन्द्रमा का भी समझ लीजिए। मुख देखते हुए दमयन्ती की परिछाईं. दर्पण पर पड़ी. तो चाँद ने अपने मित्र से वह मांग ली और रात-रात में धारण कर ली और रात के बाद लौटा दी। भाव यह निकला कि कमल और चन्द्रमा तो दमयन्ती के मुख की छाया की भी बराबरी नहीं कर सकते, मुख की बराबरी तो दूर रही। कमल और चन्द्रमा की शोभाओं पर मांगी हुई वस्तु की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक शब्द खलु है। कमल और चन्द्रमा में अप्रस्तुत चेतनव्यवहार समारोप होने से समासोक्ति है। पद्म-चन्द्र का क्रमशः जल और मुकुर से सम्बन्ध होने में यथासंख्य है। विद्याधर के अनुसार अतिशयोक्ति भी है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अर्काय पत्ये खलु तिष्ठमाना भृङ्गमितामक्षिभिरम्ब्के लौ।। भैपीमुखस्य श्रियमम्बुजिन्यो याचन्ति विस्तारितपद्महस्ताः / / 57 // अन्वयः - अर्काय पत्ये तिष्ठमानाः अम्बुजिन्यः अम्बु-केलौ भृङ्गः अक्षिभिः मिताम् भैमोमुखस्य श्रियम् विस्तारितपद्महस्ताः ( सत्यः ) याचन्ति / ___टोका-अर्काय सूर्याय पत्ये भत्रे तिष्ठमानाः स्वमनोभावम् अभिलाषं काममिति यावत् प्रकटयन्त्यः अम्बुजिन्यः कमलिन्यः अम्बुनि जले केली क्रीडायाम् ( स० तत्पु० ) यदा दमयन्ती जलविहारं करोतीति भावः भृङ्गः भ्रमरैः एव अक्षिभि: नयनैः मिताम् ज्ञाताम् भैम्याः दमयन्त्याः मुखम्य वदनस्य (ष० तत्पु० ) श्रियम् शोभाम् विस्तारिताः प्रसारिता. पानि कमलानि एव हस्ताः करा: ( कर्मधा० ) याभिः तथाभूताः ( ब० वी० ) सत्यः याचन्ति भैमीम् अर्थयन्ते / कमलिन्यः पति सूर्यम् कामयमानाः तद्वशीकरणाय जलविहारं कुर्वतीम् दमयन्तीम् स्वमुखशोमा याचन्तीति भावः // 57 // व्याकरण--पत्ये पति शब्द को समास में ही घीसंज्ञा होती है, अतः पतये न Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 187 बनकर पत्ये बना। तिष्ठ माना अभिलापा अर्थ बताने में चतुर्थी ( 'श्लाघ हङ' 11434 ) और /स्था को आत्मने० ('प्रकाशनस्थेयाख्ययवोश्च' 1 / 3 / 3 / 33 ) / अम्बुजिन्यः अम्बुनि ( जले ) जायन्ते इति अम्बु + /जन् - डः, अम्बुजानि अस्याः सन्तीति अम्बुज + इन् ( मतुबर्थ ) + डीप् / बिस्तारित वि + / स्तृ + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / __ अनुवाद-- सूर्य-पति के प्रति कामवासना प्रकट करती हुई कमलिनियां जल-क्रीड़ा के समय, भ्रमर-रूपी आँखों से देखी हुई दमयन्ती की मुख-सुन्दरता को कमल-रूपी हाथ पसारे मांगती रहती है / / 57 // टप्पणी---यहां कवि सूर्य और कमलिनियों पर नायक-नायिका व्यवहार का समारोप कर रहा है। दमयन्ती जब बावड़ी में जल-विहार करती होती है, तो कमलिनियां भ्रमर-रूपी आंखों से उसकी मुख-सुन्दरता को निहारकर चकित हो जाती हैं और चाहने लगती हैं काश! ऐसी ही सुन्दरता हमारे मुखों में भी होती जिससे कि हम अपने भर्ता सूर्य को खूब आकृष्ट करती रहतीं। उन्होंने झट अपने कमल-रूपी हाथ पसार लिये और दमयन्ती से उसके मुख की सुन्दरता की भीख मांगनी शुरू कर दी। यहां भ्रमरों पर नेत्रत्वारोप और कमलों पर हस्तत्वारोप से होने वाले रूपकों का समासोक्ति के साथ संकर है। खलु शब्द से मल्लिनाथ मुख सुन्दरता की भीख की कल्पना में उत्प्रेक्षा मान रहे हैं। इससे दमयन्ती की मुख-सुन्दरता कमल की सुन्दरता की अपेक्षा बहुत ही अधिक है -यह व्यतिरेकालङ्कार-ध्वनि निकल रही है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अस्या मुखेनैव विजित्य नित्यस्पर्धी मिलत्कुङ्कमरोषभासा। प्रसह्य चन्द्रः खलु नह्यमानः स्यादेव तिष्ठत्परिवेषपाशः / / 58 / / अन्वयः--मिलत-कुङ्कुमरोषभासा अस्याः मुखेन एव नित्यस्पर्धी चन्द्रः विजित्य खलु प्रसह्य नह्य मानः एव तिष्ठत्परिवेषपाशः ( कृतः ) स्यात् / टोका-मिलत् लगत् कुकुमम् काश्मीरजम् एव रोषभाः ( उभयत्र कर्मधा० ) रोषस्य कोपस्य भाः कान्तिः (10 तत्पु० ) यस्मिन् तथाभूतेन ( ब० बी० ) अस्याः दमयन्त्याः मुखेन वदनेन एव नित्यं सर्वदा स्पषितुं स्पर्धा कर्तुम् शीलमस्यास्तीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) चन्द्रः चन्द्रमाः विजित्य पराभूय खलु निश्चयेन प्रसह्य बलात् नामानः बध्यमानः एव तिष्ठन् विद्यमानः परिवेषः परिधिः Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 नैषधीयचरिते दीप्तिचक्रमिति यावत् पाशः बन्धनरज्जुः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) (कृतः) स्यात् भवेत् / मुखपराजितः चन्द्र बद्ध इव स्यादितिभावः ! व्याकरण-रोषः /रुष + घन् / भासा भास् + क्विप् (भावे ) तृ० / ०स्पर्धी सर्घ + णिच ( ताच्छील्ये ) / प्रसह्य प्र+/सह + ल्यप् अव्यय-रूप में प्रयुक्त होने लगा है। नह्यमान नह + शानच् ( कमवाच्य ) / परिवेषः परि + V विष् + घन्। ___अनुवाद-( उबटन हेतु ) लगाई हुई केशर के रूप में क्रोध की ( लाल ) कान्ति रखे मुख द्वारा ही बराबर ईर्ष्या करने वाला चन्द्र परास्त करके सचमुच जबरन बाँधा जाता हुआ ही परिवेष के रूप में बन्धन में डाला पड़ा हो।॥ 58 // टिप्पणी-चन्द्रमा के इर्द-गिर्द कभी-कभी परिवेष-गोल-गोल प्रकाश-चक्र देखने में आता है, जो एक प्राकृतिक दृश्य होता है। उसपर कवि कल्पना यह है कि मानो चन्द्र को दमयन्ती के मुख ने रस्सी से बाँध रखा हो, क्योंकि चन्द्र शोभा में दमयन्ती के मुख से होड़ कर रहा था। सौन्दर्य प्रतियोगिता में मुख ने उसे बुरी तरह पछाड़ दिया, और परिवेष-रूपी रस्से से बाँध दिया। परास्त हुए व्यक्ति को सर्वत्र बाँध दिया जाता ही है / खलु शब्द को उत्प्रेक्षा-वाचक मानें तो उत्प्रेक्षा है. जिसके साथ कुंकुम पर रोषकान्तित्वारोप और परिवेष पर पाशत्वारोप से रूपक तया मूख और चन्द्रमा के चेतनीकरण से समासोक्ति का संकर है। 'जित्य' 'नित्य' 'सह्य, 'नह्य' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विधोविधिबिम्बशतानि लोपं लोपं कुहरात्रिषु मासि मासि / अभङ्गुरश्रीकममुं किमस्या मुखेन्दुमस्थापयदेकशेषम् // 59 / / अन्वयः-विधिः मासि-मासि कुहू-रात्रिषु विधोः बिम्ब-शतानि लोपं लोपम् अभङ्गुरश्रीकम् अमुम् अस्याः मुखेन्दुम् एकशेषम् अख्थापयत् किम् ? टीका-विधिः ब्रह्मा मासि मासि मासे मासे प्रतिमासमित्यर्थः कुहूः नष्टेन्दुकला अमावास्येति यावत् ( 'नष्टेन्दुकला कुहूः' इत्यमरः) तस्या रात्रिषु निशासु विधोः चन्द्रस्य बिम्बानाम् मण्डलानाम् शतानि शतसंख्या शतशो बिम्बानीत्यर्थः लोपं लोपम् लुप्त्वा लुप्त्वा न भगुरा भङ्गशीला ( नञ् तत्पु० ) श्री: शोभा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सगः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) अमुम् पुरोदृश्यमानम् अस्याः दमयन्त्याः मुखम् आननम् एव इन्दुम् चन्द्रम् ( कमंधा० ) एकश्चासौ शेषश्च तम् ( कर्मधा० ) अस्थापयत् स्थापितवान् किम् ? अमावास्या-निशासु प्रतिमासं चन्द्रस्य क्षयद्-बिम्बानि अनुत्तमानीति पश्यन् विनाशयञ्च ब्रह्मा अन्ते तेषां स्थाने उत्तमं सुन्दरतमञ्च दमयन्तीमुखचन्द्र स्थापयतीति भावः // 59 // व्याकरण-विधिः विदधाति सृष्टिमिति वि + Vधा + किः ( कर्तरि ) / मासि मासि मास शब्द को मास् आदेश और वीप्सा में द्वित्व / लोपं लोपम् Vलुप् + णमुल द्वित्व ( आभीक्ष्ण्य में ) / भङ गुर भज्यते इति मङ्ग् + घुरच् ( कर्मकर्तरि ) / अस्थापयत् /स्था + णिच् + लङ् पुगागम / अनुवाद–ब्रह्मा प्रतिमास अमावास्या की रातों में चन्द्रमा के सैकड़ों बिम्बों-मण्डलों को बार-बार नष्ट करके स्थिर सौन्दर्य वाले इस ( दमयन्ती) के मुख चन्द्रमा को एकमात्र शेष रखता है क्या ? // 59 // टिप्पणी ब्रह्मा भी एक कलाकार हैं, जो अन्य कलाकारों की तरह पहले बने रद्दी-मद्दी मॉडलों को तो फेंक देते हैं और बाद में जो सर्वथा निर्दोष मॉडल बनता है, उसे रख लेते हैं। यही कल्पना कवि अमावास्या की रात्रियों में क्षीयमाण शोभा वाले चन्द्र-बिम्बों के सम्बन्ध में करता है। आकाश के चन्द्र-बिम्ब क्षयशील कान्ति वाले होने से ब्रह्मा उन्हें हटा ही देता है और उनके स्थान में स्थिर कान्ति वाला दमयन्ती का मुख चन्द्र धर देता है। भाव यह निकला कि आकाशस्थ चन्द्र दमयन्ती के मुख-चन्द्र की बराबरी भला क्या करेगा जो सदा एक-सी कान्ति में नहीं रहता। यहाँ कल्पनामें उत्प्रेक्षा है, जो किम् शब्द द्वारा वाच्य है / मुख में चन्द्र से अधिकता बताने में व्यतिरेक है। विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं / 'विधो विधि' 'लोपं लोपम्' 'मासि मासि' और कम किम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। एकशेषम्-हमारे विचार से कविका यहाँ पाणिनि के 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तों (1 / 2 / 64)' इस सूत्र की ओर भी संकेत है अर्थात् एक विभक्ति में जैसे प्रथम और द्विवचन का रूप नष्ट करके बहुवचन में एक रूप शेष रख दिया जाता है, उसी तरह बन्य क्षीयमाण चन्द्रों को नष्ट करके ब्रह्मा एकमात्र दमयन्ती का मुखचन्द्र शेष रखता है। प्रतीयमान व्याकरण-सम्बन्धी इस अप्रस्तुत अर्थ को हम उपमाध्वनि ही कहेंगे / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 नैषधीयचरिते कपोलपत्रान्मकरात्सकेतुभ्रूभ्यां जिगीषुधनुषा जगन्ति / इहाबलम्व्या स्ति रति मनोभू रज्यद्वयस्यो मधुनाधरेण // 60 // अन्वयः-कपोल-पत्रात् मकरात सकेतुः, भ्रूभ्याम् धनुषा जगन्ति जिगीषुः अधरेण मधुना रज्यद्वयस्यः मनोभूः रतिम् अवलम्ब्य इह अस्ति / टीका -- कपोलयोः गण्डस्थलयोः पत्रात् पत्रभङ्गात् पत्रावलीरूपेण चित्रितात् इत्यर्थः ( स० तत्पु० ) मकरात् मकराख्यमत्स्यात् कारणात् केतुना ध्वजेन सह वर्तमानः ( ब० वी० ) धुतमकरकेतुरित्यर्थः, भ्रूभ्याम् भ्रू-युगलेन धनुषा चापेन जगन्ति त्रिभुवनानि जिगीषु: जेतुमिच्छु: जगज्जयार्थं धृतभ्र रूपचापः इत्यर्थः अधरेण अधरोष्ठेन मधुना वसन्तेन रज्यन् अनुरक्तीभवन् वयस्यः सखा (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) अनुरक्ताधररूपवसन्तमित्रयुक्तः अथ च आधरेण अधरसम्बन्धिना मधुना रसेन रज्यन् रक्तवर्णीभवन् वयस्यः अधर एव सखा यस्य तथाभूतः मनोभूः कामः अथवा एतदाख्यो देवः रतिम् प्रीतिम् अथ च एतदाख्यां स्बवल्लभाम् अवलम्ब्य अङ्गीकृत्य तया सहेत्यर्थः इह दमयन्त्याः मुखे वदने अस्ति / कामः कपोलपत्रभङ्गात्मकमकरं ध्वजम् , भ्र रूपं चापं अधर-रूपं मित्र. वसन्तं च सह कृत्वा रतिसहितो दमयन्ती-मुखे निवसतीति भावः // 60 // व्याकरण-जिगीषु! /जि + सन् + उः / रज्यत् /रज्ञ् + शतृ / मनोभूः मनसो भवतीति मनस् + /भू + क्विप् / __ अनुवाद-गालों पर बनी चित्रकारी में मगरमच्छ के रूप में ध्वज लिये भौंहों के रूप में धनुष द्वारा जगत् जीतने का इच्छुक, अधर के रूप में मधु ( वसन्त, माधुर्य ) प्रिय मित्र से युक्त काम रति ( प्रेम, स्वपत्नी ) को लिये हुए इस ( दमयन्ती ) के मुख में विद्यमान है // 6 // टिप्पणी-भगवान् कामदेव निज ध्वजा, धनुष, मित्र वसन्त और पत्नी रति को साथ लिये ऐसा लग रहा है मानो दमयन्ती के मुख पर डेरा डाले हुये हों। गालों पर पत्रभङ्ग-रूप में चित्रित मगर मानो उसकी ध्वजा हो, भौंहें मानों उसका धनुष हो, मधुर अधर मानो उसका मित्र वसन्त हो और प्रीति मानो रति हो / भाव यह निकला कि दमयन्ती का मुख कपोलों पर रची चित्रकारी, भौंहें और अधर देखकर जगत् के हृदय में काम भड़क उठता है / हमारे विचार में उत्प्रेक्षा है जिसके मूल में पत्रभङ्ग पर केतुत्वारोप, भ्र पर धनुष्ट्वारोप, अधर Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 191 पर वसन्तत्वारोप और रति ( प्रेम ) पर रति ( पत्नी )-त्वारोप में रूपक काम कर रहे हैं। मल्लिनाथ परिणामालंकार कह रहे हैं क्योंकि आरोप्यमाण यहाँ प्रकृतोपयोगी बने हुए हैं। विद्याधर रूपक और अतिशयोक्ति मानते हैं / अतिशयोक्ति मधु और रति में होगी, जहाँ विभिन्न मधुओं और रतियों का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। वियोगवाष्पाञ्चितनेत्रपद्मच्छमापितोत्सर्गपयःप्रसूनौ / कर्णी किमस्या रतितत्पतिभ्यां निवेद्यपूपौ विधिशिल्पमीहक् // 61 / / अन्वय ... ईदृक् विधि-शिल्पम् ( यत् ) वियोग''प्रसूनौ अस्याः कौं रतितत्पतिभ्याम् निवेद्य-पूपौ किम् / टीका- ईदृक् एतादृशम् अद्भुतम् विधेः विधातुः शिल्पम् कला-निर्माणम् अस्ति यत् वियोगः विरहः तेन ये वाष्पाः अश्रूणि नलवियोगजनिताश्रु धारेत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) तैः अञ्चिते पूजिते (त० तत्पु० ) युक्ते इत्यर्थः ये नेत्रपझे ( कर्मधा० ) नेत्रे पद्म इब ( उपमित तत्पु० ) कमलसदृशे नयने तयोः ४ाना व्याजेन ( 10 तत्पु० ) अपिते प्रदत्ते ( तृ० तत्पु० ) उत्सर्गाय दानाय पयःप्रसूने ( च० तत्पु० ) पय: जलम् च प्रसूनम् पुष्पं चेति ( द्वन्द्व ) ययोः तथाभूतौ (ब० वी० ) अस्याः दमयन्त्याः कर्णौ श्रोत्रे रतिः देवीविशेषश्च तत्पतिः कामश्चति ( द्वन्द्व ) तस्याः पतिः ( 10 तत्पु० ) ताभ्याम् निवेद्यौ नैवेद्य-रूपेण समपणीयो पूपौ अपूपो ( कर्मधा० ) अथवा निवेद्यस्य नैवेद्यस्य नैवेद्यसम्बन्धिनाविति यावत् ( 10 तत्पु० ) पूपी ( 'पूपोऽपूपः पिष्टकः स्यात्' इत्यमरः ) किम् ? वाष्परूपेण जलेन नेत्ररूपेण पुष्पेण च सहकामरतिभ्याम् देवताभ्याम् आहारार्थ नैवेद्य-रूपेण दीयमानौ अपूपी ब्रह्मणा दमयन्त्या कर्णरूपेण रचिताविति अहो शिल्पं ब्रह्मणः इति भावः // 61 // व्याकरण-ईक इदम् + दृश् + क्विन् / प्रसूनम् प्र + + क्त, त को न / उत्सर्ग: उत् + सृज् + घञ् / अनुवाद-ब्रह्मा का ऐसा ( अद्भुत ) शिल्प है कि वियोग के ऑसू से युक्त कमल-नेत्र के बहाने चढ़ाये हुए दानार्थ जल और पुष्प सहित इस ( दमयन्ती ) के कान रति और काम इन दोनों ( देवताओं) के लिए नैवेद्य-रूप पूड़े हैं। क्या ? // 61 // Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टिप्णी -यहाँ से लेकर कवि अब पाँच श्लोकों में दमयन्ती के कानों का वर्णन करता है। उसके गोल-गोल कानों पर कवि यह कल्पना कर रहा है कि ये ब्रह्मा ने काम और रति की पूजा हेतु नैवेद्य के रूप में मानों पूड़े बनाये हुये हों। पूजा में नैवेद्य के अतिरिक्त जल और पुष्प भी अपेक्षित होते हैं / दमयन्ती के वियोगाश्रु जल और नेत्र पुष्प बन गये। पूजा-सामग्री पूरी हो गई। ब्रह्मा द्वारा कामको दी हुई यह भेंट उसके शस्त्रागार में एक नया शस्त्र सिद्ध होगी। भाव यह है कि दमयन्ती की आँखें कानों तक पहुची थीं। उसके सुन्दर कानों को देख काम भड़क उठता था। किम् शन्द वाच्य उत्प्रेक्षा तो स्पष्ट ही हैं, जिसके साथ बाष्प के छद्म से जल की स्थापना तथा नेत्र के छद्म से पुष्प की स्थापना होने से अपह्नति भी है। विद्याधर रूपक भी मान रहे हैं जो नेत्र-पद्म में है / लेकिन हम यहाँ 'नेत्रे पद्म इव' इस तरह उपमा कहेंगे, क्योंकि उपमा में नेत्र की प्रधानता रहने से उस पर पुष्पकी स्थापना में कठिनाई नहीं आयेगी। रूपक में पद्म की प्रधानता होने से पुष्प की स्थापना ठीक नहीं बैठती, क्योंकि पद्म और पुष्प प्रायः एक ही ठहरे / 'रति पति' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इहाविशद्येन पथातिवक्र: शास्त्रोधनिष्यन्दसुधाप्रवाहः / सोऽस्याः श्रवःपत्रयुगे प्रणालोरेखैव धावत्यभिकर्णकूपम् // 62 // अन्वयः-अतिवक्रः शास्त्री 'प्रवाहः येन यथा इह अविशत् , सः अस्याः श्रवःपत्रयुगे प्रणाली-रेखा एव अभिकर्णकूपम् धावति ! टीका-अतिशयेन वक्र: वक्रोक्तिश्लेषादिना दुर्बोधः, अप च अनृजुः ( प्रादि तत्पु० ) शास्त्राणाम् ओघः समूहः तस्य नियन्दः सारः ( उभयत्र प० तत्पु० ) एव सुधा-प्रवाहः ( कर्मधा० ) सुधायाः अमृतस्य प्रवाहः (10 तत्पु० ) येन पथा मार्गेण इह अस्याम् दमयन्त्यामित्यर्थः अविशत् प्रवेशमकरोत् स: मार्गः अस्याः दमयन्त्याः श्रवसी कौं पत्रे दले इव ( उपमित तत्पु० ) तयोः पुगे द्वये (10 तत्पु०) प्रणाली नाली तद्वत् रेखा ( उपमान तत्पु० ) एव कर्णयोः कूपः उदपानम् ( स० तत्पु० ) तम् अमि उन्मुखम् इति अभिषणकूपम् (अव्ययी०) पावति वेगेन गच्छति / कर्णाभ्यन्तरीयरेखा-प्रणालिकया शास्त्रनिष्यन्द-रूपामृतप्रवाहो दमयन्त्या हृदये प्राविदिति भावः // 62 // Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः व्याकरण-वक्र वङ्कते इति/वङ्क ( कौटिल्ये ) + रन (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / ओधः /वह + घञ् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / निष्यन्व: नि + स्यन्द + घञ् ( भावे) स को वि उपसर्ग के कारण ष / प्रवाहः प्र+/ वह + घम् / श्रवस् श्रूयतेऽनेनेति / श्रु + अस् ( करणे) प्रणाली प्रकृष्टा नाली (प्रादि तत्पु० ) न को ण / कर्ण: कर्ण्यते ( आकय॑ते ) अनेनेति / कर्णं + अप (करणे)। अनुवाद-अतिवक्र ( बड़ा दुर्बोध, टेढ़ामेड़ा ) शास्त्र-समूह का सार भूत अमृत प्रवाह जिस मार्ग से इस ( दमयन्ती) के भीतर प्रविष्ट हुआ, वह इस ( दमयन्ती ) के पत्तों-जैसे दो कानों के भीतर नाली-जैसी रेखा ही है, जो कर्णच्छिद्रों की ओर जाती है / 62 // टिमणी-दमयन्ती बड़ी विदूषी है और सकल शास्त्रों का कर्म जाने हये है / इस तथ्य का कवि रूपक से प्रतिपादन कर रहा है। शास्त्रों का सार बना अमृत-प्रवाह ! कान के भीतर की टेढ़ी-मेड़ी रेखायें बनी नालियाँ, जिनसे होकर टेढ़ामेड़ा बना हुआ अमृत-प्रवाह भीतर चला गया। हम देखते हैं कि यदि नाली टेढ़ी-मेड़ी हो तो पानी भी टेडामेड़ा हो जाता है / प्रवाह के टेढ़ेमेड़े से अभिप्रेत यहाँ शास्त्र-सार की दुर्बोधता है। नारायण पत्र-युगे' शब्द से यहाँ कानों में पहनी बालियों का अर्थ लेते हैं जिनकी टेढ़ीमेड़ी रेखाओं से सुधा-प्रवाह भीतर जाता है / यह हमें कुछ जंचता नहीं है, क्योंकि पत्र का अर्थ ताटङ्क ( बालियाँ) नहीं होता, दूसरे कवि कर्णों के वर्णन में उनकी भीतरी बनावट बता रहा है / अगले श्लोक में वह बाहरी बनावट बतायेगा। हमारे विचार से यहाँ रूपको. त्थापित उत्प्रेक्षा है। मल्लिनाथ भी उत्प्रेक्षा ही कह रहे हैं / किन्तु विद्याघर के विचार से 'अत्रापह्नत्युपमालंकारी'। अपह्नव यहाँ हमें नहीं दीख रहा है / उपमा 'श्रवः पत्रयुगे' में स्पष्ट है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्याः श्रुती दध्रतरर्धमर्धम् / कर्णान्तरुत्कीर्णगभीर रेखः किं तस्य संख्यैव नवा नवाङ्कः // 66 // अन्वयः-अस्याः श्रुती अष्टादश विद्याः संविभज्य यत् अर्धम् अर्धम् दध्रतुः तस्य कर्णान्तः उत्कीर्णगभीररेखः नवाङ्कः नवा संख्या एव न किम् ? टोका-अस्याः दमयन्त्याः श्रुती कणौँ अष्टादश अष्टाभिरधिका दश, अष्टादशसंख्यका इत्यर्थः विद्याः संविभज्य द्वयोः भागयोः विभक्ताः कृत्वेत्यर्थः यत् Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 नैषधीयचरिते अर्धम् अर्धम् अधिभागम् वध्रतुः दधतु: तस्य अर्धस्य कर्णयोः श्रोत्रयोः अन्तः / मध्ये (10 तत्पु० ) उत्कीर्णा उल्लिखिता जनितेत्यर्थः गभीरा निम्ना रेखा लेखा ( उभयत्र ) ( कर्मचा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) नव नवसंख्या-बोधकः अङ्कः (मध्यमपदलोपी समास) नवा अभिनवो अपूर्वेति यावत् संख्या एव न किम् ? अपितु नवा संख्या एवेति काकुः / अष्टादश-विद्याः द्वयोः भागयोः विभज्य प्रत्येक कर्णन गुरुमुखाद् दमयन्ती नव नव विद्याः अग्रहीदिति भावः // 63 // ___ व्याकरण-अतिः श्रूयतेऽनयेति Vश्रु+ क्तिन् ( करणे ) / दध्रतुः धु + लिट् द्वि० व०। उत्कीर्ण-उत् + V कृ + क्तः ईर् आदेश, त को न, न को ण / - अनुवाद-इस ( दमयन्ती) के कान अठारह विद्याओं का ( दो में) विभाग करके जो आधा-आधा रख रहे हैं, उसका कानों के मध्य उकेरी गहरी रेखा वाला नौका अंक अपूर्व संख्या ही नहीं हैं क्या? // 63 // टिप्पणी-कानों की बाहरी बनावट देवनागरी में नौ के अंक की तरह है। इस पर कवि कल्पना कर रहा है कि अठारह विद्याओं में से नौ-नौ को एक एक कान से दमयन्ती ने गुरु मुख से सुन रखा है। अठारह विद्याओं के सम्बन्ध में हम पीछे सगं 1 और श्लोक 5 में विस्तार से स्पष्ट कर चुके हैं कि वे ये हैं:चार वेद, छः अङ्ग, मीमांसा. न्याय, पुराण,धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धवं, और अर्थशास्त्र / यहाँ कानों की अर्धचन्द्राकार बनावट पर कवि की नौ के अंक की कल्पना की जाने से उत्प्रेक्षा है / 'नवा' नवा' में यमक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। मन्येऽमुना कर्णलतामयेन पाशद्वयेन च्छिदुरेतरेण / एकाकिपाशं वरुणं विजिग्येऽनङ्गीकृतायासतती रतीशः। 64 // अन्वयः-रताशः अमुना कर्णलतामयेन छिदुरेतरेण पाश-द्वयेन अनङ्गीकृतायासततिः ( सन् ) एकाकिपाशम् वरुणम् विजिग्ये मन्ये / टोका-रत्याः ईशः भर्ता कामः ( 10 तत्पु० ) अमुना एतेन प्रत्यक्षं दृश्यमानेन कर्णौ श्रोत्रे लते वल्ल्यौ ( कर्मधा० ) एवेति तेन कर्णलतामयेन छिदुरात भगुरात् इतरेण भिन्नेन (पं० तत्पु० ) अच्छिदुरेण दृढतरेणेति यावत् पाशयोः Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 195 (प० तत्पु० ) न अङ्गीकृतः स्वीकृतः प्राप्त इत्यर्थः आयासः श्रमः ( कर्मधा० ) तस्य ततिः परम्परा ( 10 तत्पु० ) येन तथाभूतः (ब० वी० ) सन् एकाकी केवलः पाशः ( कर्मघा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) वरुणम् जलाधिष्ठातृदेवम् विजिग्ये विजितवान् इति अहं मन्ये जाने / एकपाशो वरुणः पाशद्वयधारिणा कामेन सौकर्येण जितः इति भावः // 64 // व्याकरण-छिदुरेण छिद्यते इति /छिद् + कुरच् ( कर्मकर्तरि ) / द्वयम् द्वौ अवयवी यत्रेति द्वि+ तयप् , तयप् को विकल्प से अयच् / एकाकिन् एक + आकिनच् / पाशः पाश्यते ( बध्यते ) अनेनेति /पश् + णिच् + घञ् ( करणे ) / विजिग्ये वि + जि + लिट वि उपसर्ग होने से आत्मने / अनुवाद-कामदेव कर्णलतामय दो दृढ़ पाशों—पाशरूप शस्त्रों द्वारा एकमात्र पाशरूपी शस्त्र वाले वरुण को विना कठिनाइयों को अपनाये ही जीत बैठा // 64 // टिप्पणो-यह स्वाभाविक ही है कि अधिक शस्त्र वाला कम शस्त्र वाले को जीत लेता है। भाव यह निकला कि दमयन्ती के सुन्दर कानों को देखकर वरुण कामवशीभूत हो गया और उसका कामुक बन बैठा। यहाँ वरुण की जीत लिये जाने की कल्पना में उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक शब्द 'मन्ये' है / ( 'मन्ये शङ्क, ध्रुवं प्राय उत्प्रेक्षा-वाचका इमे ) विद्याधर उसके मूल में अपह्नति मान रहे हैं, किन्तु अपह्नव-वाचक शब्द यहाँ कोई नहीं है / कर्णलता के बहाने पाशद्वय से यों आर्थ अपह्नव मानना पड़ेगा, लेकिन हमारे विचार से मयट् प्रत्यय यहाँ स्वरूपार्थ में है, इसलिए यह रूपक का विषय है अर्थात् कर्णलता-रूप पाशद्वय से / रूपक से पहले कणौं लते इव यो उपमा है ही। न और ण का अभेद माना जाय तो 'मयेन' 'तरेण' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और 'तती' 'रती' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / आत्मैव तातस्य चतुर्भुजस्य जातश्चतुर्दोरुचितः स्मरोऽपि / तच्चापयोः कर्णलते भ्रुवोज्यं वंशत्वगंशी चिपिटे किमस्या: // 65 // अन्वयः- चतुर्भुजस्य तातस्य आत्मा एव जातः स्मरः अपि चतुर्दोः उचितः अस्याः भ्र वोः तच्चापयोः चिपिटे कर्णलते वंशस्वगंशी ज्ये किम् ? टीका--चत्बारो भुजाः बाहवो यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) विष्णोः Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 नैषधीयचरिते तदवतारस्य श्रीकृष्णस्येत्यर्थः तातस्य पितुः आत्मा स्वरूपम् एव जातः उत्पन्न: स्मरः काम: चत्वारः दोषः वाहवो यस्य तथाभूतः (ब० बी० ) उचितः युक्त एव / 'आत्मा वै पुत्रनामासि' इति श्रुतिप्रमाणात् चतुर्भुजस्य कृष्णस्य आत्मरूप: पुत्रः कामोऽपि चतुर्भुजो भवतीति सर्वथा समुचितमेवेति भावः / अस्याः दमयन्त्याः भ्रुवो: 5 रूपयोः तस्य कामस्य चापयोः धनुषोः (10 तत्पु० ) चिपिटे विस्तृते कौँ लते इव ( उपमित तत्पु० ) वंशस्य वेणोः या त्वक त्वचा तस्याः अंशो भागो ( उभयत्र 10 तत्पु० ) वंशत्वगात्मके इत्यर्थः ज्ये मोव्यों किम् ? चतुर्भुजस्य कामस्य धनुद'येन भाव्यम्, तच्च दमयन्त्याः भ्र द्वयं जातम् कर्णद्वयञ्च वंशत्वगरूपम् धनुाम् अवतारितत्वात् धनुषोः प्रान्तभागयोः एकत्रितं ज्याद्वयमस्तीति भावः // 65 // व्याकरण-सरल है। अनुवाद:-चतुर्भुज पिता (विष्णु = कृष्ण) की आत्मा-रूप ही उत्पन्न हुआ कामदेव चतुर्भुज ठीक है। इस ( दमयन्ती ) के भ्र-रूप उस ( कामदेव) के दो धनुषों की विस्तृत कर्णलतायें बाँस की त्वचा के अंश से बनी दो डोरियाँ है क्या? // 65 // ___ टिप्पणी-चतुर्भुज काम के लिए दो धनुष चाहिए। वे दमयन्ती की दो भौहें हो गई। उन पर इस समय डोरियाँ चढ़ी हुई नहीं हैं। वे धनुष के कोनों में इकट्ठी हो रखी हैं। वे इकट्ठी हुई धनुष की डोरियाँ हैं दमयन्ती के दो कान जो भौंहों के पास हैं / डोरी बाँस की मजबूत त्वचा से बनाई जाती थी। हमने नारायण के अनुसार 'चिपिटे' को विशेषण शब्द मानकर ‘कर्णलते' से जोड़ा है। लेकिन ज्ये' से जोड़ने में स्वारस्य ठीक बैठेगा, क्योंकि धनुष से उतारी हुई डोरी धनुष के कोने में चिपटी-चौड़ी इकट्ठी हो जाया करती है। नरहरि "चिपिटौ' पाठ देकर इस प्रकार व्याख्या करते हैं-'कामचापयोभ्रुवोः कर्णलते ज्ये। चिण्टिौ कर्णान्तग्रन्थी वंशत्वगंशी कि प्रत्यञ्चान्त भागः किम् ?' / चाण्डू पण्डित भी यही पाठ देकर उसे विशेष्यात्मक शब्द मानते हैं और अर्थ यह करते हैं 'चिपिटौत्वलिकापृथुलभागी' / विद्याधर 'चिपटौ' पाठ देकर अस्या भ्रुवी तचापयोश्चिपिटौ दण्डभागी' अर्थ कह रहे हैं / वास्तव में यह शब्द यहाँ संदिग्ध ही समझिए / कवि यहाँ काम में चतुर्भुजत्व की, दमयन्ती की भौहों पर काम Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 197 चापत्व की और कानों पर ज्यात्व की कल्पना कर रहा है अतः उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक किम् शब्द है। चतुर्भुजत्व की कल्पना में कारण बताया गया है, अतः काव्यलिङ्ग भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। आत्मैव चतुर्भुजस्य-इस सम्बन्ध में पीछे सर्ग 1 श्लोक 32 की टिप्पणी देखिये / ग्र वाद्भुतैवावटुशोभितापि प्रसाधिता माणवकेन सेयम् / आलिङ्गयतामप्यवलम्बमाना सुरूपताभागखिलार्ध्वकाया।। 66 / / अन्वयः-(या) ग्रीवा अवटुशोभिता अपि माणवकेन प्रसाधिता; आलिङ्गयताम् अवलम्बमाना अपि सुरूप''काया, सा इयम् अद्भुता एव / टीका ---या ग्रोवा कन्धरा वटुः माणवकः तेन शोभिता अलंकृता (तृ० तत्पु० ) न वटुशोभिता इति अवटु० ( न तत्पू० ) अपि माणवकेन वटुना प्रसाधिता अलंकृता या अवटुशोभिता सा माणवकशोभिता इति विरोधः, तत्परिहार:-अक्टवा कृकाटिकया शोभिता ( 'अवटुटा कृकाटिका' इत्यमरः) अथ च मागवकेन विशतिसरेण मौक्तिकहारेण प्रसाधिता इति / या ('०ऊषकाया इतिच्छेदः) आलिङ्गयताम् आलिङ्गयस्य गोपुच्छाकारस्य मृदङ्गभेदविशेषस्य भावः तत्ता ताम् अवलम्बमाना आश्रयन्ती आलिङ्गयीभवन्ती इत्यर्थः अपि सु सुष्ठ रूपं यस्य (ब० वी० ) तस्य भावम् तत्ताम् भजन्ति प्राप्नुवन्तीति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) अखिलाः सर्वे ऊर्ध्वंकाः यवमध्याकाराः मृदङ्गविशेषाः मृदङ्गविशेषत्वमिति भावप्रधाननिर्देशः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) या खलु ग्रीवा आलिङ्गयाख्य-मृदङ्गतामवलम्बते, सा कथं सुन्दरोर्ध्वकाख्यमृदङ्गत्वम् अवलम्बताम् इति विरोधः तत्परिहारः-आलिङ्गयताम् आलिङ्गनयोग्यताम् आश्रयन्ती आलिङ्गनयोग्या भवन्तीति यावत् सुरूपताभाक सौन्दर्यपूर्ण इत्यर्थः अखिल: अर्ध्वकायः शरीरोज़भागो यया तथाविधा अर्थात् या ग्रीवा आलिङ्गनयोग्या वर्तते, यया च शरीरस्योर्वभागः सुन्दरो भाति सा इयम् एषा ग्रीवा अद्भुता विचित्रा अस्तीति शेषः // 66 // व्याकरण : आलिङ्गयताम् आलिङ्गितुम् योग्येति आ + /लिङ्ग + यत् + तल् + टाप् , अथ च आलिङ्गयस्य (मृदङ्गविशेषस्य) भावः तत्ता ताम् / ०भाक् भिज् + क्विप् / अद्भुत यास्काचार्यानुसार अभूतमिव (पृषोदरादित्वात् साधुः)। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 नैषधीयचरिते अनुवाद-जो ( गर्दन ) अवटु-( बालक से न ) शोभित होती हुई भी माणवक ( वटु ) से अलंकृत है, नहीं, नहीं, जो अवटु ( घुघुची ) से शोभित हुई माणवक ( बीसलड़ियों वाली मोतियों की माला ) से अलंकृत है; जो ( गर्दन ) आलिङ्गय ( गोपुच्छाकार मृदङ्गविशेष ) का रूप अपनाती हुई भी सुन्दर स्वरूप वाले ऊर्ध्वक ( यवाकार मृदङ्गविशेष ) का रूप अपना रही है, नहीं, नहीं जो आलिङ्गय ( आलिंगन किये जाने योग्य होती हुई सुन्दर रूप वाले ऊर्ध्वक शरीर का उपरितन भाग ) वाली है // 66 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि दमयन्ती की ग्रीवा का वर्णन कर रहा है, जो विरोधाभास से भरा हुआ है। वह इतना हृदयस्पर्शी नहीं, जितना चमत्कारक है। अवटु, माणवक, आलिङ्गय और ऊर्ध्वक शब्दों में श्लेष रखकर कवि ने निज बुद्धि-कौशल दिखाया है। वटु माणवक अथवा बालक को कहते हैं। जो वटु न हो उसे अवटु कहेंगे। अवटु कृकाटिका अर्थात् गले के अगले भाग में हनू के नीचे उठी हुई छोटी-सी हड्डी को भी कहते हैं। हिन्दी में इसका नाम घुघुची और अंग्रेजी में ( Lyranx ) होता है / इसी तरह माणवक वटु ( बालक ) और बीस लड़ियों वाली मुक्तामाल्य भी होता है / 'अङ्कयालिङ्गयो+कास्त्रयः' नाम के तीन प्रकार के मृदङ्गों को बताकर अमरकोष में उनके 'हरीतक्याकृतिस्त्वङ्कयो यवमध्यस्तथोर्ध्वकः / आलिङ्गयश्चैव गोपुच्छः मध्यदक्षिणवामगाः'' / / स्वरूप स्पष्ट कर रखे हैं। आलिङ्गय आलिङ्गन किये जाने योग्य और ऊर्ध्वक शरीर के ऊर्ध्व भाग को भी कहते हैं। इन्हीं अर्थभेदों में टकराव दिखाकर कवि ने ग्रीवा का अद्भुत चित्र खींचा है / लेकिन यदि वह माणवक के स्थान में वटु को रख पाता, तो 'अवटुशोभितापि वटुमा प्रसाधिता' में विरोधाभास अधिक स्पष्ट हो जाता, साथ ही उद्देश्य-प्रतिनिर्देश्यभाव सम्बन्ध का निर्वाह भी हो जाता। माणवक शब्द में यह बात नहीं है, किन्तु फिर श्लेष नहीं रहता, जो माणवक में है और विरोधाभास की जड़ ही कट जाती। श्लोक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में दो विरोधाभासों की संसृष्टि है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। कवित्वगानप्रियवादसत्यान्यस्या विधाता व्यधिताधिकण्ठम् / रेखात्रयन्यासमिषादमीषां वासाय सोऽयं विबभाज सीमाः / / 67 / / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 सप्तमः सर्गः अन्वयः-विधाता अस्याः अधिकण्ठम् कवित्व सत्यानि व्यधित। सः अयम् रेखात्रय न्यास-मिषात् अमीषाम् वासाय सीमाः विबभाज। टीका-विधाता ब्रह्मा अस्या. दमयन्त्याः कण्ठे इत्यधिकण्ठम् ( अव्ययीभाव स० ) कवेर्भावः कवित्वं च गानं च प्रिया दादः वचनम् ( कर्मघा० ) च सत्यम् ऋतञ्चेति ०सत्यानि ( द्वन्द्वः) व्यधित रचयामास / ब्रह्मणा दमयन्त्याः कण्ठे कवित्वादयः चत्वारो गुणाः निर्मिता इत्यर्थः / स: अयम् एष विधाता रेखाणां त्रयम् त्रितयम् तस्य न्यासस्य स्थापनस्य मिषात् व्याजात् ( सर्वत्र प० तत्पु० ) अमीषाम् एतेषां चतुर्णा गुणानाम् वासाय पृथक् पृथक् निवासार्थम् सीमाः मर्याद : विबभाज विभक्तवान् / उक्तगुणेषु मा तावद् परस्परं विवादोभूत् इति कृत्वा ब्रह्मा कण्ठे रेखा-त्रयेण तेषां कृते पृथक् पृथक् निवासस्थानानि सीमाबद्धान्यकरोदिति भावः // 67 / / व्याकरण-विधाता विदधाति ( सृजति ) जगत् इति वि+/धा + तृच ( कर्तरि ) / गानम् /7 + ल्युट ( भावे ) / वादः Vवद् + धन (भावे ) / व्यधित वि +धा + लुङ / त्रयम् त्रयोऽवयवा यत्रेति त्रि+ तयप् तयप को अयच् / न्यासः नि + / अस् + घञ् ( भावे ) / वास: वस् + घञ् ( भावे ) / सीमा यास्कानुसार विषीव्यति देशौ इति सिव् + मन् ( पृषोदरादित्वात् साधुः) विबभाज वि + /भज् + लिट् / अनुबाद - ब्रह्मा ने इस ( दमयन्ती ) के कण्ठ में कवित्व, गायन, प्रिय वचन और सत्य ( इन चार गुणों) की रचना को। वह यह ( ब्रह्मा ) तीन रेखाओं के रखने के बहाने इन ( चार गुणों) के निवास हेतु सीभा-विभाग कर गया // 67 // टिप्पणी कण्ठ में पड़ी तीन चौड़ी रेखायें सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार भाग्य रेखायें मानी जाती हैं। इन्हीं रेखाओं से अङ्कित ग्रीवा को कम्बुग्रीवा बोलते हैं ( 'रेखात्रयाङ्किता ग्रीवा कम्बुग्रीवेति कथ्यते' ) इन पर कवि ने कवित्वादि चार गुणों के रहने के लिए स्थानों की सीमा-रेखाओं की कल्पना की है। तीन रेखायें खींचने से च र स्थान बन जाते हैं। भाव यह निकला कि दमयन्ती कवित्व आदि कलाओं से पूर्ण अभिज्ञ और साथ ही कम्बुग्रीवा भी है। कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है, जिसके मूल में मिष शब्द-वाच्य अपहनुति है। 'न्यस्या' 'न्यास', 'धाता' 'धिता' तथा 'मिषां' 'मीषां' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. नैषधीयचरिते बाहू प्रियाया जयतां मृणालं द्वन्द्वे जयो नाम न विस्मयोऽस्मिन् / उच्चैस्तु तच्चित्रममुष्य भग्नस्यालोक्यते निर्व्यथनं यदन्तः / 68 // ___ अन्वयः-प्रियायाः बाहू मृणालम् जयताम्; द्वन्द्वे जयः नाम; अस्मिन् विस्मयः न; तत् तु उच्चैः चित्रम् यत् भग्नस्य अमुष्य अन्तः निर्व्यथनम् आलोक्यते / टोका-प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः बाहू भुजौ मृणालम् विसम् जयताम् पराभवताम् द्वन्द्व युद्ध अथ च युगले ( 'इन्दु कलह-युग्मयोः' इत्यमरः ) जयः पराजयः नाम निश्चितः, द्वाभ्याम् एकः पराजीयते एव अस्मिन् अत्र विषये विस्मयः आश्चर्य न अस्तीति शेषः, तु किन्तु तत् उच्चैः अत्यन्तम् चित्रम् अद्भुतम्, आश्चर्यकरमिति यावत् यत् भग्नस्य पराजितस्य अमुष्य मृणालस्य अन्तः अन्तःकरणम् निर्गतं व्यथनादिति नियंथनम् ( प्रादि तत्पु० ) व्यथारहितम् अथ च भग्नस्य वोटितस्य अन्तः गर्भ निर्व्यथनम् छिद्रम् आलोक्यते दृश्यते / पराजितः कोऽपि जनो हृदये व्यथते परमस्य नास्ति व्यथा अथ च भग्नस्यामुष्यमध्ये छिद्रमस्ति ( 'छिद्र निय॑थनम्' इत्यमरः ) // 68 // व्याकरण-प्रिया प्रीणाति ( प्रसन्नीकरोति ) इति /प्री + क: + टाप् / द्वन्द्वम् द्वौ इति द्वि, द्वित्व, पूर्वपद को अम्भाव, उत्तरपद को नपुंसकत्व निपातित / जयः /जि + अच् ( भावे ) / विस्मयः वि + /स्मि + अच् ( भावे ) / भग्न भङ्ग् + क्त, त को न / . अनुवाद-प्रिया ( दमयन्ती) की भुजायें मृणाल को जीतें; युद्ध में दो के द्वारा ( एक की) हार निश्चित ही है। इस पर आश्चर्य नहीं, किन्तु अत्यधिक आश्चर्य तो यह है कि हार खाये, टूटे हुए इस ( मृणाल ) के हृदय में व्यथा नहीं और छेद देखने में आ रहे हैं / / 68 // टिप्पणी-इस और अगले श्लोक में कवि दमयन्ती की भुजाओं का वर्णन कर रहा है। सौन्दर्य के संघर्ष में उन्होंने बेचारे मृणाल का कचूमर निकाल दिया। ये ठहरे दो, वह वेचारा रहा एक / इसमें आश्चर्य कोई नहीं। आश्चर्य तो यह है कि हार खाकर भी हृदय में निर्व्यथन है। व्यथा का अभाव है। मल्लिनाथ यहाँ विरोधाभास कह रहे हैं। हार खाई हो और हृदय में व्यथा न हो-यह विरुद्ध बातें हैं। इस विरोध का परिहार 'हृदय में अर्थात् भीतर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम सर्गः छिद्र है' अर्थ करके हो जाता है। मृणाल को तोड़ो, तो अन्दर छेद दीखते ही हैं / द्वन्द्व, भग्न, निर्व्यथन शब्दों में श्लेष है। भुजाओं और मृणाल का चेतनीकरण होने से समासोक्ति है। 'जय' 'जयो' में छेक 'जयो' स्मयो' में पदातगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अजीयतावर्तशुभंयुनाभ्यां दो• मृणालं किमु कोमलाभ्याम् / निःसूत्रमास्ते घनपङ्कमृत्सु मृर्तासु नाक तिषु तन्निमग्नम् // 69 / / अन्वयः ---आवर्तशुभंयु-नाभ्यां कोमलाभ्याम् दोभ्या॑म् मृणालम् अजीयत किमु ? ( अतः ) निःसूत्रम् सत् तत् घन पङ्क-मृत्सु मूर्तासु अकीर्तिषु निमग्नम् न आस्ते ( किम् ) ? टाका---आवर्तः दक्षिणावर्तः भ्रमिरिति यावत् तेन शुभंयुः शुभवती ( तृ० तत्पु० ) नाभि: तुन्दिका ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतया ( ब० वी० ) दमयन्त्या कोमलाभ्यां मृदुभ्यां दोा भुजाभ्यां मृणालम् कमलनालम् न अजीयत पराजितं किमु ? अपि तु पराजितमिति काकुः / अतएव निः निर्गतं सूत्रं व्यवस्था मनोबलमिति यावत् यस्य तथाभूतम् ( प्रादि ब० बी० ) ( 'सूत्रं तु सूचनाग्रन्थे सूत्रं तन्तु-व्यवस्थयोः' इति विश्वः निरुपायमित्यर्थः, अथ च तन्तुरहितम् सत् तत् मृणालम् घनाः निबिडाः पङ्क एव मृदः मृत्तिकाः ( कर्मधा० ) तासु मूर्तासु मूर्ति मतीषु साकारासु इति यावत् अकीर्तिषु अपयशःसु निमग्नं बुडितम् न आस्ते किम् ? अपि तु आस्ते एवेति काकुः। कोमलाभ्याम् दमयन्ती-भुजाभ्यां पराजय भावः // 69 // __व्याकरण-शुभंयुः शुभम् अस्या अस्तीति शुभम् + युस् ( मतुबर्थीय ) शुभम् शब्द यहाँ अव्यय है अत एव मकार का लोप नहीं हुआ है / अजोयत। जि + लङ् ( कर्मवाच्य ) / मूर्तासु मूर्छ + क्त। अनुवाद-( दक्षिण ) आवर्त से शुभकारक नाभि वाली ( दमयन्ती ) ने मदु भुजाओं से मृणाल को जीत लिया है क्या? असहाय एवं बिना तन्तुओं का वह ( मृणाल ) गाढे कीचड़वाली मिट्टी के रूप में मूर्तिमान् अपयश में नहीं डूबा हुआ है क्या ? / / 69 // टिप्पण- दक्षिण की ओर घुमाव वाली नाभि सामुद्रिक शास्त्र में शुभ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 नैषधीयचरिते मानी जाती हैं / दमयन्ती की भुजायें मृणाल को हराये हुए हैं अर्थात् गौर वर्ण और मुदुता में मृणाल से बहुत आगे पहुंची हुई हैं / हार खाया व्यक्ति अपयश का भागी बन जाता है। कवि-जगत् में यश यदि श्वेत होता है, तो अपयश काला, कमल की तरह मृणाल भी कीचड़ में होता है। उस पर कवि ने कल्पना की है मानो काला कीचड़ जिसमें मृणाल मग्न है, कीचड़ न हो, काला अपयश हो / हमारे विचार से यह उत्प्रेक्षा है. किन्तु विद्याधर 'पंकमत्सु' पर अकीर्तित्व का आरोप मानकर रूपक कहते हैं। उनका ध्यान 'किमु और 'मूर्तासु' शब्दों की ओर नहीं गया हैः जो उत्प्रेक्षा के स्पष्ट प्रयोजक बने हुए हैं। भुजाओं और मृणाल पर चेतन-व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति पूर्ववत् चली ही आ रही है / 'निःसूत्र' में श्लेष है। विद्याधर छेकानुप्रास भी कह गये हैं। 'भ्यां, भ्यां, भ्याम्' में भ और य व्यञ्जनों की एक से अधिक बार आवृत्ति है, एक बार नहीं / छेक देखो तो एक ही बार की आवृत्ति चाहता है। इसी तरह ‘मृत्सु मूर्तासु' में भी छेक नहीं, क्योंकि 'मूर्तासु' 'कीतिषु' में र और त के एकवार के साम्य में ही छेक हो सकती है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रज्यन्नखस्याङ्गुलिपश्चकस्य मिषादसो हैगुलपद्मतूणे। हैमैकपुङ्खास्ति विशुद्धपर्वा प्रियाकरे पञ्चशरी स्मरस्य // 70 // अन्वयः- रज्यन्नखस्य अङ्गुलि-पञ्चकस्य मिषात् हैमैकपुङ्खा विशुद्धपर्वा असौ स्मरस्य पञ्चशरी प्रियाकरे हैगुलपद्मतूणे अस्ति। टीका-रज्यन्तः स्वभावतः रक्तवर्णा भवन्तः नखाः ( कर्मघां० ) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) अङ्गुलीनाम् करशाखानां पञ्चकम् पञ्चात्मक-संख्या ( 10 तत्पु० ) तस्य मिषात् व्याजात् हैमा: सौवर्णाः एके केवला: श्रेष्ठा इत्यर्थः पुङ्खाः मुखानि पक्षयुक्तभागा इति यावत् ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) विशुद्धानि ऋजूनि पर्वाणि ग्रन्थयः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) असो पुरो दृश्यमाना स्मरस्य कामस्य पञ्चानां शराणां बाणानाम् समाहारः पञ्चशरी ( समाहार द्विगु ) प्रियायाः प्रेयस्याः भैम्याः करे हस्ते ( 10 तत्पु० ) एव हैङ गुलम् हिङगुलेन सिन्दूरेणेति यावत् रक्तम् पद्मम् कमलं कमलात्मक इत्यर्थः तूणः तूणीरः तस्मिन् (उभयत्र कर्मधा० ) अस्ति / दमयन्त्याः पञ्चागुलयः कामस्य पञ्चशरा: रक्तनखाः सिन्दूररक्ता पुङ्खाः, कररूपं पद्म च तूणीरोऽस्तीति भावः // 70 // Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 203 90 ) यक न होकर श्यन् और परस्मैपद हुआ है ( नहीं तो रज्यमान बनता ) / पञ्चकम् पञ्चानां समूह इति पञ्चन् + कन् / हैम हेम्नो विकार इति हेमन् + अण् / हैङ गुल हिङ्गुलेन रक्तमिति हिङ्गुल + अण् / अनुवाद-लाल नाखूनों वाली पाँच अंगुलियों के बहाने सुवर्ण के श्रेष्ठ पुंखों ( पंखों ) तथा सीधे पर्व-भागों वाले ये ( सामने दीख रहे ) कामदेव के पांच बाण प्रिया ( दमयन्ती ) के करपद्मरूपी सिन्दूर-रेंगे तरकश में हैं // 70 // टिप्पणी—यहाँ से लेकर कवि तीन श्लोकों में दमयन्ती के हाथों का वर्णन करता है / यहाँ उसका कर-पद्म कामदेव के बाणों को रखने के लिए तरकश बनाया गया है। काम के बाण पुष्पमय हुआ करते हैं, इसलिए तरकश भी पुष्पमय चाहिए। कर पद्म पुष्प है ही। काम के बाणों की संख्या पाँच है, इसलिए पाँच अंगुलियाँ बाण बन गई। लाल नाखूनें स्वर्ण की नोकों वाले पुंख बन गये / शुद्ध सोना लाल होता ही है / हाथों में लाली है / वह सिन्दूर का रंग बन गई तरकश को हिंगुल ( सिन्दूर ) से रंगते ही हैं। यह कवि की मार्मिक कल्पना है, अतः प्रतीयमान उत्प्रेक्षा है जिसके मूल में मिषशब्द-वाच्य अपह्न ति काम कर रही है। भाव यह निकला कि दमयन्ती का हाथ और अंगुलियाँ देखते ही काम भड़क उठता है / अस्याः करस्पर्धनगर्धनद्धि लत्वमापत् खलु पल्लवो यः / भूयोऽपि नामाधरसाम्यगर्वं कुवंन्कथं वास्तु न स प्रवालः / / 71 / अन्वयः-य: पल्लवः अस्याः कर' 'नद्धिः सन् बालत्वम् आपत् खलु, स भूयः अपि अधर-साम्य-गर्वम् कुर्वन् नाम कथम् प्रवाल: न अस्तु / ____टोका-यः पल्लवः किसलयः अस्या दमयन्त्याः करेण हस्तेन सह स्पधनं स्पर्धाम् (तृ० तत्पु० ) गृघ्नाति अभिकाङ्क्षतीति गर्धना ( उपपद तत्पु. ) ऋद्धिः शोभा ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) अथवा स्पर्धने गधनस्य अभिलाषस्य ऋद्धिः आधिक्यं यस्य तथाभूतः सन् बालत्वम् शिशुत्वम् प्रत्यग्रत्वमित्यर्थः प्रत्यग्रपल्लवस्यैव करेण सौकुमार्य रक्तिमसाम्यात् अथ च बालत्वम् मूर्खत्वम् ( 'मूर्खेऽर्भकेऽपि बालः स्यात्' इत्यमरः ) करेण सह स्पर्धेच्छाधिक्येन मूर्खत्वम् आपत् प्राप्नोत् खलु निश्चयेन, करापेक्षया पल्लवस्य अतिहीनत्वात् / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 नैषधीयचरिते * सः पल्लव: भूयः पुनः अपि अधरेण अधरोष्ठेन साम्यस्य साधर्म्यस्य ( त० तत्पु० ) अहमधरसमोऽस्मीति गर्वम् अभिमानम् (10 तत्पु० ) कुर्वन् विदधानः नामेति उपहासे, कोमलामन्त्रणे वा कथम् केन प्रकारेण प्रवाल: प्रवालंशब्दवाच्यः अथ च वबयारभेदात् प्रकृष्ठो महान् बालः मूर्खः ( कर्मधा० ) न अस्तु भवतु अपि तु अस्त्वेवेति काकुः / पल्लवेन दममन्त्याः करेण सह पस्पधिषायां निजं मूर्खत्वं दर्शितमेव यतः करः तदपेक्षया महान् उत्कुष्टः / पुनः स एव पल्लवो यदि करापेक्षयाऽपि उत्कृष्टतरेण दमयन्त्यधरेण सह साम्यस्याभिमानं कुरुते, तत् तु तस्य प्रबालत्वम् प्रकृष्टम् मूर्खत्वं कथं न स्यादिति भावः // 71 // व्याकरण-स्पर्धनम् / स्पर्ध + ल्युट ( भावे ) / गर्धन ल्यु ( कर्तरि ) अथवा गर्धनम् ल्युट ( भावे ) / ऋद्धिः /ऋध् + क्तिन् ( भावे ) / आपत् आप् + लुङ् / साम्यम् समस्य भावः इति सम + व्यञ् / अनुवाद-जो पल्लव ( पत्ता ) इस ( दमयन्ती ) के हाथ के साथ स्पर्धा करने का अत्यधिक इच्छुक होता हुआ बालत्व वचपन ( नयापन ); मूर्खता को प्राप्त हो बैठा, वही फिर अधर के साथ बराबरी करने का गर्व करता हुआ भला क्यों न प्रवाल ( कोमल पत्ता, अधिक मूर्ख ) बने ? // 71 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने कर-वर्णन में बड़ी भारी शब्द चातुरी भर रखी है। इसमें पल्लव, बाल और प्रदाल शब्द विशेष महत्त्व-पूर्ण हैं। पल्लव पत्ते को कहते हैं। उसने कोमलता और रक्तिमा में यदि हाथ की समता चाही तो उसे बाल ( पल्लव ) बनना पड़ा। बाल अभी-अभी निकले ताजे को कहते हैं। ताजा-ताजा निकला पल्लव कोमल और लाल हुआ करता है। वह बाल हो गया, लेकिन फिर भी हाथ की बराबरी न कर पाया, अतः सचमुच बाल = मूर्ख ही साबित हुआ। हाथ के साथ साम्य की इच्छा में मुर्ख होने पर भी वह कोई सबक न सीख सका, उल्टा हाथ से भी उत्कृष्ट अघर के साम्य की डींग भरने लग गया, तो और भी प्रबाल = अधिक मूर्ख बना / जब उत्कृष्ट हाथ से ही बराबरी न हो सकी, तो हाथ से भी अधिक उत्कृष्ट अधर की बराबरी का सपना देखना और अधिक मूर्खता नहीं तो क्या है। भाव यह है कि दमयन्ती के हाथ बाल अर्थात् नवपल्लव से भी अधिक लाल और कोमल हैं। यहां वर्णन यद्यपि हाथों का चल रहा है, तथापि कवि ने उसके साथ-साथ अधर का भी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 205 वर्णन जो किया है, उसे प्रसङ्ग-वश ही समझिए, मुख्यतः नहीं क्योंकि अधर का वर्णन हम पीछे देख आये हैं / यह कवि की अनोखी कल्पनां है, इसलिए हम उत्प्रेक्षा कहेंगे, जो गम्य है। हाथों और पल्लव में चेतनब्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति भी है / ‘स्पर्धन' 'गर्धन' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास 'बाल' 'वाल' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अस्यैव सर्गाय भवत्करस्य सरोजसृष्टिर्मम हस्तलेखः / इत्याह धाता हरिणेक्षणायां कि हस्तलेखाकृतया तयाऽस्याम् // 72 // अन्वयः- ( हे दमयन्ति ! ) अस्य भवत्करस्य एव सर्गाय सरोज-सृष्टिः मम हस्त-लेखः ( अभूत् )" इति धाता हरिणक्षणायाम् अस्याम् हस्तलेखीकृतया तया आह किम् ? टीका--- ( हे दमयन्ति ! ) अस्य पुरो दृश्यमानस्य भवत्याः तव करस्य हस्तस्य ( 10 तत्पु० ) एव सर्गाय रचनाय सरोजानाम् कमलानाम् सृष्टिः सर्जनम् (10 तत्पु० ) मम मे हस्तस्य लेख: हस्तकृतं स्थूलरेखाचित्रम्, करनिर्माणार्थं पूर्वाभ्यास इति यावत् अभूत् अर्थात् करनिर्माणे पूर्ण-नैपुणीभवाप्तुम् प्रथमं मया कमलनिर्माणे अभ्यासः कृतः / इति धाता स्रष्टा हरिणस्य इव अक्षिणी नयने ( उपमान तत्पु० ) यस्याः तथाभूतायाम् (ब० वी० ) अस्यां दमयन्त्याम् हस्ते करे लेखीकृतया लिखितया चित्रितयेति यावत् अथ च अभ्यस्तया ( स० तत्पु० ) तया सरोजसृष्टया आह कथयति किम् ? कमलसृष्टेः पूर्वाभ्यासरूपत्वे करी कमलादपि सुन्दरी, अथ च करयोः कमलरेखया तो शुभ-सूचको इति ध्वन्यते इति भावः॥ 72 // ___ व्याकरण-सर्गाय सूज + घन ( भावे ) / सरोजम् सरसि जायते इति सरस् + /जन् + ड / सृष्टिः सृजू + क्तिन् ( भावे ) / धाता दधातीति Vधा + तृच ( कर्तरि ) / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति /ईक्ष् + ल्युट् ( करणे ) : ०लेखीकृतया लेखनम् लेखः /लिख घन अलेखः लेखःसम्पद्यमानया कृतयेति लेख + च्चि, ईत्व VF + क्त। आहब्रू + लट् ब्रू को आह आदेश / अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! ) तुम्हारे इस हाथ के निर्माण हेतु कमलों की सृष्टि मेरा हस्तलेख-पूर्वाभ्यास-( कच्चा खाका ) था" इस तरह विधाता मृगनयनी इस ( दमयन्ती ) में पूर्वाभ्यास-रूप में अपनायी तथा हाथ में चित्रित उस ( कमलसृष्टि ) द्वारा कह रहे हैं क्या ? // 72 // Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 नैषधीयचरिते टिप्पणी' यह कवि की कल्पना है कि ब्रह्मा मानो दमयन्ती को यह कह रहे हैं कि "तुम्हारे इन सुन्दर हाथों को बनाने से पहले मैने स्थूल रेखा के रूप में कमल बनाये हैं जिससे कि मैं पूरी कलानैपुणी प्राप्त कर सकूँ जैसे कि सभी कलाकार किया करते हैं। जब मुझ में पूर्ण नैपुणी आ गई तब जाकर कहीं मैंने तुम्हारे हाथ बनाये, साथ ही उनमें कमल की रेखा भी खींच दी यह बताने के लिए कि पहले मैंने अभ्यासार्थ कमल बनाये, तब हाथ बनाये"। सामुद्रिक शास्त्रानुसार हाथ में कमल की रेखायें. शुभ सूचक मानी जाती हैं। कल्पना में उत्प्रेक्षा है, जिससे 'दमयन्ती के हाथ कमलों से कहीं अधिक सुन्दर है' यह व्यतिरेकालंकार ध्वनि निकल रही है / 'हरिणेक्षणायाम्' में उपमा है / शब्दालंकारों में 'हस्तलेखः' 'हस्तलेखी' में छेक, 'तया' 'तयो' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। किं नर्मदाया मम सेयमस्यां दृश्याभितो बाहुलतामृणाली। कुचौ किमुत्तस्थतुरन्तरीपे स्मरोष्मशुष्यत्तरबाल्यवारः // 73 // अन्वयः-अभितः दृश्या मम नर्मदायाः अस्याः सा इयम् बाहुलता मृणाली किम् ? स्मरो' 'वारः अस्याः कुचौ अन्तरीपे उत्तस्थतुः किम् ? टोका-अभितः द्वयोः पार्श्वयोः दृश्या दर्शनीया अथ च रमणीया मम मे नर्म आनन्दं ददातीति तथोक्तायाः ( उपपद तत्पु० ) अथ च नर्मदायाः रेवानद्याः ( 'रेवा तु नर्मदा' इत्यमरः ) अस्याः दमयन्त्याः सा प्रसिद्धा इयम् पुरो दृश्यमाना बाहुः भुजः लता इव ( उपमित तत्पु०) एव मृणाली विसवल्ली, किम् ? अत्र मणाली द्विवचन-परका अर्थात् मणाल्यौ ज्ञेया भुजयोः द्वित्वात् / स्मरस्य कामस्य ऊष्मणा तापेन (ष० तत्पु० ) शुष्यत्तरम् अतिशयेन शोष प्राप्नुवत् (त० तत्पु० ) बाल्यम् बाल्यावस्था एव वाः वारि ( कर्मधा० ) ( 'आपः स्त्री भूम्नि वारि' इत्यमरः) यस्याः तथाभूताया अस्याः दमयन्तीरूपनर्मदानद्याः कुचौ स्तनौ अन्तरीपे द्वद्वोपे उत्तस्थतः उपरि उत्थिती किम् ? वाल्यावस्थारूपजले युवावस्थायां कामोष्मद्वारा शोषिते सति दमयन्तीरूपनर्मदायां कुचरूपं द्वीपद्वयं समुत्थितमिव प्रतीयते इति भावः // 73 // व्याकरण-दृश्य द्रष्टु योग्यमिति दृश् + क्यप् / ऊष्मन् /ऊष् + मनिन् (भावे ) / बाल्यम् बालायाः भावः इति बाल + ष्यन् / अन्तरीपम् अपाम् Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 200 अन्तः इति ( सुपसुपेति समासः ) अप के अ को ईत्व ( 'द्वयन्तरूपसर्गेभ्योऽपईम्' 6 / 3 / 97 ( ऋक-', 'ऋक्-पूः० 5 / 4 / 74 से' समासान्त अकार)। अनुवाद--मुझे आनन्द देनेवाली नर्मदा-रूपी इस ( दमयन्ती ) को दोनों ओर दिखाई पड़ रही सुन्दर दो लता-जैसी भुजायें दो मणालियां हैं क्या ? काम के ताप से अच्छी तरह सूखे जा रहे बाल्यावस्था-रूपी जल वाली इस ( दमयन्ती ) के दो कुच ऊपर उभरे हुए दो द्वीप हैं क्या ? // 73 // टिप्पणी-यहाँ से लेकर कवि अब छः श्लोकों में दमयन्ती के कुचों का वर्णन कर रहा है। नर्मदा और दृश्य शब्दों में श्लेष रखकर कवि दमयन्ती पर नर्मदा नदीत्व उसकी वाहुलता पर मृणालीत्व, बाल्यावस्था पर वारित्व और कुचों पर द्वीपत्व का आरोप करके रूपक का समस्तवस्तुविषयक चित्र खींच कर अन्त में 'किम्' शब्द द्वारा उत्प्रेक्षा में पर्यवसान कर रहा है / 'बाल्य' 'बारः' में ( बवयोरभेदात् ) छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तालं प्रभु स्यादनुकतु मेताबुत्थानसुस्थी पतितं न तावत् / परं च नाश्रित्य तरुं महान्तं कुचौ कृशाङ्गयाः स्वत एव तुङ्गी // 74 // अन्वयः-पतितम् तावत् तालम् उत्थान-सुस्थी एती (कृशाङ्गयाः ) कुची अनुकर्तुम् न प्रभु; परं च महान्तम् तरुम् आश्रित्य (तुङ्ग सत् ) स्वता एव तुङ्गी कृशाङ्गयाः कुची अनुकतुम् न प्रभुः / टीका-पतितम् नीचैः भुवि च्युतम् तावत् वस्तुतः तालम् ( कर्तृ ) एतदाख्यवृक्षविशेषस्य फलम् उत्थाने उद्गमने सुस्थौ स्वस्थी (तृ० तत्पु० ) एतौ पुरो दृश्यमानौ कृशम् तनु अङ्गम् देहः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाः ( ब० बी० ) दमयन्त्याः कुचौ स्तनौ. अनुकर्तुम् साम्यं वोढुम् न प्रभु समर्थम् / तालम् पतितम् कुचौ तु न पतितौ प्रत्युत उच्चैःस्थिती इति पतितापतितयोः कथं नाम साम्यं स्यादिति भावः; परम् अन्यत् अपतितमित्यर्थः तालं च महान्तम् विशालम् तरुम् वृक्षम् आश्रित्य वृक्षस्य आश्रयं गृहीत्वा स्थितं सत् स्वतः स्वभावतः एव न तु पराश्रयणेन तुङ्गो उच्ची कृशाङ्गयाः कुची अनुकर्तुम् न प्रमु; पराश्रयणेनोच्चस्य तालस्य स्वयमेव चोच्चेन कुचेन कथं नाम साम्यं स्यादिति भावः 174 / / ___ व्याकरण-उत्थानम् उत् + स्था + ल्युट ( भावे ) स को त / सुस्थौ सु = सुष्ठ तिष्ठतः इति सु + /स्था + क / प्रभु प्रभवतीति प्र +भू + ड / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 नैषधीयचरिते _अनुवाद-नीचे गिरा ताड़ फल वस्तुतः कृशाङ्गी ( दमयन्ती) के ऊपर उठे होने से ठीक-ठीक इन कुचों की बराबरी करने में सक्षम नहीं है और दूसरा ( अनगिरा ) विशाल वृक्ष के सहारे ऊपर स्थित ताड़ फल (भी) कृशाङ्गो के स्वतः ऊँचे कुचों की बराबरी नहीं कर सकता / / 74 // टिप्पणी-कवि लोग ताड़ फल से नायिकाओं के कुचों की तुलना किया करते हैं, लेकिन जहाँ तक कृशाङ्गी दमयन्ती के कुचों का सम्बन्ध है, हमारे कवि के अनुसार ताड़ फल की तुलना में आ ही नहीं सकता, क्योंकि ताड़फल दो तरह के होते हैं—एक नीचे जमीन पर गिरा, दूसरा पेड़ चढ़ा / पहला इसलिए इसकी बराबरी नहीं कर सकता है कि वह गिरा हुआ है जब कि इसके कुच देखो, तो ऊपर उठे हुए हैं। पेड़ पर लगा ताड़ भी बराबरी में नहीं आ सकता क्योंकि वह दूसरे अर्थात् पेड़ के आसरे ऊपर उठा हुआ है, जबकि ये कुच बिना किसी अन्य के आसरे स्वतः ही ऊपर उठे हुए हैं। भाव यह निकला कि दमयन्ती के कुच ताड़ फल से भी अधिक सुन्दर और उन्नत हैं। विद्याधर ताड़ और कूचों का चेतनीकरण मानकर समासोक्ति और साथ ही विरोध भी कह रहे हैं / कायलिंग स्पष्ट ही हैं। व्यतिरेक ध्वनित हो रहा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। एतत्कुचस्पर्धितया घटस्य ख्यातस्य शास्त्रेषु निदर्शनत्वम् / तस्माच्च शिल्पान्मणिकादिकारी प्रसिद्धनामाजनि कुम्भकारः / / 75 / / अन्वयः-एतत्कुच-स्पधितया ख्यातस्य घटस्य शास्त्रेषु निदर्शन वम् अजनि, मणिकादिकारी तस्मात् शिल्पात् च प्रसिद्धनामा कुम्भकारः अजनि / टीका-एतस्याः अस्याः दमयन्त्याः कुचाभ्याम् स्तनाभ्याम् (10 तत्षु० ) स्पर्धते स्पर्धा करोतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) भावः तत्ता तया ख्यातस्य प्रसिद्धि प्राप्तस्य घटस्य कुम्भस्य शास्त्रेषु न्यायादिग़न्थे निदर्शनस्य दृष्टान्तस्य भावः तत्त्वम् अजनि जातम् / घटो हि कुचाभ्यां सह स्पर्धनेन न्यायशास्त्रे 'सर्वम् अनित्यम् कार्यत्वात् घटवत्' इति दृष्टान्तरूपेण प्रयुज्यमानः लोके ख्यातिमगच्छत् इति भावः / मणिकः अलिंजरः 'अलिंजरः स्यान्मणिकः', इत्यमरः) आदियषान्तथाभूतम् (ब० वी० ) कर्तुं शीलमस्येति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) तस्मात् दमयन्तीकुचस्पधिकुम्भनिर्माणात् एव च प्रसिद्धं ख्यातं नाम संज्ञा ( कर्मधा० ) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 209 यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) 'कुम्भकारः' अजनि जातः / कुम्भेन दमयन्तीकुचाभ्यां सह या स्पर्धा कृता, तत्कारणादेव कुलालः मणिकाद्यनेकमृद्भाण्डनिर्माताऽपि सत् कुम्भकार एवोच्यते, न तु मणिकादिकार इति भावः // 74 // व्याकरण-०स्पर्धा स्पधितुं शीलमस्येति स्पधं + णिन् / निदर्शनम् निदर्यते साम्यमस्मिन्निति नि + दृश + णिच् + ल्युट ( अधिकरणे ) / ०कारी कर्तुशीलमस्येति /कृ + णिन् / कुम्भकारः कुम्भं करोतीति कुम्भ + /कृ + अण् ( कर्मणि ) / अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) के कुचों से होड़ करने के कारण प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ घट शास्त्रों में दृष्टान्त बना हुआ है एवं मटके आदि का ( भी) निर्माता होता हुआ ( कुलाल ) उस दमयन्ती के कुचों से होड़ करने वाले घट ( का निर्माण ) शिल्प के कारण कुम्भकार नाम से (ही) प्रसिद्ध हुआ है / / 75 // टिप्पणी-संस्कृत कवि-जगत् में कुचों की तुलना के लिए घट, कुम्भ अथवा कलश काम में लाया जाता है। दमयन्ती के कुच के साथ स्पर्धा के कारण धट इतना प्रसिद्ध हो बैठा है कि न्यायशास्त्र में जिस किसी भी बात को सिद्ध करने में दृष्टान्त घट का ही दिया जाता है ( यथा घटः ) और कुम्हार भी यद्यपि मटके, कुण्डे, सुराही आदि बनाता है, तथापि दमयन्ती के कुचों से स्पर्धा करने वाले कुम्भ (घट ) के निर्माण के कारण ही कुम्भकार कहा जाता है न कि मणिककार आदि / किसी बड़े के साथ संपर्क से तो लोग प्रसिद्ध होते ही हैं, किन्तु बड़े के साथ स्पर्धा अथवा शत्रुता से भी प्रसिद्धि प्राप्त हो जाया करती है जैसे भारवि ने भी कहा है--'वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः'। इससे दमयन्ती के कुच घट-जैसे बड़े हैं. यह उपमा-ध्वनि निकल रही है। घट की प्रसिद्धि और कुम्भकार नाम पड़ने का कारण बता देने से कायलिंग स्पष्ट ही है। कुच के साथ घट की स्पर्धा में हम उपमा कहेंगे, क्योंकि दण्डी ने स्पर्धा करना, मुकाबले में खड़ा होना, लोहा लेना, मित्रता गाँठना आदि प्रयोगों को सादृश्य-वाचक ही माना है। विद्याधर घट पर कुचों के साथ स्पर्धा का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताने में असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति कह रहे हैं / वे अपहनुति भी मान रहे हैं जो हम नहीं समझे। हां, "शिल्पादिव' यों गम्योप्रेक्षा बन सकती है / 'कारी' 'कार:' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 वैषधीयचरिते गुच्छालयस्वच्छतमोदबिन्दवृन्दाभमुक्ताफलफेनिलाङ्के। माणिक्यहारस्य विदर्भसुभ्रपयोधरे रोहति रोहितश्रीः // 7 // अन्वयः-गुच्छा'लाङ्के विदर्भसुभ्रूपयोधरे माणिक्यहारस्य रोहितश्री: रोहति / टोका-गुच्छः हारविशेषः ('हारभेदा यष्टिभेदाद् गुच्छ-गुच्छार्ध-गोस्तनाः' इत्यमरः) आलय आश्रयः ( कर्मधा० / येषां तथाभूतानि ( ब० वी० ) यानि अतिशयेन स्वच्छानि निर्मलतमानि च ( कर्मधा० ) उदकस्य जलस्य बिन्दवः तेषां वृन्दम् समूहः ( उभयत्र 10 तत्पु० ) तद्वत् आभा कान्तिः ( उपमित तत्पु० ) येषां तथाभूतानि (ब० वी० ) च यानि मुक्ताफलानि मौक्तिकानि ( कर्मधा० ) तै: फेनिलः फेनयुक्त ( इव उज्वल: ) ( तृ० तत्पु० ) अङ्कः मध्यः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूते ( ब० वी० ) विदर्भाणाम् विदर्भजनपदस्य सुभ्रूः सु = शोभने भ्रुवौ यस्याः तथाभूता ( प्रादि ब० वी० ) सुन्दरी दमयन्ती ( 10 तत्पु० ) तस्याः पयोधरे कुचे अथ च मेघे माणिक्यानां मणीनाम् हारस्य मालाया (10 तत्पु० ) रोहिता लोहिता रक्तवर्णेति यावत् अथ रोहितस्य उक्तस्येन्द्रधनुषः श्री कान्तिः ( कर्मधा० ) ( 'रोहितो लोहितो रक्तः' इत्यमरः ) रोहति प्रादुभवति / मौक्तिकमालयाः शुभच्छटया रत्नमालायाश्च रक्तच्छटया दमयन्त्याः पयोधरौ दीप्येते इति भावः // 76 // व्याकरण-स्वच्छतम स्वच्छ + तमप् ( अतिशयार्थ ) उद समास में उदक शब्द को उदादेश हो रखा है / फेनिल फेनोऽस्यास्तीति फेन + इलच् (मतुबर्थ ) / पोधरः धरतीति धृ + अच् ( कर्तरि ) धरः पयसः धरः इति ( 10 तत्पु० ) / अनुवाद-हार पर लगे अतिशुभ्र, जल-विन्दु-समह की-सी कान्ति वाले मोतियों के फेन से भरे ( जैसे ) मध्य भाग वाले विदर्भ-सुन्दरी के कुचों पर रत्नहार की लाल छटा पड़ रही है ( जैसे मेघ में इन्द्रधनुष की रंगविरंगी छटा पड़ा करती है ) // 76 // टिप्पणी-दमयन्ती ने एक हार मोतियों का और दूसरा रत्नों का पहन रखा है। जिनकी मिली-जुली श्वेत और लाल छटा उसके कुचों के मध्य भाग पर पड़ रही है, जिससे वे उजागर हो रहे हैं। यहाँ कवि ने पयोधर और रोहित शब्दों में श्लेष रखा हुआ है, जिनका दूसरा अर्थ क्रमशः मेघ और इन्द्र Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 21 धनुष भी होता है ('स्त्रीस्तनाब्दी पयोधरौ'। इन्द्रायुधं शक्रधनुस्तदेव ऋजु रोहितम' इत्यमरः)। कवि को इन शब्दों से मेघ में रंगविरंगा इन्द्र-धनुष बताना भी अभिप्रेत है, लेकिन यह अर्थ प्रकृत से कोई सम्बन्ध नहीं रखता है, इसलिए प्रकृत के साथ इसका उपमानोपमेयभाव सम्बन्ध स्थापित करके हमारे विचार से यह शब्दशक्त्युद्भव उपमाध्वनि ही है अर्थात् जिस प्रकार मेघ में इन्द्रधनुष की रंगबिरंगी छटा पड़ी रहती है, उसी तरह दमयन्ती के कुचों पर हार भी अपनी रंगबिरंगी छटा डाले हुए हैं / विद्याधर के अनुसार उत्प्रेक्षा और श्लेष अलंकार है। उत्प्रेक्षा ‘फेनिल इव' में ही हो सकती है / श्लेष हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं, 'उदबिन्दुवृन्दाभ' में उपमा है। मणिहारों की प्रभा से कुचों के रंगविरंगे होने में तद्गुण भी है। शब्दालंकारों में रोहति' 'रोहित' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। निःशङ्कसंकोचितपङ्कजोऽयमस्यामुदीतो मुखमिन्दुबिम्बः / चित्रं तथापि स्तनकोकयुग्मं न स्तोकमप्यञ्चति विप्रयोगम् // 77 // अन्वयः-निःशङ्कसंकोचितपङ्कजः अयम् मुखम् इन्दु-बिम्बः अस्याम् उदीतः, तथा अपि स्तनकोकयुग्मम् स्तोकम् अपि विप्रयोगम् न अञ्चति ( इति ) चित्रम् / टीका-निः निर्गता शङ्का यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( प्रादि ब० वी० ) संकोचितानि संकोचं प्रापितानि निमीलितानीति यावत् अथ च पराजितानि पङ्कजानि कमलानि ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः ( ब० वी० ) अयम् एष पुरो दृश्यमानः मुखम् आननम् एव इन्दोः चन्द्रमसः बिम्बः मण्डलम् अस्याम् अग्रे स्थितायाम् दमयन्त्याम् उदीतः उदितः अस्तीति शेषः तथापि चन्द्र उदिते सत्यपि स्तनौ अस्याः कुचौ एव कोको चक्रवाको ( कर्मधा० ) तयोः युग्मम् युगलम् ( 10 तत्पु० ) स्तोकम् ईषत् यथा स्यात्तथा अपि विप्रयोगम् वियोगम् न अञ्चति प्राप्नोति / चन्द्रोदये चक्रवाकयुगलेन वियुक्तेन भाव्यमासीत् किन्त्वत्र कुचरूपचक्रवाकौ परस्परात् न वियुज्येते अपि तु परस्परं संयुक्ताभ्यामेव स्थीयते इति चित्रम् आश्चर्यम् इति भावः // 77 // व्याकरण-संकोचित सम् + कुच् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / पङ्कजम् पङ्कात् जायते इति पङ्क/जन् + ड। उदीत: उत् + Vई + क्त - ( कर्तरि ) / युग्मम् / युज् + मक् , कुत्ब / विप्रयोगः वि + प्र + /युज् + घन् / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 . नैषधीयचरिते अनुवाद-निश्शङ्क हो कमलों को संकुचित ( बन्द, पराजित) किये यह मुख-रूपी चन्द्रबिम्ब इस ( दमयन्ती ) में उदय हो गया है, तथापि कुच-रूपी चक्रवाक पक्षियों का जोड़ा जरा भी विछड़ने में नहीं आ रहा है-आश्चर्य है / 77 // टिप्पणी-रात को चन्द्रोदय होने पर चकवा-चकइयों का जोड़ा एक-दूसरे से बिलकुल पृथक हो जाया करता है, ऐसा प्रकृति का विधान है, किन्तु यहाँ कुचचक्रवाक-युगल पृथक् होता ही नहीं। दमयन्ती के कुचयुगल एक-दूसरे से खूब सटा हुआ है। बीच में अन्तराल है ही नहीं। पृथक् हों, तो कैसे हों / भाव यह निकला कि दमयन्ती के कुच कमल-कुडमल और चक्रवाक के आकार के हैं और अच्छी तरह सटे हुए हैं। यहाँ मुख पर चन्द्रत्वारोप में रूपक और चन्द्रोदय-रूप विछड़ने का कारण होने पर भी कोकों का विछड़ना कार्य न होने से विशेषोक्ति है / 'शङ्क' 'पङ्क' और 'कोक' 'स्तोक' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आभ्यां कुचाभ्यामिभकुम्भयोः श्रीरादीयतेऽसावनयोन ताभ्याम् / भयेन गोपायितमौक्तिको तो प्रव्यक्तमुक्ताभरणाविमो यत् // 78 // अन्वयः-आभ्याम् कुचाभ्याम् इभ-कुम्भयोः श्रीः आदीयते, ताभ्याम् अनयोः न ( आदीयते , यत् तो भयेन गोपायित मौक्तिको, इमो ( तु) प्रव्यक्तमुक्ताभरणी ( स्तः)। टीका-आभ्याम् एताभ्यां प्रत्यक्षदृश्यमानाभ्याम् कुचाभ्याम् स्तनाभ्याम् इभस्य हस्तिनः कुम्भयो: गण्डस्थलयो श्रीः शोभा अथ च सम्पत् बावीयते गृह्यते, ताभ्याम् इभकुम्भाभ्याम् अनयोः कुचयोः श्री: न आदीयते यत् यतः तो इभकुम्भी भयेन कुचाद् भीत्या गोपायितानि निहनुतानि मौक्तिकानि मुक्ताफलानि ( कर्मधा० ) याभ्यामिति तथाभूतौ (ब० वी० ) स्तः इति शेषः, इमौ एतो कुचौ तु प्रव्यक्तं प्रकटितम् मुक्तारूपम् आभरणं भूषणं याभ्याम् तथाभूती स्तः / दमयन्तीकुचद्वयेन करिकुम्भस्थलयोः श्रीः अपहृता, अत एष मुक्तारूपाम् अवशिष्टश्रियम् ते मा तावत् तत् एतामपि हरेत् इति भयेन अन्तर्निगृहतः, कुषद्वयं तु स्वां श्रियम् एतत्सकाशात् गृहीतां श्रियमपि च प्रत्यक्षं दधाति इति भाषः // 78 // व्याकरण-श्री: इसके लिए पीछे श्लोक 38 देखिए / गोपायित /गुप् + Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः आप + क्तः ( कर्मणि ) / मौक्तिकम् मुक्ता एवेति मुक्ता + ठक् ( स्वार्थे ) / प्रब्यक्त प्र + वि + /अङ्ग् + क्त ( कर्मणि ) / अनुवाद - ये कुच हाथी के गण्डस्थलों की श्री ( शोभा, संपदा ) ले रहे हैं (जब कि ) वे इनकी श्री नहीं लेते हैं, क्योंकि वे डर के मारे अपने मोतियों को छिपाये रखे हुए हैं, (जब कि ) ये अपने मोतियों को आभरण के रूप में प्रकट किये हुए हैं // 78 // टिप्पणी-दमयन्ती के कुचों ने हाथी के गण्डस्थलों-कनपटियों की श्री ले ली। वे न ले सके। श्री शब्द में कवि ने श्लेष रखा हुआ है, जिसका एक अर्थ शोभा और दूसरा लक्ष्मी अर्थात् सम्पदा है। शोभा तो उनकी इन कुचों ने लेली है, क्योंकि ये उनसे भी अधिक रमणीय और उन्नत हैं। सौन्दर्य की प्रतियोगिता में विजयी होने के कारण कुचों का हाथी के गण्डस्थलों की श्री ले लेना स्वाभाविक ही है। पराजित शत्रु की श्री सभी विजेता लेते हैं। कुम्भस्थलों के पास दूसरी श्री अर्थात् मोतियों के रूप में सम्पत्ति भी है, जिसे उन्होंने डर के मारे अपने भीतर तुरन्त छिपा दिया कि इसे भी कहीं कुच छीन न लें। ऐसी लोक-प्रसिद्धि है कि हाथियों के मस्तक में कनपटियों के समीप भी मोती हुआ करते हैं ( 'करोन्द्रजीमूतवराहशंखमत्स्यादिशुक्त्युद्भववेणुजानि / मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि // ) किन्तु कुचों ने मुक्ताहार के रूप में अपनी श्री स्पष्ट प्रकट कर रखी है। उन्हें डर काहे का ? विद्याधर ने यहाँ काव्यलिङ्ग ही कहा है। हमारे विचार से इभ-कुम्भ की श्री इभ कुम्भ में ही है. वह कुचों में नहीं जा सकती, अतः 'श्रीः इव श्री:' यों बिम्बप्रतिविम्ब भाव होने से यहां असम्भवद्वस्तु-सम्बन्धा निदर्शना है। दो विभिन्न श्रियों में अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति और साथ ही कुचों और कुम्भों का चेतनीकरण होने से समासोक्ति भी है। 'आभ्यां' 'कुचाभ्याम्' यों पदच्छेद में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास 'मौक्ति' 'मुक्ता' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। कराग्रजाग्रच्छतकोटिरों ययोरिमौ तौ तुलयेत्कुची चेत् / सर्वं तदा श्रीफळमुन्मदिष्णु जातं वटामप्यधुना न लब्धुम् // 79 / / अन्वयः-करा. कोटिः ययोः अर्थो. तौ इमौ उन्मदिष्णु सर्वम् श्रीफलम् चेत् तुलयेत्. तदा ( तत् ) अधुना वटीम् अपि लब्धुम् ( समर्थम् ) न जातम् / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 नैषधीयचरिते ____टीका-करस्य हस्तस्य अग्ने अग्रभागे (10 तत्पु० ) जाग्रत् प्रकाशमानः (स० तत्पु० ) शतकोटि: वज्रम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० बी०) ('कुलिशं भिदुरं पवि. शतकोटिः' इत्यमरः ) इन्द्रः इत्यर्थः ययोः कुचयोः अर्थी याचकः अस्ति, तौ प्रसिद्धौ इमो एती कुचौ ( कर्म ) उन्मदिष्णु उन्मत्तम् सर्वम् निखिलम् श्रीफलम् मालूरफलम् बिल्वफलमिति यावत् ( कर्तृ) ( "बिल्वे शांडिल्य-शैलूषो मालूर-श्रीफलावपि' इत्यमरः ) उक्तकोषानुसारेण श्रीफलशब्दस्य पुंस्त्वे कवेर्नपुंसकप्रयोगश्चिन्त्यः चेत् यदि तुलयेत् तुल्योकुर्यात् कुचाभ्यां साम्यं कर्तुमिच्छेदिति यावत्, तदा तहि अधुना इदानीम् कुचयोः, वटीम् लध्वी कपदिकाम् कुचसौन्दर्यस्य लेशमिति यावत् लब्धुम् प्राप्तुम् न जातम् समर्थमिति शेषः, शक्तं स्यादित्यर्थः औपम्यातीतयोः कुचयोः साम्यमाप्तुमिच्छा बिल्वस्य उन्मादो मूर्खतेति यावत् अस्ति / अथ चात्रापरोऽप्यर्थ, तद् यथा-करस्याग्रे शतं कोटयः अर्बुदसंख्यकं द्रव्यं यस्य, सोऽपि उन्मत्तो महाधनी एतयोः कुचयोः अपिलाषं कुर्वन् सर्वश्रीफलं अर्थात् स्वकीयं लक्ष्मीफलरूपेणकथितम् अर्बुदसंख्यकद्रव्यम् तुलयेत् कुचाभ्यां समीकरणार्थं तुलायां धरेत् तोलयेदिति यावत्. तर्हि तस्य स्वीयं तत् सर्वं द्रव्यम् कुचयोः समक्षं बख्याः (क्षुद्र-कपदिकायाः ) अपि मूल्यं नार्हेत् / अमूल्यौ कुची धनेनालभ्याविति भावः / / 79 // ___ व्याकरण-अर्थी अर्थयते इति अर्थ + इन् / उन्मविष्णु उत् + /मद् + इष्णुच ( कर्तरि ) / वटी क्षुद्रो वटः कौड़ी ( 'वटः कपर्दे न्यग्रोधः' इत्यमरः ) + ङीप् ( अपचय अर्थ में ) अमरकोष में कहा हुआ है-'स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्यादिविबक्षापचये यदि'। __ अनुवाद-जिसके हाथ के अग्र भाग में वज्र चमक रहा है—ऐसा इन्द्र जिन कुचों का अभिलाषुक बना हुआ है, उनकी बराबरी यदि उन्मत्त समग्र बिल्व फल करने लगे, तो ( उनके सौन्दर्य की) कौड़ी लेश-मात्र भी बराबरी प्राप्त करने योग्य नहीं हो सके। ( एक अरब रुपया हाथ में रखे हुए महाधनी जिन कुचों का इच्लुक बना हुआ है. वह पागल ही होगा, यदि वह अरब रूपयों से उन ( कुचों) को तोले- उनका मूल्यांकन करे / उनके आगे तो समस्त अरब धन कोड़ी बराबर भी सिद्ध नहीं होगा) // 79 // टिप्पणी-कुचों की तुलना पके हुए बिल्व से कवि किवा करते हैं, लेकिन Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 215 एक बिल्व नहीं बल्कि सबके सब बिल्व भी मिलकर इन दो कुचों के सौन्दर्य की कौड़ी मात्र भी बराबरी नहीं कर पाएंगे। कवि का बिल्व शब्द यहाँ जाति-परक प्रयुक्त हुआ समझिए / भाव यह कि ये कुच बिल्व फलों से कई गुना सुन्दर हैं / कवि ने अपनी श्लिष्ट भाषा में यहाँ दूसरा अर्थ भी प्रतिपादित कर रखा है। दोनों अर्थों के वाच्य अथवा प्रकृत होने से श्लेषालंकार है। व्यतिरेक स्पष्ट ही है। विद्याधर श्रीफल के चेतनीकरण में समासोक्ति भी कह रहे हैं। 'राम' 'जान' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / स्तनावटे चन्दनपङ्किलेऽस्या जातस्य यावद्युवमानसानाम् / हारावलोरत्नमयूखधाराकाराः स्फूरन्ति स्खलनस्य रेखाः // 80 // अन्वयः- चन्दन-पङ्किले अस्याः स्तनावटे जातस्य यावद्-युव-मानसानाम् स्खलनस्य हारा'काराः रेखाः स्फुरन्ति / टीका-चन्दनेन मलयजेन पङ्किले पङ्कयुक्ते ( तृ० तत्पु० ) चन्दनस्यात्वात् पङ्कपूर्णे इत्यर्थः अस्याः दमयन्त्याः स्तनयोः कुचयोः अवटे गर्ते ( 'गविटी भुवि श्वभ्रे' इत्यमरः ) कुचद्वयमध्यान्तराले इत्यर्थ: जातस्य संभूतस्य यावन्तो युवानस्तावतामिति यावद्-युवम् ( अव्ययी० ) अथवा यावन्तो युवानः (कर्मधा०) तावताम् मानसानाम् मनसाम् स्खलनस्य पतनस्य हारस्य मौक्तिकमालायाः या आवली पंक्तिः (10 तत्पु० ) तस्यां यानि रत्नानि रक्तवर्णानि माणिक्यानि ( स० तत्पु०) तेषां मयूखानाम् किरणानाम् धारा परम्परा ( उभयत्र 10 तत्पु० ) एव आकार: स्वरूपम् ( कर्मधा० ) यासां तथाभूताः (ब० वी० ) रेखाः स्फुरन्ति भासन्ते / दमयन्त्याः कुचयोर्मध्ये चन्दनलेप आसीत् / तत्र मौक्तिकानां रत्नानां च श्वेत-लोहित किरणावली पतन्तो एवं भासते स्म यथा तत्र संवलितानां लोकमानसानां स्खलनचिह्नानि रेखारूपेण पतितानि स्युरिति भावः // 80 // व्याकरण-पङ्किले पङ्कोऽस्यास्तौति पङ्क + इलच् ( मतुबर्थ) / मानसानाम् मनः एवेति मनस् + अण् ( स्वार्थे ) / स्खलनस्य /स्खल + ल्युट् ( भावे ) / अनुवाद-चन्दन-कर्दम से गीले बने इस ( दमयन्ती ) के कुचों के मध्यवर्ती गर्त में सभी युवाओं के मनों के फिसलपडने की रेखायें मोतियों के हार में पिरोये रत्नों की किरणावली के रूप में चमक रही है // 80 // Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 नंषधीयचरिते टिप्पणी. यहाँ चन्दन-लिप्त कुचों के अन्तराल में पड़ी मणियों की रंगबिरंगी किरणावली पर कधि की यह कल्पना है कि वह मानो कुचों को देख फिसल पड़े जन-मनों के पतन-चिह्न हों। जब कोई कीचड़ में फिसल पड़ता है, तो फिसले पैर से जमीन पर लम्बी-सी रेखा खिच जाती है। किरणाबली भी लम्बी पड़ रही थी। इस तरह इस कल्पना में हम प्रतीयमान उत्प्रेक्षा कहेंगे, किन्तु विद्याधर आकार शब्द को ब्याज अर्थ में लेकर किरणावली पर स्खलनरेखाओं की स्थापना में अपहनुति कह रहे हैं। मानसों के चेतनीकरण से समासोक्ति है ही / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। क्षीणेन मध्येऽपि सतोदरेण यत्प्राप्यते नाक्रमणं वलिभ्यः / सर्वाङ्गशुद्धौ तदनङ्गराज्यविजृम्भितं भीमभुवीह चित्रम् // 81 / / अन्वयः-मध्ये अपि सता क्षीणेन उदरेण यत् वलिभ्यः आक्रमणम् न प्राप्यते तत् सर्वाङ्गशुद्धौ इह भामभुवि चित्रम् अनङ्गराज्यविजृम्भितम् / टीका—मध्ये कटिप्रदेशे अपि सता विद्यमानेन स्थितेनेत्यर्थः क्षोणेन अतिकृशेन उदरेण जठरेण यत वलिभ्यः त्रिवलिभ्यः आक्रमणम् अभिभवः न प्राप्यते लभ्यते तत् सर्वाणि सकलानि च तानि अङ्गानि अवयवाः ( कर्मधा० ) तेषाम् शुद्धिः निर्दोषता (ष० तत्पु०) यस्यां तथाभूतायाम् इह अस्याम् भीमः एतत्संज्ञकनृपः भूः उत्पत्ति-स्थानम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाम् भैम्यामित्यर्थः चित्रम् आश्चर्यकरम् न अङ्गं शरीरं यस्य तथाभूतस्य ( नन ब० वी० ) कामस्य यत् राज्यम् शासनम् तस्य विज़म्भितम् चेष्टितम् अस्तीति शेषः / अभिनवयौवनकारणात् त्रिवलीनाम् अनभिव्यक्त्या दमयन्त्याः कृशमुदरं त्रिवल्याक्रान्तं नाभदिति भावः / श्लिष्टभाषायाम् अत्रापरोऽप्यर्थः यथा-मध्ये मध्यभागे द्वयोः प्रबलराज्ययोः मध्यवर्ति-प्रदेशे इति यावत् अपि सता उदरेण उदरतुल्यदुबलेन राज्येन सर्वाणि च तानि अङ्गानि ('स्वाम्यमात्य-सुहृत्-कोश-राष्ट्र-दुर्ग-बलानि च / राज्या. ङ्गानि' इत्यमरः ) तेषां शुद्धौ निर्दोषत्वे दृढत्वे इति यावत् सश्यामपि बलिभ्यः ( वबयोरभेदात् ) बलवत्तरेभ्यो राज्येभ्यः सकाशात् भीमभुवि भयानकभूम्याम् आक्रमणं यत् न प्राप्यते तत् चित्रम् आश्चर्यकरम् अनङ्गस्य उक्तसप्तराज्याङ्गरहितस्य दुर्बलराजस्य विजृम्भितम् विलसितम् / स्वाम्यादिसप्ताङ्गपरिपुष्टप्रबलराज्येन सप्ताङ्गरहितो दुर्बलो देशो यदि नाक्रम्यते, तर्हि आश्चर्यमिदमिति भावः // 81 // Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 217 व्याकरण-क्षीणेन क्षि + क्त दीर्घ त को न. न को ण। सता अस् + शत, अ का लोप / भीम यास्कानुसार बिभ्यत्यस्मादिति भी + मक ( अपादाने ) / विजृम्भितम् वि + जृम्भ + क्तः ( भावे ) / अनुवाद-मध्य भाग में रहता हुआ भी कृश उदर जो बलियों, त्रिवलियों की ओर से आक्रमण नहीं पा रहा है, वह सभी अंगों में निर्दोष इस भीमपुत्री में अनंग-राज्य का विचित्र ही खेल है। जिस तरह कि ( दो राज्यों की सीमाओं के ) मध्य में पड़े हुए, ( राज्य, स्वामी, अमात्य आदि ) राज्याङ्गों से रहित दुर्बल राज्य पर भयानक भूमि में उक्त राज्याङ्गों में निर्दोष अर्थात् दृढ़ बने प्रबल राज्यों द्वारा आक्रमण न होने की बात विचित्र हुआ करती है // 81 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि भैमी के उदर का वर्णन कर रहा है। वैसे तो वह सर्वाङ्ग शुद्ध है, किसी भी अंग में कोई कमी नहीं दिखाई दे रही है, किन्तु उदर पर त्रिवलियाँ अभी सूक्ष्म हैं, नवयौवन के कारण पूरी तरह उभर नहीं पाई हैं, इसलिए उदर पर उनका आक्रमण-दबाव नहीं हो रहा है। अनंग राज्य की लीला जो ठहरी / इस सर्वाङ्ग सुन्दरी पर अनंग राज्य कितनी विचित्र बात हैं / सर्वाङ्ग और अनंग तो परस्पर विरोधी होते है। इसी लिए विद्याधर के अनुसार यहाँ विरोधाभास है जिसका परिहार अनंग का काम अर्थ लेकर हो जाता है / दूसरी विचित्र बात भी देखिए 'भीम-भुवि = भीम राजा की भूमि पर अनंग का राज्य ? दूसरे की भूमि पर दूसरे का राज्य नहीं हो सकता है / यहाँ भी विरोध है, जिसका परिहार भीम-भू का भैमी अर्थ करके किया जा सकता है। उदर और वलियों पर चेतनव्यवहारारोप होने से समासोक्ति पूर्ववत् चली आ रही है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। इस श्लोक में कवि ने श्लेष द्वारा एक दूसरे अर्थ की ओर संकेत कर रखा है। कितनी विचित्र बात है कि एक छोटा-सा निर्बल राज्य जिसके पास सेना, कोश, मन्त्रिमण्डल आदि कोई भी राज्याङ्ग नहीं है, पड़ोसी दो प्रवल राज्यों की सीमाओं के मध्य खतरे से भरे भूखण्ड में एक 'बफ्फर स्टेट' ( Buffer state ) के रूप में स्थित है, और उस पर सभी राज्याङ्गों से परिपुष्ट पड़ोसी प्रबल राज्य आक्रमण न करें। इस राजनैतिक अर्थ का प्रकृत के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, अतः इनमें उपमानोपमेय भाव सम्बन्ध स्थापित करके हम इसे शब्दशक्त्युद्भव उपमाध्वनि ही कहेंगे / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 नषधीयचरिते मध्यं तनूकृत्य यदीदमीयं वेधा न दध्यात्कमनोयमंशम् / केन स्तनो सप्रति यौवनेऽस्याः सजेदनन्यप्रतिमाङ्गयष्टेः / / 82 // अन्वयः-वेधाः इदमीयम् मध्यम् तनकृत्य कमनीयम् ‘अंशम् यदि न दध्यात् ( तहि ) सम्प्रति यौवने अनन्यप्रतिमाङ्गयष्टे: अस्याः स्तनौ केन सृजेत् ? टीका-वेधा: ब्रह्मा अस्या इदम् इदमोयम् एतदीयम् अस्याः दमयन्त्या इत्यर्थ: मध्यम् कटिम् तनकृत्य कृशीकृत्य कमनीयम् रमणीयम् अंशम् कटिसम्बद्धभागम् निष्कास्येति शेषः यदि न दध्यात यदि न स्थापयेत्, तहि सम्प्रति इदानीम् यौवने तारुण्ये न अन्येन प्रतिमा उपमा ( त० तत्पु० ) यस्याः तथाभूता ( ब० बी०) अङ्गयष्टिः ( कर्मधा० ) अङ्गम देहः यष्टिरिव ( उपमित तत्पु० ) यस्याः तथाभूतायाः ( ब० वी० ) अस्याः दमयन्त्याः स्तनौ कुची केन अंशेन उपकरणेन वा सृजेत् रचयेत् ? न केनापीति काकुः / ब्रह्मणा कटितो मांसं निष्कास्य स्तनयोः स्थापितम्, अत एव मांसनिष्कासनात् कटिः कृशा मांसस्थापनाच्च स्तनौ स्थूलौ जातौ इति भावः // 82 // व्याकरण-इदमीयम् इदम् + छ, छ को ईय तन्नकृत्य अतनु तनु सम्पद्यमानं कृत्वेति तनु + कृ+वि पूर्वपद को दीर्घ / कमनीयम् काम्यते इति/ कम् + अनीयर् / यौवने यूनः युवत्याः वा भावः इति युवन् + अण् / अनुवाद - ब्रह्मा इस ( दमयन्ती) की कमर पतली करके ( उस ) सुन्दर अंश को यदि न धर रखता, तो आज यौवन में छड़ी-सी अनुपम देह वालो इस ( दमयन्ती ) के स्तन किससे बनाता ? // 82 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि दमयन्ती की कमर का वर्णन कर रहा है। वह बड़ी पतली है। इस पर कवि-कल्पना यह है कि मानो ब्रह्मा ने उसे छिल दिया हो, और वह छिला हुआ सुन्दर मांस स्तनों पर घर दिया हो। इसी तरह की मार्मिक कल्पना हिन्दी के प्रसिद्ध मुस्लिम कवि-दम्पति शेख और आलम की भी प्रश्नोत्तर रूप में कर रखी है-'कनक-छड़ी सी कामिनी काहे को कटि छोन' ? 'कटि को कंचन काट विधि कुचन मध्य धर दीन' // कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है, लेकिन विद्याधर अनुमानालंकार कह रहे हैं / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। गौरीव पत्या सुभगा कदाचित्कर्तयमप्यधतनूसमस्याम् / इतीव मध्ये विदधे विधाता रोमावलीमेचकसूत्रमस्याः / / 83 / / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 219 अन्वयः-सुभगा इयम् अपि कदाचित् गौरी इव पत्या ( सह ) अर्धतनूसमस्याम् कर्ता-इति इव विधाता अस्याः मध्ये रोमावली मेचक-सूत्रम् विदघे / टीका-सुभगा सौभाग्यवती भतृ वल्लभेति यावत् इयम् एषा दमयन्ती अपि कदाचित् कस्मिश्चित् काले विवाहानन्तरसमये इत्यर्थः गौरी पार्वती इव पत्या भर्ना सह अर्धा तनूः शरीरम् इति ( कर्मधा० ) अथवा तन्वाः अर्धम् इति अर्धतनूः (10 तत्पु० ) तस्या: समस्याम् अपूर्णस्य पूरणम् संयोजनमिति यावत् कर्ता करिष्यति इति हेतोः इव अस्याः दमयन्त्याः मध्ये कटिभागे रोम्णाम् लोम्नाम् आवली पङ्क्तिः (10 तत्पु० ) एव मेचकम् श्यामवर्णम् सूत्रम् दाम ( उभयत्र कर्मधा० ) विदधे रचितवान् / विवाहानन्तरम् दमयन्ती अर्धनारीश्वरवत् स्वापूर्णदेहं स्वभर्तुः देहेन संयोज्य पूर्णदेहताम् अवाप्स्यतीति भावः / / 83 // व्याकरण-सुभगा सु= शोभनं भगः भाग्यं यस्याः तथाभूता (प्रादि ब० वी० ) समस्या समसनम् इति सम + अस् + क्यप् + टाप् / कर्ता/कृ + लुट् / अनुवाद---भाग्यशालिनी यह ( दमयन्ती ) भी पार्वती की तरह कभी पति के साथ अर्धाङ्ग-पूर्ति कर लेगी-यह सोचकर मानो ब्रह्मा ने इसकी कमर पर रोमावलीके रूप में काला सूत्र बना दिया है / / 83 // टिप्पणी-यहां से लेकर पाँच श्लोकों तक कवि अब दमयन्ती की रोमावली का वर्णन कर रहा / वैसे नारी-पुरुष का अर्धाङ्ग होती है, वह भी अङ्ग वरतर (Better ha'f) / इसीलिए वह अर्धाङ्गिनी कही जाती है। पुरुष भी नारी के बिना अधूरा ही है ! दोनों मिलकर एक पूर्ण व्यक्ति बनता है। इसका उदाहरण अर्धनारीश्वर महादेव है। दमयन्ती भी विवाहोपरान्त भर्ता के साथ जुड़कर एक बन जायेगी। ब्रह्मा ने कमर की रोमावली इसीलिए बनाई कि पति के साथ बंधने-एकाकार होने में वह डोरी का काम कर सके। यह कवि की कल्पना है, अतः उत्प्रेक्षा है. जिसके मूल में रोमावली पर सूत्रत्वारोप से बनने वाला रूपकालंकार है / विद्याधर छेकानुप्रास भी कह रहे हैं, लेकिन हमें वह यहाँ कहीं नहीं दीख रहा है / सम्भवतः उन्हें 'विदधे-विधाता में उसका भ्रम हो गया हो / वास्तव में सर्वत्र वृत्यनुप्रास ही है / रोमावलीरज्जुमरोजकुम्भी गम्भीरमासाद्य च नाभिकूपम् / मदृष्टितृष्णा विरमेद्यदि स्यान्नैषां वतैषां सिचयेन गुप्तिः / / 84 // Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 नैषधीयचरिते अन्वयः-मदृष्टितृष्णा रोमावलीरज्जुम्, उरोज-कुम्भी गम्भीरम् नाभिकूपम् च आसाद्य विरमेत् यदि एषाम् सिचयेन एषां गुप्तिः न स्यात् / / टीका-मम दृष्टेः दर्शनस्य तृष्णा इच्छा अथ च पिपासा (10 तत्पु० ) ( तृष्णे स्पृहापिपासे द्वे' इत्यमरः ) रोम्णाम् लोम्नाम् आवली पङ्क्तिः (10 तत्पु० ) एव रज्जुः दोरकम् ( कर्मधा० ) ताम्, उरोजो कुचौ एव कुम्भी घटी ( कर्मधा० ), गम्मीरम् गभीरम् नाभिम् एव कूपम् अन्धुम् ( कर्मधा० ) च आसाद्य प्राप्य विरमेत् शाम्येत् यदि एषाम् रोमावल्ल्यादीनाम् सिचयेन वस्त्रेण ( 'वस्त्रं तु सिचयः पटः' इति हलायुधः ) एषा दृश्यमाना गुप्तिः गोपनम् वस्त्रद्वारा आच्छादनमिति यावत् अथ च असीनाम् भटै: हस्तधृतखङ्गानाम् चयेन समूहेन गुप्ति: रक्षणम् न स्यात् भवेत्, यदि उपर्युक्तानि शरीराङ्गानि अनावृतानि स्युः तहि तद्दर्शनविषयकेच्छा मे निवर्तेत, नग्नाङ्गदर्शने विरागोदयात् / तेषां वस्त्रावृतत्वेनैव तृष्णा वर्धते इति भावः / अत्रापरोप्ययमर्थः यथा-रोमावलीतुल्यां रज्जुम्, उरोजतुल्यौ घटी तथा नाभितुल्यं गभीरकूपम् प्राप्तस्य मनुष्यस्य तृष्णा = पिपासा शाम्येत् यदि हस्तधृतखङ्गः राजपुरुषः कूपस्य रक्षा न कृता स्यात् / नृपमात्रभोग्यस्य कूपस्य रक्षाथ राजपुरुषाः स्थाप्यन्ते इति भावः // 84 // व्याकरण-रज्जुः यास्काचार्य के अनुसार सृज्यते बन्धनमनेनेति सृज् + उः सर्जुः वर्णव्यत्ययेन रज्जुः (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / उरोजः उरसि जायते इति उरस + / जन् + ड / कूपः यास्कानुसार कुत्सितम् पानम् अत्र ( रस्सीलोटे के बिना जहाँ जलपान कठिन होता है ) (पृषोदरादित्वात्साधुः) / तृष्णा Vतृष् + न + टाप् कित् च / विरमेत् वि उपसर्ग लगने से /रम् परस्मै० हो जाता है / गुप्तिः /गुप् + क्तिन् ( भावे ) / अनुवाद-खेद है कि मेरी दर्शन-वाञ्छा रोमावली-रूपी डोर, उरोज-रूपी घटों तथा नाभि-रूपी गहरे कुएं को प्राप्त करके शान्त हो जाती यदि इन (अंगों) का वस्त्र से यह आच्छादन न हो तो जैसे कि डोर, घड़े सहित कुएँ पर पहुंचकर मनुष्य की प्यास बुझ जाय यदि सिपाहियों के बहुत सारे खङ्गों द्वारा कुआँ रक्षित न होने पावे // 84 // टिप्पणी-यद्यपि वर्णन रोमावली का है, तथापि उसके संबद्ध होने के कारण कवि प्रसंगवश उरोज और नाभि को भी बीच में ले आया है। इनके Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 221 बिना प्यास बुझाने के लिए सामग्री पूरी न बनती। भाव यह निकला कि उसकी रोमावली लंबी, उरोज ऊंचे और नाभि गहरी है। रोमावली, उरोज, और नाभि पर आरोप होने से रूपक है। ‘रज्नु' 'रोज' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / श्लिष्ट भाषा द्वारा कवि ने दूसरे अर्थ की ओर भी संकेत किया है, जिसे हम उपमा-ध्वनि के अन्तर्गत करेंगे। उन्मूलितालानबिलाभिनाभिश्छिन्नस्खलच्छ जलरोमराजिः / मत्तस्य सेयं मदनद्विपस्य प्रस्वापवप्रोच्चकुचास्तु वास्तु // 85 // अन्वयः- उन्मूलि 'नाभिः छिन्न ''राजिः प्रस्वाप-वप्रोच्चकुचा सा इयम् मत्तस्य मदन-द्विपस्य वास्तु अस्तु / टीका-उन्मूलितम् उत्पाटितम् यत् आलानम् बन्धनस्तम्भः ( कर्मधा० ) तस्य तज्जनितमित्यर्थः यत् बिलम् छिद्रम् गर्तः इति यावत् (10 तत्पु० ) तस्य तुल्येति तदाभा ( उपमित तत्पु० ) गभीरेत्यर्थः नाभिः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) छिन्नम् त्रुटितम् स्खलत् पतत् च यत् शृंखलम् शृङ्खला ( कर्मधा० ) तद्वत् रोमराजि: लोमपंक्तिः ( उपमित तत्पु० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) प्रस्वापाय शयनाय यो वप्रो मृदः क्षुद्रपर्वती ( च० तत्पु० ) तद्वत् उच्चकुचौ ( उपमित तत्पु० ) उच्चौ उन्नती कुचौ स्तनी ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) सा इयम् एषा दमयन्ती मत्तस्य उद्दीप्तस्य अथ च मदजलस्राविणः मदनः काम एव द्विपः हस्ती तस्य ( कर्मधा० ) वास्तु वासस्थानं वसतिरिति यावत् अस्तु स्यात् / सम्भवतः दमयन्ती उन्मत्तकामहस्तिनो गृह मस्ति यस्याः नाभिः आलान-त्रोटनात् जातः गर्तोऽस्ति रोमराजिः छिन्ना शृङ्खलास्ति उच्चस्तनौ च शयनाथ मृत्कूटी स्तः इति भावः // 85 / ___ व्याकरण-उन्मूलित-उत् + /मल + क्त ( कर्मणि)। आलानम् आली-- यते इति आ + ली ( संश्लेषे ) + ल्युट ( अधिकरणे ) ई को आत्व / द्विपः द्वाभ्याम् ( नासिकया मुखेन च ) पिबतीति द्वि+ /पा+ क / प्रस्वापः प्र + / स्वप् + घन् ( भावे ) / वास्तु वसन्त्यत्रेति/वस् + तुण् ( अधिकरणे ) / ___ अनुवाद-संभवतः वो यह ( दययन्ती ) उद्दीप्त मदन-रूपी उन्मत्त हाथी का निवास-गृह है, जिसकी नाभि उखाड़े हुए खंभे के गतं की तरह, रोमावली टूटी और खिसकती शृङ्खला की तरह तथा उच्च कुच सोने के लिए ( बने ) वो-मिट्ठी के उन्नत प्रदेशों की तरह हैं // 85 / / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ कवि दमयन्ती पर काम-रूपी मदमत्त हाथी के निवासस्थान का आरोप कर रहा है। काम दमयन्ती में अपने पूरे उद्दीप्त रूप में है। अथवा उसे देख काम पूरा उद्दीप्त हो उठता है। हाथी भी जब मदमत्त हो उठता है तो अपने आलान-बन्धन स्तम्भ को उखाड़ फेंक देता है। स्तम्भ उखड़ जाने पर खड्ड बन जाती है, उसकी तरह यहाँ नाभि है ही, शृङ्खला टूटकर खिसक पड़ती है वैसी जैसी रोमावली है, जो त्रिवलियों के मध्य चली जाने से टूटी-सी पड़ी है; हाथी के सोने के लिए ऊंचा स्थान बना रहता है सो वैसाजैसा यहाँ कुच है ही। इस तरह यहाँ उपमोत्थापित रूपकालंकार है / 'स्खलच्छृङ्खल' में छेक, 'चास्तु' 'वास्तु' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रोमावलिभ्रकुसुमैः स्वमौर्वीचापेषुभिर्मध्यललाटमूनि / व्यस्तैरपि स्थास्नुभिरेतदीयै त्रः स चित्रं रतिजानिवीरः // 86 // अन्वयः--स रतिजानिवीरः मध्य-ललाटमूनि व्यस्तैः स्थास्नुभिः अपि एतदीयः रोमावलिभ्रूकुसुमैः स्वमौर्वीचापेषुभिः जैत्रः ( इति ) चित्रम् / टोका--स रतिः एतदाख्या स्त्री जाया पत्नी ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) काम एव वीरः शूरः ( कर्मधा० ) मध्यं कटिश्च ललाटम् भालं च मूर्धा शिरश्चैतेषां समाहारः इति ०मधं ( समाहार द्वन्द्व ) नपुंसकेकवचनम् तस्मिन् व्यस्तैः परस्परं पृथग्भूतैः स्थाम्नुभिः स्थितैः अपि एतदीयः इदमीय: दमयन्त्याः इत्यर्थः रोमावलिश्च ध्रुवौ च कुसुमानि पुष्पाणि चेति तैः ( द्वन्द्वः) स्वा निजा क्रमशः मौर्वी ज्या च चापो धनुश्च इषवः बाणाश्चेति तै: जैत्र: जेता जगतः इति शेषः इति चित्रम् आश्चर्यम् / कामदेवरूपो वीरः दमयन्त्याः कटौ, ललाटे मूनि च पृथक-पृथक् स्थितः क्रमशः रोमावल्या भ्रूभ्याम् कुसुमैः एव क्रमशः 'स्वकीयया मौा चापेन इषुभिश्च जगत् जयतीति चित्रम् / अन्यो धनुर्धारी मौर्वीम् चापं बाणं च सम्मिलितं कृत्वैव शत्रनु जयति, कामस्तु पृथक पृथक् स्थितेन एकैकेनैव मौर्यादिना जयतीति महदाश्चर्यमिति भावः // 86 // व्याकरण-रतिजानि: ब० वी० में जाया शब्द के य को निङ् हो जाता है( 'जायाया निङ' 6 / 1166 ) वीरः वीरयतीति वीर् (विक्रान्ती ) + अच् ( कर्तरि ) व्यस्त वि + अस् + क्त / स्थास्नुभिः तिष्ठतीति स्था + उस्नु Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मप्तमः सर्गः 223 ( कर्तरि ) / एतदीय: एतत् + छ. छ को ईय / जैत्रः जेता एवेति जेतृ + अण् ( स्वार्थे ) / अनुवाद–वीर रतिपति ( काम ) कमर ललाट और शिर पर पृथक-पृथक स्थित इस ( दमयन्ती) की रोमावली, भौहें और पुष्पों के रूप में क्रमशः अपनी मौर्वी. धनुष और बाणों द्वारा विजयी बना हुआ है यह आश्चर्य की बात है / / 86 // टिप्पणी-दमयन्ती पर सवार हुआ वीर कामदेव उसकी रोमावली को अपने धनुष की डोरी भौंहों को धनुष और शिर पर बालों में गुथे पुष्पों को अपने बाण बनाकर जगत् की विजय कर रहा है। वैसे तो धनुष की डोरी, धनुष और बाण इकट्ठे होकर ही आयुध बनते हैं और संयुक्त होकर ही मार भी करते हैं, लेकिन यहाँ देखो तो अलग-अलग रहकर वे काम कर रहे हैं - यह बड़ी विचित्र बात है। भाव यह निकला कि दमयन्ती की रोमावली, भौंह और सिर-गुथे पुष्पों को देख काम उद्दीप्त हो उठता है। रोमावली आदि पर मौ:स्वादि का आरोप होने से रूपक और उनका यथाक्रम अन्वय होने से यथासंख्य अलंकार है। मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ विरूप घटना का वर्णन होने से विषमालंकार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पुष्पाणि बाणाः कुचमण्डनानि भ्रवी धनुर्भालमलं करिष्णु / रोपावली मध्यविभूषणं ज्या तथापि जेता रतिजानिरेतैः // 87 // अन्दयः--कुचमण्डनानि पुष्पाणि बाणाः ध्रुवौ भालम् अलंकरिष्णु धनुः, मध्यविभूषणम् रोमावली ज्या ( अस्ति ), तथापि रति जानिः एतैः जेता। टोका-इस श्लोक की पिछले श्लोक की तरह ही व्याख्या समझ लें / नयी बात कोई नहीं। टिप्पणी- इस श्लोक को नारायण ने मूल में दे रखा है किन्तु वास्तव में देखा जाय, तो यह पूर्व श्लोक का ही रूपान्तर लगता है ! इसी कारण बहुत से टीकाकार इस श्लोक को मूल में देते ही नहीं हैं। मूल-श्लोक मानने में स्पष्ट पुनरुक्ति दोष है। अस्याः खलु ग्रन्थिनिबद्धकेशमल्लोकदम्बप्रतिबिम्बवेषात् / स्म'प्रशस्ती रजताक्षरेयं पृष्ठस्थलीहाटकपट्टिकायाम् / / 88 // Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 नैषधीयचरिते अन्वयः--अस्याः पृष्ठ''कायाम् ग्रन्थि वेशात् इयम् रजताक्षरा स्मरप्रशस्तिः खलु। टीका-अस्याः दमयन्त्याः पृष्ठस्य शरीरपश्चाद्-भागस्य स्थली स्थलम् (10 तत्पु० ) एव हाटकस्य सुवर्णस्य पट्टिका फलकम् तस्याम् (10 तत्पु० ) ('हिरण्यं हेम हाटकम्' इत्यमरः ) ग्रन्थिना ग्रन्थिकया बन्धेनेति यावत् निबद्धाः संयताः (तृ० तत्पु० ) ये केशाः कचाः ( कर्मधा० ) तेषु यत् मल्ली-कदम्बम् ( स० तत्पु० ) मल्लीनाम् मल्लिका पुष्पाणाम् कदम्बम् समूहः (10 तत्पु० ) तस्य प्रतिबिम्बानां प्रतिच्छायानाम् वेशात् छलात् (10 तत्पु०) इयम् एषा रजतस्य रौप्यस्य अक्षराणि वर्णाः (10 तत्पु० ) यस्यां तपाभूता ( ब० वी० ) स्मरस्य कामस्य प्रशस्तिः कामयशःप्रशस्तिपत्रमित्यर्थः खलु / दमयन्त्या पृष्ठरूपस्वर्णफलके पतितानि श्वेतमल्लिकापुष्पाणां प्रतिबिम्बानि रजताक्षरलिखितकामप्रशस्तिपत्रमिव प्रतीयन्ते स्मेति भावः // 88 // व्याकरण-प्रन्यि अध्यते इति / ग्रन्थ + इन् / पट्टिका पट्टी + कन् + टाप, ह्रस्त / प्रशस्तिः प्र + /शंस् + क्तिन् ( भावे ) / अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) के पृष्ठस्थलरूपी सुवर्ण-फलकपर गाँठ द्वारा बंधे केशों में चमेली के पुष्प-समूह के प्रतिबिम्बों के वेश में रजताक्षरों वाली यह कामदेव को प्रशस्ति-जैसी लग रही है // 88 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि दमयन्ती की पीठ का वर्णन कर रहा है। उसकी देहकान्ति स्वर्ण-जैसी पीले रंग की है। चौड़ी पीठ सोने का फट्टा-सा लग रहा है, जिसके ऊपर केशों के बीच से श्वेत वर्ण के चमेली के फूलों की छटा प्रतिबिम्बित हो रही है। इस पर कवि कल्पना कर रहा है कि पीठ सोने का फट्टा है, और पुष्प प्रतिबिम्ब रजताक्षर हैं। स्वर्णफलक पर रजताक्षरों में लिखा कामदेव का प्रशस्तिपत्र बन गया / कल्पना में उत्प्रेक्षा है जिसके मूल में पृष्ठस्थली हाटक-पट्टित्वारोप से होने वाला रूपक और प्रतिबिम्ब वेश में अपहनुति काम कर रही है / 'हाटक-पट्टिका' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / चक्रेण विश्वं युधि मत्स्यकेतुः पितुर्जितं वीक्ष्य सुदर्शनेन / . जगज्जिगोषत्यमुना नितम्बमयेन किं दुर्लभदर्शनेन // 89 // अन्वयः-मत्स्यकेतुः पितुः सुदर्शनेन चक्रेण युधि विश्वम् जितम् वीक्ष्य दुर्लभ-दर्शनेन अमुना नितम्बमयेन चक्रेण जगत् जिगीषति किम् ? Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सप्तमः सर्गः 215 टीका-मत्स्यः मीनः केतुः ध्वजः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी०) काम इत्यर्थः पितुः स्वजनकस्य कृष्णस्येत्यर्थः सुदर्शनेन सु = शोभनं दर्शनं यस्य तथाभूतेन ( प्रादि ब० वी० ) सुलभदर्शनेनेति यावत् अथ च एतदाख्येन चक्रेण अस्त्रविशेषेण युधि युद्धे विश्वम् जगत् जितम् पराभूतम् वीक्ष्य विलोक्य दुर्लभ दर्शनं यस्य तथाभूतेन वस्त्रेण अ वृतत्वाद्रष्टुमशक्येनेत्ययः अमुना एतेन नितम्ब: कटिपश्चाद्भाग एव नितम्बमयम् नितम्बात्मकम् इत्यर्थः तेन चक्रण जगत् लोकम् जिगीषति जेतुमिच्छति किम् ? पित्रा सुदर्शनेन = सर्वप्रत्यक्षेण सुदर्शन-चक्रण जगत जितम् तत्पुत्र: कामस्तु असुदर्शनेन सर्वाप्रत्यक्षेण नितम्बात्मक-चक्रेण जगज्जिगीषतीति भावः // 89 // व्याकरण-जगत् गच्छतीति /गम + युधि/युध् + क्विप् (भावे) सप्तमी / नितम्बमयेन नितम्ब + मयट् ( स्वरूपार्थे ) / दुर्लभ दुर् + /लभ + खल / जिगीषति /जि + सन् + लट् / अनुवाद-कामदेव पिता ( कृष्ण ) द्वारा सर्वप्रत्यक्ष सुदर्शन नामक चक्र द्वारा जगत् को पराजित किया हुआ देखकर दुर्लभ दर्शनवाले इस नितम्बरूप चक्र द्वारा जगत् जीतना चाह रहा है क्या ? // 89 // टिप्पणी-अब दो श्लोकों में कवि नितम्ब का वर्णन करता है। सर्ग 1 श्लोक 32 के अनुसार जब महादेव ने काम को भस्म कर दिया था, तो उसकी पत्नी उनके आगे बहुत रोई-पीटी। निदान दयार्द्र हो महादेव ने उसे आश्वासन दे दिया कि रो मत, तेरा पति भगवान् कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में फिर जन्म ले लेगा। इस तरह कृष्ण काम के पिता हुए। पुत्र देखो तो पिता से बात आगे बढ़ गया / पिता का चक्र सुदर्शन था, जिसे सभी देख सकते थे, लेकिन पुत्र ने जगत्-विजय हेतु ऐसा चक्र अपनाया जो देखने में तो नहीं आ रहा है, परन्तु जगत् का सफाया कर रहा है। उसका ऐसा चक्र है दमयन्ती का नितम्ब जो वस्त्रावृत होने से देखने में नहीं आता है / इस तरह जगद्-विजय में पुत्र पिता से आगे निकल गया है। भाव यह है कि दमयन्ती का नितम्ब देखकर काम उद्दीप्त हो उठता है। यहाँ कवि की यह कल्पना उत्प्रेक्षा बना रही है. जिसका वाचक किम् शब्द है। उसके मूल में नितम्ब पर चक्रत्व के आरोप से बनने वाला रूपक काम कर रहा है। पिता की अपेक्षा पुत्र में अधिकता बताने में Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 नैषधीयचरिते व्यतिरेक है / सुदर्शन शब्द में श्लेष है। 'जगज्जिगी' में छेक, 'दर्शनेन' दर्शनेन' में श्लेष और पागम्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रोमावलीदण्ड नितम्बचक्रे गुणं च लावण्यजलं च बाला। तारुण्यमूर्तः कुचकुम्भकर्तुबिभर्ति शङ्के सहकारिचक्रम् // 90 // अन्वयः-बाला तारुण्यमूर्तेः कुचकुम्भकर्तुः रोमा.."चक्रे, गुणञ्च, लावण्यजलञ्च सहकारि-चक्रम् बिभर्ति ( इत्यहं ) शङ्के। टोका-बाला दमयन्ती तारुण्यम् यौवनम् मूर्तिः स्वरूपं ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) तारुण्यरूपस्येत्यर्थः (तारुण्य-कुलालस्येति यावत् ) कुचौ स्तनौ एवं कुम्भो कलशो ( कर्मधा० ) तयोः कर्तुः उत्पादकस्य (10 तत्पु० ) कुचकुम्भकारस्येति यावत् रोम्णां लोम्नाम् आवलीम् पंक्तिम् (प. तत्पु०) एव दण्डम् चक्रभ्रामकयष्टिम् (कर्मधा०) च नितम्बम् कटिपश्चाद्भागम् एव चक्रम् ( कर्मधा० ) चेति 0 चक्रे ( द्वन्द्व ) गुणम् शीलादिकम् एव गुणम् सूत्रम् लावण्यं सौन्दर्यम् एव जलम् पानीयम् ( कर्मघा० ) सहकारिणाम् सहकारिकारणानाम् चक्रम् समूहम् (10 तत्पु० ) बिति धत्ते इत्यहं शङ्क मन्ये / कुंभकारः कुंभनिर्माणाय दण्डं चक्र सूत्रं जलं चापेक्षते यानि कुम्भस्य कारणानि भवन्ति / दमयन्ती तारुण्य-कुंभकाराय कुचकुंभनिर्माणार्थं रोमावली दण्डरूपेण, नितम्बं चक्ररूपेण, गुणं सूत्ररूपेण सौन्दर्यश्च जलरूपेण ददाति / तारुण्ये एतानि सर्वाणि प्रादुभंवन्तीति भावः // 90 // व्याकरण-लावण्यम् लवण + ष्यन् / तारुण्यम् तरुण + ष्यन् / मूर्तिः मूर्छ + क्तिन् / सहकारि सह करोतीति सह + /कृ + णिच् / ___ अनुवाद-युवति ( दमयन्ती ) तारुण्यरूपी कुचकुंभ-निर्माता (कुम्हार ) के लिए रोमावली के रूप में दण्ड, नितम्ब के रूप में चाक, गुण ( सौजन्यादि) के रूप में गुण ( डोर ) और लावण्य के रूप में जल-यह सहकारी कारणों का समूह रख रही है-ऐसा मुझे लग रहा है // 90 // टिप्पणी-यहाँ नितम्बों के प्रकरण में रोमावली आदि प्रासंगिक ही समझिए / यहाँ यौवन को कम्हार बनाया गया है, जिसे कुचरूप कुम्भ बनाने हेतु चाक, दण्ड, सूत और जल चाहिए / यही कुम्भ की कारण-सामग्री है, जिसे दमयन्ती रखे हुए है ही। यहाँ कुच पर कुम्भत्वारोप, रोमावली पर दण्डत्वा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 227 रोप, नितम्ब पर चक्रत्वारोप, गुण पर गुणत्वारोप और लावण्य पर जलत्वारोप होने से समस्तवस्तुविषयक रूपक बनते-बनते रह गया है, क्योंकि यहाँ मिट्टी की कमी रह गयी है। रूपक के साथ गुण शब्द में श्लेष और शंके-शब्द वाच्य उत्प्रेक्षा भी है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अङ्गेन केनापि विजेतुमस्या ! गवेष्यते किं चलपत्रपत्रम् / न चेद्विशेषादितरच्छदेभ्यस्तस्यास्तु कम्पस्तु कुतो भयेन // 91 // अन्वयः-अस्याः केन अपि अङ्गेन चलपत्र-पत्रम् विजेतुम् गवेष्यते किम् ? न चेत् इतरच्छदेभ्यः विशेषात् तस्य कम्पः कुतः तु भयेन अस्तु / टीका-अस्याः भैम्याः केन अपि अनिर्वचनीयेन अतिसुन्दरेणेति यावत् अथ च अश्लीलत्वात् वक्तुमशक्येन अङ्गेन वरांगेन, स्मरमन्दिरेण योनिसंज्ञकेन चलपत्रस्य अश्वत्थस्य पत्रम् दलम् ( 10 तत्पु० ) ( 'बोधिद्रुमश्चलदलः पिप्पलः कुञ्जराशनः' इत्यमरः ) विजेतुम विशेषेण जेतुम् गवेष्यते अन्विष्यते किम् ? अस्याः वराङ्गम् पिप्पलपत्रं पराजेतुम् अन्विष्यतीति भावः / न चेत अन्यथा इतरे च ते छदाः पत्राणि ( कर्मधा० ) तभ्यः तेषामपेक्षयेत्यर्थः ( 'दलं पर्ण छदः पुमान्' इत्यमरः) विशेषात् आधिक्यात् तस्य चलपत्र-पत्रस्य कम्पः कम्पनम् कुतः कस्मात् तु भयेन भीत्या अस्तु भवतु / पिप्पलस्य पत्रम् अन्यवृक्षपत्रापेक्षया अधिकं कम्पते, तत्कारणञ्च तस्मिन् एतस्या वराङ्गपराभवभयमस्तीति भावः // 91 // व्याकरण-गवेष्यते /गवेष + लट् ( कर्मवाच्य ) / छदः छदति, छदयति वेति छद् + अच् ( कर्तरि ) / कुतः भयहेतु में पञ्चम्यर्थक तसिल / अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) का कोई अवचनीय अङ्ग परास्त करने हेतु पीपल के पत्ते को खोज रहा है क्या ? नहीं तो अन्य पत्तों की अपेक्षा इस ( पीपल के पत्ते ) को अधिक कम्प किसके डर से होना था ? // 91 // टिप्पणी-कवि दमयन्ती के गुह्यांग का वर्णन कर रहा है, जो पीपल के पत्ते के आकार का है / हम देखते हैं कि पीपल का पत्ता अन्य वृक्षों के पत्तों की अपेक्षा अधिक हिलता है। उसपर कवि की कल्पना यह है कि उसे डर हो रहा है कि दमयन्ती का गुप्तांग मुझे धर दबाने के लिए मेरी खोज में है। इसलिए डर के मारे अधिक काँप रहा है। प्रबल द्वारा दबाये जाने का भय दुर्वल को Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 नैषधीयचरिते बना रहना स्वाभाविक ही है / सामुद्रिकशास्त्र में स्त्रीगुप्तांग का पीपल पत्ते के आकार का होना शुभ माना गया है--'अश्वत्थ-दलसङ्काशं गुह्यं गूढमपि स्थितम् / यस्याः सा सुभगा नारी धन्या पुण्यरवाप्यते' // पत्त के स्वभावत: हिलने पर कवि की कल्पना है कि मानो पराभव-भय से कांप रहा हो, अतः उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'किम्' शब्द है, किन्तु विद्याधर अनुमानालङ्कार मान रहे हैं / 'पत्र-पत्रम्' में छेक. अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पाठक देखेंगे कि पिछले श्लोकों में कवि नल के मुंह से दययन्ती के अंगों को वस्त्रावृत ही बता रहा है और वस्त्रावृत होने के कारण ही वे उनकी दर्शन-पिपासा बढ़ा रहे हैं, अन्यथा उनसे उनकी विरक्ति हो जाती। ऐसी स्थिति में प्रथम बार दमयन्ती के साक्षात्कार में कवि द्वारा नल के मुँह से उसके वस्त्रावृत स्मरमन्दिर का 'चलपत्र-पत्राकार' रूप में वर्णन कराना कितना बेतुका और अश्लीलत्व-दोषपूर्ण है, स्वयं कल्पना कर लें। भ्र श्चित्रलेखा च तिलोत्तमास्या नासा च रम्भा च यदूरु सृष्टिः। दृष्टा ततः पूरयतीयमेकानेकाप्सरःप्रेक्षणकौतुकानि // 92 / / अन्वयः यत् अस्याः भ्रूः चित्रलेखा, नासा च तिलोत्तमा ऊरू-सृष्टिः च रम्भा ( अस्ति ) ततः इयम् एका अपि दृष्टा ( सती) अनेका“कानि पूरयति / टीका-यत् यस्मात् अस्याः भैम्याः भ्रू : चित्रा अद्भुता लेखा विन्यासः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) अथ च चित्रलेखा एतदाख्या अप्सराः अस्ति नासा नासिका तिलात् तिलकुसुमात् उत्तमा उत्कृष्टा अथ च तिलोत्तमा एतदाख्या अप्सराः अस्ति, ऊर्वो: सक्थ्नोः सृष्टि: रचना (10 तत्पु०) रम्मा कदली अथ च, रंभा एतदाख्या अप्सराः ( 'रम्भा कदल्यप्सरसोः' इत्यमरः ) अस्ति, ततः तस्मात् इयम् एषा दमयन्ती एका केवला अपि दृष्टा विलोकिता सती अनेकासाम बह्वीनाम् अप्सरसाम् देवाङ्गनानाम् ( कर्मधा० ) प्रेक्षणात् दर्शनात् (10 तत्पु० ) कौतकानि कुतूहलानि (पं० तत्पु०) पूरयति पूर्णीकरोति / एकस्या अपि अस्याः भैम्याः दर्शनेन एतत्स्थितानेकासां चित्रलेखाद्यप्सरसां विलोकनानन्दं जनयतीति भावः / / 92 // . व्याकरण-चित्र चित्रयतीति /चित्र ( अद्भुतदर्शने ) + अच् ( कर्तरि ) / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 229 उत्तमा सर्वाभ्यः उत्कृष्टेति उत् + तमप + टाप सष्टि: सूज + क्तिन् ( भावे ) / अप्सरसः अद्भयः सरन्ति = उद्गच्छन्तीति अप् + सु + असुन्, देखिए रामा०"अप्सु निर्मथनादेव रसात् तस्माद् वरस्त्रियः / उत्पेतुर्मनुज-श्रेष्ठ ! तस्मादप्सरसोऽभवन्" / यह शब्द नित्य बहुवचनान्त होने पर भी कभी-कभी एक वचन में भी प्रयुक्त हो जाता है, देखिए शाकु०-'नियमविघ्नकारिणी मेनका नामाप्सराः प्रेषिता' / प्रेक्षणम् प्र+ईक्ष् + ल्युट ( भावे ) / अनुवाद-क्योंकि इस ( दमयन्ती ) की भौंह चित्र लेखा ( रेखा ) वाली होने से चित्रलेखा ( अप्सरा ) है, नाक तिल ( पुष्प ) से उत्तम होने से तिलोत्तमा ( अप्सरा ) है और जाँघ रचना में रंभा ( कदली ) होने से रंभा ( अप्सरा ) है, इसलिए इस एक ( दमयन्ती ) को देख लिया, तो इसमें अनेक अप्सराओं को देखने का कुतूहल पूरा हो जाता है / / 92 // टिप्पणी-यहाँ से कवि पाँच श्लोकों तक दमयन्ती की ऊरु का वर्णन कर रहा है। दमयन्ती की भौंह नाक और जाँघ पर तत्तत् अप्सराओं का आरोप होने से रूपक और चित्रलेखा आदि शब्दों के विभिन्न अर्थों में श्लेष-मुखेन अभेदाध्यवसाय होने से अभेदातिशयोक्ति है। किन्तु मल्लिनाथ के अनुसार 'अत्रै कस्यानेकात्मकताविरोधाभासनात् विरोधाभासालंकारः स च श्लेषमूल इति संकरः' / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। रम्भापि कि चिह्नयति प्रकाण्डं न चात्मन: स्वेन न चैतदूरू / स्वस्यैव येनोपरि सा ददाना पत्राणि जागर्त्यनयोध्रमेण / / 93 // अन्वयः- रम्भा अपि आत्मनः प्रकाण्डम् स्वेन एतदूरू च न चिह्नयति किम् ? येन सा अनयोः भ्रमेण स्वस्य एव उपरि ( स्वेन एव ) पत्राणि ददाना जागति / टीका-रम्भा कदली अपि आत्मनः स्वस्य प्रकाण्डम् स्तम्भम् स्वेन आत्मना स्वयमेवेत्यर्थः एतस्याः दमयन्त्याः ऊरू सक्थिनी (ष० तत्पु० ) च न चिह्नयति न जानाति किम् ? एष मम स्तम्भः दमयन्त्याः ऊरू न, एतौ तस्याः ऊरू मम स्तम्भौ नेति रम्भायां तयोः परस्परं भेदेन ज्ञानं नास्तीत्यर्थः येन कारणेन सा रम्भा अनयोः दमयन्त्याः ऊर्वोः श्रमेण भ्रान्त्या (10 तत्पु० ) स्वस्य आत्मनः एव उपरि स्वेनैव पत्राणि दलानि अथ च पत्रालम्बनानि आह्वान-लेखानिति यावत् Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 नैषधीयचरिते वदाना अर्पयन्ती जागति जागरूका तिष्ठति / रम्भा निजस्तम्भौ दमयन्त्या ऊरू एतौ इति भ्रान्त्या पत्र-रूपेण सौन्दर्य प्रतियोगितार्थम् तयोः कृते आह्वान-पत्रं ददाति, सौन्दर्य प्रतियोगिताय तो आह्वयते इति यावत् , इति भावः // 13 // व्याकरण-प्रकाण्ड: प्रकृष्टः काण्ड इति प्र+ काण्डः (प्रादि तत्पु० ) / चिह्नयति चिह्नवन्तं करोतीति चिह्न + णिच् , मतुप् ०लोप + लट् ( नामधा० ) / अनुवाद-कदली को स्वयं भी अपने स्तम्भों, ( तनों ) और जाँघों की पहचान नहीं है क्या? तभी तो वह इन ( जाँघों) की भ्रान्ति से स्वयं अपने ही ऊपर पत्रों ( पत्तों ) के रूप में पत्रों ( चुनौती-लेखों ) को अर्पित करती हुई जागरूक रह रही है // 93 // टिप्पणी-श्लोक का भाव यह है कि केले के तने और दमयन्ती की जाँघों में परस्पर अत्यधिक समानता के कारण लोगों को पता ही नहीं चल रहा है कि कौन केला है और कोन जाँघ है। इसलिए जाँघों से अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखने के लिए केले ने अपने ऊपर भेदक चिह्न पत्ते रख लिये हैं। पत्तों से केले का पृथक्-भाव सिद्ध हो जाता है क्योंकि जाँघों में पत्ते नहीं होते / पत्र शब्द में कवि ने श्लेष रखा हुआ है जिसका दूसरा अर्थ यहाँ पत्रालम्बन अर्थात् चुनौतीपत्र ( Challange-latter ) है। विद्याधर ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है--“तत्र कविः शब्दच्छलमाह--नह्यात्मन उपरि केनापि पत्रं दत्तमस्ति / किन्तर्हि ? विपक्षस्योपरि दीयते / ऊरू च रम्भव / अतो रम्भा किमात्मनः प्रकाण्डमपि न जानातीत्यर्थः" और पत्र शब्द का अर्थ यह किया है-'आत्मनः नारायण भी 'पत्राणि = पत्रालम्बनानि' लिखकर 'अन्योऽपि वादी प्रतिवादिनि दूसरे के ऊपर अपना-अपना उत्कर्ष जमाना चाहते थे तो वे परस्पर प्रतियोगिता के लिए राजदरबार में पत्रालम्बन करते थे कि हममें शास्त्रार्थ हो अथवा हमारी कला-उत्कृष्टता की जांच की जाय / यही बात यहाँ भी समझिये। केले के तने एवं दमयन्ती की जाँघों के मध्य अपने-अपने उत्कर्ष के संघर्ष में केले ने 'पत्रालम्बन जाँघों के प्रति करना था, किन्तु भ्रान्ति से अपने ही तनों को दमयन्ती की जाँघे समझकर उल्टा स्वयं अपने को ही 'पत्र'-चुनौती-पत्र दे बैठा अर्थात् स्वयं को ही ललकार बैठा। पत्रालम्बन में कवि-कल्पना होने से किंशब्द-वाच्य Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 235 उत्प्रेक्षा है. जिसके मूल में अपने हो ऊपर जाँघों की भ्रान्ति होने से भ्रान्तिमान और दो विभिन्न 'पत्रों' में श्लेषवश अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / विधाय मूर्धानमधश्चरं चेन्मुञ्चत्तपोभिः स्वमसारभावम् / जाडयं च नाश्चेत्कदली बलीयस्तदा यदि स्यादिदमूरुचारुः // 94 // अन्वयः- कदली तपोभिः मूर्धानम् अधश्चरम् विधाय स्वम् असारभावम् चेत् मुञ्चेत्, बलीयः जाड्यम् च न अञ्चेत् तदा इदम् ऊरु-चारु: यदि स्यात् ( तहि स्यात् ) / टीका-कदली रम्भा तपोभिः तपस्याभिः मूर्धानम् शिरः अधः नीचैः चरतीति तथोक्तम् / उपपद तत्पु० ) विधाय कृत्वा नीचैः कृतशिराः भूत्वेत्यर्थः स्वम् निजम् न सारस्य कठिनस्य भावम् निःसारत्वमित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) चेत् यदि मञ्चेत् त्यजेत् , बलीयः अत्यधिकम् जाड्यम् जडस्य भावम् शैत्यमित्यर्थः न अञ्चत् गच्छेत् शीता न भवेदिति यावत्. तदा तहि इदम् अत्र इयमेवेति सुवचम् कदल्याः स्त्रीत्वात् ऊरुवत् सक्थिवत् चार: रमणीया ( उपमान तत्पु० ) यदि स्यात्, तर्हि स्यात् / दमयन्त्याः ऊर्वोः सौन्दर्यमवाप्तुम् चेत् कदली अधोमुखी उपरिचरणा च भूत्वा तपश्चरेत् जाड्यम् = मूर्खताञ्च परित्यजेत् तदैव तत्सौन्दर्यमवाप्नुयात् नान्यथेति भावः // 94 // ___ व्याकरण-अधश्चरम् अधः चर् + ट: ( कर्तरि ) / भावम् /भू + घन् ( भावे ) / जाड्यम् जड + ष्यन् / बलीयः अतिशयेन बलि इति बलिन् + ईयसुन् / चारु चरति ( चित्त) इति /चर् + उण् / __अनुवाद-कदली ( का तना ) तपस्याओं द्वारा सिर न'चे ( औ पॉब ऊपर ) करके, अपनी निस्सारता को त्याग दे और अत्यधिक जड़ता ( शीतलता, अज्ञानता ) न अपनाये, तो वह ( दमयन्ती की ) जांघों-जैसी सुन्दर हो जावे, तो हो जावे / / 94 / / टिप्पणी केले का तना दमयन्ती की जांघ की बराबरी करे, तो कैसे करे ? एक तो वह नीचे से अपेक्षाकृत स्थूल और ऊपर से छोटा होता जाता है जब कि जाँघ नीचे से छोटी, ऊपर से स्थूल होती जाती है। दूसरे वह भीतर से निस्सार साथ ही जड़ ( शीतल और निश्चेतन ) है, जबकि यह गर्म और Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 नैषधीयचरिते सचेतन है। उसे जांघ की समानता प्राप्त करनी है, तो साधुओं की तरह सिर नीचे और पाँव ऊपर करके तप करना होगा अर्थात् अपनी स्थिति उलटनी होगी, ससार बनकर जड़ता छोड़नी पड़ेगी। तब जाकर वह उसकी बराबरी प्राप्त करे, तो करे। भाव यह निकला कि दमयन्ती की जाँघे अनुपम हैं। विद्याधर यहाँ उपमा का एक नया ही भेद मान रहे हैं जिसे उन्होंने उत्पाद्योपमा कहा है अर्थात् जो उपमा किसी शर्त से बनाई जाय, किन्तु मल्लिनाथ और सर्वस्वकार के अनुसार यहाँ कदली के साथ अधश्चरमूर्धत्व धर्म का असम्बन्ध होने पर भी यदि शब्द के बल से सम्बन्ध की संभावना बताने में असम्बन्धे-सम्बन्धातिशयोक्ति है / हमारे बिचार से कदली पर चेतनत्वारोप होने से समासोक्ति भी है। व्यतिरेक भी ध्वनित हो रहा है। 'दली' 'वती' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास. अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ऊरुप्रकाण्डद्वितयेन तन्व्याः कर: पगजीयत वारणीयः / युक्तं ह्रिया कुण्डलनच्छलेन गोपायति स्वं मुखपुष्कर सः // 95 // अन्वयः-तन्व्याः ऊरु-प्रकाण्ड द्वितयेन वारणीयः करः पराजीयत ( अतएव ) स कुण्डलन-च्छलेच ह्रिया स्वम् मुख-पुष्करम् गोपायति / टीका-तन्व्याः कृशाङ्गयाः ऊर्वोः सक्थ्नोः प्रकाण्डयो: स्तम्भयोः द्वितयेन द्वयेन ( उभयत्र ष० तत्पु० ) वारणीयः वारण-सम्बन्धी हस्तिनः इत्यर्थः करः शुण्डादण्डः पराजीयत पराभूतः अतएव स हस्ती कुण्डलनस्य शुण्डस्य मण्डलाकारकरणस्य च्छलेन व्याजेन (10 तत्पु० ) ह्रिया लज्जया स्वम् स्वकीयम् मुखम् मुखभूतम् पुष्करम् कराग्रम् शुण्डाया अग्रभागमिति यावत् गोपायति निहनुवते न दर्शयतीति यावत् / दमयन्त्याः ऊर्वोः सकाशात् स्वकरे पराजयं लब्धे लज्जाभिभूतः करी स्वमुखं लोकेभ्यः निनुते इति भावः // 95 // व्याकरण-द्वितयेन द्वौ अवयवौं अत्रेति द्वि + तयप् / वारणीयः वारणस्यायमिति वारण +छ, छ को ईय। पराजीयत परा + जि + लङ् ( कर्मवाच्य ) कुण्डलनम् कुण्डलं ( मण्डलम् ) करोतीति कुण्डल + णिच् ( नामधा० ) ल्युट् ( भावे ) / ह्रिया ही + क्विप् ( भावे ) / गोपायति /गुप् + आय ( स्वार्थे + लट् / , अनुवाद-कृशाङ्गी ( दमयन्ती ) के दो ऊरु-स्तम्भों ने हाथी की शुंड को Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 233 पराजित कर लिया है, ( इसीलिए ) वह मण्डलाकार लपेटने के बहाने लाज के मारे अपने मुख-रूप शूड के अग्रभाग को छिपाता रहता है // 95 // टिप्पणी-जाँघों की तुलना कवि लोग हाथी के शुण्डादण्ड से किया करते हैं, क्योंकि शंड भी जाँघों की तरह नीचे से पतली और ऊपर से बड़ी-बड़ी होती जाती है,किन्तु दमयन्ती की जाँघे शूड को भी परास्तकर बैठी हैं। तभी तो लाज के मारे हाथी मुख छिपाता फिरता है। यह केवल कवि-कल्पना है, जो उत्प्रेक्षा बना रही है जिसके मूल में कुण्डलनच्छलन से होने वाली अपहनुति है / कर का चेतनीकरण होने से समासोक्ति भी है। 'लन' 'लेन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास हैं। अस्यां मुनीनामपि मोहमूहें भृगुर्महान्यत्कुचशैलशीली। नानारदालादि मुखं श्रितोरुासो महाभारतसर्गयोग्यः // 96 // अन्धयः-( अहम् ) अस्याम् मुनीनाम् अपि मोहम् ऊहे, यत् महान् भृगुः कुचशैलशीली ( अस्ति ); मुखम् नानारदाह्लादि ( अस्ति ), महाभारतसर्ग. योग्यः व्यासः श्रितोरु: ( अस्ति ) / ___टीका-अहम् अस्याम् दमयन्त्याम् मुनीनाम् भृग्वादीनाम् ऋषीणाम् अपि मोहम् व्यामोहम् आसक्तिमित्यर्थः ऊहे तर्कयामि मुनयोऽपि मोहिता भूत्वा एता. माश्रित्य तिष्ठन्तीति भावः यत् यस्मात् महान् विपुल: अथ च अतितपोनिष्ठ: भृगुः अतटः ('प्रपातस्त्वतटो भृगुः' इत्यमरः) अथ च एतनामा ऋषिविशेषः कुचौ स्तनौ एव शैली पर्वतौ ( कर्मधा० ) शीलयति सेवते इति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) अस्तीति शेषः / मुखम् आननम् नाना अनेके ये रदाः दन्ताः ( सुप्सुपेति समासः ) तै: आह्लादयति प्रसादयतीति (तृ. तत्पु० ) तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) सत् नारदम् देवर्षिविशेषम् आह्लादयतीति नारदानादि न नारदाह्लादि इत्यना० न अनार * अर्थात् तस्या मुखम् नारदानादि अस्तीत्यर्थः, महती भाः दीप्तिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( व० वी० ) यत् रतम् सुरतम् ( कर्मधा० ) तस्य सर्गः क्रिया तस्य योग्यः उचितः (10 तत्पु० ) व्यासः विस्तारः श्रितो आश्रितौ अरू सक्थिनी येन तथाभुत: ( ब० वी ) अथ च महाभारत य एतदाख्यग्रन्थविशेषस्य सर्गः रचनम् (10 तत्पु० ) तत्र योग्यः क्षमः (स० तत्पु०) ब्यास: एतत्संज्ञकमुनिविशेषः धितो सेवितो ऊरू येन तथाभूतः अस्तीति भावः / महातापसाः मुनयोऽपि दमयन्त्याम् आसक्ताः सन्तीति भावः // 96 // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 नैषधीयचरिते . व्याकरण-मोहम् मुह + घम् ( भावे ) ०शीली शील् + णिन् / ' ०आह्लादि आ + Vलाद् + णिच् + णिन् अथवा आह्लादोऽस्यामस्तीति आह्लाद + इन् ( मतुबर्थ ) / ज्या : वि + /अस् + घञ् ( भावे ) / . अनुवाद -इस ( दमयन्ती ) पर मुनियों तक को भी मोह हो उठा है / ऐसा मेरा तकं है, क्योंकि इसके कुचरूप शैल में रह रहे भृगु ( ढलवां चट्टान ) के रूप में भृगु ( ऋषि विशेष ) इसके कुचशैलों का आश्रय लिए हुए हैं; नाना ( अनेक ) रदों ( दाँतों) से प्रसन्न कर देने वाला इसका मुख नारद ( देवर्षिविशेष ) को प्रसन्न न करने वाला न हो सो बात नहीं; इसकी जाँघों में रहने वाला, महाभा ( अति उद्दीप्त ) रत-( सुरत) क्रिया-योग्य व्यास (विस्तार ) के रूप में महाभारत (ग्रन्थविशेष ) की रचना करने में सक्षम व्यास ( मुनिविशेष ) इसकी जाँघों का आश्रय लिये हुए हैं / / 96 / / टिप्पणी---इस श्लोक में कवि ने श्लेष का बड़ा चमत्कार भर रखा है। उन्नत होने के कारण कुचों पर शैलत्वारोप होने से भृगु अतट अर्थात् ढलवाँ चट्टान; जिसे पहाड़ी भाषा में 'ढंगार' कहते हैं, का वहाँ होना स्वाभाविक है। भृगु एक ऋषि का भी नाम है जो इसके कुचों को देख काम-पोड़ित होने से उनका मर्दन करना चाहते हैं। सुन्दर नाना दाँतों से चमक रहे मुख पर नारद मुग्ध हैं अर्थात् गायन विद्या के अभ्यास हेतु इसके मुख की सेवा करते हैं साथ ही चुम्बनाभिलाष भी रखते हैं। व्यास व्यास वाले इसकी जांघों पर लट्टू हैं। कवि को यहाँ दोनों अर्थ विवक्षित हैं, जो वाच्य और प्रकृत हैं। इसलिए यहाँ प्रकृति-श्लेष है जो कहीं अभंग और कहीं सभंग है / 'कुचशैल' पर आरोप होने से रूपक है। अनुवाद की कठिनाई देखते हुए हमें रूक रूप में ही दोनों अर्थों को स्पष्ट करना पड़ा है। 'मुनीनामपि' में अपि शब्द से 'औरों का तो कहना ही क्या' इस अर्थान्तर के आपात से अर्थापत्ति है। कवि-कल्पना में उत्प्रेक्षा है जो गम्य है। क्रमोद्गता पीवरतादिजङ्घ वृक्षाधिरूढं विदुषी किमस्याः / अपि भ्रमोभङ्गिभिरावृताङ्गं वासो लतावेष्टितकप्रवीणम् / / 97 / / . अन्वयः-अस्याः अधिजङ्घम् क्रमोद्गता पीवरता वृक्षाधिरूढम् विदुषी किम् ? भ्रमी-भङ्गिभिः आवृताङ्गम् वासः अपि लता-वेष्टितक प्रवीणम् (किम् ?) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 235 टीका-अस्याः दमयन्त्याः जङ्घयोः इत्यधिजङ्घम् ( अव्ययी० ) क्रमेण आनुपूर्व्या उद्गता उपरिगता ( तृ० तत्पु० ) पोषरता पीनता वृक्षस्य तरो? अधिरूढम् आरोहं, वृद्धि-प्रकारमित्यर्थः अथ च आलिंगनविशेषम् विदुषी ज्ञात्री किम् ? अर्थात् यथा वृक्षः क्रमशो वर्धमानः उपरि पीनत्वं गच्छति, तथा जङ्घापीत्यर्थः भ्रम्याः भ्रमणस्य भङ्गिभिः प्रकारैः ( 10 तत्पु० ) भ्रमणाकारवेष्टनविशेषरिति यावत् आवृतम् आच्छादितम् अङ्गम् गात्रम् येन तथाभूतम् ( ब० वी० ) वास: वस्त्रम् अपि लतायाः बल्ल्याः वेष्टितकम् वेष्टनम् (10 तत्पु० ) अथ च आलिङ्गनविशेषः तस्मिन् प्रवीणम् निपुणम् किम् ? यथा लता भ्रमीभङ्गिभिः वृक्ष वेष्टयति तथैव वासोऽपि अस्या: अङ्ग वेष्टयतीत्यर्थः / / 97 // व्याकरण-अधिरूढम् अधि + /हह + क्त (नावे ) / विदुषो वेत्तीति / विद् + शतृ, शत को वसु आदेश + डीप ( 'न लोकाव्यय०' 2 / 3 / 69 ) से षष्ठी ( निषेध ) / भ्रमी /भ्रम् + इन् + ङीप् / भङ्गिः /भञ्ज + इन्, कुस्ख / वासः Vवस् आच्छादने + अस् , णिश्च / वेष्टितकम् /वेष्ट + क्तः (भावे ) + कः ( स्वार्थे ) / प्रवीणम् प्रकृष्टो वीणायामिति ( प्रादि स० ) लक्षणा से निपुणार्थ में प्रयुक्त। अनुवाद -इस ( दमयन्ती) की पिंडली में क्रमशः ऊपर गई हुई पीनता वृक्षाधिरूढ ( वृक्ष-वृद्धि; आलिंगन-विशेष ) को जानती है क्या ? घुमाव के प्रकारों से ( इसके ) गात्र को आवृत किए वस्त्र भी लता-वेष्टितक ( लता द्वारा वृक्ष का घेराव, आलिंगन-विशेष ) में प्रवीण हैं क्या ? // 97 // टिप्पणी-अब कवि दो श्लोकों में दमयन्ती की जंघाओं, पिंडलियों, का वर्णन कर रहा है। पिंडली वृक्ष की तरह ऊपर जाती हुई पीवर स्थूल बनती जाती है। वृक्षारूढ़ शब्द में कवि ने श्लेष रखकर पीनता के सम्बन्ध में यह संकेत किया है कि वह वृक्षारूढ़-नामक आलिंगन जानती है। वृक्षारूढ़ आलिंगन का लक्षण यह है-'बाहुभ्यां कण्ठमालिङ्गय कामिनी कान्त उत्थिते / अङ्कमारोहते यस्य वृक्षारूढः स उच्यते' इसी तरह लतावेष्टितक भी आलिंगन का एक प्रकार है, जिसका लक्षण यह है-'उपविष्टं प्रियं कान्ता सुप्ता वेष्टयते यदि / तल्लतावेष्टितं ज्ञेयं कामानुभववेदिभिः // यहाँ किम् शब्द-वाच्य दो उत्प्रेक्षायें हैं, जो श्लेषगभित है। पीवरता में चेतनीकरण होने से समासोक्ति है / शब्दालंकार वृल्यनुप्रास है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 नैषधीयचरिते अरुन्थतीकामपूरंधिलक्ष्मीजम्भद्विषद्दारनवाम्बिकानाम् / चतुदंश यं तदिहोचितैव गुल्फद्वयाप्ता यददृश्यसिद्धिः / / 98 // अन्वयः यत् इयम् अरुन्धती 'कानाम् चतुर्दशी तत् इह गुल्फ-द्वयाप्ता अदृश्यसिद्धिः उचिता एव / __टोका-यत् यस्मात इयम् एषा दमयन्ती अरुन्धती एतन्नाम्नी वसिष्टपत्नी पुरन्ध्री तु' इत्यमरः ) लक्ष्मी: विष्णुपत्नी च जम्भद्विषद्दाराश्च जम्भद्विषः जम्भारेः द्विषत् शत्रुः तस्य दाराः पत्नी इन्द्राणी ( उभयत्र ष० तत्पु० ) जम्भम् एतदाख्यं राक्षसविशेषं द्वष्टि विरुणद्धीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) नव अम्बिकाः नवसंख्यकाः मातरः ( ब्रह्माणी चैव माहेशी कौंमारी वैष्णवी तथा / वाराही नारसिंही च माहेन्द्री चण्डिका तथा // महालक्ष्मीरिति प्रोक्ताः क्रमे ता नवाम्बिकाः' / ) तासाम् ( द्वन्द्व ) चतुर्दशी चतुर्दशानां पूरणी अस्ति, तत् तस्मात् इह दमयन्त्याम् गुल्फयोः गुटिकयोः द्वयम् द्वितयम् ( 10 तत्पु० ) तेन आप्ता प्राप्ता (त० तत्पु० ) अदृश्यस्य ( वस्तुनः ) सिद्धिः ( 10 तत्पु० ) अदृश्यत्वशक्तिरित्यर्थः उचिता एव / अरुन्धत्यादिदेवीनां यथाऽदृश्यत्वशक्तिरस्ति तथा तासु चतुर्दश्यामस्यामपि, अस्ति, तस्मादेव अस्या गुल्फो अदृश्यो उचितावेवेति भावः / / 97 / / व्याकरण-द्विषत् /द्विष + शतृ / दाराः यास्काचार्यानुसार 'दारयन्तीति सत:' अर्थात् ये घर में भाई-भाई को फाड़ देती हैं। अम्बिका अम्बा एवेति अम्बा + कन् ( स्वार्थे ) + टाप् / चतुर्दशी चतुर्दश + डट् (पूरणे ) + ङीप् / द्वयम द्वौ अवयवी यत्रेति द्वि + तयप तयप को विकल्प से अयच् / ___अनुवाद-क्योंकि यह ( दमयन्ती ) अरुन्धती, रति, लक्ष्मी, इन्द्राणी और नौ अम्बिकाओं में (गिनती में ) चतुर्दशी है, इसलिए इस ( दमयन्ती ) में दो गुल्फों, टखनों को प्राप्त हुई अदृश्यत्व-सिद्धि उचित ही है // 97 // टिप्पणी-पिंडली का सबसे निचला हिस्सा दो टखने होते हैं। वे दोनों दमयन्ती के सुगठित शरीर में भरे हुए थे, पृथक् बाहर निकले नहीं दिखाई दे रहे हैं / अरुन्धती आदि की तरह दमयन्ती भी परम सुन्दरी और पतिव्रता थी। उनकी तरह इसके गुल्फों-टखनों का मांस के भीतर घुसे रहना सामुद्रिक शास्त्र के Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः अनुसार शुभ लक्षण है। कवि अदृश्यशक्तिसम्पन्न अरुन्धती आदि तेरह देवियों के बाद गिनती में दमयन्ती की चौदहवीं अदृश्यशक्ति-सम्पन्न देवी के रूप में कल्पना कर रहा है। तभी तो उसके गुल्फों में अदृश्यत्व सिद्धि हुई है। जिनराज अपनी सुखावबाधा टीका में दमयन्ती पर कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि की कल्पना कर रहे हैं, क्योंकि लोग कृष्ण चतुर्दशी की रात में अलौकिक सिद्धि हेतु अनुष्ठान किया करते हैं / शास्त्र भी कहता है-'चतुर्दश्यामदृश्यत्वसिद्धिर्भवति'। कल्पना मानने में उत्प्रेक्षा है, किन्तु विद्याधर चतुर्दशीत्व का आरोप मानकर रूपक कहते हैं / 'दशी' 'दृश्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अस्याः पदो चारुतया महान्तावपेक्ष्य सोक्षम्याल्लवभावभाजः। जाता प्रवालस्य महीरुहाणां जानीमहे पल्लवशब्दलब्धिः / / 99 // अन्वयः-चारुतया महान्तो अस्याः पदी अवेक्ष्य सौक्ष्म्यात् लवभावभाजः महीरुहाणाम् प्रवालस्य पल्लव-शब्दलब्धिः जाता ( इति ) जानोमहे / टोका-चारुतया सौन्दर्येण महान्ती उत्तमी अस्याः दमयन्त्या पदो पादौ अवेक्ष्य विलोक्य सौक्ष्न्यात् तस्याः सुन्दरपादापेक्षया स्वस्य अत्यल्पसुन्दरत्वादित्यर्थः लवस्य अल्पांशस्य भावः (10 तत्पु० ) अल्पत्वमित्यर्थः भजतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) महीरहाणाम् मह्यां पृथिव्यां रोहन्तीति तथोक्तानाम् ( उपमा तत्पु०) वृक्षाणाम् प्रवालस्य किसलयस्य पल्लव. शब्द-नाम ( कर्मधा० ) तस्य लब्धिः प्राप्तिः ( 10 तत्पु० ) जाता संभूता इति वयं जानीमहे मन्यामहे / वृक्षाणां नवकिसलयस्य पल्लव इति नाम दमयन्त्याः पदो लवस्य ग्रहणाजातमिति भावः // 99 // ब्याकरण-चारुतया चारु + तल् ( भावे ) + टाप / सौक्ष्म्यात् सूक्ष्म + ष्यञ् / भाजः / भज् + क्विप् ( कर्तरि ) प० / महोरहाणाम् मही+/रुह + कः ( कर्तरि ) / लधिः / लभ + क्तिन् ( भावे ) / जानौमहे 'अस्मदो द्वयोश्च' ( 1 / 2 / 59 ) से बहुव० / अनुवाद-सौन्दर्य में उत्तम होने से इस ( दमयन्ती ) के पैरों को देख ( सौन्दर्य में स्वयं ) काम होने के कारण पैरों का लवमात्र रखे वृक्षों के नक किसलय का नाम पल्लव ( पद्-लव ) पड़ा है, ऐसा हम समझते हैं // 99 // Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 नैषधीयचरिते टिप्पणी-अब कवि छः श्लोकों में दमयन्ती के पर वर्णन करता है / यहाँ वह निरुक्त शास्त्र के अनुसार पल्लव शब्द की व्युत्पत्ति कर रहा है, यथा“पल्लव: कस्मात् ? ( दमयन्त्या : ) पल्लवग्रहणात्' अर्थात् इसमें पंद = पैर का लवमात्र है / भाव यह निकला कि दमयन्ती के पैर नव किसलय से भी अधिक सुन्दर भृदु और लाल है। यह कवि की कल्पना है कि पल्लव उसके पर का लवमात्र है, अतः उत्प्रेक्षा है, किन्तु विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं। व्यतिरेक चल ही रहा है / 'मही' 'महे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। जगद्वधूमूर्धसु रूपदर्पाद्यदेतयादायि पदारविन्दम् / तत्सान्द्रसिन्दूरपरागरागैध्रुवं प्रवालप्रबलारुण तत् / / 100 // अन्वयः–एतया रूप-दात् जगद्वधूमूर्धसु पदारविन्दम् यत् भदायि तत् द्वयम् तत्-सान्द्र "रागें: प्रवालप्रबलारुणम् जातम् / टोका-एतया अनया दमयन्त्या रूपस्य सौन्दर्यस्य र्पात् गर्वात् ( 10 तत्पु० ) जगताम् त्रिभुवनानाम् याः वम्वः सुन्दरस्त्रियः (10 तत्पु० ) तासाम् मूर्षसु शिरस्सु (10 तत्पु०) पदः पादः अरविन्दम् कमलम् इव ( उपमित तत्पु० ) यत् यस्मात् अदायि न्यधायि, तत् तस्मात् द्वयम् एतस्याः पदयुगलम् तेषु तासां मूर्धसु सान्द्रम् निबिडम् ( स० तत्पु०) यत् सिन्दूरम् नागसंभवम् ( कर्मधा० ) तस्य यः परागः धूलिः तस्य रागैः लौहित्यः ( उभयंत्र ष० तत्पु.) प्रबालात् पल्क वात् अथवा विद्रुमात् प्रवलम् अधिकम् (पं० तत्पु० ) अरुणम् लोहितम् जातमिति शेषः / दमयन्त्याः पादौ लोकातिशायि-सौन्दर्यात् जगत्सुन्दरीमूर्धसु स्थापितो, तन्मूर्धसिन्दूररजसा लोहितौ च सन्तौ प्रवालापेक्षयाप्यधिकारुणी जाताविति भावः // 100 // ब्याकरण-वधूः उह्यते ( नीयते ) पितुः गृहात् पतिगृहमिति Vवह् + ऊधुक् / अदायि / दा + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / राग: र + घम् ( भावे ) / द्वयम् द्वौ अवयवो अत्रेति द्वि + तयप् , तयप् को अयच् / ___अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) ने सौन्दर्य-गर्व में जगत् की वधुओं के सिर पर चरण-कमल जो रखे उसी से ये दोनों उनके सिरों पर स्थित, घनी सिन्दूर रज की लाली से नव किसलय से भी अधिक लाल हो बैठे हैं // 10 // Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 239 टिप्पणी-दमयन्ती के कमलों-जैसे चरण नवपल्लवों से अधिक लाल हैं। इस पर कवि-कल्पना यह है कि मानो अपने सोन्दर्याभिमान में उसने जगत की सुन्दरियों के सिरों पर चरण धर दिये, जिनकी मांगें सिन्दूर से भरी हुई थीं। उनपर दमयन्ती के चरण पड़े तो उन पर सिन्दूर की रज लग गई और वे बहुत लाल हो गये। कल्पना में उत्प्रेक्षा है। विद्याधर सुन्दरियों के सिरों पर पैर रखने का सम्बन्ध न रखने पर भी सम्बन्ध बताने में असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति भी कह रहे हैं / 'रागरागै:' तथा 'वाल-बला' में छेकानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रुषारुणा सर्वगुणयन्त्या भैम्याः पदं श्रीः स्म विधेर्वृणीते / ध्रुवं स तामच्छलयद्यतः सा भूशारुणतत्वदभाग्विभाति // 101 / / अन्वय:-श्री: रुषा अरुणा ( सती ) सर्वगुणः जयन्त्याः भैम्याः पदम् विधेः वृणीते स्म / स धूवम् ताम् अच्छलयत् / यतः भृशारुणा सा एतत्पदभाक् विभाति / टीका-श्री: लक्ष्मी देवी अथ च शोभा रुषा क्रोधेन अरुणा रक्तवर्णा सती सर्वे च ते गुणाः स्युचितधाः तै: ( कमंधा० ) जयन्त्याः श्रियम् पराभवन्त्याः भैम्या: दमयन्त्याः पदम् स्थानम् विधेः ब्रह्मणः सकाशात् वृणीते स्म अवृणुत / भम्या सर्वगुणः श्रीः जिता, अतः क्रोधेन रक्तवर्णा भवन्ती सा ब्रह्माणं वरमया. चत-भैम्याः पदे ( स्थाने, अधिकारे ) अहं स्थापनीयेति भावः / स विधिः ध्रुवम् निश्चितम् ताम् श्रियम् देवीम् अच्छलयत् प्रातारयत् थतः यस्मात् भृशम् यथा स्यात् तथा अरुणा रक्ता ( सुप्सुपेति समासः ) एतस्याः भैम्याः पदं चरणं (10 तत्पु० ) भजतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) विभाति शोभते / ब्रह्मणा श्रियै यथभिलापितम् भैम्याः पदम् दत्तम् परन्तु तत्पदम् स्थानं न अपि तु चरण: इति सा छलितेति भावः / ___ व्याकरण-रुषा /रुष् + क्विप् ( भावे ) तृ० / जयन्त्याः /जि + शतृ + ङीप् प० / 0 भा /भज + क्विप् ( कर्तरि ) / अनुवाद-क्रोध से लाल बनी लक्ष्मी-सौन्दर्य की देवी, सभी गुणों द्वारा ( उसे ) जीत लेने वाली दमयन्ती का पदस्थान वर रूप में ब्रह्मा से मांग बैठी। ब्रह्मा ने सचमुच उसे ठग लिया, क्योंकि अत्यधिक लाल बनी वह ( लक्ष्मी) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 नैषधीयचरिते इस ( दमयन्ती ) का पद ( चरण ) की सेविका बनी हुई शोभित हो रही है // 101 // टिप्पणी-दमयन्ती ने स्त्रियोचित सभी गुणों में लक्ष्मी को मात दे दी। हार खाये लक्ष्मी क्रोध के मारे लाल हो उठी। ब्रह्मा के आगे गिड़गिड़ाई कि मुझे दमयन्ती का पद ( स्थान ) दे दीजिए अर्थात् मैं दमयन्ती होऊं, किन्तु भला लक्ष्मी दमयन्ती का पद कैसे प्राप्त कर सकती थी। फिर भी ब्रह्मा ने उसे उसका पद दे ही दिया. लेकिन वह पद था दमयन्ती का चरण, न कि स्थान / लक्ष्मी को ब्रह्मा ठग बैठा / लक्ष्मी ( लाल शोभा) आज दमयन्ती के पद ( चरण ) में वैठी हुई है। भाव यह निकला कि दमयन्ती के लाल-लाल पदों ( चरणों) की शोभा अलौकिक है। कवि-कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है। दो विभिन्न श्रियों-लक्ष्मीदेवी और शोभाओं का श्लेषभूलक अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है / 'रुणा' 'रुण' 'पद' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास ह / यानेन तन्व्या जितदन्तिनाथौ पादाब्जराजौ परिशुद्धपार्णी। जाने न शुश्र षयितुं स्वमिच्छू नतेन मूर्ना कतरस्य राज्ञः // 102 / / अन्वयः-यानेन जित-दन्तिनाथौ परिशुद्धपार्णी, तन्व्याः पदाब्जराजी कतरस्य राज्ञः नतेन मूर्ना स्वम् शुश्रूषयितुम् इच्छू ( इति ) न जाने / टीका-यानेन गत्या अथ च अभियानेन जितौ पराभूती दन्तिनाथौ (कर्मधा० ) दन्तिनां हस्तिनां नाथौ पती (10 तत्पु० ) गजराजो अथ च गजारूठ राजी याभ्यां तथाभूती ( व० वी० ) परिशुद्ध: निर्दोषः रमणीय इत्यर्थः पाणिः गुल्फयोः अधोभागी चरणपश्चाद्भागौ इति यावत्, अथ च पाणिग्राहः पृष्ठतः स्थिता सेनेति यावत् ( कर्मधा० ) ययोः तयाभूतौ (ब० वी० ) तन्व्याः कृशाङ्गयाः दमयन्त्याः पदौ पादौ अब्जे कमले इव (उपमित तत्पु०) एव राजानौ भूपी ( कमंधा० ) कतरस्य द्वयोः कस्यैकस्य राज्ञः पतिभूतस्य, अथ च शत्रुभूतस्य भूपालस्य नतेन कोपशान्तये निम्नीभूतेन मर्ना शिरसा स्वम् आत्मानम् शुश्रूषयितुम् शुश्रूषां कारयितुं सेवयितुमिति यावत् इच्छु अभिलाषुको इति न जाने न. वेभि / दमयन्त्या चरणौ सौन्दर्ये कमल-तुल्यौ गतौ च गज-गति-तुल्यौ, भाविनः पतिभूतस्य कस्यापि राज्ञः मूर्ना प्रणयकोपोपशमनार्थ तथैव शुश्रुषितव्यौ यथा प्रबलसेनासहितः कोऽपि बलवत्तरो राजा युद्धे गजारूढस्य शत्रुभूतस्य प्राप्तपराजयस्य राजान्तरख्य मूर्ना शुश्रूषितव्यो भवतीति भावः ! / 102 // Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 241 व्याकरण-यानेन /या + ल्युट ( भावे ) / वन्ती दन्तो अस्य स्तः इति दन्त + इन् ( मतुबर्थ ) / अब्जम् अप्सु जायते इति अप् + जन् + ड / कतरः द्वयोः कः एकः इति किम् + इतरच , वस्तुतः बहुत से राजाओं में से किसी एक के लिए यहां 'कतमः' चाहिए था। शुश्रूषयितुम् -श्रु + सन् + णिच् + तुम् / इच्छू इच्छतीति /इष् + उः द्वि० व० / अनुवादयान ( गति ) में गज-पतियों को परास्त किये तथा सुन्दर पाणि (एडी) वाले कृशाङ्गी ( दमयन्ती ) के कमल जैसे चरण-रूपी भूपाल किस राजा के नीचे झुके सिर द्वारा अपनी शुश्रूषा करवाने के इच्छुक हैं-मैं नहीं जानता। [ राजे भी यान ( अभियान ) में गजपतियों ( गजों पर सवार उनके स्वामियों ) को परास्त किये, पाणि ( पृष्ठस्थित सेना ) से सुरक्षित हो उनके फिरों को अपने आगे झुकवाने के इच्छुक हुआ करते है] // 102 // टिप्पणा-कवि का भाव यहाँ किसी प्रणयी के अपनी प्रियतमा के पैरों में गिर पड़ जाने की घटना बताना है। प्रणयो कोई अपराध कर बैठता है, तो प्रणयिनी कोप कर देती है। पति उसे मनाते-मनाते अन्ततः उसके पैर पकड़ लेता है / प्रकृत में रूपक की अप्रस्तुत योजना में दमयन्ती के पैरों पर दो विजयी राजाओं की स्थापना की जा रही है जबकि उसका भावी पति, जो कोई राजा ही होगा, प्रणय-कलह में उसके पैरों में पड़ता हुआ उस राजे की भूमिका अपना रहा है, जो हार खाये हुए है और अपने विजयी राजाओं के आगे कृपा हेतु सिर झुकाये रहता है / भाव यह है कि दमयन्ती के पैर कमल समान हैं; एड़ियाँ बड़ी सुन्दर हैं, चाल में वह गजगामिनी है। राम जाने इन चरणों का सेवक कौन भाग्यशाली राजा होगा। चरण-कमलों पर राजत्व का आरोप होने से रूपक है, जो श्लेष-गभित है / पादाब्ज में लुप्तोपमा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। कर्णाक्षिदन्तच्छदबाहुपाणिपादादिनः स्वाखिलतुल्यजेतुः / उद्वेग भागद्वयताभिमानादिहैव वेधा व्यधित द्वितीयम् / / 103 // अन्वयः-स्वाखिलतुल्यजेतुः कर्णा'."दिनः अद्वयताभिमानात् उद्वेगभाक् वेधाः इह एव द्वितीयम् व्यधित / टीका--स्वस्य आत्मनः अखिलम् समस्तम् ( 10 तत्पु० ) यत् तुल्यम् सदृशम् शल्कुली-कमलादिवस्तुजातम् ( कर्मधा० ) तस्य जेतु: विजयिनः (10 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 नैषधीयचरिते तत्पु० ) कर्णः श्रोत्रम् च अक्षि नयनं च दन्तच्छदः ओष्टश्च बाहः भुजश्चः पाणिः हस्तश्च पादः चरणश्चैतेषां समाहारः पादम् ( समाहारद०) आदी यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) आदिशब्देनात्र कुचादेः ग्रहणम्, न द्वयम् अद्वयम् ( नन् तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता अद्वतम् तस्याः अभिमानात् गर्वात् प्रत्येकमङ्गम् 'अहमेवकं सुन्दरमस्मि, मत्तुल्यं द्वितीयम् जगति अन्यत् नास्तीत्यभिमानं चकारेति भावः अतएव उद्वेगः अभिमानजनितः क्रोधः तं भजतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) वेषाः ब्रह्मा इह अस्याम् दमयन्त्याम् एव द्वितीयम् द्वयोः पूरणम् कर्णादि ब्यधित रचितवान् / निर्माणसमये वेधाः दमयन्त्याः प्रथमम् एक. नास्तीति तदभिमानभञ्जनार्थ वेधाः तत्सदृशं द्वितीयं कर्णादि अरचयदिति भावः // 103 // __व्याकरण-जेतुः भाषितपुंस्क होने से पुंल्लिग / अक्षि अश्नुते ( विषयान् ) इति/अश् + क्सिः / दन्तच्छवः छदतीति / छद् + अच् ( कर्तरि ) छदः दन्तानां बाहा यास्कानुसार 'बाधते इति सतः' अर्थात् बाधते इति/बाध् + उ,ध को ह ( कामों में दखल देने वाला) / द्वितोयम् द्वयोः पूरणमिति द्वि + तीय / व्यधित वि + /धा + लुङ् ( कर्तरि ) / अनुवाद-अपने सदृश सभी ( वस्तुओं ) के विजेता कान, आँख, ओठ, भुजा, हाथ और पैर आदि को अपने भीतर अद्वितीय होने के अभिमान के कारण कुपित हुआ विधाता इस (दमयन्ती) में ही दूसरा ( कर्णादि ) रच बैठा // 103 / / टिप्पणो-ब्रह्मा जब दमयन्ती का सृजन कर रहा था तो पहले उसने उसका एक-एक ऐसे कान-आँख आदि बनाये, जो सुन्दरता में अद्वितीय थे। बस उन्हें अपनी अद्वितीयता का गर्व हो बैठा। उनके अभिमान से ब्रह्मा कुपित हो गये और उनके मान-मर्दन हेतु उनका प्रतिद्वन्द्वी दूसरा कान आदि रच दिया। वे अब अद्वितीय नहीं रहे। उसका कान उसके कान की तरह हो गया। इसी तरह आँख की तरह आँख इत्यादि भी समझ लीजिये / विद्याधर ने अनन्वयोपमा कही है / हमारे विचार से ह कवि की कल्पना है, जो प्रतीयमान उत्प्रेक्षा की प्रयोजिका है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। .. तुषारनिःशेषितमज्बसर्ग विधातुकापस्य पुनर्विधातु / पञ्च स्विहास्याङ्क्किरेष्वभिख्याभिक्षाधुना माधुकरीसदृक्षा // 104 // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसमा 243 अन्वयः-तुषार निःशेषितम् अब्जसर्गम् पुनः बिधातुकामस्य विधातु:अधुना इह पञ्चसु आस्याङ्ग्रिकरेषु अभिख्या-भिक्षा माधुकरी-सदृक्षा ( अस्ति ) / टीका-तुषारेण हिमेन निःशेषितम् समापितम् विनाशितमिति यावत् (तृ० तत्पु० ) अब्जानाम् जलजानाम् सर्गम् सृष्टिम् (10 तत्पु० ) पुनः मुहुः विधातुं कर्तुं काम: इच्छा यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) विधातुः ब्रह्मणः अधुना इदानीम् इह दमयन्त्याम् पञ्चसु पञ्चसंख्यकेषु आस्यं मुखं च अन्री पादौ च करौ हस्ती चेति तेषु ( द्वन्द्व ) अभिख्यायाः शोभायाः सौन्दर्यस्य भिक्षा याचना (ष० तत्पु० ) ( 'अभिख्या नाम-शोभयोः' इत्यमरः) माधुकरी पञ्चसु विभिन्नगृहेषु याचिता भिक्षा तस्याः सदृक्षा सदृशी ( 10 तत्पु० ) अस्तीति शेषः / हिम? निखिल-कमलजातम् हिमेन विनाश्यते, ब्रह्मा च पुनः कमलानि स्रष्टुमिच्छति / तेषु सौन्दर्यमाधातुं स पञ्चस्थानेभ्यः सकाशात् भिक्षां याचमानो यतिरिव दमयन्त्याः पञ्चभ्यः आस्याघ्रि करेभ्योऽवयवेभ्यः सकाशात् सौन्दर्य भिक्षां याचते इवेति भावः // 104 // व्याकरण--निःशेषितम् निर्गतः शेषो यस्मादिति निःशेषम् (ब० वी० ) निःशेषं करोतीति निःशेष + क्तः ( कर्मणि ) नामधा० / अब्जम् इसके लिए पीछे श्लो० 102 देखिए। विधातुकामस्य 'तुम्-काममनसोरपि' से तुम् के म् का लोप / आस्याङनिकरेषु प्राण्यङ्ग होने से यहाँ समाहार द्वन्द्व में एकवद्भाव अर्थात् करे प्राप्त था, किन्तु 'पञ्चसु' शब्द द्वारा संख्या-परिगणन होने के कारण 'अधिकरणतावत्त्वे च' ( 2 / 4 / 15 ) से निषेध हो गया है / अभिख्या अभि + Vख्या + अ + टाप् / माधुकरी मधु करोतीति मधुकरः। मधुकराणामियमिति मधुकर + अण् + ङीप् / अनुवाद--पाले से निःशेष किये गये कमलों का फिर सृजन करना चाहते हुए ब्रह्मा का इस ( दमयन्ती ) के मुख, दो पैर और दो हाथ-इन पाँचों से सौन्दर्य की भीख मांगना ( यति द्वारा पाँच घरों से ) मधूकड़ी माँगने के समान है // 104 // टिप्पणी-शीतकाल में पाला कमलों को मार देता है, लेकिन बाद को वे वसन्त में फिर उग जाते हैं। इस पर कवि यह कल्पना कर रहा है कि कमलों के दोबारा सृजन हेतु ब्रह्मा दमयन्ती के मुख हाथ और पैरों से सुन्दरता की Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 नैषधीयचरिते भिक्षा माँगता है, तब जाकर कमलों में वह सुन्दरता भरता है / यह उत्प्रेक्षा है : इसके साथ उपमा भी है, क्योंकि पाँच अंगों से भीख मांगने की तुलना साधु द्वारा पाँच घरों से माधुकरी-मधूकड़ी माँगने से की जा रही है। माधुकरी इसलिए कहते है कि वह मधुकरों-भ्रमरों की-सी वृत्ति होती है। मधुकर फूलफूल से मधु बटोरा करते हैं। साधु के लिए पाँच घरों से ही भीख बटोरने का विधान है / दमयन्ती का मुख, पैर और हाथ कमलों से भी अधिक सुन्दर हैं यह व्यतिरेक ध्वनि चल ही रही है। 'विधातु' 'विधातुः' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दमयन्ती के पैरों के वर्णन-प्रकरण में इस और पिछले श्लोक में भी मुख, हाथ आदि के वर्णन को प्रासंगिक ही समझिये अथवा यह सम्मिलित वर्णन है। एष्यन्ति यावद्गणनाद्दिगन्तान्नृपा स्मरार्ताः शरणे प्रवेष्टुम् / . इमे पदाब्जे विधिनापि सृष्टास्तावत्य एवाङ गुलयोऽत्र लेखाः // 105 / / अन्वयः-स्मरार्ताः नृपाः इमे पदाब्जे शरणे प्रवेष्टुम् यावद्गणनात् दिगन्तात् एष्यन्ति, विधिना अपि तावत्यः एव अगुलयः लेखाः अत्र सृष्टाः / टीका- स्मरेण कामेन आर्ताः पीडिताः ( तृ० तत्पु० ) नृपाः नृपतयः इमें एते पदे चरणी एव अब्जे कमले ( कर्मधा० ) शरणे रक्षके प्रवेष्टुम् प्रवेशं कर्तुम् यावती गणना यस्य तथाभूतात् ( ब० वी० ) अयवा यावती गणनेति ( सामस्त्ये अव्ययी० ) 'अपञ्चम्याः' इति पञ्चम्याम् अम्भावाभावः दिशाम् अन्तः तस्मात् (10 तत्पु० ) जातावेकवचनम् यावत्संख्यकेभ्यः दशभ्य इति यावत् दिगन्तेभ्य इत्यर्थः एष्यन्ति आगमिष्यन्ति, विधिना ब्रह्मणा अपि तावत्यः तावत्संख्यकाः एव अङ्गुलयः अङ्गुलिरूपा लेखाः रेखाः अत्र चरणद्वये सृष्टा; रचिताः / दशदिगन्तेभ्यो कामपीडिताः राजानः स्वयंवरे एतस्याः चरणकमलयोः शरणमागमिष्यन्तीति गणनार्थमिव ब्रह्मा दशाङ्गुलि-रूपेण दशरेखाः चरणयोः अरचयदिति भाव. // 105 // व्याकरण-आर्ताः आ + ऋ+ क्तः / नृपाः नन पान्तीति नृ + पा+ कः। अब्जम् इसके लिए पीछे श्लो० 102 देखिए। अङगुलयः यास्काचार्यानुसार 'अग्रगलिन्यो भवन्ति, अग्रकारिण्यो वो भवन्तीति' अग्र + /गल+इ ( निपातनात् साधुः ) / अनुवाद-काम-पीडित राजे ( कल स्वयंवर में ) इन चरणकमलों की Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 245 शरण लेने हेतु जितने भी दिगन्त हैं, ब्रह्मा ने उतनी ही अंगुलियों के रूप में इन ( चरणों) में ( गिनती की ) रेखायें बना दी हैं // 105 // टिप्पणी--इस श्लोक में कवि दमयन्ती के पैरों की अंगुलियों का वर्णन कर रहा है। उसकी कल्पना के अनुसार दश अँगुलियाँ मानो गिनती की दस रेखायें हैं, जो उन दश दिशाओं को बता रही हैं, जहाँ से राजे लोग दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने आ रहे हैं। उत्प्रेक्षा अलंकार है। शब्दालंकार वृत्यनुप्रास है। प्रियानखीभूतवतो मुदेदं व्यधाद्विधिः साधुदशत्वमिन्दोः / एतत्पदच्छद्मसरागपद्मसौभाग्यभाग्यं कथमन्यथा स्यात् / / 106 // अन्वयः-विधिः मुदा प्रियानखीभूतवतः इन्दोः इदम् दशत्वम् साधु व्यधात्, अन्थथा एत. 'भाग्यम् कथम् स्यात् ? टोका-विधिः विधाता मुदा सहर्षम् प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः अनखाः नखाः सम्पद्यमानो भूतवान् इति तस्य (10 तत्पु० ) प्रियाचरणनखत्वं प्राप्तवतः इत्यर्थः इन्दोः चन्द्रस्य इदम् एतत् दशत्वम् दशसंख्यकत्वम् अथ च साध्वी शोभना दशा अवस्था ( कर्मधा० ) यस्य तथाबिधस्य ( ब० वी० ) भावःतत्त्वम् साधु समुचितम् प्यधात् कृतवान्, अन्यथा नो चेत् अस्य इन्दोः एतस्याः दमयन्त्याः यो पदौ पादौ ( 10 तत्पु० ) तस्य छद्मना व्याजेन सरागम् ( तृ० तत्पु० ) रागेण लौहित्येन सह वर्तमानम् ( ब० वी० ) यत् पद्मम् कमलम् ( कर्मधा० ) तस्य सौभाग्यस्य सौन्दर्यस्य सौन्दर्यानुभवस्येति यावत् भाग्यम् भागधेयम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) कथम् केन प्रकारेण स्यात् न कथमपीति काकुः / चन्द्रमाः रात्री कमलानुभवसुखम् न प्राप्नोति कमलानां म्लानत्वात्, परं यदाऽसौ अर्धाकारा. वस्थायां दमयन्त्याः दशचरणागुलिनखरूपेण परिवृत्तः तदैव तच्चरणपद्यानुभवसुखसोभाग्यम् अवाप्तवानिति भावः // 106 // व्याकरण--विधिः विदधातीति वि+Vधा + कि ( कर्तरि ) / मुदा। मुद् + क्विप् ( भावे ) त० / ०नखीभूतवतः नख + च्विः, ईत्व + /भू + क्तवत् ष० / सौभाग्यम् सुभगायाः सुभगस्य वा भाव इति सुभग + ष्यन् . उभयपदवृद्धिः / भाग्यम् भग एवेति भग + ष्यञ् ( स्वार्थे ) / कथम् किम् + थम् ( प्रकारार्थे ) किन् को क आदेश / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241 नैषधीयचरिने अनुवाद–ब्रह्मा ने हर्ष के साथ प्रिया के ( चरणों के ) नख बने हुए चन्द्रमा की दश संख्या में जो यह अच्छी अवस्था बनाई, वह उचित ही है, अन्यथा ( चन्द्रमा का ) इस ( दमयन्ती ) के चरणों के व्याज से लाल कमलों के सौन्दर्य का आस्वाद लेने का भाग्य कैसे होता ? // 106 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि दमयन्ती के पैरों के नखों का वर्णन करता है / हम पीछे सर्ग 6, श्लो० 25 में बता आये हैं कि 'अर्घचन्द्र' आधे चाँद गलहत्थी और नखाङ्क को कहते हैं। नखाङ्क इसके लिए अर्धचन्द्र कहलाता है कि वह आधे चाँद के आकार का होता है, अतः दमयन्ती के पाँवों के दस नख दस अर्घचन्द्र हो गये जो पैरों के रूप में विकसित रक्तकमलों का सौन्दर्य खूब निहार रहे हैं एवं उनकी सेवा कर रहे हैं, नहीं तो चन्द्रमा का भला यह सौभाग्य कहाँ, जो वह कमलों को देख तक भी सके, क्योंकि वे रात को बन्द हुए पड़े रहते हैं भाव यह कि चरणों के नख चन्द्र-सदृश हैं / विद्याधर यहाँ अनुमान कह रहे हैं। 'पद-छद्म' में अपहनुति है। 'साधुदशत्व' शब्द में श्लेष है। 'भाग्य' भाग्यं' में छेक, ‘च्छद्म' 'पद्म' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यशः पदाङ गुष्ठनखौ मुखं च बिभर्ति पूर्णेन्दुचतुष्टयं या। कलाचतुःषष्टिरुपैतु वासं तस्यां कथं सुभ्रुवि नाम नास्याम् // 107 // अन्वयः-या यशः, पदाङ्गुष्ठनखो, मुखम् च पूर्णेन्दुचतुष्टयम् बिभर्ति, तस्याम् अस्याम् सुभ्रवि कलाचतुःषष्टिः वासम् कथम् नाम न उपैतु / टीका-या दमयन्ती यशः कीर्तिम् पदयोः चरणयोः अङ गुष्ठयोः नखौ नखरौ ( उभयत्र 10 तत्पु० ) मुखं वदनं च पूर्णः षोडशकलायुक्तः यः इन्दुः चन्द्रः ( कर्मधा० ) तस्य चतुष्टयम् चतुष्कम् (10 तत्पु० ) बिति धारयति तस्याम् अस्याम् सु = शोभने भ्रवी यस्याः तथाभूतायाम् ( ब० वी० ) सुन्दर्या दमयन्ल्याम् कलानाम् षोडशानाम् अथ च गीतवाद्यादिविद्यानाम् चतुःषष्टिः चतुरधिका षष्ठिः वासम् स्थितिम् कथम् नामेति कोमलामंत्रणे न उपैतु प्राप्नोतु ? दमयन्त्याम् यशः पादाङ्गुष्ठनखद्वयम् मुखञ्चेति चत्वारश्चन्द्रास्तिष्ठन्ति, प्रत्येकचन्द्रस्य षोडशकलाः भवन्तीति ताः सर्वाः कलाः चतुभिः गुणिताः चतुःषष्टिः कलाः षोडशभागा एव चतुःषष्टिः कलाः गीतवाद्याद्याः सन्ति, गीतवाद्यादिनिपुणेयमिति भावः // 107 // Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 247 व्याकरण-चतुष्टयम् चत्वारः अवयवाः अत्रेति चतुस् + तयप् / कला के = आनन्दे लीयते आत्माययेति ( पृषोदरादित्वात् साधुः / ) यथा चोक्तम्'लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला' / वासम् / वस् + घञ् ( भावे ) / अनुवाद--जो ( दमयन्तो ) यश, पैरों के अंगूठों के दो नाखून और मुखइन चार चन्द्रमाओं को धारण कर रही है, उस इ स सुन्दरी ( दमयन्ती ) में चौसठ कलायें भला क्यों न वास करें ? टिप्पणी--इस श्लोक में कवि पैरों के अंगूठों का वर्णन कर रहा है / दमयन्ती का सौन्दर्य-विषयक यश श्वेत चन्द्र-जैसा फैला हुआ है; दो पैरों के दो गोलाकार श्वेत नख और मुख भी चन्द्र-जैसे ही हैं, इसलिए उनपर कवि चन्द्रत्वारोप कर रहा है / प्रत्येक पूर्ण चन्द्र की कलायें सोलह-सोलह होती हैं, इस तरह दमयन्ती के भीतर चारों चन्द्रमाओं की कलाओं को मिलाकर कुल चौसठ कलायें निवास कर रही हैं। इन्हीं कलाओं-चन्द्रमाओं के चौसठ अशों ( Digits ) को ही कवि चौसठ गीतवाद्य आदि कलाओं ( Arts ) के रूप में लेकर भैमी को सर्वकला-निपुण बता रहा है। यश आदि पर पूर्णचन्द्रत्वारोप में रूपक और दो भिन्न भिन्न कलाओं में अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। सृष्टातिविश्वा विधिनैव तावत्तस्यापि नीतोपरि यौवनेन / वैदग्ध्यमध्याप्य मनोभुवेयमवापिता वाक्पथपारमेव // 108 // अन्वयः-विधिना एव इयम् तावत् अतिविश्वा सृष्टा, यौवनेन तस्य अपि उपरि नीता, मनोभुवा ( च ) इयम् वेदग्ध्यम् अध्याप्य वाक्पथपारम् एव अवापिता। टोका-विधिना ब्रह्मणा एव इयम् एषा दमयन्ती तावत् आदी विश्वम् संसारम् अतिक्रान्तेति अतिविश्वा ( प्रादि तत्पु० ) सृष्टा रचिता, यौवनेन तारुण्येन तस्य अतिविश्वसर्गस्य अपि उपरि उत्कर्षे इत्यर्थः नीता प्रापिता, यौवनेन शैशवसौन्दर्यापेक्षया अधिकसौन्दर्य प्रापितेत्यर्थः, तदनन्तरम् मनः भूः उत्पत्तिस्थानं यस्य तथाभूतेन ( ब० वी० ) अथवा मनसो भवतीति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु०) मनसिजेन कामेनेति यावत् इयम् एषा दमयन्ती वैदग्ध्यम् प्रागल्भ्यम् सर्वकार्यनेपुण्यमिति यावत् अध्याप्य शिक्षयित्वा वाचः वाण्याः पन्थाः मार्ग इति वाक्पथः Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 नैषधीयचरिते तस्य पारम् परतीरम् ( 10 तत्पु० ) एव अवापिता प्रापिता वाग्व्यापारातीता कृतेत्यर्थः, काम-वशात् अतिचतुरा जातेति भावः / / 108 // __व्याकरण-विधिना विदधाति ( जगत् ) इति वि+/धा + कि (कर्तरि)। यौवनेन यूनः युवत्या वा भाव इति युवन् + अण् / वैदग्ध्यम् विदग्धस्य विदग्धायाः वा भावः इति विदग्ध + ष्यन / अध्याप्य अधि + इ + णिच् + ल्यप् / अवापिता अव + आप + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / __ अनुवाद ब्रह्मा ने ही पहले इसे लोकातिशायी बनाया, ( तदनन्तर ) यौवन ने इस पर चार चाँद लगा दिये, ( फिर ) काम ने इसे चतुराई सिखाकर वर्णनातीत हो कर दिया है / / 108 // टिप्पणी-दमयन्ती के अंगों का चित्रण करके नल उसकी कामकृत चातुरी का वर्णन करने से रह गया / उसकी चातुरी 'वाङ्मनसोऽतीत' है / यहाँ एक ही दमयन्ती-रूप आधार में क्रमशः अतिविश्वत्वादि धर्मों का सम्बन्ध-विधान करने से पर्यायालंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। विद्याधर के अनुसार वाक्पथ का सम्बन्ध होने पर भी असम्बन्ध बताने में सम्बन्धे-असम्बन्धातिशयोक्ति है। इति स चिकुरादारभ्यैनां नखावधि वर्णयन् हरिणरमणीनेत्रां चित्राम्बुधौ तरदन्तरः / हृदयभरणोद्वेलानन्दः सखीवृतभीमजा नयनविषयीभावे भावं दधार धराधिपः // 109 // अन्वय:-इति स धराधिपः हरिणरमणीनेत्राम् एनाम् चिकुरात् आरभ्य नखावधि वर्णयन् चित्राम्बुधौ तरदन्तरः ( तथा ) हृदयभरणोद्वेलानन्द: सन् सखी भावं दधार / टोका-इति उक्त-प्रकारेण स धरायाः पृथिव्याः अधिपः भर्ता ( 10 तत्पु०) नलः हरिणस्य मृगस्य रमण्याः स्त्रियः हरिण्या इत्यर्थः नेत्रे नयने (10 तत्पु० ) इव नेत्रे ( उपमान तत्पु० ) यस्याः तथाभूताम् (ब० बी० ) एनाम् दमयन्तीम् चिकुरात् केशात् ('चिकुरः कुन्तलो बाल: कचः केशः शिरोरुहः' इत्यमरः) आरभ्य प्रभृति नखः नखरः अवधिः पर्यन्तः ( कर्मधा० ) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० बी० ) वर्णयन् निरूपयन् चित्रस्य आश्चर्यस्य ('आलेख्याश्चर्ययोचित्रम्' इत्यमरः ) अम्बुधौ समुद्र (10 तत्पु० ) अथवा चित्रम् एवाम्बुधिः Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 249 तस्मिन् ( कर्मधा० ) तरत् प्लवमानम् अन्तरं मनः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूत: ( ब० वी० ) तस्याः लोकातिशायिसौन्दर्यमवेक्ष्य चकित चकितः इत्यर्थः तथा हृदयस्य हृदः भरणेन पूरणेन ( 10 तत्पु०) उद्वेलः ( तृ० तत्पु० ) उत् = उल्लङ्घिता वेला तीर-सीमा येन तथाभूतः ( ब० वी० ) निस्सीमः यः आनन्दः हर्षः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) आनन्दसमुद्रमग्नः इत्यर्थः सन् सखीभिः आलिभिः वृता परिगता ( त० तत्पु०) या भीमजा भैमी ( कर्मधा० ) तस्याः नयनयोः नेत्रयोः (10 तत्पु० ) विषयीभावे गोचरत्वे (10 तत्पु० ) भावम् विचारम् दधार बभार। दमयन्त्या अलौकिकसौन्दर्येण साश्चर्यः आनन्दा. ब्धिमग्नहृदयश्च प्रच्छन्नो राजा नलः सखीपरिगतां ताम् प्रति आत्मानम् प्रकटयितुमैच्छदिति भावः / / 109 / व्याकरण-मधिपः अधिकं पातीति अधि + /पा + क / धरा धरति (प्राणिजातम् ) इति/धृ + अच् + टाप् / अम्बुधौ अम्बूनि धीयन्तेऽत्रेति अम्बु + धा + कि / विषयीभावे विषय + च्वि, ईत्व /भू + घन / ___अनुवाद-इस प्रकार मृगनयनी इस ( दमयन्ती ) का केश से लेकर नख तक वर्णन करता हुआ वह राजा नल, जिसका मन आश्चर्य-सागर में तैर रहा था तथा आनन्द भरकर हृदय से बाहर छलक रहा था, मन में विचार कर बैठा कि ( अब ) मुझे सखियों से घिरी हुई दमयन्ती की आँखों के आगे अपने को प्रकट कर देना चाहिए // 109 // टिप्पणो-इस सारे सर्ग में कवि नल को माध्यम बनाकर नख-शिख पर्यन्त दमयन्ती का चित्रण कर गया है। जैसा हम भूमिका में बता आये हैं, कलावादी सरणि के कवियों की यह अपनी विशेषता है कि वे समय-असमय एवं औचित्यअनौचित्य न देखकर जब किसी का वर्णन करने लगते हैं, तो पूरी सूची भुगताये बिना चैन नहीं लेते / यही काम श्रीहर्ष ने भी किया है। यही अलंकृत-शैली की अस्वाभाविकता एवं कृषिमता है / 'हरिणरमणीनेत्राम् ' में उपमा और चित्राम्बुधि में रूपक है। 'भावे' 'भावं' 'धार' 'धरा' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सन्ति में छन्द-परिवर्तन के नियमानुसार कवि ने यहाँ हरिणी छन्द का प्रयोग किया है, जिसका लक्षण यह है-'न-स-म-र-स-ला-गः षड्वेदैहयैर्हरिणी मता' अर्थात् इसमें नगण, सगण, लगण, रगण और अन्त में लघु-गुरु और छठे, चौथे एव सातवें अक्षर पर यति होती है / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 मैषधीयचरिते श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहोरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / गौडोर्वीशकुलप्रशस्तिभणितिभ्रातर्ययं तन्महा काव्ये चारुणि वैरसेनिचरिते सर्गोऽगमत्सप्तमः // 110 // अन्वयः-कविराज यम् ( पूर्ववत् ) गीडोर्वी.. भ्रातरि वेरसेनिचरिते चारुणि तन्महाकाव्ये अयम् सप्तमः सर्गः अगमत् / टीका-कविराजः "यम्, पूर्ववदेव टीका ज्ञेया। 'गौडोशिकूलप्रशस्तिभणिति' एतन्नामा श्रीहर्षरचितग्रन्थविशेषः तस्याः भ्रातरि सहोदरे वैरसेनेः वीरसेनपुत्रस्य नलस्य चरिते चारुणि रम्ये तस्य श्रीहर्षस्य महाकाव्ये अयम् सप्तानां पूरणः सप्तमः सर्गः अगमत् समाप्त इत्यर्थः // 110 / / इति मोहनदेव पंत प्रणीतायां 'छात्रतोषिण्यां' सप्तमः सर्गः / व्याकरण-वरसेनिः वीरसेनस्यापत्यं पुमान् इति वीरसेन + इस / अगमत् गम् + लुङ्। अनुवाद - कविराज.जन्म दिया, उसके ( बन ये ) 'गोडोर्वीशकुलप्रशस्ति भणिति' के भाई, सुन्दर 'वरसेनि चरित महाकाव्य में सातवाँ सर्ग चला गया / / 110 // टिप्पणो-नैषधीयचरित से पहले श्रीहर्ष ने 'गोडोर्वीशकुलप्रशस्ति-भणिति' नामक ग्रन्थ भी रचा था। इसीलिए उसे कवि ने इसका भाई कहा है, क्योंकि दोनों एककर्तृक हैं। मोहनदेव-पन्त द्वारा प्रणीत 'छात्रतोषिणी' में सातवाँ सर्ग समाप्त है / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अष्टमः सर्गः अथाद्भुतेनास्त निमेषमुद्रमुन्निद्रलोमानममुं युवानम् / दृशा पपुस्ताः सुदृशः समस्ताः सुता च भीमस्य महीमघोनः // 1 // अन्वयः-अथ ताः समस्ताः सुदृशः महीमघोनः भीमस्य सुता च अद्भुतेन अस्त-निमेष-मुद्रम् उन्निद्र-लोमानम् अमुम् युवानम् दृशा पपुः / टीका- अथ नलस्य स्वप्रकटीकरण-विचारानन्तरम् ताः प्रसिद्धाः समस्ताः सर्वाः सु= शोभना दृक् नयनं यासां तथाभूताः (प्रादि ब० वी० ) सुन्दर्य सख्यः इत्यर्थः मह्याः पृथिव्याः मघोनः इन्द्रस्य (10 तत्पु०) भूपतेः भीमस्येत्यर्थ: सुता पुत्री दमयन्ती च अद्भुतेन दमयन्ती-लोकातिशायिसौन्दर्यकृत-विस्मयेन ( 'विस्मयोऽद्भुतमाश्चर्यम्' इत्यमरः ) अस्ता त्यक्ता निमेषमुद्रा ( कर्मधा० ) निमेषस्य नेत्रसंकोचस्य निमीलनस्येतियावत् मुद्रा प्रकारः स्थितिरित्यर्थः (10 तत्पु० ) येन तथाभूतम् (ब० वी० ) निनिमेषनेत्रमित्यर्थः उत् = उद्गता निद्रा येषां तथाभूतानि ( प्रादि ब० वी० ) उन्निद्राणि सात्विकभावोदयात् उत्थितानीत्यर्थः लोमानि रोमाणि ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी०) रोमाञ्चितमित्यर्थः अमम् एतम् युवानम् तरुणम् नलम् दृशा नयनेन पपुः पीतवत्यः सतृष्णम् अपश्यन्नित्यर्थः / दमयन्तीसमेताः ताः सकलाः बालाः दमयन्ती-सौन्दर्येण चकितचकितम् हर्षेण रोमाञ्चितगात्रं च नलं साभिलाषं निनिमेषञ्च ददृशुरिति भावः // 1 // ___ व्याकरण-अद्भुतेन यास्काचार्यानुसार अभूतमिवेति ( पृषोदरादित्वात् साधुः ) / युवानम् यौति ( शरीरतः स्त्रिया मिश्रीभवति ) इति /यु + कनिन् समस्ताः सम् + / अस् + क्तः / मघोनः यास्कानुसार 'मघमिति धननाम तद्वान भवतीति / अनुवाद-तदनन्तर वे सभी सुन्दरियां तथा भीम नृपकी पुत्री ( दमयन्ती) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 नैषधीयचरिते आंखों के भीतर इस युवा ( नल ) को पी गई; जिसकी आँखें अचम्भे में फटी'फटी रह रही थी और जो ( आनन्द में ) रोमाञ्चित हो उठा था // 1 // टिप्पणी-नल तो दमयन्ती के रूप में सौन्दर्य की पराकाष्ठा को पहले से ही देख रहे थे। पिछले सर्ग की समाप्ति के श्लोक 109 में वे इसे देख "चित्राम्बुधि' में मग्न हो ही गये थे। अतः नारायण का सुझाव है कि अद्भुतेनास्तनिमेषमुद्रम्' को नल का विशेषण न बनाकर 'दृशा पपुः' के क्रियाविशेषण रूप में हम लें, तो अच्छा रहे क्योंकि नल का पहला-पहला साक्षात्कार तो सखी-सहित दमयन्ती को हो रहा है। वही उनकी लोकातिशायी सुन्दरता देख एकदम भौंचक्की रह रही है। सुझाव ठीक ही है, किन्तु ऐसी स्थिति में क्रिया और क्रियाविशेषण के मध्य 'आसत्ति' का अभाव अखरने लग जायेगा। श्लोक में नल को रोमाञ्च हुआ दिखाने से विद्याधर ने भावोदयालङ्कार कहा है, लेकिन हमारे विचार से व्यभिचारी भावों का उदय ही अलंकार-प्रयोजक होता है, सात्विक भावों का उदय नहीं। वे तो अनुभाव-रूप ही होते हैं। विद्याधर छेक भी कह रहे हैं / इस सर्ग में छन्द पूर्व सर्ग वाला ही चल रहा है / कियच्चिरं देवतभाषितानि निह्नोतुमेनं प्रभवन्तु नाम / पलालजालैः पिहितः स्वयं हि प्रकाशमासादयतीक्षुडिम्भः // 2 // अन्वयः-दैवतभाषितानि कियच्चिरम् एनम् निह्नोतुम् प्रभवन्तु नाम ? हि पलाल-जालैः पिहितः इक्षु-डिम्भः स्वयं प्रकाशम् आसादयति / टीका --देवतानि देवता-सम्बन्धीनि च तानि भाषितानि वचनानि (कर्मधा०) कियच्चिरम् कियन्तम् बहुकालम् एनम् एतम् नलम् निह्नोतुम् गोपायितुम् प्रभवन्तु शक्नुवन्तुनामेति कोमलामन्त्रणे? न बहकालमिति काकुः / इन्द्रेण नलाय यथेच्छमदृश्यीभवनस्य यद्वचनं दत्तम्, तत्किञ्चित्कालाय एवासीत् न तु बहुकालायेति भावः / हि यतः पलालस्य निष्फल-व्रीह्यादिघासस्य ( 'पलालोऽस्त्री सनिष्फलः' इत्यमरः) जालैः समूहैः (१०तत्पु०) पिहितः आच्छादितः इक्षोः रसालस्य डिम्भ: प्ररोहः (ष०तत्पु०) 'डिम्भौ तु शिशु-बालिशो' इत्यमरः / स्वयम् आत्मना प्रकाशम् प्रकटताम् आसादयति प्राति, इक्षोरङ्कुरः प्रारम्भावस्थायां रक्षार्थ घासादिना आच्छाद्यते किन्तु उत्तरोत्तरं प्रवर्धमानोऽसौ स्वयमेव सर्वजनप्रत्यक्षतां यातीति भावः // 2 // Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 253 व्याकरण--दैवतानि देवतानाम् इमानीति देवता+ अण् / अथवा देवता एवेति देवता + अण् / (स्वार्थे) दैवतानि तेषां भाषितानि (ष० तत्पु०) भाषितानि भाष + क्त (भावे ) / पिहितः अपि +धा + क्त ( कर्मणि) धा को हि और भागुरि के मतानुसार अपि के अ का लोप / प्रकाशम् प्र + / काश् + घज (भावे ) / अनुवाद-देवता ( इन्द्र) के वचन भला कितनी देर तक इन ( नल ) को छिपा सकें, क्योंकि पराल के ढेर से ढका हुआ गन्ने का अंकुर अपने आप प्रकाश में आ ही जाता है // 2 // टिप्पणी-नल इन्द्र के दूत ठहरे। उसका सन्देश देने हेतु उन्हें प्रकाश में आना ही था। हमेशा छिपे कैसे रह सकते थे / अतः दमयन्ती के आगे प्रकट हो ही गये। इसके लिए कवि गन्ने के अंकुर का दृष्टान्त देता है। विद्याधर यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार मान रहे हैं। नारायण का भी कहना है किन्तु हमारे विचार में यहाँ दृष्टान्तालंकार है, अर्थान्तर-न्यास नहीं; क्योंकि अर्थान्तरन्यास में दो वाक्यों में परस्पर सामान्य-विशेषभाव सम्बन्ध रहता है लेकिन यहाँ देखो, तो दोनों वाक्य विशेष वाक्य हैं, अतः दोनो का बिम्ब-प्रति. बिम्बभाव यहाँ दृष्टान्त का ही प्रयोजक बन रहा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अपाङ्गमप्याप दृशोर्न रश्मिनलस्य भैमीमभिलष्य यावत् / स्मराशुगः सुभ्रवि तावदस्यां प्रत्यमापुतशिखं ममज्ज // 3 // अन्वयः-नलस्य दृशोः रश्मिः भैमीम् अभिलष्य यावत् अपाङ्गम् अपि न आप, तावद् स्मराशुगः अस्याम् सुभ्रुवि प्रत्यङ्गम् आपुङ्खशिखम् ममज / श्रीक-लस्य दृशोः नयनयोः रश्मि: किरणः भैमीम् दमयन्तीम् अभिलष्य कामयित्वा लक्ष्यीकृत्येति यावत् अपाङ्गम् नेत्रप्रान्तम् अपि न आप प्राप तावत् एव तं कालम् एव स्मरस्य कामस्य माशुगः बाणः अस्याम् एतस्याम् सु = शोभने भ्रौ यस्याः तथाभूतायाम् ( ब० बी० ) सुन्दया दमयन्त्यां अङ्गम् अङ्गम् प्रति प्रत्यङ्गम् प्रत्यवयवम् ( अव्ययी० ) पुङ्खस्य पक्षयुक्तभागस्य या शिखा अग्रम् (10 तत्पु० ) तामभिव्याप्य ( अव्ययी० ) अग्रभागादारभ्य अन्तिमभागपर्यन्तमित्यर्थः कात्स्येनेति यावत् ममज्ज मग्नः अन्तविवेशेत्यर्थः / नल: पूर्णतया दम Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 नैषधीयचरिते यन्ती द्रष्टुमपि यावत् नालभत, तावदेव दमयन्ती कामाभिहता बभूवेति भावः // 3 // व्याकरण-भैमीम् भीमस्यापत्यं स्त्रीति भीम + अण् + ङीप् / अपाङ्गम् अप = तिर्यक् अङ्गति ( गच्छति ) इति अप + /अङ्ग + अच् ( कर्तरि ) आप Wआप + लिट / आशुग: आशु ( शीघ्रम् ) गच्छतीति आशु + गम् + ड / अनुवाद-नल के आँखों की किरण दमयन्ती को लक्ष्य करके कनखी तक भी नहीं पहुँच पायी थी कि तभी काम का बाण नोक से लेकर पुंख वाले भाग तक ( = सारे का सारा ) इस सुन्दरी ( दमयन्ती) के अंग-अंग में घुस गया // 3 // टिप्पणी-नल की दृष्टि दमयन्ती की ओर जाना चाह ही रही थी कि इतने मात्र से काम ने दमयन्ती को धर दबाया। वास्तव में दमयन्ती के भीतर कामोद्रेक तब हुआ, जब उस पर नल की दृष्टि पड़ी, किन्तु यहाँ कवि ने कामोद्रक-रूप कार्य पहले बता दिया और कारणरूप दृष्टिपात पीछे इसलिए यहाँ कार्यकारण पौर्वापर्य-विपर्यय-रूप अतिशयोक्ति है / 'लस्य' 'लष्य' में ( सषयोरभेदात् ) श्लेष और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दृशो रश्मिा–यहाँ कवि आँखों की रश्मियों के सम्बन्ध में न्यायशास्त्र की ओर संकेत कर रहा है। न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष से ही हुआ करता है किन्तु आँख के सम्बन्ध में हम देखते हैं कि वह बिना सन्निकर्ष अर्थात् संयोग के दूर से ही पदार्थ का ग्रहण कर लेती हैं, इससे अनुमान किया जाता है कि आँख की रश्मियाँ होती हैं जिनके द्वारा आँख और पदार्थ का सम्बन्ध होता है। मनुष्यों की आँखों की रश्मियाँ दीपक की रश्मियों की तरह देखने में नहीं आती हैं यद्यपि बिल्ली आदि की आँखों की रश्मि रात को दीख जाती हैं। ब्रह्मा का कुछ ऐसा ही विधान है। अधिक के लिए न्यायदर्शन देखिये। यदक्रम विक्रमशक्तिसाम्यादूपाचरद्वावपि पञ्चबाणः / कथं न वैमत्यममुष्य चक्रे शरैरनर्धार्धविभागभाग्भिः // 4 // अन्वयः-पञ्चबाणः द्वौ अपि अक्रमम् विक्रमशक्तिसाम्यात् यत् उपाचरत्, तत् अमुष्य अनर्ध"भिः वैमत्यम् कथम् न चक्रे ? टोका-पञ्च बाणाः यस्य तथाभूतः (ब० बी० ) कामदेवः द्वौ नलदमयन्त्यो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः अपि अक्रमम् न क्रमः पौर्वापर्य यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( नन ब० वी० ) क्रमेण विना युगपदेवेत्यर्थः विक्रमः शौर्यम्, मनोबलम् उत्साह इति यावत् शक्तिः शरीरबलं चेति ( द्वन्द्व ) तयोः साम्यात् तुल्यत्वात् ( 10 तत्पु० ) यत् यस्मात् उपाचरत ताभ्यां सह व्यवाहरत्, तत् तस्मात् अमुष्य अस्य कामदेवस्य अर्धं च अर्ध च अधैि ( द्वन्द्व ) ताभ्यां विभाग: विभजनम् (तृ० तत्पु० ) तम् भजन्तीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) न अर्धाधु० इति अनधि / नत्र तत्पु० ) द्वयोः भागयोः समत्वेन विभक्तुम् अशक्यः पञ्चसंख्यायाः विषमत्वात् शरैः बाणः वैमत्यम् असंमतिम् वैषम्यमिति यावत् कथम् कस्मात् न चक्र कृतम् ? महदाश्वयंमेतत् / कामेन समकालमेव उभयस्मिन् पञ्च बाणाः समानरूपेण प्रहृताः एतत् न संभवतीति भावः // 104 // व्याकरण--विक्रम वि + क्रम् + अच् / साम्यात् समस्य भाव इति सम + ष्यन / भाग्भिः भज् + क्विप् ( कर्तरि ) / वैमत्यम् विमत + ष्यन् / अनुवाद - कामदेव ने दोनों ( नल-दमयन्ती ) पर एक साथ ही एक-जैसे उत्साह और शक्ति के साथ जो प्रहार किया, उससे इस ( काम ) के बाणों ने ( अपने प्रभाव में ) वैषम्य क्यों नहीं किया ? / / 4 // टिप्पणी-कामदेव को पंचबाण कहते हैं, क्योंकि उसके पाँच बाण हुआ करते हैं / उसने एकसाथ नल-दमयन्ती पर पांचों बाण छोड़ डाले। प्रश्न उठता है कि क्या प्रत्येक पर पाँच-पाँच बाण छोड़े? तब तो बाण पाँच नहीं, दस बनने चाहिए। यदि बाण पाँच ही हैं, तो पाँच दो बराबर भागों में नहीं बाँटे जा सकते हैं। इसलिए एक पर तीन और एक पर दो बाण फेंके होंगे / ऐसी स्थिति में युगल पर एक-जैसा ही प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। जिसपर तीन वाण पड़े, उसपर अधिक प्रभाव और जिसपर दो पड़े, उसपर कम प्रभाव पड़ना चाहिए, लेकिन दोनो पर काम-प्रभाव एक ही समय में एक-सा ही पड़ा, ऐसा क्यों हुआ - समझ में नहीं आता है। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं, किन्तु मल्लिनाथ के शब्दों में-'अत्र विषमैयुगपदुभयत्र समप्रहारविरोधस्य स्मरमहिम्ना समाधानाद् विरोधाभासालङ्कारः'। 'क्रम' 'क्रम' 'अधि' तथा 'भागभाग्भिः ' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / पञ्चबाण:-'कामदेव के पाँच बाण ये हैं - अरविंदमशोकं च चूतं च नवमल्लिका / नीलोत्पलं च पञ्चते पञ्चबाणस्य सायकाः'N Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 नैषधीयचरिते तस्मिन्नलोऽसाविति सान्वरज्यत् क्षणं क्षणं क्वेह स इत्युदास्त / पुनः स्म तस्यां वलतेऽस्य चित्तं दूत्यादनेनाथ पुनर्व्यवति // 5 // अन्वयः सा तस्मिन् 'असौ नलः' इति अन्वरज्यत्; ‘स इह क्व ?' इति क्षणम् क्षणम् उदास्त / अस्य चित्तम् अस्याम् पुनः वलते स्म; अथ अनेन दूत्यात् पुनः न्यवति / ___टीका-सा दमयन्ती तस्मिन् आगन्तुके पुरुषे 'असो पुरुषः नलः' अस्तीति शेषः इति कारणात् विचार्य वा अन्वरज्यत अनुरक्ताऽभवत् / अनन्तरं च 'स नलः इह अस्मिन् भट: सुरक्षिते हर्ये क्व कुतः' संभवतीति शेषः इति कारणात् क्षणं क्षणं प्रतिक्षणम् उदास्त उदाता अभवत् / अस्य नलस्य चित्तम् मनः पुनः मुहुः तस्याम् दमयन्त्याम् वलते स्म चलति स्म तामनु चञ्चलं भवति स्मेत्यर्थः, अथ अनन्तरम् अनेन नलस्य चित्तेन दूत्यात् दूतत्वात् अहम् इन्द्रस्य दूतोऽस्मीति विचार्येत्यर्थः पुनः मुहुः न्यति दमयन्तीसकाशात् निवृत्तम् // 5 // व्याकरण-क्व किम् को सप्तम्यर्थ में क्व आदेश ( 'क्वाति' 7 / 2 / 105) / क्षणम् क्षणम् वीप्सा में द्वित्व / उदास्त-उत् + /आस् + लङ् ( आत्मने० ) / दूत्यात् दूतस्य भावः कर्म वा इति दूत + यत् ( वैदिक प्रयोग ) / न्यति नि + Vवृत् + लुङ् ( भाववाच्य ) / ___अनुवाद-वह ( दमयन्ती ) 'ये नल हैं। यह विचारकर उनमें अनुरक्त हो उठी, ( बाद को ) वे यहाँ कहाँ ?' यह सोचकर पल पल में उदास हो जाया करती थी। इन ( नल ) का चित्त बार-बार उस ( दमयन्ती ) की ओर चला जाता था, (किन्तु ) बाद को दूत होने के कारण फिर वापस आ जाता था // 5 // टिप्पणी-यहाँ कवि एक दूसरे का साक्षात्कार होने पर नायक और नायिका में अन्तर्भावों का संघर्ष बता रहा है। दमयन्ती ने नल के सम्बन्ध में हंस के मुख से जैसे सुना था और चित्रों में भी जैसा देखा था, उसी तरह आगन्तुक को पाकर 'यह नल हैं' यह जान हर्षोत्फुल्ल हो गई, लेकिन क्षणभर बाद कहाँ निषध-देश और कहाँ विदर्भदेश में सैनिकरक्षित कन्यान्तःपुर, यहाँ नल कैसे हो सकते हैं-यह विचार आते ही मन में विषाद छा गया। इस तरह यहाँ हर्ष और विषाद, इन दो भावों की सन्धि होने से भाव-सन्धि अलंकार है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 257 इसी तरह नल ने दमयन्ती देखी तो मन चंचल और उसे पाने को अधीर हो उठा, किन्तु जब सोचा कि अरे, इसे चाहने वाला में कोन होता है, मैं तो प्रतिनायक इन्द्र का दूत हूँ, जो इसका चाहने वाला है, यह सोचते ही नल की सारी उत्सुकता उदासी में बदल गई / इस तरह यहाँ भी चाञ्चल्य और विषाद नामक भावों की सन्धि हो रही है / इसलिए दो भाव-सन्धियों की संसृष्टि है / 'क्षणं' 'क्षणं' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / कयाचिदालोक्य नलं ललज्जे कयापि तद्भासि हृदा ममज्जे / तं कापि कन्या स्मरमेव मेने भेजे मनोभूवशभूयमन्या // 6 // अन्वयः- कयाचित् ( बालया ) नलम् आलोक्य ललज्जे; कया अपि तद्भासि हृदा ममज्जे, का अपि कन्या तम् स्मरम् एव मेने, अन्या मनोभूवशभूयम् भेजे। टीका-कयाचित् दमयन्तीसखीनां मध्ये कया अपि नलम् आलोक्य दृष्ट्वा ललज्जे शृङ्गारभावोदयात् लज्जितया बभूवे, फया अपि सख्या तस्य नलस्य भासि सौन्दर्यच्छटायां हृदा हृदयेन गमज्जे मग्नया बभूवे, तस्यालौकिकलावग्यं विलोक्य कामोद्र के तन्मयया भूतमिति भावः, का अपि कन्या बाला तम् नलम् कामोद्दीपकत्वात् स्मरम् कामम् एव मेने अमन्यत, अन्या सखी मनोभू : कामः तस्य वशभूयम् वशत्वम् कामाधीनत्वमिति यावत् ( 10 तत्पु० ) भेजे प्राप्तवती नलेऽनुरक्ता जातेत्यर्थः // 6 // व्याकरण-लज्जे Vलज्ज् + लिट् ( भाववाच्य ) / भासि./भास् / क्विप ( भावे ) स० / ममज्जे / मस्ज् + लिट (भाववाच्य ) / मनोभूः मनसो भवतीति मनस् + /भू + क्विप् ( कर्तरि ) / चशभूयम् घशस्य भाव इति वश + Vभू + क्यप् ( 'भुवो भावे' 3 / 1 / 107 ) / ___अनुवाद--कोई ( सखी ) नल को देखकर लजा गई; कोई हृदय से उनकी लावण्य-छटा में मग्न हो बैठी; कोई कुमारी उन्हें कामदेव ही मान गई; ( कोई ) दूशरी कामाधीन हो गई // 6 // टिप्पणी-यहाँ लज्जा औत्सुक्य आदि भावों के उदय होने से भावोदया. लंकार है ‘कया' 'कया' में छेक, 'ललज्जे' 'ममज्जे' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 नंषधीयचरिते कस्त्वं कुतो वेति न जातु शेकुस्तं प्रष्टुमप्यप्रतिभातिभारात् / उत्तस्थुरभ्युत्थितिवाञ्छयेव निजासनान्नैकरसाः कृशाङ्गयः // 7 // अन्वयः-कृशाङ्गयः अप्रतिभातिभारात् तम् ‘कः त्वम् ?' कुतः वा (आयातः)?' इति तम् प्रष्टुम् अपि जातु न शेकुः, नैकरसाः ( सत्यः ) अभ्युस्थिति-वाञ्छया इव निजासनात् उत्तस्थुः। टोका-कृशं तनु अङ्गम् गात्रम् ( कर्मधा० ) यासां तथाभूताः (ब० वी० ) बालाः न प्रतिभा प्रतिपत्तिः इत्यप्रतिभा ( न तत्पु०) तस्या अतिभारात (10 तत्पु० ) अतिशयितः भारः वैपुल्यम् तस्मान् (प्रादि स० ) भृशकर्तव्याकर्तव्य-विमूढत्वादित्यर्थः तम् नाकः किन्नामधेयः त्वम् असि ?' कुतः कस्मात् स्थानात् वा आगतोऽसि ?' इति एवम् प्रष्टुम् अनुयोक्तम् अपि जातु कदाचित् न शेकुः न प्रबभूवः, न एकः रस: भावः यासां तभाभूता। ( ब० वा० ) लज्जाभयादिनानामनोभावाक्रान्ताः सत्यः अभ्युत्थितिः अभ्युत्थानम् आसनात् उत्थाय स्वागतकरणमिति यावत् तस्याः वाञ्छया इच्छया इव निजात् आसनात् स्थानात् ( कर्मधा० ) उत्तस्थुः उदतिष्ठन् / विविधभावाकुलाः ताः नलस्वागतं चिकीषितुमिव निजासनेभ्यः समुत्तस्थुरिति भावः // 7 // __व्याकरण-प्रतिभा प्रति + भा + अ + टाप् / कुतः किम् + तसिल, किम् को कु आदेश / शेकुः शक् + लिट् ब० व० / अभ्यस्थितिः अभि + उत् स्था + निन् ( भावे), स को त / वाञ्छा वाञ्छ + अङ् + टाप् / __ अनुवाद-कृशाङ्गी बालायें अत्यधिक किंकर्तव्यविमूढ़ होने के कारण उन ( नल ) को यह तक भी न पूछ सकी कि 'तुम कौन हो अथवा कहाँ से आये हो ?' अनेक मनोभावों से युक्त हो ( स्वागत करने हेतु ) अभ्युत्थान की इच्छा से-जैसे अपने 2 स्थानों से उठ खड़ी हो गईं // 7 // टिप्पणी-कामदेव-जैसा अतिसुन्दर युवा सहसा सामने खड़ा देख सभी नवयुवतियाँ अकबका गईं। उन्हें आगन्तुक का नाम-धाम पूछने तक की भी होश न रही। देखते ही विविध शृङ्गारिक भाव हृदय में उद्वेलित होने लगे, तो विवश हो उसके स्वागत हेतु-जैसे अपने 2 स्थानों से खड़ी हो गई। उत्प्रेक्षा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। स्वाच्छन्द्यमानन्दपरम्पराणां भैमी तमालोक्य किमप्यवाप। महारयं निर्झरिणीव वारामासाद्य धाराधरकेलिकालम् // 8 // Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम: सर्गः 259 अन्वयः-- भैमी तम् आलोक्य किम् अपि आनन्द-परम्पराणाम् स्वाच्छन्द्यम् निर्झरिणी धाराधर-केलिकालम् आसाद्य वाराम महारयम् इव अवाप / टीका-भैमी भीमस्य राज्ञः पुत्री दमयन्ती तम् आगन्तुकम् नलमित्यर्थः आलोक्य दृष्ट्वा किमपि अनिर्वचनीयम् आनन्दस्य हर्षस्य परम्पराणाम् ततीनाम् (10 तत्पु०) स्वाच्छन्द्यम स्वच्छन्दताम् उच्छृङ्खलत्वम् आधिक्यमिति यावत् निर्झरिणी गिरिनदी धाराधराणाम् कालम् समयम् (10 तत्पु०) वर्षर्तुमित्यर्थः आसाद्य प्राप्य वाराम् जलानाम् ( 'वारि' इत्यमरः ) महान् अधिकश्चासो रयः वेगः तम् ( कर्मधा० ) इव अवाप प्राप्नोत् / दमयन्ती नलं दृष्ट्वा निस्सीममानन्दम् अनुबभूवेति भावः // 8 // ___ व्याकरण - परम्परा परम् + पृ + अ + टाप् ( अलुक) (परस्य परस्य पूरणमित्यर्थः) स्वाच्छन्धम् स्वच्छन्द + ष्यन् / निर्झरिणी निर्झर + इन् (मतुबर्थ) जीप / वारिधरः धरतीति / + अच् (कर्तरि) धाराणां धरः इति (प० तत्पु०) / अनुवाद---' मयन्ती उन ( नल ) को देखकर इस प्रकार अनिर्वचनीय, सतत आनन्दातिरेक प्राप्त कर बैठी जैसे कि वर्षाकाल आने पर नदी जलों का महान् वेग प्राप्त कर लेती है।। टिप्पणी-नल को देखने मात्र से दमयन्ती को महान् आनन्द हो गया। इसकी तुलना नदी से की जाने के कारण उपमा है / 'परम्पराणाम्' 'धाराधरकेलिकालम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / तत्रैव मग्ना यदपश्यदने नास्या दगस्याङ्गमयास्यदन्यत् / नादास्यदस्यै यदि बुद्धिधारा विच्छिद्य विच्छिद्य चिरान्निमेषः / / 9 // अन्वयः-अस्याः दृक अस्य यत् ( अङ्गम् ) अग्ने अपश्यत, तत्र एव मग्ना ( सती ) अन्यत् अङ्गम् न अयास्यत् यदि चिरात् निमेष: विच्छिद्य विच्छिद्य अस्य बुद्धिधाराम् न अदास्यत् / टीका--अस्याः दमयन्त्याः दुक दृष्टिः अस्य नलस्य यत् अङ्गम् अग्रे प्रथमम् अपश्यत् अवालोकयत् तत्र तस्मिन् अङ्गे एव मना निमग्ना अनुराग-वशात् लीनेति यावत् अन्यत् अपरम् अङ्गम् अवयवम् न अयास्यत् न अगमिष्यत् यदि चेत् चिरात् चिरकालात् जातः निमेष: पक्षमपातः विच्छिा विच्छिद्य पूर्वाङ्गदर्शनस्य विच्छेदं कृत्वा कृत्वा अस्यै दमयन्त्यै बुद्धेः ज्ञानस्य धाराम् सन्ततिम Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अन्यान्याङ्गदर्शनसातत्यम् न अदास्यत न व्यतरिष्यत् / दमयन्ती नलस्य यदङ्गम् प्रथमं पश्यति स्म चिरं तदेव पश्यन्ती स्थिता भवति स्म / चिरात् जाते पक्षमपाते तदनन्तरमेव पूर्वाङ्गदर्शनधाराया: विच्छेदे जाते एव अन्यान्याङ्गदर्शनेच्छा तस्याः जायते स्मेति भावः // 9 // व्याकरण-निमेषः नि+ मिष + घन / विच्छिद्य विच्छिच आभीक्ष्ण्य में द्वित्व / बुद्धिः / बुध + क्तिन् ( भावे ) / अयास्यत्, अवास्यत् क्रियातिपत्ति में लङ / ___अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) की दृष्टि इन ( नल ) के जिस अंग को पहले देखती थी, उसी में मग्न हुई दूसरे अंग की ओर न जाती यदि देर से होने वाली पलकों की झपकन पूर्व अंग का ज्ञा। बार-बार भंग करके इस ( दमयन्ती) के लिए अन्य ( अंगों को) ज्ञान-धारी का ( अवसर ) न देती // 9 // टिप्पणी-दमयन्ती नल के अद्भुत सौन्दयं भरे अंग-अंग को देखकर मोहित हो उठती थी। उनका जो भी अंग उसकी दृष्टि में पहले आता वह उसी पर रम जाती थी और उसे अपलक देखती जाती थी। देर बाद जब आँख झपकती तब जाकर कहीं उस अंग का ज्ञान भंग होता और दृष्टि दूसरे अंग पर जाती / यदि आँख न झपकती तो वह पहले अंग में ही डूबी रहती। यही हाल अन्य अंगों के सम्बन्ध में भी समझ लीजिये, क्योंकि उनके सभी अंग एक-से-एक बढ़-चढ़कर थे। प्रत्येक पर उसकी दृष्टि लगातार गड़ी की गड़ी रह जाया करती थी। विद्याधर के अनुसार अतिशयोक्ति है, जिसका प्रयोजक यहाँ 'यदि' शब्द हैं। 'दास्य' 'दस्य', 'विच्छिद्य विच्छिद्य' में छेक, 'यास्य' दास्य में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। बद्धिधाराम्-यहां कवि न्याय और बौद्ध दर्शन की ओर संकेत कर रहा हैं। दोनों में ज्ञान को क्षणिक माना है / लगातार जो ज्ञान हमें होता रहता है, वह एक ज्ञान नहीं, बल्कि सजातीय ज्ञान-सन्तान ( बुद्धिधारा ) होता है जैसे शब्द-संतान / दृशापि सालिङ्गितमङ्गमस्य जग्राह नाग्रावगताङ्गहर्षेः। / / अङ्गान्तरेऽनन्तरमीक्षिते तु निवृत्य सस्मार न पूर्वदृष्टम् // 10 // अन्वयः-सा दृशा आलिङ्गितम् अपि अस्य अङ्गम् अग्रावगताङ्गहर्षेः न जग्राह, अनन्तरम् अङ्गान्तरे वीक्षिते तु निवृत्य पूर्वदृष्टम् न सस्मार। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः टीका-सा दमयन्ती दशा दृष्टया आलिङ्गितम् सन्निकृष्टमित्यर्थः अपि अस्य नलस्य अङ्गम् अपरम् अन्नम् अग्रे प्रथमम् अवगतम् ज्ञातम् ( स० तत्पु० ) यत् अङ्गम् अवयवः ( कर्मधा० ) तेन हर्षेः तज्जनितैः आनन्दैः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु०) न जग्राह गृहीतवती, पूर्वगृहीताङ्गेन तस्यामीदृशो विपुल आनन्दः जनितः येन अङ्गान्तरं चक्षुषा सन्निकृष्यमाणमपि सा न ददर्शेत्यर्थः / अनन्तरम् जाते निमेषे अन्यत् अङ्गम् इत्यङ्गान्तरम् तस्मिन् वीक्षिते दृष्टे तु निवृत्य परावृत्य पूर्वम् प्रथम दृष्ठम् विलोकितम् अङ्गम् न सस्मार न स्मृतवती पूर्वदृष्टाङ्गापेक्षया दृश्यमानाङ्गान्तरस्य सुन्दरतरत्वात्, अत एव तज्जनितानन्दे मग्नत्वात् // 10 // व्याकरण-अङ्गान्तरे अस्वपदविग्रही कर्मधारय 'मयूरव्यंसकादयश्च' ( 2 / 1 / 72 ) से निपाति / __अनुवाद-वह ( दमयन्ती ) आँखों का सन्निकर्ष रखे हुए भी इस (नल) के दूसरे अङ्ग का पहले देखे हुए अंग से उत्पन्न आनन्द के कारण ग्रहण नहीं कर पा रही थी, किन्तु बाद को दूसरा अङ्ग देखने पर ( फिर ) मुड़कर उसे पूर्वदृष्ट अङ्ग को याद ही नहीं रहती // 10 // . टिप्पणी-इस श्लोक में प्रायः पिछले श्लोक की बात ही कवि ने दोहरायी है। विशेषता यह है कि आँखों का दूसरे अंग से सन्निकर्ष होने पर भी उसके न ग्रहण करने से यहाँ यह दार्शनिक तथ्य बताया गया है कि केवल इन्द्रिय-सन्निकर्ष से ही प्रत्यक्ष नहीं हुआ करता है, बल्कि इन्द्रिय के साथ मनसन्निकर्ष भी अपेक्षित है। मन देखो तो मयन्ती का प्रथम दृष्ट अंग से होने वाले आनन्द में मग्न हुआ बैठा है, फिर के चक्षुसन्निकर्षं क्या करे / यह तो बही बात हुई जैसे वेदान्त में कहा जाता है 'अन्यमना अभूवम्, नापश्यम्' / यहाँ विद्याघर के अनुसार 'अत्राङ्गस्य दृगालिंगने कारणे सत्यपि तद्ग्रहणकार्य नोक्तम् / तत्र च प्रथममवलोकितावयवो हेतुरुक्तः, तेनोक्तनिमित्तविशेषोक्तिरतिशयोक्तिश्च' / 'अङ्गान्तरेऽनन्तर' में टेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / हित्वैकमस्यापघनं विशन्ती तद्दृष्टिरङ्गान्तरभुक्तिसीमाम् / चिरं चकारोभयलाभलोभात्स्वभावलोला गतमागतं च // 11 // अन्वयः-स्वभाव-लोला तद्-दृष्टिः अस्य एकम् अपघनम् हित्वा अङ्गान्तरमुक्ति-सीमाम् विशन्ती उभयलाभ-लोभात् चिरम् गतम् आगतम् च चकार / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते __टीका-स्वभावतः निसर्गतः लोला चञ्चला (10 तत्पु० ) तस्याः दमयन्त्याः दृष्टि: दृक् अस्य नलस्य एकम् अपधनम् अङ्गम् ('अङ्गं प्रतीकोऽवयवोऽ. पचनः इत्यमरः ) हित्वा त्यक्त्वा अङ्गान्तरस्य अन्याङ्गस्य भुक्ति: भोगः, अनुभव: अवलोकनमिति यावत् (10 तत्पु० ) तस्याः सीमाम् मर्यादाम् विषयत्वमिति यावत् (10 तत्पु० ) विशन्ती गच्छन्ती अन्यद् अङ्गम् पश्यन्तीत्यर्थः उभयोः पूर्वदृष्टापरदृष्टयोः अङ्गयोः यः लाभः प्राप्तिः तस्य लोभात् उत्कटाभिलाषात् गतम् गमनम् आगतम् आगमनं च चकार कृतवती। एकमङ्गं दृष्ट्वा ततोऽपरम् अङ्गं पश्यन्ती दमयन्ती द्वयोः समानरूपेण रमणीयत्वात् उभयस्मिन् पर्यायेण दृष्टि पातयति स्मेति भावः // 11 // व्याकरण-दृष्टि: दृश्यतेऽनयेति /दृश् + तिन् ( करणे ) / अपघनम् अपहन्यतेऽनेनेति अप + हन् + क्यप् ( करणे ) 'अपघनोऽङ्गम्' ( 3 / 3 / 81 ) से निपातित 'अङ्गं शरीरावयवः स चेह न सर्वः किन्तु, पाणिः पादश्चेत्याहुः' इति भट्टोजी / अङ्गान्तरम् इसके लिए पिछला श्लोक देखिये / भुक्तिः / भुज + तिन् ( भावे ) सीमाम् यास्काचार्य के अनुसार 'विषीव्यति देशो' इति वि + /सिव + मनिन् उपसगंलोप (निपातनात् साधुः ) / गतम् /गम् + क्त ( भावे ) / अनुवाद .. उस ( दमयन्ती ) की स्वभावतः चञ्चल दृष्टि इस ( नल ) के एक अंग को छोड़कर दूसरे अंग के अनुभव की सीमा में जाती हुई दोनों को प्राप्त करने के लोभ में देर तक दोनों ओर आवागमन करती रहती थी // 11 // टिप्पणी-दमयन्ती नल का एक अंग देखकर जब दूसरे अंग को देखती तो दोनों को इतना अधिक बराबर सुन्दर पाती कि बारबार कभी पहले अंग को फिर दूसरे को देखती जाती थी। किसी को भी फिर-फिर देखे बिना नहीं रह सकती थी। 'लाभ' 'लोभा' और 'गत' 'गर' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / निरीक्षितं चाङ्गमवीक्षितं च दृशा पिबन्ती रभसेन तस्य / समानमानन्दमियं दधाना विवेद भेदं न विदर्भसुभ्रूः // 12 // अन्वयः--इयम् विदर्भसुभ्रूः तस्य निरीक्षितम् अवीक्षितम् च अङ्गम् दृशा रभसेन पिबन्ती ( सती ) समानम् आनन्दम् दधाना भेदम् न विवेद / टोका- इयम् एषा विदर्भाणाम् एतदाख्यदेशविशेषस्य सुभ्रः सुन्दरी दमयन्तीत्यर्थः (10 तत्पु० ) तस्य नलस्य निरीक्षितम् नितराम् ईक्षितम् पूर्णतया Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 263 दृष्टमित्यर्थः अङ्गम् च अवीक्षितम् विशेषरूपेण न ईक्षितम् अपूर्णतया दृष्टमित्यर्थः अङ्गं च दशा नयनेन रभसेन औत्सुक्यवेगेन सोत्कण्ठमित्यर्थः पिबन्ती पानविषयी. कुर्वती सादरं पश्यन्तीति यावत् सती समानम् तुल्यम् आनन्दम् हपं दधाना धारयन्ती भेदम् अनन्तरम् न विवेद न ज्ञातवती। पूर्णदृष्टाङ्गेन यथा तस्याः आनन्दोऽभवत् तथैव ईषदृष्टाङ्गेनापि द्वयोः समानरूपेण सुन्दरत्वात् इति भावः // 12 // व्याकरण-रभसा / रम् + असुन 40 / दृशा पश्यतीति दृश् (क्विप् ) ( कर्तरि ) तृ० / आनन्दम् आ + /नन्द + घम् ( भावे ) / विवेद /विद् + लिट् / अनुवाद-यह विदर्भ देश की सुन्दरी ( दमयन्ती ) उन ( नल ) के पूरी तरह से देखे हुए अंग और पूरी तरह से न देखे हुए अंग को आँखों में पीती हुई एक-जैसा आनन्द अनुभव किए ( दोनों में ) भेद नहीं समझ पाई // 12 // टिप्पणी-वैसे तो देखा जाता है कि जो वस्तु एक बार अच्छी तरह से देख ली जाती है, उसे देखने की उत्सुकता कम हो जाती है और जो वस्तु अभी पूरी नहीं देखी जाती अधूरी ही देखी गई है, उसे देखने के लिए अधिक उत्सुकता रहती है किन्तु नल के देखे-अधदेखे अंगों में यह बात नहीं / कारण कि वे सभी एक-जैसे सुन्दर हैं, देखे हुए अंग से दमयन्ती कीदृष्टि हटती ही नहीं है / उस से उसको वैसा ही आनन्द मिलता रहता है जैसे दूसरे अङ्ग को देखने से / विद्याधर के अनुसार 'अत्रातिशयोक्तिः काव्यलिङ्गं चालङ्कारः' / 'रीक्षित' 'वीक्षितं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'वेद' 'विद' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सक्ष्मे घने नैषधशपाशे निपत्य निस्पन्दतरीभवद्भयाम् / तस्यानुबन्धं न विमोच्य गन्तुमपारि तल्लोचनखञ्जनाभ्याम् // 13 // अन्वयः-सूक्ष्मे घने नैषध-केशपाशे निपत्य निस्पन्दतरीभवद्भ्याम् तल्लोचनखञ्जनाभ्याम् तस्य अनुबन्धम् विमोच्य गन्तुम् न अपारि / टोका-सूक्ष्मे श्लक्ष्यणे तनीयसीतियावत् घने निबिडे च नैषधस्य निषधराजस्य नलस्य केशानां कचानाम् पाशः समूहः (उभयत्र 10 तत्पु० ) अथ च केश-निमितः पाश; जालम् ('पाशः कचान्ते संघार्थः पाशः पक्ष्यादि-बन्धने' इति विश्व.) तस्मिन् निपत्य विलोकनार्थं पतित्वा निः = निर्गतः स्पन्दः चेष्टा याभ्यामिति निस्पन्दी (प्रादि ब० वी० ) अतिशयेन निस्पन्दौ इति निस्पन्दतरी, अनिस्पन्दतरी निस्पन्दतरी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 नैषधीयचरिते सम्पद्यमानी भवतः इति निस्पन्दतरीभवन्ती ताभ्यां निश्चलीभवद्भयाम् एकत्र विस्मयात् अन्यत्र संसक्तत्वात् तस्याः दमयन्त्याः लोचने नयने ( 10 तत्पु० ) एव खञ्जनौ खञ्जरीटी ताभ्याम् (कर्मधा० ) तस्य केशपाशस्य अनुबन्धम् सम्बन्धम् अथ च बन्धनम् विमोच्य मोचयित्वा गन्तुम् न अपारि पदमपि चलितुम् न अशकि दमयन्त्याः नेत्रे नल-केशपाशं निनिमेषं पश्यती तत्रैव सक्ते सती अन्यत्र गन्तुं न प्राभवाताम् खञ्जनावपि केशनिर्मित-जाले पतित्वा तत्र संसक्ती पदमपि अन्यत्र गन्तुं न प्रभवतः / दमयन्ती सुन्दरे नलकेशपाशे मुग्धा जातेति भावः // 13 // व्याकरण-नेषधः निषधानामयमिति निषध + अण / अनुबन्धः अनु + Vवन्ध् + घन ( भावे ) ! विमोच्य वि + /मुच् + णिच् + ल्यप् / अपारि/पार + लुङ् ( भाववाच्य ) / ___ अनुवाद-नल के पतले और घने केशों के पाश ( सम्ह ) रूपी केशों के पाश ( जाल ) में पड़कर निश्चल हो रहे उस ( दमयन्ती) के नेत्र-रूपी खञ्जन उस ( केशपाश ) के बन्धन से ( अपने को ) छुड़ाकर जा न सके / / 13 / / टिप्पणी-दमयन्ती की आँखें नल के महीन और घने बालों में फंस गई और आगे खिसकने का नाम नहीं ले रही थीं। इस पर कवि ने रूपक-रूप में अप्रस्तुत-योजना कर रखी है। केशपाश ( बालों का समूह ) बना केशपाश ( बालों का बनाया हुआ पक्षी पकड़ने का जाल ) खञ्जन पक्षी बने दमयन्ती के दो नयन क्योंकि नयनों और खञ्जनों का परस्पर बड़ा साम्य है। अनुबन्ध सम्बन्ध को और बन्धन को भी कहते हैं। इस तरह यहाँ श्लेषानुप्राणित समस्तवस्तुविषयक रूपक है। शब्दालंकार 'भ्याम्' 'भ्याम्' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूलोकभतुर्मुखपाणिपादपद्मः परीरम्भमवाप्य तस्य / दमस्वमुर्दृष्टिसरोजराजिश्चिरं न तत्याज सबन्धुबन्धम् / / 14 / / अन्वयः-दमस्वसुः दृष्टि-सरोज-राजिः तस्य भूलोक-भर्तुः मुखपाणिपादपमैः परीरम्भम् अवाप्य सबन्धुवन्धम् चिरम् न तत्याज।। टोका-दमस्य एतदभिधेयस्य भीमपुत्रस्य स्वसुः भगिन्याः दमयन्त्याः इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) दृष्टयः एष सरोजानि इन्दीवराणि / कमंधा० ) तेषां राजिः श्रेणिः (10 तत्पु० ) तस्य भूः पृथिवी चासौ लोकः ( कर्मधा० ) तस्य Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भष्टमः सर्गः 265 भर्तुःस्वामिनः ( 10 तत्पु० ) नलस्येत्यर्थः मुखम् आननं च पाणी हस्तौ च पादौ चरणौ च तेषां समाहारः पादम् ( समाहारद्वन्द्वं) एव पदमानि कमलानि (कर्मधा० ) त:सह परीरम्भम् आश्लेषम् सम्पर्कमिति यावत् अवाप्य प्राप्य समाना: बन्धवः सबन्धव! सगोत्राः ( कर्मधा० ) तेषां बन्धम् सम्बन्धम् सजातीय स्नेहमिति यावत् चिरम् चिरकालम् न तत्याज न अभुञ्चत् / मुखादीनां दृष्टश्च कमलत्वात् सजातीयत्वम् इति तानि मिलित्वा परस्परमालिङ्गनं कृत्वा शीघ्र न मुञ्चन्तीति भावः // 14 // व्याकरण-सरोजम् सरसि जायते इति सरस् + /जन् + ड / भर्तुः भरतीति /भृ + तृच प० / परीरभ्भम् परि + /रभ् + धन, विकल्प से उपसर्ग के इ को दीघं। सबन्धुः समानः बन्धुः 'ज्योतिर्जन०' (6 / 3 / 85 ) से समान शब्द को स। अनुवाद-दमयन्ती के नयन-कमलों की पंक्ति उस भूपति ( नल ) के मुख, हाथ और पैर-रूपी कमलों का थालिङ्गन करके देर तक भाईचारा का स्नेह नहीं छोड़ रहे थे॥ 14 // टिप्पणी-दमयन्ती के नयन-कमल जब नल के मुखादि कमलों को निहारते, तो देर तक निहारते रहते थे। इस पर कवि यह कल्पना कर रहा है कि मानो दमयन्ती के नयन और नल के अङ्ग सगोती जैसे हों। सगोती जब मिलते हैं, तो परस्पर देर तक आलिङ्गन किये रहते हैं, और खूब सजातीय स्नेह व्यक्त करते हैं। दमयन्ती के नयन कमल हैं, तो इन के मुखादि भी कमल हैं। इस तरह कमलत्व जाति समान होने से वे सजातीय-सगोती-हुए। दृष्टि और मुख आदि पर कमलत्वारोप में रूपक है, जो उत्प्रेक्षा के लिए भूमि बना रहा है, विद्याधर समासोक्ति भी कह रहे हैं / 'रोजे' राजि' तथा 'बन्धु' 'बन्ध' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तत्कालमानन्दमयी भवन्ती भवत्तरानिर्वचनीयमोहा। सा मुक्कसंसारिदशारशाभ्यां द्विस्वादमुल्लासमभुङ्क्त मिष्टम् // 15 // अन्वयः - तत्कालम् आनन्दमयीभवन्ती भवत्त...मोहा सा मुक्त...भ्याम् द्विस्वादम् मिष्टम् उल्लासम् अभुङक्त / टीका–स काल: समयो यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा (व० वी० ) अथवा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 नैषधीयचरिते स चासो काल: तम् (कर्मधा०) कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया, आनन्दः एवानन्दमयी आनन्द-स्वरूपा अनानन्दमयी आनन्दमयी सम्पद्यमाना भवतीति आनन्दमयीभवन्ती अतिशयेन भवन् इति भवत्तरः जायमानोऽत्यधिकः अनिर्वचनीयः निर्वतमशक्यः मोहः भ्रमः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी०.) सा दमयन्ती मुक्तः मुक्ति प्राप्तश्च संसारी संसार-बद्धश्च (द्वन्द्व) तयोः ये दशे अवस्थाद्वयम् तयोः रसाभ्याम् प्रीतिभ्याम् ( उभयत्र ष० तपु० ) द्वौ स्वादी रसौ यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी०) मिष्टम् मधुरम् उल्लासम् हर्षम् अभुङक भुक्तवती / 'नलोऽयम्' इति बुद्ध्या दमयन्ती आनन्दातिशयम् लभते स्म, 'सुरक्षितेऽस्मिन् कन्यान्तःपुरे कुतोऽस्य सम्भवः' इति बुद्धया च मोहमेति स्मेति सा एकस्मिन्नेव काले मुक्तिदशाम्, संसार-दशां चानुभवति स्मेति भावः / / 15 / / व्याकरण-आनन्दमयी आनन्द + मयट ( स्वरूपार्थे ) + ङीप् / भवत्तर भू + शतृ + तरप ( अतिशयार्थे ) / स्वादः / स्वद् + घञ् ( भावे ) / उल्लास: उत् + लस्+घञ् ( भावे ) / अभुङ्क्त भुज+ लङ / अनुवाद-तत्काल आनन्दमयी होतो जा रही ( और ) अनिवंचनीय अत्यधिक मोह में पड़ती हुई वह ( दमयन्ती) मुक्त और संसार-बद्ध व्यक्तियों की अवस्थाओं के स्वाद से दो रसों वाले मधुर उल्लास का अनुभव कर रही थी।॥ 15 // टिप्पणी-प्रियतम को सामने देख दमयन्ती परमानन्द-रूप हो जाती थी। यही परमानन्द-रूप मुक्ति का स्वरूप कहा जाता है 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपम् / लेकिन ज्यों ही उसे खयाल आता कि 'निषधदेश से इतनी दूर नल का इस सुरक्षित अन्तःपुर में आना असंभव बात है' तो मोह में पड़ जाती थी सांसारिक भोगविलास का मायाजाल उसे घेर लेता था / शब्दान्तर में, वह मुक्ति और संसारदोनों दशाओं का एकसाथ मीठा स्वाद ले रही थी। विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है क्योंकि दोनों दशाओं का एक साथ सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है। दमयन्ती को हर्षोदय होने से भावोदयालङ्कार भी है। 'भव' 'भव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दूते नलश्रीभृति भाविभावा कलङ्किनीयं जनि मेति नूनम् / न संव्यधान्नैषधकायमायं विधिः स्वयंदूतमिमां प्रतीन्द्रम् / / 16 / / Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्ग: 260 अन्वयः-'नल-श्री-भृति दूते भावि-भावा इयम् कलङ्किनी नूनम् मा जनि" इति विधिः इमाम् प्रति नैषधकायमायम् इन्द्रम् स्वयं दूतम् न संव्यधात् / टीका-नलस्य श्रियम कान्तिम रूपमिति यावत ( 10 तत्पु० ) विर्भात धारयतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) दूते प्रेष्ये भावी भविष्यन् भावः अनुरागः (कर्मधा०) यस्याः सा (ब० बी०) इयम् दमयन्ती कलङ्कः पापम् अथ चापकीर्तिः अस्याः अस्तीति तथोक्ता नूनम् तर्के मा जनि न भवेत् इति विचार्य विधिः ब्रह्मा इमाम् दमयन्तीम् प्रति उद्दिश्य नैषधस्य नलस्य कायः शरीरम् (10 तत्पु०) इव माया वपटम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (व० वी०) धृतनलरूपमित्यर्थः इन्द्रम् मघोनम् स्वयम् आत्मना एव दूतम् प्रेष्यम् न संन्यधात् अकरोत् / इन्द्रः नलरूपं धृत्वा स्वयमेव दूतीभूतः दमयन्त्याः सविधे अगमिष्यत् चेत् तहि तस्मिन् नलभिन्ने इन्द्रे नल-वृद्धया अनुरागं कुर्वती सा पातिव्रत्य भंगपापमाश्रयिष्यदिति कृत्वा ब्रह्मा नलम् एवेन्द्रदूतं चकार, एवं सति दूतरूपो नलः सत्य एव नलः, तस्मात् तस्मिन्ननुरागे न कलङ्क:-प्रसज्यते इति भावः // 16 // व्याकरण-भृति- भृ + किप ( कर्तरि ) त० / मा जनि जन् + लुङ ( कर्तरि ) मा के योग में अडागम के अ का लोप / विधिः विदधातीति वि + Vघा + कि ( कर्तरि ) / संव्यधात् सम् + वि + /धा लुङ् / अनुवाद-'नल की शोभा-रूप -. घारण किये दत-रूप इन्द्र पर अनुरक्त हुई यह ( दमयन्ती ) सम्भवतः कलकिनी न हो बैठे'--यह सोचकर ब्रह्मा ने इस ( दमयन्ती ) के पास नल का छद्म-वेष बनाये इन्द्र को स्वयं दूत नहीं बनाया / / 16 / / टिप्पणी-- देवता लोग सर्वशक्तिमान् हआ करते हैं, वे जो चाहें, बन सकते हैं अतः यदि ब्रह्मा चाहता तो इन्द्र स्वयं ही अपनी इच्छा से नल का रूप धारण करके दमयन्ती के पास दूत रूप में जा सकता था। स्वयंवर के समय वह नलरूप धारण करके बैठा हुआ तो था / किन्तु ब्रह्मा को यह नहीं रुचा, क्योंकि ऐसी स्थिति में झूठा नल बने हुए इन्द्र को दमयन्ती असली नल समझ कर उससे अनुराग कर बैठती / इस तरह नल से भिन्न के साथ अनुराग करने पर दमयन्ती का सतीत्व खतरे में पड़ जाता और वह पापभागिनी बन जाती। इसी लिये ब्रह्मा ने नल का रूप धारण करके इन्द्र को नहीं भेजा, प्रत्युत नल को ही इन्द्र Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 नैषधीयचरिते का दूत बनाकर भेजा। इस पर यदि दमयन्ती दूत बने नल पर अनुराग कर भी ले, कोई अनुचित बात नहीं। आखिरकार दूत नल असली नल ही तो हैं। इसमें पातिव्रत्य भंग का प्रश्न ही नहीं उठता / विद्याधर और नारायण 'नूनम्' शब्द को उत्प्रेक्षा-वाचक मान रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से 'नूनं तकऽर्थनिश्चये' इस अमरकोष के अनुसार 'नूनम्' शब्द यहाँ तकं अर्थ में लिया जाये तो ठीक बैठेगा। पर-पुरुष अनुराग करने में पातिव्रत्य-भंग कोई कल्पना नहीं, तथ्य है। अस्तु, 'नलश्रीभृति' में निदर्शना है क्योंकि नल की श्री को नल ही रख सकता है, दूसरा नहीं, इसलिए असम्भवद्-वस्तुसम्बन्ध में यहाँ बिम्बप्ततिबिम्बभाव 'श्रियमिव श्रियम्' यों सादृश्य में पर्यवसित हो रहा है / ‘भाविभावा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पुण्ये मनः कस्य मुनेरपि स्यात्प्रमाणमास्ते यदघेऽपि धावत् / तच्चिन्ति चित्तं परमेश्वरस्तु भक्तस्य हृष्यत्करुणो रुणद्धि // 17 // अन्वयः-मुनेः अपि कस्य मनः पुण्ये प्रमाणम् स्यात् यत् ( तत् ) अघे अपि धावत् आस्ते ? तु हृष्यत्करुणः परमेश्वरः भक्तस्य तच्चिन्ति चित्तम् रुद्धि / ___टीका-मुनेः मननशीलस्य तपःशीलस्य यते: अपि कस्य जनस्य मनः चित्तम् पुण्ये पुण्यकर्मविषये प्रमाणम् निश्चितम् स्यात् यत् यस्मात् मनः अघे पापे परस्त्रीगमनादिपापकर्मणि धावत् शीघ्र गच्छत् आस्ते वर्तते ? कोऽपि कियानपि विद्वान् विषयविरक्तो वा किं न स्यात्, किन्तु स पुण्यकर्मणि एव प्रतिष्यते न पुनः पापकर्मणि इत्यत्र नास्ति किमपि प्रमाणम् मनसोऽधोगामित्वस्यापि संभवात् इति भावः तु किन्तु हृष्यन्ती उदयन्ती करुणा दया ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) परमेश्वरा परमात्मा भक्तस्य निजोपासकस्य तत् पापम् चिन्तयति कर्तुमिच्छतीत्यर्थः तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) चित्तम् मनः रुणद्धि निवारयति पापकरणात् रक्षतीति यावत् / येषामुपरि भगवतः कृपा भवति, ते न पापकर्मसु प्रवर्तन्ते इति भावः // 17 // व्याकरण-मुनेः यास्काचार्यानुसार 'मुनिः कस्मात्' ? 'मननात् इति मन् + इन् उत्वं निपातनात् / प्रमाणम् प्रमीयतेऽनेनेति प्रx/मा + ल्युट् ( करणे ) / तच्चिन्ति /चिन्त् + णिन् ( ताच्छील्ये ) / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 269 अनुवाद-कौन ऐसा व्यक्ति है, जिसका मन पुण्य ( करने ) के विषय में निश्चय किए बैठा हो भले ही वह मुनि भी क्यों न हो, क्योंकि मन पाप की ओर भी दौड़ा करता है ? किन्तु जिस भक्त पर भगवान् की दया होती है, उसके पाप का विचार करने वाले चित्त को वे रोक देते हैं // 17 // टिप्पणी गीता में अर्जुन ने भगवान् कृष्ण को यही बात कही थी'चञ्चलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढम्' / इस आधार पर दमयन्ती की बात दूर रही. बड़े-बड़े योगिराजों तक के मन डगमगा कर भटक जाया करते हैं / दमयन्ती को जब निश्चय हो रखा है कि इस अन्तःपुर में नल का आना कदापि संभव नहीं, तो नल-जैसे अन्य व्यक्ति पर अनुराग दिखाना क्यों पातिव्रत्य भंग न करेगा ? मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रश्न पूरा तर्क-पूर्ण है. किन्तु इसका उत्तर यह है कि दयालु भगवान् भक्तों के मन को पाप की ओर जाने से रोक देते हैं। यही उनकी भगवत्ता है. भक्ति का फल है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अन्त में यही कहा था-'अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः' / दमयन्ती के सतीत्व पर आँच न आने देने हेतु भी भगवान् अथवा ब्रह्मा ने इन्द्र के मन में यह विचार उठने ही नहीं दिया कि वह स्वयं नल रूप धारण कर उसके पास जावे / दमयन्ती पर 'हृष्यत्करुण' परमेश्वर की इच्छा ही से इन्द्र नल को अपना दूत बनाकर भेजने को विवश हुआ। विद्याधर यहाँ अर्थान्तरन्यास कह रहे हैं, किन्तु श्लोक में कही गई समर्थक बात सामान्य बात है, विशेष समर्थ्य बात कोई नहीं; अतः यदि पूर्व श्लोक का सम्बन्ध इस श्लोक से जोड़ लिया जाय, जिसमें विशेष बात कही गई है तो अर्थान्तरन्यास ठीक है, अन्यथा यह कवि की सामान्य सूक्ति है / 'मनः' 'मुने' 'रुणो' 'रुण' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सालीकदृष्टे मदनोन्मदिष्णुयथाप शालोनतमा न मौनम् / तथैव तथ्येऽपि नले न लेभे मुग्धेषु क: सत्यमृषाविवेकः // 18 // __ अन्वयः-शालीनतमा सा मदनोन्मदिष्णुः ( सती ) अलीकदृष्टे' नले यथा मौनम् न आप, तथा एव तथ्ये अपि ( नले ) मौनम् न लेभे / मुग्धेषु सत्यमृषाविवेकः कः ? Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 नैषधीयचरिते ___टोका-अतिशयेन शालीना लज्जाशीला इति शालीनतमा सा दमयन्ती मदनेन कामेन उन्मविष्णुः उन्मत्ता सती अलीकम् मिथ्या यथा स्यात्तथा दृष्टे (सुप्सुपेति स.) भ्रान्त्या दृष्टे, भ्रमात्मके इत्यर्थः नले यथा येन प्रकारेण मोनम् तूष्णींभावम् न आप न गृहीतवती, तेन वार्तालापमकरोदिति भावः तथा एव तेनैव प्रकारेण तथ्ये सत्ये अपि नले मौनम् न लेभे प्राप अर्थात् तेन सह समपलपत् / मुग्धेषु मोहं प्राप्तेषु, मदनोन्मत्तेषु जनेषु इति यावत् सत्यं च मृषा असत्यं च ( द्वन्द्व ) तयोः विवेकः विवेचनम् कः न कोऽपीति काकुः / कामार्तेषु सत्यासत्यविवेको न भवतीति भावः // 18 / / व्याकरण-शालीना शालायां ( गृहे ) प्रवेशमहतीति शाला + ख, ख को ईन ( 'शालीन-कौपीने अधृष्टकार्ययोः ( 5 / 2 / 20 ) / उन्मविष्णुः उन्माद्यतीति उत् +/मद् + इष्णूच ( करि)। मौनम् मुनेः भाव इति मुनि + अण / आप आप + लिट् / तथ्य तथा + यत् / मुग्धेषु /मुह् + क्त ( कर्तरि ) / __ अनुवाद-लज्जाशील वह ( दमयन्ती ) कामोन्मत्त हुई जिस तरह (भ्रमवश ) भूठमूठ देखे हुए नल के आगे चुप नहीं रहती थी, वैसे ही वह सचमुच के नल के आगे भी चुप नहीं रही। कामोन्मत्त लोगों को सत्य और झूठ का विवेक कहाँ ? // 18 // टिप्पणी-कामोन्माद में दमयन्ती भ्रमवश कितनी ही बार नल को यत्रतत्र सामने खड़ा देखती तो उनसे घुल-धुलकर बातें करती। सचमुच दूत रूप में सामने आये हुए उनके आगे भी वह क्यों मौन अपनाती? कामार्तों को भला लज्जा और विवेक से क्या काम ? कालिदास ने भी ऐसा-जैसा ही भाव व्यक्त किया है ....'कामार्ता हि प्रकृति-कृपणाश्चेतनाचेतनेषु' / यहाँ पहले के तीन पादों में अभिहित विशेष बात का चौथे पाद में अभिहित सामान्य बात द्वारा समर्थन किये जाने से अर्थान्तरन्यास है / 'मद' 'मदि' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। व्यर्थीभवद्भावपिधानयत्ना स्वरेण सार्थ श्लथगद्गदेन / सखीचये साध्वसबद्धवाचि स्वयं तमूचे नमदाननेन्दुः // 19 // अन्वयः--अथ व्यर्थी.. यत्ता सा सखीचये साध्वस-बद्ध-वाचि (सति) नमदाननेन्दुः ( सती ) श्लथ-गद्गदेन स्वरेण स्वयम् तम् ऊचे / टीका-अथ तदनन्तरम् अव्यर्थः व्यर्थः सम्पद्यमानो भवतीति व्यर्थीभवन् Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमः सर्गः 271 विफलतां गच्छन् भावपिधानयत्न: ( कर्मधा० ) भावस्य औत्सुक्यादेः यत् पिधानम् गोपनम् (10 तत्पु० ) तस्मिन् यत्नः प्रयासः ( स० तत्पु० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) सा दमयन्ती सखीनां चये समूहे ( 10 तत्पु० ) साध्वसेन अन्तःपुरे परपुरुषप्रवेशात् जातेन भयेन बद्धा रुद्ध त्यर्थः (तृ० तत्पु० ) बाक वाणी ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूते सति ( ब० वी० / नमन् नम्रीभवन् आननं मुखम् एव इन्दुः चन्द्रः ( कर्मधा० ) यस्याः सा ( ब० वी० ) / श्लथः मन्दः गद्गदः स्खलन् च तेन ( कर्मधा० ) स्वरेण ध्वनिना स्वयम् आत्मवा तम् आगन्तुकम् नलमित्यर्थः ऊचे जगाद / भयात् सखीषु सन्न-वाणीषु सतीषु दमयन्ती मुखं विनमय्य स्वयमेव नलमुवाचेति भावः / / 19 // व्याकरण --न्य भवद् व्यथं + चि, ईत्व/भू + शत / पिधानम् अपि + Vधा + ल्युट, विकल्प से अपि के अ का लोप / श्लथ श्लथतीति / श्लथ + अच ( कर्तरि ) / गद्गद गद् इति शब्दान् कृतिः, तेन गदतीति गद् + गद् + अच ( कर्तरि ) / ऊचे व + लिट् ( कतरि) को बच आदेश, उत्व / अनुवाद-तदनन्तर ( निज ) मनोभाव को छिपाने के प्रयत्न में असफल हुई वह ( दमयन्ती), डर के मारे सखियों की वाणी को ताला लग जाने पर, मुख-चन्द्र नीचे किये धीमे लड़खड़ाते स्वर से उन्हें कह बैठी // 19 // टिप्पणी-नल को देखते ही दमयन्ती अपने अनुराग और औत्सुक्य को दबा न सकी। उधर उसको सहेलियों को भीतर घुसा आया परपुरुष देख साँप जैसा सूघ गया। यह दमयन्ती ही हो जो साहस बटोर पूछ ही बैठी / विद्याधर के अनुसार यहाँ भावोदयालंकार है / 'भवद्भाद' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / नत्वा शिरीरत्नरुचापि पाद्य संपाद्यमाचा विदातिथिभ्यः / प्रियाक्षराली रसधारयापि वैधी विधेया मधुपर्कतृप्तिः // 20 // अन्वयः --- आचारविदा नत्वा शिरोरत्नरुचा अपि अतिथिभ्यः पाद्यम् सम्पाद्यम्, वधी मधुपर्क-तप्तिः प्रियाक्षरालीरसधारया अपि विधेया। टोका----आचारम् शिष्टाचारम् वेत्ति जानातीति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) जनेन नत्वा पादयोः पतित्वा शिरसि मूनि यत् रत्नम् मणिः चूड़ामणिरिति यावत् ( स० तत्पु० ) त य रुचा दीप्त्या (प० तत्पु० ) अपि अतिथिभ्यः प्राघुणिकेभ्यः पाद्यम् पादार्थं जलम् सम्पाद्यम् देयम्, वैषी विधिसम्बन्धिनी Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 नैषधीयचरिते मधुपर्केण मधुपर्कदानद्वारा तृप्तिः सन्तुष्टिः (तृ० तत्पु० ) प्रियाणि श्रुतिसुखावहानि मधुराणीति यावत् यानि अक्षराणि वचनानि ( कमंधा० ) तेषाम् आली पङ्क्तिः तस्याः यो रस: माधुर्यम् आनन्द इत्यर्थः तस्य धारया संतत्या ( सर्वत्र ष० तत्पु० ) अपि विधेया अनुष्ठेया। प्राधुणिकाय पादोदकम् देयम्, तदभावे प्रणामस्तु कर्तव्य एव, एवमेव तदर्थ मधुपर्क आनेयो भवति, स न स्यात् चेत् तर्हि मधुरवचनैस्तु सत्कर्तव्य एवेति भावः // 20 // व्याकरण-आचार: आ/चर + घन ( भावे ) / आचारविद् आचार + विद् + क्विप ( कर्तरि ) / पाद्यम् पादार्थम् उदकमिति पाद + यत् / वैधी विधेः इयमिति विधि + अण + डीप / सम्पाद्यम् सम् + पद् + णिच् + ण्यत् / मधुपर्कः मधू पृच्यते भित्री क्रियतेऽत्रेति मधु + पृच् + घन ( अधिकरणे)। अनुवाद-"शिष्टाचार वेत्ता को चाहिए कि वह ( पैरों में ) सिर नवाकर चूड़ामणि की ( जल की-सी स्वच्छ ) छटा तक से भी अतिथियों के लिए पादोदक दे देवे, विधि-विहित मधुपर्क द्वारा तृप्ति प्रिय वचनों की मधुर-धारा तक से भी कर दे" // 20 // पादोदक देकर मधुपर्क से सम्मानित करते हैं / दमयन्ती के पास सहसा आये हुए इस अतिथि हेतु उस समय न पादोदक है, न मधुपर्क / किन्तु सिर झुकाकर पादों में पड़ने वाली चूड़ामणि की स्वच्छ किरणों को वह पादोदक का काम करने देना चाह रही है। मधुपर्क का प्रदान भी वह मधुर वचनों के रूप में करने जा रही है। विद्याधर यहाँ कायलिंग कह रहे हैं। पाचं' 'पाय' 'पंधी' "विधि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मधुपर्क-पहले समय में अतिथि को मधुपर्क द्वारा सत्कृत किया जाता था। अब यह प्रथा विवाह करने आये हुए वर तक ही सीमित हो गई है। इसे बनाने में पाँच वस्तुओं का प्रयोग होता है'दधि सर्पिजलं क्षौद्रं सिता चैतेश्च पञ्चभिः / प्रोच्यते मधुपर्कः। अर्थात् दही, घी, जल; शहद और शक्कर / स्वात्मापि शीलेन तणं विधेयं देया विहायासनभूनिजापि / आनन्दबाष्पैरपि कल्प्यमम्मः पृच्छा विधेया मधुभिर्वचोभिः // 21 / / * अन्वया- (आचारविदा ) शीलेन स्वात्मा अपि तृणम् विधेयम्; निजा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 273 अपि आसनभूः विहाय देया, आनन्द-बाष्पैः अपि अम्भः कल्प्यम् , मधुभिः वचोभिः पृच्छा विधेया। टीका-आचारविदेति पूर्वश्लोकतोऽनुवर्तते, शीलेन सद्वृत्तेन शिष्टतापूर्णव्यवहारेणेति यावत् स्वः स्वकीयः आत्मा शरीरम् ( कर्मधा० ) ('आत्मा जीवधृतौ देहा।' इत्यमरः) तृणं घासः विधेयम् कार्यम् अतिथिसेवाएं देहः तृणवन्मत्या नियोजनीय इत्यर्थः अथवा तणं यथा नम्र भवति तथैव आत्मापि नम्रीकर्तव्य इत्यर्थः, निजा स्वीया अपि आसनस्य अवस्थानस्य भः भूमि: स्थानमित्यर्थः (10 तत्पु० ) विहाय त्यक्त्वा देया अतिथये समर्पणीया, विष्टराद्यभावे स्व. स्थानं त्यक्त्वा तत् अतिथये देयमिति भावः, आनन्दस्य अतिथेरागमनात् समुपजातस्य हर्षस्य बाष्पैः अश्रुभिः ( प० तत्पु० ) अथवा आनन्देन बाष्पः (त तत्पु० ) अपि अम्भः पाद्यम् पादप्रक्षालनार्थं जलमित्यर्थः कल्प्यम् सम्पाद्यम्, पादप्रक्षलनार्थ जलाभावे आनन्दाश्रुभिः, अपि तत्प्रयोजनमनुष्ठेयम् तदागमने हर्षों व्यक्तव्य इति यावत्, मधुभिः मधुरैः पंचोभिः वचनैः पृच्छा प्रश्नः कुशल प्रश्न इत्यर्थः विधेया कार्या, मधपकभिावे तत्स्थाने कुशल प्रश्नात्मकमधुरवचनानि प्रयोक्तव्यानीत्यर्थः / गृहागतं प्राघुणिकं प्रति सर्वेऽपि विधिविहिताः शिष्टाचारा: प्रयोगे आनेया इति भावः / / 21 // ___ व्याकरण-विधेयम् वि + Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 नषधीयचरिते लाक्षणिक है जिसका अर्थ बैठने हेतु तृणों से बना आसन अथवा लेटने हेतु चटाई है। किन्तु कवि के अनुसार तृणादि के भी अभाव में सेवार्थ आत्मार्पण कर देवे / यहाँ आत्मा पर सामानाधिकरण्येन तृणत्वारोप एवं आनन्दबाष्प पर वयधिकरण्येन पाद्यत्वारोप में रूपक है। विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं सम्भवतः इसलिए कि मधु शब्द में यहां दो विभिन्न अर्थों का अभेदाध्यवसाय है अर्थात् मधु का एक अर्थ मधुर है और दूसरा मधुपक। विधे' 'विधे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पदोपहारेऽनुपनम्रतापि संभाव्यतेऽपा त्वरयापराधः। तत्कर्तुमञ्जिलिसञ्जनेन स्वसंभृतिः प्राञ्जलतापि तावत् // 22 // अन्वयः-पदोपहारे स्वरया अपाम् अनुपनम्रता अपि अपराध: संभाव्यते तत् ( आचारविदा ) अञ्जलि-सञ्जनेन यावत् प्राञ्जलता अपि स्वसंभृतिः कर्तुम् अर्हा। टोका-पदयोः पादयोः ( 'पदं लक्ष्मांघ्रि वस्तुषु' इत्यमरः) उपहारे समपणे प्रक्षालननिमित्तमित्यर्थः त्वरया झटिति अपाम् जलस्य न उपनम्रः उपनतः प्राप्त इति यावत् ( नन तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता अप्राप्तता न आनयनमित्यर्थः अपि अपराधः मन्तु: संभाव्यते संभावनाविषयीक्रियते, लोकैः अपराधत्वेन मन्यते इति यावत्, पादप्रक्षलनार्थ झटिति जलानयनविलम्बे अपराधः संभवति इति भावः तत् स्मात् आचारविदेति पूर्वतोऽनुवर्तते अजले: सजनेन संयोजनेन (10 तत्पु० . बद्धाञ्जलिभूत्वेन्यर्थः यावत् तावत्कालम् यावद् जलं नोपनीयते प्राजलता आर्जवं सौजन्यनित्यर्थः अपि स्वा स्वकीया सभूतिः संभरणम् आतिथ्यसामग्रीत्यर्थः ( कर्मधा० ) कतुंम् विधातुम् अर्हा उचिता। यावत् आतिथ्यसामग्री नोपयाति तावत् बद्धाञ्जलिना भूत्वा आचारविदा अतिथेरने स्वसौजन्यमेव प्रकटयितुमुचितम्, अन्यथा तदभावेऽपराधो गृह्यतेति भावः // 22 / / व्याकरण - उपहार: उप + VE+घञ् ( भावे ) / उपनम्रता उप + /नम् + र + तल + टाप् / सजनेन / सञ्ज + णिच् + ल्युट ( भावे ) / संभृतिः सम् + /भृ + क्तिन् ( भावे ) / अर्हा / अहं + अच् ( कर्तरि ) + टाप् / अपवाद-(प्रक्षालन हेतु ) पैरों को अर्पण करने के लिए शीघ्र ही जल का प्राप्त न होना भी अपराध माना जा सकता है, इसलिए (आचार-वेत्ता को) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 275 यह उचित है कि वह फिल हाल हाथ जोड़कर हृदय की निष्कपटता को अपनी आतिथ्य-सामग्री का रूप देवे" // 22 // ___ टिप्पणी-अतिथि-सत्कार न करना तो अपराध है ही, लेकिन उसमें विलम्ब करना भी अपराध के अन्तर्गत आ सकता है, इसलिए जब तक पूरी आतिथ्य-सामग्री तय्यार नहीं होजाती तब तक गृहस्थी को अतिथि के आगे हाथ जोड़ विनम्रतापूर्वक सौजन्य भाव दिखाते रहना चाहिए। यही उसकी अपने अतिथि के लिए प्राथमिक आतिथ्य सामग्री है। विद्याधर के शब्दों में 'अत्र काव्यलिङ्गमलंकारः' / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पुरा परित्यज्य मयात्यजि स्वमासनं तत्किमिति क्षणं न। अनहमप्येतदलं क्रियेत प्रयातुमोहा यदि चान्यतोऽपि // 23 // अन्वयः-मया पुरा स्वम् आसनम् परित्यज्य अत्यसजि तत् अनहम् अपि एतत् क्षणम् किमिति न अलंक्रियेत यदि च अन्यतः अपि प्रयातुम् ईहा (अस्ति) ? नार्थस्थानम् परित्यज्य विहाय अत्यजि भवते दत्तमस्ति, तत् तस्मात् अनहम् अयोग्यम् अपि एतत् आसनम् क्षणम् (कालात्यन्तसंयोगे द्वि०) किमिति कस्मात् न अलंक्रियेत अधिष्ठीयेत इत्यर्थं महामहिमशालिनो भवतः कृते काममिदं मदासनम् नोचितम्, तथापि मुहूर्तमत्र स्थीयतामिति भावः, यदि चेत् च अन्यतः अन्यत्र अपि प्रयातुम् गन्तुम् ईहा इच्छा अस्ति // 23 // व्याकरण-आसनम् इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिए। अत्यजि अति + सृज + लुङ ( कर्मवाच्य ) / अनहम् अर्हतीति /अर्ह + अच ( कर्तरि ) न अहम् इत्यनहम् ( नञ् तत्पु० ) अन्यल: अन्य + तस् ( सप्तम्यर्थ ) ईहा-ईह + अ + टाप् / अनवाद-"मैंने पहले ही अपना आसन ( आपके लिए ) दे दिया है अतः यदि अन्यत्र भी कहीं जाने की इच्छा हो, तो भी क्षण भर के लिए इसे क्यों न शोभित किया जाय भले ही यह आपके योग्य न हो ?" // 23 // टिपणी-दमयन्ती आगन्तुक को महामहिमशाली समझती हई अपना स्थान उसकी महिमा के योग्य नहीं समझ रही है। वह यह भी नहीं समझ रही है कि यह व्यक्ति उसी के पास आया है, क्योंकि वह अपना भाग्य इतना ऊँचो Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.6 नैषधीयचरिते नहीं देखती। फिर भी शिष्टाचार का पालन करती हई अतिथि को आसन देकर क्षण भर बैठने का अनुरोध कर ही रही है। विद्याधर यहां विभावना कह रहे हैं, जो समझ में नहीं आती है 'पुरा' 'परि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। निवेद्यतां हन्त समापयन्तो शिरीषकोषम्रदिमाभिमानम्। पादौ कियद्रमिमो प्रयासे निधित्सते तुच्छदयं मनस्ते // 24 // अन्वयः-"तुच्छदयम् ते मनः शिरीष....नम् समापयन्ती इमी पादौ कियद्दूरम् प्रयासे निधित्सते ?" हन्त ! निवेद्यताम् / टोका-"( हे श्रेष्ठपुरुष ! ) तुच्छा रिक्ता क्या कृपा ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् निर्दयम् निष्ठरमिति यावत् (शून्यं तु वशिकं तुच्छ-रिक्तके' इत्यमरः) ते तव मनः चित्तम् शिरीषाणाम् एतदाख्यपुष्पविशेषाणम् कोषः समूहः तस्य य: नदिमा मार्दवं ( उभयत्र 10 तत्पु० ) तस्मिन् अभिमानम् गर्वम् ( स० तत्पु०) समापयन्तो निराकुवंन्ती इमौ एतो ते पादौ चरणी कियत कियत्परिमाणं दूरम् विप्रकर्षः यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० वो० ) प्रयासे क्लेशे निधित्सते निधातुमिच्छसि ?" हन्त ! इत्यनुकम्पायाम् निवेखताम् विज्ञाप्यताम् / निष्ठरो भवान् निजकोमलचरणी कियदूरगमनेन क्लेशे पातयसीति भावः // 24 // ___ व्याकरण-प्रविमा मृदोः भावः इति मृदु + इमनिच्,ऋ को र / अभिमाना अभि + /मन् + घन ( भावे ) / प्रयास प्र + यस् + घन ( भावे ) निषित्सते नि+/धा + सन् + लट्, आ को इ, अभ्यास का लोप / श्लोक-गत सारा वाक्य 'निवेद्यताम्' क्रिया का कर्म बना हुआ है। अनुवाद--"( हे श्रेष्ठ पुरुष | ) खेद है कि तुम्हारा कठोर मन शिरीष के पुष्प-समूह की कोमलता-विषयक अभिमान चूर कर देने वाले तुम्हारे इन चरणों को कितने दूर ( जाने ) के कष्ट में डालना चाहता है।" कहिये // 24 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि यहीं तक आकर तुम थक गये हो, अब यहाँ से आगे कहाँ जाओगे? बहुत थक जाओगे। यहीं विश्राम करो। शिरीष के गर्व को मिटा देने में हम उपमा कहेंगे, क्योकि दण्डी ने ऐसेऐसे प्रयोगों को जैसा हम पीछे बता आये हैं--सादृश्यपर्यवसायी मान रखा है। विद्याधर उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जो समझ में नहीं आ रही है। वे 'हन्त' 'यन्ती' में न, त वर्णों की आवृत्ति में छेक कह रहे हैं, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 277 अनायि देश: कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुकस्य दशां वनस्य / त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्रव्यापि नानेन जनेन संज्ञा // 25 // अन्वयः-त्वया अद्य कतमः देशः वसन्त-मुक्तस्य वनस्य दशाम् अनायि ? त्वदाप्त-संकेततया कृतार्था संज्ञा अपि अनेन जनेन न श्रव्या ( किम् ) ? टीका- त्वया अतिथिना अद्य अस्मिन् दिने कतमः बहूनां मध्ये कः एकः देशः वसन्तेन सुरभिणा मुक्तस्य परित्यक्तस्य ( तृ० तत्पु० ) वनस्य काननस्य दशाम् अवस्थाम् भनायि प्रापि ? कस्माद् देशात् आगतोऽसीत्यर्थः ? त्वयि आप्तः प्राप्तः ( स० तत्पु० ) संकेतः वाच्य-वाचकभावसम्बन्धः ( कर्मधा० ) यया तथाभूतायाः (ब० वी० ) भावः तत्ता तया त्वयि संकेतादित्यर्थः कृतः अर्थः प्रयोजनं यया तथाभूताया ( ब० वी० ) संहा नाम अपि अनेन जनेन मया दमयन्त्या इत्यर्थः न धन्या न श्रोतुं योग्या किम् ? स्वनामापि प्रोच्यतामित्यर्थः // 25 // व्याकरण-अद्य अस्मिन् अहनि इति इदम् + द्य, इदम् को अ। किन्तु यास्काचार्य अद्य शब्द को 'अस्मिन् द्यवि' में अस्मिन् का आद्य अक्षर अ और द्यवि का आद्य अक्षर द्य लेकर दो शब्दों का संक्षिप्त रूप ( Short form ) मानते हैं / कतमः किम् + डतमच / अनायि /नी + णिच् + लुङ् (कर्मवाच्य)। संज्ञा सम् + /ज्ञा + अ + टाप् / भन्या श्रोतुं योग्या इति श्रु + यत् + टाप् / __ अनुवाद-"तुमने आज कौन-सा देश वसन्त से रहित हुए वन की अवस्था को पहुंचाया है ? तुम पर संकेत होने से कृतार्थ हुई संज्ञा इस जन के सुनने योग्य नहीं है ( क्या )?" / / 25 // टिप्पणो—संकेतः यह साहित्य का एक पारिभाषिक शब्द है। न्यायशास्त्र में इसे 'समय' अथवा 'शक्तिग्रह' कहा गया है। लोकव्यवहार हेतु पदार्थों का नामकरण आवश्यक होता है, इसलिए पद और पदार्थ का 'अस्मात् पदात् अयमर्थो बोद्धव्यः' इस तरह अभिधानाभिधेयभाव अथवा वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है। इसे 'संकेत' कहते हैं। दमयन्ती 'तुम्हारा क्या नाम है, यों सीधा न पूछकर इस तरह पूछ रही है कि वह कौनसा संज्ञाशब्द है, जिसके तुम वाच्य हो' ? यहाँ वसन्त-मुक्त वन की दशा वन में ही रह सकती है, देश में नहीं इसलिए असंभवद्-वस्तु सम्बन्ध में यहाँ बिम्बप्रतिबिम्बभाव है अर्थात् तुमसे विरहित देश की दशा वैसी है, जैसे वसन्त से विरहित वन Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते की। इस तरह निदर्शनालंकार है। 'नेन' 'नेन' में यमक, 'कत' 'केत' 'कृता' में एक से अधिक वार वर्ण-साम्य में अन्यत्र की तरह वृत्त्यनुप्रास ही है। तीर्णः किमोनिधिरेव नैष सुरक्षितेऽभूदिह यत्प्रवेशः। फलं किमेतस्य तु साहसस्य न तावदद्यापि विनिश्चनोमि // 26 // अन्वयः-(हे श्रेष्ठपुरुष ! ) सुरक्षिते इह प्रवेशः अभूत् यत् एष अर्णोनिधि: एव किं न तीर्णः ? तु एतस्य साहसस्य किं फलम्, अद्य अपि तावत् न विनिश्चित नोमि / टीका-( हे श्रेष्ठपुरुष ! ) सु = सुष्ठ रक्षिते गुप्ते नितरां दुष्प्रवेशे इत्यर्थः इह अस्मिन् कन्यान्तःषुरे ते प्रवेशः आगमनम् अभूत् जातः यत् एषः प्रवेशः अर्णोनिधिः समुद्रः एव किन तीर्णः बाहुभ्यां न लंधितः? अपितु तीर्ण इति काकुः तवेह मदन्तःपुरप्रवेशः समुद्रतरणसदृशः इत्यर्थः / तु किन्तु एतस्य अस्य साहसस्य साहसिकचेष्टितस्य असमीक्ष्यकारित्वस्येति यावत् किम् फलम् प्रयोजनम् / अद्यापि इदानीमपि न निश्चिनोमि नावधारयामि / त्वम् किमर्थमअत्रागतोऽसीति कथ्यतामिति भावः // 26 // व्याकरण-अर्णोनिधिः अर्णासि ( जलानि ) निधीयन्तेऽत्रेति अर्णस् + नि + Vधा + किं ( अधिकरणे ) / तीर्णः तृ + क्त, त को न, न को ण, ऋ को इर् / साहसम् सहसा ( बलेन ) निर्वृत्तमिति सहस् + अण् / अद्य इसके लिए पीछे श्लोक 25 देखिए। ___अनुवाद-"(हे नरश्रेष्ठ ! ) इस सुरक्षित स्थान में तुम्हारा जो प्रवेश हुआ है-यह तुमने समुद्र ही नहीं लाँघा है क्या ? किन्तु ( तुम्हारे ) इस साहस का प्रयोजन क्या है--यह मैं अब तक भी निश्चय नहीं कर पा रही हूँ' // 26 // टिप्पणी-यहाँ अन्तःपुर में नल के प्रवेश को समुद्र पार करना बताया गया है, लेकिन अन्तःपुर में प्रवेश करना और बात है और समुद्र पार करना और बात है। दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? यह बिलकुल असम्भव बात है, इसलिए पिछले श्लोक की तरह यहाँ भी असम्भवद्-वस्तु सम्बन्ध में बिम्बप्रतिबिम्बभाव है, जिसका मतलब प्रणिधान गम्य सादृश्य होता है अर्थात् अन्तःपुरप्रवेश समुद्रलंघन जैसा कठिन कार्य है / इस प्रकार निदर्शना है, किन्तु यहाँ वह वाक्यगत है। विद्याधर काव्यलिङ्ग भी मान रहे हैं। 'तीर्ण' 'मों' में र और ण का सकृत् साम्य होने से छेक, 'तस्य' 'सस्य' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः तव प्रवेशे सुकृतानि हेतुर्मन्ये मदक्ष्णोरपि तावदत्र। न लक्षितो रक्षिभटैर्यदाभ्यां पीतोऽसि तन्वा जितपुष्पधन्वा // 27 // अन्वयः-तव अत्र प्रवेशे मदक्ष्णोः सुकृतानि अपि तावत् हेतुः ( इति ) मन्ये यत् रक्षिभटैः त्वम् न लक्षितः ( तथा ) तन्वा जितपुष्पधन्वा ( त्वम् ) यत् आभ्याम् पीतः असि / ___टीका-तव अत्र अस्मिन् अन्तःपुरे प्रवेशे आगमने मम अक्ष्णो: नयनयोः (प० तत्पु० ) सुकृतानि पूर्व-जन्मकृतपुण्यानि अपि तावत आदी हेतुः कारणम् इत्यहं मन्ये वेनि; यत् यस्मात् रक्षिण: रक्षकाश्च ते भटा: सैनिकाः तै: (कर्मधा०) त्वच न लक्षितः दृष्टः मदक्ष्णोः प्रथमं सुकृतमिदमेवास्ति; तथा तन्वा शरीरेण शरीरलावण्येनेत्यर्थः जितः पराभूतः पुष्पधन्वा कामः येन तथाभूतः ( ब० वी) पुष्पं धनुः यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) त्वम् यत् आभ्याम् नयनाभ्याम् पीत: सादरं दृष्टः, रक्षकसैनिकैः त्वं न दृष्टः, मन्नयनाभ्यां च दृष्टः इति तावत् मम नयनयोरेव पुण्यमस्तीति भावः // 27 // व्याकरण-अक्ष्णोः अश्नुते ( व्याप्नोति ) विषयानिति / अश् + क्सि / सुकृतानि सु + /कृ + क्त ( भावे ) / पुष्पधन्वा ब० वी० में धनुष के अन्त को अनङ आदेश ( 'धनुषश्च' 5 / 4 / 132 ) / ___ अनुवाद- “यहाँ तुम्हारे प्रवेश में पहले मेरी आँखों के पुण्य भी कारण हैं जो रक्षक सैनिकों ने तुम्हें नहीं देखा ( ता ) शरीर ( के सौन्दर्य ) से कामदेव को जीते हुए तुम्हारे इन आँखों ने दर्शन किये हैं" // 27 // झोंक कर यहाँ आये हुए तुमने जो मुझे दर्शन दिये हैं यह सब पूर्व जन्म में किये गये मेरी आँखों के पुण्यों का फल है। जितपुष्पधन्वा में उपमा है, क्योंकि साहित्य-शास्त्री दण्डी ने जीतने आदि प्रयोगों को सादृश्य वाचक मान रखा है। काव्यलिङ्ग स्पष्ट ही है किन्तु विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं, जो हम समझ नहीं पाते। 'तन्वा' 'धन्वा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यथाकृतिः काचन ते यथा वा दौवारिकान्धङ्करणी च शक्तिः / रुच्यो रुचीभिजितकाञ्चनीभिस्तथासि पीयूषभुजां सनाभिः // 28 // Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 मैषधीयचरिते अन्वयः-यथा ते आकृतिः काचन, यथा वा दौवारिकान्धङ्करणी शक्तिः ( काचन ), ( यथा वा ) जितकाञ्चनीभिः रुचीभिः' रुच्यः च ( असि ), तथा ( त्वम् ) पीयूषभुजाम् सनाभिः असि / / ____टीका-यथा येन प्रकारेण ते तव आकृतिः आकारः काचन कापि विलक्षणा लोकातिशायिलावण्यपूर्णेति यावत् अस्ति, यथा वा दौवारिकाणाम् द्वारपालानाम् अन्धङ्करणी अन्धत्वापादिनी (10 तत्पु० ) शक्तिः सामर्थ्यम् काचन अस्ति, ( यथा वा ) जिता स्ववर्णेन पराभूता काञ्चनी हरिद्रा ( कर्मधा० ) ( 'निशाख्या काञ्चनी पीता हरिद्रा वरवणिनी' इत्यमरः ) याभिः तथाभूताभिः (ब० वी०) रुचीभिः दीप्तिभिः रच्य: अभिलषणीयः च असि, तथा तेन प्रकारेण त्वम् पीयूषम् अमृतम् भुञ्जते इति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु० ) देवानामित्यर्थः ( 'समा अमृतान्धसः' इत्यमरः ) नाभिः मूलम्, साजात्यम् सगोत्रत्वमिति यावत् तेन सह वर्तमानः ( ब० वी० ) असि विद्यसे त्वं देवत्वजातीयोऽसीति भावः // 28 // व्याकरण-आकृति: आ + कृ + क्तिन् / दौवारिकः द्वारे नियुक्त इति द्वार + ठक् , ऐच आगम ( 'द्वारादीनां च' 7 / 3 / 4 ) अन्धङ्करणो अनन्धम् अन्धं करोतीति अन्ध + /कृ + ख्युन् ( अभूततद्भावे ) मुमागम + ङीप् / रुचीभिः रुच् + कि, विकल्प से दीर्घ / रुच्यः रुचिमहतीति रुचि + यत् ( सहार्थे ) / * भुजाम् भुज् + क्विप् ( कर्तरि ) प० / सनाभिः समानो नाभिः यस्य सः (ब० वी० समान को स)। अनुवाद-"जैसे तुम्हारी आकृति कुछ विलक्षण ( ही ) है, जैसे द्वारपालों को अन्धा बना देने वाली तुम्हारी शक्ति कुछ विलक्षण ( ही ) है तथा हल्दी को मात किये हुए कान्ति से जैसे तुम रुचिकर हो, वैसे तुम अमृतभोजियों ( दे ताओं) के सजातीय ( लगते ) हो" // 28 // टिप्पणी-नल में मानुषातीत बातें देखकर दमयन्ती उन्हें कोई दिव्य पुरुष समझ बैठती है / कारण बता देने से काव्यलिंग है / 'रुच्यो' 'रुची' तथा 'नीभि' 'नाभिः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / न मन्मथस्त्वं स हि नास्तिमतिर्न चाश्विनेयः स हि नाद्वितीयः। . चिह्नः किमन्यैरथवा तवेयं श्रोरेव ताभ्यामधिको विशेषः // 29 // अन्वयः-त्वम् मम्मथः न ( असि ), हि स नास्तिमूर्तिः ( अस्ति ); Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भष्टमः सर्गः 281 ( त्वम् ) आश्विनेयः न ( असि ), हि सः अद्वितीयः न ( अस्ति ), अथवा अन्यः चिह्नः किम् ? तव इयम् श्रीः एव ताभ्याम् अधिकः विशेषः ( अस्ति ) / ____टीफा-त्वम् मन्मथः कामदेवः न असि, हि यतः सः अस्ति मर्तिः शरीरं यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) न अस्तिमूर्तिः इत्य० ( नञ् तत्पु० ) अशरीरी अस्ति, त्वम् आश्विनेयः अश्विन्या। अप्सरोविशेषस्य अपत्यं पुमान्, अश्विनीकुमार इति यावत् न असि, हि यतः स न द्वितीयो यस्य तथाभूतः ( नञ् ब० बी० ) एकाकी च, सदैव सद्वितीय इति यावत् अस्ति, अथवा अन्यैः इतरै: चिह्न : अभि. ज्ञानैः, किम् न किमपीति काकु!, तव इयम् एषा श्रीः सौन्दर्यच्छटा एव ताभ्याम् मन्मथाश्विनेयाभ्यां सकाशात् तदपेक्षयेत्यर्थः अधिक: विशेष: भेदकोऽसाधारणधर्म: अस्ति / त्वं मन्मथात् अश्विनीकुमाराभ्यामपि च अधिकसुन्दरोऽसीति भावः / / 29 / / व्याकरण-मन्मथ: मथ्नातीति /मथ + अच ( कर्तरि ) मनसः मथ इति ( पृषोदरादित्वात् साधुः ) / भस्तिमूतिः ‘अस्तिक्षीरादिवचनम्' से ब० वी० / आश्विनेयः अश्विनी + ढक ( अपत्यार्थे ) / द्वितीयः द्वयोः पूरणः इति द्वि+ तीय / अनुवाद-"तुम कामदेव नहीं हो, क्योंकि वह अनङ्ग-शरीररहित है, तुम अश्विनीकुमार ( भी) नहीं हो, क्योंकि वह अकेला नहीं होता, अथवा अधिक चिह्नों से क्या ? तुममें यह सौन्दर्यच्छटा ही उन ( अश्विनीकुमारों ) से तुम्हारा बड़ा भारी भेदक धर्म है" / / 29 / / टिप्पणी- यहां आगन्तुक पर दमयन्ती को मन्मथ और अश्विनीकुमार का संशय हो रहा है, साथ ही बीच-बीच में निश्चय भी हो रहा है कि यह मन्मथ भी नहीं है, और अश्विनीकुमार भी नहीं है, इसलिए यह निश्चय-गर्भ सन्देहालंकार है / ‘स हि' ‘स हि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आलोकतृप्तोकृतलोक ! यस्त्वामसूत पीयूषमयूखमेनम् / कः स्पधितुं धावति साधु सार्धमुदन्वता नन्वयमन्ववायः // 30 // अन्वयः-हे आलो..'लोक ! यः अन्ववायः एवम् त्वाम् पीयूषमयूखम् असूत, ( अतएव ) उदन्वता सार्धम् साधु स्पर्धितुम् धावति, ननु अयम् कः ? टीका-आलोकेन दर्शनेन अथ च उद्योतेन प्रकाशेनेति यावत् ( 'आलोको दर्शनोद्योतो' इत्यमरः ) अतृप्त: तृप्तः सम्पद्यमानः कृत इति तृप्तीकृतः तृप्ति नीतः Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 नैषधीयचरिते (तृ० तत्पु० ) लोकः जनः अथ संसारः ( कर्मधा० ) ( 'लोकस्तु भुवने जने' इत्यमरः) येन तत्सम्बुद्धी ( ब० वी० ) यः अन्ववाय: वंशः एनम् प्रत्यक्षदृश्यम् त्वाम् एव पीयूषम् अमृतम् मयूखेषु यस्य तथाभूतम् अमृतांशुम् चन्द्रमिति यावत् (ब० वी० ) असूत जनितवान् अतएव उदन्वता समुद्रेण सार्धम् सह साधु सम्यक् यथा स्यात्तया स्पधितुम् स्पर्धा कर्तुम् धावति शीघ्र गच्छति झटिति बुद्धौ समुद्रण सह साम्यमापादयतीत्यर्थ: ननु सम्बोधने अयम् एषः अन्ववायः कः अस्तीति शेषः त्वम् कस्मिन् वंशे जन्म गृहीतवानिति भावः / / 30 // व्याकरण-अन्ववाय: अनु + अव+ अ + घन्। तृप्तीकृत तृप्त + च्वि, ईत्व कृ + क्त ( कर्मणि ) / असूत/सु + लङ् / उइन्वता-उदकान्यस्मिन् सन्तीति उदक+ मतुप उदक शब्द को उदन् निपातित ( 'उदन्वानुदधौ च' 8 / 2 / 13 ) / अनुवाद-“हे आलोक ( दर्शन, प्रकाश ) से लोक ( लोगों, जगत् ) को तृप्त कर देने वाले / जिस कुल ने तुम्हें चन्द्ररूप में जन्म दिया है, ( अत एव) जो समुद्र के साथ पूरी स्पर्धा करने जा रहा है, वह यह ( कुल ) कौन है ?" // 30 // टिप्पणी - यहाँ कवि दमयन्ती के माध्यम से नल को पूछ रहा है कि तुम किस कुल के चाँद हो ? नल में और चाँद में वह साम्य बता रहा है। दोनों अपने आलोक से लोक को तृप्त कर देते हैं। नल-पक्ष में आलोक का अर्थ दर्शन और चन्द्र पक्ष में प्रकाश है। इसी तरह नल-पक्ष में लोक का अर्थ होता है लोग और चन्द्र पक्ष में संसार / यह शाब्द सादृश्य हुआ, लेकिन 'तृप्तीकृत' में आर्थ सादृश्य भी है। अतः यह श्लेष है। नल पर चन्द्रत्वारोप में रूपक है और स्पर्धा करने को सादृश्य-वाचक बताया है / 'लोक' 'लोक' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूयोऽपि बाला नलसुन्दरं तं मत्वामरं रक्षिजनाक्षिबन्धात् / आतिथ्यचाटून्यपदिश्य तत्स्थां श्रियं प्रियस्यास्तुत वस्तुतः सा // 31 / अन्वयः-सा बाला तम् रक्षिजनाक्षिबन्धात् नल-सुन्दरम् अमरम् मत्वा आतिथ्य-चाटूनि अपदिश्य तत्स्थाम् प्रियस्य श्रियम् वस्तुतः भूयः अपि अस्तुत / टोका-सा बाला तरुणी दमयन्ती तम् आंगन्तुकम् रक्षिण: रक्षकाश्च ते Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 283 जनाः पुरुषाः भटा इत्यर्थः ( कर्मधा० ) तेषाम् अषणाम् नयनानाम् बन्धात् बन्धनात् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) नलवत् सुन्दरम् ( उपमान तत्पु०) मत्वा बुद्ध्वा. आतिथ्यस्य अतिथिसत्कारसम्बन्धीनि चाटूनि प्रियमधुरवचनानि (10 तत्पु० ) अपदिश्य व्याजीकृत्य चाटुव्याजेनेत्यर्थः तस्मिन् आगन्तुकपुरुषे तिष्ठतीति तथोक्ताम् ( उपपद तत्पु० ) प्रियस्य नलस्य श्रियम् शोभाम् वस्तुत: तत्त्वतः भूयः अपि पुनरपि अस्तुत अस्तीत् / दमयन्ती नलवत्सुन्दरे आगन्तुके आतिथ्य-व्याजेन वस्तुतः नलस्यैव गुणान् अवर्णयदिति भावः // 31 // व्याकरण-आतिथ्येन अतिथये इदमिति अतिथि + ञ्यः ( 'अतिथेञ्यंः' 5 / 426) अमरम् म्रियते इति मृ + अच् ( कर्तरि ) न मरः इत्यमरः / तत्स्थाम् तत् + /स्था + कः + टाप् / अस्तुत/स्तु + लङ् ( आत्मने० ) / अनुवाद-वह बाला ( दमयन्ती ) उस ( आगन्तुक ) को रक्षा-पुरुषों की आँखों में धूल झोंकने के कारण नल जैसा समझकर अतिथि-सत्कार का बहाना करके वस्तुतः उसमें स्थित प्रियतम ( नल ) की शोभा को फिर से वर्णन कर बैठी // 31 // टिप्पणी-दमयन्ती अतिथि-सत्कार के रूप में आगन्तुक के लिए प्रियमधुर वचनों का प्रयोग जो कर रही थी, वह तो अतिथि सत्कार का बहानामात्र था। तत्त्वतः वह आगन्तुक को लक्ष्य करके अपने प्रियतम का ही गुणगान करने लगी। 'नल-सुन्दरम्' में उपमा हैं। विद्याधर 'तम्, अमरं मत्वा' में रूपक मान रहे हैं / 'रक्षि' 'नाक्षि', 'स्तुत' 'स्तुतः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। वाग्जन्मवैफल्यमसह्यशल्यं गुणाद्भुते वस्तुनि मौनिता चेत् / खलत्वमल्पीयसि जल्पितेऽपि तदस्तु बन्दिभ्रमभूमितैव // 32 // अन्वयः-गुणाद्भुत वस्तुनि मौनिता चेत्, तर्हि वाग्जन्म-वैफल्यम् असह्यशल्यम् ( भवति ) अल्पीयसि जल्पिते तु खलत्वम् ( भवति ) तत् वन्दिभ्रमभूमिता एव अस्तु / टोका-गुणैः सौन्दर्यादिधर्मः अद्भुते आश्चर्यभूते वस्तुनि पदार्थे मोनिता तूष्णीभावः चेत्, यदि अद्भुतगुणवतः स्तुतियोग्यस्य पुरुषस्य पदार्थस्य वा गुणाः न वर्ण्यन्ते इति भावः, तर्हि वाचः वाण्याः जन्म उत्पत्तिः तस्या वैफल्यम् वैयर्थ्यम् (ष०तत्पू०) असह्यम् सोढुमशक्यम् शल्यम् कंटकम् भवतीति शेषः गुणिनो गुणावर्णनं शल्यवत Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 281 नैषधीयचरिते पीडाकरं भवतीत्यर्थ', अल्पीयसि अत्यल्पे जल्पिते कथने वर्णने इति यावत् तु खलत्वम् दुर्जनत्वम् भवति अर्थात् बहुगुणवतः पूर्णतया गुणावर्णने लोके पुरुषः खल इत्युच्यते, तत् तस्मात् कारणात् बन्दिनः स्तुतिपाठकस्य यो भ्रमः भ्रान्तिः (ष० तत्पु० ) तस्य भूमेर्भावः भूमिता स्थानता एव अस्तु भवतु / गुणाद्भुतस्य विस्तरेण गुणवर्णने यदि कश्चित् स्तुतिपाठकस्य भ्रमं करोति अर्थात् एष स्तुतिपाठक इति बुद्धि करोति तहि करोतु नाम, किन्तु विस्तृतगुणवतो वर्णनेन विस्तरशः भवितव्यमेवेति भावः // 32 / व्याकरण---अद्भुते इसके लिए पीछे श्लोक 1 देखिए। मोनिता मुनेर्भावः मौनम् इति मुनि + अण् , मौनमस्मिन् अस्तीति मौन + इन् ( मतुबर्थ ) मोनिनो भाव इति मौनिन् + तल् + टाप् / जन्म /जन् + मनिन् / वैफल्यम् विफलस्य भाव इति विफल + ष्यन् / अल्पीयसि अतिशयेन अल्पम् इति अल्प + ईयसुन् / जल्पिते / जल्प् + क्त ( भावे ) / अनुवाद-"अद्भुत गुण वाली वस्तु के विषय में यदि चुप्पी साध ली जाय, तो यह वाणी के जन्म की विफलता है जो एक असह्य शल्य है, किन्तु यदि बहुत ही कम कहा जाय, तो यह नीचता है, इसलिए ( विस्तार से गुणवर्णन में यदि ) लोगों के स्तुति-पाठक-भाट के भ्रम का पात्र होना पड़े, तो होने दो" // 32 // टिप्पणी-यदि इस श्लोक को कवि की उक्ति कहा जाय, तो यह बड़ी अच्छी सूक्ति है, जो एक सार्वजनीन तथ्य का प्रतिपादन कर रही है। मानवता के नाते अद्भुत गुणों वाले व्यक्ति अथवा वस्तु की हमें अवश्य खुलकर प्रशंसा करनी चाहिए। उसके सम्बन्ध में चुप रह जाने में वाणी की कोई प्रयोजनीयता नहीं रहती। फिर तो वह ब्रह्मा ने वेकार ही बनाई समझो। यदि मुख से वाणी खोली और गुणों के सम्बन्ध में जितना कहना चाहिए, उतना न कहकर बहुत कम शब्द कहें, तो यह भी नीचता समझो। यह काम दुर्जनों का होता है जैसे कहा भी है—'गुणपरिचितामार्यां वाणी न जल्पति दुर्जनः'। इसलिए गुणों की प्रशंसा मुक्त-कंठ से होनी चाहिए। इस पर यदि लोग हमें भ्रमवश भाट कहें, भूठे प्रशंसक झोलीचुक अथवा 'चमचा' कहें, तो हमें इसकी कोई पर्वाह नहीं करनी चाहिए। इसीलिए कवि पीछे कितनी ही बार नल के गुणों का वर्णन Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 285 करके भी दमयन्ती के माध्यम से फिर उनका वर्णन करने लगा है। इसे हम दमयन्ती की उक्ति भी मान सकते हैं कि भले ही लोग मुझे कुछ भी कहें लेकिन 'गुणाद्भुत' के स्तुति-गान से मैं नहीं अघाती, करती ही रहूंगी। विद्याधर यहाँ काव्यलिंग कह रहे हैं। हमारे विचार से पिछले श्लोक को यदि विशेष-परक माना जाय, तो इसे सामान्य-परक-रूप में लेकर इसके द्वारा विशेष का समर्थन होने से यहाँ अर्थान्तरन्यास बन सकता है। वाग्जन्मवैफल्य पर शल्यत्वारोप में रूपक है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। कंदपं एवेदमविन्दत त्वां पुण्येन मन्ये पुनरन्यजन्म / चण्डीशचण्डाक्षिहुताशकुण्डे जुहाव यन्मन्दिरमिन्द्रियाणाम् / / 33 // अन्वयः-कन्दर्पः एव पुण्येन त्वाम् एव इदम् पुनः अन्यजन्म अविन्दत ( इति ) मन्ये यत् ( सः ) चण्डी...कुण्डे इन्द्रियाणाम् मन्दिरम् जुहाव / टीका-कन्दर्पः कामः एव पुण्येन पूर्वजन्मकृत-सुकृतेन सुकृतस्य फलरूपेणेत्यर्थः त्वाम् त्वद्रूपम् एव इदम् दृश्यमानम् पुनः अन्यत् जन्म पुनर्जन्मेत्यर्थः अविन्दत प्राप्तवान् कामदेवः पुण्यवशात् अस्मिन् जन्मनि त्वद्रूपे पुनरवतीर्ण इत्यर्थः, यत् यस्मात् स कन्दर्पः चण्डी पार्वती तस्याः ईश: स्वामी महादेव इत्यर्थः तस्य यः चण्डाक्षिहुताशः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) चण्डम् क्रूरम् अक्षि नेत्रम् एव हुताश: वह्निः ( उभयत्र कर्मधा० ) तस्य कुण्डे पिठरे, अग्नि-गर्ते, अग्न्यायतने इति यावत् (ष० तत्पु० ) इन्द्रियाणाम् करणानां चक्षुरादीनाम् मन्दिरम् गृहम्, इन्द्रियाश्रयम् शरीरमिति यावत् जुहाव हुतवन् पुण्यार्जनायव कामेन बुद्धिपूर्वकम् स्वशरीरम् अग्निकुण्डे हुतम्, फलस्वरूपञ्च त्वद्रपे जन्म प्राप्तमिति भावः // 33 // व्याकरण-कंवप: के कुत्सितः दर्पो यस्मात् तथामूतः (ब० बी० ) / अक्षि इसके लिए पीछे श्लोक . 27 पर देखिए / हुताशः अश्नातीति /अश ( भक्षणे ) + अच् ( कर्तरि ) अशः हुतस्य हव्यरूपेण प्रक्षिप्तस्य अशः (10 तत्पु० ) / इन्द्रियाणाम्-इन्दतीति इद् ( ऐश्वर्य ) + रन् ‘इन्द्रः = आत्मा तस्य लिङ्गम् करणेन कर्तुरनुमानात्, इति इन्द्र + घ, घ को इय ( 'इन्द्रिय मिन्द्र' 5 / 2 / 13 ) / अनुबाद-“कामदेव ही पुण्यफल-स्वरूप तुममें यह पुनर्जन्म प्राप्त कर बैठा है-ऐसा मैं मान रही हूँ, क्योंकि वह महादेव के प्रचण्ड नेत्ररूपी अग्नि के कुण्ड में अपने शरीर की आहुति दे चुका था" / / 33 // Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 नैषधीयचरिते टिप्पणो-यहाँ दमयन्ती आगन्तुक पर यह कल्पना कर रही है कि मानो काम ने पूर्व जन्म में महादेवके नेत्राग्निकुंड में अपने शरीर की आहुति दे देने में जो महान् धार्मिक अनुष्ठान किया था, उसी से अजित पुण्य के फल-स्वरूप वह पुनर्जन्म धारण करके आप में अवतीर्ण हुआ हो। महादेव के तृतीय नेत्र की वह्नि में काम के दाह को कवि यहाँ धार्मिक आत्माहुति के रूप में ले रहा है, इसलिए उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक यहाँ 'मन्ये' शब्द है। अक्षि पर हुताशत्व के आरोप में रूपक है। विद्याधर पता नहीं किस तरह अतिशयोक्ति कह गए हैं / ‘चण्डी' ‘चण्डा' और 'मन्दि' 'मिन्द्रि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। शोभायशोभिजितशैवशैलं करोषि लज्जागुरुमौलिमलम् / दस्रो हठश्रीहरणादुदस्रौ कंदर्पमप्युज्झितरूपदर्पम् // 34 // अन्वयः-( त्वम् ) शोभा-यशोभिः जित-शैव-शैलम् ऐलम् हठश्रीहरणात् लज्जा-गुरु-मौलिम् करोषि; ( शोभा-यशोभिः जितशैवशैलौ ) दस्रो ( हठश्रीहरणात् ) उदस्रौ करोषि, तथा ( शोभायशोभिः जितशवशैलम् ) कंदर्पम् (हठश्रीहरणात् ) उज्झितरूपदर्पम् करोषि / / टीका-त्वम् शोभायाः सौन्दर्य-कान्त्याः यशोभिः कीतिभिः (10 तत्पु० ) जितः पराभूतः अतिशयितः इति यावत् शैव: शिव-सम्बन्धी शैल: पर्वतः कैलाशः इत्यर्थः ( सर्वत्र कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (ब० बी० ) ऐलम् इलायाः पुत्रम्, पुरूरवसम्, पुरूरवाः हि इलायाः बुधस्य च पुत्रः आसीत् हठेन बलात् श्रियः शोभायाः ( तृ० तत्पु० ) हरणात् ग्रहणात् (10 तत्पु० ) लज्जया त्रपया गुरुः भारी अवनत इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) मौलि: शिरः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) लज्जावनतशिरसम् इत्यर्थः करोषि विधत्से;शोभा-यशोभिः जितशैवशैली दस्रौ अश्विनीकुमारौ हठश्रीहरणात् उत उद्गतम् अस्रम् बाष्पः ययोः तथाभूती ( ब० वी० ) करोषि; तथा शोभायशोभिः जितशवशैलम् कन्दर्पम् कामम् हठश्रीहरणात् उज्झितः त्यक्तः रूपस्य सौन्दर्यस्य (10 तत्पु० ) दर्पः अभिमानो येन तथाभूतम् (ब० वी०) करोषि, त्वम् रूपे पुरूरवसम्, आश्विनेयौ, कामदेवञ्चापि अतिशयितवानसीति भावः // 34 // व्याकरण-शेवः शिवस्यायमिति शिव + अण् / शैल: शिलाः एवेति शिला + अण् / ऐलम् इलायाः अपत्यं पुमानिति इला+ अण् / वस्रो यास्काचार्यानुसार 'दर्शनीयौ' पृषोदरादित्वात्साधुः / वर्ष: / दृप् + अच, घञ् वा / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरमः सर्गः 287 अनुवाद-“शोभा के यश से महादेव के पर्वत-कैलास-को जीत लेने वाले पुरुरवा की शोभा को बलात् छीनकर तुम उसका शिर लज्जा-भारसे नीचे करवा रहे हो; शोभा के यश से कैलास को जीतने वाले अश्विनीकुमारों की शोभा को बलात् छीनकर तुम उन्हें रुलवा रहे हो; तथा शोभास कैलाश को जीतने वाले कामदेवकी शोभा को छीनकर तुम उसका सौन्दर्याभिमान चूर कर रहे हो" // 34 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि तुम पुरूरवा, दो अश्विनी कुमार और कामदेव इन चारों से अधिक सुन्दर हो / सौन्दर्यप्रतियोगिता में तुम से हार कर पुरूरवा जहाँ लाज से सिर नीचे कर रहा है, वहाँ अश्विनीकुमार रोने लग रहे हैं; और कामदेव गत-दर्प हो हाथ मल रहा है। ध्यान रहे कि संस्कृत कवि-जगत् में यश को श्वेत रंग का माना जाता है, इसी लिए यश को यहाँ अपनी श्वेतिमा से कैलाश की हिमानी श्वेतिमा को पछाड़े बैठा चित्रित किया गया है / यहाँ एक 'करोषि' क्रिया के साथ अनेक कारकों-पुरूरवा, अश्विनीकुमार और कंदर्प के साथ सम्बन्ध बताने से कारक दीपक है / 'शोभा' 'शोभि' 'मौलि' 'मैलम्' तथा 'दर्प' 'दर्पम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अवैमि हंसावलयो वलशास्त्वत्कान्तिकीर्तश्चपलाः पुलाकाः / उड्डोय युक्तं पतिताः स्रवन्तीवेशन्तपूरं परितः प्लवन्ते // 35 // अन्वयः- वलक्षा हंसावलयः त्वत्कान्ति-कीर्तेः चपला: पुलाकाः ( इति ) अवैमि ( अत एव ) उड्डीय स्रवन्ती-वेशन्त-पूरम् परित: प्लवन्ते ( इति ) युक्तम् / टीका-वलक्षाः धवलवर्णाः ( 'वलक्षो' 'धवलोऽर्जुनः' इत्यमरः ) हंस नाम् मरालानाम् आवलयः श्रेणयः ( 10 तत्पु० ) तव कान्तिः सौन्दर्यच्छटा तस्याः कीर्ते: यशसः ( उभपत्र 10 तत्पु० ) चपलाः चञ्चलाः इतः उतः प्रसरणशीलाः इति यावत् पुलाकाः तुच्छधान्यानि ( 'स्यात् पुलाकस्तुच्छधान्ये' इत्यमरः) सन्तीत्यहम् अवैमि मन्ये अत एव उड्डीय उत्पत्य स्रवत्यः नद्यश्च वेशन्ताः पल्वलाश्चेति तेषाम् ( द्वन्द्व ) . 'वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरः' इत्यमरः) पूरं प्रवाहम् परितः समन्ततः प्लवन्ते तरन्ति, नदीनां पल्वलानां च प्रवाहं परितः प्लवमानाः हंसाः त्वत्कीर्तिपुलाका इव प्रतीयन्ते इति भावः // 35 // Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 नैवधीयचरिते व्याकरण-कान्ति: किम् +क्तिन् / कीतिः कृ + क्तिन्, ऋ को ईर् / लवन्ती + + डीप् / पूरम् परितः के योग में द्वि० / अनुवाद-"श्वेत हंसों की पंक्तियां तुम्हारे सौन्दर्य-यश के इधर-उधर विखरते जा रहे पुआल हैं-ऐसा मैं समझती हूँ, ( इसीलिए ) उड़कर वे नदियों और ताल-तलैयाओं के जल-प्रवाह के चारों ओर तैर रहे हैं-( यह ) उचित ही है" // 35 // टिप्पणी-यश का वर्ण साहित्य में श्वेत होता है-यह हम पिछले श्लोक में कह आये हैं। इसलिए दमयन्ती आगन्तुक के माध्यम से नल के सौन्दर्य-यश को श्वेत कहती हुई नदी-पल्वलों में तैरते जा रहे श्वेत हंसों पर यश के पुआलों की कल्पना कर रही है। हवा के वेग से पुआल हल्के होने से इधर-उधर उड़ते रहते हैं। इसलिए उत्प्रेक्षा है। 'वल' 'वल' में यमक, 'पला' 'पुला' 'पूरं' 'परि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भवत्पदाङ्गुष्ठमपि श्रिता श्रीध्रुवं न रब्धा कुसुमायुधेन / रतोशजेतुः खलु चिह्नमस्मिन्नर्धन्दुरास्ते. नखवेषधारी / / 36 // अन्वयः-कुसुमायुधेन भवत्पदाङ्गुष्ठम् अपि श्रिता श्रीः ध्रुवम् न लब्धा / अस्मिन् खलु नखवेषधारी अर्धेन्दुः रतीशजेतुः चिह्नम् आस्ते / टीका-कुसुमानि पुष्पाणि आयुधानि यस्य तथामूतेन (ब० वी ) कामदेवेनेत्यर्थः भवतः तव पदस्य पादस्य अङ्गुष्ठम् बृहदङ्गुलिम् अपि आश्रिता अधिष्ठिता श्रीः शोभा ध्रुवम् निश्चितम् यथा स्यात्तथा न लब्धा प्राप्ता / कामस्त्व. त्पादाङ्गुष्ठस्यापि शोभां न धत्ते सर्वशरीरस्य तु वार्तंव केति भावः / अस्मिन् अङ्गुष्ठे खलु नखस्य वेषम् रूपम् (10 तत्पु० ) धारयतीति तथोक्तः ( उपपदतत्पु० ) अर्धः इन्दुः चन्द्रः रत्याः ईशः पतिः काम इत्यर्थः तस्य जेत: विजयिनः महादेवस्य चिह्नम् आस्ते वर्तते / तवाङ्गुष्ठो नखव्याजेन महादेवस्य चिह्नम् अर्धचन्द्रं धत्ते इतिनिज शत्रु-चिह्नम् विलोक्य कामो भयात् दूरतः एव पलायते, तच्छ्रीग्रहणं कर्तुं न शक्नोतीति भावः // 36 / / व्याकरण-सरल है। अनुवाद-“कामदेव ने सचमुच आपके पैर के अंगूठे तक की भी शोभा नहीं पाई है, क्योंकि इस ( अंगूठे ) में नख का वेष धारण किये अर्धचन्द्र कामदेव के विजेता ( महादेव ) का चिह्न है" // 36 // Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 289 टिप्पणी-अर्धचन्द्र महादेव का चिह्न माना जाता है, क्योंकि वह उनके सिर पर विराजमान रहता है। महादेव देखो तो कामदेव के परम शत्रु ठहरे, क्योंकि उनके हाथों उनका विनाश हुआ है, अत एव वह शत्रुके चिह्नभूत अर्धचन्द्र या तत्सदृश किसी और वस्तु से डरता रहता है। नल के पैर का अंगूठा अर्धचन्द्र-जैसा था ही या यों समझ लीजिए कि नख के वेष में अर्धचन्द्र ही था। फिर शत्रु-चिह्न से भयभीत कामदेव अंगूठे की श्री को प्राप्त करे तो, कैसे करे ? शत्रु-चिह्न से सभी डरा करते हैं। भाव यह निकला कि काम शोभा में तुम्हारे अँगूठे की भी बराबरी नहीं कर सकता, शरीर की बराबरी तो दूर रही। यहाँ वेष शब्द व्याज का ही पर्यायवाची है, बल्कि कहीं-कहीं नखकैतवेन भी पाठ है / अतः विद्याधर अपहनुति मान रहे हैं, जो ठीक ही है, किन्तु वे यहाँ उससे उत्थित उत्प्रेक्षा भी मान रहे हैं जिसका वाचक शब्द वे 'खलु' को लेते हैं। नारायण ‘खलु' का अर्थ हेतु कर रहे हैं अर्थात् काम अंगूठे की श्री को इसलिए नहीं प्राप्त कर सक रहा है, क्योंकि उसमें शत्रु का चिह्न है। शत्रुचिह्न जब तथ्य है, तो उस पर कल्पना काहे की। उत्प्रेक्षा कल्पनामें ही होती है तथ्य में नहीं। हाँ, अनुमानालंकार बन सकता है जैसे-त्वदङ्गुष्ठः कामस्य जेता अर्धचन्द्रांकितत्वात्, यत्र 2 अर्धचन्द्रांकितत्वम् तत्र तत्र कामस्य जेतृत्वम् महादेववत्, / अपि शब्द से अर्थापत्ति स्पष्ट ही है। "श्रिता' 'श्री' में श और र वर्णों के साम्य में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रतीशजेतुः-मल्लिनाथ इस पाठ का खण्डन करते हैं कि यहाँ प्रकृत कामदेव को 'कुसुमायुधेन' शब्द से प्रक्रान्त कर रखा है, तो रतीश शब्द से भी बताना पुनरुक्ति है, इसलिए प्रकृतार्थ का यहाँ सर्वनाम से ही निर्देश करना चाहिए न कि स्व नामसे, अतः वे 'जेतुस्तमेतत्' पाठ दे रहे हैं। जेतुः को तृन्नन्त मानकर ‘तम्' में द्वितीया है / राजा द्विजानामनुमासभिन्नः पूर्णां तनूकृत्य तनू तपोभिः / कुहूषु दृश्येतरता किमेत्य सायुज्यमाप्नाति भवन्मुखस्य // 37 // अन्वयः-अनुमास-भिन्नः द्विजानाम् राजा पूर्णाम् तनूम् तपोभिः तनूकृत्य कुहूषु दृश्येतरताम् एत्य भवन्मुखस्य सायुज्यम् आप्नोति किम् ? टीका-मासम् अनु इत्यनुमासम् प्रतिमासम् (अव्ययी० ) भिन्नः अन्यः द्विजानाम् नक्षत्राणाम् राजा ईशः चन्द्रः इत्यर्थ (ष० तत्पु० ) पूर्णाम् पूर्णिमायां Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 नैषधीयचरिते सकलकलापूर्णाम् तनुम् शरीरम् तपोभिः चान्द्रायणादिकृच्छः अतनुं तनुं सम्पद्यमानं कृत्वेति तनूकृत्य कृशीकृत्य. क्षयं नीत्वेति यावत् कुहूषु अमावास्यासु दृश्यात इतर इति दृश्येतरः ( पं० तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता ताम् एत्य प्राप्य अदृश्यो भूत्वेत्यर्थः भवतः तव मुखस्य वदनस्य (10 तत्पु० ) सायुज्यम् ऐक्यम् आप्नोति प्राप्नोति किम् ? पौर्णमासीचन्द्रः तपस्यया स्वशरीरं क्रमशः कृशीकृत्य अन्ते अमावास्यायाम् अदृश्यः सन् त्वन्मुखेनैक्यं प्राप्नोतीवेति भावः / अत्र शब्दशक्त्या अयमपरोऽप्यर्थों द्योत्यते-कश्चित् द्विजराजः = श्रेष्ठब्राह्मणः अनुमासं तपश्चरित्वा शरीरञ्च कृशीकृत्य अन्तिमशरीरे अदृश्य = अत्यन्तविमोक्षं प्राप्ते ब्रह्मकात्म्यं प्राप्नोति / / 37 // व्याकरण-द्विजानाम् द्विर्जायन्ते इति द्वि + /जन् + ड / तनूकृत्य तनु + वि, पूर्व दीर्घ/कृ + ल्यप् / सायुज्यम् सयुजो भाव इति सयुज् प्यञ् सयुज सह युनक्ति ( आत्मानम् / इति सह + V युज् + क्विप् / अनुवाद-प्रतिमास भिन्न-भिन्न चन्द्रमा संपूर्ण शरीर को तपस्याओं द्वारा क्षीण करके अमावास्याओं की रात्रियों में अदृश्य होकर आपके मुख के साथ ऐकात्म्य प्राप्त कर लेता है क्या ? जैसे कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण तप द्वारा शरीर को कांटा बनाकर अन्त में ब्रह्मसायुज्य प्राप्त कर लेता है" // 37 // टिप्पणी हम देखते हैं कि पौर्णमासी का सर्वकला-पूर्ण चन्द्र धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है और अन्त में अमावास्या को लुप्त हो जाता है। इस पर कवि की कल्पना है कि मानो तुम्हारे लोकातीत सौन्दर्य-पूर्ण मुख को देख अत्यन्त प्रभावित हुआ चन्द्रमा चान्द्रायणादि कठोर तप द्वारा शरीर को सुखाता जाता हुआ अन्त में तुम्हारे साथ ऐकात्म्य प्राप्त कर गया हो। इस तरह उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'किम्' शब्द है। विद्याधर यहाँ अपहनुति और अतिशयोक्ति कह रहे हैं। किन्तु हमें यहाँ अपह्नव कहीं देखने में नहीं आ रहा है। सम्भवतः वे 'दृश्येतरताम् एत्य' = 'अदृश्य होने के व्याज से' यों आर्थ अपह्नव ले रहे हों। अतिशयोक्ति भी हम नहीं समझ पा रहे हैं। संभवतः वे दो विभिन्न द्विजराजों का अभेदाध्यवसाय मान रहे हैं, लेकिन दूसरे प्रतीयमान अर्थ को हम ध्वनि के भीतर ले रहे हैं, क्योंकि उसका प्रकृतार्थ से कोई सम्बन्ध ही नहीं, अतः उनका औपम्यभाव सम्बन्ध स्थापित करके यह निरी शब्दशक्त्युद्भव उपमाध्वनि है / 'तनू' 'त' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः कृत्वा दृशौ ते बहुवर्णचित्रे किं कृष्णसारस्य तयोर्मूगस्य / अदूरजाग्रद्विदरप्रणालीरेखामयच्छद्विधिरर्धचन्द्रम् // 38 // अन्वयः-विधिः ते दृशौ बहुवर्णचित्रे कृत्वा कृष्णसारस्य मृगस्य तयोः अदूरः रेखाम् अर्धचन्द्रम् अयच्छत् किम् ? टीका-विधिः विधाता ते तव दृशौ नयने बहवः अनेके ये वर्णाः कृष्ण. शुक्लरक्ताः ( कर्मधा० ) तैः चित्रे विविधवणे अथ च अद्भुते कृत्वा विधाय कृष्णः श्यामवर्णः सारः श्रेष्ठभागो यस्मिन् तथाभूतः कृष्णवर्णप्रायः इत्यर्थः तस्य मृगस्य हरिणविशेषस्य तयोः दृशोः अदूरे न दूरे ( नञ् तत्पु० ) समीपे इत्यर्थः जाग्रती स्फुरन्ती दृश्यमानेत्यर्थः ( स० तःपु० ) या विवरः स्फुटन् भिदेत्यर्थः ( 'विदरः स्फुटनं भिदा' इत्यमरः ) तद्रूपा प्रणाली जल-मार्गः ( कर्मधा० ) तस्याः रेखा लेखा (प० तत्पु० ) ताम् अर्धचन्द्रम् अर्धचन्द्राकाराम् गलहस्तिकाम् ( 'अर्धचन्द्रस्तु चन्द्रके, गलहस्ते बाणभेदेऽपि' इति विश्वः ) अयच्छत प्रादात् किम् ? त्वन्नयनसादृश्यं प्राप्तुमिच्छन्त्योः मृगदृशोः धाापराधं दृष्ट्वा दण्डरूप ब्रह्मा विदररेखामिषेण गलहस्तप्रदानद्वारा निस्सारितवानिवेति भावः // 38 // व्याकरण-विधि; विदधाति (निर्माति जगत् ) इति वि +धा + किः / कृष्णः-यास्कानुसार 'निकृष्टो वर्णः' इति / मृगः मृग्यते ( अन्विष्यते आखेटार्थम् ) इति किन्तु यास्क 'मार्गतेः गतिकर्मणः' कहते हैं / मृग + कः / जाग्रत् जागृ + शतृ / विदरः वि+/दृ + अप् (भावे ) / प्रणाली प्रकर्षण नलयति ( आप्याययति ) इति + प्र + 1/नल् + घञ् ( कर्तरि ) + ङीष् / __ अनुवाद-"ब्रह्मा ने तुम्हारे नयनों को बहुत से रंगों-श्याम, श्वेत और रक्तों से रंग-बिरंगा और अद्भुत बनाकर कृष्णसार मृग के नयनों को पास में ही दीख रही नाली-जैसी खाई की रेखा के रूप में गलहत्थी दे दी थी क्या ?" // 38 // टिप्पणी-हम देखते हैं कि मृगों की आँखों के पास लम्बी छोटी खाईजैसी नीचे धंसी रेखा स्वभावतः रहा करती है। इस पर कवि की कल्पना यह है कि ब्रह्मा जब नल की आँखें बना रहा था, तो उसने देखा कि पास में कृष्णसार मृग खड़ा है, जो चाह रहा था कि उसकी आँखें नल की आँखों-जैसी हो। ब्रह्मा को बुरा लगा और उसने मृग की धृष्टता के लिए उसे दण्डित करना Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 नैषधीयचरिते चाहा, अतः उसकी आँखों को गलहत्थी दे दी। फलतः आँखों के पास आज भी वह गलहत्थी खाई जैसी रेखा के रूप में दिखाई दे रही है। यह उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'किम्' शब्द है / विद्याधर 'प्रणालीच्छलात्' पाठ देकर सापह्नवोप्रेक्षा कह रहे हैं / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। कृत्वा दृशौ-चाण्डू पण्डित, विद्याधर और जिनराज श्लोक के पूर्वार्ध का पाठ "विधाय चित्रे तव धीर नेत्र कि कृष्णसारस्य दृशोर्मुगस्य' इस प्रकार परिवर्तन कर रहे हैं जिससे श्लोक सरल बन गया। इस श्लोक की तुलना पीछे सर्ग 7 श्लोक 22 से कीजिये। मुग्धः स मोहात्सुभगान्न देहाद्ददद्भवद्भ्ररचनाय चापम् / भ्रूभङ्गजेयस्तव यन्मनोभूरनेन रूपेण यदातदाभूत् / / 39 // __ अन्वयः-यत् (यो ) मनोभूः भवद्भूरचनाय ( ब्रह्मणे ) चापम् ददत् यदा तदा अनेन रूपेण तव भ्रूभङ्गजेयः ( अभूत् ) तस्मात् स मोहात् मुग्धः न सुभगात् देहात् (मुग्धः ) / टीका-यत् यस्मात् यः मनोभूः कामः भवतः तव भ्रुवोः रचनाय निर्माणाय (उभयत्र ष० तत्पु० ) ब्रह्मणे निजं चापम् धनुः ददत् प्रयच्छन् यदा-तवा यस्मिन् कस्मिन्नपि समये सर्वदैवेति यावत् अनेन प्रत्यक्षदृश्येन तव रूपेण सौन्दर्येण कारणेन तव भ्रवोः भङ्गेन सङ्कोचेन भ्रकुटय ति यावत् (10 तत्पु० ) जेयः जेतव्यः अभूदिति शेषः तस्मात् स मनोभूः मोहात् मौात् अविविच्यकारित्वादिति यावत् मुग्धः न तु सुभ गात् सुन्दरात् देहात् कारणात् / 'मुगः सुन्दर-मूढयोः' इति विश्वप्रामाण्यात मुग्धः शब्दः सुन्दरस्य मूढस्य च वाचकोऽस्ति कामः सुभग-देहकारणात् मुग्धः = सुन्दरः इति नास्त्यर्थः, अपि तु मोहात् = मौढ्यात् कारणात् मुग्धः = मूढः उच्यते यतः स स्वचापं नलभूनिर्माणाय ब्रह्मणे दत्तवान् स्वयं च पश्चात् तद्भूभङ्गेणैव नलस्य जेतव्योऽभवदिति भावः // 39 // व्याकरण- मनोभूः मनसः भवतीति मनस् + /भू + क्विप् ( कर्तरि ) / ददत्/दा + शतृ प्र० / जेयः जि + यत् / मोहात्। मुह + घञ् ( भावे ) / मुग्धः मुह + क्त ( कर्तरि ) / अनुवाद-"क्योंकि कामदेव आपके भौंहों की रचना हेतु ( ब्रह्मा को) अपना धनुष देता हुआ जब कभी तुम्हारे इस ( प्रत्यक्ष ) सौन्दर्य के कारण तुम्हारे भ्रूभङ्ग मात्र से ( तुम्हारे द्वारा ) जीत लिये जाने योग्य बना हुआ बैठा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 293 है इसलिए वह ( काम ) मोह = मूर्खता के कारण 'मुग्ध' ( मूर्ख ) है, सुन्दर देह के कारण 'मुग्ध' ( सुन्दर ) नहीं" // 39 // टिप्पणी-साहित्य में सुन्दर भौंहों की तुलना कामदेव के पुष्प-चाप से की जाती है। प्रकृत में नल की भौंहों की रचना के समय मूर्खता-वश कामदेव अपना धनुष ब्रह्मा को दे बैठा और स्वयं धनुष-रहित हो गया। इससे नल के सौन्दर्य में बृद्धि हो गई और वह कामदेव को ही भ्रूभंग-मात्र से पराजित करने लगे / मूर्ख यदि अपना शस्त्र शत्रु को दे बैठे तो निःशस्त्र हो वह अपने दिये शस्त्र से ही शत्रु द्वारा क्यों न जीत लिया जायेगा। काम वास्तव में मुग्ध = मूर्खता के कारण मूर्ख है, न कि सुन्दर शरीर के कारण मुग्ध = सुन्दर है। भाव यह निकला कि नल की भौंहें काम के चाप-जैसी और कामोद्दीपक हैं। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं, क्योंकि भ्र और चाप से भेद होते हुए भी दोनों का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। 'यदा तदा' में पदगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मृगस्य नेत्रद्वितयं तवास्ये विधौ विधुत्वानु मितस्य दृश्यम् / तस्यैव चञ्चत्कचपाशवेषः पुच्छः स्फुरच्चामरगुच्छ एषः // 40 / / अन्वयः-तव आस्ये विधौ विधुत्वानुमितस्य मृगस्य नेत्र-द्वितयम् दृश्यम्; तस्य एव चञ्चत्कचपाशवेषः एषः पुच्छः स्फुरचामरगुच्छः ( दृश्यः ) / ___टीका-तव ते आस्ये मुखे एव विधौ चन्द्रे तव मुखचन्द्रे इत्यर्थः विधुत्वेन चन्द्रत्वेन अनुमितस्य अनुमितिविषयीकृतस्य मृगस्य हरिणस्य नेत्रयोः नयनयोः द्वितयम् द्वयम् दृश्यम् द्रष्टु शक्यमस्ति दृश्यते इत्यर्थः यद्यपि मृगः स्वयं न दृश्यते निष्कलकत्वान्मुखस्य / तस्य एव मृगस्य चञ्चन् विलसन् कचपाशः केशकलापः ( कर्मधा० ) तस्य वेषः रूपम् व्याज इति यावत् ( 10 तत्पु० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) एष पुच्छः स्फुरन् लसन् चामर-गुच्छ: केशस्तवकः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) दृश्यः, दृष्टिविषयीभवतीत्यर्थः / चन्द्रो हि मृगाङ्कः अर्थात् मृगस्तस्मिन् तिष्ठति, तव मुखमपि चन्द्रोऽस्ति किन्तु तत्र मृगो न दृश्यते, तस्य नयनद्वयम् त्वन्नयनद्वयरूपे, पुच्छकेशसमूहश्च त्वत्केशपाशरूपे दृश्यते इति भावः // 40 // Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 नैषधीयचरिते - व्याकरण-आस्ये अस्यते = प्रक्षिप्यते अन्नादि अत्रेति/ अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / द्वितयम् द्वौ अवयवौ अत्रेति द्वि+ तयप् / चञ्चत् चञ्च + शतृ / पाश: पश्यते ( बध्यते ) अनेनेति /पश् ( वन्धने ) + घन ( करणे ) / यास्क का भी यही कहना है-'पाशः विपाशनात् / अनुवाद-"तुम्हारे मुख-चन्द्र में चन्द्रत्व-लिङ्ग से अनुमीयमान मृग की दो आँखें दिखाई दे रही हैं। उस ( मृग) का ही ( तुम्हारे ) लहरा रहे केशपाश का वेष बनाये यह पुच्छ दिखाई दे रहा है जिसके गुच्छेदार बाल चमक रहे हैं // 40 // टिप्पणी-नल का मुख चन्द्रमा है। इसलिए उसके भीतर मृग का रहना स्वाभाविक है / यद्यपि वह प्रत्यक्ष तो नहीं हो रहा है, किन्तु उसका हम अनुमान कर सकते हैं जैसे 'मुखचन्द्रः समृगः चन्द्रत्वात् यत्र-यत्र चन्द्रत्वम्, तत्र तत्र समृगत्वम् आकाशस्थचन्द्रवत् / हाँ, स्वयं अदृश्य होने पर भी उसकी आँखें तुम्हारी आँखों के रूप में, तथा उसकी पूंछ तुम्हारे केशपाश के रूप में सामने दीख ही रही हैं / भाव यह निकला कि तुम्हारा मुख चाँद-सा, नयन मृग के से और वाल चामर जैसे हैं / मुख पर चन्द्रत्वारोप में रूपक और वेष शब्द के व्याजाथं. परक होने से अपह्नुति है। मल्लिनाथ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं जो समझ में नहीं आती / 'विधौ' 'विधु' तथा 'पुच्छः' 'गुच्छ' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / इस श्लोक की तुलना पीछे सर्ग 2 श्लोक 83 से कीजिए / आस्तामनङ्गीकरणाद्भवेन दृश्यः स्मरो नेति पुराणवाणो। तवैव देहं श्रितया श्रियेति नवस्तु वस्तु प्रतिभाति वादः // 41 // अन्वयः-स्मरः भवेन अनङ्गीकरणात् दृश्यः न इति पुराणवाणी आस्ताम् तु तव एव देहम् श्रितया श्रिया अनङ्गीकरणात दृश्यः न इति नवः वादः वस्तु प्रतिभाति / टीका-स्मरः कामः भवेन महादेवेन अनङ्गीकरणात् शरीररहितीकरणात् भस्मीकरणादिति यावत् दृश्यः नयनविषयीभूतः न अस्तीति शेषः इति पुराणी प्रचीनकालीना वार्ता पारम्पर्यकथा, अर्थात् कामो महादेवेन स्वतृतीयनयनाचिषा भस्मीकृतः तस्मात् स लोकलोचनपथं नायातीति पुराणी वार्ता त्यज्यताम्, तु किन्तु तव ते एव देहम् श्रितया अधिष्ठितया तव देहे वर्तमानयेति यावत् श्रिया Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 295 शोभया अनङ्गीकरणात् अस्वीकारात् अनाश्रयणादित्यर्थः दृश्यः न / या श्री: त्वामाश्रयति सा तं नाश्रयतीति लज्जाकारणात् कामः स्वमुखं लोकं न दर्शयितुमिच्छुः सन् अदृश्यीभूत इत्यर्थः इति नवीनः नूतनः वादः वचनं वस्तु तथ्यं प्रतिभाति प्रतीयते / त्वम् कामापेक्षया अतिसुन्दरोऽसीति भावः / / 41 // व्याकरण-स्मरः ( स्मरणम् ) स्मृ + अप् ( भावे ) / भवः भवत्यस्मात् ( जगत् ) इति /भू + अप् ( अपादाने ) / अनङ्गीकरणात् न + अङ्ग + च्वि, इत्व + कृ + ल्युट् / दृश्यः द्रष्टुं शक्य इति /दृश + यत् / वाद:/वद् + घञ् ( भावे ) / __ अनुवाद-महादेव द्वारा अनङ्गीकरण-भस्म करके शरीर-रहित किये जाने के कारण कामदेव देखने में नहीं आता है—यह पुरानी बात छोड़ दो, नई सही बात तो यह मालूम होती है कि तुम्हारे ही शरीर का आश्रय लिय सौन्दर्य द्वारा अनंगीकरण न अपनाये जाने के कारण वह ( लज्जा के मारे ) देखने में नहीं आ रहा है // 41 // टिप्पणी-भाव यह है कि जो श्री ( सौन्दर्य ) तुम्हारे शरीर में है, वह कामदेव के शरीर में नहीं, इसलिए तुम्हारे सौन्दर्य से मात खाया हुआ बेचारा कामदेव लाज के मारे लोगों को अपना मुँह कैसे दिखावे ? झट भूमिगत अर्थात् अदृश्य हुआ बैठा है। सभी आत्माभिमानी पराभूत हो ऐसा ही किया करते हैं / महादेव ने कामदेव को भस्म कर दिया था, इसलिए अनंग हुआ वह अदृश्य है-यह पुरानी वात अथवा पुराणों की गप हमें नहीं माननी चाहिए। यह कवि की सरासर नयी कल्पना है, अतः उत्प्रेक्षालंकार है। विद्याधर के शब्दों में 'अत्रातिशयोक्तिरलङ्कारः' क्योंकि यहाँ विभिन्न 'अनंगीकरणों' में अभेदाध्यवसाय है / 'वस्तु' 'वस्तु' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / त्वया जगत्युच्चितकान्तिसारे यदिन्दुनाशीलि शिलोवृत्तिः / आरोपि तन्माणवकोऽपि मौलौ स यज्वराज्येऽपि महेश्वरेण // 42 / / अन्वयः-त्वया उच्चित-कान्ति-सारे जगति इन्दुना शिलोञ्छ वृत्तिः यत् अशीलि, तत् महेश्वरेण स माणवकः अपि मौली यज्वराज्ये अपि (च) आरोपि / टीका-त्वया उच्चितः गृहीतः कान्तिसारः ( कर्मधा० ) कान्तेः सौन्दर्यस्य सारः श्रेष्ठांशः ( 10 तत्पु० ) यस्मात् तथाभूते (ब० वी० ) जगति संसारे Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते इन्दुना चन्द्रेण शिलम् पतितधान्यमञ्जरीग्रहणम् च उञ्छः कणशो धान्यग्रहणम् च ( द्वन्द्व ) वृत्तिः आजीविका ( कर्मधा० ) अशीलि परिशीलिता अभ्यस्तेति यावत् तत् तस्मात् महेश्वरेण शिवेन महाराजेन च माणवक: बाल: कलारूप: अपि स इन्दुः मौलौ शिरसि यानाम् याज्ञिकानाम् राज्ये द्विजराजत्वे इत्यर्थः अपि च आरोपि स्थापितः अथ च अभिषिक्तः / जगतः सारभूतं सौन्दयं त्वया गृहीतम्, अवशिष्टसौन्दर्यकणान् शिलोञ्छवृत्तितापसवत् यतस्ततः गृहीत्वा सौन्दर्ये अल्पोऽपि चन्द्रः महादेवेन स्वशिरसि स्थाप्यते द्विजराजत्वेऽपि चाभिषिच्यते इति भावः // 42 // व्याकरण-उच्चित उत् + चि + क्तः ( कर्मणि ) / अशीलि./शील + लुङ् ( कर्मणि ) / माणवक: मनोरपत्यमिति मनु + अण् , मानवः न को गत्व ( 'अपत्ये कुत्सिते मूढे मनोरोत्सर्गिकः स्मृतः / नकारस्य तु मूर्धन्यस्तेन सिद्धयति माणवः ) अल्पः माणवः इति माणव + कः अल्पार्थे)। यज्वन् यजतीति/यज + क्वनिप / राज्यम् राज्ञो भावः कर्म वा इति राजन् + यत् / अनुवाद-"जिस जगत के बीच में से तुमने सार-भूत सौन्दर्य ले लिया है, उसमें चन्द्र ने कण कण ग्रहण करने की आजीविका जो अपनायी, उसीसे महेश्वर ( महादेव, महाराज ) ने उसे माणवक ( एक कला वाला बालक ) होते हुए भी सिर पर रख लिया तथा यज्वराजत्व के पद पर भी प्रतिष्ठापित कर दिया // 42 // टिप्पणी-भाव यह है कि तुम्हारा-सा सौन्दर्य जगत् में कहीं नहीं है। चन्द्रमा तो तुम्हारे सौन्दर्य का एक लघु अंश मात्र है। सारा जगत्सौन्दर्य जब तुमने ले लिया, तो चन्द्रमा ने तुमसे बचे-खुचे सौन्दर्य के कण-कण ही बटोरे जैसे शिलोञ्छ-वृत्ति वाले तापस किया करते हैं, चन्द्रमा के इस शिलोञ्छ वृत्ति के प्रभाव से महादेव ने उसे अपने सिर पर स्थान दिया और यज्वराज पद भी दे दिया है / ध्यान रहे कि महादेव के सिरपर चन्द्रमा अपनी एक कला के रूप में ही रहता है जिसे बाल चन्द्रक कहते हैं। हम देखते हैं कि शास्त्रों में शिलोञ्छ वृत्ति को बड़ा महत्त्व दिया गया है। कोई भी व्यक्ति, भले ही वह माणवकबालक ही क्यों न हो, अपनी शिलोञ्छ वृत्ति के प्रभाव से राजों-महाराजों तक का आदर-पात्र तथा पूज्य हो जाता है। लोग उसे यज्वराज (द्विजराज ) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 297 श्रेष्ठ ब्राह्मण के पद पर बिठाते हैं। शिल-खेत काट लिये जाने के बाद छुटी-पड़ी अन्न की बाल और उञ्छ-नीचे गिरे पड़े अन्न-कण बटोरने को कहते हैं / विद्या. धर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं; क्योंकि यहाँ विभिन्न अर्थों का अभेदाध्यवसाय है / हमारे विचार से यदि 'यज्वराज्ये' के स्थान में कवि 'द्विजराजत्वे' पद रखता तो बात अधिक संगत बैठती, क्योंकि द्विज तारों और ब्राह्मणों दोनों को बोलते हैं / चन्द्रमा द्विजराज नक्षत्रेश है / 'यज्वराज' में यह बात नहीं बनती है / हम प्रतीयमान दूसरे अर्थ को उपमाध्वनि ही कहेंगे / 'शीलि' 'शिलों' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आदेहदाहं कुसुमायुधस्य विधाय सौन्दर्यकथादरिद्रम् / त्वदङ्गशिल्पात्पुनरीश्वरेण चिरेण जाने जगदन्वकम्पि / / 43 / / अन्वयः-कुसुमायुधस्य आदेह-दाहम् जगत् सौन्दर्य-कथा-दरिद्रम् विधाय त्वदङ्गशिल्पात् ईश्वरेण पुनः चिरेण अन्वकम्पि / ___टीका-कुसुमानि आयुधानि यस्य तथाभूतस्य ( व० बी० ) कामस्येत्यर्थः देहस्य शरीरस्य दाहः महादेवकर्तृकभस्मीकरणम् (10 तत्पु०) आरभ्येति ०दाहम् ( अव्ययी० ) जगत् संसारम् सौन्दर्यस्य लावण्यस्य कथया वार्तया (10 तत्पु० ) दरिद्रम् शून्यं ( तृ० तत्पु० ) विधाय कृत्वा सम्प्रति तव अङ्गम् शरीरम् तस्य शिल्पात् रचनात् कारणात् ईश्वरेण भगवता पुन: मुहुः चिरेण चिरकालानन्तरम् अन्वकम्पि अनुगृहीतम् इत्यहं जाने मन्ये / महादेवकृतकामदेवदाहानन्तरम् लोके सौन्दर्यस्य कथैव समाप्ता चिरञ्च लोकः सौन्दयं-रहित एवासीत् किन्तु इदानीं कामदेवस्य स्थाने तव सुन्दरदेहं निर्माय ईश्वरेण जगतः उपरि महती कृषा कृतेति भावः / / 43 // व्याकरण-दाहः/दह + घञ् ( भावे ) / जगत् गच्छतीति /गम् + क्विप् ( कर्तरि ) द्वित्व और तुगागम निपातित / सौन्दर्यम् सुन्दरस्य भाव इति सुन्दर + ण्यञ् / कथा/कथ + अङ् ( भावे ) टाप् / दरिद्रः दारिद्रयतीति। दरिद्रा + कः / अनुवाद--कामदेव के देह के भस्म किये जाने ( की घटना ) से लेकर जगत् को सौन्दर्य-रहित करके ( अब ) तुन्हारे शरीर के निर्माण के कारण ईश्वर ने बहुत समय के बाद (जगत् पर) कृपा की है, ऐसा मुझे लगता है // 43 // Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ कवि ने कल्पना की है कि तुम्हारा कामदेव से भी अधिक सुन्दर रूप बनाकर मानो ईश्वर ने जगत् पर कृपा की है, इस तरह उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'जाने' शब्द है / 'देहदाहम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास हैं / मही कृतार्था यदि मानवोऽसि जितं दिवा यद्यमरेषु कोऽपि / कुलं त्वयालंकृतमौरगं चेन्नाधोऽपि कस्योपरि नागलोकः // 44 // अन्वयः-यदि ( त्वम् ) मानवः असि ( तर्हि ) मही कृतार्था ( जाता)। यदि देवेषु कः अपि ( असि, तहि ) दिवा जितम्, चेत् त्वया औरगम् कुलम् अलङ्कृतम् ( तहि ) अधः अपि नागलोकः कस्य उपरि न ? ____टीका-यदि चेत् त्वम् मानवः मनुष्यः असि वर्तसे, तहि मही पृथ्वी कृतः अर्थ: प्रयोजनं यया तथाभूता ( ब० वी० ) कृतकृत्या धन्या इति यावत् त्वया अलङ्कृतत्वात् इत्यर्थः, यदि देवेषु अमरेषु कः अपि कश्चित् असि तहिं दिवा स्वर्गेण जितम् सर्वोत्कृष्ठेन भूतम् चेत् यदि त्वया औरगम् उरगसम्बन्धि कुलम् वंशः अलंकृतम् भूषितम् अर्थात् यदि त्वम् कश्चिन्नागोऽसि तर्हि अधः अधः स्थितोऽपि नागलोक: नागानां लोकः ( 10 तत्पु० ) कस्य लोकस्य उपरि ऊर्ध्वप्रदेशे न अस्ति त्वयालङ्कृतो नागलोकः सर्वोत्कृष्टो वर्तते इत्यर्थः // 44 / / व्याकरण-मानव: मनोरपत्यं पुमान् इति मनु + अण् / मही महीयते (पूजां लभते ) इति/मही + अच ( कर्तरि ) + ङीप् / देवः दिव्यतीति। दिव + अच् ( कर्तरि ) यास्क के अनुसार 'दीयनाद्वा, द्योतनाद्वा दिवि भवो वा'! औरगम् उरगाणामिदमिति उरग + अण् / उरगः उरसा ( वक्षसा) गच्छतीति उरस् + गम् + डः / नागाः न गच्छन्तीति न + गम् + डः = अगाः न अगाः इति नागाः / अनुवाद-“यदि तुम मानव हो, तो पृथिवी कृतकृत्य है, यदि तुम देवताओं में से कोई हो, तो धुलोक सर्वोत्कृष्ट है, यदि तुमने किसी नागवंश को अलंकृत किया है तो नीचे होता हुआ भी नागलोक किस लोक से ऊपर नहीं है ?" // 44 // टिप्पणी--विद्याघर यहाँ अतिशयोक्ति मान रहे हैं, क्योंकि यदि शब्द के बल से यहाँ असम्बन्ध में सम्बन्ध की संभावना की जा रही है। हमारे विचार से 'अधोऽपि' 'उपरि' में विरोधाभास है, जिसका परिहार उपरि का उत्कृष्ट. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 299 अर्थ करने पर हो जाता है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पहले मानव के उल्लेख के सम्बन्ध में नारायण लिखते हैं--'संभावनया स्वाभिलषितत्वाच्च प्रथम मानवोक्तिः'। सेयं न धत्तेऽनुपपत्तिमुच्चैर्मच्चित्तवृत्तिस्त्वयि चिन्त्यमाने / ममौ स भद्रं चुलुके समुद्रस्त्वयात्तगाम्भीर्यमहत्त्वमुद्रः // 45 // अन्वयः-त्वयि चिन्त्यमाने ( सति ) सा इयम् मच्चित्तवृत्तिः उच्चैः अनुपपत्तिम् न धत्ते, (यतः) त्वया आत्त 'मुद्रः स समुद्रः भद्रम् चुलुके ममी। टीका-त्वयि भवति चिन्त्यमाने विचार्यमाणे अर्थात् यदाऽहं त्वद्-विषये विचारं करोमि त्वं कियान् गम्भीरः महांश्चासीति तदा, सा इयम् एषा मम चित्तस्य वृत्तिः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) मनोवृत्तिः उच्चैः महतीम् अनुपपत्तिम् असंगतिम् अघटमानतामिति यावत् यत् अगस्त्येन ऋषिणा गम्भीरः महांश्च समुद्रः चुलुके पीत इति न धत्ते न धारयति, यतः त्वया आत्ते गृहीते गाम्भीर्यमहत्त्वे ( कर्मधा० ) गाम्भीर्यम् गभीरता च महत्त्वम् विशालता चेति ( द्वन्द्व ) तयोः मुद्रा चिह्नं यस्य तथाभूतः ( ब० वी०) स प्रसिद्धः समुद्रः भद्रम् सुखं यथा स्यात्तथा चुलुके उक्तमुनेः गण्डूषे ममी समाविष्टः / समुद्रस्य गाम्भीर्य विशालतां च त्वम् गृहीतवानिति अगम्भीरीभूतस्य अविशालीभूतस्य च समुद्रस्य चुलुकेन पानं अगस्त्यस्य ऋषेः कृते न किमपि काठिन्यम् आपादितवानिति भावः // 45 // व्याकरण-वृत्तिः/वृत् + क्तिन् ( भावे ) / अनुपपत्तिः न उप + /पद् + क्तिन् ( भावे ) / आत्त आ + /दा + क्त ( कर्मणि ) / दा के आ को त ( 'अच उपसर्गात्तः 7 / 4 / 47 ) / गाम्भीर्यम् गम्भीरस्य भाव इति गम्भीर+व्यञ् / ____ अनुवाद-"तुम्हारे सम्बन्ध में विचार किये जाने पर मेरी यह मनोवृत्ति ( यह कोई ) बड़ी भारी अनुपपत्ति अनहोनी घटना नहीं समझती ( कि किस तरह अगस्त्य ऋषि चुल्लू में सारा समुद्र पी गये ) / ( कारण यह कि ) तुमने जब ( समुद्र की ) गहराई और विशालता—ये भेदक चिह्न ले लिये तो वह समुद्र सहज ही चुल्लू में समा गया" // 45 // टिप्पणी-भाव यह है कि तुम गुणों में समुद्र से भी अधिक गम्मीर और महान् हो। मल्लिनाथ भद्रम् शब्द को उत्प्रेक्षा वाचक मानकर कवि की यह Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते कल्पना मान रहे हैं कि समुद्र की अपनो भेदक-विशेषता-गाम्भीर्य और महानता-जब तुमने ले ली है, तो मानो अब वह न गम्भीर रहा, न महान्, इसलिए पीने के लिए उसका अगस्त्य की चुल्लू भर में आ जाना कोई कठिन बात नहीं है / चुल्लू भर में आ जाने का कारण बता देने से कायलिंग स्पष्ट ही है / 'विद्याधर 'अत्र विरोधातिशयोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं। अतिशयोक्ति का यह नया ही प्रकार है / 'मुद्र' 'मुद्रः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / ( अगस्त्य द्वारा समुद्र पान के सम्बन्ध में पीछे सगं 4 श्लोक 58 अथवा सर्ग 6 श्लोक 2 देखिये। संसारसिन्धावनु बिम्बमत्र जागति जाने तव वैरसेनिः / बिम्बानु विम्बौ हि विहाय धातुन जातु दृष्टातिसरूपसृष्टिः // 46 / / अन्वयः-अत्र संसार-सिन्धी वैरसेनिः तव अनुबिम्बम् जागति ( इति ) जाने, हि धातुः अतिसरूपसृष्टिः बिम्बानुबिम्बो विहाय जातु न दृष्टा / टीका-अत्र अस्मिन् संसार: जगत् एव सिन्धुः सागरः तस्मिन् ( कर्मधा०) वैरसेनिः वीरसेनपुत्रो नल इत्यर्थः तव अनुविम्बम् प्रतिबिम्बम् जागति स्फुरति इत्यहं जाने मन्ये; हि यतः धातुः ब्रह्मणः समान रूपम् सौन्दर्यम् ( कर्मघा० ) येषां तथाभूताः (ब० वी० ) अतिशयेन समानरूपाः इति अति० (प्रादि तत्पु०) तेषाम् सृष्टिः रचना (10 तत्पु० ) बिम्बः वस्तु च अनुविम्बः प्रतिबिम्बः चेति ( द्वन्द्व ) बिहाय त्यक्त्वा जातु कदाचिदपि न दृष्टा विलोकिता, जले दर्पणे वा पतितः कस्यापि वस्तुनः प्रतिबिम्बः पूर्णतया वस्तुनः अर्थात् बिम्बस्य समानो भवति, बिम्बप्रतिबिम्बयोर्मध्ये ईषदपि भेदो न दृश्यते, किन्तु बिम्ब-प्रतिबिम्बातिरिक्ता सर्वापि ब्रह्मणः सृष्टि: रूपे नात्यन्तसमाना भवति / त्वं तु नलेन अत्यन्त समानोऽसीति भावः / / 46 // ... व्याकरण-संसार संसरतीति सम् +/स + घन / वरसेनिः वीरसेनस्यापत्यं पुमानिति वीरसेन + इन् / अनुबिम्बम् अनुगतो बिम्बमिति / अनुवाद -"इस संसार-रूपी सागर में नल तुम्हारे प्रतिबिम्ब-रूप में चमकते हैं-ऐसा में मानती हैं, क्योंकि ब्रह्मा की सृष्टि में बिम्ब-प्रतिबिम्ब को छोड़. कर अत्यन्त समान रूप वाले नहीं देखे गये हैं" // 46 // . टिप्पणी-संसार में देखा गया है कि बिम्ब के अत्यन्त समान प्रतिबिम्ब रही हुमा करता है, दूसरा नहीं, क्योंकि सभी में कुछ वैषम्य भी रहता है / नल Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः अत्यन्त सुन्दर है। तुम में मैं उनकी प्रतिच्छाया पा रही हूँ। शंका होती है कि तुम नल तो नहीं हो क्या? यहाँ उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक 'जाने' शब्द है / विद्याधर पूर्वार्ध विशेष बात का उत्तरार्ध सामान्य बात से समर्थन में अर्थान्तरन्यास कहते हैं, जो ठीक ही है। वे उपमा भी मानते हैं जो 'संसार-सिन्धौ' में है किन्तु हमारे विचार से यह रूपक है / संसार पर सिन्धुत्वारोप के बिना प्रतिबिम्ब की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतिबिम्ब के लिए जल चाहिए, जो सिन्धुत्वारोप में ही संभव है, औपम्य में नहीं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। 'बिम्ब' एक से अधिक बार आवृत्त होने से वृत्त्यनुप्रास ही बना रहा है। हो 'दृष्टा' 'सृष्टिः' में ष, ट की सकृत् आवृत्ति में छेक बन सकता है / इयत्कृतं केन महीजगत्यामहो महीयः सुकृतं जनेन / पादौ यमुद्दिश्य तवापि पद्यारजःसु पद्मस्रजमारभेते / / 47 // अन्वयः-केन जनेन महीजगत्याम् इयत् महीयः सुकृतं कृतम् अहो ! यम् उद्दिश्य तव अपि पादौ पद्यारजस्सु पद्मस्रजम् आरभेते / टीका-केन जनेन व्यक्त्या मही चासो जगती जगत् तस्याम् ( उपपद तत्पु०) भूलोके इत्यर्थः इयत् एतावत् महीय: महत्तरम् सुकृतम् पुण्यम् कृतम् अनुष्ठितम् अहो! इत्याश्चर्ये यम् जनम् उद्दिश्य लक्ष्यीकृत्य तव अतिसुकुमारस्य महापुरुषस्य अपि पावौ चरणी पद्यायाः मार्गस्य रजस्सु धूलिषु पद्मानां कमलानाम् स्रजम् मालाम् आरभेते रचयतः कोऽस्त्येतादृशः पुण्यात्मा यस्य पार्वे तादृशः सुकोमलस्त्वम् पादचारी गच्छसीति भावः // 47 // व्याकरण-मही इसके लिए पीछे श्लोक 44 देखिये / जगती गम् + अति ( निपातनात् साधुः ) महीयः अतिशयेन महत् इति महत् + ईयसुन् / सुकृतम् सु + कृ + क्त ( भावे ) / पद्या पदमस्यां दृश्यमिति पद + यत् + टाप् / स्रज सृज्यते इति सृज् + क्विप् ( निपातनात् साधुः ) / अनुवाद-"आश्चर्य है कि किस व्यक्ति ने भूलोक में इतना बड़ा भारी पुण्य कर रखा है, जिसको लक्ष्य करके तुम्हारे तक के भी पैर मार्ग की धूलि पर कमलों की माला बना रहे हैं ?" // 47 / / टिप्पणी-तुम-जैसे इतने सुकोमल महापुरुष जिस व्यक्ति के पास पैदल ही जावें, उसे महापुण्यशाली होना चाहिये। यहाँ धूलि पर पैरों की छाप पर Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 नैषधीयचरिते कमल के चिह्न बनते जा रहे हैं, जिससे मार्ग में कमलों की माला-जैसी बनती जाती थी। परों में कमल-चिह्न सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार महाभाग्य के प्रतीक हैं। यहाँ पैरों और कमलों के भिन्न होने पर भी उनमें अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है / 'तवापि' में अपि शब्द के बल से 'औरों का तो कहना ही क्या' इस अर्थ के आ पड़ने से अर्थापत्ति भी है / 'मही' 'मही' में यमक, "पादो' 'पद्या' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ब्रवीति मे कि किमियं न जाने संदेहदोलामवलम्व्य संवित् / कस्यापि धन्यस्य गृहातिथिस्त्वमलीकसंभावनयाथवालम् // 48 // अन्वयः-'इयम् मे संविद् सन्देह-दोलाम् अवलम्ब्य किम किम् ब्रवीति' इति ( अहं ) न जाने / त्वम् कस्य अपि धन्यस्य गृहातिथिः असि, अथवा अलीकसंभावनया अलम् / टीका-इयम् एषा मे मम संविद् बुद्धिः ( 'स्त्री संविज्ञानसंभाष' इत्यमरः) मन इति यावत् सन्देहः संशय एव दोला पंखा ( कर्मधा० ) ताम् अवलम्ब्य आश्रित्य किम् किम् अर्थात् त्वम् नल: एव अन्यो वा, मामेव प्रति आगतः अन्यं प्रति वेत्यर्थः ब्रवीति वक्ति इति अहं न जाने वेनि न निश्चिनोमीत्यर्थः / त्वम् कस्य अपि मदतिरिक्तस्य धन्यस्य पुण्यशालिनः गृहे अतिथिः प्राघुणिकः असि मम तु नेति शेषः अथवा अन्यातिथित्वाभावविकल्पे ममैवातिथित्वे इति यावत् अलीका मिथ्या संभावना कल्पना ( कर्मघा०) तया अलम् अर्थात् एतादृशी कल्पना यत् त्वम् ममैव पावें आगतः न कार्या ममैतादृशः धन्यत्वाभावात् / / 48 // व्याकरण-संविद् सम् + /विद् + क्विप् ( भावे ) / सन्देहः सम् + / दिह + घन ( भावे ) / दोला दोल्यतेऽनयेति /दुल + घन ( करणे) + टाप् / धन्यः धनं लब्धा इति धन + यत् ('धनगणं लब्धा' 4 / 4 / 84) / अतिथिः अतति ( गच्छति, न तु तिष्ठति ) इति / अत् + इथिन् / मनु ने कहा है ---'एकरात्रं तु निवसन अतिथिब्रह्मिणः स्मृतः / अनित्यं हि स्थितो यस्मात् तस्मादतिथिरुच्यते' ( 3 / 102) / यास्क के अनुसार 'अतति ( गच्छति ) तिथिषु ( पौर्णमास्यादिषु )' इति निपातनात् अथवा हमारे विचार से न तिथिः आगमन-निश्चितकालो यस्येति / संभावना सम् + Vभू + णिच् + युच् + टाप् / अलम् निषेधार्थक होने से 'संभावनया' में तृ० / Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम: सर्ग: 303 अनुवाद-"यह मेरी बुद्धि संदेह के भूले पर चढ़कर क्या-क्या बोलती है यह मैं नहीं जान पा रही हूँ। तुम किसी पुण्यशाली के घर के अतिथि हो अथवा झूठी कल्पना नहीं करनी चाहिए ( कि तुम मेरे ही अतिथि हो )" // 48 // टिप्पणी-दमयन्ती के मन में आगन्तुक के सम्बन्ध में तरह-तरह के विचार उठ रहे हैं कि यह कौन होगा-नल हैं या अन्य, मेरे पास आये हैं या कहीं अन्यत्र जा रहे हैं, मैं इतनी भाग्यशालिनी कहाँ जो मेरे पास आय इत्यादि इत्यादि / विद्याधर यहाँ आक्षेप अलंकार कह रहे हैं / यह वहाँ होता है, जहाँ किसी विवक्षित बात को ऊपरी तौर से दबा दिया जाता अथवा उसका निषेध कर दिया जाता है / सन्देह पर दोलात्वारोप में रूपक है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। प्राप्तैव तावत्तव रूपसृष्टि निपीय दृष्टिर्जनुषः फलं मे। अपि श्रुती नामृतमाद्रियेतां तयोः प्रसादीकुरुषे गिरं चेत् // 49 // अन्वयः-तावत् मे दृष्टिः तव रूप-सृष्टिम् निपीय जनुषः फलम् प्राप्ता एव, ( अथ ) श्रुती अपि अमृतम् नाद्रियेताम् चेत् गिरम् तयोः प्रसादीकुरुषे ? टीका-तावत् प्रथमतः मे मम दृष्टि: दृक् तव ते रूपस्य सौन्दर्यस्य सष्टिम्स् रचनाम् ब्रह्मणः सृष्टी लोकोत्तरसौन्दर्यमित्यर्थः निपीय सादरं विलोक्य जनुषः स्वस्य जन्मनः फलम् प्रयोजनम् प्राप्ता लब्धा एव, दृष्टिः स्वजीवनसाफल्यमवाप्तवती एवेत्यर्थः अथ श्रुती कणों अपि अमृतम् सुधाम् न आद्रियेताम् आदरेण न पिबताम् किमिति काकुः अपि तु आद्रियेतामेव चेत् यदि गिरम् स्वीयां वाणीम् तयोः श्रुत्योः अप्रसादं प्रसादं सम्पद्यमानं कुरुषे इति प्रसादीकुरुषे प्रसन्नीभूय मम प्रश्नोत्तरं दास्यसीत्यर्थः / मम चक्षुषा तब लोकोत्तरसौन्दर्य पीतम् अथ कौं अपि त्वद्वचनामृतं पातुमिच्छतः इति भावः // 49 // __व्याकरण-निपीय इस सम्बन्ध में सर्ग 1 का श्लोक 1 देखिए / दृष्टिः दृश्यते अनयेति /दृश् + क्तिन् ( करणे)। जनुस/ जन् + उस् / श्रुति श्रूयते:नयेति श्रु + क्तिन् ( करणे ) / अमृतम् / मृ + क्त ( भावे ) न मृतम् ( मृत्यु : ) येन तत् ( नत्र ब० वी० ) / प्रसादीकुरुषे प्रसाद + च्चि, ईत्व कृ% + लट् / अनुवाद--"पहले तुम्हारी सौन्दर्य-सृष्टि का पान करके आँखों ने जन्म का फल पा लिया है, ( अब ) कान भी क्या अमृत ( पान ) का आदर न करें यदि ( तुम ) उनको वाणी का प्रसाद दो तो?" // 49 // Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 नैषधीयचरिते टिप्पणी-भाव यह है कि जो-जो प्रश्न मैंने किये हैं, उन सबका उत्तर देने की कृपा कीजियेगा। प्रसन्न होकर जो कुछ तुम कहोगे, वह कानों को अमृत का पान करने का सा आनन्द देगा। यहाँ वचन और अमृत में भेद होने पर भी दोनों का अभेदाध्यवसाय कर रखा है, अतः भेदे अभेदातिशयोक्ति है / 'गिरम्' पर प्रसादत्वारोप में रूपक है / 'तावत्तव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / इत्थं मधूत्थं रसमुगिरन्ती तदोष्ठबन्धूकधनुर्विसृष्टा / कर्णात्प्रसूनाशुगपञ्चबाणी वाणीमिषेणास्य मनो विवेश // 50 // अन्वयः-इत्थम् मधूत्थम् रसम् उगिरन्ती तदोसृष्ठ "टा प्रसूबाणी वाणीमिषेण कर्णात् अस्य मनः विवेश / ____टीका-इत्थम् एवम् मधुनः माक्षिकात् उत्तिष्ठति उत्पद्यते इति तम् ( उपपद तत्पु० ) रसम् धाराम् मकरन्दप्रवाहमित्यर्थः उगिरन्ती स्रवन्ती तस्याः दमयन्त्याः ओष्टः दन्तच्छदः (10 तत्पु० ) एव बन्धूकम् बन्धुजीवः ( 'थन्धूको बन्धुजीवः' इत्यमरः ) तदेव धनुः चापः ( कर्मधा० ) तेन विसृष्टा मुक्ता ( तृ तत्पु० ) प्रसूतानि पुष्पाणि आशुगाः बाणाः यस्य तथाभूतस्य कामदेवस्येत्यर्थः (ब० वी० ) पञ्चवाणी ( 10 तत्पु० ) पञ्चानां बाणानां समाहारः ( समाहार द्विगु ) वाण्याः वाचः मिषेण व्याजेन ( 10 तत्पु० ) कर्णात् कर्णं प्रविश्य अस्य नलस्य मनः मानसम् विवेश प्राविशत् / दमयन्त्याः मदुमधुरवचनानि निशम्य नलः कामपीडितोऽभवदिति भावः // 50 // व्याकरण-इत्थम् इदम् + थम् ( प्रकारवचने ) / मधूत्थम् मधु + उत् + /स्था + क ( कर्तरि ) / उगिरन्ती उत् + /ग + शतृ + ङीप् / प्रसूनम् प्र + Vसू + क्त, त को न / आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + ड / कर्णात कर्णं प्रविश्य ल्यप्-लोप में पञ्चमी। __ अनुवाद-इस तरह मकरन्द रस उगलते हुए उस ( दमयन्ती ) के होंठरूपी गुड़हल पुष्प के धनुष से फेंके कामदेव के पांच ( पुष्प-रूप ) बाण वाणी के बहाने इस ( नल ) के कान से होकर मन के भीतर प्रवेश कर गये // 50 // टिप्पणी-कामदेव के पांचों बाणों के एक साथ प्रवेश करने से जिस तरह कामव्यथा होती है, वैसे ही दमयन्ती की वाणी को सुनकर नल को भी हुई। ओष्ठ पर बन्धूकत्वारोप में रूपक, वाणी-मिषेण में अपह्नुति, 'वाणी' Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सगः 'वाणी' में ( बवयोरभेदात् ) यमक 'इत्थं' 'मधूत्थं' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / कामदेव के पांच बाणों के सम्बन्ध में पीछे श्लोक 4 देखिये / अमज्जदाकण्ठमसौ सुधासु प्रियं प्रियाया वचनं निपीय / द्विषन्मुखेऽपि स्वदते स्तुतिर्या तन्मिष्टता नेष्टमुखे त्वमेया // 51 / / अन्वयः-असौ प्रियायाः प्रियम् वचनम् निशम्य सुधासु आकण्ठम् अम. ज्जत, या स्तुतिः द्विषन्मुखे अपि स्वदते तन्मिष्टता इष्ट-मुखे तु अमेया न (किम् ) ? टोका-असौ नलः प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः प्रियम् मधुरम् वचनम् वाणीम् निशम्य श्रुत्वा सुधासु अमृतेषु कण्ठम् मर्यादीकृत्येति आकण्ठम् कण्ठपर्यन्तम् ( अव्ययी. ) अमज्जत मग्नोऽभवत् / या स्तुतिः प्रशंसा द्विषतः शत्रोः मुखे वक्त्रे ( 10 तत्पु० ) अपि स्वदते रोचते तस्याः मिष्टता माधुरी इष्टस्य प्रियजनस्य मुखे वक्त्रे ( 10 तत्पु० ) तु पुन: अमेया मातुमशक्या अपरिमितेति यावत् न ( किम् ) ? अपि तु अमेया एवेति काकुः। आत्मस्तुतिः शत्रुणापि क्रियमाणा रुचिकरी भवति प्रियजनकृता तु सा कस्मानापरिमितम् आनन्दं जनयिष्यतीति भावः / / 51 // व्याकरण-प्रियम् प्रीणातीति /प्री + क / स्तुतिः /स्तु + क्तिन् (मावे) / द्विषत् / द्विष् + शतृ / अमेया न + /मा + यत् / अनुवाद-वह ( नल ) प्रिया के वचन सुनकर अमृत में गले-गले तक डूब गये / जो प्रशंसा शत्रु के भी मुख में अच्छी लगती है, उसकी मधुरता प्रिय जन के मुख में तो अपरिमित क्यों नहीं होगी ? // 51 / / टिप्पणी-वैसे तो शत्रु की अन्य सभी बातें हमें बुरी लगती है, किन्तु यदि वह स्तुति करने लगे तो वह अच्छी ही लगती है-यह एक सामान्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है। कालिदास भी यह बात मानते हैं-स्तोत्रं कस्य न तोपकम् ?' / प्रिया द्वारा की गई आनो स्तुति सुनकर नल के हृदय में आनन्द का सागर उद्वेलित हो उठा-पूर्वार्ध में कही इस विशेष बात का उत्तरार्ध में कही सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है / 'द्विषन्मुखेऽपि' में अपि शब्द द्वारा कैमुतिक न्याय से और की तो बात ही क्या ?' इस अर्थ की आपत्ति से अापत्ति अलंकार भी है। मल्लिनाथ अमृत में डूब जाने का कारण Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते प्रिया का प्रियवचन-श्रवण होने से काव्यलिङ्ग लिख रहे हैं, जो ठीक ही है। 'प्रियं' 'प्रिया' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास हैं। पौरस्त्यशेलं जनतोपमीता गृह्णन् यथाह्नःपतिरध्यपूजाम् / तथातिथेयोमथ संप्रतोच्छन् प्रियापितामासनमाससाद // 52 // अन्वयः-अथ अह्नः पतिः जनतोपनीताम् अर्घ्यपूजाम् गृह्णन् यथा पौरस्त्यशैलम् ( आसादयति ), तथा प्रियापिताम् आतिथेयीम् सम्प्रतीच्छन् आसनम् आससाद // 52 // टीका-मथ अनन्तरम् अह्नः दिवसस्य पतिः स्वामी ( 10 तत्पु० ) सूर्य इत्यर्थ; जनानां समूहो जनता तया उपनीताम् उपहृताम् समर्पितामिति यावत् अथिं जलम् अयम् तदेव पूजाम् अर्चनाम् ( कर्मधा० ) गृह्णन् स्वीकुर्वन् यथा पौरस्त्यम् पुरो भवम् प्राच्यमित्यर्थः शैलम् पर्वतम् उदयाचलमिति यावत् आसादयति, तथा प्रियया दमयन्त्या अपिताम् दत्ताम् आतिथेयोम् अतिथिषु साध्वीम् पूजाम् आतिथ्यमित्यिर्थः सम्प्रतीच्छन् प्रतिगृह्णन् नलः आसनम् पीठम् आससाद अधिष्ठितवान् / / 52 // __ व्याकरण--जनता जन + तल ( समूहार्थ में ) / अध्यम् अर्थार्थ जलमितिअर्घ + यत् / पौरस्त्य पुरो भव इति पुरस् + त्यक् / आतिथेयीम् अतिथिषु साधुः इति अतिथि + ढम् ( साध्वर्थे ) + ङोप ( ‘पथ्यतिथि०' 4 / 4 / 104 ) / सम्प्रती. च्छत् सम् + प्रति + /इष् + शतृ / अनुवाद-तदनन्तर जिस प्रकार सूर्य भगवान् जनता द्वारा दिये गये अर्घजर रूप में पूजा प्रहण करते हुए उदयाचल पर विराजमान होते हैं उसी प्रकार प्रिया द्वारा दिये गये अतिथि सत्कार स्वीकार करके नल आसन पर विराज गये // 52 // टिप्पणी-यहाँ पर नल के आसन पर बैठने की तुलना सूर्य से की गई है, अतः उपमालंकार है। 'नतो' 'नीता', 'तथा' 'तिथे' में छेक, 'मास' 'मास' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रियापितमासनम् '-नारायण ने यहाँ आसन से दमयन्ती का छोड़ा हुआ अपना आसन लिया है अर्थात् नल दमयन्ती के खाली किये हुए उसके आसन पर विराज गये किन्तु मल्लिनाथ ने 'अस्या वयस्यासनम्' पाठ दिया है अर्थात् नल दमयन्ती के आसन पर नहीं बैठे प्रत्युत उसकी सखी के Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 311 आसन पर बैठे। वे कारण यह देते हैं-'दूत्यावस्थायामनौचित्यात्' अर्थात् दूत का मालकिन के आसन पर बैठना सर्वथा अनुचित है, अनधिकार चेष्टा है / अयोधि तीर्थमनोभवाभ्यां तामेव भैमीमवलम्ब्य भूमिम् / आह स्म यत्र स्मरचापमन्तश्छिन्न भ्रुवौ तज्जयभङ्गवार्ताम् // 53 // अन्वयः-तद्धैर्य-मनोभवाभ्याम् ताम् एव भूमिम् अवलम्ब्य अयोधि, यत्र अन्तः छिन्नम् भ्रवौ स्मरचापम् तज्जयभङ्गवार्ताम् आह स्म / ___टीका-तस्य नलस्य धैर्य-मनोभवाभ्याम् (10 तत्पु० ) धैर्यम् धृतिश्च मनोभवः कामश्च ताभ्यात् ( द्वन्द्व ) ताम् दमयन्तीम् एव भूमिम् रण-स्थलीम् अवलम्ब्य आश्रित्य दमयन्ती-रूपयुद्धस्थलेः इत्यर्थः अयोधि युद्धं कृतम्, यत्र भूमौ अन्तः मध्ये छिन्नम् त्रुटितम् भ्रवौ एव स्मरस्य कामस्य चापम् धनुः तयोः धैर्यकामयोः यथाक्रमम् जयभङ्गवार्ताम् (10 तत्पु० ) जयश्च भङ्गः पराजयश्चेति ( द्वन्द्व ) तयोः वार्ताम् समाचारम् (10 तत्पु० ) आह स्म कथयति स्म भ्रूरूपधनुषो मध्ये द्विधा खण्डितत्वेन कामस्य पराजयः धर्यस्य च विजयो ज्ञायते इति भावः / / 52 // ___ व्याकरण-धैर्यम् धीरस्य भाव इति धीर + व्यञ् / मनोभवः मनसो भवतीति मनस् + /भू + अप् ( अपादाने ) / अयोधि/युध् + लुङ् ( भाववाच्य ) आह स्म / + लट ब्र को विकल्प से आह आदेश और लिट के अर्थ में स्म / अनुवाद-उस ( नल ) के धैर्य और काम उस ( दमयन्ती ) को रणस्थल बनाकर लड़ पड़े, जहाँ बीच में टूटे पड़े ( दमयन्ती के ) भ्रू-रूप काम के धनुष ने ( क्रमशः उन दोनों के ) जय-पराजय की बात कह दी / / 53 / / टिप्पणी- यहाँ कवि नल के हृदय में उठे अन्तर्भावों के द्वन्द्व' का वर्णन कर रहा है। एक ओर उनका धैर्य डटा हुआ है यह समझा रहा है कि खबरदार तुम दूत हो, प्रेमी नहीं, दूत्यकर्तव्य से मत विचलित होना, दूसरी ओर दमयन्ती का सौन्दर्य देख. मधुर वचन सुन काम उन्हें भड़का रहा है कि भूल जाओ कि तुम दूत हो / प्रेयसी मिल गई, उड़ाओ मौज / इस अन्तःसंघर्ष में अन्ततोगत्वा धैर्य जीत गया और काम हार गया। दमयन्ती की भौहें कामदेव का धनुष है। भौंहें वीच में टूटी हुई हैं, एकसार मिली नहीं हैं। इसलिए जिस योधा का धनुष बीच में दो-टूक हो जाता है, वह हारा ही समझा जाता है / भाव यह Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 नैषधीयचरिते निकला कि प्रिया को देख उत्पन्न हुए काम को नल ने धैर्य के साथ दबा दिया और उसे अपने पर हावी नहीं होने दिया। दमयन्ती पर रणभूमित्वारोप और उसके भौहों पर कामचापत्वारोप होने से रूपक तथा धैर्य और काम भावों के चेतनीकरण से समासोक्ति है / धैर्य और मनोभब के साथ क्रमशः जय और भंग का अन्वय होने से यथासंख्यालंकार भी है। शब्दालंकारों में 'भैमी' 'भूमि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अथ स्मराज्ञामवधीर्य धैर्यादूचे स तद्वागुपवीणितोऽपि / विवेकधाराशतधौतमन्तः सतां न कामः कलुषीकरोति // 54 / / अन्वयः-अथ तद्-वागुपवीणितः अपि सः धैर्यात् स्मराज्ञाम् अवधीर्य ऊचे ! कामः विवेकधारा गतधौतम् सताम् अन्तः न कलुषीकरोति / टीका-अथ एतदनन्तरम् तस्याः दमयन्त्याः वाक् वाणी (10 तत्पु०) तया उपवीणितः वाग्रूपवीणया उपगीतः स्तुत इति यावत् ( तृ० तत्पु० ) अपि स नल; धैर्यात् दृढमनोबलात् धैर्यमवलम्ब्येत्यर्थः स्मरस्य कामस्य आज्ञाम् आदेशम् अवधीयं अवज्ञाय ऊचे उवाच, प्रियामुखात् स्वप्रशंसां निशम्यापि नलः कामाधीनो न, जातः इति भावः। कामः विवेकानाम् कर्तव्याकर्तव्यबोधानाम् धाराणां प्रवाहानाम् शतः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) धौतम् प्रक्षालितम् ( तृ० तत्पु० ) अन्तः अन्तःकरणम् न अकलुषं कलुपं सम्पद्यमानं करोतीति कलुषीकरोति मलिनीकरोति / विवेकिनः कामवशीभूताः न भवन्तीति भावः / / 54 // व्याकरण--उपवीणित: उप + वीणा + णिच + क्त ( 'सत्यापपाश० 3 / 1 / 25 ) / धैर्यात् इसके लिए पिछला श्लोक देखिये / धैर्यात् धैर्यमवलम्ब्य ल्यप् के लोप में पंचमी है। आज्ञा आ + ज्ञा+ अ + टाप / अवघीय यह चुरादि के अवज्ञार्थक अवधीर् धातु का रूप नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में क्त्वा को ल्यप् नहीं हो सकता है, अवधीरयित्वा ही रहेगा, इसलिए यहाँ अधिपूर्वक ईर् समझिये / अधीर् से फिर अव उपसर्ग लाकर उसे शकन्ध्वादि गण के अन्तर्गत करके व के अ का पररूप मान लें तब अवधीर्य प्रयोग बन सकेगा। ऊचे / + लिट ब्रू को वचादेश / कलुषीकरोति कलुष+च्चि, ईत्व/कृ लट् / अनुवाद-तत्पश्चात् उस ( दमयन्ती ) की वीणा-जैसी वाणी द्वारा प्रशंसित हुआ भी वह ( नल ) धैर्य रखकर कामदेव की आज्ञा ठुकरा करके बोले / . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः कामदेव सज्जनों के अन्तःकरण को-जो विवेक की सैकड़ों धाराओं से धुला रहता है-मैला नहीं बना सकता है // 54 // टिप्पणी-कामदेव का प्रलोभन होते हुए भी नल धैर्य से, मनोबल से नहीं डिगे और अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहे। इन्हें ही धीर पुरुष कहा जाता है। कालिदास ने भी यही कहा है -'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः'। यहाँ पूर्वार्धगत विशेष बात का उत्तरार्ध-गत सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है। मल्लिनाथ पूर्वार्धं में परिसंख्या भी लिख रहे हैं, जो हम नहीं समझ पाये / विद्याधर प्रियतमा की वीणा-जैसी बाणी से अपनी प्रशंसा सुनकर भी स्मराज्ञा के अवधीरण में विशेषोक्ति कह रहे हैं। हमारे विचार से काम द्वारा सज्जनों के मन के कलुषित न किये जाने का कारण बताने में काव्यलिङ्ग भी है / 'धीर्य' 'धैर्या' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / हरित्पतीनां सदसः प्रतीहि त्वदीयमेवातिथिमागतं माम् / वहन्तमन्तर्गुरुणादरेण प्राणानिव स्वःप्रभुवाचिकानि // 55 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! त्वम् ) माम् गुरुणा आदरेण स्वःप्रभुवाचिकानि प्राणान् इव अन्तः वहन्तम्, हरित्पतीनाम् सदसः आगतम् त्वदीयम् एव अतिथिम् प्रतीहि / टीका-(हे दमयन्ति ! त्वम् ) गुरुणा महता आदरेण सह अतिप्रयत्नेनेत्यर्थः स्वः स्वर्गस्य प्रभूणाम् स्वामिनाम् इन्द्रादीनां वाचिकानि सन्देश-वचनानि ( नन्देश-वाग वाचिकं स्यात्' इत्यमरः ) प्राणान् जीवितम् इव अन्तः हृदये वहन्तम् धारयन्तम् हरिताम् दिशानाम् ( 'दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः' इत्यमरः ) पतीनाम् स्वामिनाम् इन्द्रादीनाम् (10 तत्पु० ) सदसः सभातः आगतम् आयातम् त्वदीयम तव सम्बन्धिनम् एव अतिथिम प्राघुणिकम् प्रतीहि जानीहि / इन्द्रादि-दिक्पालः त्वाम् प्रत्येव प्रेषितोऽहम् तवैवातिथिरस्मि, नान्यस्येति भावः // 55 // व्याकरण--वाचिकानि वाक +ठक ('वाचो व्याहृतार्थायाम्' 5 / 4 / 35 ) / प्रभुः प्रभवतीति प्र+ भू + छ / प्राणान् - प्र + /अन् + घञ् (भावे) / सदस:सीदन्त्यामिति/सद् + असि ( अधिकरणे ) / त्वदीयम्...युष्मत् + छ, छ को ईय, युष्मत् को त्वदादेश / अतिथिः इ.के लिए पीछे श्लोक 48 देखिये / प्रतीहि प्रति + /इ + लोट् म० पु० / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 नैषधीयचरिते __ अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) स्वर्ग के स्वामियों ( इन्द्रादि ) के. सन्देश बड़े आदर के साथ प्राणों की तरह हृदय में संजोये हुए मुझे तुम दिक्पालों की सभा से आया हुआ अपना ही अतिथि समझो" // 55 // टिप्पणी-यहाँ नल-दमयन्ती के पूछे हुए 'कहाँ से आये हो ?' 'किसके अतिथि हो ?' इन दो प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं। साथ ही 'गुरुणा आदरेण' से वे अपने दूतधर्म की ओर भी संकेत कर रहे हैं। सन्देशों की हृदय के भीतर छिपाये प्राणों से तुलना करने में उपमा है, 'रुणा' 'रेण' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विरम्यतां भूतवती सपर्या निविश्यतामासनमुज्झितं किम् / या दूतता नः फलिना विधेया सैवातिथेयो पृथुरुद्भवित्री // 56 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) विरम्यताम् सपर्या भूतवती; निविश्यताम्; आसनम् किम् उज्झितम् ? या नः दूतता फलिना विधेया सा एव पृथु: आतिथेयी उद्भवित्री। टोका-( हे दमयन्ति ! ) विरम्यताम् विरामः क्रियताम्, सपर्या पूजा आतिथ्यमित्यर्थः ( 'सपर्या हंणा समा' इत्यमरः / भूतवती जाता; निविश्यताम् उपविश्यताम्, आसनम् किम कस्मात् उज्झितम् त्यक्तम्, या नः अस्माकम् दूतता दूत्यम् फलिना फलवती सफलेति यावत् विधेया करणीया सा एव पृथुः महती आतिथेयो अतिथि सत्कारः उद्धवित्री उत् = उच्चैः भवित्री भविष्यति / मत्कार्य: साफल्यमेव मे आतिथ्यमिति भावः // 56 // ___ व्याकरण-विरम्यताम् वि + रम् + लोट् ( भाववाच्य ) / सपर्याः सपर् ( कण्ड्वा० ) + यक् + अ + टाप् / भूतवती/भू + क्तवत् + ङीप् / निविश्यताम् नि + /विश् + लोट् ( भाववाच्य ) / फलिना फल + इनच् ( ‘फल-वभ्यिा . मिनज् वक्तव्यः ) + टाप् / आतिथेयो इसके लिए पीछे श्लोक 52 देखिए / उद्धवित्री उत् + V भू + तृच् + ङीप् / अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) बस करो; अतिथि-सत्कार हो गया है; बैठ जाओ; आसन क्यों छोड़ा है ? जो हमारा दूत-कर्म सफल बना दिया जाय, तो वही बड़ी भारी अतिथि-सेवा होगी" // 56 // टिप्पणी-आसन छोड़ देना आदि उपचार छोड़ो। जिस काम के खातिर Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 315 मै यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ, उसे सफल बना दो / विद्याधर ने यहाँ कायलिंग कहा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। कल्याणि ! कल्यानि तवाङ्गकानि कच्चित्तमां चित्तमनाविलं ते। अलं विलम्बेन गिरं मदीयामाकर्णयाकर्णतटायताक्षि ! // 57 // अन्वयः हे कल्याणि ! तव अङ्गकानि कल्यानि कच्चित्तमाम् ? ते चित्तम् अनाविलम् कच्चित्तमाम् ? विलम्बेन अलम्; हे आकर्णतटायताक्षि ! मदीयाम् गिरम् आकर्णय / टीका हे कल्याणि भद्रे ! तव ते अङ्गकानि मृदूनि अङ्गानि कल्यानि सुस्थानि नीरोगाणीति यावत् ( 'कल्यौ सज्ज-निरामयो' इत्यमरः ) कच्चितमाम् इति प्रश्ने ( 'कच्चित्कामप्रवेदने' इत्यमरः ) अपि शरीरं सुस्थमित्यर्थः / ते चित्तम् मनः अनाविलम् अकलुषम् शान्तमित्यर्थः कच्चित्तमाम् ? विलम्बेन कालातिपातेन अलम् विलम्बो न कर्तव्य इत्यर्थः कर्णयोः तटौ प्रान्ती ( 10 तत्पु० ) मर्यादीकृत्येति आकर्णतटम् ( अव्ययी०) आयते दीर्घे ( सुप्सुपेति समासः ) अक्षिणी नयने ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी ( ब० वी० ) कर्णपर्यन्तविस्तृतलोचने ! इत्यर्थः मदीयाम् मामिकाम् गिरम् वचनम् आकर्णय शृणु // 57 // व्याकरण-अङ्गकानि अङ्ग + क ( स्वार्थे ) / कच्चित्तमाम् कच्चित् + तमप ( अतिशायने ) + आम् विलम्बन निषेधार्थक 'अलम्' के साथ तृ० / मदो. याम् अस्मद् + छ, मदादेश / अनुवाद--“हे भाग्यवती ! शरीर से ठीक-ठाक हो न ? तुम्हारा मन (भी) शान्त-प्रसन्न है न ? विलम्ब व्यर्थ है; हे कर्ण प्रान्त पर्यन्त दीर्घ आँखों वाली ! मेरी बात सुनो" / / 57 // टिप्पणी-परस्पर भेंट होने पर सब से पहले राजी-खुशी पूछी जाती है। राजी से तन की तन्दुरुस्ती और खुशी से मन का स्वास्थ्य अभिप्रेत होता है / ये दो ही बातें नल भी दमयन्ती से पूछ रहे हैं / 'कल्या' 'कल्या' तथा 'कर्ण' 'कर्ण' में यमक. अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। कौमारमारभ्य गणा गुणानां हरन्ति ते दिक्षु धृताधिपत्यान् / सुराधिराजं सलिलाधिपं च हुताशनं चार्यमनन्दनं च / / 58 // अन्वयः-( हे दमयन्ति / ) कौमारम् आरभ्य ते गुणानाम् गणाः दिक्षु Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 नैषधीयचरिते धृताधिपत्यान् सुराधिराजम् च सलिलाधिपम् च हुताशनम् च, अर्यमनन्दनम् च हरन्ति / टोका-(हे दमयन्ति ! ) कौमारम् बाल्यम् आरभ्य बाल्यावस्थातः प्रभृती. त्यर्थः ते तव गुणानाम् सौन्दर्यादीनाम् गणाः समूहाः दिक्षु दिशासु धृतम् धारितम् आधिपत्यम् स्वामित्वम् ( कर्मधा.) यः तथाभूतान् (ब० वी०) दिगीशानित्यर्थः सुराणाम् देवतानाम् अधिराजम् अधिपम् इन्द्रमित्यर्थः (10 तत्पु०) सलिलानाम् जलानाम् अधिपम् स्वामिनम् वरुणमित्यर्थः (10 तत्पु० ) हुतस्य प्रक्षिप्तस्य हव्यस्य अशनम् भक्षकम् (10 तत्पु० ) अग्निमित्यर्थः च अर्यम्णः सूर्यस्य नन्दनम् पुत्रम् यममित्यर्थः च (10 तत्पु० ) हरन्ति आकर्षन्ति चत्वारोऽपि दिक्पालाः त्वद्गुणगणम् आकर्ण्य त्वयि आसक्ताः जाता इति भ वः // 58 // व्याकरण-कोमारम् कुमार्याः भाव इति कुमारी + अण् पुंवद्भाव / अधिपत्वम् अधिकं पाति = रक्षतीति अधि +/पा + क ( उपपद तत्पु० ) तस्य भाव इति अधिप + त्व / सुर• इसके लिए पीछे सर्ग 5 श्लोक 34 देखिये / अधिराज: अधिकं राजते इति अधि + राज् + कनिन् किन्तु कालिदास रञ्जयति प्रजाः इति रञ्ज + कनिन् (निपातनात् साधुः ) व्युत्पत्ति मानते हैं, ( 'राजा प्रकृतिरञ्जनात्' ) / अशनः अश्नातीति अश् + ल्यु / नन्दनः नन्द + ल्युः / अनुवाद-“बचपन से लेकर तुम्हारे गुण-गण इन्द्र, वरुण, अग्नि और सूर्य-पुत्र ( यम )-इन दिक्पालों को मोहित कर रहे हैं" // 58 // टिप्पणी-'गणा' 'गुणा' तथा 'धिप' 'धिपं' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। चरच्चिरं शिवयोवनीयद्वैराज्यभाजि त्वयि खेदमेति / तेषां रुचश्चौरतरेण चित्तं पञ्चेषुणा लुण्ठितधैर्यवित्तम् // 59 // अन्वयः-शैशव-भाजि त्वयि चिरम् चरत् तेषाम् चित्तम् रुचः चौरतरेण पञ्चेषुणा लुण्ठित-धर्य वित्तम् ( सत् ) खेदम् एति / टोका-शैशवम् बाल्यं च यौवनं तारुण्यं चेति ( द्वन्द्व ) तयोः इदम् इति यत् द्वराज्यम् द्विराजकता ( कर्मधा० ) तत् भजति प्राप्नोतीति ०भाक् ( उपपद तत्पु० ) तस्याम् वयःसन्धी स्थितायामित्यर्थः स्वयि दमयन्त्याम् चिरम् चिरात् Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 'चरत् गच्छत् वर्तमानमित्यर्थः तेपाम् इन्द्रादीनाम् चित्तम् मनः ( कर्तृ ) रुचः कान्तेः चौरतरेण अतिशयेन चौरेण विरहकारणात् कान्त्यापहारकेणेत्यर्थः पञ्च इषवः वाणाः यस्य तेन ( ब० वी० ) कामेन लुण्ठितम् हृतम् धेयम् धृतिः एव वित्तं धनं ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) सत् खेदम् दुःखम् एति प्राप्नोति / वयःसन्धौ स्थितायाम् त्वयि आसक्ताः चत्वार एव दिक्पालाः धैर्यं विहाय कामपीडिताः सन्तीति भावः // 59 // __ व्याकरण-शैशवम् शिशोर्भाव इति शिशु + अण् / यौवन युवत्या भाव इति युवति + अञ् , पुंवद्भाव / शंशवयौवनोयम् शैशवयौवनयोः इदमिति शैशवयौवन + छ, छ को ईय। द्वराज्यम् द्वौ राजानौं यत्रेति द्विराजः ( समासान्त टच् ) तस्य भावः द्विराज + व्यञ् / ०भाजि/भज् + क्विप् ( कर्तरि ) सप्तमी / रुचः /रुच् + क्विप् ( भावे ) प० / चौरतरेण अतिशयेन चौर इति चौर + तरप्। ___ अनुवाद-शैशव और यौवन की द्विराजकता प्राप्त किये तुम्हारे प्रति चिरकाल से जा रहा उन ( दिक्पालों ) का मन कान्ति को पूर्णतः चुरा लेने वाले कामदेव द्वारा धैर्य-रूपी वन के ( भी ) लूट लिए जाने पर खिन्न हुआ पड़ा है" // 59 // टिप्पणी--दमयन्ती वयःसन्धि में ही थी कि इन्द्रादि देवता उस पर अनुरक्त हो गये। उन्हें काम सताने लगा। दमयन्ती के विरह से जहाँ उनकी सारी शारीरिक कान्ति जाती रही, वहाँ मानसिक धैर्य भी उनका खो गया था इस पर कवि द्विराजकता का अप्रस्तुत-विधान कर रहा है। शैशव और यौवन दो राजे बन गये, जिनके देशों की मध्यवर्ती सीमा में दमयन्ती रह रही है। सीमा में चोर डाकुओं का खतरा सदा बना ही रहता है इधर देखो तो देवताओं का मन दमयन्ती के पास सीमा में चला जाता है। कामदेव के रूप में पाँच वाणों वाले डाकू ने मन के पास जो धैर्य-रूप धन था, वह लूट लिया, लुटा हुआ मन बेचारा खिन्न हुआ बैठा है। शैशव और यौवन पर राज्यत्वारोप, पञ्चेषु पर चीरत्वारोप और धैर्य पर वित्तत्वारोप होने से रूपक है। खेद का कारण वित्त लुण्ठन बताने से काव्यलिङ्ग भी है / विद्याधर ने 'अन्योक्तिरलंकारः' कहा है, जो हमारी समझ में नहीं आ रहा है। 'चित्तं' 'वित्तम्' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'चरचिरं' 'चौर' में च, र वर्णों की Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 नषधीयचरिते , एक से अधिक बार आवृत्ति होने पर छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास ही होगा। पञ्चेषुणा-कामदेव के पांच वाणों के सम्बन्ध में पीछे श्लोक 4 देखिये। तेषामिदानी किल केवलं सा हृदि त्वदाशा विलसत्यजस्रम् / आशास्तु नासाद्य तनूरुदाराः पूर्वादयः पूर्ववदात्मदाराः // 60 // अन्वयः-इदानीम् सा त्वदाशा तेषाम् हृदि केवलम् अजस्रम् विलसति किल उदाराः तनूः आसाद्य आत्म-दाराः पूर्वादयः आशाः तु ( हृदि ) पूर्ववत् न विलसन्ति / टीका-इदानीम् सम्प्रति तव तारुण्यावस्थायामिति यावत सा प्रसिद्धा तव आशा तृष्णा त्वत्प्राप्त्यभिलाष इत्यर्थः अथ च दिशा (10 तत्पु० ) ( 'आशा दिगतितृष्णयोः' इत्यमरः) तेषाम् इन्द्रादीनां लोकपालानाम् हृदि हृदये केवलम् एकमात्रम् अजस्त्रम् निरन्तरम् यथा स्यात्तथा विलसति स्फुरति किल खलु, उदाराः महतीः सुन्दरीश्च ('उदारो महति ख्याते दक्षिणे दानशौण्डके' इत्यमरः) तनूः शरीराणि आसाद्य प्राप्य आत्मनः स्वस्य वारा: भार्याः पूर्वा प्राची आदी यासां तथाभूताः (ब० वी० ) आशाः तु पुनः अद्य तव यौवनारोहणसमये हृदि पूर्ववत् पूर्वमिव न विलसन्ति स्फुरन्ति / पूर्वाद्याः आशाः ( दिशः ) विहाय सम्प्रति देवाः केवलं त्वत्प्राप्त्याशानिबद्धाः सन्तीति भावः // 60 // व्याकरण-इदानीम् इदम् + दानीम् / बाराः यास्कानुसार दारयन्तीति VE + णिच् + अच ( कर्तरि ) / ध्यान रहे कि दार शब्द नित्य बहुवचनान्त और पुल्लिग रहता है। अनुवाद-"इस समय वास्तव में तुम्हारी (प्राप्ति की ) आशा ( अभिलाषा, दिशा) ही एकमात्र उन ( देवताओं) के हृदय में उजागर हो रही है। उनकी उदार ( महान; अनुकूल) शरीर प्राप्त किये निज पत्नियां-पूर्व आदि आशायें-(दिशायें ) तो अब हृदय में पहले की तरह उजागर नहीं होती" // 60 // टिप्पणी-भाव यह है कि इस समय तुम ही इन्द्रादि की एकमात्र आशा हो, पूर्व आदि माशाओं को वे छोड़ बैठे हैं। वे बड़ी हो बैठी हैं और पहले की-जैसी अपनी रोचकता खो गई हैं। नयी तरुणी पत्नी-रूप में मिलने पर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 319 पुरानी बूढ़ियों को छोड़ देना पुरुषों का स्वभाव ही होता है / आशाओं (दिशाओं) का हमारे शास्त्रों में शरीरी के रूप में उल्लेख है। तभी तो वे दिक्पालों की पत्नियाँ बनती हैं। विद्याधर 'अत्रासम्बन्धे सम्बन्धरूपातिशयोक्तिः' कह गये हैं किन्तु हमारे विचार से दो विभिन्न आशाओं-अभिलाषा और दिशाओं --- का श्लेषमुखेन यहाँ अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति होनी चाहिए। मल्लिनाथ के अनुसार “एकस्य हृदयस्य आशाद्वयप्राप्ती एकत्रैव नियमनात् परिसंख्या" कहत हैं। परिसंख्या अलंकार वहाँ होता है जहाँ दोनों जगह स्थापित की जाती है 'दाराः' 'दाराः' में यमक है, जिसका अन्त्यानुप्रास के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर है। 'तुना' 'तनू' तथा 'पूर्वा' 'पूर्व' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अनेन साधं तव यौवनेन कोटि परामच्छिदुरोऽध्यरोहत् / प्रेमापि तन्दि ! त्वयि वासवस्य गुणोऽपि चापे सुमनःशरस्य / / 61 // अन्वयः-त्वयि वासवस्य अच्छिदुरः प्रेमा अपि तव यौवनेन सार्धम् पराम् कोटिम् अध्यरोहत्, सुमनःशरस्य गुणः अपि चापे (पराम् कोटिम् अध्यारोहत् ) / टीक! -हेतन्वि कृशाङ्गि ! त्वयि त्वां प्रति वासवस्य इन्द्रस्य न छिदुरः ( नञ् तत्पु० ) अविच्छिन्नः अतिदृढ इति यावत् प्रेमा अनुरागः अपि तव ते यौवनेन तारुण्येन सह सार्धम् पराम कोटिम उत्कर्षम् ( 'अत्युत्कर्षाश्रयः कोटयः' इत्यमरः ) पराकाष्ठामित्यर्थ अध्यारोहत् प्राप्तवान, सुमनांसि पुष्पाणि शराः बाणाः यस्य तथाभूतस्य / ब० वी० ) कालस्येत्यर्य: गुणः प्रत्यञ्चा अपि चापे धनुषि परां द्वितीयां कोटिम् अटनिम् प्राप्तमित्यर्थः अध्यारोहदिति पूर्वतोऽनुवर्तते / यदैव यौवनं प्राप्तायाम् त्वयि इन्द्रस्यानुरागः परां कोटिमगमत्, तदेव कामचा. पस्य प्रत्यञ्चापि परां कोटिं गता, त्वय्यनुरक्तः इन्द्रः काम-पीडितो भवदिति भावः / 61 // __व्याकरण-यौवनेन इसके लिए पीछे श्लोक 59 देखिये / छिदुराम छिद्यते ( कर्मकर्तरि प्रयोग ) इति /छिद् + कुरच् / वासवस्य वसूनि ( धनानि ) सन्त्यस्येति वसु + अण् ( मतुबथं ) / __ अनुवाद-“हे कृशाङ्गी ! तुम्हारे यौवन के साथ 2 तुम्हारे प्रति इन्द्र का दृढ़ प्रेम भी परा कोटि ( पराकाष्ठा ) को पहुंचा, तो कामदेव के धनुष को डोरी भी परा कोटि ( आखरी सिरे ) पर पहुंची' // 61 / / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 नैषधीयचरिते टिप्पणी-पूर्वोक्त तीन श्लोकों में कवि ने सामान्य रूप से चारों दिक्पालों का दमयन्ती-विषयक अनुराग चित्रित किया है, किन्तु अब व्यक्तिगत रूप में पृथक् 2 वर्णन कर रहा है। मुख्य होने से इन्द्र का ग्रहण पहले किया गया है। दमयन्ती जब बच्ची ही थी, तब काम का चाप बेकार ही पड़ा हुआ था। उस पर प्रत्यञ्चा एक सिरे पर ही लगी हुई थी, किन्तु दमयन्ती पर यौवन क्या निखरा कि काम ने धनुष की प्रत्यञ्चा दूसरे सिरे पर से भी बाँध दी ताकि प्रहार किया जा सके। इन्द्र का युवा दमयन्ती पर प्रेम और कामदेव के धनुष की प्रत्यञ्चा दोनों एक साथ ही परा कोटि को पहुंचे। वास्तव में इन्द्र का प्रेम दमयन्ती पर पहले हुआ तब जाकर कामदेव ने उस पर अपना प्रहार किया, किन्तु यहाँ दोनों को युगपत् बताने से कार्यकारण-पौर्वापर्यविपर्ययातिशयोक्ति है, जो 'सार्धम्' से बनी सहोक्ति को बना रही है, अत: अतिशयोक्ति और सहोक्तिका परस्पर संकर है। कोटि शब्द में श्लेष है जिसका एक अर्थ उत्कर्ष और दूसरा अटनी धनुष का आखरी सिरा है। इसलिए प्रेम और कामचाप की प्रत्यञ्चा-दोनों प्रकृत-प्रकृतों का कोटयधिरोहण रूप एक कर्माभिसम्बन्ध होने से तुल्ययोगिता भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। प्राची प्रयाते विरहादयं ते तापाच्च रूपाच्च शशाङ्कशङ्को। परापराधैनिदधाति भानौ रुषारुणं लोचनवृन्दमिन्द्रः / / 62 / / अन्वयः-अयम् इन्द्रः ते विरहात् तापात् च रूपात् च शशाङ्कशङ्की सन् प्राचीम् प्रयाते भानौ परापराधैः रुषा अरुणम् लोचन-वृन्दम् निदधाति / टीका-अयम् एष इन्द्रः ते तव विरहात् वियोगात् तापात् सन्तापजनकस्वात् रूपात् उदयसमये चन्द्रवत् रक्तवर्णत्वात् वर्तुलाकारत्वाच्च सूर्ये शशाङ्कम् शशः शशकः अङ्कः चिह्न ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) चन्द्रमित्यर्थः शङ्कते शङ्काविषयीकरोतीति यथोक्तः ( उपपद तत्पु०) सन् प्राचीम् पूर्वदिशाम् प्रयाते आगते भानो सूर्ये परस्य अन्यस्य चन्द्रस्येत्यर्थः अपराधैः दोषैः रुषा क्रोधेन अरुणम् रक्तवर्णम् लोचनानाम् सहस्रसंख्यकनेत्राणाम् वृन्दम् समूहम् ( 10 तत्पु० ) निवधाति निक्षिपति / तव विरहे इन्द्रः प्रातः पूर्वदिशि उदयन्तं चन्द्रवत् तपन्तं रक्तवर्ण गोलाकारं च सूर्यं दृष्ट्वा एष चन्द्रः मां संतापयतीति दिवा सूर्ये चन्द्रस्य भ्रान्त्या रोषलोहितानि निजसहस्रनेत्राणि तस्मिन् प्रक्षिपति इति भावः // 61 // Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः व्याकरण-विरहात् वि+रह + अच् ( भावे ) / तापात् /तप् + घञ् ( भावे ) / प्राचीम् प्र= अग्रे अञ्चतीति प्र + अञ्च + क्तिन् + ङीप् / अपराधैः अप + /राध् + घञ् ( भावे ) / रुषा /रुष् + विप् ( भावे ) तृ० / ___अनुवाद-“यह इन्द्र तुम्हारे विरह से ताप और रूप-रंग ( समान होने ) के कारण चन्द्रमा का भ्रम करता हुआ पूर्व दिशा से उदय हुए सूर्य पर, दूसरे के अपराधों से, क्रोध के मारे लाल बने नेत्र समूह डालता रहता है" // 62 // टिप्पणी- इन्द्र को तुम्हारा विरह सता रहा है। चन्द्रमा की किरणें उसे सूर्य की किरणों-जैसी उष्ण लगती हैं, अतः वह प्रातः उदय हुए सूर्य को भी भ्रमवश चन्द्रमा ही समझता रहता है, क्योंकि ताप, आकार-प्रकार और रूप-रंग में प्रातः कालीन सूर्य चन्द्र-सा होता है। चन्द्रमा ने इन्द्र को बहुत सता रखा है, उसे बड़ी उत्पोड़नायें दे रखी हैं इसलिए वह अपराधी चन्द्र के भ्रम से सूर्य पर अपनी क्रोध-भरी दृष्टियाँ डालता रहता है। यहाँ सादृश्य के कारण सूर्य पर चन्द्रभ्रान्ति होने से भ्रान्तिमान अलंकार है / 'याते' 'यं ते तथा 'शाङ्क' 'शाङ्की' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / त्रिनेत्रमात्रेण रुषा कृतं यत्तदेव योऽद्यापि न संवृणोति / न वेद रुष्टेऽद्य सहस्रनेत्रे गन्ता स कामः खलु कामवस्थाम् / / 63 / / अन्वयः-त्रिनेत्रमात्रेण रुषा यत् तम्, तत् एव यः अद्य अपि न संवृणोति, स कामः अद्य सहस्र-नेत्रे रुष्टे ( सति ) काम् अवस्थाम् गन्ता इति न वेद खलु / ___टीका- त्रीणि नेत्राणि यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) महादेव इत्यर्थः त्रिनेत्र एव त्रिनेत्रमात्रम् तेन ( मात्र कात्स्यविधारणे इत्यमरः)। रुषा रोषेण यत् कृतम् नेत्राचिषा भस्मीकृत्य तस्य यत् अनङ्गत्वं कृतम् तत् एव य: कामः अद्यापि अद्य-पर्यन्तमपि न संवृणोति न निहते, तस्य प्रभावम् एतावद्दिनपर्यन्तमपि प्रतिकर्तुं न शक्नोतीत्यर्थः स कामः अद्य सहस्रं नेत्राणि यस्य तयाभूते (ब० वी० ) इन्द्रे इत्यर्थः रुष्टे कुपिते सति काम् अवस्थाम् दशाम् गन्ता गमिष्यतीति, महें न वेद जानामि खलु निश्चयेन / त्रिनेत्रधारिणा एव रुष्टेन कामोऽनङ्गतां नीतः इदानीं रुष्टेन सहस्रनेत्रधारिणाऽसौं कां दशां नीतोऽभविष्यत् इति न ज्ञायते इति भावः // 63 // व्याकरण-रुषा इसके लिए पिछला श्लोक देखिए / अवस्थाम् अव + Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 नैषधीयचरिते स्था + अ + टाप् / गन्ता गम् + लुट् / वेद /विद् + लट, लट् को विकल्प से णल। अनुवाद-त्रिनेत्रधारी ( महादेव ) ने ही क्रोध में जो कुछ किया है उसके ( प्रभाव ) को ही जो कामदेव आज तक छिपा नहीं पा रहा है, वह सहस्रनेत्रधारी ( इन्द्र ) के रुष्ट हो जाने पर किस दशा को प्राप्त होगा मैं निश्चय ही नहीं जानता // 63 // टिप्पणी-त्रिनेत्रवाले महादेव ने ही रुष्ट होकर जब काम को भस्म करके : अनङ्ग बनाकर केवल भावात्मक-रूप रहने दिया है, तो हजार नेत्रों वाले इन्द्र के रुष्ट होने पर उसकी क्या गति हुई होती राम जाने / भाव यह है कि काम इन्द्र को बड़ा उत्पीड़न दे रहा है। विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं जो समझ में नहीं आती महादेव का त्रिनेत्र तथा इन्द्र का सहस्रनेत्र शब्द से प्रतिपादन यहाँ साभिप्राय है इसलिए विशेष्यों के साभिप्राय होने से कुवलयानन्द के अनुसार परिकराङकुर अलंकार है। 'कामः' 'काम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पिकस्य वाङ्मात्रकृताद्वयलीकान्न स प्रभुनन्दति नन्दनेऽपि / बालस्य चूडाशशिनोऽपराधान्नाराधनं शीलति शूलिनोऽपि // 64 / / अन्वयः- स प्रभुः पिकस्य वाङ्मात्रकृतात् व्यलीकात् नन्दने अपि न नन्दति, बालस्य चूडा-शशिनः अपराधात् शूलिनः अपि आराधनम् न शीलति / टीका-स प्रभुः समर्थः इन्द्रः पिकस्य कोकिलस्य वाक् एव वाङ्मात्रम् तेन कृतात् विहितात् व्यलीकात् अप्रियात् ('अलीकं त्वप्रियेऽनृते' इत्यमरः) नन्दने नन्दयतीति नन्दने आनन्ददायके एतदाख्ये उपवने अपि न नन्दति आनन्दं लभते, नालस्य कृशस्य एककलामात्रस्येत्यर्थः चूडायाम् जटायाम् वर्तमानस्य शशिनः चन्द्रस्य अपराधात् आगसः कारणात् चन्द्रकृतपीडनादिति यावत् शूलिनः शूलधारिणः शिवस्येत्यर्थः अपि आराधनम् पूजाम् न शीलति न करोति / सर्वजनानन्दकरे नन्दनवनेऽपि इन्द्र: कोकिलकटुरुत्या दुःखमेति, स्वपीडकस्यापराधिनः चन्द्रस्य कलां चूडायां धारयन्तं शिवमपि नाचतीति भावः // 64 // व्याकरण-प्रभुः प्रभवतीति प्र+भू + छ। वाक् उच्यते इति / वच् + क्विप् दीर्घ, सम्प्रसारणाभाव / शशी शशः अस्मिन्नस्तीति शश + इन् (मतुबर्थ)। अपराधः अप +/राध् + घन् ( भावे ) / शूली शूलमस्यास्तीति शूल + इन् (मतुबर्थ ) / आराधनम् आ + /राध् + ल्युट् ( भावे ) / Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भष्टमः सर्गः 323 अनुवाद-"वह प्रभु ( इन्द्र ) कोयलकी बाणी-मात्र से उत्पन्न हुए दुःख के कारण ( आनन्द देने वाले ) नन्दन में भी आनन्द नहीं अनुभव कर रहा है; जटा में ( रखे ) बाल चन्द्र के ( किये ) अपराध के कारण महादेव तक की भी अर्चना-पूजा नहीं करता' / / 64 // टिप्पणी-इन्द्र प्रतिदिन अपने नन्दन वन में आनन्द लेता रहता था, किन्तु तुम्हारे वियोग में अब कोकिल-गुञ्जित वही बन उसे काटने दौड़ रहा है, वह नित्यप्रति शिवार्चन-रत रहा करता था किन्तु अब अर्चन का नाम भी नहीं लेता क्योंकि शिव ने शिर पर उस चन्द्र को रखा हुआ है, जो उस पर तुम्हारे वियोग में मुसीबतें ढा रहा है। शिव यदि उसके अपराधी चन्द्र को शिर पर रखे, आदर-सम्मान दे, तो उन्हें वह क्यों पूजे / भाव यह निकला कि तुम्हारे विरह में इन्द्र को कोयल की कूकें तथा चन्द्रमा असह्य लग रहे हैं। वह शिवपूजन भी छोड़ बैठा है। यहाँ से कवि इन्द्र को लक्ष्य करके उद्दीपन विभाबों का वर्णन कर रहा है। विद्याधर समासोक्ति कह रहे हैं। क्योंकि चन्द्रमा का चेतनीकरण हो रखा है। हमारे विचार से नन्दन होने पर भी आनन्द न देने में विशेषोक्ति है। 'न शीलति' 'न नन्दति' में कारण बताने से काव्यलिङ्ग भी है / 'नन्द' 'नन्द' 'शील' 'शूलि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तमोमयोकृत्य दिशः परागैः स्मरेषवः शक्रदृशां दिशन्ति / कुहूगिरश्चञ्चुपुटं द्विजस्य राकारजन्यामपि सत्यवाचम् // 65 // अन्वयः-स्मरेषवः परागैः दिशः शक्रदृशाम् तमोमयीकृत्य कुहगिरः द्विजस्य चञ्चु-पुटम् राका-रजन्याम् अपि सत्य-वाचम् दिशन्ति / टीका-- स्मरस्य कामस्य इषवः बाणाः ( प० तत्पु० ) परागैः धूलिभिः बाणानां पुष्षरूपत्वात् तत्र परागः स्वाभाविकः एव, दिशः दशापि ककुभः शक्रस्य इन्द्रस्य दृशाम् नयनानाम् कृते तमोमयीकृत्य अन्धकारपूर्णाः कृत्वा 'कुहः' इति शब्दः अथ च अमावास्या ( कुहः स्यात् कोकिलालाप नष्टेन्दुकलयोरपि' इति विश्वः ) गीः वचनम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) द्विजस्य पक्षिण: पिकस्येत्यर्थः अथ च विप्रस्य चञ्चपुटम् मुखमित्यर्थः राकायाः पौर्णमास्याः रजन्याम रात्रौ अपि सत्या यथार्था वाक् वचनम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) दिशन्ति कथयन्ति / कामस्य पुष्पमयाः शराः दश-दिक्षु स्वपराग Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 नैषधीयचरिते राशीन विकिरन्तः इन्द्रस्य दृष्टीनामग्रे अन्धकारं जनयन्तश्च पौर्णमासीरात्रीरपि अमावास्यारात्रीः कुर्वन्ति, कोकिलश्च 'कुहूः' इत्युच्चार्य 'कुहूः' = अमावास्यवेयम् न पुनः पौर्णमासीति प्रमाणीकरोतीति भावः // 65 // व्याकरण--इषवः इध्यन्ते ( प्रक्षिप्यन्ते ) इति / इष् + उ / शक्रः यास्क के अनुसार शक्नोतीति Vशक् + रक् / तमोमयीकृत्य तम एवेति तमोमय्यः अतमोमयीः तमोमयीः सम्पद्यमानाः कृत्वेति तमस् + मयट् + च्चि, ईत्व कृ + ल्यप् / गीः /गृ + क्विप ( भावे)। द्विजः द्वाभ्यां जायते इति द्वि+ /जन् + ड / रजनिः रज्यतेऽस्यामिति / रत् + कनि। अनुवाद--"कामदेव के बाण परागों द्वारा दिशाओं को इन्द्र की आँखों के आगे अन्धकार-पूर्ण बनाकर 'कुहू' ध्वनि वाले पक्षी ( कोकिल ) के मुख को पौर्णमासी की रात में भी सत्य बोलने वाला बता रहे हैं" / / 65 / / टिप्पणी-भाव यह है कि फूलों के पराग उड़ रहे हैं और कोयल कूक रही है। दमयन्ती के वियोग की तीव्रता एवं व्याकुलता में इन्द्र को अपने चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दीख रहा है। पौर्णमासी की रात तक भी उसकी आँखों के आगे ऐसी अन्धकारमय बनी रहती है जैसी अमावस्या हो / जब कायल पौर्णमासी की रात को 'कुहू कुह' बोलती है तो सचाई बता देती है कि यह अमावास्या की रात है। संस्कृत में कुहू के दो अर्थ हैं-एक 'कुहू कुहू' ध्वनि और दूसरा अमावास्या। इस तरह जो रात लोगों के लिए पूर्णमासी की होती है, वह इन्द्र के लिए अमावास्या की साबित होती है। इस श्लोक की प्रथम सर्ग के श्लोक 100 के साथ तुलना करें तो बड़ा साम्य मिलेगा। यहाँ विद्याधर 'विरोधातिशयोक्त्यलंकारौ' और मल्लिनाथ 'काव्यलिङ्गश्लेषातिशयोक्तिविरोधभ्रान्तिदलङ्कारसङ्करः' लिख रहे हैं। विरोधाभास इस रूप में है कि राका सचमुच कुहू नहीं हो सकती है, वियोग की व्याकुलता में कुहु-जैसी बनना अर्थ करने से परिहार हो जाता है। अतिशयोक्ति इस तरह है कि श्लेष द्वारा दो विभिन्न कुहूओं का यहाँ अभेदाध्यवसाय हो रहा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। "दिशः' 'दृशां' 'दिश' में वर्गों की एक से अधिक बार आवृत्ति वृत्त्यनुप्रास के ही अन्तर्गत होती है / द्विज शब्द को श्लिष्ट मानकर नारायण ब्राह्मण अर्थ भी लेते हुए कहते हैं—'अन्योऽपि ब्राह्मणः कमप्यन्धं प्रति पूर्णिमामवास्यां वदति, सोऽपि मूर्खत्वात् तद्वाचम् अन्यं प्रति सत्यां कथयति / हम इसे ध्वनिही कहेंगे। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 21 अष्टमः सर्गः शरैः प्रसूनैस्तुदतः स्मरस्य स्मर्तुं स कि नाशनिना करोति / अभेद्यमस्याहह वर्म न स्यादनङ्गता चेगिरिशप्रसादः // 66 / / अन्वयः–स प्रसूनैः तुदतः स्मरस्य स्मर्तुम् अशनिना किम् न करोति चेत् अस्य गिरिशप्रसादः अनङ्गता अभेद्यम् वर्म न स्यात् अहह ? ____टीका-स इन्द्र: प्रसूनः पुष्पः तुदत: व्यथयतः स्मरस्य कामस्य स्मर्तुम् स्मृतिविषयीकर्तुम्, कामस्येति कर्मणि षष्ठी कामं स्मृतिशेषं कर्तुम् मारयितुमिति यावत् अशनिना वज्रण किं न करोति अपि तु सर्वमेव करोतीति काकुः चेत् यदि अस्य कामस्य गिरिशम्य महादेवस्य प्रसादः अनुग्रहः (10 तत्पु० ) अनङ्गता न अङ्गयस्थ ( ब० वी० ) तस्य भावः तत्ता भस्म कृत्वा शरीरराहित्यापादनमित्यर्थः अभेद्यम् भेत्तमशक्यम् वर्म कवचम् न स्यात् न भवेत् अहह ! आश्चर्य। रुष्ट इन्द्रः कामं स्ववज्रप्रहारद्वारा स्मृतिशेषतामनेष्यत्, यदि महादेवकृपया सोऽनङ्गतां न प्राप्स्यदिति भावः / / 66 / / ___व्याकरण-प्रसूनः प्र + /सू + क्त, त को न / स्मरस्य स्मर्तुम् 'अधीगर्थदयेशाम् कर्मणि' ( 2 / 3 / 52 ) से कर्म में षष्टी। गिरिशः गिरी ( कैलासे शेते इति गिरि + /शी + ड। अभेद्यम् न + /भिद् + ण्यत् / करोति, स्यात्य हाँ हेतुहेतुमद्भाव होने से क्रियातिपत्ति में लङ प्राप्त है अर्थात् सोऽस्य किं नाकरिष्यत्, यदि अनङ्गता वर्म नाभविष्यत् / ___ अनुवाद-"ओह ! वह ( इन्द्र ) फूलों द्वारा सता रहे कामदेव को स्मृतिशेष बना देने हेतु वज्र से ( उसका ) क्या नहीं कर देता, यदि महादेव के प्रसाद-रूप में (प्राप्त) अनङ्गता इसका अभेद्य कवच न बना हुआ होता' // 66 // टिप्पणो–इन्द्र काम पर बहुत ही क्रुद्ध हुआ बैठा है, किन्तु उसका कुछ नहीं कर पाता, अनंग जो ठहरा / शरीरी होता तो उस पर वज्र प्रहार करता। महादेव का काम को अनंग बना देना एक तरह वरदान ही सिद्ध हुआ। हमारे विचार से यह उल्लास अलंकार का वह भेदविशेष है जहाँ की हुई बुराई भलाई सिद्ध हो जाती है। यहाँ महादेव द्वारा काम का निग्रह अनुग्रह रूप में परिणत हो गया है। विद्याधर अतिशयोक्ति और कायलिंग लिख रहे हैं। अतिशयोक्ति इस रूप में है कि यदि-शब्द के बल से यहाँ असम्बन्ध की कल्पना की जा रही है। कारण बताने से कायलिंग स्पष्ट ही है / 'स्मरस्य' 'स्मर्तुम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 नैवधायचरिते धृताधृतेस्तस्य भवद्वियोगादन्यान्यशय्यारचनाय लूनैः। अप्यन्यदारिद्रयहराः प्रवालेर्जाता दरिद्रास्तरवोऽमराणाम् / / 67 // अन्वयः-अमराणाम् तरवः अन्य-दारिद्रयहराः अपि (सन्तः ) भवद्वियोगात् धृताधृतेः तस्य अन्यान्यशय्यारचनाय लूनैः प्रवालः दरिद्राः जाताः / टीका- अमराणाम् देवतानाम् तरवः वृक्षाः मन्दारादयः अन्येषाम् परेषाम् दारिद्रयस्य द्रव्याद्यभावस्य हराः नाशकाः ( उभयत्र ष० तत्पु०) सन्तः अपि भवत्याः तव वियोगात् विरहात् कारणात् धृता धारिता अधृतिः अधैर्यम् (कर्मधा०) येन तथाभूतस्य ( ब० बी० ) तस्य इन्द्रस्य अन्याः अन्याः प्रतिक्षणं तापनिवारणार्थम् नूतना-नूतना इत्यर्थः याः शय्याः शयनानि ( कर्मधा० ) तासां रचनाय निर्माणाय ( 10 तत्पु० ) लून: प्रोटित: प्रवालैः नवकिसलयः दरिद्राः रहिता इत्यर्थः जाताः अभवन् / कामतापोपशमनाय क्षण-क्षणे नव-नवशयनरचनाविधी छिन्नै: पल्लवैः मन्दारादयः स्वर्गतरवः शुन्याः जाताः इति भावः // 67 // व्याकरण-अमरा: म्रियन्ते इति म + अच् ( कतरि) मराः न मरा इति ( नन तत्पु० ) / दारिद्रयम् दरिद्रस्य भाव इति दरिद्र + ष्यन / धृतिः धृ+ क्तिन् ( भावे ) / अन्यान्य वीप्सा में द्वित्व / शय्या शय्यतेऽत्रेति/शी + क्यप् + टाप / दरिद्राः दरिद्रतीति दरिद्रा + कः / ___ अनुवाद-“अन्य लोगों का दारिद्रय मिटा देनेवाले होते हुए भी देवताओं के ( मन्दार आदि ) वृक्ष आपके वियोग के कारण धैर्य खोये हुए उस ( इन्द्र) की (प्रतिक्षण ) अन्य-अन्य शय्याओं की रचना हेतु तोड़े हुए किसलयों से दरिद्र (खाली) हो गये हैं" // 67 // टिप्पणी-इन्द्र का काम-ताप इतना बढ़ रहा है कि ठंडक पहुंचाने के लिए मन्दार आदि सुरवृक्षों के पत्तों की शय्या बनानी पड़ रही है। वह भी इतनी शीघ्र गर्म हो जाती है कि क्षण-क्षण में नयी शय्या बनाई जाती है। भाव यह निकला कि तुम्हारा वियोग इन्द्र को बड़ी उत्पीड़ना दे रहा है / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति और विरोधाभास लिख रहे हैं। अतिशयोक्ति इस रूप में है कि प्रतिक्षण अन्यान्य शय्याओं अथवा सभी किसलयों के त्रोटन के साथ असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है। जो दारिद्रयापहारक हैं, वे दरिद्र हैंइसमें विरोध है, जिसका परिहार दरिद्र का अर्थ 'रहित' करने से हो जाता है / 'धृता' 'धृते', 'दारिद्रय' 'दरिद्रा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 323 रवैगुणास्फालभवैः स्मरस्य स्वर्णाथकर्णी वधिरावभूताम् / गुरोः शृणोतु स्मरमोहनिद्राप्रबोधदक्षाणि किमक्षराणि // 6 // अन्वयः-स्वर्णाथ-कर्णी स्मरस्य गुणास्फालनभवः रवैः बधिरौ अभूताम्; (स ) गुरोः स्मर' 'दक्षाणि अक्षराणि किम् शृणोतु ? टीका–स्वः स्वर्गस्य नाथः स्वामी इन्द्र इत्यर्थः ( सुप्सुपेति समासः ) तस्य कर्णौ श्रोत्रे (10 तत्पु० ) स्मरस्य कामस्य गुणस्य ज्यायाः यः आस्फालः घट्टनम् ( 10 तत्पु० ) तस्माद् भवतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) रवैः शब्दः धनुष्टङ्कारैरिति यावत् वधिरौ श्रवणशक्तिरहितौ अभूताम् संजातो, अतएव स गुरोः बृहस्पतेः स्मरेण कामेन यो मोहः मूढता ( तृ० तत्पु० ) एव निद्रा स्वापः ( उपपद तत्पु० ) तस्याः सकाशात् यः प्रबोध: जागरणम् (पं० तत्पु० ) तस्मिन् दक्षाणि निपुणानि समर्थानीत्यर्थः अक्षराणि शब्दान् उपदेशवचनानीति यावत् किम् कथम् शृणोतु आकर्णयतु न किमपीति काकुः। कामधनुष्टंकारवधिरीभूतयोः इन्द्रकर्णयोः देवगुरोः वृहस्पतेः उपदेशवचनानि कथं नाम प्रवेशं लभन्तामिति भावः // 68 // व्याकरण-स्वर्णाथः स्वर् + नाथ न को ण ( 'पूर्वपदात्संज्ञायामगः)। आस्फालनात् आ + /स्फाल् + ल्युट ( भावे ) / भवै:/भू + अप् ( अपा. दाने ) रवै:/रु + अप् ( भावे ) / अनुवाद-"स्वर्गपति ( इन्द्र ) के कान कामदेव के धनुष की डोरी खीचने से उठी टंकार ध्वनियों द्वारा बहरे हुए पड़े हैं, काम-कृत मोह-निद्रा से जगाने में सक्षम गुरु ( वृहस्पति ) के वचन वह सुने तो कैसे सुने ?' // 68 // टिप्पणी-इन्द्र ही क्यों, कामपीड़ित किसी भी व्यक्ति के आगे गुरुजन के उपदेश कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते हैं—काम का ऐसा ही मनोविज्ञान है / बाण ने भी कहा है-'गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवण-स्थितं शूलमभव्यस्य / ' 'उद्दामदपश्चि पृथुस्थगितश्रवणविवराश्वोपदिश्यमानमपि ते न शृण्वन्ति' / विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति कही है। सम्भवतः वे दो विभिन्न गुरुओं में अभेदाध्यवसाय मान रहे हों' अथवा बधिरत्व का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध मानते हों। हम बधिरत्व की कल्पना में यहाँ गम्योत्प्रेक्षा कहेंगे। मोह पर निद्रात्वारोप में रूपक है। 'क्षाणि' 'राणि' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंषधीयचरिते अनङ्गतापप्रशमाय तस्य कदर्थ्यमाना मुहरामणालम् / मधो मधौ नाकनदीनलिन्यो वरं वहन्तां शिशिरेऽनुरागम् / / 69 // अन्वयः तस्य अनङ्गतापप्रशमाय मधी-मधी आमृणालम् मुहुः कदथ्यंमानाः नाकनदी-नलिन्यः शिशिरे अनुरागम् वहन्ताम् वरम् / / टोका-तस्य इन्द्रस्य अनङ्गन कामेन यः तापः कामकृत-ज्वरः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) तस्य प्रशमाय शान्त्यर्थम् (10 तत्पु० ) मघो-मघौ प्रतिवसन्तम् मणालानि मर्यादीकृत्येति आमृणालम् मृणालपर्यन्तम् ( अव्ययी० ) मुहुः पौन:पुन्येन कवयंमानाः उत्पीड्यमानाः नाकस्य नवीं स्वर्णदी मन्दाकिनीति यावत् (10 तत्पु० ) तस्याः नलिन्यः पमिन्यः शिशिरे शिशिरतौं अनुरागम् प्रीतिम् वहन्ताम् धारयन्ताम् / वसन्ततौं कामज्वरपीडितस्य इन्द्रस्य तापोपशमनाय स्वर्णद्याः न केवलं कमलानि एव, प्रत्युत मूलभूतानि मृणालान्यपि उच्छिद्य आनीयन्ते / तेन कमलिनीनाम् आत्यन्तिको विनाशः प्रसज्यते तस्मात् ताः शिशिरेऽनुरज्यन्तु इति वरम् यत्र हिमेन कमलविनाशेऽपि सति मूलभूतं मृणालं तु स्थास्यत्येवेति भावः // 69 // व्याकरण-प्रशमः प्र+/शम् + घन ( भावे ) / मधौ-मधौ वीप्सा में द्वित्व / कदय॑मानाः कु-कुत्सिता अर्थाः कदाः, कु को कदादेश, कदर्थाः क्रियन्ते इति कदर्थ + णिच् + शानच् ( कर्मवाच्य नामधा०) / नलिन्या नलिनानि सन्त्यास्विति नलिन + इन् ( मतृबर्थं) + ङीप / शिशिरे यास्काचार्य के अनुसार 'शीयन्तेऽस्मिन् पत्राणीति (पृषोदरादित्वात् साधुः) / अनुरागम् अनु + /रञ्ज + घन् ( भावे ) / अनुवाद-'उस ( इन्द्र ) के काम-ज्वर के प्रशमन हेतु प्रत्येक वसन्त ऋतु में ( फूलों से लेकर ) मृणाल पर्यन्त बार-बार तंग की जा रही सुर-नदी की नलिनियाँ ( वसन्त को छोड़कर) शिशिर से अनुराग करें तो अच्छा रहे" // 69 // टिप्पणी–वसन्त में काम-पीड़ा अधिक होती है, इसलिए इन्द्र का इस ऋतु में काम-ज्वराक्रान्त होना स्वाभाविक है / किन्तु शीतोपचार हेतु मन्दाकिनी को कमलिनियों पर मुसीबतें आ पड़ी हैं। फूल-पत्त निकालें तो कोई बात नहीं, किन्तु उनके मृणाल तक भी उखाड़े जा रहे हैं, जो उनकी जड़ें हुआ करती हैं। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सगः 325 इस तरह तो नलनियों का हमेशा के लिए सफाया ही समझो। अतः वसन्त को छोड़ नलिनियाँ यदि शिशिर में खिलें तो हिम से पुष्प-पत्र ही विनष्ट होंगे, जड़ तो बची रहेगी / जड़ बची रहने से नलिनियाँ फिर भी पनप सकती हैं। विद्याधर के अनुसार 'अत्रातिशयोक्ति-काव्यलिङ्गमलङ्कारः'। हमारे विचार से यहाँ नलिनियों के चेतनीकरण में समासोक्ति है। 'मधौ-मधौ' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दमस्वसः ! सेयमुपैति तृष्णा हरेजगत्यग्रिमलेख्यलक्ष्मीम् / दशां यदब्धिस्तव नाम दृष्टित्रिभागलोभार्तिमसौ बिभर्ति // 70 // अन्वय:-हे दमस्वसः ! सा इयम् हरेः तृष्णा जगति अग्रिम-लेख्य-लक्ष्मीम् उपैति. यत् दृशाम् अब्धिः असौ तव दृष्टि ''भातिम् बिभर्ति नाम / टोका-दमस्य स्वसा भगिनी तत्सम्बुद्धौ (प० तत्पु० ) हे दमस्वस: ! दमयन्ति / सा प्रसिद्धा इयम् एषा हरेः इन्द्रस्य तृष्णा आशा जगति लोकत्रये अग्रिमस्य आदिमस्य लेख्यस्य गणनीयस्य ( कर्मधा० ) लक्ष्मीम् शोभाम् उपैति प्राप्नोति अग्रगण्यास्तीत्यर्थः यत् दृशाम् नयनानाम् अब्धिः समुद्रः सहस्रनेत्रत्वात् नेत्र समुद्रसदृशः इत्यर्थः असौ इन्द्रः तव ते दृष्टे: दृशः त्रिभाग: त्रिशब्दोऽत्र त्रिदशादिशब्दवत् पूरणार्थे ज्ञेयः, तृतीयो भागः इत्यर्थः कटाक्षमात्रमिति यावत् (10 तत्पु० ) तस्य लोभः अभिलाषः ( 10 तत्पु० ) तेन अतिम् पीडाम् तजनितव्यथामिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) बिति धत्त नाम खलु / सर्व तृष्णासु प्रथमम् उल्लेखनीया इन्द्रस्येयमेव तृष्णास्ति यत् स स्वयं सहस्रदृष्टिकोऽपि सन् तव दृष्टे: अनुरागपूर्ण तृतीयांशमेव लभेतेति भावः / / 70 // ___ व्याकरण-तृष्णा तृष् + न + टाप कित्व / अग्रिम-अग्रे भवमिति अग्र + डिमच् / लेख्य लेखितुम् योग्यमिति/लिख + ण्यत् / अब्धिः आपो धीयन्तेऽत्रेति अप् + /धा + कि ( अधिकरणे ) / त्रिभाग यहाँ व्युत्पत्ति त्रिषु भागः यों स० तत्पु० करके तीनों में से एक भाग अर्थात् तृतीय भाग अर्थ करें। ___ अनुवाद-“हे दम की बहिन ! इन्द्र की यह प्रसिद्ध उत्कट अभिलाषा जगत् में सब से आगे उल्लेखनीय ( वस्तु ) की शोभा प्राप्त कर रही है, क्योंकि नयनों का ( स्वयं ) समुद्र-रूप वह तुम्हारे नयन के तृतीय भाग ( प्राप्त करने ) के लोभ की पीड़ा झेल रहा है" // 70 // Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-'जगत् में सब से बड़ी तृष्णा किसकी है?'-यह प्रश्न किया जाय, तो दमयन्ती का प्रेम-भरा कटाक्ष प्राप्त करने की इन्द्र की तृष्णा ही गिनती में सब से पहले आयेगी जिसे पूर्ण करने हेतु वह तड़प रहा है। दमयन्ती! तुम उस पर कटाक्षमात्र कर दो। विद्याधर यहाँ विषमालंकार लिख रहे हैं। कहीं तो स्वयं सहस्र नेत्रों वाला इन्द्र, और कहाँ उसकी दमयन्ती के नेत्र के तृतीय भाग मात्र प्राप्त करने की उत्सुकता। इसे विरुद्ध घटना ही समझिये, जो विषम के लिए भूमि बनाता है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / अग्न्याहिता नित्यमपासते यां देदीप्यमानां तनुमष्टमतेः। आशापतिस्ते दमयन्ति ! सोऽपि स्मरेण दासीभवितुं न्यदेशि // 71 / / अन्वयः-अग्न्याहिताः याम् देदीप्यमानाम् अष्टमूर्तेः तनुम् नित्यम् उपासते, आशापतिः सः अपि हे दमयन्ति ! स्मरेण ते दासीभवितुम् न्यदेशि / टीका-आहितः अग्निः यः ( ब० वी० ) इति अग्न्याहिताः कृताग्न्याधानाः अग्निहोत्रिण इति यावत् याम् देदीप्यमानाम् जाज्वल्यमानाम् अष्टौ मूर्तयः रूपाणि आकाराः इति यावत् यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) महादेवस्येत्यर्थ: तनुम् शरीरम् नित्यम् सदा उपासते सेवन्ते यस्यां नित्यहवनं कुर्वन्तीत्यर्थः आशायाः दिशायाः पतिः स्वामी (10 तत्पु० ) स: अग्निः अपि हे दमयन्ति ! स्मरेण कामेन ते तव अदासः दासः सम्पद्यमानो भवितुमिति दासीभवितुम् न्यदेशि आदिष्टः अर्थात् कामः तस्मै अग्नये अपि आज्ञां ददौ 'स्वम् दमयन्त्याः दासो भवेति' अग्निदेवोऽपि त्वय्यनुरक्तोऽस्तीति भावः / / 71 // __व्याकरण-अग्न्याहिताः ब० बी० में 'आहित' शब्द का पूर्व निपात प्राप्त था, किन्तु “वाहिताग्न्यादिषु" ( 2 / 2 / 37 ) से राजदन्त की तरह वैकल्पिक पर-निपात है / देदीप्यमानाम् दीप् + यङ (क्रियासमभिव्याहारे ) द्वित्व + शानच् ( कर्तरि ) / दासीभवितुम् दास + चि, ईत्व. Vभृ + तुमुन् / न्यदेशि नि + दिश् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / ____ अनुवाद-"अग्निहोत्री लोग आठ मूर्तियों वाले महादेव की धधकती हुई जिस देह की नित्यप्रति उपासना किया करते हैं, उस दिक्पाल ( अग्नि ) को भी कामदेव तुम्हारा दास बनने को आज्ञा दे बैठा है" // 71 // टिप्पणी-इन्द्र का प्रणय-निवेदन समाप्त करके अब नल इस श्लोक से Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 327 लेकर छ श्लोकों तक अग्निदेव की ओर से प्रणय-निवेदन करने जा रहा है। अग्नि अष्टमूर्ति महादेव की अन्यतम मूर्ति है / कालिदास ने अपने शकुन्तला नाटक के मंगलाचरण में इन आठ रूपों को गिना रखा है। वे आठ महादेव के रूप ये हैं.-.-"जलं बतिस्तथा यष्टा सूर्याचन्द्रमसौ तथा। आकाशं वायुरवनी मूर्तयोऽष्टौ पिनाकिन: // " यह कितनी आश्चर्य की बात है महादेव के जिस रूप अग्नि ने कामदेव को भस्म कर दिया था, वही अग्नि कामदेव का वैरी होता हुआ भी आज कामदेव की आज्ञा पर चल रहा है, इस तरह यहाँ विषमालंकार ध्वनित हो रहा है। 'दासी' 'देशि' में ( सशयोरभेदात् ) छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। त्वद्ग्रोचरस्तं खल पञ्चबाणः करोति संताप्य तथा विनीतम् / स्वयं यथा स्वादिततप्तभूयः परं न संतापयिता स भूयः // 72 // अन्वयः-त्वद्गोचरः पञ्चबाणः तम् संताप्य तथा खलु विनीतम् करोति, यथा स्वयम् स्वादित-तप्तभूयः स भूयः परम् न संतापयिता / टीका-त्वम् गोचरः विषयो यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) त्वां लक्ष्यीकृत्येत्यर्थः पञ्च बाणा: शराः यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) काम इत्यर्थः तम् अग्निम् संताप्य संतापं प्रापय्य तथा तेन प्रकारेण खलु निश्चितम् विनीतम् गृहीतशिक्षम् करोति विदधाति यथा येन प्रकारेण स्वयम् आत्मना स्वा दतः गृहीतस्वादः अनुभूत इति यावत् तप्तस्य भाव इति तप्तभूयम् तप्तत्वं तापमित्यर्थः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः भुक्तभोगीत्यर्थः ( ब० वी० ) सः अग्निः भूयः पुनः परम् अन्यम् न संतापयिता संतापयिष्यति / अग्निम् तापयित्वा कामः तस्मै तथा शिक्षाम् अददात् यथा भुक्तभोगी सन् स परान् न तापयेदिति भावः // 72 / / __व्याकरण-संताप्य सम् + /तप + णिच् + ल्यप् / विनीतम् वि + /नी+ क्त ( कर्मणि ) / तप्तभूयः तप्त + /भू + क्यप् ( 'भुवो भावे' 3 / 1 / 107 ) / संतापयिता सम् + /तप् + णिच् + ल्युट् / अनुवाद-"तुम्हें ( अनुराग का ) आलम्बन बनाये काम उस ( अग्नि ) को अच्छी तरह तपाकर ऐसी शिक्षा दे रहा है कि जिससे स्वयं संताप का भुक्तभोगी बना वह फिर दूसरे को न तपाने पाये" // 72 // टिप्पणी-विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं। उनके विचारानुसार कवि Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 नैषधीयचरिते की यह कल्पना है कि अग्नि को संतप्त करके मानो कामदेव उसे यह सबक सिखा रहा है कि ताप देना कितना बुरा होता है। अग्नि जब स्वयं व्यक्तिगत रूप से अनुभव करेगा, तभी उसे शिक्षा मिलेगी कि मुझे दूसरों को ताप नहीं देना चाहिये। हिन्दी में कहावत भी है-'जाके पड़े न पैर बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई / ' शब्दालंकारों में 'भूयः' 'भूर्या' में यमक, 'संताप्य' 'संतापयि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पञ्चबाण:-इस सम्बन्ध में पीछे श्लोक 4 देखिये। अदाहि यस्तेन दशार्धबाणः पुरा पुरारेनयनालयेन / न निदहस्तं भवदक्षिवासी न वैरशुद्धरधुनाधमणः // 73 // अन्वयः-पुरारे: नयनालयेन तेन पुरा यः दशाधबाणः अदाहि, सः अधुना भवदक्षिवासी सन् तम् निर्दहन वैर-शुद्धेः अधमर्णः न ( भवति ) / टीका-पुराणाम् त्रिपुराणाम् अरेः शत्रोः (10 तत्पु० ) त्रिपुरविनाशकस्य महादेवस्येत्यर्थः नयनम् नेत्रम् एव आलयो गृहम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी० ) महादेवनयनस्थितेनेत्यर्थः तेन अग्निना पुरा पूर्वम् यः दशानाम् अर्धम् (10 तत्पु० ) पञ्चेत्यर्थः बाणाः शराः यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) कामः अदाहि दग्धः स दशार्धबाणः अधुना इदानीम् भवत्याः तव अक्ष्णोः नयनयोः (10 तत्पु० ) वसतीति तथोक्तः (उपपद तत्पु०) सन् तम् अग्निम् निर्दहन् निःशेषं पीडयन्नित्यर्थः वरस्य शत्रुतायाः शुद्धः निर्यातनात् अधमर्णः ऋणी न, ऋणमुक्तो भवति / महादेव-नयन-स्थितोऽग्निः पुरा काममदहत, कामोऽपि दमयन्तीनयनस्थितः सन् इदानीम् अग्निमपि दहन् स्ववरनिर्यातनं करोतीति भावः // 73 // व्याकरण-आलयः आलीयन्ते (वसन्ति ) अति आ + Vली + अच ( अधिकरणे)। अवाहि /दह + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अधमर्णः अधम + ऋणे इति ऋ+ क्त ( भावे ), त को न ( निपातित ) न को ण ( ऋणमाधमण्ये 8 / 2 / 60) / अनुवाद-"महादेव के नयन में घर किये उस ( अग्नि ) ने पहले जिस काम को जला दिया था, अब तुम्हारे नयन में रहता हुआ वह उस ( अग्नि ) को जलाता हुआ वैर का बदला लेते हुए ऋण चुका रहा है" // 73 // Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 329 टिप्पणी-“महादेव के नयन में रहकर इस अग्नि ने मुझे जलाया हैइसलिए यह मेरा शत्रु है। मुझे अवश्य इसका बदला लेना है'-यह सोच कर काम भी दमयन्ती के नयन में रहकर अग्नि को जलाता हुआ अब वैर-निर्यातन कर रहा है। अपकार करने पर यदि प्रत्यपकार न किया जाय तो यह एक प्रकार का ऋण ही होता है। प्रत्यपकार करने पर ऋणमुक्ति हो जाती है / भाव यह है कि दमयन्ती के नयन कामोद्दीपक हैं, उन्हें देख विरह में अग्निदेव कामपीड़ित हो रहा है। विद्याधर यहाँ व्याघात अलंकार कह रहे हैं। व्याधात वहाँ होता है जहाँ जिसने जिस तरह जो काम किया है, दूसरा उसी तरह उसका उल्टा कर दे / लेकिन यहाँ ऐसी बात नहीं है / अग्नि ने काम को जलाया है, तो अब काम भी अग्नि को जला रहा है। दोनों बराबर एक-सा काम कर रहे हैं। यहाँ उल्टा-उल्टा काम नहीं हो रहा है। हाँ, यदि ऐसी बात होती कि नयन ने काम को जलाया है, तो नयन ही काम को जिला रहा है, तो व्याघात की बात थी भी। हाँ यदि व्याघात की ध्वनि मानें तो ठीक है / इसलिए हमारे विचार से यह अन्योन्यालंकार का विषय है। 'पुरा' 'पुरा' में यमक, ‘यना' 'येन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सोमाय कुप्यन्निव विप्रयुक्तः स सोममाचामति हूयमानम् / नामापि जागति हि यत्र शत्रोस्तेजस्विनस्तं कतमे सहन्ते // 74 / / अन्वयः-विप्रयुक्तः स सोमाय कुप्यन् इव हूयमानम् सोमम् आचामति, हि यत्र शत्रो: नाम अपि जागति कतमे तेजस्विनः तम् सहन्ते ? टीका-विप्रयुक्तः त्वविरहितः स अग्निः सोमाय चन्द्राय कुप्यन् क्रुध्यन् इव हूयमानम् हवीरूपेण दीयमानम् सोमम् सोमाभिधेयलताविशेष-रसम् आवासति पिबति / आत्मपीडके चन्द्रे अग्ने: कोपः उचितः एव अपराधित्वात्, किन्तु कुपितः स निरपराधम् सोमरसं पिबतीति कीदृशोऽयं न्याय इत्यत आह--हि यतः यत्र यस्मिन् जने शत्रोः वैरिणः नाम संज्ञा अपि जागति प्रकाशते कतमे बहुषु के तेजस्विनः ओजस्विनः तम् जनम् सहन्ते सोढुम् शक्नुवन्ति, न कतमेप्रीति काकुः / तेजस्विनः शत्रुनामापि न सहन्ते किं पुनः शत्रुमिति भावः / / 74 // __व्याकरण-विप्रयुक्तः वि+प्र + युज् + क्त ( कर्मणि ) कुप्यन् कुप् + शतृ ('क्रुध-द्रह०' 1 / 4 / 37 से चतुर्थी ) / हूयमानम् /हु + शानच (कमवाच्य)। कतमे किम् + डतमच / तेजस्विनः तेजः एषामस्तीति तेजस् + विन् (मतुबर्थ)। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैवधीयचरिते अनुवाद-वियोगी वह ( अग्निदेव ) सोम ( चन्द्र ) पर कुपित होता हुआ जैसे सोम ( लताविशेष का रस ) को पी जाता है, कारण यह कि जहाँ शत्रु का नाम तक भी व्यक्त होता हो, उसे कौन-से तेजस्वी . लोग सहन करते हैं ?" // 74 // टिप्पणी-चन्द्रमा दमयन्ती के वियोग में अग्नि को तंग किये जा रहा है। अतः अग्नि को उसपर क्रोध चढ़ना ही ठहरा। फिर तो उसे शत्रु से ही नहीं, प्रत्युत उसके नाम तक से चिढ़ हो रही है। अग्नि को सोम (चन्द्र) ने ही काम बिगाड़ा है, सोम ( लता ) ने नहीं, लेकिन वह सोम ( चन्द्र) का नाम-राशि है, इस लिए क्रोध में उसे पी गया। सोमयाग में सभी देवताओं के साथ चन्द्रमा को भी सामरस की आहुति दी जाती है जिसे चन्द्र पीता है। इस पर कविकल्पना यह है कि मानो अग्नि सोम को शत्रुभूत सोम ( चन्द्र ) का नाम-राशि होने से पीता हो। तेजस्वी लोग शत्रु का नाम तक नहीं सहन कर सकते हैं। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है / पूर्वार्धगत विशेष बात का उत्तराधंगत सामान्य बात से समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास भी है। विद्याधर सोम शब्द में श्लेष भी मानते हैं / 'सोमा' 'सोम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / शरैरजस्रं कुसुमायुधस्य कदच॑मानस्तरुणि ! त्वदर्थे / अभ्यर्चयद्भिर्विनिवेद्यमानादप्येष मन्ये कुसुमाद्विभेति / / 75 / / अन्वयः-“हे तरुणि ! त्वदर्थ कुसुमायुधस्य शरैः अजस्रम् कदीमानः एषः अभ्यर्चयद्भिः विनिवेद्यमानात् अपि कुसुमात् बिभेति ( इत्यहम् ) मन्ये"। टीका-हे तरुणि! युवते दमयन्ति ! तव अर्थे ( 10 तत्पु० ) त्वदर्ये त्वत्कृते कुसुमायुधस्य कामस्य शरैः बाणैः अजस्त्र र निरन्तरं यथा स्यात्तथा कदर्थ्यमानः पीडयमानः एषः अग्निः अभ्यचयद्भिः पूजयद्भिः पूजकरित्यर्थः विनिवेद्यमानात् समय॑माणात् अपि कुसुमात् एकस्मादेव पुष्पादित्यर्थः बिभेति त्रस्यति इत्यहं मन्ये जाने / पूजकैः निवेद्यमानम् एकमपि पुष्पम् ‘मा भूदेतत्कामशरः' इति मत्वा अग्निः भयभीतो भवतीति भावः // 75 // ___ व्याकरण-कदर्यमान: इसके लिए पीछे श्लोक 69 देखिये / अभ्यर्चद्धिः अभि + / अचं + शतृ तृ० / विनिवेद्यमानात् वि + नि + /विद् + णिच् + शानच् ( कर्मवाच्य ) / Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः अनुवाद -"हे तरुणी! तुम्हारे कारण कामदेव के बाणों से तंग किया जा रहा यह ( अग्नि ) पूजकों द्वारा चढ़ाये जाने वाले फूल से भी भय खा रहा है" // 75 // टिप्पणी-काम अग्नि को बहुत सता रहा है। पूजा में अपने प्रति चढ़ाये फूलों से वह डरता है कि कहीं काम के बाण न हों। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं / सम्भवतः वे चढ़ रहे फूलों और काम-शरों में अभेदाध्यवसाय मान रहे हों। हमारे विचार से उत्प्रेक्षा है जो ‘मन्ये' शब्द द्वारा वाच्य है / 'कुसुमा' 'कुसुम' 'मान' 'माना' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्मरेन्धने वक्षसि तेन दत्ता संवर्तिका शैवलवल्लिचित्रा। चकास्ति चेतोभवपावकस्य धूमाविला कीलपरम्परेव / / 76 / / अन्वयः-...तेन स्मरेन्धने वक्षसि दत्ता शैवल वल्लि चित्रा संवर्तिका चेतोभव.. पावकस्य घूमाविला कीलपरम्परा इव रराज / टीका-तेन अग्निना स्मरस्य कामस्य इन्धने दाह्यकाष्ठरूपे वक्षसि निजवक्षःस्थले दत्ता तापोपशमनार्थं निहिता शैवलस्य शैवालस्य वल्लिः लता ( 10 तत्पु० ) तया चित्रा विविधवर्णा ( तृ० तत्पु० ) संवतिका कमलस्य नवदलम् ( 'संवर्तिका नवदलम्' इत्यमरः ) चेतसो भवतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) कामः एव पावकः वह्निः तस्य ( कर्मधा० ) धूमेन आविला मलिना ( 40 तत्पु०) कोलस्य ज्वालायाः ('वहद्वयोज्ालकीलो' इत्यमरः ) परम्परा आवलिः (10 तत्पु० ) इव रराज शुशुभे। तापशान्त्यर्थ हृदि स्थापितं शैवालवल्लीसहितं कमलिन्याः नवदलं प्रज्वलतः कामानलस्य धूम-मिलितः ज्वालाराशिरिव प्रतीयते स्मेति भावः // .76 // व्याकरण-इन्धनम् इध्यतेऽनेनेति इन्ध + ल्युट ( करणे) / चेतोभव: चेतस् + /भू + अप् ( यपादाने ) / परम्परा परम् पिपर्तीति परम् + + अच् + टाप् ( अलुक् समास ) / अनुवाद-"उस ( अग्निदेव ) द्वारा काम के इन्धन-रूप (निज ) वक्षःस्थल पर रखा हुआ सेवार-लता से रंगविरंगा बना कमल का नया पत्ता ऐसा शोभित हो रहा था मानो धुएँ ( के मिलने ) से काला पड़ा कामाग्नि का ज्वाला-समूह हो" // 76 // Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 नैषधीयचरिते टिप्पणी-अग्निदेव ने काम द्वारा जलाई जा रही अपनी छाती के ऊपर ठंडक लाने के लिए कमल का नया पत्ता धरा हुआ था, जिसके साथ 2 शैवाल लता भी थी। शैवाल गहरा हरा अर्थात् काला-काला-सा होता है और नया पत्ता लाल होता है, इसलिए लाल पत्ता कामाग्नि की लाल लपट के समान और सेवार काला धुआँ-जैसा दीख रहा था। इसपर कवि कल्पना कर रहा है कि जैसे अग्निदेव के हृदय में धुआँ साथ लिए कामाग्नि की लपटें हों। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है। वक्ष पर इन्धनत्वारोप और काम पर अग्नित्वारोप होने से रूपक है / 'शैवल-वल्लि' और 'परम्परेव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / पुत्री सुहृद्येन सरोरुहाणां यत्प्रेयसी चन्दनवासिता दिक् / धैर्य विभुः सोऽपि तवैव हेतोः स्मरप्रतापज्वलने जुहाव / / 77 / / अन्वयः-सरोरुहाणाम् सुहृत् येन पुत्री चन्दन वासिता दिक् ( च ) यत्प्रेयसी सः अपि विभुः तव एव स्मरप्रतापज्वलने धैर्यम् जुहाव / टीका-सरोरुहाणाम् कमलानां सुहृद् सखा ( सूर्यः इत्यर्थः ) येन पुत्री पुत्रवान् अस्ति अर्थात् सूर्यपुत्रः, चन्दनः चन्दनवृक्षः वासिता सुगन्धिता दिक् दिशा दक्षिणदिशेत्यर्थः च यस्य प्रेयसी प्रियतमा (10 तत्पु० ) अस्तीति शेषः स अपि विभुः प्रभुः यमः इत्यर्थः तव एव हेतोः कारणात् स्मरेण कामेन यः प्रतापः (तृ० तत्पु० ) प्रकृष्टः तापः ( प्रादि तत्पु० ) कामजनितमहासंतापः इत्यर्थः एव ज्वलन: अनल: ( कर्मधा० ) तस्मिन् धैर्यम् मनोबलम् जुहाव हुतवान् / त्वाम् लक्ष्यीकृत्य विरहे कामो दक्षिण दिशाधिपति यममपि धैर्यात्प्रच्याव्य व्यथयतीति भावः // 77 // व्याकरण-सरोव्हाणाम् सरसि रोहन्तीति सरस् + /रुह् + कः / पुत्री पुत्रोऽस्यास्तीति पुत्र + इन् ( मतुबर्थ ) / वासिता/वास + णिच् + क्त (कर्मणि)। प्रेयसी अतिशयेन प्रिया इति प्रिय + ईयसुन् + ङीप् / प्रतापः प्र + /तप् + घम् / ज्वलन: ज्वलतीति //ज्वल + ल्युः ( कर्तरि ) / धैर्यम् धीरस्य भाव इति धीर + प्यन् / जुहाव हु + लिट् / अनुवाद-"कमलों का सखा ( सूर्य ) जिससे पुत्रवान् है, तथा चन्दन से महकी हुई दिशा ( दक्षिण ) जिसकी प्रेयसी है, ऐसा वह सर्व-समर्थ ( यम) भी तुम्हारे ही कारण काम-जनित महान् ताप रूपी अग्नि में धैर्य की आहुति दे बैठा है" // 77 // Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 333 ___ टिप्पणी-यहाँ से लेकर तीन श्लोकों में नल अब यम का दौत्य करता हुआ उसकी विरहावस्था का चित्रण कर रहा है / प्रथम और द्वितीय पाद विशेष्य भूत ‘स विभुः' के विशेषणात्मक उपवाक्य हैं", जो साभिप्राय हैं। सूर्य कमलों का सखा इस तरह बना कि वह उनको विकसित करता है / कमल ठंडक पहुँचाने वाले हुआ करते हैं, जो पिता के मित्र हैं। इसी तरह चन्दन भी ठंडक पहुँचाता है, चन्दन दक्षिण दिशा में होता है, जो यम की प्रेयसी ही है, किन्तु आश्चर्य है कि फिर भी यम को तुम्हारे विरह के दाह से शान्ति नहीं मिल रही है। इस तरह हमारे विचार में यहाँ विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकरालंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / तं दह्यमानैरपि मन्मथैधं हस्तैरुपास्ते मलयः प्रवालैः / कृच्छ्रेऽप्यसौ नोज्झति तस्य सेनां सदा यदाशामवलम्बते यः / / 78 // अन्वयः-मलयः मन्मथैधम् तम् दह्यमानः अपि प्रवाल: हस्तैः उपास्ते / यः सदा यदाशाम् अवलम्बते, असौ कृच्छे अपि तस्य सेवाम् न उज्झति / ____टोक-मलयः मलयाचल : मन्मथस्य कामस्य एधम् इन्धनभूतम् ('काष्ठं दाविन्धनं त्वेधः' इति कोशानुसारम् एधशब्दः पुल्लिङ्गोऽपि) कामाग्निना दह्यमानमित्यर्थः तम् यमम् दह्यमानैः तदङ्गसङ्गात् प्लुष्यमाणः अपि प्रवाल: किसलयैः एव हरत: करैः उपास्ते सेवते, मलयाचलः शैत्यापादनार्थ स्वचन्दनवृक्ष-किसलयानि यमाय ददाति यानि दह्यमानतदङ्गस्पर्शन स्वयमपि दह्यन्ते इति भावः / यः जनः सदा सर्वदा यस्य आशाम् यत्सम्बन्धिनीम् तृष्णाम् अभिलाषम् अनुरागमिति यावत् अथ च दिशाम् अवलम्बते आश्रयति असौ स कृच्छे संकटे अपि. तस्य सेवाम् न उज्झति न त्यजति; यः यस्मात् जनात् सकाशात् किमपि आशासते, स विपत्कालेऽपि तम् सेवते एव / यमो दक्षिणाम् आशाम् ( दिशाम् ) अधितिष्ठति तस्मात् दक्षिणाशास्थितो मलयाचल: संकटगतं तम् स्वयमपि संकटे पतित्वा सेवते इति भावः // 78 / / व्याकरण-एधः इध्यतेऽनेन ( अग्निः ) इति/इन्ध + घञ् ( करणे ) न लोप (निपातनात् ) / दह्यमानः /दह, + शानच् ( कर्मकर्तरि ) / सेवाम् NE.व + अ + टाप् / अनुवाद-"मलयाचल कामदेव ( की अग्नि ) के इन्धन-भूत उस ( यम), Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेषधीयचरिते की, जलते रहते हुए भी किसलय-रूपी हाथों से सेवा करता रहता है / जो सदा जिसकी आशा ( अभिलाषा, दिशा) पर टिका रहता है, वह विपत्ति में भी उसकी सेवा नहीं छोड़ता" // 78 // ___ टिप्पणी-यम दक्षिण दिशा का स्वामी है। मलय-पर्वत भी दक्षिण में होता है। दमयन्ती ! तुम्हारे खातिर कामानल से जलते हुए यम को मलयाचल चन्दनवृक्षों के पत्ते दे रहा है, जिनकी शय्या पर यम शान्तिप्राप्ति हेतु लेटा रहता है, किन्तु उसके शरीर के अत्यधिक ताप के कारण बिछे हुए पत्ते भी भुनकर पापड़ बनते रहते हैं। यहाँ पत्तों पर हस्तत्वारोप होने से रूपक है। हस्तों के लिए चेतन प्राणी अपेक्षित है, इसलिए मलय पर भत्यत्व का आरोप होना चाहिए था जो यहाँ गम्य ही रह रहा है, कत्थ्य नहीं हुआ, अतः रूपक 'एकदेशविवर्ती ही रहा, समस्तवस्तु-विषयक नहीं बन सक रहा है। इस तरह रूपक से हो काम चल जाने से हम यहाँ समासोक्ति नहीं मानेंगे। भाव यह निकला कि मलय-रूपी भृत्य अपने पल्लव-रूपी हाथों से अपने प्रभु यम के अंगों को दबाता जा रहा है। भले ही तपे शरीर-स्पर्श से इसके हाथ भी क्यों न तपते जावें, इस विशेष बात का समर्थन उत्तरार्ध-प्रतिपादित सामान्य बात कर रही है अर्थात् जिसको जिस व्यक्ति से कुछ मिलने की आशा लगी रहती है वह विपत्ति में भी उसकी सेवा करता रहता है, उसे नहीं छोड़ता। यहाँ कवि आशा शब्द में श्लेष रखे हुए है अर्थात् जो जिस आशा-दिशा (देश) का प्रभु है संकट में पड़े उसकी सेवा लोग स्वयं को भी संकट में डाल कर करते ही हैं। इस तरह यह श्लेष-गर्भित अर्थान्तरन्यास के साथ रूपक को संसृष्टि है। 'मानैः' 'मन्म' में छेक, 'सदा यदा' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / स्मरस्य कीत्यैव सितीकृतानि तद्दोःप्रतापैरिव तापितानि / अङ्गानि धत्ते स भवद्वियोगात्पाण्डूनि चण्डज्वरजर्जराणि // 79 // अन्वयः-स भवद्-वियोगात् पाण्डूनि चण्डज्वर-जर्जराणि स्मरस्य कीर्त्या सितीकृतानि इव तद्दोःप्रतापैः तापितानि इव अङ्गानि धत्ते / टीका–स यमः भवत्याः तव वियोगात् विरहात् (10 तत्पु० ) पाण्डूनि पाण्डुराणि चण्डः तीव्रः यः ज्वरः तापः ( कर्मधा० ) तेन जर्जराणि जीर्णशीर्णानि Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भष्टमः सर्गः (त. तत्पू० ) क्रमशः स्मरस्य कामस्य कीर्त्या यशसा असितानि सितानि कृतानीति सितीकृतानि श्वेतीकृतानि इवेति संभावनायाम् तस्य कामस्य दोषोः भूजयोः प्रतापैः प्रकृष्टतापैः तेजोभिरित्यर्थः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) तापितानि तापमवापितानि इवेति संभावनायाम् अङ्गानि अवयवान् धत्त धारयति / यमस्य अङ्गानि कामयशसा श्वेतीकृतानि, कामप्रतापेन च जर्जरितानीव प्रतीयन्ते इति भावः // 79 // व्याकरण-चण्ड चण्डते इति /चण्ड् + अच् ( कर्तरि ) / ज्वरः /ज्वर + घन ( भावे ) / जर्जर जर्जतीति /जर्ज + अर / कीतिः कीर्यते इति /क + क्ति, ऋ को इर् / सितीकृतानि सित + च्चि, ईत्व /कृ + क्त। प्रतापी प्र+ Vतप् + घञ् ( भावे ) / __अनुवाद-''वह ( यम ) आपके वियोग से पाण्डु-वर्ण ( तथा ) तीव्र ज्वर से जीर्णशीर्ण बने हुए जिन अङ्गों को रख रहा है वे ऐसे लग रहे हैं मानो काम के यश से श्वेत कर दिये गये हों और उसकी भुजाओं के प्रताप से फूक दिये गये हों" // 79 // टिप्पणी-वैसे तो यम के अंग दमयन्ती के वियोग से श्वेत-पीत हो गये थे और काम-ज्वर से टूट-फूट गये थे, किन्तु कवि की कल्पना यह है कि काम ने यम तक को भी धर-दबाया है, इसलिए अंगों की सफेदी मानो सर्व-विजयी काम के यश की हो, इसी तरह यम के अङ्गों की जीर्ण-शीर्णता मानो काम के भुज-दण्डों के प्रताप से हुई हो। इसलिए यहाँ दो उत्प्रेक्षायें हैं, जिनके साथ यथाक्रम सम्बन्ध होने से यथासंख्यालंकार का संकर है। शब्दालंकारों में 'तानि' 'तानि' में यमक, 'तापैः' 'तापि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / यस्तन्वि ! भर्ता घुसृणेन सायं दिशः समालम्भनकौतुकिन्याः / तदा स चेतः प्रजिघाय तुभ्यं यदा गतो नैति निवृत्य पान्थः / / 80 / / हे तन्वि ! यः सायम् घुसृणेन समालम्भन-कौतुकिन्याः दिशः भर्ता (अस्ति), स तदा गत पान्थः निवृत्य न एति / टीका-हेतन्वि ! कृशाङ्गि ! यः देवः सायं सायंसमये घुसृणेन कुङ्कुमेन समालम्भनम् विलेपनम् ( 'समालम्भो विलेपनम्' इत्यमरः ) तस्मिन् कौतुकिन्याः कुतूहलिन्याः ( स० तत्पु०) दिश: दिशायाः प्रतीच्याः इत्यर्थः भर्ता स्वामी वरुणः Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 नैषधीयचरिते अस्ति स तदा तस्मिन् समये तुभ्यम् त्वदर्थम् चेतः मनः प्रजिधाय प्राहिणोत् यदा यस्मिन् समये गतः प्रयातः पान्थः पथिकः निवृत्य परावृत्य न एति न आगच्छति। पश्चिमदिशाभर्तुः वरुणस्यापि मनः त्वयि आसक्तमस्तीति भावः / / .80 // व्याकरण-समालम्भनन् सम् + आ + लभ् + ल्युट (भावे ) मुम् का आगम। कौतुकिन्याः कौतुकम् अस्याः अस्तीति कौतुक + इन् (मतुबर्थ ) + ङीप् / भर्ता भरतीति /भृ + तृच् ( कर्तरि ) / प्रजिघाय प्र + /हि + लिट्, ह को कुत्व / पान्थः नित्यं पन्थानं गच्छतीति पथिन् + ण, पान्थादेश / ____अनुवाद-'हे कृशाङ्गी! जो सायं समय केशर द्वारा अङ्गराग में कुतूहल रखने वाली ( पश्चिम ) दिशा का स्वामी ( वरुण ) है, वह (भी) तुम्हारी ओर मन को उस समय भेज बैठा है जब कि गया हुआ पथिक लौट कर वापस नहीं आता" / / 80 / टिप्पणी-अब यहां से लेकर चार श्लोकों में वरुण का दौत्य करता हुआ नल दमयन्ती के अनुराग में वरुण की विरहावस्था का वर्णन कर रहा है / यहाँ वरुण का सीधा नाम न लेकर उसकी उस दिशा-रूपी नायिका के पति-रूप में अवतारणा कर रहा है, जो सायं समय प्रिय के साथ मधुर मिलन से पूर्व निज को सँवारती है, 'मेक अप' करती है। वह दिशा पश्चिम है, जो कुंकुमलेपन कर रही है / कुंकुम बना सन्ध्याकालीन लालिमा हमारे विचार से सायंतन लालिमा का कुंकुम के साथ अभेदाध्यवसाय होने से यहाँ भेदे अभेदातिशयोक्ति है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र वरुणपदे वक्तव्ये वाक्यम्, तेनात्रोजो गुणः' / "तदा' 'यदा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। नैति निवृत्यज्योतिष शास्त्र के अनुसार स्वाति और चित्रा नक्षत्रों तथा व्यतीपात आदि योगों में यात्रा निषद्ध है। उनमें गया हुआ यात्री वापस घर नहीं आता, देखिए'नन्दन्ति न निवर्तन्ते चित्रा-स्वात्योर्गता नराः' / नल के कहने का भाव यह है कि ऐसे मुहूर्त में तुम्हारी ओर गया हुआ वरुण का मन लौटने का नाम ही नहीं लेता। तथा न तापाय पयोनिधीनामश्वामुखोत्थः क्षुधितः शिखावान् / निजः पतिः संप्रति वारिपोऽपि यथा हृदिस्थः स्मरतापदुःस्थः / / 81 // Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अष्टमः सर्गः अन्वयः-स्मर-ताप-दुःस्थः, वारिपः अपि हृदिस्थः निजः पतिः सम्प्रति यथा पयोनिधीनाम् तापाय भवति, तथा क्षुधितः वारिपः अपि हृदिस्थः अश्वा. मुखोत्थः शिखावान् ( पयोनिधीनाम् तापाय न भवति)। ___टोका-स्मरेण कामेन तापः कामजनितज्वरः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) तेन दुःस्थः ( तृ० तत्पु० ) दुःखं तिष्ठतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) रुग्णः इत्यर्थः वारि जलम् पाति रक्षतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) अपि हृदि हृदये तिष्ठतीति तथोक्तः ( अलुक समासः ) कुक्षिगत: निजः स्वकीयः पतिः स्वामी वरुणः सम्प्रति इदानीम् त्वद्विरहावस्थायामिति यावत् यथा येन प्रकारेण पयोनिधीनाम् समुद्राणाम् तापाय संतापाय भवति कल्पते समुद्रेभ्यः संतापं ददातीति यावत् तथा तेन प्रकारेण क्षुधितः बुभुक्षितः वारि पिबतीति यथोक्त: अपि हृदिस्थः मध्य स्थितः अश्वाया: वडवायाः मुखात् वक्त्रात् ( 10 तत्पु० ) उत्तिष्ठतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु०) शिखावान् अग्निः वाडवानल इत्यर्थः पयोनिधीनां तापाय न भवतीति पूर्वतोऽनुवर्तते / समुद्रमध्यस्थितो वाडवानल: जलभक्षकोऽपि सन् समुद्रान् तथा न तापयति यथा जलरक्षकोऽपि सन् वरुणः दमयन्तीविरहज्वरकारणात् इदानी तान तापयतीति भावः // 81 // व्याकरण-दुःस्थः दुःखं यथा स्यात् तथा तिष्टतीति दुर् + /स्था + क / वारिपः वारि पाति पिबति वेति /पा + क / शिखावान् शिखा ( ज्वाला) अस्यास्तीति शिखा + मतुप् / पयोनिधीनाम् पयांसि निधीयन्तेऽत्रेति पयस् + नि+ /धा - कि ( अधिकरणे)। अनुवाद-“काम-ज्वर से बीमार पड़ा हुआ, जल का रक्षक होता हुआ भी, भीतर बैठा निज स्वामी ( वरुण ) इस समय जिस तरह समुद्रों को संताप दे रहा है, वैसा भूखा पड़ा हुआ, जल का भक्षक होता हुआ भी, भीतर बैठा बड़वानल समुद्रों को संताप नहीं देता" / / 81 // टिप्पणी-यहाँ नल समुद्र-मध्यस्थित वरुण और बड़वानल की तुलना करता हुआ वरुण को वड़वानल की अपेक्षा समुद्रों का ताप-जनक बता रहा है / उसका कारण है वरुण को हुआ पड़ा दमयन्ती का विरह-ज्वर / वरुण और बड़वानल-दोनों समान रूप से वारिप है, और हृदिस्थ भी हैं, किन्तु रक्षक ताप दे रहा है भक्षक नहीं, क्योंकि रक्षक वरुण को कामज्वर है, भक्षक बड़वानल को नहीं है। भाव यह निकला कि ज्वर प्रतप्त, जलमध्यस्थित वरुण Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 नैषधीयचरित के स्पर्श से समुद्र भी प्रतप्त हो पड़े हैं अर्थात् वरुण का विरहानल बड़वानल से भी अधिक तीव्र है। यहाँ विद्याधर अतिशयोक्ति कह रहे हैं, क्योंकि पयोनिधियों से ताप का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है। दो विभिन्न 'वारियों' का श्लेषमुखेन अभेदाध्यवसाय होने से अभेदातिशयोक्ति भी है। काव्यलिङ्ग स्पष्ट ही है। 'पाय' 'पयो' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। अश्वामुखोत्थः शिखावान्-इसके लिए पीछे सर्ग 4 श्लोक 48 और 60 देखिए / यत्प्रत्युत स्वन्मृदुबाहुवल्लीस्मृतिस्रजं गुम्फति दुविनीता। ततो विधत्तेऽधिकमेव तापं तेन श्रिता शैत्यगुणा मृणाली / / 82 // अन्वयः तेन श्रिता, शैत्यगुणा.. दुविनीता मृणाली यत् त्वन्मृ स्रजम् गुम्फति, ततः प्रत्युत अधिकम् एव तापम् विधत्ते / टीका-तेन वरुणेन श्रिता सेविता तापोपशमनाय स्वशरीरोपरि स्थापितेत्यर्थः दुविनीता दुः = दुष्टं विनीता ( प्रादि तत्पु० ) कुशिक्षिता दुष्टेति यावत् मृणाली लघुमृणालम् यत् यस्मात् तव मृदु-बाहुवल्ली ( 10 तत्पु० ) मृदुः कोमल: बाहुः भुजा ( कर्मधा० ) वल्ली लतेव ( उपमित तत्पु० ) तस्याः स्मृतीनाम् स्त्रजम् मालाम् आवलिमिति यावत् ( उभयत्र ष० तत्पु०) गुम्फति ग्रथ्नाति रचयतीत्यर्थः, मृणाली त्वत्कोमलभुजलतां स्मारयतीति भावः, ततः तस्मात् प्रत्युत पंपरीत्येन अधिकम् प्रचुरम् एव तापम् संतापं विधत्त जनयति / मृणालीद्वारा स्मृतत्वन्मृदुभुजलताको वरुणोऽधिकतरं तापमनुभवतीति भावः // 82 // व्याकरण-शत्यम् शीतस्य भावः इति शीत + ष्यन् / मृणाली मृणाल + डोष अल्पार्थ में, जैसे कोशकार ने भी कहा है-'स्त्री स्यात्काचिन्मणाल्यादिविवक्षापचये यदि' / बाहुः यास्कानुसार 'बाधते इति सतः' - Vबाध् + कुः ध को ह। ___ अनुवाद-"उस ( वरुण ) द्वारा ( शरीर पर ) रखी, गुण में ठंडी, दुष्ट मृगाली क्योंकि तुम्हारी लता-जैसी मृदु भुजा की स्मृतियों का तांता बाँध देती है, इसलिए वह उल्टा अधिक ही ताप उत्पन्न कर देती है // 82 // टिप्पणी- यहाँ मणाली को देखकर तत्सदृश भुजवल्ली की स्मति होने से स्मरणालंकार है। उसे रखा था ठंडक पहुँचाने के लिए, उल्टा वह ताप दे रही है-यहाँ विषमालंकार है / इन दोनों का संकर समझिए / बाहु बल्ली में लुप्तो Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 339 पमा है, विद्याधर विरोधालंकार के साथ छेकानुप्रास भी कह रहे हैं / छेक ‘यत्' 'युत' में ही हो सकता है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / न्यस्तं ततस्तेन मृणालदण्डखण्डं बभासे हृदि तापभाजि / तच्चित्तमग्नमंदनस्य बाणैः कृतं शतच्छिद्रमिव क्षणेन // 83 // अन्वयः-ततः तेन तापभाजि हृदि न्यस्तम् मृणालदण्डखण्डम् तच्चित्तमग्नै: मदनस्य बाणः क्षणेन शतच्छिद्रम् कृतम् इव बभासे / टीका-ततः तदनन्तरम् तेन वरुणेन तापम् कामज्वरम् भजतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) हृदि वक्षसि न्यस्तम् स्थापितम् मृणालस्य विसस्य दण्डस्य यष्टे: खण्डम् शकलम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) तस्य घरुणस्य चित्त मनसि (ष० तत्पु०) मग्नः निखातः ( स० तत्पु० ) मदनस्य कामस्य बाणैः शरैः शतं च्छिद्राणि यस्मिन् तथाभूतम् ( ब० वी० ) कृतम् विहितम् इव बभासे प्रातीयत / मृणालखण्डे स्वभावतः एव छिद्राणि भवन्ति, किन्तु कविकल्पनया तानि कामवाणकृतानीव दृश्यन्ते इति भावः / / 83 // व्याकरण- तापभाजि ताप+भज् क्विप् ( कर्तरि ) स० / न्यस्तम् नि + / अस् + क्त ( कर्मणि ) मदनः मदयतीति/मद् + णिच् + ल्युः / छिद्रम् Vछिद् + रक्। अनुवाद-'तत्पश्चात् उस ( वरुण ) के द्वारा ( अपनी ) तपती हुई छाती पर रखा हुआ मृणाल-दण्ड का टुकड़ा ऐसा लगा जैसे उस ( वरुण ) के हृदय में घुसे काम के बाणों से क्षण में ही उसमें सैकड़ों छेद कर दिये गये हों" // 83 // टिप्पणी-अब तक तो वरुण जितनी भी मणालियों को रखता जाता था, वे सभी दमयन्ती की भुज-लता के स्मारक बन जाया करती थीं, इसलिए उसने अब मृणाल का एक टुकड़ा ही छाती पर रखा, किन्तु काम जो बाण छोड़ता, वे मृणाल खण्ड के बीच में से होकर हृदय के भीतर जाते, अतः उसमें सैकड़ों छेद हुए पड़े रहत हैं। यह कवि की एक मार्मिक कल्पना ही समझिये, क्योंकि छेद तो मृणालखण्ड में स्वतः रहते ही हैं। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। इति त्रिलोकीतिलकेषु तेषु मनोभुवो विक्रमकामचारः / अमोघमस्त्रं भवतीमवाप्य मदान्धतानर्गलचापलस्य // 84 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते - अन्वयः-(हे दमवन्ति / ) भबतीम् अमोघम् अस्त्रम् अवाप्य मदान्धतया अनर्गल-चापलस्य मनोमुवः इति तेषु त्रिलोकी-तिलकेषु विक्रमकामचारः ( अस्ति ) / टोका-( हे दमयन्ति ! ) भवतीम् त्वाम् एव अमोघम् अव्यर्थम् अस्त्रम् आयुधम् अवाप्य लब्ध्वा मदेन गर्वेण अन्धतया अन्धत्वेन न अर्गलम् विष्कम्भः रोधकमिति यावत् यस्मिन् तथाभूतम् ( ना ब० वी० ) उच्छङ्खलमित्यर्थः यत् चापलम् चाञ्चल्यम् ( कर्मधा० ) तस्य मनोभुव: कामस्य इति पूर्वोक्तप्रकारेण तेषु त्रयाणां लोकानाम् समाहारः त्रिलोकी ( समाहार द्विगु ) स्वर्ग-मत्यं पाताललोकाः तस्याः तिलकेषु तिलकभूतेषु भूषणरूपेषु इन्द्राग्नियमवरुणेष्वित्यर्थः (10 तत्पु० ) विक्रमः शौर्यम् चासी कामचार: ( कर्मधा० ) कामेन चारः स्वेच्छया व्यवहारः ( तृ० तत्पु० ) देवेषु शौर्यप्रदर्शनं कामस्य स्वेच्छावार इत्यर्थः अस्तीति शेषः // 84 / / व्याकरण-अमोघम् न मोघम् मुह्यतीति/मुह + अच् ( कर्तरि ) कुत्वम् / अस्त्रम् अस्यते इति/अस् + ष्ट्रन् ( करणे)। अवाप्य–यहाँ अवाप्य का कर्ता काम है एवं अस्ति का कामचार है। इस तरह विभिन्नकर्तृकता में क्त्वा प्राप्त नहीं है अतः यहाँ अवाप्य स्थितस्य मनोभुवः यों योजना कर लीजिए। चापलस्य चपलस्य भाव इति चपल + अण् / मनोभुवः मनसो भवतीति मनस् +/भू + क्विप ( कर्तरि ) 0 / चारः चर + धन ( भावे)। __अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! ) तुम्हें अचूक अस्त्र के रूप में प्राप्त करके गन्धि होने के कारण उच्छृङ्खल चाञ्चल्य अपनाये हुए कामदेव का उक्त प्रकार से उन तीनों लोकों के तिलकभूतों ( इन्द्रादि ) के प्रति शीयं-कर्म स्वेच्छाचार है / / 84 // टिप्पणी-यहाँ इन्द्रादि देवताओं पर तिलकत्वारोप और 'भवतीम्' पर अस्त्रत्वारोप होने से दो रूपकों की संसृष्टि है। 'लोकी' 'लके' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सारोत्थधारेव सुधारसस्य स्वयंवरः श्वो भविता तवेति / संतपंयन्ती दमयन्ति ! तेषां श्रुतिः श्रुती नाकजुषामयासीत् // 85 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) तव स्वयंवरः श्वः भविता इति श्रुतिः सुधारसस्य सारोत्थ-धारा इव हृदयानि संतपंयन्ती तेषाम् नाकजुषाम् श्रुती अयासीत् / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 341 टीका-(हे दमयन्ति ! ) तव ते स्वयंवरः स्वयं पतिवरणरूपमहोत्सवः श्वः आगामि दिवसे भविता भविष्यति इति श्रुतिः वार्ता वृत्तान्तः इति यावत् (''श्रुतिः श्रोत्रेऽप्यथाम्नाये वार्तायां श्रौत्रकर्मणि' इति विश्व.) सुधा अमृतम् रसः द्रव: ( कर्मधा० ) तस्य सारात श्रेष्ठभागात् उत्तिष्ठति प्रभवतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) चासो धारा प्रवाहः ( कर्मधा० ) इव हृदयानि संतपयन्ती आनन्दयन्ती तेषाम् नाकम् स्वर्गम् जषन्ते सेवन्ते इति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु० ) स्वर्गवास्तव्यानाम् इन्द्रादिदेवानामित्यर्थः श्रुती कौँ अयासीत् प्राप्नोत् ते श्वस्तनं तव स्वयंवर-वृत्तान्तं श्रुतवन्तः इति भावः / / 85 / / व्याकरण-श्वः यास्कानुसार 'आशंसनीय-कालः' (पृषोदरादित्वात् साधुः) भविता भू + लुट् / श्रुतिः श्रूयते इति/श्रु + क्तिन् ( कर्मणि ) अथवा श्रूयतेऽनयेति क्तिन् ( करणे ) / सारोत्थ उत्तिष्ठतीति उत् + /स्था + क, स को पूर्वसवर्ण ( 'उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य' 8 / 1 / 61 ) / संतपयन्ती सम् + /तप + णिच् + शतृ + ङीप् / 0 जुषाम् /जुष् + क्विप ( कर्तरि ) प० / अयासीत् /या + लुङ। अनुवाद-“( दमयन्ती ! ) तुम्हारा स्वयंवर कल होने वाला है—यह अमृतरस के सारभूत अंश से निकली धारा-जैसी हृदय को आनन्द देने वाली खबर उन स्वर्गलोक-वासियों ( इन्द्रादि देवताओं ) के कानों में पहुँची है / 85 / / टिप्पणी-'धारेव' में उपमा है। 'धारे' 'धार', 'विता' 'वेति' और 'श्रुतिः' 'श्रुतो' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। समं सपत्नीभवदुःखतीक्ष्णैः स्वदारनासापथिकैमरुद्भिः। अनङ्गशौर्यानलतापदुःस्थैरथ प्रतस्थे हरितां मरुद्भिः / / 86 / / अन्वयः-अथ अनङ्ग स्थैः हरिताम् मरुद्भिः सपत्नी.. तीक्ष्णः स्वदारनासापथिकैः मरुद्भिः समं प्रतस्थे / टीका-अथ स्ववंवरवाश्रिवणानन्तरम् अनङ्गस्य कामस्य शौयम् विक्रमः (प० तत्पु० ) एव अनलः वह्निः तस्य तापेन ज्वरेण दुःस्थैः अस्वस्थैः ( तृ० तत्पु० ) हरिताम् दिशानाम् मरुद्भिः देवैः इन्द्रप्रभृतिभिः समानः पतिः यस्याः इति सपत्नी तस्याः (व० वी० ) भवतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) यत् दुःखम् अक्सादः ( कर्मधा० ) तेन तीक्ष्णः दुःसहैः स्वे स्वकीयाः ये दारा: पत्न्यः Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 नैषधीयचरिते ( कर्मधा० ) तेषाम् नासासु नासिकासु नासापथेष्वित्यर्थः पथिकैः पान्थैः ( स० तत्पु० ) मद्भिः वायुभिः नि:श्वसितरित्यर्थः समम् सह प्रतस्थे प्रस्थितम् / सपत्नीम् आनेतुं पतिषु प्रस्थितेषु तेषां पत्न्यः अवसादे दीर्घ-दीर्घनिःश्वासान तत्यजुरिति भावः // 86 / / ____ व्याकरण-शौर्यम् शूरस्य भावः कर्म वेति शुर + ष्यन् / दुःस्थैः इसके लिए पीछे श्लोक 81 देखिए। सपत्नी समानः + पतिः यस्या इति नित्यं सपल्यादिषु' 4 / 1 / 35 से छीप, नकार और समान शब्द को स। दाराः इसके लिए पीछे श्लोक 60 देखिये। पथिकैः पन्थानं गच्छतीति पथिन् + कन् / प्रतस्थे प्र + /स्था + लिट् ( भाववाच्य ) / अनुवाद-तदनन्तर काम के शौर्यरूपी अग्नि के ताप से अस्वस्थ बने दिशाओं के ( इन्द्रादि ) देवताओं ने सौत से उत्पन्न हुए दुःख के कारण असह्य बने, निज पत्तियों के नासिका-मार्ग के पथिक रूप नि.श्वासों के साथ-साथ प्रस्थान किया / / 86 // टिप्पणी-दिक्पालों के दमयन्ती ब्याहने चल देने पर उनकी पत्नियों को बड़ा दुःख हुआ कि उनके पति उनके छिए सौत ला रहे हैं, अतः नैराश्य में वे लम्बी-लम्बी गर्म आहें भरने लगीं / पतियों के चल पड़ने के बाद दुःख में पत्नियों की आहे चलीं, किन्तु कवि ने दोनों का एक साथ चलना बताया है, अतः यहाँ कार्यकारण-पौर्वापर्यविपर्ययातिशयोक्ति है, जिसका 'समम्' शब्दवाच्य सहोक्ति के साथ संकर है। 'मरुद्भिः मरुद्भिः' में यमक के साथ पादगत अन्त्यानुप्रास का एकवाचकानुप्रवेश संकर और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है ! ध्यान रहे कि पथिक लोग साथ-साथ ही जाया करते हैं किन्तु मरुतों के साथ तीक्ष्ण (प्रचण्ड) विशेषण देकर कवि यहाँ अपशकुन बता रहा है जिससे यह ध्वनि निकलती है कि देवताओं का काम नहीं बनेगा। मंद-सुगन्ध-शीतल वायु ही मांगलिक व शुभ शकुन होती है। अपास्तपाथेयसुधोपयोगैस्त्वच्चुम्बिनैव स्वमनोरथेन / क्षुधं च निर्वापयता तृषं च स्वादीयसाऽध्वा गमितः सुखं तैः / / 87 // अन्वयः-अपास्त...योगे: तैः क्षुधम् च तृषम् च निर्वापयता स्वादीयसा त्वच्चुम्बिना स्वमनोरथेन एव अध्वा सुखम् गमितः / __टीका-अपास्त: त्यक्तः पाथेयं पथि भोजनम्, शम्बलम् ( 'पाथेयं शंबलं Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शष्टमः सर्गः 343 स्मृतम्' इति यादवः ) चासो सुधा अमृतम् ( कर्मधा० ) तस्य उपयोगः (10 तत्पु० ) यैः तथाभूतैः (ब० वी० ) ते: इन्द्रादिभिः क्षुधम् बुभुक्षाम् च तुषम् पिपासां च निर्वापयता शमयता स्वादीयसा अतिशयेन स्वादुना मधुरतरेणेत्यर्थः स्वाम् चुम्बति सम्बध्नातीति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) त्वद्विषयकेणेत्यर्थः स्वस्य आत्मनः मनोरथेन अभिलाषेण एव अध्वा मार्गः सुखम् अनायासं यथा स्यात् तथा गमितः अतिवाहित: लंघितः इति यावत् / मधुरम् अमृत-रूपं पाथेयं त्यक्त्वा तद्विषयकमधुरतराभिलाषे बुभुक्षां पिपासां च विस्मृत्य देवैः स्वर्गाद् भूपर्यन्तो मार्गः अनायासेनैव अतिक्रान्तः इति भावः // 87 / / व्याकरण-अपास्त अप + अस् + क्तः ( कर्मणि ) / पाथेयम् पथि साधु इति पथिन् + ढन् / क्षुधम् क्षुध + क्विप् ( भावे ) द्वि० / तृषम् तृष + क्विप् (भावे) द्वि० निर्वापयता निर + Vवप् + णिच् + शतृ तृ० / स्वादीयसा स्वादु + ईयसुन् ( अतिशये ) / गमितः /गम् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / ने भूख और प्यास मिटा देने वाली तुम्हें प्राप्त करने की मधुरतर ललक में ही रास्ता आराम से काटा"। टिप्पणो-देवताओं का मन तुम पर गड़ा हुआ है, इसलिए तुम्हें प्राप्त करने की मधुर अभिलाषा में उनकी भूख-प्यास तक मिट गई। मार्ग का शम्बल अमृत भी उन्होंने नहीं छुआ अर्थात् तुम्हें पाने की उनकी ललक अमतसे भी मीठी है। वे क्या अमृत खाते ? भूल ही गये। विद्याधर के शब्दों में "अत्रातिशयोक्तिरलङ्कारः"। हमारे विचार से अमृत की अपेक्षा मनोरथ को अधिक मधुर ( स्वादीयसा) बताने में व्यतिरेक है। शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है। चाण्डू पण्डित, विद्याधर और ईशानदेव इस श्लोक के बाद इसी अर्थवाला निम्नलिखित एक और स्वतन्त्र श्लोक भी दे रहे हैं : त्वच्चुम्बिनैव स्वमनोरथेन स्वादीयसास्तंगमितक्षुधेन / अपास्तपाथेयसुधोपयोगैरध्वा भुवस्तैरयमित्यवाहि // जिनराज ने भी भूल में दोनों ही श्लोक दे रखे हैं यद्यपि व्याख्या उन्होंने एक की ही की है। नारायण की तरह हम भी इसे स्वतन्त्र श्ल क नहीं मान सकते। यह शत प्रतिशत पुनरुक्ति ही है / Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 नैषधीयचरिते प्रिया मनोभूशरदावदाहे देवीस्त्वदर्थेन निमज्जयद्भिः / सुरेषु सारैः क्रियतेऽधुना तैः पादार्पणानुग्रहभूरियं भूः // 88 // अन्वय:-त्वदर्थेन प्रियाः देवीः मनोभूशरदाव-दाहे निमज्जयद्भिः तैः सुरेषु सारैः अधुना इयम् भूः पादार्पणानुग्रहभूः क्रियते / टोका-त्वम् अर्थः प्रयोजनम् तेन ( कर्मधा० ) त्वनिमित्तमित्यर्थः प्रियाः देवीः स्वप्रियपत्नी: शच्यादी: मनोभः कामः तस्य शराः वाणाः (10 तत्पु०) एव दावः वनाग्निः ( कर्मधा० ) तस्य दाहे दहनक्रियायाम् निमज्जाद्धः पातयद्भिः तैः सुरेषु देवेषु सारै। श्रेष्ठभूतैः इन्द्रादिभिः अधुना सम्प्रति इयम् एषा भूः पृथिवी विदर्भदेशः इत्यर्थः पादयोः चरणयोः अर्पणम् दानं निधानमित्यर्थः (10 तत्पु० ) एव अनुग्रहः कृपा ( कर्मधा० ) तस्य भूः स्थानं पात्रमिति यावत् क्रियते विधीयते / स्वप्रियपत्नीः विरहानले प्रक्षिपन्तः इन्द्रादयः विदर्भ देशम् आगमनानुग्रहेण कृतकृत्यीकुर्वन्तीति भावः // 88 // व्याकरण-अर्थ यास्कानुसार अर्थ्यते इति/अर्थ + घन् / मनोभूः इसके लिए पीछे श्लोक ( 4 देखिए ) सुरेषु इसके लिए पीछे सर्ग 5 श्लोक 34 देखिए / अधुना अस्मिन् काले इति इदम् + अधुना ( स्वार्थे ) इदम् का लोप / अनुवाद-"तुम्हारे कारण प्रिय देवियों ( निज पत्नियों ) को काम के बाण-रूपी अग्नि के ताप में झोंकते हुए वे सुरश्रेष्ठ ( इन्द्रादि ) इस समय इस भू ( विदर्भदेश ) को ( निज ) पदार्पण का कृपा-भाजन बना रहे हैं" // 88 // टिप्पणी-तुम्हारे खातिर पत्नियों को विरहाग्नि में जलती छोड़ इन्द्रादि विदर्भदेश के समीप आये हुए हैं। विद्याधर के अनुसार 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' संभवतः वे 'सुरेषु सारै.' और इन्द्रादि में अभेदाध्यवसाय मान रहे हों किन्तु हमारे विचार से सार शब्द यहाँ विशेषण-रूप है, विशेष्यरूप नहीं। हाँ, भूपर अनुग्रहभूत्वारोप में रूपक बन सकता है। 'दाव' 'देवी' 'सुरे' 'सारै' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अलंकृतासन्नमहीविभागैरयं जनस्तैरमरैर्भवत्याम् / अवापितो जङ्गमलेखलक्ष्मी निक्षिप्य संदेशमयाक्षराणि // 89 // अन्वयः-अलं...भागैः तैः अमरैः अयम् जनः भवत्याम् सन्देशमयाक्षराणि निक्षिप्य जङ्गमलेखलक्ष्मीम् अवापितः / Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 345 टीका-अलङ्कृतः सुशोभितः आसन्नः समीपवर्ती भूविभागः ( उभयत्र कर्मधा० ) भुवः विभागः प्रदेशः ( 10 तत्पु० ) यः तथाभूतैः ( ब० वी० ) नातिदूरवर्तिभूतले स्थितरित्यर्थः ते: अमरैः इन्द्रादि-देवः अयम् एषः जनः अहमित्यर्थः भवत्याम् त्वां प्रति संदेश: वाचिकम् एवेति संदेशमयानि अक्षराणि संदेशात्मकशब्दानित्यर्थः निक्षिप्य अर्पयित्वा जङ्गमः चलन् यः लेख: पत्रम् ( कर्मधा० ) तस्य लक्ष्मीम् शोभाम् अवापितः प्रापितः / इन्द्रःदीनां सन्देशं गृहीत्वा जङ्गमपत्ररूपेण स्वत्समीपमहमागतोऽस्मीति भावः / / 89 // __ व्याकरण-आसन्न आ + /सद् क्त, ( कर्तरि ) त को न / विभागः वि+भज् + घञ् / जङ्गम पौनःपुन्येन अतिशयेन वा गच्छतीति /गम् + यङ्, धातु को द्वित्व और यङ् का लोप जंगमीतीति /जङ्गम् + अच् ( कर्तरि / सन्देशमय सन्देश + मयट् ( स्वरूपार्थे ) / अवापितः अव + /आप + णिच + क्त ( कमणि ) / अनुवाद- "पास ही में भू-भाग को अलंकृत किये हुए उन देवताओं ने तुम्हारे प्रति इस जन को ( = मुझे ) सन्देश मय शब्द देकर चलते-फिरते पत्र की शोभा प्राप्त करवाई है" // 89 ! टिप्पणी-भाव यह है कि भू पर उतरकर देवताओं ने मेरे हाथ लिखित पत्र तो तुम्हारे हेतु कोई नहीं दिया है किन्तु हाँ, मेरे पास मौखिक सन्देश भेजा है अर्थात् मुझे ही अपना चलता-फिरता, साढ़े तीन हाथ का लम्बा चौड़ा सन्देशपत्र बनाया है। इसलिए उनकी तरफ से मैं प्रार्थना कर रहा हूँ कि तुम उनकी मनोकामना पूरी करो। यहाँ 'अयं जनः' पर 'जङ्गमलेखत्व' का आरोप होने से रूपकालंकार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। एकैकमेते परिरभ्य पीनस्तनोपपीडं त्वयि संदिशन्ति / त्वं मर्छतां नः स्मरभिल्लशल्यैदे विशल्यौषधिवल्लिरेधि // 90 / / अन्वयः-एते एकैकम् पीनस्तनोपपीडम् परिरभ्य त्वयि सन्दिशन्ति"( हे दमयन्ति ! ) त्वम् स्मर-भिल्लशल्यैः मूर्च्छताम् नः मुदे विशल्यौषधिवल्लिः एधि'। टोका-एते इन्द्रादिदेवाः एकैकम् प्रत्येकम् पीनौ पीवरौ स्तनौ कुची तयोः ( कर्मधा० ) उपपोउच आत्मानं संघदृय्येति व्पपीडम् परिरभ्य आश्लिष्य गाढमा. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 नैषधीयचरिते लिङ्गय त्यर्थः स्वयि त्वाम् प्रति सन्दिशन्ति वाचिकं प्रेषयन्ति– (हे दमयन्ति / ) त्वम् स्मरः काम एव भिल्ल: शबरः ( कर्मधा० ) तस्य शल्यः बाणः मूर्छताम् मूर्छा प्राप्नुषताम् नः अस्माकम् मुदे हर्षाय विशल्या एतन्नाम्नी जीवन्तिकापरपया ओषधिः वल्ली लता (कमंधा० ) एषि भव / कामशरमूच्छितानामस्माकं कृते सञ्जीवन्योषधिकार्य कुविति भावः // 90 // व्याकरण-एकैकम् एकः एकः इति वीप्सा में द्वित्व, 'एक बहुव्रीहिवत्' ८।१।९से बहुव्रीहिवद्भाव में सुलोप और क्रियाविशेपणत्व / स्तनयोः उपपीड्य ति स्तन + उप + /पीड णमुल ( ‘सप्तम्यां चोपपीडरुधकर्षः' 3 / 448) / मुदे /मुद् + क्षिप् ( भावे ) च० / एधि /अस् + लोट् मध्य० पु० / अनुवाद–“यह एक-एक देवता पीन वक्षोजों को कसकर दबाके आलिंगन कर तुम्हें सन्देश भेज रहा है—“(हे दमयन्ती ! ) तुम कामदेव-रूपी भील के वाणों से मूर्छा खाते जा रहे हमारी प्रसन्नता हेतु विशल्या-संजीवनी बूटी की वेल बन जाओ" // 90 // टिप्पणी-कामदेव के प्रबल प्रहारों से हम मूछित होते जारहे हैं। ऐसी स्थिति में तुम ही हो जो हमारी मर्छा मिटा सकोगी अतः हमारा वरण करो। स्मर पर भिल्लत्वारोप में तथा 'त्वम्' पर ओषधिवल्लित्वारोप में परस्परनिरपेक्ष रूपकों की संसृष्टि है। यहाँ विशल्या साभिप्राय विशेष्य होने से परिकराङकुर है / शब्दालंकार शल्य, शल्यो में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। त्वत्कान्तिमस्माभिरयं पिपासन्मनोरथाश्वासनयैकयैव / निजः कटाक्षः खलु विप्रलभ्य: कियन्ति यावद्भण वासराणि // 91 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) त्वत्कान्तिम् पिपासन् अयम् ( अस्माकम् ) निजः कटाक्ष: एकया मनोरथाश्वासनया एव कियन्ति वासराणि यावत् अस्माभिः विप्रलभ्यः खलु ( इति ) भण। टीका-( हे दमयन्ति ! ) तव ते कान्तिम सौन्दर्यम् पिपासन पातुमिच्छन् अयम् एष निजः अस्माकं स्वकीयः कटाक्षः अपाङ्गदृष्टिः नयनमित्यर्थः एकया केवलया मनोरथस्य अभिलाषस्य अभिलषितप्राप्तेरित्यर्थः आश्वसनया आश्वा. सनेन सांत्वनेनेति यावत् एव कियन्ति कति वासराणि दिनानि यावत् पर्यन्तम् अस्माभिः विप्र लभ्यः प्रतारणीयः खलु निश्चितम् इति भण पद / अस्माकं नयने Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 317 त्वत्सौन्दर्य द्रष्टुमिच्छतः, वयं च 'इमां युवयोः इच्छां शीघ्रमेव पूरयिष्यामः' इति ताभ्यां केवलं समाश्वासनमेव दद्मः, किन्तु कियत्समयपर्यन्तम् एकमेव केवलसमाश्वासनदानेन तेऽस्माभिः विप्रलभ्ये भविष्यतः ? इति निश्चितं ब्रूहीति भावः // 91 // व्याकरण-कान्तिम /कम् + क्तिन् ( भावे ) / पिपासन् पातुमिच्छन्निति पा + सन् + शतृ / आश्वासनया आ + श्वस + णिच् + युच, यु को अन + टाप् / वासराणि यास्कानुसार द्वाभ्यां ( रात्रिदिनाभ्यां ) सरन्तीति, कालात्यन्तयोगे द्वि० / विप्रलभ्यः वि + प्र + Vलभ + यत् / कर्मणि)। ___ अनुवाद- "( हे दमयन्ती ! ) तुम्हारा सौन्दर्य पीना चाहते हुए अपने इस कटाक्ष-दृष्टि को केवल इच्छा ( पूर्ति ) के आश्वासन से ही हम निश्चय पूर्वक कितने दिन तक टरकाते रहेंगे यह कहो" // 91 / / टिप्पणी-भाव यह है कि हमारी आंखें तुम्हारा लोकातीत रूप देखना चाह रही हैं / हम भी 'हाँ दिखाएँगे, अवश्य दिखाएंगे' इस तरह इनको इनकी इच्छा प्राप्ति का आश्वासन, मात्र ही देते चले आ रहे हैं, कितु इसकी भी हद होनी चाहिए / तुम हमारा वरण करो, तो इनकी इच्छा पूरी हो जायगी। यहां कटाक्ष अथवा आँखों का चेतनीकरण होने से समासोक्ति है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। ध्यान रहे कि पिछले श्लोक से लेकर 106 तक नल दमयन्ती को देवताओं का प्रेम-सन्देश सुना रहे हैं। निजे सृजास्मासु भुजे भजन्त्यावादित्यवर्ग परिवेषवेषम् / प्रसीद निर्वापय तापमङ्गैरनङ्गलीलालहरीतुषारैः // 92 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) निजे भुजे आदित्य-वर्गे अस्मासु परिवेष-वेषम् भजन्त्यौ सृज / प्रसीद, अनङ्ग...षारैः अङ्गः ( अस्माकम् ) तापम् निर्वापय / टीका-(हे दमयन्ति ! ) निजे स्वकीये भुजे भुजी भुजशब्दः आकारान्तस्त्रीलिङ्गोऽपि भवतीति ध्येयम् आदित्यानां अदितेरपत्यानां देवानामित्यर्थः वर्गे समूहे अस्मासु परिवेषः परिधिः सूर्यादीन् परितः मण्डलाकारा दीप्तिरिति यावत् ( 'परिवेषस्तु परिधिः' इत्यमरः ) तस्य वेषम् आकारम् भजन्त्यो धारयन्त्यों सृज कुरु स्ववाहू मण्डलाकारीकृत्य अस्मान् देवान् आलिङ्गयेत्यर्थः / प्रसीव प्रसन्ना भव। अनङ्गस्य कामस्य या लीला विलासः कामकेलिरित्यर्थः ( 10 सत्पु० ) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 नैवधीयचरिते एव लहर्यः वीचयः ( कर्मधा० ) ताभिः तुषारैः शीतैः ( तृ० तत्पु० ) अङ्गः ‘अवयवः तापम् अस्माकं कामज्वरम् निर्वापय शमय / कामचेष्टापूर्ण निजशीतलाङ्ग. स्पर्शद्वारा नः सन्तापमुपशमयेति भावः // 92 // व्याकरण-आदित्याः अदितेरपत्यानि पुमांस इति अदिति-+ ण्य / परिवेषः परि+/विष् + घन / वेषः /विष् + घञ् / निर्वाषय निर् + /वप् + णिच + लोट् / अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) अपनी दोनों भुजाओं को देव-समूह में से ( केवल ) हम पर परिवेष का रूप दे दो, प्रसन्न हो जाओ; काम-चेष्टा की लहरों से ठंडे बने अंगों द्वारा ( हमारा) ताप शान्त कर दो" // 92 // टिप्पणी-देवताओं के मुख के इर्दगिर्द मंडलाकार तेज चमकता रहता है, जिसे अंग्रेजी में 'हेलो' ( Halo ) कहते हैं। उसी की तरह दमयन्ती ! तुम भुजाओं को मण्डलाकार बनाकर हमें गले लगाओ। तुम्हारे काम-भरे अंगों का शीतल स्पर्श क्षण में ही हमारे कामज्वर को ठंडा कर देगा। अनङ्गलीला पर लहरीत्वारोप और मंडलाकार भुजाओं में परिवेषत्वारोप होने से रूपक, 'वेष' 'वेषम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इस श्लोक के प्रथम तीन पादों में चाण्डू पण्डित, विद्याधर, ईशानदेव और जिनराज इस तरह पाठ दे रहे हैं—'अनुग्रहो ऽस्मासु यदि त्वदीयस्तदेहि देहि द्रुतमङ्कपालीम् / चार्वङ्गि निर्वापय तापमङ्गः'। दयस्व किं घातयसि त्वमस्माननङ्गचण्डालशरैरदृश्यः। भिन्ना वरं तीक्ष्णकटाक्षबाणैः प्रेमस्तव प्रेमरसात्पवित्रः // 93 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) दयस्व; अदृश्यः अनङ्गचण्डालशरैः त्वम् अस्मान् कि घातयसि ? प्रेमरसात् पवित्रः तव तीक्ष्णकटाक्षबाणः भिन्नाः (सन्तः) 'प्रेमः ( इति ) वरम् / टीका-(हे दमयन्ति ! ) वयस्व अस्मासु दयां कुरु; अदृश्यैः दृष्टयगोचरैः अनङ्गः कामः एव चण्डाल: अन्त्यजविशेषः ( कमंधा० ) तस्य शरैः बाणः त्वम् अस्मान् देवान् किम् किमिति घातयसि मर्तुम् प्रेरयसि ? प्रेम अनुरागः एव रसः भावविशेषः जलं च तस्मात् कारणात् ( कर्मधा० ) पवित्रः पूर्णैः पुनीतैश्च तव तीक्ष्णाः कटाक्षाः अपाङ्गावलोकनानि ( कर्मधा० ) एव बाणाः शराः ( कर्मधा०) -तैः भिन्नाः विद्धाः सन्तः प्रेमः यदि वयं प्रयाणं कुर्मः म्रियामहे इति यावत् तत् Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 349 वरम् मनाक प्रियम् चण्डालबाणमरणापेक्षया त्वत्कटाक्षबाणमरणम् श्रेय इति भावः / / 93 // ___व्याकरण-अदृश्यः न द्रष्टुं शक्य रिति न /दृश् + ण्यत् / घातयसि हन् + णिच् घात आदेश / प्रेम प्रियस्य भाव इति प्रिय + इमनिच, प्र आदेश / पवित्र पुनातीति/पु+ इत्र / प्रेमः प्र + /इ + लट् उ० ब० / / ___ अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) दया करो। कामदेव-रूपी चण्डाल के अदृश्य बाणों से हमें क्यों मरवा रही हो? प्रेम-रस रूपी रस ( जल ) से पवित्र बने तुम्हारे तीखे कटाक्ष-रूपी बाणों से बींधे हुए हम यदि मर जाय, तो अच्छा हो" // 93 // टिप्पणी-चण्डाल के अदृश्य बाण प्रहार से मरना बुरी गति है यह अपमृत्यु है। इसके स्थान में तुम प्रत्यक्ष होकर अपने प्रेमरस-जल से पवित्र बने बाणों द्वारा यदि हमें मारो, तो यह हमारी सद्गति होगी। बुरी मौत मरने से पवित्र तीर्थ स्थान में मरना श्रेयस्कर होता ही है। भाव यह निकला कि तुम हमारे आगे प्रत्यक्ष होकर अपने प्रेम-भरे कटाक्ष हम पर मारो तो हमारा उद्धार हुआ समझिये / अनङ्ग पर चण्डालत्वारोप और कटाक्ष पर बाणत्वारोप होने से दो रूपकों की संसृष्टि है। विद्याधर अतिशयोक्ति भी मान रहे हैं जो श्लेषमुखेन विभिन्न दो रसों-भाव और जल में अभेदाध्यवास से हो रही है। 'प्रेम 'प्रेम' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। त्वदर्थिनः सन्तु परस्सहस्राः प्राणास्तु नस्त्वच्चरणप्रसादः / विशङ्कसे कैतवनतितं चेदन्तश्चरः पञ्चशरः प्रमाणम् // 94 // अन्वयः-(हे दमयन्ति !) त्वर्थिनः परस्सहस्राः सन्तु, नः प्राणाः तु त्वच्चरण-प्रसादः / कैतव नर्तितं विशङ्कसे चेत् ( तहि ) अन्तश्चरः पञ्चशरः प्रमाणम् / टोका--( हे दमयन्ति ! ) त्वाम् अर्थयन्ते कामयन्ते इति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) त्वत्कामुकाः सहस्रात् सहस्रसंख्यातः परे अधिका इत्यर्थः परस्सहस्राः ( पं० तत्पु० ) सन्तु भवन्तु नाम, नः अस्माकम् प्राणाः जीवितम् तु तव चरणयोः पादयोः प्रसादः अनुग्रहः ( 10 तत्पु० ) त्वञ्चरणौ यदि अस्मासु प्रसन्नौ तहि एवास्माकं जीवितम् अन्यथा वयं मृता इत्यर्थः / कैतवम् कपटम् तस्य नति Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते तम् नृत्यम् नाटकमिति यावत् (10 तत्पु० ) त्वम् मिथ्याभाषितमित्यर्थः विशङ्कसे मन्यसे चेत्, तहि अन्तः हृदये चरतीति तथोक्तः अन्तर्वर्तीत्यर्थः ( उपपद तत्पु० ) पञ्चशरः कामः एव प्रमाणम् अत्र साक्षी अस्तीति शेषः वयं न 'मिथ्या ब्रूमहे, कामोहि नो हृदयस्थितो देवता प्रमाणयति वयं परमार्थतः त्वत्कृते कियदन्यन्तं पीडिताः स्म इति भावः // 94 // __ व्याकरण-त्वदर्थिनः युष्मत् + अर्थ + णिन्, युष्मत् को त्वदादेश / परस्सहस्राः सहस्र + पर सहन शब्द का परनिपात ( 'राजदन्तादिषु परम्' 2 / 2 / 31 ) पारस्करादि होने से सुडागम / प्राणाः प्र + अनन् + घन (भावे)। 'प्रसादः प्र + /सद् + घन (भावे)। कैतवम् किंतवस्य भाव इति कितव + अण / नर्तितम् नृत् + णिच् + क्तः ( भावे)। अन्तश्चरः अन्तः +/चर् + ट: ( कर्तरि ) प्रमाणम् प्रमीयसेऽनेनेति प्र+ मा+ ल्युट ( करणे)। अनुवाद--"( दमयन्ती ! ) तुम्हें चाहने वाले हजारों भले ही हों, किन्तु हमारे प्राण तुम्हारे चरणों की कृपा के अधीन हैं। इसे यदि तुम कपट का खेल समझ रही हो, तो ( हमारे ) हृदयवर्ती कामदेवता इसके साक्षी हैं ( कि यह हमारा कपट का खेल नहीं है। )" // 94 // टिप्पणी-देवताओं के कहने का भाव यह है कि अन्य कामुकों को तरह प्रेम में छल-फरेब करना हम नहीं जानते हैं। फिर भी यदि तुम्हें इसमें हमारे छल-फरेब की शंका है तो भगवान कामदेव हमारे साक्षी हैं। अतः हमारे प्राणों की रक्षा हेतु हमारा ही वरण करो अन्य का नहीं। विद्याधर के शब्दों में अत्रातिशयोक्तिरलङ्कारः / ' 'चेत्' शब्द के बल से यहाँ केतव-नतित' का देवताओं के साथ असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध की संभावना की जा रही है। 'प्राणाः... प्रसादः' में हेत्वलंकार है, क्योंकि प्रसाद कारण और प्राण उसका कार्य होते हुए दोनों का अभेद बताया जा रहा है / कार्य-कारण के अभेद में हेतु अलंकार होता है। 'चरः शरा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रासः अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अस्माकमध्यासितमेतदन्तस्तावद्भवत्या हृदयं चिराय। बहिस्त्वयालं क्रियतामिदानीमुरो मुरं विद्विषतः श्रियेव / / 95 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) भवत्या अस्माकम् एतत् हृदयम् अन्तः तावत् चिराय अध्यासितम्; इदानीम् बहिः उरः त्वया श्रिया मुरं विद्विषतः ( उरः) इव अलंक्रियताम् / Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 351 टीका-(हे दमयन्ति ! ) भवत्या त्वया अस्माकम् नः एतत् इदम् हृदयम् स्वान्तम् अन्तः अन्तरतमप्रदेशे तावत् निश्चितम् अध्यासितम् अधिष्ठितम् चिरकालात् त्वं नो हृदयमधितिष्ठसीति भावः / इदानीम् अधुना बहिः बाह्यप्रदेशे अपि उरः हृदयम् वक्षः इत्यर्थ: ( 'हृदयं वक्षसि स्वान्तम्' इत्यमरः ) त्वया श्रिया लक्ष्म्या मुरम् एतन्नामकम् असुरविशेषम् विद्विषत: तेन विद्वेषं कुर्वतः मुरारेः विष्णोरिति यावत् उरः इव अलङ्क्रयिताम् शोभितं क्रियताम् / लक्ष्मीः यथा विष्णोः वक्ष : समलंकरोति तद्वत् त्वमप्यस्माकं वक्षः अलंकुर अस्मान् वृत्वा आलिङ्गेति भावः // 95 // ___व्याकरण - भवत्या भवतीति /भू + डवत् + ङीप् ( पूज्ययेत्यर्थः ) / अध्यासितम् अधि + /आस् + क्त ( कर्मणि ) अधि उपसर्ग के साथ आस् धातु सकर्मक हो जाता है / इदानीम् इदम् + दानीम् / विद्विषतः वि + /द्विष + शतृ 'न लोका०' ( 2 / 3 / 69 ) से षष्ठी निषेध होकर द्वि० / अलंक्रियताम् अलम् + कृ + लोट् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद- "( दमयन्ती ! ) आप कभी से हमारे हृदय के अन्तरतम प्रदेश में बैठी हुई हैं ही, ( किन्तु ) अब हृदय के बाह्य प्रदेश-वक्ष को ( भी ) उसी प्रकार अलंकृत करें जैसे लक्ष्मी मुरारि ( विष्णु ) के वक्ष को ( अलंकृत करती हैं ) // 95 / / टिप्पणी- क्योंकि तुम चिरकाल से हमारे हृदय की रानी बनी हुई हो, इसलिए हमें अपनाने में अब संकोच काहे का ? दमयन्ती की श्री के साथ तुलना में उपमा है; 'मुरो' 'मुरं' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दयोदयश्चेतसि चेत्तवाभूदलं कुरु द्यां विफलो विलम्बः / भुवः स्वरादेशमथाचरामो भूमौ धृति यासि यदि स्वभूमौ // 96 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) तव चेतसि दयोदयः चेत् अभूत्, ( तहि ) द्याम् अलङकुरु, विलम्बः विफल:, अथ स्वभूमो भूमौ धृतिम् यासि, ( तर्हि ) भुवः स्वरादेशम् आचरामः / ___टोका-( हे दमयन्ति ! ) तव ते घेतसि मनसि दयायाः अस्माकम् उपरि करणायाः उदयः आविर्भावः (10 तत्पु० ) चेत् यदि अभूत् जातः तर्हि धाम् स्वर्गम् अलंकुरु सुशोभितं कुरु, विलम्बः अस्मद्-वरणे कालातिपातः विफल: व्यर्थः Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 नैषधीयचरिते व्यर्थकालातिपातो न कर्तव्य इत्यर्थः, अथ यदि स्वा निजा भूमिः जन्मस्थानम् तस्याम् भूमौ भूलोके धृतिम् रतिम् प्रीतिमित्यर्थः यासि प्राप्नोषि स्वजन्मस्थानम् भूतलम् रोचयतीति भावः, तर्हि भुवः भूम्याः स्वः स्वर्गस्य आदेशम् व्यपदेशम् संज्ञामित्यर्थः ( सुप्सुपेति स० ) आचरामः कुर्मः। वयमत्रैव भूलोके स्थास्यामः, स्वर्गभोगांश्च कुर्मः। यत्र वयमिन्द्रादयो देवाः, स्वभॊगाश्च, तदेव स्वर्गः इति भावः / / 96 // व्याकरण-चेतसि चे यतेऽनेनेति /चित् + असुन् ( करणे ) / दया/दय् + अङ् + टाप् / उदयः उत् + इ + अच् / द्याम् यास्कानुसार 'द्योतते इति सतः' / भूमो भवन्त्यस्यां भूतानीति /भू + मि, कित्व / अनुवाद ---"( दमयन्ती !) तुम्हारे मन में ( हमारे लिए ) यदि दया हो उठी हो, तो स्वर्ग को सुशोभित करो। विलम्ब व्यर्थ है। यदि अपनी (जन्म).. भूमि भूलोक से लगाव हो तो हम भूलोक को स्वर्ग संज्ञा दे देते हैं" // 96 // टिप्पणी-इस श्लोक के उत्तरार्ध का यह पाठान्तर है-'क्ष्मामेव देवालयतां नयामो भूमौ रतिश्चेत्तव जन्मभूमौ'। जो अधिक सरल है। भाव यह है कि हम तुम्हारे खातिर स्वर्ग छोड़ देंगे और भू को ही. स्वर्ग बना देंगे, विद्याधर यहाँ काव्यलिंग कह रहे हैं। 'दयोदय' तथा 'भूमौ', 'भूमी' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। धिनोति नास्माञ्जलजेन पूजा त्वयान्वहं तन्वि ! वितन्यमाना। तव प्रसादोपनते तु मौलौ पूजास्तु नस्त्वत्पदपङ्कजाभ्याम् // 17 // अन्वयः-हे तन्वि ! त्वया अन्वहम् जलजेन वितन्यमाना पूजा अस्मान न धिनोति, तु तव प्रसादोपनते नः मौलौ त्वत्पद-पंकजाभ्याम् पूजा अस्तु / टोका-हे तन्वि ! कृशाङ्गि ! त्वया अहनि अहनि इत्यन्वहम् प्रतिदिनम् (अव्ययी० ) जलजेन जातावेकवचनम् जलजः कमलैः वितन्यमाना क्रियमाणा पूजा अर्चना अस्मान् नः इन्द्रादीन् न धिनोति न प्रीणयति, तु किन्तु तव ते प्रसादाय प्रसन्नीकरणाय उपनते नम्र नः अस्माकम् मौलौ शिरसि तव पदे चरणो (10 तत्पु० ) एव पङ्कजे जलजे ताभ्याम् पूजा अस्तु भवतु / त्वं कमलरस्माकं पूजां मा कुरु, किन्तु अस्मत्कृतप्रणयापराधेषु त्वत्प्रसादाय नतेऽस्माकं मूनि स्वचरणकमलं निधाय नः पूजां कुर्विति भावः // 97 // Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 353 व्याकरण ----जलजेन जले जायते इति जल + / जन् + ड / वितन्यमानः वि + /तन् + शानच् ( कर्मवाच्य ) / पूजा पूज् + अ + टाप् / पङ्कजाभाम् पङ्कात् जायते इति पङ्क+/जन् + ड / अनुवाद-"हे. कृशाङ्गि ! तुम्हारे द्वारा प्रति दिन कमलों से की जा रही ( हमारी ) पूजा हमें प्रसन्न नहीं करती, ( तुम्हें ) प्रसन्न करने हेतु नीचे झुकाये ( हमारे ) सिरों की पूजा तो तुम्हारे चरणकमलों से होनी चाहिए" / / 97 // टिप्पणी- भाव यह है कि हम तुम्हारे पूज्य देवता नहीं रहना चाहते हैं / हम तो तुम्हारे कामुक हैं। हमारा वरण करके यदि हमारे प्रणयापराधों के खातिर तुम हमारे झुके हुए शिरों पर दण्ड-स्वरूप अपना पाद-प्रहार करो, तो हमें बड़ी प्रसन्नता होगी। इसे ही हम अपनी असली पूजा समझेंगे। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह गये हैं / पदों पर पङ्कजत्वारोप में रूपक, 'पूजा' पूजा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्वर्णवितोर्णैः करवाम वामनेत्रे! भवत्या किमुपासनासु / अङ्ग ! त्वदङ्गानि लिपोतपीतदर्पाणि पाणिः खलु याचते नः / / 98 ___ अन्वयः-हे वामनेत्रे ! भवत्या उपासनासु वितीर्णैः स्वर्णैः किं करवाम / अङ्ग! न पाणि: निपीतपीतदर्याणि त्वदङ्गानि खलु याचते / टीका... बार सुन्दरे नेने ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी ( ब० वी० ) चारुल चने : रबत्या त्वया उपासनासु अस्मदीय-पूजासु वितीणः अपितैः उपायनरूपेण दत्तरित्यर्थ: स्वर्णः सुवर्णैः वयं कि करशमः करिष्यामः न किमपीति काकुः / अङ्ग इति सम्बोधने अङ्गीकारे वा अव्ययम् नः अस्माकम् पाणिः हस्तः निपीतः नि शेषं पीतः पूर्णतया पराजित इत्यर्थः पोतस्या सुवर्णस्य दर्प: गर्वः (10 तत्पु० ) यः तथाभूतानि ( ब० वी० ) तव अङ्गानि त्वदङ्गानि (50 तत्पु० ) खलु निश्चितम् याचते प्रार्थयते / स्वर्णेन नास्त्यस्माकं प्रयोजनम्, अमा प्रयोजनं तु स्वर्णातिशामित्वदनंरस्तीति भावः / / 98 / / च्या ण-वत्या इसके लिए पीछे श्लोक 95 देखिए। जितीण: वि + Vतृ + क्त, त को न, न को ण, ऋ को ईर करवाm/+ लोट् उ० ब० / __ अकाद--- "हे सुलोचने ! आपके द्वारा ( हमारी) पूजाओं में ( भेंटरूप ) चढ़ाये सुवर्णों से हम क्या करें? देवी ! हमारा हाथ ( तो ) वास्तव में सुवर्ण का अभिमान चूर किये हुए तुम्हारे अंग माँग रहा है" // 98 // Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 नैषधीयचरिते - टिप्पणी-स्वर्ण शब्द से हम देवताओं की भेंट-पूजा में चढ़ाये जाने वाले सुवर्ण ले रहे हैं। देवताओं का अभिप्राय यह है कि सुवर्ण-पर्वत सुमेरु पर रहने वाले हम लोगों के आगे सुवर्ण का कोई महत्त्व ही नहीं। हाँ, सुवर्ण से बढ़कर वस्तु हमें मिलनी चाहिए और वह तुम्हारे अंग ही हो सकते हैं / भाव यह निकला कि तुम्हारा अंग स्वर्ण से अधिक गोरा-पीला है। मल्लिनाथ और नारायण ने 'स्वर्णैः' का अर्थ स्वर्णपुष्पैः स्वर्ण-कमलैः किया है, लेकिन स्वर्णकमल तो स्वर्नदी में ही होते हैं भू में नहीं, जहाँ दमयन्ती रह रही है। यदि उनका अभिप्राय स्वर्णिल अर्थात् पीले फूलों से हो, तो बात दूसरी है / विद्याधर यहाँ भी अतिशयोक्ति कह गये हैं लेकिन हमारे विचार से अभिमान चूर करना टक्कर लेना आदि प्रयोग दण्डी के अनुसार सादृश्यपरक होने से यहाँ उपमा है / 'पीतपीत' में यमक, 'पाणि' 'पाणिः' और 'अङ्ग' 'अङ्गा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। वयं कलादा इव दुर्विदग्धं त्वद्गौरिमस्पर्वि दहेम हेम / प्रसूननाराचशरासनेन सहैकवंशप्रभवभ्रु ! बभ्रुः / / 99 // अन्वयः-हे प्रसूननाराच-शरासनेन सह एकवंशप्रभवभ्रु ! वयम् कलादा इव त्वद्-गौरिम-स्पर्धि दुर्विदग्धम् हेम दहेम / टोका-प्रसूनानि पुष्पाणि एव नाराचाः बाणाः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः शरासनेन धनुषा सह एकस्मिन् वशे कुले ( कर्मधा० ) प्रभव: जन्म ( स० तत्पु० ) ययोः तथाभूते (ब० वी० ) भ्रवी ( कर्मधा० ) यस्याः ( ब० वी० ) तत्सम्बुद्धी कामबाण-सदृश-भ्रूवति ! दमयन्ति ! इत्यर्थः वयम् इन्द्रादयः कलादाः स्वर्णकाराः ( 'कलादा रुक्मकारकाः' इत्यमरः) इव तव यो गौरिमा गौरत्वम् (10 तत्पु० ) तेन स्पर्धते स्पर्धा करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) अत एव दुर्विदग्धम् दुविनीतम् मूर्खमिति यावत् वभ्र पिङ्गलम् ( 'बभ्र स्यात् पिङ्गल' इत्यमरः ) हेम सुवर्णम् बहेम / त्वदेहकान्तिः सुवर्णकान्त्यपेक्षयाऽधिकसुन्दरीति भावः // 99 // व्याकरण-नाराचाः नरान् आचमन्तीति नर + आ + /चम् + ड, नराचा एवेति नराच + अण् ( स्वार्थे ) नाराचाः। शरासनम् शरा आसतेऽत्रेति शर + /आस् + ल्युट् ( अधिकरणे ) / प्रमवा प्र + /भू + अप् ( भावे ) / ०वभ्र ! Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 355 यहाँ भ्र शब्द के नदीसंज्ञक न होने से सम्बुद्धि में ( 'अम्बार्थ-नद्योह्रस्वः 7 / 3 / 107 से ) ह्रस्व प्राप्त नहीं है, अत एव भट्टोजी दीक्षित ने सम्बोधन में हे सुभ्रू :! ही रूप दे रखा है और शंका उठाई है-'कथं तर्हि हापितः क्वासि हे सुभ्र ? इति भटिः' / इसका उन्होंने उत्तर दिया है-'प्रमाद एवायमिति बहवः' किन्तु कवि लोग ह्रस्वान्त प्रयोग करते आ ही रहे हैं, देखिए कालिदास— विमानना सुभ्र ! कुतः पितुर्गुहे' ( कुमार० ) इत्यादि / गौरिमा गौरस्य भाव इति गौर + इमनिच / दुर्विदग्धम् दुः= दुष्टं यथा स्यात्तथा विदग्धम् वि = विशेषेण दग्धम् इति वि + / दह + क्तः, जो अच्छी तरह जलाया, पकाया हुआ हो / हानि अथवा विद्या में अच्छी तरह परिपक्व को घिदग्ध - निपुण कहते हैं जिसका विपरीत अविदग्ध अथवा दुविदग्ध = मूर्ख होता है / अनुवाद-“हे कामदेव के धनुष की सजातीय (= सदृश ) भौंह वाली ( दमयन्ती ) ! हम सुनारों की तरह तुम्हारे गौर वर्ण के साथ होड़ करने वाले सुवर्ण को फूक डाला करते हैं" // 99 // टिप्पणी-भाव यह है कि तुम्हारी देह की पीत छटा के आगे सुवर्ण टिक नहीं सकता है, फिर भी मूर्खतावश वह उसकी बराबरी करना चाह रहा है, तो क्यों न हम उसे दण्ड दें, अग्नि में झोंके। दूसरे, स्वर्ण से हमारा भला क्या मतलब। वह हमारी निवास-भूमि-सुमेरु में ढेरों है ही। हम तो उससे कई गुना सुन्दर तुम्हारे अंगों के भिक्षुक हैं। हम पीछे बता आये हैं कि 'स्पर्धा करना’ ‘एक-जातीय होना' आदि लाक्षणिक प्रयोगों को दण्डी ने सादृश्य-बोधनपरक मान रखा है अतः यहाँ दो उपमायें हैं। 'हेम हेम', 'वभ्र बभ्र' में ( बवयोरभेदात् ) यमक, 'नना', 'नेन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सुधासरःसु त्वदनङ्गतापः शान्तो न नः किं पुनरप्सरःसु / निर्वाति तु त्वन्ममताक्षरेण सूनाशुगेषोर्मधुसोकरेण // 10 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) नः त्वदनङ्गतापः सुधा-सरःसु न शान्तः, किम् पुनः अप्सरःसु / सूनाशुगेषोः मधु-सीकरेण त्वन्ममताक्षरेण तु निर्वाति / टोका-( हे दमयन्ति ! ) नः अस्माकम् त्वया त्वत्कृतः इत्यर्थः अनङ्गस्य कामस्य ( तृ० तत्पु० ) ताप: ज्वरः ( 10 तत्पु० ) सुधायाः अमृतस्य सरःसु सरसीषु न शान्तः निमज्जनेन न दूरी भवतीत्यर्थः किं पुनः अप्सरःसु अपाम् सरःसु Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधीयचरिते अथ च उर्वश्यादि-देवाङ्गनासु तु किमु वक्तव्यमित्यर्थः / सूनानि पुष्पाणि आशुगा: बाणा, यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः इषोः बाणस्य (10 तत्पु०) मधुनः मकरन्दस्य सोकरेण बिन्दुना तव 'मम' इत्यस्य भाव इति ममता (10 तत्पु०) तद्रूपेण अक्षरेण (कर्मधा०) तु पुनः निर्वाति शाम्यति / त्वमस्मान् प्रति 'मम' इत्यक्षरद्वयं प्रयुज्य स्वस्याः स्वामित्वम् अस्माकं च स्वकीयत्वं चाङ्गोकुरु अस्मान वृणीष्वेति यावत् तत एवास्माकं कामज्वरो निवतिष्यते इति भावः // 100 // व्याकरण-अप्सरःसु इसके लिए पीछे सर्ग 7 श्लोक 92 अथवा सर्ग 2 श्लोक 104 देखिए। आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + ड / इषुः इष्यते ( क्षिप्यते ) इति/इष् + उ / अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! तुम्हारे कारण हुआ हमारा काम-ज्वर अमृत की झीलों में नहीं शान्त होता, जल की झीलों और अप्सराओं में ( शान्त होने की बात ) तो करनी ही क्यों। किन्तु काम के ( पुष्प रूप ) बाण के मकरन्द की बिन्दु-रूप 'मेरे' ( हो) इस अक्षर से शान्त हो जायेगा" / / 100 // टिप्पणी-माव यह है कि 'तुम मेरे हो' इतना कहके हमें अपनालो, तो हमारा कामज्वर तत्काल शान्त हो जावेगा, जिसे क्या अमृत और क्या अप्सरायें कोई भी मिटाने में सक्षम नहीं। विद्याधर के शब्दों में-"अत्र कार्यकारण-विरोधाद् विषमोऽलंकारः" / यहाँ ज्वर का कारण-भूत इषु-रूप पुष्प अपने मधु-कण से विरुद्ध कार्य अर्थात् ज्वर-शमन करता हुआ बताया गया है / अप्सरःसु में श्लेष है। 'अप्सरःसु' शब्द का अप्सरा अर्थ करने में ( सुधासरःसु (अप:) सरःसु में ) यमक, किन्तु झील अर्थ करने में अन्त्यानुप्रास होगा, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। खण्डः किमु त्वगिर एव खण्डः किं शर्करा तत्पथशर्करैव। कृशाङ्गि! तद्भङ्गिरसोत्थकच्छतृणं नु दिक्षु प्रथितं तदिक्षुः // 101 / / अन्वयः-हे कृशाङ्गि! त्वगिरः खण्डः एव खण्ड: किमु ? तत्पथशर्करा एव शर्करा किमु ? ( यत् ) तद्भङ्गि....तृणम् तत् दिक्षु इक्षुः ( इति ) प्रथितम् न ? टीका-कृशम् तनु अङ्गम् शरीरम् ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धौ ( ब० बी० ) हे कृशाङ्गि ! तव गिरः वाण्याः खण्डः शकलम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः एव खण्ड: इक्षुविकारविशेष: खाँड इति भाषायां प्रसिद्धः जातः किमु ? ( 'स्यात् खण्ड: शकले चेक्षुविकार-मणिदोषयोः' इति विश्वः) तस्याः वाण्याः यः पन्थाः मार्गः तस्मिन् ( 10 तत्पु० ) शर्करा उपललघुखण्डाः कर्परांशाः एव शकरा इक्षुविकार-विशेषः ('शर्करा खण्डविकृतावुपला कर्परांशयोः' इति विश्वः ) किम् ? तस्याः वाण्याः भङ्गिः वक्रोत्क्यादिभरिता रचना ( 10 तत्पु० ) तया तज्जनित इत्यर्थः यो रसः शृङ्गारादि अथ च जलम् ( तृ० तत्पु० ) तस्मात् उत्तिष्ठतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) यत् कच्छतृणम् ( कर्मधा० ) / कच्छस्य जलप्रायदेशस्य तृणम् तत् दिक्षु दिशासु 'इक्षु' इति नाम / प्रथितम् विख्यातम् न ? अपितु प्रथितमेवेति काकुः // 101 / / व्याकरण ---खण्डः खण्डयते इति / खण्ड + घञ् (कर्मणि) / तत्पथ० पथिन् शब्द को समासान्त अप्रत्यय / ०रसोत्य उत्तिष्ठतीति उत् + /स्था + क, स को पूर्वसवर्ण / कच्छः केन = जलेन छाद्यते इति क + Vछद् ( निपातित ) दिक्षु दिशन्ति (ददति अवकाशम् ) इति /दिश् + क्विप् ( कर्तरि ) स० व० / अनुवाद-“हे कृशाङ्गी ! तुम्हारी ( मधुर ) वाणी का खण्ड ( लेश ) ही खण्ड ( खाँड ) है क्या ? उस ( वाणी ) के मार्ग की शर्करा ( कंकड़ियाँ ) ही शर्करा ' शक्कर ) है क्या ? उस ( वाणी ) की भङ्गि ( वचनप्रकार ) से निकल रहे रस ( शृगारादि; जल ) से उत्पन्न जो कच्छ-प्रदेश का तृण है, वह दिशाओं में 'इक्ष' नाम से प्रसिद्ध नहीं ( है क्या ) ? // 101 // टिप्पणी-यहाँ कवि देवताओं के माध्यम से दमयन्ती की वाणी के माधुर्य को खाँड, शक्कर और गन्ने के रस से भी उत्कृष्ट बता रहा है। इस सम्बन्ध में वह यहाँ निरक्त की-सी प्रक्रिया अपना रहा है अर्थात् 'खण्डः कस्मात्' ? 'तहाग्याः खण्डत्वात्' 'शर्करा कस्मात् ?' 'तद्वाणीमार्गगतशर्करात्वात्' 'इक्षुः कस्मात् ?' 'तद्वाणीरसजन्यतृणत्वात्' / खाँड बारीक पिसी चीनी को कहते हैं / उसमें माधुर्य दमयन्ती की वाणी के लेशमात्र से आया है। शर्करा मार्ग में पड़ी पत्थरों का कंकड़ियों को कहते हैं। वाणी जब माग में आई, तो उसका माधुर्य कंकड़ियों में संक्रान्त हो गया और वही कंकड़ियाँ फिर कन्द वाली चीनी अर्थात् दानेदार चीनी प्रसिद्ध हुई। ध्यान रहे कि यहाँ कवि की कल्पना ‘खण्ड, खण्ड' 'शर्करा, शर्करा' में शब्द-साम्य पर आधुत है / उसकी वाणी से निकल रही रस Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते माधुरी से गन्ने में मधुर रस ( जल ) बना / यहाँ भी 'रस, रस' का शब्द साम्य है। कवि की ये तीन अनोखी कल्पनायें परस्पर निरपेक्ष तीन उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि बना रही है। शब्द में श्लेषमुखेन दो विभिन्न रसों में अभेदाध्यवसाय होने से अतिशयोक्ति है / 'खण्डः' 'खण्डः' में यमक, 'शकंरा' 'शकर' 'दिक्ष' 'दिक्षः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ददाम कि ते सूधयाऽधरेण त्वदास्य एव स्वयमास्यते हि / चन्द्रं विजित्य स्वयमेव भावि त्वदाननं तन्मखभागभोजि // 102 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) ते किम् ददाम ? हि अधरेण सुधया त्वदास्ये एव स्वयम् विजित्य स्वयम् आस्यते, ( तथा ) त्वदाननम् चन्द्रम् विजित्य स्वयम् एव तन्मखभागभोजि भावि / टीका-(हे दमयन्ति ! ) ते तुभ्यम् वयम् किं वस्तु ददाम वितराम ? अस्मत्पार्वे तुभ्यं दान-योग्यम् किमपि वस्तु नास्तीत्यर्थः हि यतः अधरेण निम्नदन्तच्छदेन सुधया अमृतेन तव आस्ये मुखे (10 तत्पु० ) एव स्वयम् आत्मना आस्यते स्थीयते अस्मत्पार्वे दातव्यम् अमृतं भवति तत्तु अधर-रूपेण त्वन्मुखे स्वयमस्त्येति किं तदानेनेत्यर्थः, तथा तव आननम् मुखम् (10 तत्पु० ) चन्द्रम् विजित्य पराभूय स्वयमेव आत्मनैव तस्य चन्द्रस्य यो मखभागः (10 तत्पु०) मखे यज्ञे भागः अंशः अन्यदेवताभ्य इव चन्द्रदेवतायै दीयमानहविरित्यर्थः ( स० तत्पु० ) तम् भजति प्राप्नोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) भावि भविष्यति / चन्द्रविजेतृ त्वन्मुखं चन्द्रस्य स्थाने स्वयं तद्यज्ञभागं ग्रहीष्यत्येवेत्यर्थः / अस्माकं पार्वे अमृतं यत् यज्ञहविश्वापि अन्यत् वस्तु देयमस्ति, तच्चापि त्वत्पार्वे आयास्यत्येवेति किं तद्दानेनेति भावः / / 102 // व्याकरण-ददाम दा + लोट उ० ब०। अधरः अधः ऋच्छतीति अधः + /ऋ+ अच् ( निपातित ) / आस्यम् अस्यते ( क्षिप्यते ) अत्रान्नादिकम् इति/अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / आस्यते /आस् + लट् ( भाववाच्य ) / भावि भू + इन् / अनुवाद-( दमयन्ती!) तुम्हें हम क्या दें? कारण यह है कि अधररूपी अमृत तुम्हारे मुखपर ही स्थित है एवं तुम्हारा मुख चन्द्रमा को परास्त करके स्वयं ही उस ( चन्द्रमा) के यज्ञ-भाग का भागी बन जाएगा // 102 // Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 359 टिप्पणी-हमें वरने पर तुम्हारा उपकार हम दो चीजों से ही कर सकते हैं-एक अमृत दान और दूसरा यज्ञ-भाग का दान, किन्तु दोनों तुम्हें प्राप्त हैं। कवि का भाव यह है कि दमयन्ती का अधर सुधा से भी अधिक मधुर, और मुख चन्द्रमा से भी उत्कृष्ट है / अधर पर सुधात्वारोप में रूपक है। चन्द्रमा को जीत लेने में उपमा है, क्योंकि दण्डी ने जीतना, टक्कर लेना आदि लाक्षणिक प्रयोगों का सादृश्य में पर्यवसान मान रखा है, अन्यथा मुख में चन्द्र की अपेक्षा आधिक्य बताने में हम व्यतिरेक कहेंगे। विद्याधर अतिशयोक्ति बता रहे हैं, जिसे हम नहीं समझे / 'दास्य' 'मास्य' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास है जब कि विद्याधर छेक बता रहे हैं / अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रिये ! वणीष्वामरभावमस्मदिति त्रपाकृद्वचनं न कि नः / त्वत्पादपद्मे शरणं प्रविश्य स्वयं वयं येन जिजोविषामः / / 103 / / अन्वयः- "हे प्रिये ! अस्मत् अमरभावम् वृणीष्व"-इति नः वचनम् त्रपाकृत् न ( अस्ति ) किम् ? येन त्वत्पाद-पद्म शरणम् प्रविश्य वयम् स्वयम् जिजीविषामः / " ____टोका-'हे प्रिये प्रियतमे दमयन्ति / अस्मत् अस्मत्सकाशात् अमरस्य भावम् अमरत्वम् (10 तत्पु० ) वृणीष्व याचस्व' इति नः अस्माकम् वधनम् कथनम् त्रपां लज्जां करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) लज्जाजनकम् न अस्ति किम् ? अपि त्वस्त्येवेति काकुः / येन कारणेन तव पादौ चरणी (10 तत्पु० ) एव पद्म कमलद्वयम् ( कर्मधा० ) शरणम् रक्षितारम् ('शरणं गृह-रक्षित्रोः' इत्यमरः) प्रविश्य गत्वा वयम् स्वयम् आत्मनैव जिजीविषामः जीवितुमिच्छामः / त्वत्पादसेवया जीवितुमिच्छताम् अस्माकम् त्वत्कृतेऽमरत्वप्रदानकथनम् सुतराम् उपहासास्पदमिति भावः // 103 // __व्याकरण-प्रिया प्रीणातीति/प्री+ क + टाप् / अमरः नियते इति मृ + अच् ( कर्तरि ) मरः, न मरः इत्यमरः / त्रपाकृत् त्रपा + /कृ + क्विप् ( कर्तरि ) तुगागम। शरणम् श्रियते इति /श्रि+ ल्युट ( कर्मणि ) / जिजीविषामः /जीव + सन् + लट् / अनुवाद-"प्रिये, हम से अमरत्व माँगो"—यह हमारा कथन लज्जाजनक नहीं है क्या, जिससे तुम्हारे चरणकमलों की शरण में आकर हम स्वयं जीवित रहना चाह रहे हैं ?" // 103 // Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 नैषधायचरिते टिप्पणी-अमृत और यज्ञभागदान के अतिरिक्त हमारे पास देने योग्य तीसरी वस्तु अमरत्व है, लेकिन उसे देने को भी कैसे कहें, जब कि काम के मारे हुए हम निज रक्षा हेतु तुम्हारे चरणों की शरण मांग रहे हैं, यह बड़ी लज्जा की बात होगी। संस्कृत का आभाणक है-'स्वयमसिद्धः कथं परान् साधयेत् ?' अतः हम सर्वथा तुम्हारी दया के पात्र हैं। हमें बचाओ।। विद्याधर ने 'अत्र काव्यलिङ्गातिशयोक्त्यलङ्कारो' कहा है। पादपद्म में रूपक है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। नास्माकमस्मान्मदनापमृत्योस्त्राणाय पीयूषरसायनानि / प्रसीद तस्मादधिकं निजं तु प्रयच्छ पातुं रदनच्छदं नः // 104 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) पीयूष-रसायनानि अस्मान् मदनापमृत्योः अस्माकम् त्राणाय न ( भवन्ति), तस्मात् प्रसीद / अधिकम् निजम् रदनच्छदम् तु पातुम् नः प्रयच्छ / ___टीका-(हे दमयन्ति ! ) पीयूषम् अमृतम् एव रसायनानि आयुर्बलवर्धकानि औषधानि अस्मात् मदनेन कामेन अपमृत्योः कामतापकृतात् अकालमृत्यो रित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) अस्माकम् त्राणाय रक्षायै न कल्पन्ते इति शेषः तस्मात् कारणात् त्वम् प्रसीद अस्मासु प्रसन्ना भब। अधिकम् अमृतरसायनेभ्यः उत्कृष्टम् निजम् स्वीयम् रदनच्छदम् ओष्ठम् अधरमित्यर्थः तु पातुम् पानविषयीकतुम् नः अस्मभ्यम् प्रयच्छ देहि / अमृतपानेनास्माकम् कामकृताकालमृत्युः नापेष्यति स तु अमृतापेक्षयाऽधिकप्रभावशालिना त्वदधररसायनपानेनैवापेष्यतीति भावः // 104 // व्याकरण-रसायनम् रसस्य (पारदस्य ) अयनम् ( स्थानम् ) आयुर्वेद में वार्धक्य तथा अकालमृत्यु रोधक और आयुर्वर्धक औषध को रसायन कहते हैं / उसमें रस- पारा मिला रहता है / जब अपमृत्यु में साधारण औषधि काम नहीं करती है, तब रसायन दिया जाता है। अपमृत्युः अपकृष्टो मृत्युः इति ( प्रा० स० ) / त्राणम् / + क्त ( भावे ) त को न, न को ण / रदनच्छर: छदतीति Vछद् + अच् ( कर्तरि ) रदनानांच्छदः (10 तत्पु०)। अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) अमृत-रूपी रसायन काम-कृत इस अकाल मृत्यु से हमारी रक्षा नहीं करते, इसलिए कृपा करो; उनसे अधिक (प्रभावशाली ) अपना अघर-पान तो हमें दो"॥ 104 // Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भष्टमः सर्गः टिप्पणी-विद्याधर 'अत्रातिशयोक्तिरलङ्कारः' कह रहे हैं। हमारे विचार से पीपूष पर रसायनत्वारोप में रूपक और रदनच्छद-पान को रसायन से अधिक प्रभावशाली बताने में व्यतिरेक बन रहा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। प्लुष्टः स्वैश्चापरोपैः सह स हि मकरेणात्मभूः केतुनाऽभू द्धत्तां नस्त्वत्प्रसादादथ मनसिजतां मानसो नन्दनः सन् / भ्रूभ्यां ते तन्वि ! धन्वी भवतु तब सितैर्जेत्रभल्ल: स्मितैः स्ता दस्तु त्वन्नेत्रचत्तरशफरयुगाधोनमीनध्वजाङ्कः // 105 // अन्त्रयः-आत्मभूः स्वः चापरोपैः केतुना च सह प्लुष्टः ( अभूत् ), अथ स हि त्वत्प्रसादात् नः मानसः नन्दनः सन् मनसिजताम् धत्ताम् / हे तन्वि ! (सः) ते भ्रूभ्याम् धन्वी भवतु; तव सितैः स्मितैः जैत्र-भल्लः स्तात्, त्वन्नेत्र "जाङ्क: ( च ) अस्तु / टीका-आत्मभः कामः ( 'मकरध्वज आत्मः' इत्यमरः) स्वैः स्वकीयः चापः धनुश्च रोपाः बाणाश्चेति तैः ( द्वन्द्व ) केतुना ध्वजेन च सह प्लुष्टः महादेवतृतीयनेत्राचिषा दग्धः अभूत् / हे हन्धि ! कृशाङ्गि ! अथ अनन्तरम् इदानीमित्यर्थः स हि निश्चयेन तब प्रसाद: कुपा तस्मात् (10 तत्पु० ) नः अस्माकम् मानसः मनःसम्बन्धी नन्दन : आनन्ददायकः अथ च मानसः पुत्रः सन् ( 'नन्दनो हर्षके सुते' इति विश्वः ) मन सजता / मनोजत्वम् धत्ताम् / हे तन्धि ! कृशाङ्गि! स कामः ते तव भूभ्याम् भ्र दयेन धनी धनुर्द्वयवान् भवतु, पूर्वं तु तस्यैकमेव धनुरोसीत्, इदानों तु तस्य अ दय-रूपे धनुर्द्वयं भविष्यतीत्यर्थः / तव सितैः श्वेतवर्णैः अथ च ( श्लेषे सशयोरभेदात् शितैः / तीक्ष्णः मितः मन्दहसितः जैत्राः जेतारः भल्ला: भल्लास्य-वाण विशेषाः / कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) स्तात् अस्तु; तब नेत्र नयनद्वयम् ( 50 तत्पु० ) एव चत्तरम् अतिशयेन चञ्चलम् शफरयुगम् ( उभयत्र कर्मधा फरयो: मत्स्ययोः युगम् द्वयम् ( 10 तत्पु० ) तस्य अघीनः कशः (ष तत्पु० ) मोनः मत्स्यः एव ध्वजः पताकारूप: अङ्कः चिह्नम् ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभुतः ( ब० वी० ) च अस्तु भवतु। महादेवनयनाचिरा भल्लीभवनात् पूर्वम् कामस्य एकमेव धनुः, पञ्चव शराः, एक एव च मीनध्वजाङ्कः आसीत, सम्प्रति तु नो मनसि पुनर्जन्मान्तरमवाप्तस्य तस्य त्वद् भ्र रूपे द्वे धनुषी. स्मितरूपा बहवः शराः, नयन-द्वयरूपी द्वौ मीनाङ्की Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 वैषधीयचरिते भविष्यतः इति भावः / नारायणशब्देषु 'अन्योऽपि विनष्टो देवताप्रसादात् पुनरुत्पद्यतेऽधिकशक्तिकश्च भवति' // 105 // व्याकरण-प्रात्मभूः आत्मना = स्वयमेव भवति अथवा आत्मनि मनसि भवतीति आत्मन् + / + क्विप् ( कर्तरि ) रोपा रोप्यन्ते ( धनुषि ) इति /रुह् + णिच् + अच् ( कर्मणि ) ह को प / प्लुष्ट. /प्लुष् ( दाहे ) क्तः (कर्मणि ) / मानसः मनसः अयमिति मनस् + अण् / नन्दनः नन्दयतीति नन्द् + ल्यु / करि ) / मनसिजताम् मनसि जायते इति मनस् + /जन् + ड विकल्प से सप्तमी का अलुक् ( अलुक् समास ) तस्य भाव इति मनसिज + तल् + टाप् / पत्ताम् /धा + लोट् ( आत्मने ) / धन्वी धन्वास्यास्तीति धन्वन् + इन् (व्रीह्यादिभ्यश्च' 5 / 2 / 116 ) (धनुश्चासौ धन्व-शरासन०' इत्यमरः ) / जैत्रः जेता एवेति जेतृ + अण् / स्तात् / अस + लोट् ( अस्तु का वैकल्पिक रूप ) / चञ्चत्तर /चञ्च् + शतृ + तरप् ( अतिशये ) / अनुवाद-( जो ) काम धनुष-बाण तथा ध्वज-सहित ( महादेव द्वारा) भस्म कर दिया गया था, तत्पश्चात् ( अब ) वह सचमुच तुम्हारी कृपा से हमारा मानस आनन्द-दाता मानस पुत्र बना हुआ 'मनसिजता' को धारण कर ले / हे कृशाङ्गी ! तुम्हारी दो भौंहों से दो धनुषों वाला बन जाय, तुम्हारी श्वेत मुस्कानों से तीक्ष्ण ( अनगिनत ) बाणों वाला हो जाय तथा तुम्हारे दो नयनों से दो मत्स्य-रूप ध्वजचिह्न वाला हो जावे" / / 105 // टिप्पणी--शारीरिक सम्बन्ध के बिना ही केवल मन से उत्पन्न होने वाले को मानस पुत्र कहते हैं। मरीचि आदि ब्रह्मा के मानस पुत्र ही थे। कहना न होगा कि कामदेव का शरीर महादेव ने कभी का फूक दिया था, लेकिन वह अब यहाँ देवताओं के मानस पुत्र रूप में फिर उत्पन्न होने जा रहा है / यह नया उत्पन्न हुआ काम पहले से अधिक शक्तिशाली होगा। दमयन्ती की दो भौंहों के रूप में उसके एक न होकर दो धनुष होंगे, उसकी मधुर मुस्कानें उसके अगणित वाण होंगे, पांच नहीं और उसकी दो आँखों के रूप में अब एक मकरध्वज के स्थान में दो मकरध्वज चिन्ह होंगे। देवताओं के कहने का भाव यह है कि 'दमयन्ती ! तुम्हारे संगम से हमारे मनों में फिर महान् आनन्द-दायक काम भड़क उठे, और उसका ‘मनसिजत्व' अर्थवान् हो जावे, अतः हमारा वरण Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 363 करो' / विद्याधर के शब्दों में 'अत्र छेकानुप्राससहोक्त्यतिशयोक्त्यलंकाराः' / सह शब्द आने मात्र से सहोक्ति नहीं बनती। उसके मूल में कार्यकारणपौर्वापर्याः विपर्ययातिशयोक्ति होनी चाहिए / वह यहां नहीं दीख रही है। भ्र पर धनुष्ट्वारोप, स्मित पर वाणत्वारोप और नेत्रों पर शफरत्वारोप में व्यधिकरण रूपक है / नन्दन शब्द में श्लेष है। 'सह' 'सहि' 'मनसि' 'मानसो' में छेक ठीक है। 'धीन-मीन' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सर्गान्त में छन्दपरिवर्तन नियम के अनुसार कवि ने यहाँ 'स्रग्धरा' का प्रयोग किया है, जिसका लक्षण है—'म्नम्नैर्यानां त्रयेण विमुनियतियूता स्रग्धरा कीर्तितयम्' अर्थात् इसमें इक्कोस अक्षर इस तरह होते हैं-म, र, भ, न, य, य, य, और 7-7 में यति रहती है। स्वप्नेन प्रापितायाः प्रतिरजनि तव श्रीषु मग्नः कटाक्षः श्रोत्रे गीतामृताब्धी त्वगपि ननु तनूमञ्जरीसौकुमार्य / नासा श्वासाधिवासेऽधरमधुनि रसज्ञा चरित्रषु चित्तं तन्नस्तन्वङ्गि ! कैश्चिन्न करणहरिणैर्वागुरालवितासि // 106 // अन्वयः- "हे तन्वङ्गि ! प्रतिरजनि नः कटाक्षः स्वप्नेन प्रापिताया तव श्रीषु मग्नः; श्रोत्रे गीतामृताब्धी ( मग्ने ); स्वक् अपि ननु तनू...ये ( मग्ना ); नासा श्वासाधिवासे ( मग्ना ); रसज्ञा अधर-मधुनि ( मग्ना ); चित्तम् चरित्रेषु ( मग्नम् ); तत् नः कैश्चित् ( अपि ) करण-हरिणः वागुरा ( त्वम् ) न लविता असि // 106 // टीका-हे तनु कृशम् अङ्गं शरीरं ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धौ ( ब० वी० ) हे कृशाङ्गि! रजन्यां रजन्यामिति प्रतिरजनि ( वीप्सायामव्ययी० ) न. अस्माकं कटाक्षः दृष्टिः स्वप्नेन स्वप्नावस्थया प्रापितायाः अनुभवविषयीकारितायाः इत्यर्थः तव ते धीषु लावण्येषु मग्नः बडितः भवतीति शेषः स्वप्ने दृष्टायास्तव लोकोत्तरसौन्दर्येऽस्माकं दृष्टि: निमज्जतीत्यर्थः, नः श्रोत्रे को तव गीतम् गानम् कण्ठस्वर इत्यर्थः एव अमृतम् ( कर्मधा० ) तस्य अब्धौ समुद्रे (10 तत्पु० ) मग्ने भवतः; नः त्वक स्पर्शेन्द्रियम् अपि तनु सत्यम् तव तनूः शरीरम् मज्जरी वल्लरी इव ( उपमित तत्पु० ) तस्याः सौकुमार्ये मृदुत्वे (10 तत्पु० ) मग्ना भवति; नः नासा नासिका तव श्वासस्य निःश्वासवायो: Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 नैषधीयचरिते अधिवासे सौरभे ( 10 तत्पु० ) मग्ना भवति; नः रसना जिह्वा तव अधरस्य निम्नोष्ठस्य मधुनि माधुर्ये (10 तत्पु०) मग्ना भवति; नः चित्तम् मनः तव चरित्रेषु चेष्टासु मग्नं भवति; तत् तस्मात् नः कैश्चित् ( अपि ) करणानि इन्द्रियाणि एव हरिणाः मृगाः तैः वागुरा मृगबन्धिनी, जालम् ('वागुरा मृग बन्धिनी' इत्यमरः) वागुराख्पा त्वम् न लब्धिता न अतिक्रान्ता असि / अस्माकं न कोऽपि इन्द्रियरूपो हरिणः वागुरात्मिकायाः त्वत्तः मुक्तिं लब्धं प्रभवतीति भावः // 106 // व्याकरण-स्वप्नः स्वप् + नक् / प्रापितायाः प्र + /आप् + णिच् + क्तः ( कर्मणि)। गीतम् /गै + क्त ( भावे ) / अब्धि आपोऽत्र धीयन्ते इति अप् + /धा + कि (अधिकरणे)। सौकुमार्यम् सुकुमारस्य सुकुमारायाः वा भाव इति सुकुमार + ष्यन् / श्वासः श्वस् + घञ् ( भावे)। अधिवासः अधि + Vवस् + णिच + घन (भावे ) / रसज्ञा रसं जानातीति रस + -ज्ञा + क + टाप् / अधरः इसके लिए पीछे श्लोक 102 देखिए। चरित्रम् चर् + इत्र ( भावे ) / करणम् क्रियते ( ज्ञानम् ) अनेनेति/कृ + ल्युट ( करणे)। ___अनुवाद-"ओ कृशाङ्गी! ( दमयन्ती ! ) हमारी चितवन प्रत्येक रात्रि को स्वप्न द्वारा ( सामने ) लाई हुई तुम्हारी सौन्दर्य राशि में, हमारे कान तुम्हारे गीत-रूपी अमृत-सागर में, हमारी त्वगिन्द्रिय भी तुम्हारी मञ्जरी-सी गात की कोमलता में, हमारी नाक तुम्हारे निश्वासों की सुगन्धि में, हमारी जिह्वा तुम्हारे अधर की माधुरी में तथा हमारा चित्त तुम्हारी चेष्टाओं में डूबा रहता है, इसलिए हमारा कोई भी इन्द्रिय-रूपी हिरन जाल रूप तुमसे नहीं छूट पाया // 106 / / टिप्पणो-भाव यह है कि जाल में फंसे मृग जैसे फंसे के फंसे रह जाते हैं, छूट नहीं सकते, वही हाल हमारा भी है। तुम्हारे तत्तत् अङ्गों में गड़ी हमारी इन्द्रियाँ गड़ी की गड़ी रह जाती हैं / स्वप्न में भी तुम्हें छोड़कर हम और किसी को नहीं देखते, अतः तुमपर इतने अधिक अनुरक्त हुए हम लोगों का तुम्हें वरण कर लेना चाहिए। यहाँ कवि का स्वप्न में देवताओं को दमयन्ती दिखाना एक असंगत-सी बात है, क्योंकि देवताओं को स्वप्न नहीं हुआ करते हैं। यह तो ऐसा लगता है कि मानव नल ही स्वप्न में स्वानुभूत बातों को देवताओं पर Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः थोप रहा है। यहाँ गीत पर अमृतान्धित्वारोप, इन्द्रियों पर हरिणत्वारोप और दमयन्ती पर वागुरात्वारोप में रूपक है। 'मग्नः' क्रिया का अनेक कारकों के साथ सम्बन्ध होने से क्रिया दीपक भी है। शब्दालंकारों में 'नासा श्वासा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'रण रिण' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / छन्द पूर्ववत् स्रग्धरा ही चला आ रहा है / इति धृतसुरसार्थवाचिकस्रनिजरसनातलपत्रहारकस्य / सफलय मम दूततां वृणीष्व स्वयमवधार्य दिगीशमेकमेषु // 107 / / अन्वयः-"( हे दमयन्ति ! ) इति धृत...कस्य मम दूतताम् ( त्वम् ) सफलय एषु एकम् दिगीशम् स्वयम् अवधायं वृणीष्व"। टीका--(हे दमयन्ती ! ) इति पूर्वोक्तप्रकारेण धृत...सक ( कर्मधा० ) सुराणां देवानाम् सार्थस्य वृन्दस्य ( उभयत्र 10 तत्पु० ) वाचिकस्य सन्देशस्य स्रक माला शृंखला, परम्परेत्यर्थः (10 तत्पु० ) येन तथाभूतस्य ( ब० वी०) तथा निजा स्वीया या रसना जिह्वा ( कर्मधा० ) तस्याः तलम् पृष्ठम् (50 तत्पु० ) एव पत्रम् लेखः ( कर्मधा० ) तस्य हारकस्य आनायकस्य (ष० तत्पु०) मम मे नलस्य दूतताम् दौत्यम् सफलम् सफलीकुरु / एषु इन्द्रादिषु एकम् अन्यतमम् दिशः ईशम् ( ष० तत्पु० ) लोकपालम् स्वयम् आत्मना अवधार्य विनिश्चित्य वृणीष्व वरत्वेनाङ्गीकुरुष्व / इन्द्रादिषु कमप्येकं स्वबुद्धया सम्यक् विचार्य वररूपेण स्वीकुरु, येन मौखिकसन्देशवाहकस्य मम दौत्यं सफलीभबेदिति भावः // 107 / / व्याकरण-सुराः इसके लिए पीछे सर्ग 1 श्लोक 34 देखिए / वाचिकम् वाचा कृतमिति वाच + ठक् / हारकः हरतीति /ह + ण्वुल ( कर्तरि ) / सफलय सफलं करोतीति सफल + णिच् + लोट् ( नामधा० ) अनुवाद-"( दमयन्ती !) पूर्वोक्त प्रकार से देवराज के संदेशों की शृंखला रखे, अपने जिह्वा-तल को पत्र-रूप में लाने वाले मेरे दौत्य को सफल बनाओ। इन ( इन्द्रादि ) में से ( किसी ) एक दिक्पाल का स्वयं निश्चय करके वरण कर लो" // 107 // टिप्पणी नल देवताओं के संदेशों के सिलसिले का उपसंहार करता हुआ दमयन्ता से अनुरोध करता है कि वह बिना निज सखियों से परामर्श किये, स्वयं Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेपधीयचरिते अपनी बुद्वि से अच्छी तरह सोच-विचार कर चार देवताओं में से एक को घर ले। वह उनका ऐसा संदेशवाहक है, जिसके पास लिखित पत्र कोई नहीं है, केवल उसकी जिह्वा-वाणी ही पत्र है अथवा वह स्वयं ही लंबा-चौड़ा जंगम पत्र है। यहाँ जिह्वा-तल पर पत्रत्वारोप होने से रूपक है। 'रसा' 'रस' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इस श्लोक में कवि ने पुष्पिताग्रा वृत्त प्रयुक्त किया है, जिसका लक्षण इस प्रकार है-'अयुजि नयुगरेफतो यकारो युजि तु नजी जरगाश्च पुष्पिताग्रा' अर्थात् यह अर्धसम वृत्त है, जिसमें प्रथम तृतीय पादों में न, न, र, य और द्वितीय-चतुर्थ पादों में न, ज, ज, र, ग होते हैं। आनन्दयेन्द्रमथ मन्मथमग्नमग्नि केलीभिरुद्धर तनूदरि ! नूतनाभिः / आसादयोदितदयं शमने मनो वा नो वा यदीत्थमथ तद्वरुणं वृणीथाः / 108 / ___ अन्वयः-हे तनूदरि ! इन्द्रम् आनन्दय; अथ नूतनाभिः केलीभिः मन्मथमग्नम् अग्निम् उद्धर, वा उदितदयम् मनः शमने आसादय, वा यदि इत्थम् नो, तत् अथ वरुणम् वृणीथाः / टीका-तनु कृशम् उवरं मध्यम् ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी (ब० वी० ) इन्द्रम् शक्रम् आनन्दय वरणं कृत्वा अनन्दितं कुरु; अथ अथवा नूतनाभिः नवीनाभिः केलीभिः विलासक्रीडाभिः मन्मथे कामे कामपीडायामित्यर्थः मग्नम् / डितम् अग्निम् उद्धर कालवेदनातः तस्योद्धारं कुरु; वा अथवा उदिता प्रादुर्भूता दया करुणा यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) करुणाद्र मनः चित्तम् शमने यमे आसादय प्रापय निवेशयेत्यर्थः, वा अथवा इत्थम् एवं नो न अर्थात् इन्द्रादीन् न वृणुषे चेत् तत् तहि अथ वरुणं वृणीथाः वृणीष्व // 108 // ___ व्याकरण-आनन्दय आ + नन्द + णिच + लोट / नूतनाभिः नवा इति नव + तनप् नव को नूआदेश / मन्मथः मध्नातीति /मथ् + अच् ( कर्तरि ) मनसः मथ इति (पृषोदरादित्वात् साधुः, ) इत्थम् इदम् + थम् (प्रकार वचने)। अनुवाद-हे कृशाङ्गी ( वरण करके ) इन्द्र को आनन्द पहुंचाओ, अथवा काम केलियों द्वारा काम ( वेदना ) में डूबे पड़े अग्नि का उद्धार करो अथबा दया द्रवित मन यम पर लगाओ अथबा यदि ऐसा नहीं तो वरुण का वरण कर लो। टिप्पणी-चारों में से किसी एक के वरण करने पर ही मेरा, दौत्य-कर्म Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 367 सफल हो सकेगा अन्यथा नहीं। ध्यान रहे कि कवि प्रत्येक सगं के अन्त की तरह यहाँ भी अपनी 'आनन्द' शब्द की छाप लगा कर समाप्त कर रहा है। 'मग्नमग्निम्, 'दयो' दयं, 'मने' 'मनो' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। छन्द कवि ने यहां वसन्ततिलका रखा है, जिसका लक्षण यह है-'उक्ता वसन्ततिलका तभजा ज-गौ गः / अर्थात् इसमें चौदह अक्षर इस तरह रखते हैं तगण, भनण, जगण, जगण, गुरु गुरु / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्यागादयमष्टमः कविकुलादृष्टाध्वपान्थे महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते स! निसर्गोज्वलः // 109 / / अन्वयः- कविराज "यम् ( पूर्ववत् ) तस्य कविकुलादृष्टाध्वपान्थे चारुणि नैषधीयचरिते महाकाव्ये अयम् निसर्गाज्वलः अष्टमः सर्गः अगात् / . टीका-कविराज यम् (पूर्वबत् ), तस्य कवीनां कालिदासप्रभृतिमहाकवीनाम् कुलेन गणेन (10 तत्पु० ) अदृष्टः अनवलोकित अनाश्रितः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) यः अध्वा काव्यमार्गः ( कर्मधा० ) नवीनकलावादिसरणिरित्यर्थः तस्य पान्थे पथिके नवीनालङ्कृतशैलीमाश्रित्य लिखिते इत्यर्थः नैषधीयचरिते महाकाव्ये निसर्गोज्ज्वलः अयम् अष्टमः सर्ग अगात् समाप्तः / इति श्रीमोहनदेव-पन्त-शास्त्रिप्रणीतायां 'छात्र-तोषिणी' टीकायाम् अष्टमः सर्गः। __ अनुवाद-जिसको जन्मादि ( पूर्ववत् ) उसके (पूर्व) कविकुल द्वारा अनदेखे मार्ग के पथिक सुन्दर 'नैषधीयचरित' महाकाव्य का निसर्गतः उज्ज्वल आठवाँ सर्ग समाप्त हुआ। नैषधीय चरित के आठवें सर्ग का अनुवाद और टिप्पणी समाप्त / Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरित नवमः सर्गः इतीयमक्षि<वविभ्रमेङ्गितस्फुटामनिच्छां विवरीतुमुत्सुका। तदुक्तिमात्रश्रवणेच्छयाऽशृणोद्दिगीशसंदेशगिरं न गौरवात् // 1 // अन्वयः-अक्षि स्फुटाम् अनिच्छाम् विवरीतुम् उत्सुका इयम् दिगीशसंदेशगिरम् तदुक्ति""च्छया अशृणोत् , न गौरवात् / टीका--अक्षिणी नयने च ध्रुवौ च तेषां समाहारः ( समाहार द्व० ) अक्षिभ्रुवम् तस्य विभ्रम: विलासः सञ्चालनमित्यर्थः (10 तत्पु० ) एव इङ्गितम् चेष्टा ( कर्मधा० ) तेन स्फुटाम् अभिव्यक्ताम् ( तृ० तत्पु० ) अनिच्छाम् देवानां वरणस्यानभिलाषम् वितरीतुम विशेषेण प्रकटीकर्तुम् वाचा तेषां वरणस्य निषेध कर्तुमिति यावत् उत्सुका उत्कण्ठिता इयम् दमयन्ती दिशाम ईशानाम् (ष. तत्पू० ) इन्द्रादीनाम् सन्देशस्य वाचिकस्य गिरम् वचनम् (10 तत्पु० ) तस्य दूतरूपनलस्य उक्तिः कथनम् (10 तत्पु० ) एव उक्तिमात्रम् तस्य श्रवणस्य श्रुतिगोचरीकरणस्य इच्छया अभिकाङ्क्षया अशृणोत् श्रुतवती न गौरवान् न तु देवान् प्रति आदरभावान् / स्वनेत्र-भ्र चेष्टितैः एव देववरणं स्पष्टता निषेधन्त्यपि दययन्ती यत् देवसन्देशवचनानि श्रुतवती तत्र कारणं तस्याः देवान् प्रति आदरभावो न, किन्तु नलमधुरवचनमात्रश्रवणेच्छवेति भावः // 1 // ___ व्याकरण-अक्षिभ्रवम् यहाँ अजन्तत्व 'अचतुर-विचतुर ( 5 / 4 / 77 ) से निपातित है। विभ्रमः वि + /भ्रम् घन ( भावे ) / इङ्गितम् /इङ्ग + क्त ( भावे ) / उक्ति वच् + क्तिन् ( भावे) / सन्देशः सम् + /दिश् + घम् ( भावे ) / गिरम् / ग + क्विप् (मावे) / गौरवात् गुरोः भाव इति गुरु + अण् / अनुवाद-आँख और भ्र संचालन के संकेत से ही स्पष्ट हुई ( देव-वरणविषयक ) अनिच्छा का खुलकर विवरण देने हेतु उत्सुक हुई इस ( दमयन्ती) ने दिक्पालो के संदेश की बातें ( उनके प्रति ) आदर-भाव के कारण नहीं, (प्रत्युत) उस ( नल ) की वाणीमात्र सुनने की इच्छा से सुनीं // 1 // Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सगः 119 टिप्पणी-नल के माध्यम से देवताओं के प्रणय-निवेदन पर दमयन्ती ने नाक-भौहें सिकोड़ कर यद्यपि निज विमति व्यक्त कर ही दी थी तथापि वह नल की बातें सुनती जाती थी, क्योंकि उनमें उसे बड़ा रस आ रहा था। प्रियतम की मधुर वाणी भला किस नायिका के हृदय को विभोर न करे / लेकिन दमयन्ती को देवताओं के संदेश के लिए जरा भी गौरव-भाव नहीं था। विद्याधर के शब्दों में अत्रातिशयोक्ति-भावोदय-काव्य लिङ्गालंकारः' / काव्यलिङ्ग स्पष्ट है ही क्योंकि सुनने का कारण बताया हुआ है। भावोदय भी ठीक है, क्योंकि यहाँ अभिलाष नाम का भाव उदय हो रहा है। अतिशयोक्ति समझ में नहीं आ रही है / 'गिरं' 'गौर' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।" इस स्वार्थ में कवि वंशस्थ अथवा वंशस्थविल छन्द प्रयोग में ला रहा है, जिसका लक्षण यह है--‘वदन्ति वंशस्थविलं जती जरौ' अर्थात् इसके प्रत्येक पाद में ज, त, ज. र रहते हैं // 1 // तपितामश्रुतवद्विधाय ता दिगीशसंदेशमयीं सरस्वतीम् / इदं तमुवीतलशोतलद्युति जगाद वैदर्भनरेन्द्रनन्दिना // 2 // अन्वयः-वैदर्भनरेन्द्रनन्दिनी तदर्पिताम् ताम् दिगीशसंदेशमयीम् सरस्वतीम् अश्रुतवत् विधाय तम् उर्वीतल-शीतलद्युतिम् इदम् जगाद / टीका-विदर्भाणाम् अयमिति वैदर्भः विदर्भदेशसम्बन्धी यः नरेन्द्रः नृपः ( कर्मधा० ) तस्य नन्दिनो पुत्री दमयन्ती तेन दूतरूपनलेन अपिताम् प्रयुक्ताम् ताम् दिशाम् ईशाः स्वामिनः इन्द्रादयः तेषां संदेश: वाचिकम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) एवेति सन्देशमयोम् सरस्वतीम् वाणीम् अश्रुतवत् अश्रुतामिव विषाय कृत्वा तम् उाः पृथिव्याः तले पृष्ठे ( 10 तत्पु० ) शीतलद्युतिम् ( स० तत्पु०) शीतला हिमा द्युतिः दीप्तिः रश्मिरित्यर्थः यस्य तथाभूतम् (ब० बी० ) चन्द्रम् नलमित्यर्थः इवम् प्रोच्यमानम् जगाद अवदत् // 2 // व्याकरण-वैदर्भ विदर्भ + अण / नन्दिनी नन्दयतीति - नन्द + णिन् + डीप / संदेशमयीम् संदेश एवेति संदेश + मयट ( स्वरूपार्थे ) + ङीप् / अश्रुतवत् अश्रुता + वत् ( तुल्यार्थे ) पुंवद्भाव / उर्वी ऊर्णोति ( आच्छादयति ) इति Vऊणं + कु णलोप, ह्रस्व + ङीप् / शीतल शीतमस्यास्तीति शीत + लच ( मतुबथं)। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-विदर्भ नरेश की पुत्री ( दमयन्ती) उस ( नल ) के द्वारा दिये गए दिक्पालों के उस संदेश-कथन को अनसुनी सी करके उस भूतल के चन्द्रमा (नल ) को बोली // 2 // टिप्पणी-दमयन्ती ने देवताओं की संदेशमय सरस्वती को जब अनसुनी ही कर दिया, तो उसने उत्तर किस बात का देना था। वह नल से अपने ही, मन की बात पूछने लगी। ।अश्रुतवत् में उपमा और नल पर उर्वीतल-शीतल धतित्वारोप में रूपक है। 'नल' 'नल' यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 2 // मयाङ्ग ! पृष्टः कुलनामनी भवानमू विमुच्यैव किमन्यदुक्तवान् / न मह्यमत्रोत्तरधारयस्य किं ह्रियेऽपि सेयं भवतोऽधमणता // 3 // अन्वयः-अङ्ग ! मया भवान् कुलनामनी पृष्टः ( सन् ) अमू विभुच्य अन्यत् एव किम् उक्तवान् / अत्र मह्यम् उत्तरधारयस्य भवतः सा इयम् अघमर्णता हिये न किम् ? टोका-अङ्ग / इति सम्बुद्धी अव्ययम् मया दमयन्त्या भवान् त्वम् कुलं वंशश्च नाम अभिधेयं चेति कुलनामनी (द्वन्द्व) पृष्टः अनुयुक्तः सन् अमू कुलनामनी विमुच्य त्यक्त्वा उपेक्ष्येत्यर्थः अन्यत् अप्रसक्तम् देवसंदेशम् एव किम् कस्मात् उक्तवान् कथितवानसि यथा कश्चित् 'आम्रान् पृष्टः कोविदारान् आचष्टे' / अत्र कुलनामप्रश्नविषये मह्यम् उत्तरस्य प्रतिवचनस्य धारयस्य धारकस्य (ष० तत्पु०) भवतः तव सा इयम् एषा अधमर्णता ऋणिता ह्रिये लज्जायै न कि ? अपि तु ह्रिये एवेतिकाकुः / मया तव कुलं नाम च पृष्टं ,तस्योत्तरं त्वं मह्यं धारसि उत्तरादाने मे ऋणिना त्वया लज्जितव्यमिति भावः // 3 // व्याकरण-भवान् कुलनामनी पृष्टः पृच्छ द्विकर्मक होने से गौणकर्म 'भवान्' को कर्मवाच्य में प्रथमा हो रखी है। 'मह्यम् धारेरुत्तमर्णः' (1 / 4 / 35) से चतुर्थी। धारयस्य धारयतीति Vधृ + णिच् + शः ('अनुपसर्गाल्लिम्प०' 3 / 9 / 138) / अघमर्णता अधमर्णस्य भाव इति अधमर्ण + तल + टाप् / अधमणः अधमः ऋणेन इति मयूरव्यंसकादित्वात् निपातित / ह्रिये -ह्री + क्विप् ( भावे ) च०। अनुवाद-"श्रीमान् जी! मैने आप से कुल और नाम पूछा है, इन्हें छोड़ कर ( आप ) और ही ( अंट-शंट ) क्या कह बैठे है ? इस विषय में मेरे प्रति उत्तर के देनदार होते हुए आपकी देनदारी लज्जा के लिए नहीं है क्या?" // 3 // Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः टिप्पणी--दमयन्ती ने नल को प्रश्न दिये हैं अतः वह उत्तमर्ण है और नलाअधमर्ण / अधमर्ण का कर्तव्य है कि वह ऋण चुका दे। प्रकृत में ऋण प्रश्न का उत्तर है जो नल पर चढ़ा हुआ है। मांगने पर ऋण न चुकाना किसी भी कर्जदार के लिए लज्जा की बात होती है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र काव्यलिङ्गमलङ्कारः' / 'भवा' 'भव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 3 // अदृश्यमाना क्वचिदीक्षिता क्वचिन्ममानुयोगे भवतः सरस्वती / क्वचित्प्रकाशां क्वचिदस्फुटार्णसं सरस्वती जेतुमनाः सरस्वतीम् // 4 // अन्वयः-मम अनुयोगे क्वचित् अदृश्यमाना, क्वचित् ईक्षिता भवतः वाणी क्वचित् प्रकाशाम्, क्वचित् अस्फुटार्णसम् सरस्वतीम् ( नाम ) सरस्वतीम् जेतुमनाः ( अस्ति ) / टोका--मम अनुयोगे प्रश्ने ( 'प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च' इत्यमरः ) क्वचित् कुलस्य नाम्नश्च विषये अदृश्यमाना अदृश्यमानोत्तरा गुप्तेति यावत्, क्वचित कस्मिंश्चिद् विषये अर्थात् 'कुतः आगतः' इति प्रश्ने ईक्षिता ईक्षितोत्तरा 'देवतानां' सकाशात् आगतोऽस्मीति दत्तोत्तरेति यावत् भवतः तव वाणी वाक् क्वचित कश्मिश्चित् स्थाने प्रकाशाम् प्रकटितजलाम् क्वचिच्च अस्फुटम् अप्रकाशम् अप्रकटितमित्यर्थः अर्णः जलम् ( 'अम्भोऽणस्तोयपानीय.' इत्यमरः ) ( कर्मधा०) यस्यां० तथाभूताम् (ब० वी०) सरस्वतीम् सरस्वतीनाम्नीम् सरस्वतीम् नदीम् ('सरस्वती नदीभेदे गो-वाग्देवतयो-गिरि / स्त्रीरत्ने चापगायाञ्च' इति विश्वः ) जेतुम् पराभवितुं मनो यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) अस्तीति शेषः / भवता "किं ते कुलं नाम च ?' इति ये प्रश्नस्योत्तरं तु न दत्तम्, किन्तुं 'कुतः आगतोऽसि' इत्यस्यैव प्रश्नस्योत्तरं दत्तमिति भावः // 4 / / व्याकरण-अनुयोगः अनु + /युज + घन ( भावे ) / क्वचित् क्व + चित्, कस्मिन् स्थाने इति किम् + अत् ( सप्तम्यर्थ ) कु आदेश / अदृश्यमाना न + दृश् + शानच् ( कर्मवाच्य ) / ईक्षिता Vईक्ष् + क्त ( कर्मवा० ) / प्रकाशाम् प्रकाशते इति प्र + / काश् + अच् ( कर्तरि ) सरस्वतीम् सरस् = जलम् अस्यामस्तीति सरस् + मतप् + ङीप् / जेतुमना: 'तुम्-काम-मनसोरपि' से तुम् के मकार का लोप / अनुवाद- "मेरे प्रश्नों के सम्बन्ध में कहीं तो ( उत्तर में ) अदृश्य और Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 नैषधीयचरिते कहीं दृश्य बनी हुई आपकी वाणी उस सरस्वती-नामक नदी को जीतना चाह रही है जिसमें जल कहीं तो प्रकट हुआ रहता है और कहीं अप्रकट" // 4 // टिप्पणी-विद्याधर और मल्लिनाथ यहाँ उत्प्रेक्षा मान रहे हैं। उसका वाचक शब्द तो यहाँ कोई नहीं है, प्रतीयमाना ही माननी पड़ेगी, किन्तु हमारे विचार से जीतना, टकर लेना आदि लाक्षणिक प्रयोग दण्डी ने सादृश्य-परक मान रखे. हैं। तदनुसार हम यहाँ उपमा क्यों न माने। धर्म यद्यपि वाणी में और है. तथा सरस्वती नदी में और है, किन्तु उनमें बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव तो हो ही रहा है / दर्पणकार ने शाब्द, आर्थ दो प्रकार के समान धर्मों के अतिरिक्त तीसरे। बिम्बप्रतिबिम्बभावपरक समान धर्म को भी उपमा-प्रयोजक मान रखा है। 'सरस्वतीम्' 'सरस्वतीम्' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 4 // गिरः श्रुता एव तव श्रवःसुधाः श्लथा भवन्नाम्नि तु न श्रुतिस्पृहा / पिपासुता शान्तिमुपैति बारिजा न जातु दुग्धान्मधुनोऽधिकादपि // 5 // __अन्वयः-श्रवःसुधाः तव गिरः श्रुता एव, तु भवन्नाम्नि श्रुति-स्पृहा न श्लथा ( अभवत् ) / वारिजा पिपासुता दुग्धात्, मधुनः ( ताभ्याम् ) अधिकात् अपि न जातु शाम्यति / टोका-श्रवसोः श्रोत्रयोः सुधाः अमृतरूपाः ( स० तत्पु० ) तव गिरः वाण्य: वचनानीत्यर्थः श्रुताः आकणिताः एव तु किन्तु भवतः तव नाम्नि नामविषये (10 तत्पु० ) श्रुतेः श्रवणस्य स्पृहा इच्छा (10 तत्पु०) न इलया शिथिला, मन्दा शान्तेतियावत् अभवत्, त्वन्नामश्रवणेच्छा यथावत् तिष्ठत्येवेति भावः / वारिण: जायते इति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) जलविषयिणीत्यर्थ। पिपासुता पातुमिच्छुता दुग्धात् क्षीरात्, मधुन: माक्षिकात् ततोऽप्यधिकात् अमृतात् अपि न जातु न कदापि शाम्यति शान्ता भवति / जलपानेच्छा जलेनैव प्रपूर्यते न तु दुग्धादिनेतिभावः, तस्मात् त्वया स्वं नाम प्रतिपादनीयम् / / 5 // ___ व्याकरण-श्रवस् श्रूयतेऽनेनेति श्रु + असि ( करणे ) / श्रुतिः श्रु+ क्तिन् ( भावे ) / श्लथा श्लथयतीति श्लथ् + अच् + ( कतरि) + टाप् / वारिजा वारिणि जायते इति वारि+जन् + ड ( कर्तरि )+ टाप् / पिपासुता पातुमिच्छुः पिपासुः तस्य भाव इति Vपा+ सन् + उ (कतरि) + तल+ टाप् / दुग्धम् Vदुह् + क्त (भावे ) / Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 373 अनुवाद--“कानों को अमृत-रूप तुम्हारे वचन सुन ही लिये हैं, किन्तु आपके नाम सुनने की चाह पूरी नहीं हुई है। जल-पान की इच्छा दूध, शहद, ( अथवा ) उनसे भी अधिक ( अमृत ) से भी शान्त नहीं होती" // 5 // टिप्पणी-भवन्नाम्नि--यहाँ जिनराज का कहना है कि--'भवतो नाम्नि भवन्नाम्नीति केषाञ्चिद् व्याख्या न 'तव' इति प्रकृतत्वात् क्रियाध्याहारप्रसङ्गादपि नातिरमणीयम्' अर्थात् पूर्व पाद में 'तव' ( तुम्हारे ) शब्द से प्रारम्भ करके उसे ही फिर 'भवत्' ( आप ) शब्द से कहना अनुचित लगता है, साथ ही क्रिया का भी अध्याहार करना पड़ रहा है अतः श्लथाऽभवन्नाम्नि यो पदच्छेद करना चाहिए, 'तव' पूर्व से अनुवृत्त है ही। लेकिन हम पीछे कितने ही स्थलों में देख आये हैं कि कवि 'भवत्' के साथ 'युष्मत्' और 'युष्मत्' के साथ 'भवत्' प्रयोग करता ही आ रहा है। यहीं ऐसा हुआ हो, सो बात नहीं। विद्याधर यहाँ 'अत्र रूपकार्थान्तरन्यासोऽलंकारः कह रहे हैं / 'गिरः' पर सुधात्वारोप होने से रूपक तो ठीक है किन्तु, जैसे मल्लिनाथ ने भी माना है, अर्थान्तरन्यास न होकर यहाँ दृष्टान्त अलंकार है, क्योंकि पूर्वार्ध और उत्तरार्ध गन दोनों बातें विशेष हैं, जब कि अर्थान्तरन्यास सामान्यविशेषभाव की अपेक्षा रखता है। 'श्रुता' 'श्रुति' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 5 / / बिति वंश: कतमस्तमोपहं भवादृशं नायकरत्नम दृशम् / तमन्य मामान्यधियावमानितं त्वया महान्तं बह मन्तूमुत्सहे // 6 // अन्वयः-तमोपहम् भवादृशम् ईदृशम् नायकरत्नम् कतम: वंशः बिभर्ति ? अन्य सामान्य-धिया अवमानितं त्वया महान्तम् तम् (अहम्) बहुमन्तुम् उत्सहे / टीका-तमः शोकक्रोधादितमोगुण-विकारम् अपहन्ति निवारयतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) भवन्तम् इव भवत्तुल्यमित्यर्थः इति भवादृशम् ईदृशम् एतादृशम नायकेषु राजसु रत्नं रत्नतुल्यं स्वजाति-श्रेष्ठमित्यर्थः ('रत्नं स्वजातिश्रेष्ठे पि'इत्यमरः) ( स० तत्पु० ) कतम: बहुषु कः एकः वंश: कुलम् बिति धत्ते? कस्मिन् सूर्यादिराजवंशे त्वमुत्पन्न इति भावः / अन्यैः कुलैः सामान्यस्य सादृश्यस्य ( तृ० तत्पु० ) धिया बुद्धया (10 तत्पु० ) अन्यवंशवत् साधारणवंशं मत्वेत्यर्थ: अवमानितम् तिरस्कारमवापितम् लोके न गौरवमवाप्तमिति यावत् अद्य महान्तम् महत्त्वं प्राप्तम् तम् वंशम् अहम् बहु अत्यन्तं यथा स्यात्तथा मन्तुम् संमानयितुम् Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 नैषधीयचरिते उत्सहे उत्साहयुक्ताऽस्मि / पूर्व साधारणतयापि गण्यमाने कुले त्वयि समुत्पन्नेऽद्य तस्मिन् मम महान् आदरभावः समुत्पद्यते इति भावः / अत्र शब्दशक्त्या अपरोऽप्येषोऽर्थों बोध्यते तद्यथा-तमसः तिमिरस्य स्वतेजसा निवारकम् ईदृशम् अलौकिकम् नायकः हारमध्यमणिः तद्रपम् रत्नम् ( 'नायको नेतरि श्रेष्ठे हारमध्यमणावपि' इति विश्वः ) यो वंशः वेणुः ( 'वंशो वेणी कुले वर्गे' इति विश्वः) विभर्ति तम् प्राक् अन्यसाधारणवंशबुद्धया अवमानितमपि तदुत्पन्नं हारनायकभूतं रत्नं दृष्ट्वा लोका यथा गौरवास्पदीकुर्वन्ति तद्वदिति भावः // 6 // व्याकरण-तमोपहः तमस् + अप + Vइन् + ड ( कर्तरि ) ( 'अपे क्लेशतमसोः' 3 / 2 / 50 ) / भवादृशम् भवत्तल्यमिति भवत् + हश् + का व को आत्व / ईदृशम् भवादृश की तरह समझिए / कतमः किम् + /डतमच् / सामान्यम् समानस्य भाव इति समान + व्यञ् / अवमानितम् अव + मन् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / अनुवाद-"तम-तामस विकार शोक, क्रोध, अज्ञान आदि--को मिटा देने वाले आप-जैसे ऐसे नायक-रत्न ( स्वजाति-श्रेष्ठपुरुप ) को कौन सा वंश (कुल ) रख रहा है ? अन्य ( वंशों ) की तरह साधारण समझकर (पूर्व) अवमानित ( किन्तु ) तुम्हारे द्वारा ( आज) महत्त्व को प्राप्त हुए उसे बड़ा भारी संमान देने का मुझे उत्साह हो रहा है (जैसे ) कि (निज तेज से ) तमअन्धकार--को मिटा देने वाले ऐसे नायकरत्न (हार का मेरु-मणि) को रखने वाला जो वंश ( बाँस ) होता है, उसे ( पहले ) अन्य साधारण वाँसों की तरह अवनानित होने पर भी ( नायकरत्न पैदा करने से ) बड़ा भारी महत्त्व देने का (बाद को लोगों को) उत्साह हुआ करता है" // 6 // टिप्पणी-नल के अलौकिक गुणों को देख दमयन्ती के हृदय में उस कुल के प्रति महान् आदरभाव उमड़ पड़ा, जिसमें उसने जन्म लिया है / नल से पहले भले ही वह कुल नगण्य रहा हो और उसे उतना गौरव न दिया जाता रहा हो / किसी भी कुल को महत्त्व तभी मिलता है जब उसमें नल-जैसा कोई नर-रत्न जन्म ले। नलके कारण ही दमयन्ती उसके कुल का नाम जानने का अनुरोध : कर रही है / वैसे तो उसको पता चल जाता है कि दूत बना यह व्यक्ति साधारण नहीं है, किसी महान् उच्च कुल का है। यहाँ कवि ने ऐसी द्विमुखी भाषा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 375 प्रयुक्त कर रखी है, जिससे तम, वंश, नायकरत्न शब्द दूसरे अर्थ की ओर भी संकेत कर रहे हैं। दूसरा अर्थ प्रकृत से सम्बन्ध नहीं रखता है, अतः प्रकृत-नल-से सम्बन्ध जोड़ने हेतु हम यहाँ दोनों में उपमानोपमेयभाव की कल्पना करेंगे। इसलिए हमारे विचार से यह उपना-ध्वनि ही होगी। विद्याधर पता नहीं क्यों 'अत्र श्लेषालंकारः' कह गए है। 'तम' 'तमो', 'दृशं' 'दृशम्' तथा 'मन्य' 'मान्य' 'मान्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ध्यान रहे कि मोती उत्पन्न करने वालों में बाँस को भी गिना गया है-'करीन्द्र-जीमत-वराह-शंख-मत्स्याधिशुक्त्युद्भव-वेणुजानि / मुक्ताफलानि ग्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि' ( मल्लिनाथ ) // 6 // इतार विन्वा विस्तां स तां पुगिरानजग्राहत नराधिपः / विरुत्य विश्रान्त वतीं तपात्यये घनाघनश्चातकमण्डलीमिव / / 7 // अन्वयः-इति ईरयित्वा विरताम् ताम् स: नराधिपः तपात्यये विरुत्य विश्रान्तवतीम् चातक-मण्डलीम् घनाघन इव गिरा अनुजग्राहतराम् / टीका-इति उक्त प्रकारेण ईरयित्वा उक्त्वा विरताम् विश्रान्ताम् तूष्णीभूतामिति यावत् साम् दमयन्तीम् स नराणाम् अधिपः पालकः नरेन्द्रो नलः (10 तत्पु० ) तपाय ग्रीष्मर्तोः अत्यये अपगमे वर्षतौ इत्यर्थः विरुत्य विरावं कृत्वा विश्रान्त वतीम् विरताम् चातकानां चक्रवाकाणाम् मण्डलीम् आवलिम् घनाघनः वर्षकमेघः ( 'वर्षुकाब्दा घनाघनाः' इत्यमरः) इव गिरा वाण्या अथ च गर्जनया अनुजग्राहतराम् अतिशयेन अनुगृहीतवान् // 7 // व्याकरण-ईरयित्वा Vईर + णिच + क्त्वा / विरताम् वि + /रम् + क्त ( कर्तरि ) + टाप् / अत्यये अति + ई + अच् ( भावे ) / विरुत्य वि+/+ ल्यप् तु गागम / घनाघनः हन्ति ( गगने गच्छति ) इति /हन + अच् ( कर्तरि ) हन को घत्व, द्वित्व, पूर्व को आत्व / अनुजग्राहतराम् - अनु + ग्रह + तरप् + आम् / __ अनुवाद-यों कहकर चुपहुई उस ( दमयन्ती ) को उस नरेन्द्र ( नल) ने वाणी द्वारा इस तरह अत्यन्त अनुगृहीत किया जैसे क्रन्दन करके चुप हुई चातक-मण्डली को पानी बरसाने वाला बादल गर्जना द्वारा अनुगृहीत किया करता है // 7 // Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 नैषधीयचरिते * टिप्पणी-नल की मेघ से तुलना करने में उपमा है / 'रता' 'रुत्य' तथा 'घनाघन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 7 // अये ! ममोदासितमेव जिह्वया द्वयेऽपि तस्मिन्ननतिप्रयोजने / गरी गिरः पल्लवनार्थलाघवे मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता // 8 // अन्वयः-अये (दमयन्ति ! ) अनतिप्रयोजने तस्मिन् द्वये अपि मम जिह्वया उदासितम् एव / पल्लवनार्थलाघवे गिरः गरी (स्तः ), हि मितम् च सारम् च घच: वाग्मिता ( भवति ) / ___टीका-अये ( दमयन्ति ! ) न अतिशयितम् अत्यधिक प्रयोजनम् अर्थः (प्रादि तत्पु०) ययोः तथाभूते ( ब० वी० ) तस्मिन् द्वये कुलं च नाम चेति युगले जिह्वया मम वाण्या उदासितम् एव औदासीन्यमेव गृहीतम् अर्थात् कुलं नाम च न तथा प्रयोजनवत् महत्त्वपूर्णं च यदहं तयोः परिचयं दद्याम् / पल्लवनम् अल्पेऽपि वस्तुनि व्यर्थवाग्विस्तरः च अर्थलाघवं चेति ( द्वन्द्व ) अर्थस्य प्रतिपाद्यविषयस्य लाघवम् संकोचनम् तस्मिन् अत्यल्पशब्दप्रयोग इत्यर्थः (10 तत्पु०) गिरः वाचः गरौ विषो विषतुल्यदोषाविति यावत् स्तः हि यतः निश्चितं वा मितम् अल्पशब्दम् च सारम् अर्थतः गुरु च वचः वचनम् वाग्मिता वक्तृत्वम् वाक्पाटवं पाण्डित्यमिति यावत् भवति / यः खलु अनावश्यके विषये वाग्विस्तरं न करोति अनावश्यके च वागलाघवं न विधत्ते स बाग्मी उच्यते अतो मया अनावश्यके कुले नाम्नि च नोत्तरितम्, तयोः प्रकृतेऽनुपयोगादिति भावः // 8 // व्याकरण-द्वये द्वौ अवयवौ अत्रेति द्वि + तयप, तयप को विकल्प से अयच् / उदासितम् उत् + /आस् + क्त ( भाववाच्य ) / पल्लवनम् पल्लवम् विस्तरम् करोतीति पल्लव + णिच् + ल्युट ( नामधातु) / लाघवम् लघोः भाव इति लघु + अण् / वाग्मिता वाग्मिनो भाव इति वाग्मिन् + तल् + टाप् / वाग्मी वाक् अस्यास्तीति वाक् + ग्मिन् ( मतुबर्थ ) / "ओह, ( दमयन्ती ) ! प्रयोजनरहित उन दोनों कुल और नाम के विषय में मेरी जिह्वा औदासीन्य अपना गई है। वाग्-विस्तार और अर्थ का लाघव-दोनों वाणी के विष हुआ करते हैं। वग्मिता तो सचमुच कम और ठास बोलने में निहित है" // 8 // टिप्पणी-लोगों का दूत के साथ इतना ही सम्बन्ध होता है कि वह संदेश कह दे / उसका क्या कुल है, क्या नाम है इत्यादि उसे पूछना या बताना बेतुका है-बे मतलब है / सच्ची वाग्मिता तो यही है कि नपे-तुले शब्दों में ऐसी Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 377 बात कही जाय, जो ठोस अथवा वजनदार हो। बात का बतंगड़ बना देना या बात पूरी-पूरी ही न कहना मूर्खता है। कुल और नाम न कहने में कारण बता देने से काव्यलिङ्ग है। गिर पर गरत्वारोप में रूपक है। पूर्वाध में कही सामान्य बात का उत्तरार्ध-गत विशेष बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास, 'गरी गिरः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 8 // वृथा कथेयं मयि वर्णपद्धति: कयानुपूर्व्या समकेति केति च / क्षमे समक्षव्यवहारमावयोः पदे विधातूं खलु युष्मदस्मदी // 9 // अन्वयः-का वर्ण-पद्धतिः कया च आनुपूर्व्या मयि समकेति--इति इयं कथा वृथा ( अस्ति) / आवयोः समक्षम् व्यवहारम् बिधातुम् युष्मदस्मदी पदे क्षमे खलु / टीका-(हे दमयन्ति !) का किमात्मिका वर्णानाम् अक्षराणाम् पद्धतिः पंक्तिः वर्णसमूह इत्यर्थ: ( 10 तत्पु० ) कया किम्प्रकारया च आनुपूर्व्या क्रमेण मयि मद्विषये समकेति संज्ञात्वेन संकेतिता, अर्थात् यथा रकाराकार-मकाराकारविसर्जनीयात्मकः संकेतः ( रामः / क्रियते, तथैव मद्विषयेऽपि मे पित्रा किमात्मकाक्षरक्रमसंकेतः कृतः किं मे नामेति यावत् इति इयं कथा वार्ता वृथा व्यर्था अस्तीतिशेषः / ननु अज्ञाते नाम्नि कथं परस्परं व्यवहारः स्यादिति चेन्न, यतः आवयोः तव च मम च ( एकशेष ) समक्षम् प्रत्यक्षम् व्यवहारं विधातुं कर्तुम् युष्मच्च अस्मच्चेति युष्मदस्मदो ( द्वन्द्व ) पदे सुबन्ते क्षमे समथ खलु निश्चयेऽव्ययम् / वक्-श्रोत्रोः परोक्षे एव नामावश्यकता जायते; द्वयोः प्रत्यक्ष-स्थले तु परस्परं त्वम्' 'अहम्' इति सर्वनामप्रयोगेण सर्वोऽपि व्यवहार: सिद्धयतीति भाव : // 9 // व्याकरण-पद्धतिः पद्भयां हन्यते इति पद् + हन् + क्तिन् ( कर्मणि ) / आनुपूा-अनुर्वस्य भाव इति अनुपूर्व + ष्यन + ङीप् / अनुपूर्व पूर्वम् अनुगतमिति ( प्रादि स० ) / समकेति सम् + /कित् + लुङ ( कर्मवाच्य ) / आवयोः तव च मम च 'त्यदादीनां सहोक्ती यत्परं तच्छिष्यते' इस वार्तिक के अनुसार पर होने से 'अस्मद्' शब्द शेष रह गया है। समक्षम् अक्ष्णोः समीपमिति / युष्मदस्मदी शब्दपरक होने से आदेश का अभाव / अनुवाद-"(हे दमयन्ती!) कौन-सी अक्षर-पंक्ति किस क्रम से मेरे Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 नैषधीयचरिते विषय में संकेतित है ?—यह बात (पूछनी ) बेकार है। हम दोनों के मध्य प्रत्यक्ष में व्यवहार करने हेतु वस्तुतः 'तुम' और 'मैं' ये दो शब्द पर्याप्त हैं" // 9 // टिप्पणी-लोकव्यवहार सञ्चालनार्थ किसी व्यक्ति, स्थान या वस्तुके साथ 'अस्मात् पदादयमों बोद्धव्यः' इस तरह शब्द का वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध मानना पड़ता है, जिसे साहित्य में 'संकेत' नाम से पुकारा जाता है। इसी को लोक में नाम-करण कहते हैं। दोनों के मध्य परोक्षस्थल में नाम के बिना काम नहीं चलता लेकिन प्रत्यक्षस्थल में तो 'तुम-मैं' से व्यवहार हो जाता है। इस तर्क के आधार पर नल दमयन्ती के निज नाम बताने के आग्रह का खण्डन कर देता है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र काव्यलिङ्गमलंकारः' / 'केति' 'केति' में यमक, 'युष्मदस्मदी' में (षसयोरभेदात् ) छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास यदि स्वभावान्मम नोज्ज्वलं कुलं ततस्तदुद्भावनमौचिती कुतः / अथावदातं तदहो विडम्बना तथा कथा प्रेष्यतयोपसे दुषः // 10 // अन्वयः-मम कुलम् स्वभावात् यदि उज्ज्वलम् न ( स्यात् ), ततः तदुद्भावनम् कुतः औचिती? अथ अवदातम्, तत् प्रेष्यतया उपसेदुषः ( मम ) तथा कथा विडम्बना अहो! टीका-मम कुलम् वंशः स्वभावात् निसर्गात् यदि उज्ज्वलम् निर्मलम् न स्यात् ततः तर्हि तस्य कुलस्य उद्धावनम् प्रकटनम् कथनमित्यर्थः कुतः कस्मात् औचिती औचित्यम् सकलङ्ककुलप्रख्यापनं नोचितमिति भावः / अथ यदि कुलम् अवदातम् उज्ज्वलमस्ति, तत् तहि प्रेष्यतया दूतत्वेन उपसेदुषः तव समीपमा. गतस्य मम तथा तेन प्रकारेण कथा तस्य कथनम् विडम्बना उपहासः इत्यही खेदे, उच्चकुलस्य जनस्य परदूतीभवनम् उपहासास्पदमेवेति भावः // व्याकरण- उज्ज्वलम् उत् ( ऊर्ध्वम् ) ज्वलतीति उत् + /ज्वल + अच् ( कर्तरि ) उद्धावनम् उत् + /भू + णिच् + ल्युट ( भावे ) / औचिती उचितस्य भाव इति उचित + ध्यन + डीष य लोप / अवदातम् अव+/दै ( शोधने ) क्त ( कर्मणि अथवा कर्तरि ) / प्रेष्यताम् प्रेष्यस्य भाव इति प्रेष्य + तल् + टाप / प्रेष्य-प्रेषयितुं योग्य इति प्र + /इष् + ण्यत् / उपसेदुषः Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः उप + / सद् + क्वसु (लिडर्थे ) ('भाषायां सदवसश्रुवः 3 / 2 / 108 ) / विडम्बना /विडम्व् + युच् यु को अन + टाप् / अनुवाद-"मेरा कुल यदि उज्ज्वल न हो, तो उसका प्रकट करना कहाँ का औचित्य है ? यदि वह उज्ज्वल है, तो दूत-रूप में आये हुए मेरे लिएखेद की बात है-उसे बताना विडम्बना ( ही ) होगी" // 10 // टिप्पणी-दमयन्ती ! मेरा अपना कुल तुम्हें बताना दोनों तरह ठीक नहीं है। यदि कुल, कलंकी है, तो कलंकी कुल को भला कौन बताएगा ? यदि निष्कलङ्क है, तो निष्कलंक कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति दूसरों का दूत बने–यह उसके लिए कितने उपहास, लज्जा और खेद की बात होगी? इसलिए बस कुल पूछो ही मत / यहाँ विद्याधर हेत्वलंकार कह गये है। ठीक ही है, क्योकि अनौचित्य और विडम्बना के कारणों को कार्यों के साथ अभेद-रूप में बताया गया है / 'तथा' 'कला' में पदान्तगत अन्त्यनुप्रास, अन्यत्र वृत्यानुप्रास है // 10 / / इति प्रतीत्येव मयावधीरिते तवापि निर्बन्धरसो न शोभते / हरित्पतानां प्रतिवाचिकं प्रति श्रमो गिरा ते घटते हि संप्रति // 11 / / अन्वयः-इति प्रतीत्य एव मया अवधीरिते ( कुलनामप्रश्ने ) तव निवन्धरसः अपि न शोभते / हि संप्रति हरित-पतीनाम् प्रतिवाचिकं प्रति ते गिराम् श्रमः घटते। टीका-इति उक्तप्रकारेण प्रतीत्य ज्ञात्वा विचार्येत्यर्थः एव मया अवधीरिते अवहेलिते उपेक्षिते इति यावत् कुलनामप्रश्ने तव ते निर्बन्धे आग्रहे रस: अभिरुचिः / स तत्पु० ) न शोभते न शोभन: प्रतीयते नोचित इत्यर्थः / हि यस्मात् संप्रति इदानीम् हरिताम् दिशानाम् ( 'दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः' इत्यमरः ) पतीनाम् स्वामिनाम् इन्द्रादीनाम् प्रतिवाचिकं प्रत्युत्तरं (10 तपु० ) प्रति उद्दिश्य ते गिराम् वाचाम् श्रमः प्रयासः घटते युज्यते / मत्कुलनामप्रश्नोत्तरे हठं त्यक्त्वा देवानां सन्देशं प्रति प्रतिसन्देशं ब्रहीत्यर्थः / / 11 / / व्याकरण-प्रतीत्य प्रति + इ + ल्यप, तुगागम / अवधीरिते /अवधीर+क्त ( कर्मणि ) / निबन्ध निर् + Vबन्ध + घञ् ( भावे ) / प्रतिवाचिकम् प्रतिगतं वाचिकमिति ( प्रादि स० ) / वाचिकम् इसके लिए पीछे सर्ग 8, श्लो० 107 देखिए। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते __ अनुवाद-"यह विचार कर मेरे द्वारा उपेक्षित (कुल-नाम के प्रश्न ) पर तुम्हारी भी आग्रह करने की इच्छा शोभा नहीं देती, क्योंकि इस समय दिक्पालों को प्रतिसंदेश कहने का प्रयत्ल (ही) समुचित है" // 11 // टिप्पणी कुल और नाम जानने के अपने व्यर्थ हठ को छोड़कर इन्द्र आदि को तुम्हारी ओर से जो प्रत्युत्तर मैंने देना है, इसे कहने का कष्ट कीजिए। विद्याधर के अनुसार 'अत्र काव्यलिङ्गमलङ्कारः'। 'प्रति' 'प्रति' 'प्रति' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 11 // तथापि निबंध्नति ! तेऽथवा स्पृहामिहानुरुन्धे मितया न कि गिरा। हिमांशुवंशस्य करीरमेव मां निशम्य किं नासि फलेग्रहिग्रहा // 12 // ____ अन्वयः-तथापि हे निबंध्नति ! ( अहम् ) अथवा इह ते स्पृहाम् मितया गिरा किं न अनुरुन्धे ? ( त्वम् ) हिमांशु-वंशस्य करीरम् एव मां निशम्य फलेअहि-गृहा किम् न असि ? टीका-- तथापि कुलस्य न कथनस्य कारणे प्रतिपादिते अपि हे निबंधनति ! निर्बन्धम् आग्रहमिति यावत् कुर्वाणे! दमयन्ति ! इह कुल-प्रश्ने ते तव स्पृहाम् इच्छाम् मितया परिमितया गिरा वाचा न अनुरुन्धे न अनुवर्ते किम् अपितु अनुरुन्धे एवेति काकुः, कुलजिज्ञासा-विषये तवाग्रहम् पूरयाम्येवेति भावः ( त्वम् ) हिमाः शीताः अंशवः किरणाः (कर्मधा०) यस्य तथाभूतस्य (ब०वी०) चन्द्रस्येत्यर्थः वंशस्य कुलस्य एव वंशस्य वेणोः करीरम् अङ्करम् ('वंशाङ्करे करीरोऽस्त्री' इत्यमरः ) एव माम् निशम्य श्रुत्वा फलेग्रहिः सफलं ('स्यादबन्ध्यः फलेग्रहिः' इत्यमरः ) ग्रहः आग्रहः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) त्वम् किम् न असि अपितु अस्येवेति काकुः, यदि त्वं नाग्रहं त्यजसि तर्हि अहमेवाकथनाग्रह त्यक्त्वा अहं चन्द्रवंशाङ्करोऽस्मीति कथयन् तवाग्रहं सफलयानीति भावः // 12 // व्याकरण-निर्बध्नति ! निर् +/बन्ध् + शतृ + डीप् ( सम्बोधन ), स्पृहा / स्पृह + अच् + टाप् / मां निशम्य माम् शब्द को 'मत्कथनम्' में लाक्षणिक समझना चाहिए अन्यथा नल श्रवणविषय नहीं हो सकता है, क्योंकि शब्द ही श्रवण-विषय हुआ करता है द्रव्य नहीं। फलेनहि फलं गृह्णातीति फल + /ग्रह + इन्, एदन्तत्वं निपातनात् ( ‘फलेग्नहिरात्मम्भरिश्च' 3 / 2 / 26 ) / अहः /ग्रह + अच् / Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः अनुवाद-"तथापि हठ पकड़ती जा रही ओ दमयन्ती! अथवा इस ( कुल ) के विषय में तुम्हारी इच्छा नपे-तुले शब्दों में मैं पूरी न कर दूं क्या? यह सुनकर कि मैं चन्द्र के वंश ( कुल ) रूपी वंश ( बांस ) का अङ्कर हूँ, तुम अपने हठ में सफल नहीं हो गई हो क्या ?" // 12 // टिप्पणी-दोनों ओर से हठ बनाये रखने पर गतिरोध (Deadlock) होकर कार्य आगे नहीं सरकता, इसलिए स्त्री-प्रकृति हठीली होने के कारण नल को ही अपना हठ छोड़ना पड़ा और अन्ततोगत्वा दमयन्ती को उसने अपना कुल बता ही दिया। नल पर करीरत्वारोप और वंश पर वंशत्वारोप-दोनों में कार्यकारणभाव होने से परम्परित रूपक है। 'ग्रहेग्रहि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 12 // महाजनाचारपरम्परेदशी स्वनाम नामाददते न साधवः / अतोऽभिधातुं न तदुत्सहे पुनजन: किलाचारमुचं विगायति // 13 // अन्वयः-महाजनाचार-परम्परा ईदृशी ( यत् ) साधवः स्वनाम न आददते नाम, अतः तत् अभिधातुम् न उत्सहे, किल जनः आचारमुचम् पुनः विगायति / टीका-महान्तश्च ते जनाः ( कर्मधा०) सत्पुरुषाः तेषाम् आचारस्य आचरणस्य रीतेरित्यर्थः परम्परा क्रमः ( उभयत्र ष० तत्पु०) ईदृशी एतादृशी अस्तीतिशेषः यत् साधवः सन्तः स्वस्य आत्मन: नाम न आवदते गृह्णन्ति नामेति प्रसिद्धी अत: एतस्मात् तत् नाम अभिधातुम् कथयितुम् अहम् न उत्सहे न शक्नोमि, किल हेतो यतः इत्यर्थः जनः लोकः आचारम् मुञ्चतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) पुरुषम् पुनः मुहुः विगायति विनिन्दति // 13 // व्याकरण-आचारः आ +/चर् + घञ् ( भावे ) / परम्परा परं पिपीति परम् + VY+ अच + टाप् / अलुक् समास / साधुः साध्नोति परकार्यमिति Vसाध् + उ ( कतरि)। मुचम् / मुच् + क्विप् / साधु शब्द के स्थान में यदि कवि 'ते' सर्वनाम रखता, तो ठीक रहता, क्योंकि साधु शब्द का पर्यायवाची महाजन शब्द पूर्व प्रक्रान्त है ही। ___ अनुवाद-"सज्जन लोगों के आचार की ऐसी परम्परा है कि साधु पुरुष अपना नाम नहीं लिया करते हैं, यह प्रसिद्ध है। अतः मैं ( अपना) नाम नहीं कह सकता हूं, क्योंकि लोग आचार छोड़ देने वाले की फिर निन्दा किया करते हैं" // 13 // Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 नैषधीयचरिते टिप्पणी-नल कुल न बताने का निज हठ तो छोड़ ही बैठा है, किन्तु नाम न बताने के हठ पर दृढ़ ही है, क्योंकि अपना नाम अपने मुंह से बताना न केवल शिष्टाचार के ही विरुद्ध है, बल्कि शास्त्र-विरुद्ध भी है। शास्त्र में लिखा है-"आत्मनाम गुरोर्नाम नामातिकृपणस्स्य च / आयुष्कामो न गृह्णीयाज्ज्येष्ठापत्यकलत्रयोः' / / और भी-'नामानुकीर्तनं पुंसामात्मनश्च गुरोः स्त्रियाः। दिनमेकं हरत्यायुः' इत्यादि / काव्यलिङ्ग है। विद्याधर अर्थान्तरन्यास भी कह रहे हैं क्योंकि यहाँ पूर्वार्धगत सामान्य वात से पराधंगत विशेष बात का समर्थन किया जा रहा है। ‘परम्परे' 'नाम नामा' में छैक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 13 // अदोऽयमालप्य शिखीव शारदो बभव तुष्णीमहितापकारकः / अथास्य रागस्य दधा पदे पदे वांसि हंसाव विदर्भजाददे // 14 // अन्वयः-शारदः अहितापकारकः अयम् अदः आलप्य ( शारदः अहि तापकारकः) शिखी इव तूष्णीं बभूव / अथ अस्य पदे पदे रागस्य दधा विदर्भजा ( पदे पदे आस्यरागस्य दधा) हंसी इव वचांसि आददे / टीका-शारदः विद्या-निपुणः अथवा हिंसाप्रदः अतएव अहितानाम् शत्रूणाम् अपकारकः अपकर्ता ( 10 तत्पु०) अयम् एष नलः अद: एतत् पूर्वोक्तमित्यर्थः आलप्य कथयित्वा शारदः शरत्कालीन अहीनाम् सर्पाणाम् तापकारकः सन्तापप्रद इत्यर्थ: शिखी मयूर इव तूष्णीं बभूव मौनमाकलयामास / यथा वर्षौँ रुतं कृत्वा मयूरः शरदि मूकीभवति तद्वदित्यर्थः : अथ तत्पश्चात् अस्य नलस्य पदे पदे उक्ते शब्दे-शब्दे रागस्य अनुरागस्य दधा धारयित्री अनुरक्तेत्यर्थः विदर्भजा विदर्भदेशोत्पन्ना दमयन्तीत्यर्थः पदे-पदे प्रत्येक चरणे आस्यवत् मुखवत् ( उपमान तत्पु० ) रागस्य लौहित्यस्य दधा धारयित्री हंसी मराली इव वचांसि वाचः आददे गृह तवती। यथा शरदि हंसी मधुरं रोति, तद्वत दमयन्ती मधुरवाण्याऽकथयदिति भावः // 14 // व्याकरण-शारदः शारदाया अयम् इति शारदा + अण् अथवा शारं ( हिंसां ) ददातीति/शृ+ (हिंसायाम् ) घन (भावे) शार + Vदा + क ( कर्तरि ) अथ च शरदि ( शरहती० ) भव इति शरद् + अण। अहिः यास्काचार्य के अनुसार आहन्तीति आ + Vहन् + इण , आ को ह्रस्व / शिखी शिखा (चूडा ) अस्यास्तीति शिखा + इत् ( मतुबथं ) / दधा दधातीति/धा + श: Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 383 ('ददाति-दधात्योविभाषा' 3 / 1 / 139) / शित्व होने से शप की तरह हित्व / पदे-पदे वीप्सा में द्वित्व / अनुवाद-शारद ( सरस्वती का वरद पुत्र ) तथा अहितापकारक (शत्रुओं को चोट पहुंचाने वाला ) यह ( नल ) यह कहकर इस तरह चुप हो गया जैसे शारद ( शरत्कालीन ) और अहितापकारक ( सॉपो को संताप पैदा कर देने वाला) मोर चुप हो जाया करता है। इसके बाद इस ( नल ) के ( कहे ) (पदे-पदे ) शब्द-शब्द पर राग ( अनुराग) रखे विदर्भ-राजकुमारी इस तरह बोली जैसे ( पद-पद ) प्रत्येक पैर में चोंच की सी लाली रखे हंसनी बोला करती है / / 14 // टिप्पणी-यह प्रसिद्ध ही है कि वर्षाकाल में मोर बोलता है और शरद् आते ही वह मौन अपना लेता है। इसी तरह वर्षाकाल में हंसिनी मौन अपनाये रहती है और शरद में बोलने लग जाती है। यहाँ चुप हुए नल की तुलना मोर से और बोल रही दमयन्ती की तुलना हँसिनी से की गई है लेकिन सादृश्य दोनों में आर्थ नहीं, शाब्द है, जो कवि ने शब्दों में श्लेष रखकर बनाया है / इस तरह यहाँ दो श्लिष्टोपमाओं की संसृष्टि है 'पदे-पदे' में छेक और उसका 'पदे' 'ददे' में तुक मिल जाने से पादान्तगत अन्त्यानुप्रा के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 14 // सुधांशुवंशाभरणं भवानिति श्रुतेऽपि नापैति विशेषसंशयः / कियत्सु मौनं वितता कियत्सु वाङ्महत्यहो वञ्चनचातुरी तव / / 15 / / अन्वयः-- भवान् सुधांशु-वंशाभरणम् ( अस्ति ) इति श्रुते अपि विशेषसंशयः न अपैति / कियत्सु मौनम् ( अवलम्बितम् ) कियत्सु ( च ) वाक् वितता / तव महती वञ्चन चातुरी अहो / टीका-भवान् आर्यः सुधा अमृतम् अंशुष किरणेषु यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) चन्द्रस्येत्यर्थः वंशस्य कुलस्य आभरणम् आभूषणम् उभयत्र प० तत्पु० ) अस्तीति शेष इति एवं श्रुते आणिते अपि विशेषे संशयः सन्देहः ( स० तत्पु० ) न अपैति न निवर्तते चन्द्रवंशे कतमोऽस्ति भवानिति विशेषविषयकसंशयो यथावत् तिष्ठत्येवेति भावः / कियत्सु स्थानेषु नामादिविषयेषु मौनम् तूष्णीभावः अवलम्बितमिति शेषः, कियत्सु च विषयेषु आगमनप्रयोजने Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 नैषधीयचरिते इत्यर्थः वाक् वाणी वितता विस्तारिता। देवानां दूतोऽस्मि, ते चामुकामुकसंदेशान् ददती'त्यादिषु अप्रस्तुत-विषयेषु ते वाग् विस्तरः नामादिषु च मुखादक्षरमपि न निःसरति इति तव वचनस्य प्रतारणस्य महती चातुरी चातुर्यम् अहो / आश्चर्यम् // 15 // व्याकरण-आभरणम् आभ्रियते अङ्गमनेनेति आ +/भृ + ल्युट् +क ( करणे ) / संशयः सम् + Vशी + अच् / मौनम् मुनेः भाव इति मुनि + अण् / चातुरी चतुरस्य भाव इति चतुर + ष्यन् + ङीष् , य लोप / अनुवाद-"आप चन्द्रवंश के आभूषण हैं-यह सुनने पर भी विशेष बात का संशय नहीं मिट रहा है। किन्हीं ( बातों) पर तुमने चुप्पी साध रखी है और किन्हीं पर वाग्विस्तार कर रखा है। तुम्हारी ( इस ) ठगी की बड़ी भारी चतुराई पर आश्चर्य है" // 15 // टिप्पणो-विद्याधर यहाँ हेत्वलंकार मान रहे हैं, जो हम नहीं समझते हमारे विचार से यदि वंश (कुल) पर वंशत्व ( वेणुत्व ) का आरोप कर दें तो श्लिष्ट रूपक बन सकता है / बाँस में आभरण-रूप मोती हुआ करता ही है-यह हम पीछे बता आये हैं / 'शेष' 'संश' में (षसयोरभेदात् ) तथा 'कियत्सु' "कियत्सु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 15 // मयापि देयं प्रतिवाचिकं न ते स्वनाम मत्कणंसुधामकुर्वते / परेण पुंसा हि ममापि संकथा कुलाबलाचारसहासनासहा // 16 // अन्वयः-स्व-नाम मत्कर्ण-सुधाम् अकुर्वते ते मया अपि प्रतिवाचिकम् न देयम्, हि परेण पुंसा मम अपि संकथा कुला "सहा ( अस्ति ) / ___टीका-स्वस्य आत्मनः नाम अभिधेयम् (10 तत्पु० ) मम कर्णयोः श्रोत्रयोः सुघाम् अमृतम् ( उभयत्र 10 तत्पु०) अकुर्वते नानुतिष्टते ते तुभ्यम् मया अपि प्रतिवाचिकम् प्रतिसंदेशः न देयम् दातव्यम् यावत् त्वम् स्वनाम न श्रावयसि, तावन्नाहं प्रतिसंदेशं ददामीत्यर्थः, हि यतः परेण अन्येन पुंसा पुरुषेण नामतः शीलतश्चापरिचितेन जनेनेति यावत् मम अपि संकथा सम्भाषणम् कुलस्य अबलानाम् कुलस्त्रीणाम् आचारेण रीत्या ( उभयत्र 10 तत्पु० ) सह आसनम् एकत्रावस्थितिः (तृ• तत्पु० ) तस्य असहा न सहा अक्षमा विरुद्ध त्यर्थः। अयं भावः मम त्वया संभाषणम् कुलमीणाम् आचारश्चेति द्वयम् Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम: सगः 385 एकत्र सह आसितुम् स्थातुं न शक्नुतः तयोः परस्पर-विरोधात्, तस्मात् यथा तव स्वनामकथनं महाजनाचार-विरुद्धम्, तथैव ममापि त्वया सम्भाषणं स्वाभिप्रायकथनं चापि कुलाङ्गनाचारविरुद्धम् तुल्यन्यायात् // 16 // व्याकरण-अकुर्वते न + /कृ + शतृ + च० / प्रतिवाचिकम् इसके लिए पीछे श्लोक 11 देखिए / संकथा सम् + / कथ् + अ +टाप् / आसनम् / आस् + ल्युट ( भावे)। सहा सहते इति/सह् + अच् ( कर्तरि ) + टाप् / __अनुवाद-"अपने नाम को मेरे कानों का अमृत न बनाते हुए तुम्हारे लिए देने को मेरे पास भी प्रतिसंदेश नहीं है, कारण यह कि पर पुरुष से मेरा भी बातें करना कुलाङ्गनाओं के आचार के अनुकूल नहीं बैठता ( अर्थात् विरुद्ध है )" // 16 // टिप्पणी—जिस तर्क से नल ने लोकाचार की दुहाई देकर दमयन्ती को जिद से परास्त किया है, उसी तर्क को लेकर दमयन्ती भी लोकाचार की दुहाई देकर नल को प्रतिसंदेश न देने की जिद से परास्त कर रही है। इस तर्क अथवा उत्तर को संस्कृत में 'प्रतिबन्दी' या 'तुल्यन्याय' और हिन्दी में 'मियाँ की जूती मियां के सिरे' कहते हैं। प्रतिसंदेश न देने का कारण बताने में काव्यलिङ्ग है। 'सहा' 'सहा' में यमक 'न ते' 'बते' की तुक में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास है // 16 // हदाभिनन्द्य प्रतिवन्धनुत्तरः प्रियागिरः सस्मितमाह स स्म ताम् / वदामि वामाक्षि! परेषु मा क्षिप स्वमीदृशं माक्षिकमाक्षिपद्वचः // 17 // ___ अन्वयः–स प्रिया-गिरः हृदा अभिनन्द्य प्रतिवन्द्यनुत्तरः सन् सस्मितम् ताम् आह स्म-'हे वामाक्षि ! वदामि त्वम् माक्षिकम् आक्षिपत् ईदृशम् स्वम् वचः परेषु मा क्षिप / ' टीका–स नलः प्रियायाः प्रियतमायाः दमयन्त्याः गिरः वचनानि (10 तत्पु० ) हुदा मनसा अभिनन्द्य अनुमोद्य साधूक्तमिति स्तुत्वेति यावत् प्रतिवद्या तुल्यन्यायेन अनुत्तर: ( तृ० तत्पु० ) न उत्तरं प्रतिवचनं यस्य तथाभूतः (ब० वी०) निरुत्तरः दमयन्त्यै प्रत्युत्तरं दातुमसमर्थः इत्यर्थः सन् स्मितेन मन्दह सितन सहितः ( ब० वी० ) यथा स्यात्तथा ताम् प्रियाम् आह स्म अवदत् हे वामाक्षि वामे शोभने अक्षिणी नयने यस्याः तत्सम्बुद्धी (ब० वी० ) वदामि कथयामि Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिने स्वम् माक्षिकम् मधु आक्षिपत तिरस्कुर्वत् मधुतोऽपि मधुरमित्यर्थः ईदृशम् प्रतिबन्दीरूपम् स्वम् निजम् वचः वचनम् परेषु इन्द्रादिभिन्नेषु मत्सदृशेषु मा क्षिप मा प्रयुक्ष्व मा वादोरिति यावत् अर्थात् कुलाङ्गनाचारमनुरुध्य तव परपुरुषेषु वचनाप्रयोगः समुचित एव त्वया तैः न संभाषितव्यमिति यावत्, अहं तु न परपुरुषः, प्रत्युत त्वदीय एवेति भावः // 17 // __ व्याकरण-प्रतिवन्दी प्रतिगता वन्दी इति (प्रादि स० ) / आह स्म/ बू+ लट्, विकल्प स ब का आह आदेश और भूत में स्म / वामाक्षि / ब० बी० में अक्षिन् को षच, पित्वात् ङीष नदीत्वात् ह्रस्व / माक्षिकम् मक्षिकाभिः कृतमिति मक्षिका + अण्। अनुवाद-वह ( नल ) प्रिया के वचनों की हृदय से सराहना करके (.उसके ) 'मियाँ की जूती, मियाँ के सिर' वाले तर्क से निरुत्तर हो मुस्कान के साथ उसको बोला-"सुलोचने ! मैं कहता हूँ कि तुम (माधुरी में) शहद को मात कर देने वाले अपने ऐसे वचन पर-पुरुषों को ( बेशक ) मत बोलो" // 17 // टिप्पणी-दमयन्ती के 'प्रतिबन्दी'- उत्तर ने नल की बोलती बन्द कर दी। ठीक है, कुलाङ्गना का एक अपरिचत से वार्तालाप करना भला कहाँ का शिष्टाचार है। प्रतिबन्दी शब्द वैसे दार्शनिक बाद-विवादों में ही प्रयुक्त होता. है काव्य में बहुत कम अथवा ना के बराबर। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में हम पिछले श्लोक की टिप्पणी में थोड़ा-बहुत लिख आए हैं। उच्चारण में यह शब्द हमें विभिन्न रूपों में अर्थात् प्रतिबन्दो, प्रतिबन्दि, प्रतिवन्दी, प्रतिवन्दि में मिलता है। व्याकरण-स्तम्भ में इसकी व्युत्पत्ति हमने 'प्रतिगता बन्दी' की है। बन्दी शब्द का अर्थ अमरसिंह ने 'प्रग्रहोपग्रहो बन्याम्' बन्धन अथवा पकड़ किया है। वादी जब प्रतिवादी को अपने किसी तर्क से पकड़ लेता है। फाँस लेता है, तो प्रतिवादी भी वैसा ही तर्क देकर वादी को भो फाँस लेता है। इसी बात को दृष्टिगत रखकर चाण्डू पण्डित कहते हैं—'तादृशमेव प्रतिवचनं यत्र वादिनं प्रति क्रियते, सा प्रतिबन्दी नाम उत्तरम्' / ईशानदेव का भी ऐसा-जैसा ही कहना है-'तदुक्त्या तस्यैव दूषणमुत्पाद्यते स तर्कः प्रतिबन्दिः' / ऐसी स्थिति में वादी और प्रतिवादी दोनों एक ही नाव पर सवारहो जाते हैं Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 387 और अन्त में कहना पड़ता है-'उभयोरपि यो दोषः परिहारस्तयोः समः / नेकः पर्यनुयोक्तव्यः'। किन्तु विद्याधर यहाँ अपनी अलग हो खिचड़ी पका रहे हैं, उनकी व्याख्या देखिए-~-'कीदृशो नल:-प्रतिबन्दी विरोधी अनुत्तरोऽभाषणं यस्य / यदा हि दमयन्ती उत्तरं न ददाति तदा दूतकर्म न पिध्येत्, अतः प्रतिबन्द्यनुत्तरः' / नल के कहने का आशय यहाँ यह है कि दमयन्ती ! भले ही तुम पर पुरुषों को ऐसा प्रतिबन्धुत्तर दो लेकिन मैं तो तुम्हारे लिए पर-पुरुष नहीं हूँ, स्व-पुरुष ही हूँ। मुझे ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा उत्तर न दे कर सीधी भाषा में कहो कि मैं तुम्हारे विषय में इन्द्रादि को क्या संदेश कहूँ ? ऐसा भाव बताने में श्लोक में निषेधात्मक 'मा' शब्द की संगति नहीं बैठ रही है इसलिए नारायण का यह व्याख्यान कि 'ईदृशं प्रतिबन्धादि रूपं वचनं परेषु इन्द्रादिव्यतिरिक्तेषु मादृशेषु मा क्षिप' हमें ठीक लगता है। विद्याधर रूपक कह रहे हैं, जो हम नहीं समझे। हाँ 'माक्षिक को तिरस्कृत करते हुए में' दण्डी के अनुसार उपमा हो सकती है / 'नन्ध' 'बन्ध' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, माक्षि, मा क्षि, माक्षि, माक्षि, में विद्याधर छेक कह रहे हैं जो वर्गों की एक से अधिक बार आवृत्ति होने से नहीं हो सकता है। हाँ, यमकालङ्कार है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 17 / / करोषि नेमं फलिनं मम श्रमं दिशोऽनुगृह्णासि न कंचन प्रभुम् / त्वमित्थमहर्हासि सुरानुपासितुं रसामृतस्नानपवित्रया गिरा // 18 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) इमम् मम श्रमं फलिनम् न करोषि ? दिशः कञ्चन प्रभुम् न अनुगृह्णासि ? इत्यम् रसा 'त्रया गिरा सुरान् त्वम् उपासितु म् अर्हा असि / टीका- हे दमयन्ति ! ) इमम् एतम् मम मे श्रमार देवदौत्यस्य आयासम् फलिनम् सफलं न करोषि न विदधासि ? दिश: दिशायाः कञ्चन कमप्येवम् प्रभुन् स्वामिनम् न अनुगृह्णासि ? नानुकम्पले ? इत्या एवम् प्रतिवन्यात्मकयेत्यर्थः रसः माधुर्यम् एव अमृतम् सुधा (कर्मधा०) तस्मिन् स्नानम् अवगाहनम् ( स० तत्पु० ) तेन पवित्रया पुनीतया ( तृ० तत्पु० ) गिरा वाचा सुरान् इन्द्रा. दीन देवान् त्वम् उपासितुम् सेवितुम् अर्दा योग्या असि अमृत-स्नानेन पवित्रीभूतया गिरा देवान् पूजयितुमर्हसि, स्नानानन्तरमेव पवित्रीभूतस्य जनस्य देव-पूजाधिकारादिति भावः / / 18 / / Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते व्याकरण-फलिनम् फलमस्यास्तीति फल + इनच् (मतुबर्थ ) प्रभुम् प्रभवतीति प्र + /भू + डु। इत्थम् इदम् + थम् ( प्रकारवचने ) / सुरान् इसके लिए पीछे सर्ग 5 श्लोक 34 देखिए / अर्हा अर्हतीति /अर्ह, + अच् ( कर्तरि) +टाप् / अनुवाद-"( हे दमयन्ती! ) मेरे इस (दौत्यसम्बन्धी) प्रयत्न को सफल नहीं बनाती हो क्या ? दिशा के किसी एक स्वामी पर अनुग्रह नहीं करती हो क्या? इस तरह माधुर्य-रूपी अमृत में स्नान करने से पवित्र बनी वाणी द्वारा तुम देवताओं की अर्चना करने योग्य हो"। - टिप्पणी-भाव यह है कि जिस प्रकार तुम अपनी अमृत-स्नात वाणी से प्रसन्न कर रही हो वैसे ही किसी एक देवता को अपनी स्वीकृतिका मधुर सन्देश भेजकर प्रसन्न कर दो। इसी में मेरा दौत्य चरितार्थ हो जाएगा। रस पर अमृतत्वारोप में रूपक और शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। 18 // सुरेषु संदेशयसीदृशीं बहुं रसस्रवेण स्तिमितां न भारतीम् / मदर्पिता दपंकतापितेषु या प्रयाति दावादितदाववृष्टिताम् // 19 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) त्वम् बहुम् रसस्रवेण स्तिमिताम् ईदृशीम् भारतीम् सुरेषु न संदेशयसि ? या मदर्पिता ( सती ) दर्पक-तापितेषु दावा "ताम् प्रयाति / टीका-(हे दमयन्ति ! ) त्वम् बहुम् विपुलाम् विस्तृतामितियावत् रसस्य माधुर्यस्य स्रवेण प्रवाहेण स्तिमिताम् आर्द्राम् ('आर्द्र सादें क्लिन्नं तिमितं स्तिमितम्' इत्यमरः) ईदृशीम् एतादृशीम् भारतीम् वाणीम् सुरेषु देवेषु देवानुविद्दश्येत्यर्थः न संवेशयसि संदेश-रूपेण परिणमयसि ? मद्-द्वारा देवान् प्रति संदेश-रूपेण स्वमधुरवाणों प्रेषयेत्यर्थः या वाणी मया अपिता देवेषु प्रापिता सती दर्पण कंदर्पण ( 'कंदर्पो दर्पर्कोऽनङ्गः' इत्यमरः ) तापितेषु प्रपीडितेषु देवेषु वाव: वनाग्निः तेन अदितः पीडितः दह्यमान इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) यः दावः वनम् ( कर्मधा० ) ('दाव-दावी वनारण्यवह्नी' इत्यमरः) तस्मिन् वृष्टिताम् वर्षात्वम् (स० तत्पु०) प्रयाति प्राप्स्यति / यथा दावाग्निदह्यमानारण्यस्य तापं वृष्टिः शमयति तथैव कामतप्यमान-देवानां तापं तव मधुरवाणी शमयिष्यतीति भावः // 19 // व्याकरण- रस: /रस् + अच् ( भावे ) / लयः /स्र + अप (भावे)। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 389 स्तिमित /स्तिम् ( क्लेदे ) + क्तः ( कर्तरि ) / सुरेषु इसके लिए पीछे सर्ग + लट् ( नामधा० ) / वर्षक: दर्पयतीति /दृप् + णिच् + ण्वुल् ( कर्तरि ) / प्रयाति भविष्यदर्थ में लट् / अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! ) तुम रस-प्रवाह से सनी ( अपनी)। ऐसी वाणी को देवताओं के लिए विस्तृत संदेश का रूप नहीं दे रही हो, जो मेरे द्वारा अर्पित हुई काम-संतप्त देवताओं पर दावानल से पीड़ित वन में होने वाली वृष्टि का रूप अपनायेगी?' // 19 // टिप्पणी-दावानल से जल रहे वन को वृष्टि शान्त कर देती है, तुम्हारी सन्देश-वाणी भी बाम-संतप्त देवताओं हेतु वृष्टि बन जायेगी। विद्याधर यहाँ उपमा कह रहे हैं जो हमारी समझ के बाहर हैं। क्योंकि 'सादृश्य हमें कहीं भी दीख नहीं रहा है। वृष्टित्व वृष्टि में ही रहता है, वाणी उसे कैसे प्राप्त कर सकती है। हाँ, असम्भवद्-वस्तु-सम्बन्ध में बिम्बप्रतिबिम्बभाव हो रहा है जो यहाँ निदर्शना बना रहा है। 'दर्प' 'दर्प' तथा 'दावा' 'दाव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 19 // यथा यथेह त्वदुपेक्षयानया निमेषमप्येष जनो विलम्बते। रुषा शरव्यीकरण दिवौकसा तथा तथाद्य त्वरते रते: पातः // 20 // अन्वयः (हे दमयन्ति ! ), यथा यथा एष जनः इह अनया त्वदुपेक्षया निमेषम् अपि विलम्बते, तथा तथा रतेः पतिः रुषा दिवौकसाम् शरव्यीकरणे अद्य त्वरते। टीका-यथा-यथा यावद् यावद् एष मल्लक्षणः जनः अहमित्यर्थः इह अत्र त्वत्समापे अनया एतया तव उपेक्षया अवहेलनया औदासीन्येनेतिया बत् निमेषम् क्षणम् अपि विलम्वते विलम्वं करोति तथा तथा तावत् तावत् रते: पतिः कामः रुया क्रोधेन दिवौकसाम् द्यौः स्वर्गः ओक: गृहं येषां तथाभूतानाम् (ब० बी० ) देवानामित्यर्थः ( 'त्रिदिवेशा दिवौकसः' इत्यमरः) शरभ्यीकरणे लक्ष्यीकरणे अद्य अस्मिन् क्षरणे त्वरते त्वरां करोति / देवेषु स्वप्रतिसंदेशदाने उपेक्षया क्रियमाणे क्षणस्यापि विलम्बे देवाः कामशरशरव्यीभवन्तीति भावः // 20 // व्याकरण-यथा यथा वीप्सा में द्वित्व। उपेक्षा उप + Vईक्ष् +अ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 षधीयचरिते + टाप् / निमिषम् कालात्यन्तसंयोगे द्वि० / रुषा /रुष्+विवर ( भावे ) तृ० / शरव्यीकरणे शरव्य + V + च्वि ईत्वम् + ल्युट ( भावे ) / अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! ) जैसे-जैसे यह जन ( = मैं) तुम्हारी उपेक्षा से यहाँ पल भर का भी विलम्ब करता जा रहा है, वैसे-वैसे कामदेव देवताओं को अपना निशाना बनाने में इस क्षण जल्दी कर रहा है" // 20 // टिप्पणो--विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है। विलम्ब करना और काम का निशाना बनाना दोनों का यहाँ युगपत् होना बताया गया है जब कि कारणकार्यभाव होने से पहले विलम्ब होता है तब काम की मार होती है। इस तरह कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्ययातिशयोक्ति है। शब्दालङ्कारों में 'यथायथे' 'तथातथा', 'रते रतेः' में छेक, 'क्षयानया' 'मेषमप्येष' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 20 // इयच्चिरस्यावदधन्ति मत्पथे किमिन्द्रनेत्राण्यशनिन निममौ / धिगस्तु मां सत्वरकार्यमन्थरं स्थितः परप्रेष्यगुणोऽपि यत्र न // 21 // अन्वयः-मत्पथे इयच्चिरस्य अवदधन्ति इन्द्रस्य नेत्राणि अशनि: न निर्ममौ किम् ? सत्वर-कार्य-मन्थरम् माम् धिक् अस्तु, यत्र परप्रेष्य-गुण: अपि न स्थितः ( अस्ति)। टीका-मम पन्थाः मार्गः तस्मिन् (10 तत्पु०) इयत् एतावत् यथा स्यात्तथा चिरस्य चिरम् एतावद्-बहुकालपर्यन्तमित्यर्थः अवदधन्ति अवधानं ददन्ति सावधानानि प्रतीक्षमाणानीति यावत् इन्द्रस्य मघोनः नेत्राणि सहस्रसंख्यकनयनानि ( कम ) अशनिः वज्रम् ( कर्ता ) न निर्ममौ न निर्मितवान् किम् अपि तु निर्ममौ एवेति काकुः, एतावद्वहुकालपर्यन्तं मत्प्रतीक्षायां स्थितानि मघोनः नयनानि यन्न स्फुटितानि तत् नूनं वज्रनिमितान्येव तानि सन्तीति भावः / सत्वरम् त्वरया सहितम् (ब० बी० ) त्वरया क्रियमाणमित्यर्थः यत् कार्यम् कृत्यम् ( कर्मधा० ) तस्मिन् मन्थरम् मन्दम् शीघ्रकर्तव्ये कार्ये बिलम्बं कुर्वाणम् माम् नलम् धिक् अस्तु, अहं धिक्कार योग्योऽस्मीत्यर्थः, यत्र यस्मिन् मयि नले परस्य अन्यस्य प्रेष्यस्य भृत्यस्य दूतस्य ('प्रेष्य-भुजिष्य-परिचारकाः' इत्यमरः) गुणः धर्मः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) अपि न स्थितः न विद्यमानः अस्तीति शेषः / कार्यं त्वरितं निष्पादयागमनम् अनिष्पन्नस्य कार्यस्य Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 391 वा शीघ्रसूचनम् हि दूत-गुणः स च कालातियापनं कुर्वति मयि नास्तीति भावः // 21 // व्याकरण-मत्पथे समास में पथिन् शब्द को समासान्त अप्रत्यय हो जाता है। अवदधन्ति अव + Vधा + शत नपुंसक में विकल्प से नुमागम, हि०ब० / माम् धिक धिक्के योग में द्वि० / प्रेष्यः प्रेषयितुं योग्य इति प्र + ईष् + ण्यत् / अनुवाद ... इतनी देर तक मेरी बाट जोहती हई इन्द्र की आँखें वज्र द्वारा नहीं बनी हैं क्या ? शीघ्र ही किये जाने वाले कार्य में ढीले ढाले बने हुए मुझको धिक्कार हो जिसके भीतर दूसरे का दूत बनने का गुण भी नहीं हैं / / 21 // टिप्पणी-शीघ्र ही देवताओं को दमयन्ती से उनके सन्देश का जवाब न पहुँचाने में नल झुंझला रहा है और अपने को धिक्कार रहा है कि जब उसमें दूत का अपेक्षित गुण है ही नहीं तो वह क्यों दौत्य स्वीकार कर बैठा / दूत का गुण यही होता है कि वह तुरत-फूरत संदेश का जवाब हाँ या ना में ले आवे। विद्याधर 'अत्रातिशयोक्त्यलंकारः' कह रहे हैं जो हम नहीं समझे / हमारे विचार से तो कवि की इस कल्पना में कि मानो इन्द्र की आँखें वज्रमय हों जो वे बाट जोहते जोहते फूटी नहीं हैं उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक यहाँ 'किम्' है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 21 // इदं निगद्य क्षितिभर्तरि स्थिते तयाभ्यधायि स्वगतं विदग्धया। अधिस्त्रि तं दूतयतां भुवः स्मरं मनो दधत्या नयनैपुणव्यये // 22 // अन्वयः-क्षितिभर्तरि इदम् निगद्य स्थिते ( सति ) भुवः स्मरम् तम् अधिस्त्रि दूतयताम् नय नैपुण-व्यये मनः दधत्या विदग्धया तया स्वगतम् अभ्यधायि / टीका-क्षितेः भुवः भर्तरि स्वामिनि नृपे नले (10 तत्पु० ) इदम् पूर्वोक्तम् निगद्य कथयित्वा स्थिते मौनम् आकलितवति सति भुवः पृथिव्याः स्मरम् कामम् स्मरवत् अत्यन्तसुन्दरम् तम् जनम् नलमित्यर्थः स्त्रीषु इत्यधिस्त्रि ( अव्ययी०) दूतयताम् दूतीकुर्वताम् दौत्यकर्मणि विनियोजयताम् देवानाम् Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 , नैषधायचरित नये नीतिशास्त्र यत् नंपुणम् नैपुण्यम् ( स० तत्पु० ) तस्य ध्यये राहित्ये अभावे इति यावत् (10 तत्पु० ) मन: चित्तम् दधत्या न्यस्यन्त्या अर्थात् मनसि एतत् विचारयन्त्या यत् एतादृशम् अतिसुन्दरं पुरुषम् मां स्त्रियं प्रति निजदूतरूपेण प्रेषयतां देवानां कियन्नीतिशास्त्रनपुण्याभावोऽस्तीति विदग्धया निपुगया तया दमयन्त्या स्वगतम् स्वस्मिन् आत्मनि गतम् ( स० तत्पु० ) यथा स्यात्तथा स्वमनसीत्यर्थः ( 'सर्वश्राव्यं प्रकाशं स्यात् अश्राव्यं स्वगतं मतम्' इति दर्पणकारः) अभ्यधायि अभिहितम् // 22 // व्याकरण-क्षितिः . क्षियन्ति ( वसन्ति ) भूतान्यत्रति क्षि + तिन् ( अधिकरणे)। अधिस्त्रि सप्तम्यर्थ में अव्ययीभाव, ह्रस्व, नपुं० / दूतयताम् दूतं कुर्वन्तोति दूत + णिच् + शतृ + 10 ( नामधा० ) नैपुणम् निपुणस्य भाव इति निपुण + अण् / अभ्यधायि अभि + /धा + लङ् ( भावचाच्य ) / विदग्धया इसके लिए सर्ग-श्लो० 99 देखिए। अनुवाद-राजा ( नल ) के यह कहकर चुप हो जाने पर भूलोक के इस कामदेव को स्त्रियों के प्रति दूत बनाते हुए देवताओं की नीति-चातुरी का अभाव मन में रखे उस चतुर ( दमयन्ती) ने मन ही मन कहा // 22 // टिप्पणी-नीतिशास्त्र में कहा हुआ है-"नोज्ज्वलं रूपवन्तं च नार्थवन्तं न चातुरम् / दूतं वापि हि दूतीं वा नरः कुर्यात् कदाचन / " अर्थात् यदि स्त्रियों के पास अथवा पुरुषों के पास अपना दूत या दूती भेजना हो तो उन्हें सजा धजा, रूपवान्, चतुर और सम्पन्न नहीं होना चाहिए, अन्यथा स्त्री दूत पर ही और पुरुष दूती पर ही मुग्ध हो सकते हैं, दूत भेजने वाला अथवा दूती भेजने वालो दोनों देखते ही रह जाएंगे / दूत बनाकर नल को भेजने में देवताओं ने बड़ी गलती की है। विद्याधर ने यहाँ व्यतिरेक कहा है, क्योंकि नल में सौन्दर्याधिक्य बता रखा है। हमारे विचार से नल पर भू-स्मरत्व का आरोप होने से रूपक है। उसमें स्मर से अधिक सौन्दर्य नहीं बताया है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 22 // जलाधिपस्त्वामदिशन्मयि ध्रुवं परेतराजः प्रजिघाय स स्फुटम् / मरुत्वतैव प्रहितोऽसि निश्चितं नियोजितश्चोर्ध्वमुखेन तेजसा // 23 // अन्वयः-जलाधिपः मयि त्वाम् अदिशत् ध्रुवम्. परेतराजः स ( त्वाम् ) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 393 नवमः सर्गः प्रजिघाय स्फुटम्, मरुत्वता एव ( त्वम् ) प्रहितः असि निश्चितम्, ऊर्ध्वमुखेन तेजसा च ( त्वम् ) नियोजितः / टीका-( स्वमनसि नलं सम्बोध्य दमयन्ती कथयति ) जलानाम् अपाम् अधिपः स्वामी वरुण इत्यर्थः मयि मां प्रति त्वाम् अविशत् न्ययोजयत् इति ध्रुवम् निश्चितम् ('ध्रुवो भभेदे क्लीबं तु निश्चिते' इत्यमरः ) अथ च जलानाम् डलयोरभेदात् जडानाम् मूर्खाणाम् अधिपेन अग्रगण्येन महामूर्खेणेत्यर्थः मूर्खराजो वरुणः अतिसुन्दरं त्वाम् अतिसुन्दरी मां प्रति दूतत्वेन प्राहिणोत् इति नीतिशास्त्रविरुद्धत्वेन तेन महामर्खताकार्यं कृतमितिभावः, परेतानाम् प्रेतानाम् मृतांनामिति यावत् राजा (ष० तत्पु० ) स यमः त्वाम् प्रनिघाय मत्पावें प्रेषयत् इति स्फुटम् निश्चितम्; स सत्यं मृतानां राजा महामृतः निश्चेतन इति यावत् यः तादृशं महा-सुन्दरं त्वाम् मयि प्रेषयत् कःखलु चेतनः एतादृशं मूर्खत्वं कुर्यादिति भावः; मरुतो देवा अस्य ( सेवायाम् ) सन्तीति तेन मरुत्वता इन्द्रेण ( 'इन्द्रो मरुत्वान् मघवा' इत्यमरः ) अथच मरुत् वायुरस्यास्तीति महत्वान् वातूल: वातासहः उन्मत्त इति यावत् ( 'मरुतौ पवनामरो' इत्यमरः ) त्वं प्रहितः प्रेषितः असि निश्चितम्, तादृशीं माम् प्रति तादृशस्य एवं प्रेषकम् इन्द्रस्य उन्माद-कार्यमेवास्तीति भावः ऊर्ध्वम् उपरि मुखं यस्य तथाभूतेन (ब० बी० ) तेजसा अग्निना इत्यर्थः अग्निहि ऊर्ध्वमुखो जवलति तेन त्वं नियोजितः मयि दूतत्वेन प्रेरितः निश्चितमिति पूर्वतोऽनुवृत्तम्, अथ च ऊर्ध्वमुखः पिशाचः निर्बुद्धिः पिशाच एव एवं करोतीति भावः / / 23 // व्याकरण-अधिपः अधिकं पातीति अधि + /पा + क / परेतः परा + Vइ + क्त ( कर्तरि ) / प्रजिघाय प्र + /हि + लिट् / अनुवाद--"निश्चय ही जलाधिप ( वरुण, मूर्खराज ) ने मेरे प्रति ( दूत बनने की ) तुम्हें आज्ञा दी है; स्पष्टतः परेतराज (प्रेत-स्वामी, बड़भारी मुर्दे ) उस ( यम) ने तुम्हें भेजा है; निश्चय ही * महत्वान् ( इन्द्र, पागल ) ने ही तुम्हें भेजा है। निश्चय ही ) ऊर्ध्वमुख तेज ( अग्नि, पिशाच ) ने तुम्हें ( दूत ) नियुक्त किया है / / 23 // टिप्पणी-ध्यान रहे कि दमयन्ती का यह स्वगत' भाषण है, जिससे वह नल को मन ही मन संबोधित करके बोल रही है, प्रकट रूप में नहीं। कवि ने Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 नैषधायचरिते यहाँ दमयन्ती के मुख में देवताओं के वाचक ऐसे शब्द प्रयुक्त किये हैं जो क्लिष्ट हैं और व्यङ्गय से देवताओं की खिल्ली उड़ा रहे हैं / 'जल' शब्द वरुण की जड़ता बता रहा है, 'परेतराज' यम को बड़ा भारी मुर्दा कह रहा है / 'मरुत्वान्' इन्द्र को पागल बता रहा है और 'ऊध्वमुख' से अग्नि की पिशाचता सिद्ध हो जाती है / दमयन्तीके कहने का सार यह है कि ये देवता लोग कितने विचित्र जीव हैं, जिनको इतना भी सामान्य बोध नहीं कि मैं इतनी बड़ी सुन्दरा हूँ। मेरे पास इतने बड़े सुन्दर को दूत बनाकर वे भेज रहे हैं। इन लोगों को नीति शास्त्र का क-ख ग भी नहीं आता। इन्हें निरे मूर्ख अचेतन पगले और पिशाच ही समझिए / ऐसे बुद्ध भी कहीं दैवता हुए। देवताओं पर दमयन्ती का यह बड़ा चुभता विद्रूप है। विद्याधर 'अत्रोत्प्रेक्षालंकारः' कह रहे हैं। वे 'ध्रुवम्' और 'स्फुटम्' शब्दों को उत्प्रेक्षावाचक समझ कर कल्पना कर रहे हैं कि मानो जलाधिप आदि जडाधिप आदि ही हों लेकिन निश्चित' शब्द तो कल्पनावाचक नहीं होता, जिसके साहचर्य से ध्रुवम् और स्फुटम् शब्दों को भी यहाँ निश्चितार्थ ही में लेना उचित रहेगा। दूसरे, जो परम सुन्दरी के पास अपना परम सुन्दर दूत भेज रहा है उसकी जड़ता तथ्य है, कल्पना नहीं, अतः देवताओं के साभिप्राय नाम-शब्दों के प्रयोग में हम कुवलयानन्दानुसार परिकराङ्कर अलंकार कहेंगे जो श्लेषसंकीर्ण है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 23 // अथ प्रकाशं निभृतस्मिता सती सतीकुलस्याभरणं किमप्यसौ / पुनस्तदाभाषण विभ्रमोन्मुखं मुखं विदर्भाधिपसंभवा दधौ // 24 // अन्वयः-अथ सती-कुलस्य किमपि आभरणम् असी विदर्भाधिपसम्भवा निभृतस्मिता सती प्रकाशम् पुनः तदाभाषणविभ्रमोन्मुखम् मुखं आदधे / टीका-अथ स्वगतभाषणानन्तरम् सतीनाम् पतिव्रतानाम् कुलस्य गणस्य ( 10 तत्पु० ) किमपि अनिर्वचनीयम् आभरणम् आभूषणम् असौ विदर्भाणाम् विदर्भदेशस्य अधिपात् स्वामिनः !ष० तत्पु० ) साभवः उत्पत्तिः ( पं० तत्पू० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) दमयन्तीत्यर्थः निभृतम् गुप्तम् स्मितं मन्दहासः कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) सती प्रकाशम् स्फुटं यथा स्यात्तथा पुनः मुहुः तेन नलेन सह आभाषणम वार्तालापः ( तृ० तत्पु०) Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 395 एव विभ्रमः विलासः ( कर्मधा० ) तस्मिन् उन्मुखम् प्रवणम् उत्कमित्यर्थः ( स० तत्पु० ) मुखम् वक्त्रम् आदधे चक्रे कथितवतीत्यर्थः दूतं नलोऽयमिति बुद्ध्वा तेन सह सम्भाषणे आनन्दो जायते इति सविलासं वार्तालापं प्रावर्तयत्, देवेषु उत्तरदानं तु प्रासङ्गिकमेवासीदिति भावः // 24 // व्याकरण-आभरणम् आभ्रियतेऽङ्गम् अनेनेति आ+ /भृ+ ल्युट ( करणे) / स्मितम् /स्मि + क्त (भावे ) / उन्मुखम् उत् ऊवं मुखं यस्येति (ब० वी० ) / अनुवाद-तदनन्तर पतिव्रता-गण की अलौकिक भूषण-भूत वह विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती) चुपके से मुसकाये प्रकट रूप में फिर उस (दूत) के साथ संभाषण के विलास की ओर (निज) मुख को प्रवृत्त कर बैठी ( = बोली ) // 24 // टिप्पणी-पिछले श्लोक में तो दमयन्ती मन ही मन में बोली किन्तु अब प्रकट रूप में बोलने लगती है। जिससे सखियाँ भी सुन सकें लेकिन इसके साथ बोलने का मुख्य प्रयोजन देवताओं को प्रतिसंदेश देना नहीं है प्रत्युत आगन्तुक में नल का आभास होने के कारण उसके साथ बातें करने का स्वाद लेना है / प्रतिसंदेश कहना तो केवल प्रासंगिक और गौण बात है। 'सती' पद से कवि यह ध्वनित कर रहा है कि मनसा वह नल का वरण कर चुकी है; देवताओं के लिए उसके हृदय में कोई स्थान नहीं है, केवल अवज्ञा-मात्र है। यहाँ दमयन्ती पर आभरणत्व का आरोप होने से रूपक है। 'सती सती' तथा 'मुखं मुर्ख' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 24 // वृथापरीहास इति प्रगल्भता न नेति च त्वादृशि वाग्विगर्हणा। भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरादतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते // 25 // अन्वयः-बृथा परीहासः इति प्रगल्भता, 'न' 'न' इति वाक् च त्वाशि विगर्हणा, भवति अनुत्तर-दानात् च अवज्ञा भवति, अतः ते प्रतिवाचम् प्रदित्सुः अस्मि / टोका-वृथा व्यर्थः परीहासः त्वया अपरिचित-जनेन सह उपहासः इति एषा प्रगल्भता धृष्टता अस्ति, सखीजनः तथाविधेन त्वया सह तथा हास-प्रतिहासरतां मामवलोक्य कीदृशीयं धृष्टेति कथयिष्यतीत्यर्थः; 'न न' इति वाक् , त्वां Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंषधीयचरिते प्रति वारंवारं निषेधात्मकवाचः प्रयोगः स्वादृशि त्वत्सदृशे विगहंगा निन्दा अस्ति, भवति त्वयि पूज्ये न उत्तरस्य प्रतिवचनस्य दानात् वितरणात् च अवज्ञा तव देवानाञ्चापि तिरस्कारः भवति / अतः तस्मात् ते तुभ्यम् प्रतिवाचम् उत्तरम् प्रवित्सुः दातुमिच्छः अस्मि // 25 // व्याकरण-परीहासा परि + Jहस् घन् ( भावे ) 'उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्' 6 / 3 / 122 से उपसर्ग के इकार को विकल्प से दीर्घ / प्रगल्भता प्रगल्भस्य भाव इति प्रगल्भ + तल् + टाप् / प्रगल्भः प्रकर्षण गल्भते इति प्र+ गल्भ (धाय ) + अच् ( कर्तरि ) / त्वाशि युष्मत् + दृश् + क्विन् युष्मत् को त्वदादेश और आत्व / विगर्हणा वि + गर्ह + णिच् + युच् , यु को अन्, न को ण + टाप् (स्त्रियाम् ) / प्रदित्सुः प्र+ /दा + सन् + उ 'न लोकाव्यय०' (2 / 3 / 69) से षष्ठीनिषेध / __अनुवाद-"व्यथं का हास-परिहास (हो)-यह ( मेरी ) धृष्टता है; 'ना' 'ना' इस तरह कहते जाना तुम जैसे की भत्र्सना है और आपको उत्तर न देने से ( आपका) अपमान होता है, अतः मैं तुम्हें उत्तर देना चाहती हूँ" // 25 // टिप्पणी-ध्यान रहे कि त्वादृशि' और 'भवति' इन आदर-सूचक शब्दों के प्रयोग में दमयन्ती का यह भाव है कि मैं आपको जो उत्तर दे रही हूँ वह आपके कारण दे रही हूँ, क्योंकि आपके लिए मेरे हृदय में गौरव-भाव है इन्द्रादि के लिए नहीं, उन्हें मैं कोई महत्त्व नहीं देती, जो उन्हें उत्तर दूं। (इस सम्बन्ध में इसी सर्ग का श्लोक 9 भी देखिए। उत्तर देने का कारण बताने से काव्यलिङ्गालदार है / 'भवत्य''भवत्य' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 25 // कथं नु तेपां कृपयापि वागसावसावि मानुष्यकलाञ्छने जने / स्वभावभक्तिप्रवणं प्रतीश्वर: कया न वाचा मुदमुगिरन्ति वा // 26 // अन्वयः-मानुष्यक-लाञ्छने जने कृपया अपि तेषाम् असो वाक् कथम् न असावि ? वा ईश्वराः स्वभाव-भक्ति-प्रवणम् ( जनम् ) प्रति कया वाचा मुदम् उदगिरन्ति ? टीका-मनुष्यस्य भावः मानुष्यकम् मनुष्यत्वम् लान्छनं कलङ्कः (कर्मधा०) यस्य तथाभूते ( ब० वी० ) जने मयि भूलोकप्राणिनि कृपया अपि कृपाकारणात् Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 397 अपि इदं किं न स्यात् इत्यर्थः तेषाम् इन्द्रादीनाम् असौ एषा वाक् वचनम् अर्थात् अस्मान् वृणीष्वेति कथं न केन प्रकारेण असावि प्रसूता उत्पन्ना जातेत्यर्थी अहं तुच्छमानवयोन्युत्पन्नास्मि, मां प्रति वरणसंदेशप्रेषणं देवतानां सर्वथाऽनुचितमस्तीति भावः, अथवा विकल्पे ईश्वराः प्रभवः स्वभावेन प्रकृत्या भक्ती (तृ. . तत्पु० ) प्रवणम् नतम् स्वाभाविकभक्तिशीलम् इति यावत् ( स० तत्पु०) जनम् प्रति उद्दिश्य कया वाचा वाण्या मुवम् हर्षम् न उगिरन्ति प्रकटयन्ति ? प्रभवः भक्त्या प्रसन्नीभूय हर्षप्रकटनार्थम् यत्किञ्चित् कथयन्ति तत् उपचार मात्र भवति, न तु तात्त्विकम् / एवं इन्द्रादयोऽपि हर्षे तादृशम् अकथयन्, मवरणेन तेषां तात्पर्यम् तेषां देवत्वात् मम च मानुषीत्वादिति भावः // 26 // व्याकरण- मानुष्यकम् मनुष्य + वन (भावे) वु को अक / असाकि Vसू+लुङ् ( कर्मकर्तरि ) 'अचः कर्मकर्तरि' ( 3!162 ) से विकल्प से चिण् / ईश्वराः ईशते इति / ईश् + वरच् कर्तरि / प्रवणम् प्रकर्षण वणतीति प्र + Vवण + अच् ( कर्तरि ) / मुवम् मुद् + क्विप् ( भाबे ) द्वि० / अनुवाद-"मनुष्यत्व से दूषित हुए इस जन के ( = मेरे ) प्रति उन ( देवताओं ) में वैसी बात ( कि हमारा वरण करो) कैसे उत्पन्न हो गई, भले ही यह उनकी कृपा ही क्यों न हो? अथवा प्रभु लोग स्वभावतः भक्तिविनम्र जनके प्रति क्या-क्या न कहके हर्ष व्यक्त नहीं करते"? // 26 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि स्वामि-भक्ति से प्रसन्न हुए बड़े लोग अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए हँसी-मखौल में भक्तों को कुछ का कुछ बोल देते हैं। हमें उनके कहे के अक्षरार्थ की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। देवता लोग मेरे नमस्कार-योग्य कहाँ / विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जो हमारी समझ में नहीं आती। केवल 'नु' शब्द आ जाने मात्र से उत्प्रेक्षा नहीं बना करती, उसके लिए ठोस कल्पना होनी चाहिए। 'नु' शब्द 'कथम्' के साथ यहाँ प्रश्नवाचक ही है। हमारे विचार से पूर्वार्ध विशेष बात की उत्तरार्धगत सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से यहाँ अर्थान्तरन्यास है। 'लाञ्छने' 'जने' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'मुदमुद्रि' में छेक' अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 26 // . अहो महेन्द्रस्य कथं मयोचिती सुराङ्गनासंगमशोभिताभुतः / हृदस्य हंसावलिमांसलाश्रयो बलाकयेव प्रबला बिडम्बना // 27 // Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधीयचरिते अन्वयः-सुराङ्ग "भृतः महेन्द्रस्य हंसा'"श्रियः ह्रदस्य बलाकया इव मया प्रबला विडम्बना कथम् औचिती ? अहो ! टीका-सुराणां देवानाम् अङ्गनाः सुन्दर्यः (10 तत्पु०) शची-रम्भाप्रभृतयः तासां संगमेन सङ्गेन (10 तत्पू० ) शोभते लसतीति शोभी ( उपपद तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता ताम् बिभर्ति दधातीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) सुराङ्गनानां सङ्गमेन शोभमानस्येत्यर्थः महेन्द्रस्य सुरेन्द्रस्य हंसानां मरालानाम् आवल्या श्रेण्या मांसला मांसयुक्ता लक्षणया वृद्धि प्राप्तेत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) श्रीः शोभा ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) बलाकया एकया एव वकस्त्रिया इव ( एकया ) मया दमयन्या प्रबला प्रकृष्टं बलं यस्याः तथाभूता ( प्रादि ब० बी० ) महती विडम्बना उपहासास्पदता कथम् औचिती औचित्यम् अहो आश्चर्यम् ! अनेकहंसश्रेणीशोभितस्य सरोवरस्य एका बलाका यथा परीहास कारणं भवति तथैव अनेक-दिव्यसुन्दरीशोभितस्य इन्द्रस्यापि मया निमित्तेन परिहासः एव लोके स्यादिति महदनौचित्यमिति भावः / / 27 // __ व्याकरण--सुरा इसके लिए सर्ग 5 का श्लोक 43 देखिए / भृतः /भृ + क्विप् ( कर्तरि ) प० / मांसल मांसमस्यास्तीति मांस + लच् (मतुबर्थ) / ह्रद: यास्कानुसार 'ह्रादते' इति ह्राद् + अच् ( कर्तरि ) ह्रस्व निपातित / विडम्बना विडम्ब + णिच् + युच, यु को अन + टाप् / अनुवाद-“यह कैसे उचित हो सकता है कि सुराङ्गनाओं के संग शोभित होता हुआ इन्द्र मेरे कारण इस प्रकार बड़ी भारी विडम्बना-उपहास-प्राप्त कर बैठे जैसे हंस श्रेणी से अत्यन्त शोभा को प्राप्त हुआ सरोवर ( एक ) बगुली के कारण विडम्बना प्राप्त कर लेता है, आश्चर्य की बात है" // 27 // टिप्पणी-जैसे हंसों की अपेक्षा बलाका हीन होती है, उसी तरह देवलोक की उर्वशी आदि सुन्दरियों के आगे मैं भी कुछ नहीं हूँ। इसलिए मेरे साथ इन्द्र का योग एक विडम्बना-मात्र है, उस का अपना महान् उपहास है। यहाँ इन्द्र की ह्रद के साथ तुलना की गई है, किन्तु ध्यान रहे कि यहाँ दोनों के धर्म भिन्न-भिन्न होने पर भी दृष्टान्तालंकार की तरह उनका परस्पर बिम्बप्रतिबिम्बभाव हो रहा है, अत: उपमा ही है। 'बला' 'वला' में यमक, 'भिताभृतः' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है // 27 // Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः पुरः सुरीणां भण केव मानवी न यत्र तास्तत्र तु शोभिकापि सा। अकाञ्चनेऽकिंचन नायिकाङ्गके किमारकूटाभरणेन न श्रियः / / 28 // अन्वयः-सुरीणाम् पुरः मानवी का इव भण। यत्र ताः न ( भवन्ति) तत्र तु सा अपि शोभिका। अकाञ्चने अकिंचननायिकाङ्गके आरकूटाभरणेन श्रियः किम् न ( भवन्ति ) ? टीका-सुरीणाम् सुराङ्गनानाम् पुरः अग्रे तदपेक्षयेत्यर्थः मानवी मानुषी स्त्री का इवेति वाक्यालंकारे भण कथय न कापीति काकुः, देवाङ्गनानां तुलनया मानवलोकस्त्री तुच्छेवास्तीति भावः / यत्र यस्मिन् स्थाने ताः सुर्य न भवन्तीति शेषः तत्र तस्मिन् स्थाने तु सा मानवी अपि शोभिका शोभायुक्ता भवति शोभते इत्यर्थः 'निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि गुमायते' इति न्यायात्, न काञ्चनं काञ्चनाभरणमित्यर्थः यस्मिन् तथाभूते ( ना ब० बी० ) अकिञ्चनस्य दरिद्रस्य नायिकायाः स्त्रियाः अङ्गे एवाङ्गके हस्ताद्यवयवे ( उभयत्र ष० तत्पु० ) आरकूटस्य रीतेः 'पित्तल' इति भाषायां प्रसिद्धस्य विकारः आरकूटम् ('रीतिः स्त्रियामारकूट म्' इत्यमरः ) च तत् आभरणं भूषणं तेन ( कर्मधा० ) श्रियः शोभाः कि न भवन्तीति शेषः अपि तु भवन्त्येवेति काकुः / यथा सुवर्णालंकाराभावे आरकूटालंकारेणैव दरिद्रस्य भार्या शोभते, तथैव भूलोके सुर-सुन्दरीणाम् अभावे एव ममापि शोभा स्यान्नाम / सुरसून्दर्यपेक्षया सौन्दर्येऽहं सुतरां हीना, किन्तु भूलोकीयान्यस्त्रीणामपेक्षया एवाहं सुन्दरी अस्मीत्यहं भूलोकीयानामेव योग्या, न पुनः स्वर्गलोकीयाना मिति भावः / / 28 // व्याकरण-सुरीणाम् सुराणां स्त्रियः इति सुर + डीप् ( पुंयोगे)। सुर के लिए पीछे सर्ग 5 श्लोक 34 देखिए। मानवी मनोरपत्यं स्त्री इति मनु + अण् + डीप् / शोभिका शोभते इति /शुभ् + ण्वुल + टाप् / अकिञ्चन न किञ्चन धनादिकं यस्येति मयूरव्यंसकादित्वात् समास / अङ्गके अङ्गे + क (स्वार्थे ) / आरकूटम् आरकूट + अण ( विकारार्थ ) / अनुवाद-“बोलो, देवाङ्गनाओं के आगे मानवी क्या है ? (कुछ भी नहीं), किन्तु जहाँ वे नहीं हैं, वहाँ ( भूलोक में ) वह ( मानवी ) भी शोभा पा लेती है। अकिञ्चन पुरुष की स्त्री के अङ्ग में सोने का गहना नहीं होता, तो क्या पीतल के गहने से उसकी शोभा नहीं होती ?" // 28 // Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 नैषधीयचरिते टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि मानवी की देवियों से क्या तुलना। फिर भी न जाने इस इन्द्र को क्या हो गया है कि जो मुझ मानवी के पीछे मर रहा है भले ही मैं भूलोक की मानवियों में सुन्दर हूँ किन्तु स्वर्गलोक की अप्सरा-जैसी नहीं हूँ। 'यहाँ विद्याधर और मल्लिनाथदोनों दृष्टान्तालंकार कह रहे हैं, क्योंकि पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दोनों वाक्यों में परस्पर बिम्वप्रतिबिम्बभाव हो रहा है / 'काञ्चनेऽकिञ्चन' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / / 28 // यथा तथा नाम गिरः किरन्तु ते श्रुती पुनमें बधिरे तदक्षरे / पृषत्किशोरी कुरुतामसंगतां कथं मनोवृत्तिमपि द्विपाधिपे // 29 // अन्वयः-ते यथा-तथा गिरः किरन्तु नाम, पुनः मे श्रती तदक्षरे बधिरे ( स्तः ) / पृषत्किशोरी द्विपाधिपे असंगताम् मनोवृत्तिम् अपि कथम् कुरुताम् ? टीका-ते इन्द्रादिदेवाः यथा-तथा येन तेन प्रकारेण गिरः वाचः किरन्तु प्रक्षिपन्तु नामेति कथञ्चिदर्थे; पुन: किन्तु मे मम श्रुती को तेषाम् देवानाम् अक्षरे एकस्मिन्नपि वर्णे (10 तत्पु०) बधिरे एडे श्रवणसक्तिरहिते इत्यर्थः स्तः, मे कौँ प्रणयनिवेदनविषयकम् तेषाम् एकमपि शब्दम् श्रोतुं न शक्नुतः इति भावः / पृषतः मृगस्येति यावत् (पृषच्च पृशतो बिन्दो कुरङ्गेऽपि च कीर्तितः' इतिविश्वः ) किशोरी नवयुवतिः (10 तत्सु० ) द्विपानां हस्तिनाम् अधिपे स्वामिनि गजपतेरिति यावत् (10 तत्पु० ) असंगताम् अयुक्ताम् मनसः वृत्तिम् भावम् मनोऽभिलाषमित्यर्थः (10 तत्पु० ) अपि कथम् केन प्रकारेण कुरुताम् करोतु न केनापीति काकुः / यथा मृगकिशोरी राजानमपि सन्तं गजम् नाभिलषति तथेवाहमपि देवानां राजानं सन्तमपि इन्द्रं वरुणादिकं चापि नाभिलषामीति भावः // 29 व्याकरण-श्रुती श्रूयते आभ्यामिति /श्रु + तिन् ( करणे ) द्विपः द्वाभ्याम् (शुण्ड-मुखाभ्याम् ) पिबतीति द्वि +/पा + क ( कर्तरि ) अधिपः अधिकं पातीति अधिक + /पा+कः / अनुवाद-"वे ( देवता लोग ) भले ही जैसे-तैसे जो भी शब्द कहें, कहें, किन्तु मेरे कान उनका अक्षर शब्द सुनने को बहिरे हुए बैठे हैं। मृग-किशोरी गजराज के विषय में इच्छा तक भी कैसे करे ?" // 29 // Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सगः 4.1 टिप्पणी-यहाँ पूर्व श्लोक की तरह पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के दोनों वाक्यों में परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होने से दृष्टान्त ही है। अपि शब्द से अर्थापत्ति भी बन रही है। यथा-तथा में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 29 // अदो निगद्यैव नतास्यया तया श्रुतौ लगित्वाभिहितालिरालपत् / / प्रविश्य यन्मे हृदयं ह्रियाह तद्विनिर्यदाकर्णय मन्मुखाध्वना / 30 / / अन्वयः-अदः निगद्य एव नतास्यया तया श्रुतो लगित्वा अभिहिता आलि: अलपत्-"(इयम् ) ह्रिया मे हृदयम् प्रविश्य यत् आह, तत् मन्मुखाध्वना विनियंत् आकर्णय / " टाका--अदः इदम् निगद्य कथयित्वा एव नतम् अवनतम् आस्यम् मुखम् ( कर्मधा०) यस्यास्तथाभूतया (ब० वी ) लज्जया नम्रमुख्या तया दमयन्त्या श्रुतौ कर्णे लगित्वा कर्ण निकटे भूत्वेत्यर्थः अभिहिता उक्ता आलि: सखी अलपत् अगदत्-'इयम् एषा मे सखी दमयन्ती ह्रिया लज्जया मे मम हृदयम् मानसम् प्रविश्य प्रवेशं कृत्वा यत् आह कथयति तत् मम मुखम् वक्त्रम् ( 10 तत्पु० ) एव अध्वा मार्गः तेन ( कर्मधा० ) मन्माध्यमेन विनियंत् विनिर्गच्छत् आकर्णय शृणु, लज्जावशात् स्वमुखेन स्वयं कथयितुमशक्ता मन्मुखेन कथयतीति भावः // 30 // व्याकरण-अवः अदस् शब्दका नपुं० द्वि० एकवचन / आस्यम् अस्यते (प्रक्षिप्यतेऽन्नादि ) अत्रेति /अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / अभिहिता अभि + घा + क्त, धा को हि / विनियंत् वि + निर् + Vइ + शतृ नपुं० द्वि० / अनुवाद-यह कहकर ही सिर नीचे किये उस ( दमयन्ती) के द्वारा कान से लगकर कही गई सखी बोली-“लज्जा के कारण मेरे हृदय में प्रविष्ट हो यह जो बोलती है, उसे मेरे मुख-मार्ग से निकलता हुआ सुनो // 30 // टिप्पणी-यह बेचारी लज्जा के मारे स्वयं तो कुछ नहीं कह सक रही है। कानाफूसी करके मेरे मन में अपने मन की रहस्यात्मक बात इसने रख दी है उसे ही मैं दोहरा रही हूँ। इसमें मेरी अपनी कल्पित बात कोई नहीं है" विद्याधर 'अत्र छेकानुप्रासोऽलंकारः' कह रहे हैं, लेकिन हमें वह कहीं नहीं Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 नैषधीयचरिते दीख रहा है / हाँ, 'स्यया तया' में तुक मिलने से पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अवश्य है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास ही है // 30 // बिभेमि चिन्तामपि मर्तुमीदृशीं चिराय चित्तार्पितनैषधेश्वरा / मृणालतन्तुच्छिदुरा सतीस्थितिलंवादपि त्रुटयति चापलात्किल / / 31 / / - अन्वयः-चिराय चित्तापित-नैषधेश्वरा ( अहम् ) ईदृशी चिन्ताम् अपि कर्तुम् बिभेमि, किल मृणाल-तन्तु-च्छिदुरा सती-स्थितिः लवात् अपि चाफ्लात् त्रुट्यति / ___टोका-चिराय चिरकालात् आरभ्य चित्त मनसि अर्पितः स्थापितः ( स० तत्पु० ) नैषधः निषधदेशसम्बन्धी चासो ईश्वरः प्रभुः ( उभयत्र कर्मधा० ) नल इत्यर्थः यया तथाभता ( ब० वी० ) अहम् ईदृशीम् एवंविधाम् इन्द्रादिवरणविषयिणीमिति यावत् चिन्ताम् विचारम् अपि कर्तुम् विधातुम् बिभेमि त्रस्यामि दूरे तिष्ठतु तावत् शारीरिकसम्बन्धः, नलातिरिके इन्द्रादी मानससम्बन्धमपि कर्तु नाहं शक्नोमि इत्यर्थः किल यतः मृणालस्य विसस्य तन्तुः सूत्रम् (10 तत्पु० ) तद्वत् छिदुरा भंगुरा ( उपमान तत्पु० ) सत्याः पतिव्रतायाः स्थितिः मर्यादा (10 तत्पु० ) लवात् अल्पात् अपि चापलात् चाञ्चल्यात् त्रुटयति भग्ना भवति / परपुरुषविषये ईषदपि मनसि विचारणे सतीत्वव्रतभङ्गो भवतीति भावः // 31 // व्याकरण-नैषधः निषघानाम् अयमिति निषध + अण् / ईदृशीम् इदम् + दृश् + क्विन् + ङीष् / छिदुरा छिद्यते इति /छिद् + कुरच् ( कर्मकर्तरि ) / कर्तु बिभेमि यद्यपि शक्-धुष आदि (3 / 4 / 64 ) जिन धातुओं के उपपद रहते तुमुन् का विधान है, उनमें भी नहीं आया हुआ है, तथापि कवि ने यहाँ तुमुन् कर ही दिया है। अन्य कवियों ने भी ऐसा कर रखा है जैसे कालिदास "एनां चित्रगतामपि दुष्टुन ददाति दैवम्' ( शकु० ) में दाधातु के साथ तुमुन् किया है लवादपि यद्यपि लव शब्द साधारण रूप से विशेष्य ही रहता है, तथापि कहीं-कहीं विशेषण भी बन जाता है। इसीलिए सरस्वतीकण्ठाभरणकार ने इसे विशेषण बनाकर क्रियाविशेषणरूप में भी प्रयुक्त कर रखा है, जैसे'लवमपि लवंगे न रमते'। ___ अनुवाद-"[ यहाँ से लेकर दमयन्ती की ओर से सखी बोल रही है ] चिरकाल से निषध-नरेश को मन में स्थापित किये हुए मैं ऐसी ( इन्द्रा Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः दिवरण सम्बन्धी ) बात का विचार तक करने से डरती हूं।' कारण कि मृणाल सूत्र की तरह (क्षण में ही) टूट पड़ने वाली सतीत्व-मर्यादा थोड़ी-सी भी चञ्चलता से भंग हो जाती है / / 31 // टिप्पणी-नल दमयन्ती के मन के भीतर कभी से बैठे हुए हैं। उसमें दूसरे के विचार के लिए स्थान ही कहाँ है ? दूसरे का विचार तक लाने में पातिव्रत्य की मर्यादा भंग हो जायगी मृणाल-तन्तु को जरा छुओ भी अथवा हिलाओ भी तो तत्क्षण ही तड़क कर टूट जाया करती है। यही हाल पातिव्रत्यमर्यादा का भी है / लेकिन प्रश्न किया जा सकता है कि जब नल के साथ अभी पाणि-ग्रहण ही नहीं हुआ है तो पातिव्रत्य कैसे? नहीं, ऐसी बात नहीं। पाणि-ग्रहण आदि शारीरिक विधि-विधान तो उपचार-मात्र होता है। असली बरण तो मानसिक ब्यापार-मनका अर्पण है, जहाँ से पातिव्रत्य की सीमा आरम्भ हो जाती है। जब से दमयन्ती नल को अपना मन दे बैठी है, तब से वे उसके पति हो गए हैं। अब परपुरुष का विचार तक मन में लाते ही पातिव्रत्य-भंग का भय स्वाभाविक ही है। सतीस्थिति की मृणालतन्तु के साथ तुलना करने से उपमा है, किन्तु विद्याधर हेतु अलंकार भी कह रहे हैं लेकिन हमारे विचार से काव्यलिंग है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 31 // ममाशयः स्वप्नदशाज्ञयापि वा नलं विलक्यतरमस्पृशद्यदि ! कुतः पुनस्तत्र समस्तसाक्षिणी निजैव बुद्धिर्विबुधैर्न पृच्छयते // 32 // __ अन्वयः-वा मम आशयः स्वप्नदशाज्ञया अपि नलम् विलङ्घय इतरम् यदि अस्पृशत्, ( तर्हि ) तत्र विबुधैः समस्त-साक्षिणी निजा बुद्धिः एव कुतः पुनः न पृच्छयते? ___टीका-वा अथवा मम मे आशयः अभिप्रायः, मनोवृत्तिः मन इतियावत् स्वप्नस्य निद्रायां जायमानस्य अनुभवस्य या दशा अवस्था तस्या आज्ञया आदेशेन अपि स्वप्नावस्थापारवश्येनेत्यर्थः नलम् विलय विहाय इतरम् पुरुषम् यदि अस्पृशत् सम्पर्कमकरोत् तहि तत्र तस्मिन् विषये विबुधैः देवैः इन्द्रादिभिः समस्तस्य सकललोकवृत्तान्तस्य साक्षिणी साक्षात्कारिणी (ष० तत्पु० ) हस्तामलकवत् सकलजगद्-द्रष्ट्रीत्यर्थः निजा स्वीया बुद्धिः धीः एव कुतः कस्मात् Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते पुनः न पृच्छयते अनुयुज्यते सकलजगद्-द्रष्ट देवतानां मनः स्वयं जानात्येवाहं नलातिरिक्तं कमपि पुरुषं स्वप्नेऽपि नापश्यमिति भावः // 32 // व्याकरण-आशयः आशेते इति आ + /शी + अच् ( कर्तरि ) / स्वप्नः स्वप् + नक् / साक्षिणी साक्षात् द्रष्ट्रीति साक्षिन् + डीप ( 'साक्षाद् द्रष्टरि संज्ञायाम्' 5 / 2 / 91 ) सह + अक्ष + इ + डीप / - अनुवाद--अथवा मेरे मनोभाव (विचार ) ने स्वप्नावस्था की आज्ञा तक से भी नल को छोड़ यदि अन्य (पुरुष ) का स्पर्श नहीं किया है तो इस सम्बन्ध में देवता लोग सर्व ( जगत् ) साक्षी अपनी बुद्धि को ही फिर क्यों नहीं पूछ लेते ?" // 32 // टिप्पणी-देवता लोग सर्वज्ञ होते हैं। वे स्वयं जान ही रहे हैं कि दमयन्ती ने अपना मन नल को अर्पित कर रखा है फिर न जाने वे क्यों प्रणयनिवेदन कर रहे हैं विद्याधर हेत्वलंकार कह रहे हैं / 'बुद्धिविबुधै' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 32 // अपि स्वमस्वप्नमसूषुपन्नमी परस्य दाराननवैतुमेव माम् / स्वयं दुरध्वार्णवनाविकाः कथं स्पृशन्तु विज्ञाय हृदापि तादृशीम् // 33 // अन्वयः-अमी माम् परस्य दारान् अनवैतुम् एव अस्वप्नम् अपि स्वम् असूषपन् / स्वयम् दुरध्वार्णव-नाविकाः ( सन्तः ) तादृशीम् विज्ञाय हृदा अपि कथम् स्पृशन्तु ? टीका-अमी एते इन्द्रादयो देवाः माम् परस्य अन्यस्य नलस्येत्यर्थः दारान् स्त्रियम् अनवैतुम् अज्ञातुम् एव न स्वप्नः स्वापः यस्य तथाभूतम् ( नन् ब० वी० ) अपि स्वम् आत्मानम् असूषुपन् अनिद्रापयन् निद्रितमकुर्वन्नित्यर्थः निनिद्रम् अपि आत्मानम् सनिद्रमकुर्वन्निति यावत् / ( अन्यथा ) स्वयम् आत्मनैव दुष्ट: अध्वा दुरध्वः ( प्रादि स०) कुमार्गः परदाराभिलाषादिकं पापमित्यर्थः एव अर्णवः सागरः ( कर्मधा० ) तस्य नाविकाः कर्णधारास्सन्तः तादृशीम् नलाय समर्पितमनस्काम् परस्त्रीम् माम् विज्ञाय ज्ञात्वा हृदा मनसा अपि कथम केन प्रकारेण स्पृशन्तु स्पृशेयुः परस्त्रियम् मां वरीतुं कथं मनसापि विचारं कुर्वन्त्विति भावः परान् पापेभ्यो निवारयितारो देवाः स्वयं पापमाचरितुमिच्छन्त्विति महदनुचितमिति निष्कर्षः / / 33 // Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 नवमः सर्गः व्याकरण-दारान्-इसके लिए सर्ग 8, श्लोक 60 देखिए। अनवेतुम् न+ अव/इ + तुमुन् / स्वप्न: / स्वप् + नक् / असूषुपन् /स्वप् + णिच् + लङ् सम्प्रसारण / दुरध्वः दुर् + अध्वन् + समासान्त अच् ( उपसर्गादध्वनः 5 / 4 / 85) / अर्णवः अर्णासि ( जलानि ) अस्मिन् सन्तीति अर्णस् +व, सलोप / नाविकाः नावा तरन्तीति नौ + ठन् / अनुवाद-"ये ( देवता ) मुझो दूसरे ( = नल ) की स्त्री बनी हई न जानने हेतु ही निद्रा-रहित होते हुए भी अपने आपको सुला बैठे हैं ( अन्यथा) कुमार्ग-रूपी समुद्र से तराने वाले होते हुए भी वे उस तरह (परस्त्री बनी) मुझे जानकर मन तक से भी छूने का विचार कैसे कर सकते ?" // 33 // टिप्पणी-पुराणों के अनुसार आँखें न झपकना, छाया न पड़ना आदि धर्मों की तरह देवता सोते भी नहीं हैं, सदा जागृत रहते हैं। वे जानते हैं कि दमयन्ती ने हृदय से नल को वर लिया है किन्तु वे जान बझ कर सो गये हैं जिससे कि उन्हें दमयन्ती द्वारा मनसा नलवरण का ज्ञान न हो और इस तरह . वे उसके कामुक बनने के योग्य हो गए, नहीं तो क्या बात है कि जो देवता लोगों को पाप-भार्ग से बचाया करें, वे उल्टे स्वयं परस्त्री का विचार मन में बुलाकर पाप की ओर बढ़ जाय / दुरध्व पर अर्णवत्वारोप होने से रूपक है। विद्याधर विरोध और हेत्वलंकार भो कह रहे हैं। विरोध यह है कि पाप से रक्षा करने वाले स्वयं पाप करने लग जाते हैं / "नवै' 'नावि' में छेके, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 33 // अनुग्रहः केवलमेव मादृशे मनुष्यजन्मन्यपि यन्मनो जने। स चेद्विधेयस्तदमी तमेव मे प्रसद्य भिक्षां वितरीतुमीशताम् // 34 // अन्वयः-मनुष्यजन्मनि अपि मादृशे जने, यत् मनः ( वर्तते ), एष केवलम् अनुग्रहः स विधेयः चेत्, तत् अमी प्रसद्य मे तम् एव भिक्षाम् वितरीतुम् ईशताम् / टीका-मनुष्यान् जन्म उत्पत्तिः (ष० तत्पु० ) यस्य तथाभूते (ब० वी० ) अपि मादृशे मत्सदृशे जने व्यक्ती दमयन्त्यामित्यर्थः यत् तेषां मनः चित्तम् वर्तते, एष केवलम अनुग्रहः कृपा एव न तु अनुरक्तत्वम् ममायोग्यत्वादित्यर्थः / सः तनुग्रहः विधेयः कार्यश्चेत् तत् तर्हि अमी एते इन्द्रादयः प्रसद्य प्रसन्नीभूय मे Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.6 नैषधीयचरिते मह्यम् तम् नलम् एव भिक्षाम् अर्थनाम् वितरीतुम् दातुम् ईशताम् ईश्वरा! समर्थाः इति यावत् भवन्तु जायन्ताम् / मयि देवानां मनोवर्तनं तेषां महती कृपास्ति, किन्तु सा कृपा तेषां मह्यं पतिरूपेण नलदानात्मिका भवेत् न पुनः मयि स्वयमनुरक्तत्वात्मिकेति भावः // 34 // व्याकरण-मादृशे अस्मत् + V दृश् + कन्, अस्मत् को मदादेश, और आत्व / अनुग्रहः अनु + V ग्रह + अप् / विधेयः वि + Vधा + यत् / प्रसध प्र+/सद् + ल्यप् / भिक्षाम् /भिक्ष + अ + टाए / वितरीतुम् वि + + तुम्, गुण, विकल्प से इ को दीर्घ / ईशताम् / ईश् + लोट् + ब० ब०। अनुवाद-"मानुषी-रूप में उत्पन्न होते हए भी मेरे-जैसे व्यक्ति पर जो ( देवताओं के ) मन का लगाव है, यह केवल उनकी कृपा है। यदि वह कृपा उन्हें करनी है, तो वे प्रसन्न होकर मुझे उन ( नल ) को भीख-रूप में देने योग्य बनें // 34 // टिप्पणी-देवताओं के मन का झुकाव मेरी ओर अनुराग के रूप में नहीं होना चाहिये, किन्तु भक्त के प्रति ऐसी कृपा के रूप में होना चाहिये जिससे वे मेरी नल-विषयक अभिलाषा पूरी कर दें। विद्याधर के शब्दों में 'अत्र हेत्वलंकारः'। हमारे विचार से नल पर भिक्षात्वारोप में रूपक है। 'जन्म यन्म' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास 'तुमी' 'तान्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 34 // अपि द्रढीयः शृणु मत्प्रतिश्रुतं स पोडयेत्पाणिमिमं न चेन्नृपः। हुताशनोद्बन्धनवारिकारितां निजायुषस्तत्करवै स्ववैरिताम् // 35 // अन्वयः-अपि (च) ( त्वम् ) द्रढीयः मत्प्रतिश्रुतम् शृणु / स नृपः इमम् पाणिम् चेत् न पीडयेत् तत् हुता'"रिताम् निजायुषः स्ववैरिताम् करवै / टीका-अपि किञ्च, ( त्वम् ) द्रढीयः अतिशयेन दृढम् मम प्रतिश्रुतम् प्रतिज्ञातम् प्रतिज्ञामित्यर्थः शृणु आकर्णय / स नृपः राजा नलः इमम् एतम् मम पाणिम् करम् चेत् यदि न पीडयेत् न गृह्णीयात् मत्पाणिपीडनम् मया सह विवाह न कुर्यादिति यावत् , तत् तहि हुताशनः वह्निश्च उद्बन्धनम् उपरि वृक्षशाखादी पाशेन गलं बद्ध्वा श्वासावरोधनम् च वारि जलञ्चेति तैः ( द्वन्द्व ) कारिताम् कतुं प्रेरिताम् जनितामिति यावत् निजस्य स्वस्य आयुषः जीवितस्य स्वेन आत्मना वैरिताम् शत्रुताम् करवे करवाणि / स्वेच्छया वा ग्रहगत्या वा अदृष्टेन Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 नवमः सर्गः वा नलेन सहानिष्पन्ने पाणिग्रहणे अहं वह्नी वा जले वा शरीरं प्रक्षिप्य गलपाशेन बद्ध्वा वा आत्मघातं करिष्ये इति भावः // 35 // व्याकरण-द्रढीयः अतिशयेन दृढमिति दृढ + ईयसुन् , ऋ को र / प्रतिश्रुतम् प्रति +/ 0 + क्त ( भावे)। हुताशनः अश्नातीति/ अश्+ ल्यु ( कतरि ) अशनः हुतस्य हवीरूपेण दत्तस्य अशनः भक्षकः / कारिता/कृ+ णिच् + क्त + टाप् द्वि० / यहाँ अल्पाच्तरम्' (2 // 2 // 34 ) नियम से द्वन्द्व में 'वारि' पहले आना चाहिये था। अनुवाद-इसके अतिरिक्त मेरी दृढ़ प्रतिज्ञा सुनो। वे नरेश ( नल ) यदि मेरा पाणि-ग्रहण नहीं करेंगे तो मैं अग्नि, गल-पाश या जल द्वारा स्वयं अपने प्राणों की शत्रु बन जाऊँगी / / 35 // टिप्पणी-किसी कारण वश नल के साथ विवाह न होने पर दमयन्ती आत्मघात करने की प्रतिज्ञा कर बैठी है। वह या तो आग में कूद बैठेगी, या जल में छलांग मार देगी या फिर गले में फांस लगा देगी। नल के बिना वह कभी नहीं जीयेगी। 'वारि' 'कारि' में तुक मिलने से पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'कारि' 'कर' में छेक अन्यत्र वृत्यनुप्रास है // 35 // निषिद्धमप्याचरणीयमापदि क्रिया सती नावति यत्र सर्वथा / धनाम्बुना राजपथे हि पिच्छिले क्वचिबुधैरप्यपथेन गम्यते // 36 // अन्वयः-यत्र आपदि सती क्रिया सर्वथा (आत्मानम् , न अवति, (तत्र ) निषिद्धम् अपि आचरणीयम् , हि राजपथे घनाम्बुना पिच्छिले ( सति ) बुधैः अपि क्वचित् अपथेन गम्यते / ___टीका-यत्र यस्याम् मापदि संकटे सती साध्वी शास्त्रानुमतेत्यर्थः क्रिया कार्यम् सर्वथा सर्वप्रकारेण केनापि प्रकारेणेति यावत् आत्मानम् न अवति रक्षति अर्थात् यस्मिन् संकटे आपतिते कथमपि जीवनरक्षा न संभवति, तत्र तस्मिन् संकटे निषिद्धम् प्रतिषिद्धम् अपि कायम आचरणीयं करणीयतामाफ्ततीत्यर्थः / आत्मघातोऽनुचितो निषिद्धश्चास्ति तथापि प्राणसंकटकाले सोऽनुमन्यते एवेति भावः / हि यस्मात् राज्ञः पन्थाः इति राजपथः तस्मिन् (10 तत्पु०) राजमार्गे घनम् सान्द्रम् यत् अम्बु जलम् तेन (कर्मधा० ) अथवा घनस्य मेधस्य अम्बुना (10 तत्पु० ) पिच्छिले पङ्किले सति बुधैः पण्डितैः अपि किं पुनः साधारणजनैः Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 नैषधीयचरिते क्वचित कुत्रचित् स्थाने अथवा समये अपथेन कुमार्गेण गम्यते चल्यते / राजमार्गों यदि पंक-पूर्णो दुर्गमश्च स्यात् तहि अगतिकगत्या विद्वांसः कुमार्गेणापि गच्छन्तो न दुष्यन्तीति भावः / / 36 // व्याकरण-आपद् आ + /पद् + क्विप् ( भावे ) क्रिया कृ + श, रिङ् आदेश, इयङ + टाप / पिच्छिले पिच्छ + इलच / अपथेन न + पथिन् + समासान्त (विकल्प से, अन्यथा अपन्थाः ) और नपुं० / गम्यते ( भाववाच्य ) / अनुवाद--जहाँ संकट आ पड़ने पर अच्छा काम रक्षा नहीं करता हो, तो वहाँ निषिद्ध काम भी करना पड़ जाता है। कारण कि राजमार्ग के मेघ-जल से फिशलन वाला बन जाने पर विद्वान् लोगों तक को भी कभी-कभी गलत राह से जाना पड़ता है / / 36 // टिप्पणी-दमयन्ती के आत्मघात की बात से शंका हो सकती है कि आत्मघात तो बड़ा निषिद्ध काम है, महापाप है। वेद में लिखा हुआ है'अन्धंतमः प्रविशन्ति ये के चात्महनो जनाः' अर्थात् आत्मघाती घोर नरक जाते हैं / वात तो ठीक है किन्तु जब प्राणों पर आ पड़ती है तो वैसी परिस्थिति में लाचार होकर आत्मघात पर उतारू होना ही पड़ता है। नल के बिना दमयन्ती पर काम-वेदना का कितना महान संकट अचिकित्सितव्य रोग है। प्राणत्याग ही उसका प्रतीकार हो सकता है और नहीं इसी लिए ऐसे ऐसे अचिकित्स्य असाध्य रोगों से छुटकारा पाने हेतु शास्त्रों ने भृगुपात आदि द्वारा आत्मघात की अनुमति दे रखी है, देखिए मनु-'अपराजितां वास्थाश्र व्रजेद्दिशमजिह्मगः / आनिपाताच्छरीरस्य युक्तो वार्य निलाशनः' ( 6 / 32) विद्याधर ने यहाँ अर्थान्तरन्यास कहा है, क्योंकि दमयन्ती द्वारा आत्मघात की विशेष बात को उत्तराध गत सामान्य बात से समर्थन किया जा रहा है, लेकिन मल्लिनाथ दोनों बातों को विशेष ही मानकर उनके बिम्बप्रतिबिम्वभाव में दृष्टान्त कह रहे हैं। हमारे विचार से तो उत्तरार्ध गत बात सामान्य ही है। अपि शब्द से औरों का तो कहना ही क्या-यह अर्थ निकलने से अर्थापत्ति है। ‘पथे' 'पथे' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / / 36 // स्त्रिया मया वाग्मिषु तेषु शक्यते न जातु सम्यग्वितरीतुमुत्तरम् / तदत्र मद्भाषितसूत्रपद्धती प्रबन्धृतास्तु प्रतिबन्घृता न ते // 37 / / Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 409 अन्वयः-वाग्मिषु तेषु स्त्रिया मया सम्यक् उत्तरम् वितरीतुम् जातु न शक्यते, तत् अत्र मद्भाषित-सूत्र-पद्धती ते प्रबन्धृता अस्तु प्रतिबन्धृता तु न ( अस्तु ) / टीका-वाग्मिषु बावदूकेषु अतिवक्तृष्विति यावत् तेषु इन्द्रादिषु स्त्रिया अबलया मया दमयन्त्या सम्यक् सन्तोषजनकतया विस्तरेणेति यावत् यथास्यातथा उत्तरं प्रतिवाचिकम् वितरीतुम् दातुम् जातु कदाचिदपि न शक्यते न प्रभूयते, संयतया वाचा स्त्रीजातीयया मया सुवानिपुणान् देवान् प्रति प्रतिसन्देशरूपेण बहु वक्तुं न पार्यते इत्यर्थः, तत् तस्मात् अत्र अस्याम् मम भाषितानि कथितानि ( 10 तत्पु० ) एव सूत्राणि सारभूतानि संक्षिप्तवाक्यानि ( कर्मधा० ) तेषां पद्धती पडक्त्याम् (10 तत्पु० ) ते तव प्रबन्धृता प्रबन्धकर्तृत्वम् भाष्यकारित्वमिति यावत् अस्तु, प्रतिबन्धृता प्रतिबन्धकत्वम् दूषकत्वमित्यर्थः तु न अस्तु मया सूत्र-रूपेण यत्किञ्चिदुक्तम् , तत् विस्तरशः देवेषु प्रतिपाद्य मम नलवरणकार्ये अनुकूलो भवेति भावः / / 37 // व्याकरण-वाग्मिष वाक एषामस्तीति वाच् + ग्मिनि ( मतुबर्थ ) / वितरीतुम् वि + Vतृ + तुमुन् , विकल्प से इ को दीर्घ / पद्धतो पद्भयां हन्यते ( गम्यते ) इति पद + हनु + तिन् ( कर्मणि ) / प्रबन्धुता प्रबध्नातीति प्र + Vबन्ध् + तृच = प्रबन्द्धा, तस्य भाव इति प्रबन्धु + तल् + टाप् / प्रतिबद्धता प्रबन्धृता की तरह ही व्युत्पत्ति है / अनुवाद-“वाक-पटु इन ( देवताओं ) को स्त्री जातिकी मैं अच्छी तरह उत्तर कदापि नहीं दे सकती हूँ, इसलिए सूत्र-रूप में बातों का सिलसिला जो मैंने कहा है, उसका तुम प्रबन्धकार ( भाष्यकार ) बन जाना किन्तु प्रतिबन्धक ( विरोधी ) न बनना // 37 // टिप्पणी --दमयन्ती के कहने का यह भाव है कि स्त्रियां मितवाक् हुआ करती हैं इसलिये देवताओं के विस्तृत संदेशों का उत्तर विस्तृतरूप में मैं कैसे दूँ। सूत्र-रूप में ही उत्तर दे रही हूँ, जिसका भाष्य अथवा विस्तृत विवरण तुम्हें ही करना होगा। सूत्र सार-भूत संक्षिप्त वाक्य को कहते हैं, जिसका लक्षण यों कर रखा है-"स्वल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् / अस्तोममनवा च सूत्रं सूत्रविदो विदुः / " व्याकरण, छन्द, दर्शन आदि ग्रन्थ मूलरूप से सूत्रों में ही Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. नैषधीयचरिते हैं बाद को उन पर भाष्य किये गये हैं। भाष्यकार सूत्रों का ही विवरण और समर्थन करते हैं न कि खण्डन अथवा दोषारोपण / इसी तरह हे दूत तुम भी देवताओं के आगे मेरी थोड़े ही शब्दों में कही बातों का विवरण देते हुए, समर्थन ही करना, मेरे विरोध में न बोलना / यहाँ भाषित पर सूत्रत्वारोप होने से रूपक है। 'तरी' 'तरम्' में छेक बन्दधृता 'बन्दधृता' में यमक अन्यत्र वृत्यनुप्रास है // 37 // निरस्य दूतः स्म तथा विजितः प्रियोक्तिरप्याह कदृष्णमक्षरम् / कुतूहलेनेव मुहुः कुहूरवं विडम्व्य डिम्भेन पिकः प्रकोपितः // 38 // अन्वयः-तथा निरस्य विसजितः दूतः प्रियोक्तिः अपि ( सन् ) डिम्भेन कुतूहलेन मुहुः कुहू-रवम् विडम्ब्य प्रकोपितः पिकः इव कदुष्णम् अक्षरम् आह स्म / टीका-तथा पूर्वोक्त-प्रकारेण निरस्य प्रत्यादिश्य परास्तं कृत्वेत्यर्थः विसजितः गन्तुमनुमतः दूतः नलः प्रिया मधुरा उक्ति: वचनम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) अपि सन् डिम्भन बालकेन ( 'डिम्भः पृथकः शावक: शिशुः' इत्यमरः) कुतूहलेन कौतुकवशात् कुहू इत्यात्मक रवम् शब्दम् विडम्ब्य अनुकृत्य प्रकोपितः प्रकोपम् प्रापितः पिकः कोकिल: इव कदुष्णम् ईषदुष्णम्, सन्तापकारकम् परुषमिति यावत् अक्षरम् शब्दान् वाणीमित्य र्थ: आह स्म अकथयत् // 38 // व्याकरण-निरस्य निर् + अस + ल्यप् / विसर्जितः वि + V सृज + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / विडम्ब्या/बिडम्ब ( चुरादि ) धातु से पूर्व अनन् न होने से क्त्वा को ल्यप् व्याकरण विरुद्ध है, विडम्बयित्वा ही होना चाहिये था। प्रकोपितः प्र + /कुप् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) कदुष्णम कु + उष्णम् कु को कद् आदेश / आह स्म/ + लट्, विकल्प से आह आदेश और भूत अर्थ में स्म / अनुवाद-इस तरह परास्त करके विदा किया हुआ दूत मधुर-वाक् होता हुआ भी कुछ गरम शब्द बोल पड़ा जैसे कि कुतूहल-वश बार-बार 'कु हूँ-कु हूं ध्वनि की नकल उतार कर बालक द्वारा कुपित की हुई कोयल मधुर-वाक् होती हुई भी कुछ कठोर वोलने लग जाती है // 38 // Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः टिप्पणी-यहाँ विद्याधर दूत की कोयल से तुलना में स्पष्ट उपमा को अनदेखी करके 'अत्र छेकानुप्रासोऽलंकारः' कह गए हैं। छेक "पिकः प्रकोपितः' में तो नहीं, 'डम्' 'डिम्' में ही हो सकता है क्योंकि आगे 'ब भ' विजातीय वर्ण आ जाते हैं // 38 // अहो मनस्त्वामनु तेऽपि तन्वते त्वमप्यमीभ्यो विमुखीति कौतुकम् / क्व वा निधिनिर्धनमेति किंच तं स वाक्कवाटं घटयनिरस्यति // 39 // अन्वयः-( हे दमयन्ति !) ते अपि ( देवाः ) त्वाम् अनु मनः तन्वते इति / अहो! त्वम् अपि अमीभ्यः विमुखी इति कौतुकम् / निधिः निर्धनम् क्व वा एति किञ्च स वाक्-कपाटम् घटयत् ( क वा ) निरस्यति ? टीका-(हे दमयन्ति ! ) ते इन्द्रादयो देवा अपि त्वाम् मानुषीम् अनु. उद्दिश्य मन: चेतः तन्वते कुर्वते, देवता अपि सन्तो मानुषीम् त्वामभिलषन्तीत्यर्थः अहो ! आश्चर्यम् त्वम् मानुषी अपि अमोभ्यः एतेभ्यो देवेभ्यः विमुखी पराङमुखी इति कौतुकम् आश्चर्यम्, मानुषो सत्यपि देवान् उपेक्षसे इति भावः ! निधिः शेवधिः लक्ष्मीरिति यावत् निर्धनम् दरिद्रम् क्व कुत्र वा एति आगच्छति ? न छापीति काकुः, किञ्च स दरिद्रः वाक वाणी एव कपाटः अरर: तम् षटयन् संयोजयन् क्व वा निरस्यति निःसारयति ? गृहे आगच्छन्तीम् लक्ष्मीम् दृष्ट्वा मा मद्गृहे मागच्छेत्युक्त्वा क को निषेधति ? न कापीति काकुः // 39 // व्याकरण-विमुखी विरुदं मुखं यस्याः ( प्रादि ब० वी० ) वि + मुख + डीप कौतुकम् कुतुकम् एवेति कुतुक + अण ( स्वार्थे ) / निधिः नि+Vधा+ कि / घटयन्Vघट् + णिच् + शतृ / _____ अनुवाद- ( हे दमयन्ती!) एक वे ( देव ) भी हैं, जो तुम्हारी ओर मन लगा रहे है-कितनी आश्चर्य की बात है। एक तुम भी ( मानुषी). हो, जो उनकी ओर मुंह फेरे हुई हो-यह भी आश्चर्य है। खजाना कंगाल के पास कहीं आता है ? और ( आता है, तो) वह कहाँ बाणीरूपी दरवाजा बन्द करके हटा देता है ( कि मेरे यहां मत आओ)? // 39 // टिप्पणी-देवताओं के आगे मानुषी का भला क्या महत्त्व है। उनके लिए वह तो एक तुच्छ प्राणी है। उसको चाहने में देवताओं की गिरावट हो Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 नैषधीयचरिते है। दूसरी ओर देखिए तो वह तुच्छ मानुषी होती हुई भी देवताओं को ठुकरा रही है। देवताओं की पत्नी होना, मर्त्यलोक से उत्तम स्वर्गलोक का आनन्द प्राप्त करना किसे न भायेगा? लेकिन दमयन्ती को यह स्वीकार नहीं यह तो ऐसा है जैसे कोई आती लक्ष्मी को लात मार दे। विद्याधर 'अत्र हेत्वलंकारः' कह रहे हैं किन्तु मल्लिनाथ पूर्वाधं और उत्तराधं-गत दोनों वाक्यों में परस्पर बिम्बप्रतिबिम्बभाव मान रहे हैं अर्थात् इन्द्रादि का तुम्हें चाहना दरिद्र के पास खजाना आ जाने के समान और तुम्हारा उनको ठुकराना आते खजाने को दरिद्र द्वारा लात मार देने के समान है, अतः दृष्टान्त है। हमारे विचार से अर्थान्तरन्यास है, 'मन' 'मनु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 39 / / सहाखिलस्त्रीषु वहेऽवहेलया महेन्द्ररागाद्गुरुमादरं त्वयि / कथं न वा श्रेयसि संमुखेऽपि तं पराङ्मुखी चन्द्रमुखि ! न्यवीवृतः॥४०॥ अन्वयः-हे चन्द्रमुखि / महेन्द्ररागात् अखिल-स्त्रीषु अवहेलया सह त्वयि गुरुम् आदरम् वहे / ईदृशि श्रेयसि संमुखे ( सति ) अपि त्वम् पराङ्मुखी ( सती) तम् न्यवीवृतः // 40 // टीका... चन्द्रवत् मुखम् वदनम् (उपमान पूर्वपद तत्पु० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी (ब० वी० ) हे दमयन्ति ! महेन्द्रस्य महान् चासो इन्द्रः तस्य (कर्मधा०) सुरेन्द्रस्य त्वयि अनुरागात् प्रणयात् कारणात् (10 तत्पु० ) अखिलाः सर्वाः च ताः स्त्रियः महिलाः तासु ! कर्मधा० ) अवहेल्लया उपेक्षया सह अहम् त्वयि गुरुम् महान्तम् आदरम संमानम् बहे धारये, महेन्द्रस्त्वयि अनुरज्यते न त्वन्यास्विति त्वं परमधन्यासीति मत्वा त्वाम् प्रति मे महान् आदरभावः अस्तीत्यर्थः / ईदृशि एतादृशि श्रेयसि पतित्वेन इन्द्रप्राप्तिरूपकल्याणे संमुखे अग्रे समुपस्थिते सति अपि त्वम् पराङ्मुखी विमुखी अस्वीकुर्वाणति यावत् सती तम् मे त्वयि गुरुम् आदरम् न्यवीवृतः निवतितवती तादृशं दुर्लभम् महत् कल्याणम् दुत्कुर्वत्यां दुर्मत्यां त्वयि मे आदरभावो लुप्तोऽस्तीति भावः // 40 // व्याकरण-रागात्/रञ् + घञ् ( भावे ) नलोप, कुत्व / अवहेलया अव + /हेल + अ + टाप् / ईदृशि इदम् + /दृश् + क्विन् स० / श्रेयसि अतिशयेन प्रशस्यमिति प्रशस्य + ईयसुन्, श्रादेश / पराङ्मुखी पराच् + मुख + ङीप् / न्यवीवृत: नि + वृत् + णिच् + लुङ् / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सगः 413 अनुवाद- "हे चन्द्रमुखी ( दमयन्ती)! ( तुम पर ) इन्द्र का अनुराग होने के कारण अन्य स्त्रियों की अवहेलना के साथ मैं तुम पर बड़ा भारी आदर-भाव रख रहा हूं। (किन्तु) ऐसे ( पतिरूप में इन्द्रप्राप्तिरूप ) श्रेय के सामने रहते . ( उससे ) मुंह फेरे हुए तुम ( अपने प्रति मेरा ) वह आदर भाव खो बैठी हो" // 40 // में तुम्हारे लिए बड़ा संमान उत्पन्न हो रहा था, लेकिन उसे ठुकराती हुई तुम्हें पाकर तुम्हारी मूर्खता पर मुझे दुःख हो रहा है। तुम्हारे लिए मेरे हृदय में अब कोई संमान नहीं रहा"। पीछे श्लोक 38 में कवि ने जिस 'कदुष्णम् अक्षरम्' का प्रयोग किया है, वह यही है। विद्याधर 'अत्र काव्यलिङ्गसहोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं। काव्यलिङ्ग तो ठीक है, क्योंकि आदर भाव समाप्त होने का यहां कारण बना रखा है, किन्तु उनकी सहोक्ति समझ में नहीं आ रही है / सहोक्ति के लिए मूल में अतिशयोक्ति का होना आवश्यक है। सह शब्द आ जाने मात्र से 'रामः सीतया सह बनं गतः' की तरह सहोक्ति नहीं हुआ करती है। 'वहेऽवहे' में यमक, 'मुखी मुखी' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है॥ 40 // दिवौकसं कामयते न मानवी नवीनमश्रावि तवाननादिदम् / कथं न वा दुर्ग्रहदोष एष ते हितेन सम्यग्गुरुकापि शम्यते // 41 // अन्वयः-मानवी दिवौकसम् न कामयते-इति इदम् नवीनम् तव आननात् अश्रावि / एष ते दुर्ग्रहदोषः हितेन गुरुणा अपि कथं वा सम्यक् न शम्यते ? टीका--मानवी मानुषी दिवौकसम देवम इन्द्रम न कामयते अभिलषति, इति इदम् एतत् नवीनम् अभूतपूर्वम् विचित्रमिति यावत् वच इति शेषः तव ते आननात् मुखात् अश्रावि श्रुतम् / इन्द्रःखलु उत्तमा देवयोनिः, त्वं च मध्यमा इति भावः, एष अयम् ते तव दुर्ग्रहः दुष्टः ग्रह आग्रहः ( प्रादि स० ) दुराग्रह इत्यर्थः अथ च दुष्टग्रहः शनिसूर्यादिः (निर्बन्धोपरागादियो ग्रहाः' इत्यमरः ) एव दोषः ( कर्मघा० ) अथ च दुर्ग्रहकृतदोषः (मध्यमपदलोपी स० ) हितेन हितकांक्षिणा आप्तेनेत्यर्थः, अथ च अनुकूलेन गुरुणा पित्रादिना अथ च वृहस्पतिना Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 नैषधीयचरिते अपि कथम् केन प्रकारेण वा सम्यक् सुतराम् न शम्यते निवर्त्यते अपितु निवर्त'यितुमर्हः / अयं भावः अपत्य-गतो यत्किञ्चिद्विषयको दुराग्रहो दोषः पित्रादिना निराकरणीयो भवति यथा सूर्यशनैश्चरादि दुष्टग्रहकृतो दोषो बृहस्पतिना निरा. 'क्रियते किन्तु तव देवावरणविषयको दुराग्रहः ते पित्रादिना न निराक्रियते इति महदाश्चर्यम् // 41 // व्याकरण-मानवी मनोरपत्यं स्त्रीति मनु + अण् + ङीप् (स्त्रियाम् ) / दिवौकसम् द्यौः ओकः = निवासस्थानम् यस्येति (ब० वी०) दिव् + ओकस् पृषोदरादित्वात् साधुः। नवीनम् नव एवेति नव + ख ( स्वार्थे ) ख को ईन / अश्रावि श्रु + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / हितेन धा + क्त, धा को हि / सम्यक् सम् + / अञ्च + क्विन्, सम् को समि आदेश। शम्यते शम् + णिच + लट ( कर्मवाच्य ) / ___ अनुवाद-"मानुषी देवता को नहीं चाहती-यह मैंने तुम्हारे मुंह से नयी बात सुनी है। यह तुम्हारा दुर्ग्रह दोष ( दुराग्रह की बुराई ) हितैषी गुरु ( माता-पिता आदि ) द्वारा क्यों दूर नहीं की जाती है जैसे कि दुष्ट दुर्ग्रहदोष ( शनि आदि दुष्ट ग्रहों का दोष ) गुरु (बृहस्पति ) द्वारा दूर किया जाता है ?" // 41 // टिप्पणी-नल के कहने का भाव यह है कि अपने बच्चे में यदि किसी तरह का जिद्दीपन की खराबी दिखाई पड़े, तो मां-बाप का कर्तव्य है कि वह उसे दूर कर दें। देवेन्द्र को न वरने की तुम्हारी अनुचित जिद मां-बाप को हटा देनी चाहिए। इस बात को कवि श्लिष्ट भाषा का प्रयोग करता हुआ गुरु ( बृहस्पति ) से तुलना कर रहा है अर्थात् कि कुर्वन्ति ग्रहाः सर्वे यस्य केन्द्र बृहस्पतिः' इस ज्योतिष-सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार बृहस्पति दुष्ट ग्रहों के दोष का निवारण कर देता है, वैसे ही तुम्हारे गुरुजन को भी तुम्हारे दुष्ट ग्रह ( अनुचित हठ ) का निवारण कर देना चाहिए, लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे हैं-यह आश्चर्य की बात है। विद्याधर यहाँ श्लेषालंकार कह रहे हैं लेकिन-जैसा कि मल्लिनाथ का कहना है हमारे विचार से भी प्रतीयमान दूसरे अप्रस्तुत अर्थ में उपमा-ध्वनि ही है। नवी, नवी में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 41 // Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 419 अनुग्रहादेव दिवौकसां नरो निरस्य मानुष्यकमेति दिव्यताम् / अयोविकारे स्वरितत्वमिष्यते कुतोऽयसां सिद्धरसंस्पृशामपि // 42 // अन्वयः-नरः दिवौकसाम् अनुग्रहात् एव मानुष्यकम् निरस्य दिव्यताम् एति सिद्ध-रस-स्पृशाम् अयसाम् अपि अयोविकारे स्वरितत्वम् कुतः इष्यते ? टीका-नरः मनुष्यः दिवौकसाम् देवानाम् अनुग्रहात् कृपातः एव निश्चयेन मानुष्यकम् मनुष्यत्वम् निरस्य निराकृत्य त्यक्त्वेतियावत् दिव्यताम् देवत्वम् एति प्राप्नोति देबतानाम् एषा कृपा यत् मनुष्यः मानुषदेहं त्यक्त्वा देवो भवतीत्यर्थः / सिद्ध : ओषध्यादिभिः परिष्कृतः साधित इति यावत् यो रसः पारदः ( कर्मधा० ) तम् स्पृशन्तीति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पृ० ) अयसाम् लोहानाम् अपि अयसः लोहस्य विकारे विकृती (10 तत्पु० ) लोहविकारभूते पदार्थ इत्यर्थः स्वरितत्वम प्रक्षिप्तत्वम् कुतः कस्माद्धेतोः इष्यते काक्ष्यते / न कुतोऽपोति काकुः / सिद्धपारदस्पर्शेन स्वर्णीभूतलोहं यथालोहविकाररूपपदार्थेषु न गण्यते, स्वर्णे एव गण्यते तथैव त्वमपि देवसंसर्गात् देवत्वं प्राप्ता सती देवी एव भविष्यसि न मानुषी स्थास्यसि तस्मात् इन्द्रं देवं वरयेति भावः // 42 / / व्याकरण-नरः नरतीति / नृ + अच् ( कर्तरि ) / दिवौकसाम् इसके लिए पिछला श्लोक देखिये / मानुष्यकम् मनुष्यस्य भाव इति मनुष्य + बुन , बुन को अक् / निरस्य निर् + अस् + ल्यपू। दिव्यताम् दिवि भवः इति दिव+ यत् + तल + टाप् / स्वरितत्वम् / स्वर ( आक्षेपे )+ क्त ( कर्मणि ) + त्व। अनुवाद-"मनुष्य देवताओं की कृपा से मनुष्यत्व को छोड़कर देवत्व प्राप्त कर लेता है। सिद्ध किए हुए पारे का स्पर्श करने वाला ( सोना बना हुआ) लोहा भी कैसे कोई लोहे के बने पदार्थों में अन्तर्गत करना चाह सकता है ?" // 42 // - टिप्पणी-नल दमयन्ती के इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि मैं मानुषी हूँ, इन्द्र देवता हैं, उन्हें देवी ही व्याह सकती हैं, मानुषी कैसे ? 'नहीं, देवता के संसर्ग से तुम मानुषी न रहकर तब देवता बन जाओगी। सिद्ध किए हुए पारे के स्पर्श से जैसे लोहा सोना बन जाता है, लोहा नहीं रहता'। प्राचीन काल में लोग सिद्ध पारे से तांबे अथवा लोहे को सोना बनाने की प्रक्रिया जानते थे। इसका बहुत जगह उल्लेख मिलता है। अयोविकारेस्वरितत्वम्-चाण्डू पंडित, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते विद्याधर ईशानदेव और जिनराज यहां 'अयोविकारस्वरितत्वम् पाठ देते हैं और अर्थ करते हैं-अयसो लोहस्य विकारस्य स्वरः शब्दः स जातो येषां तान्ययोविकारस्वरितानि तेषां भावोऽयोविकारस्वरितत्वम् = अयोविकारशब्द वाच्यत्वम् अयसाम् कुत इष्यते अपि तु न कुतोऽपि / मल्लिनाथ अयोऽधिकारे स्वरितत्वम् पाठ देते हैं। और अर्थ करते हैं-'अयोऽधिकारे अयःप्रस्तावे स्वरितत्वम् अधिकृतत्वम् तेषु परिगणनेतियावत् / “स्वरितेनाधिकार" इति वैयाकरणपरिभाषाश्रयणादेवं व्यपदेश; / स्वृ शब्दोपतापयोरिति धातोर्देवादिकात् क्तः / विद्याधर यहां अर्थान्तरन्यास कहते हैं लेकिन हमारे विचार से पूर्वार्ध और उत्तरार्थ के दोनों वाक्य विशेष वाक्य होने से बिम्बप्रतिबिम्ब भाव में यह दृष्टान्त ही है। नरों निर में छेक है / हरि परित्यज्य नलाभिलाषका न लज्जसे वा विदृषिजवा कथम् ? / उपेक्षितेक्षोः करभाच्छमीरतादुरुं वदे त्वां करभोरु ! भोरिति // 4 // अन्वयः-हरिम् परित्यज्य नलाभिलाषुका ( तथा ) विदुषिब्रुवा ( त्वम् ) कथम् न लज्जसे ? इति भो करभोरु ! अहम् त्वाम् उपेक्षितेक्षोः शमीरतात करभात् उरुं वदे। टीका-हरिम् इन्द्रम् परित्यज्य अपास्य नलम एतदाख्यं नृपम् अथ च घासविशेषम् अभिलाषका अभिलषन्ती (द्वि० तत्पु०) तथा विदुष्यः ब्रुवा (10 तत्पु० ) आत्मानं विदुषी ब्रुवाणा पण्डितम्यन्येति यावत् त्वम् कथम् कस्मात् न लज्जसे न लज्जां वहसि ? इन्द्रमपहाय नलाख्यतुच्छतृणसदृशनला. ख्यनरमिच्छसि, आत्मनो वैदुष्यञ्च ख्यापयतीति तव कृते महत् लज्जास्थानमिदमित्यर्थः / इति एतस्मादेव कारणात् भो करभो ! करभः कनिष्ठाङ्गलि. मणिबन्धयोर्मध्यवर्ती भागः ( 'करभो मणिबन्धादि-कनिष्ठान्तर उष्ट्रकः' इति विश्वः ) तद्वत् कोमली अनुवृत्तौ च ऊरू सक्थिनी ( उपमान तत्पु०) यस्यातत्सम्बुद्धी हे करभोरु ! (ब० वी० ) अहम् त्वाम् उपेक्षितः परिहृतः इक्षुः इक्षुकाण्डः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतात् (ब० वी० ) शमी शिवा कटस्वादः कण्टकाकीर्णो वृक्षविशेष: इत्यर्थ: तस्याम् तत्कण्टकभक्षणे रतात् लग्नात् लालसादिति पावत् ( स० तत्पु० ) करभात् उष्ट्रात् उरुं उत्कृष्टाम् इक्षुमधुररसं विहाय शमीकण्टकभक्षणेरतस्य उष्ट्रस्यापेक्षया मूर्खतायाम् अधिकतरामित्यर्थः Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 'करभोरु !' वदे ज्ञानपर्वकं कथयामि / इमे लोकाः त्वाम् करभवत् ( करभागविशेषवत् ) ऊरू यस्या इति व्युत्पत्ति-पूर्वकं सम्बोध्य 'करभोरु !' कथयन्तु, अहं तु 'करभोरु !' शब्दस्य करभात् ( उष्ट्रात् ) मूर्खतायाम् उरुम् ( अधिकतराम् ) इति व्युत्पत्त्या 'करभोरु / ' एवं त्वाम् सम्बोधयिष्यामीति भावः // 43 // व्याकरण- अभिलाषुका अभि +Vलष + उकन- (ताच्छील्ये) 'न लोकाव्यय' से षष्ठी-निषेध 'गम्यादीनामुपसंख्यानम्' वातिक से समास / विदुषी Vविद् + शतृ, शतृको वस् + ङीप् / बुवा ब्रवीतीति / + अच् + टाप् समास में 'पी' को ह्रस्व, निपातन से ब्र को न गुण हुआ न वच आदेश / करभोर ! ब० बी० में 'उरुत्तरपदादौपम्ये' से ऊङ् प्रत्यय और पञ्चमी तत्पु० में 'ऊडुते' ऊङ् प्रत्यय करके नदी संज्ञक होने से सम्बोधन में ह्रस्व / वदे वद् से ज्ञानार्थ में आत्मने पद / ___अनुवाद-"इन्द्र को छोड़कर नल-नामक तृण-जैसे तुच्छ नल ( राजा) को चाहने वाली तथा अपने को बुद्धिमती कहती हुई तुम्हें क्यों लज्जा नहीं आती ? इसी कारण, ओ करभोरु ! ( हाथ के भागविशेष की तरह कोमल जांघोंवाली ) मैं तुम्हें गन्ने की उपेक्षा किये शमी ( के काँटों) में रमे हुए करभ ( ऊंट ) से अधिक ( मूर्ख) जान-बूझकर कह रहा हूँ // 43 // टिप्पणी-यहां कवि ने 'करभोरु' शब्द को व्यथं रखकर दमयन्ती पर कटु व्यङ्गय कसा है। 'करभोरु' का अर्थ कवि लोग 'करभ-हाथ की छोटी अंगुली से लेकर कलाई तक का क्रमशः अधिकाधिक चौड़े, गोल-गोल कोमल भाग की तरह ऊरु - जांघों वाली करते हैं किन्तु नल दमयन्ती के सम्बन्ध में इस अर्थ से सन्तुष्ट नहीं होते। उनका कहना है कि मैं भी तुम्हें 'करभोरु' कहूँगा लेकिन उसकी व्याख्या करूंगा-'करभ = ऊँट से भी उरु = अधिक मूर्ख / ऊंठ मीठा गन्ना छाड़कर शमी वृक्ष के काटे खाता है / वह बड़ा मूर्ख ह। तुम अपने को विदुषी तो कहती हो, किन्तु उससे भी अधिक मूर्ख हो, जो इन्द्र देवता का छोड़कर तुच्छ नर-नल को चाह रही हो / सहेतुक होने से काव्यलिङ्ग, और नल शब्द में श्लेष है। 'नला, नल' 'पेक्षितेक्षोः, भोरु भोरि में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रात है // 43 // Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते विहाय हा सर्वसपर्वनायकं त्वया धतः किं नरसाधिमभ्रमः / मुखं विमुच्य श्वसितस्य धारया वथैव नासापथधावनश्रमः / / 44 / / अन्वयः-(हे भैमि !) त्वया सर्व-सुपर्व-नायकम् विहाय नर-साधिम-भ्रमः किम् धृतः ( इति ) हा! श्वसितस्य धारया ( का ) मुखम् विमुच्य वृथा एव नासा 'श्रमः (धृतः) / टीका-हे भैमि ! त्वया सर्वे निखिलाश्च ते सुपर्वाण: देवाः ( कर्मधा० ) तेषाम् नायकम् नेतारम् देवेन्द्रमित्यर्थः विहाय परित्यज्य नरे मनुष्ये अथ च रलयोरभेदे नले साधिमा साधुत्वम् ( स० तत्पु० ) तस्य भ्रमः भ्रान्तिः (10 तत्पु० ) किम् किमर्थम् धृतः धारितः ? इति हा ! कष्टम् / श्वसितस्य श्वासोच्छवासस्य धारया परम्परया (का) मुखम् वक्त्रम् विमुच्य विहाय वृथा एव व्यर्थमेव नासायाः नासिकायाः पन्था: मार्ग (ष० त पु० ) तेने यद् धावनम् शीघ्रगमनम् तेन श्रमः ( उभयत्र तृ० तत्पु० ) तज्जनितक्लमः इत्यर्थः धृतः इति पूर्वतोऽनुवर्तते / यथा श्वासोच्छ्वासपरम्परा सुखेन गमनागमनसाधनीभूतं मुखमार्ग विहाय वृथैव कष्टेन गमनागमनसाधनीभूतं नासिकामार्गमाश्रयति तद्वत् त्वमपि सर्वसुखभण्डारं देवेन्द्रमपहाय वृथैव नानाक्लेशभरितनरयोनिधारिणं नलं साधुत्वभ्रमेणेच्छसीति भावः // 44 / / __व्याकरण-नायकम् नयतीति नी + ण्वल व को अक आदेश। साधिमा साधो: भाव इति साधु + इमनिच् / श्वसितस्य श्वस् + क्त ( भावे ) / __ अनुवाद-( हे दमयन्ती ) तुम सभी देवताओं के स्वामी ( इन्द्र ) को छोड़कर नर ( योनि के ) नल के अच्छे होने का भ्रम क्यों अपनाये हुये हो? यह दुःखकी बात है। सांसों के सिलसिले का मुख कोछ ोड़कर नाक के मार्ग से शीघ्र आने-जाने का श्रम अपनाना व्यर्थ है // 44 / / टिप्पणी-दमयन्ती! तुम व्यर्थ भ्रम में पड़ी हुई हो कि देव-नायक इन्द्र की अपेक्षा नर नल अच्छा बर रहेगा। इसलिए इस मिथ्या म्रम को छोड़ दो और इन्द्र का वरण करो। इसी में तुम्हारा कल्याण है। यहाँ श्लोक में दो समानान्तर विशेष वाक्यों का परस्पर विम्बप्रतिबिम्ब भाव होने से दृष्टान्तालंकार है। 'सर्वपवं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 44 / / तपोऽनले जुह्वति सूरयस्तनूदिवे फलायान्यजनुविष्णवे / करे पुनः कर्षति सैव विह्वला बलादिव त्वां वलसे न बालिशे ! // 45 // Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः अन्वयः-सूरयः अन्य-जनुभविष्णवे दिवे फलाय तपोऽनले तनूः जुह्वति / सा एव विह्वला ( सती ) बलात् इव त्वाम् करे कर्षति / हे बालिशे ! त्वम् न वलसे / टीका-सूरयः धीमन्तः विद्वांस इति यावत् ( धीमान् सूरिः कृती कृष्टिा, इत्यमरः ) अन्यत् परं तत् जनः जन्म ( कर्मघा० ) तस्मिन् भविष्णवे भाविन्यै ( स० तत्पु० ) दिवे स्वर्गाय ( 'सुरलोको द्यो-दिवी द्व' इत्यमरः ) फलाय स्वर्गरूपफलायेत्यर्थः तपः तपस्या एव अनल: वह्निः तस्मिन् ( कर्मधा० ) तनूः शरीराणि जुह्वति प्रक्षिपन्ति जन्मान्तरे यथा नः स्वर्गलोकप्राप्तिः स्यादिति कृत्वा विद्वांसः तपोरूप-वह्नौ स्वशरीरं त्यजन्ति, घोरतपांसि चरन्तो नाना क्लेशान् सहन्ते इति यावत् सा द्यौः स्वर्गलोकः इत्यर्थः विह्वला व्याकुला, उत्सुका सती अधीरीभूयेत्यर्थः बलात् बलपूर्वकम् इव त्वाम् दमयन्तीम् करे हस्ते धृत्वा कर्षति उपरि कृषति / हे बालिशे ! मूर्खे! ('अज्ञेच वालिशः' इत्यमरः) त्वम् न बलसे न चलसि गन्तुं नेच्छसीत्यर्थः / स्वर्गलोकः उत्सुकः सन् त्वां हस्ते धृत्वा अस्मिन्नेव जन्मनि, बलात् आकर्षति, त्वं च न गच्छसीति धिक् ते मूर्खतामिति भावः // 45 // ___ व्याकरण- जनु : V जन् + उस् ( भावे ) भविष्णवे भवतीति भू+ इष्णुच् / यद्यपि यह प्रयोग वैदिक है, तथापि कवि लोग लोक में भी इसे करते आए हैं। __ अनुवाद-विद्वान् लोग जन्मान्तर में मिलने वाले स्वर्ग-फल हेतु तपरूपी अग्नि में शरीर की आहुति देते हैं / वही स्वर्ग उत्सुक हो हाथ से ( पकड़कर ) बलात्-जैसे नुम्हें खींच रहा हैं, ( किन्तु ) हे मूर्खे! तुम नहीं जा रही हो (कितनी आश्चर्य की बात है ) // 45 / / टिप्पणी-लोग तप करते हैं और मानुष चोला छोड़ देते हैं, तब जाकर उन्हें दूसरे जन्म में स्वर्ग प्राप्ति होती है। तुम्हें देखो तो इसी मानुष चोले में बिना तप के स्वर्ग:प्राप्ति हो रही है-यह कितना ऊँचा भाग्य तुम्हारी बाट जोह रहा है, अतः इन्द्र का वरण करो। स्वर्ग-प्राप्तिका कारण बताने में काव्यलिङ्ग तप पर अनलतारोपण में रूपक और बलादिव में कल्पना होने से उत्प्रेक्षालंकार है। बलसे वालिशे में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 45 // Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. नैषधीयचरिते यदि स्वमुद्वन्धुमना विना नलं भवेर्भवन्तों हरिरन्तरिक्षगाम् / दिविस्थितानां प्रथितः पतिस्ततो हरिष्यति न्याय्यमुपेक्षते हि कः / / 4 / / अन्वयः-नलम् विना यदि ( त्वम् ) स्वम् उद्वन्धुमनाः भवः, ततः अन्तरिक्षगाम् भवन्तीम् दिवि स्थितानाम् प्रथितः पतिः हरिः हरिष्यति / न्याय्यम् हि कः उपेक्षते? टीका-लम् विना अन्तरेण नलाप्राप्तौ इत्यर्थ: यदि चेत् त्वम् उत उपरि बन्धुम् मनो यस्य तथाभूः (ब० वी० ) भवेः स्याः मरणार्थं गले बन्धनं दत्त्वा आकाशे लम्बितुमिच्छसीत्यर्थः तत् तहि अन्तरिक्षे आकाशे मच्छतीति तथोक्ताम् (उपपद तत्पु० ) आकाशस्थाम् आकाशे लम्बमानामित्यर्थः भवन्तीम् त्वाम् दिवि आकाशे स्थितानां वर्तमानानां पदार्थानाम् प्रथितः प्रसिद्धः पतिः स्वामी हरिः इन्द्रः हरिष्यति नेष्यति / न्याय्यम् न्यायतः प्राप्तम् वस्तु हि खलु कः जनः उपेक्षते प्रमादतः परित्यजति न कोंऽपीति काकुः / / 46 / / व्याकरण-उद्वन्धुमनाः 'तुम-काममनसोरपि' से तुमुन् के म का लोप / अन्तरिक्षगाम् अन्तरिक्ष + गम् + ड (कर्तरि )+टाप / न्याय्यम् न्यायादनपेतमिति न्याय + यत् / अनुवाद-"नल के विना यदि तुम अपने को फांसी देना चाहो, तो अन्तरिक्ष में लटकी हुई तुम्हें अन्तरिक्ष में रहनेवालों के प्रसिद्ध स्वामो इन्द्र ले जाएंगे। न्याय से प्राप्त ( वस्तु) की सचमुच कोन उपेक्षा करे ?" // 46 // टिप्पणी-पीछे श्लोक 34 में दमयन्ती ने नल का उत्तर देते हुए कहा था कि यदि नल मेरा वरण नहीं करेंगे, तो मैं फाँसी खालूंगी, या अग्नि में भस्म हो जाऊंगी या पानी में छलांग लगा दूंगी। इसी का उत्तर यहाँ नल चार श्लोकों में दे रहे हैं। "फाँसी खाती हुई अन्तरिक्ष में लटकी तुम्हें इन्द्र ले लेगा।' यास्काचार्य के अनुसार केवल तीन देवता होते हैं जिनके अधिकार में तीन लोक इस तरह रहते हैं :-'अग्निः इन्द्रो पृथिवोस्थान: वायुर्वान्तरिक्षस्थानः, सूर्योधु स्थानः' / अन्तरिक्षस्थानीय सभी पदार्थ इन्द्र के अधिकार में आ जाते हैं। इस प्रकार अन्तरिक्ष में स्थित दमयन्ती का इन्द्र की हो जाना स्वाभाविक ही है। यहाँ इन्द्र की हो जाने का कारण बता देने से काव्यलिङ्ग है। 'न्याय्यभुपेक्षते हि कः' यह सामान्य वाक्य पूर्वोक्त विशेष का समर्थन कर Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमा सगः रहा है, अतः अर्थान्तरन्यास है / 'भवे भवन्तीम्' में छेक, 'हरि' 'हरि' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 46 / / / निवेक्ष्यसे यद्यनले नलोज्झिता सुरे तदस्मिन्महती दया कृता / चिरादनेनार्थनयापि दुर्लभं स्वयं त्वयैवाङ्ग ! यमङ्गमर्प्यते / / 47 / / अन्वयः-नलोज्झिता ( त्वम् ) यदि अनले निवेक्ष्यसे, तत् अस्मिन् सुरे ( त्वया ) महती दया कृता, यत् अङ्ग! अनेन चिरात् अर्थनया अपि दुर्लभम् अङ्गम् त्वया एव स्वयम् अर्यते / टीका-लेन उज्झिता त्यक्ता अनूढेत्यर्थः सती त्वम् यदि चेत् अनले अग्नौ निवेक्ष्यसे आत्मदाहायं प्रवेशं करिष्यसि, तत् तहि अस्मिन् अनलाख्ये एतस्मिन् सुरे देवे त्वया महती विपुला दया कृपा कृता, यत् यस्मात् अङ्ग ! हे भैमि ! अनेन देवेन अग्निना चिरात् बहुकालात् आरभ्य अर्थनया याचनया अपि दुर्लभम् लब्धुमशक्यम् अङ्गम् शरीरम् त्वया एव स्वयम् आत्मना एव अयंते दीयते / अग्निदेवेन चिरात् तव शरीरं याचितम् परन्तु त्वया न दत्तम्, अग्नी प्रवेशे तु स्वदेहं स्वयमेव तस्मै दातुं ते आपतिष्यतीति विचित्रमेवेदमिति भावः / व्याकरण-निवेक्ष्यसे नि उपसर्ग लगनेसे विश आत्मनेपद हो जाता है / इसके सकर्मक होने पर भी अधिकरण-विवक्षा में यहां सप्तमी हुई है। सुरे इस शब्द के सम्बन्ध में सर्ग 5 श्लोक 34 देखिए / अर्थनया- अर्थ + युच, यु को अन + टाप् / दुर्लभम् कृच्छ्रेण लब्धं शक्यमिति दुर् + Vलभ् + खल / अङ्गम् अङ्गति ( चलति ) इति / अङ्ग + अच् / अनुवाद-"नल द्वारा न स्वीकृत की हुई तुम यदि अग्नि में प्रविष्ट होगी, तो इस ( अग्नि ) देव पर तुमने बड़ी कृपा कर दो ( समझो ) जो हे दमयन्ती! तुम कभी से प्रार्थना द्वारा भी न प्राप्त हो सकने वाला अपना शरीर तुम ही स्वयं ( उन्हें ) दे रही हो" / / 47 // .. टिप्पणी-कुछ निरुक्तकारों के अनुसार अग्नि सूर्य आदि देवता चेतन प्राणी होते हैं। प्रत्यक्ष जड़ रूप में देख पड़ने वाले ज्वाला-पुञ्ज अथवा गोला. कार तेज पिण्ड आदि उनके कार्य-शरीर होते हैं, जिस रूप में वे जगत में काम किया करते हैं / दमयन्ती अपना शरीर अग्निदेव के कार्य-शरीर-धधकते ज्वालापञ्ज में डालेगी, तो उसने स्वयं उसके अधिष्टातृ-भूत चेतन अग्निदेव को Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते गले लगा लिया समझो / जा रही है अग्निदेव से बचने किन्तु अनचाहे स्वयं उसका आलिङ्गन कर बैठेगी। इस तरह यहाँ विषमालङ्कार है, क्योंकि भलाई की खोज में अनर्थोत्पत्ति बताई जा रही है। विद्याधर 'काव्यलिङ्ग कह रहे हैं / 'नले' 'नलो' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 47 // जितं जितं तत्खलु पाशपाणिना विना नलं वारि यदि प्रवेक्ष्यसि / तदा त्वदाख्यान्वहिरप्यसूनसौ पयःपतिर्वक्षसि वक्ष्यतेतराम् // 48 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) यदि ( त्वम् ) नलम् विना वारि प्रवेक्ष्यसि, तत् पाश-पाणिना जितं जितं खलु; ( यतः) असो पयःपतिः तदा त्वदाख्यान असून् बहिः अपि वक्षसि वक्ष्यतेतराम् / / ____टीका-(हे दमयन्ति ! यदि चेत् त्वम् अनलम् विना अन्तरेण मा तावन्मे शरीरम् अग्नी अर्यतामिति विचार्येत्यर्थः वारि जलम् प्रवेक्ष्यसि मरणार्थ 'जले आत्मानं निमज्जयिष्यसि, तत् तहि पाशः बन्धनरज्जुः पाणौ हस्ते यस्य तथाभूसेन ( ब० वी० ) वरुणेनेत्यर्थः ('प्रचेता वरुण: पाशी' इत्यमरः ) जितं जितम् अतितरां जितम् खलु निश्चयेन / यतः असो पयसा जलानां पतिः स्वामी (10 तत्पु०) वरुणः तदा तस्मिन् समये त्वयि जले प्रविष्टायां सत्यामिति यावत् त्वम्, आख्या नाम येषां तथामूतान् (ब० वी० ) त्वन्नामकानित्यर्थः बहिः बाह्यरूपेण अधि वक्षसि वक्षःस्थले वक्ष्यतेतराम् अतिशयेन धारयिष्यसि / त्वम् वरुणदेवस्य प्राणरूपासि, सततञ्च अद्य यावत् तेन हृदये एव धार्यसे, न बहि:, किन्तु मरणार्थम् अग्नि परित्यज्य जले प्रविष्टां त्वामसी इदानीं बहिः वक्षःस्थलेऽपि धारयिष्यतीति तस्य महान् विजय इति भावः // 48 // __व्याकरण-प्रवेक्ष्यसि प्र + / विश् + लुट् / जितं-जितम् में आभीक्ष्ण्य अथवा अतिशय अर्थ में द्विरुक्ति / आख्या आख्यायतेऽनयेति आ +ख्या + अङ् + टाप् / असून् अस्यन्ते शरीरे इति/अस् + उन् / वक्ष्यतेतराम् /वह + लट् ( कर्मणि )+ तरप् + आम् ( स्वार्थ ) / अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! ) यदि तुम अग्नि को छोड़कर जल में प्रवेश करोगी, तब तो सचमुच बरुणदेव की पाँचों अंगुलियां घी में हैं ( क्योंकि ) वह जल के ( अधिष्ठातृ ) देवता ( वरुण ) तब तुम्हारे नामरूप ( अपने ) प्राणों को ( भीतर की तरह ) बाहर भी वक्ष पर अच्छी तरह धारण कर ला 48 ॥ोंगे Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 423 टिप्पणी-अग्नि की ज्वाला-रूपी बाँहों में पड़ने से बचकर जल में छलांग लगाने पर दमयन्ती वरुण की छाती पर लुढ़क जाएगी। वरुण दमयन्ती को अपना प्राण समझ रहे हैं, जो सतत उनके हृदय में मौजूद है, किन्तु छलांग लगाने पर तब बाहर भी शरीरतः छाती पर लगाने को उन्हें' वह मिल जाएगी। उनके पौ बारह हैं। जल वरुण का जड़ कार्य देह है-यह हम पीछे स्पष्ट कर आए हैं। अलङ्कार पूर्ववत् विषम है, किन्तु दमयन्ती पर वरण के प्राणों का आरोप होने से रूपक अधिक है। विद्याधर ने न जाने कैसे उत्प्रेक्षा मानी है। 'जितंजितम्' और 'वक्षसि, वक्ष्यते' में छेकानुप्रास है // 48 // करिष्यसे यद्यत एव दूषणादुपायमन्यं विदुषी स्वमृत्यवे / प्रियातिथिः स्वेन गृहागता कथं न धर्मराजं चरितार्थयिष्यसि ? // 49 // अन्वयः-विदुषी ( त्वम् ) अतएव दूषणात् ( कारणात् ) स्वमृत्यवे अन्यम् उपायम् यदि करिष्यसे, (तहि ) स्वेन गृहागता प्रिया अतिथिः ( त्वम् ) धर्मराजम् कथम् न चरितार्थयिष्यसि ? टीका-विदुषी पण्डिता त्वम् अतः एतस्मात् एव दूषणात् उद्बन्धनादिना मरण-कारणेनाहम् इन्द्रादीनाम् हस्ते पतिष्यामीमि दोषोत्सत्तिकारणात् स्वमृत्यवे अन्यम् उक्तोपायेभ्यो भिन्नम् उपायं साधनं यदि करिष्यसे अनुष्ठास्यसि, तर्हि स्वेन आत्मना स्वयमेवेत्यर्थ; गृहान् स्वनिवासस्थानम् आगता प्राप्ता प्रिया प्रेयसी अतिथिः प्राघुणिकीभता त्वम् धर्मराज यमम् कथम् केन प्रकारेण न चरितार्थयि. सि चरितार्थतां प्रापयिष्यसि अपितु सर्वथैव चरितार्थयिष्यसीति काकुः / मरणे सर्वे यमराजगृहं गच्छन्ति / प्रियतमां त्वामपि स्वयमेव प्राघुणिकीभूय निजगृहागतां विलोक्य यमः कृतकृत्यो भविष्यतीति भावः // 49 // व्याकरण-विदुषी वेत्तीति /विद् + शतृ + शतृ को वस् आदेश + ङीप् (स्त्रियाम् ) / दूषणात् /दुष + णिच + ल्युट ( भावे)। उपायम् उपेयते इति उप + Vइ + घञ् / अतिथिः न तिथि: ( आगमननियतदिनं ) यस्येति, अथवा यास्कानुसार अतति तिथिषु गृहान् इति / चरितार्थयिष्यसि - चरितः ( अनुष्ठितः ) अर्थः (प्रयोजनम् ) येनेति (ब० वी० ) चरितार्थः / चरितार्थ करिप्यसीति चरितार्थ + णिच् + लृट् ( नामधातु ) / अनुवाद- "(हे दमयन्ती ! ) समझदार तुम इन्हीं ( उपरोक्त ) दोषों के Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 नैषधीयचरिते कारण अपनी मृत्यु का और ही उपाय करोगी, तो स्वयमेव घर पर पधारो अतिथि-रूप प्रियतमा तुम यमराज को कैसे कृतकृत्य नहीं कर दोगी?" // 49 // टिप्पणी-मरने पर सभी को यम के घर जाना पड़ता है। जब तुम भी जाओगी तो स्वयं पास आई हुई निज प्रियतमा को यम भला क्यों वरण नहीं करेगा ? इसलिए दमयन्ती! आत्मघात का नाम ही मत लो। देवताओं में से स्वयं किसी एक को वर लो / यही सही रास्ता है / / 49 // निषेधवेषो विधिरेष तेथवा तवैव युक्ता खलु वाचि वक्रता। विजम्भितं यस्य किल ध्वनेरिदं विदग्धनारीवदनं तदाकरः // 50 // अन्वयः-अथवा एष ते निषेधवेषः विधिः ( अस्ति ) / तव एव वाचि वक्रता युक्ता खलु / यस्य ध्वनेः किल इदम् विजम्भितम्, विदग्धनारी-वदनम् तदाकरः ( भवति ) / _____टीका-अथवा विकल्पे एषः इन्द्रादीन् अहं न वृणे इत्यात्मकः ते तव निषेधः प्रतिषेधः नकारात्मकमुत्तरमितियावत् वेष: रूपम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( व० वी०) विधिः स्वीकृतिः अस्तीति शेषः तव 'न वृणे' देववरणविषयको निषेधः 'अहं वृणे' इति विधिपरकोऽस्तीति भावः, तव ते वाचि कथने वक्रता वक्रोक्तिनैपुणी युक्ता उचिता खलु निश्चयेन / यस्य ध्वनेः व्यङ्गयार्थस्य किलेति प्रसिद्धौ अथवा हेतो इदम् एतत् विजम्भितम् विलासः, विग्धा: निपुणाः वक्रोक्त्या व्यङ्गय न वा स्वमनोगतभाववोधनपरा इति यावत् या नार्यः स्त्रियः ( कर्मधा० ) तासाम् वदनम् मुखम् ( 10 तत्पु० ) तस्य ध्वनेः आकरः खनि: भवतीति शेषः / चतुराः स्त्रियो हि वक्रोक्तिद्वारा निषेधं विधिमुखेन विधिं च निषेधमुखेन प्रकटयन्तीति भावः // 50 // व्याकरण-निषेधः नि + /सिध् + घञ् (भावे)। विषि: वि + Vधा+ कि भावे / वाचि उच्यते इति वच् + क्विप ( भावे ) दीर्घ, सम्प्रसारणाभाव / ध्वनिः ध्वन्यते इति ध्वन् + इ ( भावे)। विजम्भितम् वि + जम्भ् + क्त ( भावे ) विदग्ध वि + /दह + क्त / वदनम् उद्यतेऽनेनेति विद् + ल्युट् ( करणे)। __अनुवाद-“अथवा हो सकता है कि निषेध का बाना पहने यह तुम्हारी स्वीकृति हो / कथन में वक्रता सचमुच तुम्हारे लिए उचित है; कारण कि चतुर नारी का मुंह उस ध्वनि की खान होता है जिसका यह विलास है" // 50 // Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 425 टिप्पणी-नल दमयन्ती के देववरणविषयक निषेध-कथन को वक्रोक्ति मान कर विधि-परक समझ रहा है। चतुर स्त्रियों का स्वभाव है कि वे सीधा जनभाषा में न कहकर वक्रोक्तिपूर्ण कविभाषा में बोला करती हैं। उनके 'ना' का व्यङ्गय 'हाँ' और 'हो' का व्यङ्गय 'ना' होता है। इसी काव्य में हम कितनी ही जगह दमयन्ती की इस वक्रोक्ति के 'हाँ' 'ना' का विलास देखते चले आ ही रहे हैं। विधिपरक निषेध के लिए साहित्यदर्पण में उद्धृत यह उदाहरण देखिए-'श्वश्रूरत्र निमज्जति, अत्राहं, दिवस एव प्रलोकय / मा पथिक, राज्यन्ध, शय्यायां मम निमक्ष्यसि // निषेध-पूरक विधि के लिए नारायण ने यह श्लोक उद्धृत किया है-'प्राणेश, विज्ञप्तिरियं मदीया तत्रैव नेया दिवसा: कियन्तः / संप्रत्ययोग्यस्थितिरेष देशः कला यदिन्दोरपि तापयन्ति // ' मल्लिनाथ पूर्वार्धगत विशेष बात का उत्तरार्धगत सामान्य बात से समर्थन मान कर अर्थान्तरन्यास कह रहे हैं जब कि विद्याघर ने यहाँ आक्षेप माना है। शब्दालंकार वृत्यनुप्रास है / / 50 // भ्रमामि ते भमि / सास्वतोरसप्रवाहचशेष निपत्य कत्यदः। त्रपामपाकृत्य मनाक्कुरु स्फुटं कृतार्थनीयः कतमः सुरोत्तमः / / 51 // अन्वयः-हे भैमि ! ( अहम् ) ते सरस्व०... 'क्रेषु निपत्य कति (वारान्) भ्रंमामि ? त्रपाम् मनाक अपाकृत्य कतमः सुरोत्तमः ( त्वया ) कृतार्थनीयःअदः स्फुटम् कुरु। टीका - हे भैमि दमयन्ति ! अहम ते तव सरस्वती वाणी तस्याः यो रस: माधुर्यम् तस्य य: प्रवाहः स्रोतः तस्य चक्रषु समूहेषु ( सर्वत्र 10 तत्पु० ) निपत्य पतित्वा कति कियतः वारान् कियत्कालपर्यन्तमित्यर्थः भ्रमामि भ्रान्तो भवामि तव कथनं विधिरूपं वा प्रतिषेधरूपं वेति कियत्कालमहं सन्देहदोलास्थितो भविष्यामीत्यर्थः / त्रपाम् लज्जाम् मनाक् ईषत् यथा स्यात्तथा अपाकृत्य दूरीकृत्य कतम इन्द्रादिषु क एकः सुरेषु देवेषु उत्तमः श्रेष्ठः ( स० तत्पु० ) त्वया कृतार्थनीयः कृतार्थः करणीयः वरणीय इति यावत् अद: इदम् म्फुटम् स्पष्टं यथा स्यात्तथा कुरु विधेहि। अभुम् देवमहं वृणे इति नामग्रहणपूर्वकं स्पष्टोकुरु इति भावः / / 51 // व्याकरण-प्रवाहः प्र + Vवह् + घन ( भावे ) / कत्यदः नारायण Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते कति अदः पदच्छेद करके कति शब्द को अध्याहृत 'वारान्' से जोड़कर काला• त्यन्त-संयोग में द्वितीया मान रहे हैं जब कि मल्लिनाथ 'कत्यदः' को समस्त पद मानकर कति कियन्ति अमूनि चक्राणि यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा-यों क्रिया विशेषण मानते हैं। त्रपाम् Vत्रप + अ + टाप / सुर इसके लिए 5 / 34 देखिए / कृतार्थनीयः कृतः अर्थः प्रयोजनं येनेति कृतार्थः तं करोतीति कृतार्थ + णिच् + अनीय ( नामधातु)। अनुवाद-“हे दमयन्ती! तुम्हारी वाणी के माधुर्य के प्रवाह के चक्करों में पड़ कर कब तक मुझे घूमते रहना है? कुछ लजा त्यागकर यह स्पष्ट कर दो कि वह कौन-सा देवश्रेष्ठ है, जिसे तुम बरने जा रही हो" // 51 // टिप्पणी नल दमयन्ती के नकारात्मक कथन को सकारात्मक मानकर यह अनुरोध करते लग रहे हैं कि वह उस देव का नाम ले, जो उसे पसन्द है। वैसे 'सुरोत्तम' तो इन्द्र ही होता है अतः उसका बहुतो के साथ प्रयुक्त होने वाला कतमः विशेषण असंगत-सा लग रहा है, किन्तु कवि का अभिप्राय यहाँ उस को ही उत्तम बताता है, जिसे दमयन्ती पसन्द कर लेगी। सरस्वती केषु--मल्लिनाथ इस समस्त पद को श्लिष्ट मानते हैं और सरस्वती से नदी विशेष, रस से जल, और चक्र से आवर्त भी लेते हैं। उनके अनुसार अर्थ यह होगा-सरस्वती ( वाणी ) रूपी सरस्वती ( नदी) के रस ( माधुर्य ) रूपी जल के प्रवाह के चक्रों ( समूहों ) रूपी आँखों में इस तरह दो बिभिन्न सरस्वती आदि का श्लेषमुखेन अभेदाध्यवसाय होने से यहाँ भेदे अभेदा. तिशयोक्ति बनेगी। विद्याधर भी श्लेष ही कह रहे हैं। शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है / कत्यदः-नारायण ने 'अदः' पद को श्लोक के उत्तरार्ध के साथ जोड़ा है, किन्तु ऐसी व्याख्या में अर्धान्तरैकपदता दोष बन रहा है, अतः मल्लिनाथ की ही व्याख्या ठीक है / / 51 // मतः किमैरावतकुम्भकैतवप्रगल्भपीनस्तन दिग्धवस्तव / / सहस्रनेत्रान्न पृथग्मते मम त्वदङ्गलक्ष्मीमवगाहितुं क्षमः // 52 // अन्वयः-(हे भैमि ) ऐरावत.. धवः तव मतः किम् ? त्वदङ्गलक्ष्मीम् अवगाहितुम् सहस्रनेत्रात् पृथक् मम मते न क्षमः ( अस्ति ) / टीका- ( है भैमि ) ऐरावतस्य सुरगजस्य कुम्भयोः गण्डस्थलयोः कैतवेन Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः व्याजेन ( उभयत्र ष० तत्पु० ) प्रगल्भौ कठोरी पोनौ मांसलौ च स्तनौ कुची ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) या दिक प्राची दिशा ( कर्मधा० ) तस्याः धवः पतिः इन्द्र इत्यर्थः तव ते मतः सम्मतः अभीष्ट इति यावत् अस्ति किम् ? त्वमिन्द्रमभिलषसीत्यर्थः / तव अङ्गस्य शरीरस्य लक्ष्मीम् शोभाम् अवगाहितुम् सम्यक्तया ग्रहीतुम् साकल्येन विलोकपितुमित्यर्थः सहस्र सहस्रसंख्याकानि नेत्राणि नयनानि यस्य तथाभूतान् (ब० वी० ) इन्द्रात् पृथक अन्यः (द्विनेतः ) मम मते विचारे न समः समर्थः। वराको द्विनेत्रो देवः दर्शने कथं शक्तः स्यात्, तन्मे विचारानुसारेण त्वं सहस्रनेत्रमेव वृणुषे इति भावः // 52 // व्याकरण--कैतवम् कितवस्य भाव इति कितव + अण् / पीन प्याय + क्तः, सम्प्रसारण और त को न। मतः मन् + क्तः ( वर्तमाने ) / मते / मन् + क्त ( भावे ) / अनुवाद-'क्या तुम ऐरावत हाथी के कुम्भस्थलों के बहाने कठोर और स्थूल कुचों वाली (पूर्व ) दिशा के स्वामी ( इन्द्र ) को पसन्द करती हो? मेरे विचारानुसार तुम्हारे अङ्गों का लावण्य गहराई से देख पाने के लिए सहस्रनेत्र के सिवा अन्य ( कोई द्विनेत्र ) सक्षम नहीं है" // 52 // टिप्पणी-यहाँ ऐरावत के गण्डस्थल पूर्व दिशा रूपी इन्द्र-वधू के स्तन समझे जा रहे हैं। गण्डस्थलों का अपह्रव करके उनपर स्तनों की स्थापना करने से अपह्नति अलंकार है जिसका दिशा पर नायिका व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति के साथ सङ्कर है 'सहस्रनेत्र' विशेष्य के साथ साभिप्राय होने से परिकराङ्कुर है। किन्तु मल्लिनाथ पूर्वार्ध और उत्तरार्धगत वाक्यों में परस्पर कार्य-कारण भाव मानकर काव्यलिङ्ग कह रहे हैं / 'मतः' 'मते' में छेक 'धवस्तव' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 52 // प्रसीद तस्मै दमयन्ति ! संततं त्वदङ्गसङ्गप्रभवैर्जगत्प्रभुः। पुलोमजालोचनतीक्ष्णकण्टकैस्तनुं घनानातनुतां स कण्टकैः / / 53 // अन्वयः-हे दमयन्ति / तस्मै प्रसीद / स जगत्-प्रभुः त्वदङ्गसङ्गप्रभवः पुलोम"कण्टकैः कण्टकैः ( निजाम् ) तनुम् संततं घनाम् आतनुताम् / टीका-हे दमयन्ति ! तस्मै सहस्रनेत्राय प्रसीद तस्मिन् प्रसन्ना भव तं Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 नैषधीयचरिते वृण्विति यावत् / स जगतः लोकस्य प्रभुः स्वामी इन्द्रः तव अङ्गः (10 तत्पु०) सङ्गः सम्पर्कः आश्लेष इत्यर्थः (तृ० तत्पु० ) तस्मात् प्रभवः उत्पत्तिः (पं० तत्पु० ) येषां तथाभूतः (ब० वी० ) त्वदालिङ्गनजनितरित्यर्थः पुलोमजायाः इन्द्राण्या: लोचनयोः नेत्रयोः (10 तत्पु० ) तीक्ष्णः निशितैः ( स० तत्पु० ) कण्टकैः द्रुमावयवैः कण्टकसदृशैः असह्यरित्यर्थः ( कर्मधा० ) कण्टकैः रोमाञ्चैः ( 'वेणी द्रुमाङ्ग रोमाञ्च क्षुद्रशत्री च कण्टकः' इति वैजयन्ती ) तनुम् निजशरीरम् संततम् निरन्तरम् घनाम् निविड़ाम् पूर्णामितियावत् आतनुताम् कुरुताम् / इन्द्रम् आश्लिष्य रोमांचितं कुर्वतो त्वम् इन्द्राणी सापत्न्याग्निना दहेति भावः // 53 // व्याकरण-पुलोमजा पुलोम्नः एतदाख्यासुरविशेषात् जायते इति पुलोमन् + / जन् + ड + टाप् / तस्मै प्रसीद-'क्रियया यमभिप्रेति सोऽपि सम्प्र. दानम्' इस वार्तिक से चतुर्थी / अनुवाद-“हे दमयन्तो ! उन ( इन्द्र) पर प्रसन्न हो जाओ ! वे जगत् के स्वामी ( इन्द्र ) तम्हारे अङ्गों के स्पर्श से उत्पन्न होने वाले रोमाञ्चों से-जो इन्द्राणी की आँखों में तीक्ष्ण कांटे बनेंगे-अपने शरीर को निरन्तर खूब ढका रखा करें" // 53 // टिप्पणी-भाव यह है कि यदि दमयन्ती ! तुम इन्द्र का वरण करोगी तो वे इन्द्राणी को लात मारकर तुम पर ही अनुरक्त रहेंगे; इन्द्राणी सौतिया डाह में जले तो जले, प्रियतमा तो तुम ही बनी रहोगी। यहाँ रोमाञ्च पर कण्टकत्वारोप होने से रूपक है। 'कण्टकै' 'कण्टकैः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 53 // अबोधि तत्त्वं दहनेऽनुरज्यसे स्वयं खलु क्षत्रियगोत्रजन्मनः / विना तमोजस्विनमन्यतः कथं मनारथस्ते वलते बिलासिनि ! / 54 // अन्वयः-हेविलासिनि ! ( त्वम् ) स्वयम् दहने अनुरज्यसे ( इति ) तत्त्वम् मया अबोधि; खलु क्षत्रियगोत्रजन्मनः ते मनोरथः तम् ओजस्विनम् विना अन्यतः कथम वलते ? टीका हे विलासिनि! विलापवति ! त्वम् स्वयम् आत्मनेव वहने अग्निदेवे अनुरज्यसे अनुरक्तासि इति तस्वम् तथ्यम् मया अबोधि ज्ञातम् खलु यतः क्षत्रि Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 422 याणां गोत्रे कुले ( 10 तत्पु० ) जन्म उत्पत्तिः ( स० तत्पु० ) यस्याः तथाभूतायाः (ब० वी० ) ते तव मनोरथः अभिलाषः तम् ओजस्विनम् तेजस्विनम् अग्निदेवम् विना अन्तरेण अन्यतः अन्यत्र कथम केन प्रकारेण वलते गच्छति न कथमपीति काकुः कुले उत्पन्नत्वात् तथापि तेजस्वित्वम् स्वाभाविकम् / अग्निरपि तेजस्वी भवतीति त्वया तेजस्विन्या तेजस्वी अग्निदेव एव कामयितव्य इत्येष परमार्थो मया ज्ञात एवेति भावः // 54 / / व्याकरण-अनुरज्यसे—अनु + Vर ( दिवा० ) + लट् विलासिनि ! विलासवतीति वि + - लस् + घिनुण + ङीप् / सम्बो० तत्त्वम् तस्य भाव इति तत् + त्व। क्षत्रियः क्षत्रस्यापत्यमिति क्षत्र + घ, घ को इय / क्षत्र: 'क्षतात् किल. त्रायते' इति कालिदासः,। ओजस्विनम् ओजोऽस्मिन्नस्तोति ओजस् + विन् (मतुबर्थ ) / अन्यतः अन्य + तसिल ( सप्तम्यर्थ ) / ___ अनुवाद-हे विलासिनी ! तुम्हारा स्वयं ही अग्नि से अनुराग है-यह सचाई मैंने जान ली है। कारण यह कि तुम-जिसका जन्म क्षत्रिय-कुल मे हो रखा है-उस तेजस्वी ( अग्नि) के सिवा दूसरे को कैसे चाहोगी? // 54 // टिप्पणी-विद्याधर अग्नि पर चेतन-व्यवहार-समारोप मान कर यहाँ समासोक्ति कह रहे हैं / जो हम नहीं समझ पा रहे हैं। क्योंकि हम पीछे स्पष्ट कर आए हैं अग्नि, सूर्य आदि देवता स्वयं चेतनरूप हैं, तभी तो दमयन्ती को ब्याहने आ रहे हैं। देदीप्यमान जड़ ज्वालापुञ्ज आदि तो उनके कार्य-देह हैं। जैसे यास्काचार्य ने बताया है। हाँ, सम का सम के साथ योग बताने से समालंकार हो सकता है। मल्लिनाथ वाक्यार्थों में परस्पर कार्यकारण भाव मानकर काव्यलिङ्ग कह रहे हैं. जो ठीक ही है। 'बल' 'विला' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनप्रास है // 54 // त्वयैकसत्या तनुतापशङ्कया ततो निवत्यं न मनः कथंचन / हिमोपमा तस्य परीक्षणक्षणे सतीषु वृत्तिः शतशो निरूपिता॥ 55 // अन्वयः-एकसत्या त्वया तनु-तापशङ्कया ततः कथंचन मनः न निवत्यम् / परीक्षण-क्षणे तस्य वृत्तिः शतशः हिमोपमा निरूपिता। टीका--एका मुख्या चासौ सतो पतिव्रता तया (कर्मधा० ) तनोः स्वशरी-- रस्य तापः दाहः (10 तत्पु० ) तस्मात् शङ्का भयम् तया (पं० तत्पु० ) शरीर Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 नैषधीयचरिते संसर्गे जाते सौ मां धक्ष्यतीति भयकारणादित्यर्थः ततः तस्मात् अग्नेः सकाशात् कथंचन केनापि प्रकारेण मन: स्वचित्तम् न निवर्त्यम् निवर्तनीयम् तस्मादनुरागो न उपसंहरणीय इत्यर्थः / यतः परीक्षणस्य सतीत्वासतीत्वपरीक्षायाःक्षणे काले तस्य अग्नेः वृत्ति: स्थितिः शतशः शतवारम् हिमेन तुषारेण उपमा तुलना (तृ तत्पु०) यस्याः तथाभूताः ( ब० वो०) हिमसमानेत्यर्थः निरूपिता दृष्टा। सीतादीनां सतीत्वपरीक्षायामग्नेः दाहकत्वाभावो रामायणे सुतरां प्रसिद्ध एव; यथा चोक्तं भोजप्रबन्धेऽपि—'सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके न बोधयामास पति पतिव्रता। तदाऽभवन् तत्पति भक्ति-गौरवाद् हुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः // त्वमपि सतीषु उत्तमा, अतः तस्माद् दाहभयं न कर्तव्यमितिभावः / / 55 // व्याकरण-ताप: तप घन ( भावे ) / शङ्का शङ्क + टाप् / निवत्यम् नि + Vवृत् + णिच् + ण्यत् / परीक्षणम् परि/ईक्ष् + ल्युट् ( भावे ) / वृत्तिः Vवृत् + क्तिन् ( भावे ) / उपमा उप + मा + अङ् ( भावे ) + टाप् / ___अनुवाद-“सतियों में मुख्य-भूत तुम्हें ( अपने ) शरीर के दाह की शंका के कारण किसी प्रकार भी उन ( अग्नि ) की ओर से मन नहीं हटा लेना चाहिए, ( क्योंकि ) परीक्षा-काल में उन ( अग्नि ) की स्थिति सैकड़ों बार हिमजैसी देखने में आई हुई 'है' // 55 // टिप्पणी-कारण बता देने से कायलिंग है। 'क्षण' 'क्षणे' में छेक अन्यत्र वृल्यनुप्रास है // 55 // स धर्मराजः खलु धर्मशीलया त्वयास्ति चित्तातिथितामवापितः / ममापि साधुः प्रतिभात्ययं क्रमश्चकास्ति योग्येन हि योग्यसंगमः / / 56 // अन्वयः स धर्मराजः धर्मशीलया त्वया चित्सातिथिताम् अवापितः अस्ति खलु / अयम् क्रमः मम अपि साधु प्रतिभाति; हि योग्येन योग्यसंगमः चकास्ति / टीका–स प्रसिद्धः धर्मराजः धर्मस्य राजा यमः धर्मशीलयति अभ्यस्यति चरतीति यावत् इति तथोक्तया ( उपपद तत्पु० ) त्वया दमयन्त्या चित्तस्य निज. मनसः अतिथित्वम् प्राघुणिकत्वम् अवापितः प्रापितः अस्ति खलु सम्भावनायाम् / त्वं धर्मशीला, स च धर्मशील इति सम्भवतः त्वं तस्मिन् अनुरज्यसे इति भावः / अयम् एष क्रमः परिपाटी मम अपि. साधुः समीचीनः प्रतिभाति प्रतीयते, हि यतः योग्येन सह योग्यस्य संगमः मेल: (10 तत्पु० ) चकास्ति शोभते, कुलशीलादिना Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः समानस्य समानेन सह सम्बन्धः सम्यक् भातीति भावः। यथा चोक्तम्-ययोरेव समं शीलं ययोरेव समं कुलम् / तयोत्री विवाहश्च न तु तुष्ट-वितुष्ट योः / ! 56 // व्याकरण-धर्मशीलया धर्म + शील् + णः + टाप / अतिथित्वम् इसके लिए पीछे ‘श्लोक' 49 देखिए / अवापितः अव+/आप् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / योग्य योगमहतीति योग + यत् अथवा युज्यते इति/युज + ण्यत् / अनुवाद-"हो सकता है कि उस धर्मराज को धर्मशील तुमने ( अपने ) हृदय का अतिथि बना रखा हो। यह परिपाटी मुझे भी अच्छी लगती है, क्योंकि योग्य के साथ योग्य का मेल शोभा देता है" // 56 // टिप्पणी-यहाँ आदि के तीन पदों में प्रतिपादित विशेष बात का चौथे पाद की सामान्य बात से समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है।' धर्म धर्मः तथा 'योग्ये योग्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 56 // अजातविच्छेदलवै: स्मरोद्धवैरगस्त्यभासा दिशि निर्मल त्विषि। घतावधि कालममत्यशङ्किता निमेषवत्तेन नयस्व केलिभिः // 57 // अन्वयः-(हे भैमि ! ) अगस्त्य-भासा निर्मलत्विषि दिशि तेन ( सह ) अजातविच्छेद-लवैः स्मरोद्भवः केलिभिः अमृत्यु-शङ्किता ( सती ) त्वम् धृताधिम् कालम् निमेषवत् नयस्व / - टीका-(हे भैमि ! ) अगस्त्यः एतन्नामा दक्षिणे स्थितो नक्षत्रविशेषः तस्य भासा दीप्त्या ( ष० तत्पु० ) निर्मला उज्ज्वला ( तृ० तत्पु० ) स्विट कान्तिः ( कर्मधा० ) यस्यामिति तथाभूतायाम् (ब० वी० ) दिशि दिशायां दक्षिणदिशायामित्यर्थः सा हि यमस्य दिशा तेन यमेन सह न जातः संभूतः विच्छेदलवः व्यवधानलेशः ( कर्मघा० ) येषु तथाभूतैः ( ब० वी० ) विच्छेदस्य लवः ( ब० बी० ) स्मरः कामः तस्मात् उद्भवः उत्पत्तिः / पं० तत्पु० ) येषां तथाभूतैः (ब०वी०) केलिभिः क्रोडाभिः आलिङ्गनचुम्बनादिभिरितियावत् (केलिशब्द उभयलिङ्गः ) मृत्यः मरणम् तस्मात् शंकिता भीता (पं० तत्पु० ) न मृत्युशंकिता इत्यमृत्युशंकिता ( ना तत्सु० ) मृत्युभयरहिता सतीत्यर्थः त्वम् धुतः अपाकृतः अवधिः मर्यादा ( कर्मधा० ) यस्मात् तथाभूतम् ( ब० वी० ) कालम् निरवधिक समयम् शाश्वतकालमित्यर्थ: निमेषवत् क्षणमिव नयस्व अतियापयस्व / अन्येन सह परिणयं विना मृत्युरवश्यंभावी, यमेन सह परिणये तु विना मृत्युभयम् निरन्तरम् अनन्तकालम् विषयोपभोगं कुरुष्वेति भावः // 57 // Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 नैषधीयचरिते व्याकरण-भास्/भास् + क्विप (भावे)। विष विष् + किम् (भावे)। तेन सह शब्द के प्रयोग के विना भी यहाँ 'वृद्धो यूना (1-2-65)' के प्रमाण से सहार्थ में तृतीया है। विच्छेवः वि + /छिद् + घन् ( भावे ) / उद्भवः उत् + Vभू + घञ् (भावे ) / धृत/धु + क्त ( कर्मणि ) / निमेषवत् निमेष इवेति निमेष + वत् ( सादृश्यार्थं ) / निमेष: नि +/मिष + घ ( भावे ) / नयस्व कर्तृगत क्रियाफल में आत्मने / __ अनुवाद-"(हे दमयन्ती!) अगस्त्य नक्षत्र के प्रकाश से निर्मल कान्ति' वाली बनी ( दक्षिण ) दिशा में उन ( यम ) के साथ विना थोड़ा सा भी व्यव. धान किये कामुक क्रीड़ाओं द्वारा, मृत्युभय से रहित हो अनन्त काल को क्षण को तरह बिताओ" // 57 // __टिप्पणी-दक्षिण दिशा यम की होती है। मलयज-सौरभ और शीतल पवन के कारण वह अन्य दिशाओं की अपेक्षा अधिक उपभोग-योग्य मानी जाती है, अतः वहाँ का उपभोग-सुख यम को छोड़ अन्य देवता के साथ दुर्लभ है। निमेषवत् में उपमा है / “दिशि'. 'त्विषि' में (शषयोरभेदात् ) पदान्तगत अन्त्यानुप्रास है / / 57 // शिरीषमृद्वी वरुणं किमोहसे पयःप्रकृत्या मृदुवर्गवासवम् / विहाय सर्वान्वृणुते स्म किं न सा निशापि शीतांशुमनेन हेतुना / / 58 // अन्वयः-(अथवा ) शिरीष-मृद्वी ( त्वम् ) पयःप्रकृत्या मृदुवर्गवासवम् ईहसे किम् ? सा निशा अपि अनेन हेतुना सर्वान् विहाय शीतांशुम् न वृणुते स्म किम् ? टीका-(अथवा ) शिरीषः कपीतनः मृदुपुष्पविशेष इति यावत् तद्वत् मृद्वी कोमलाङ्गी ( उपमान तत्पु० ) त्वम् पयसः जलस्य प्रकृत्या स्वभावेन (10 तत्सु० ) जलत्वेनेत्यर्थः मृदूनां कोमलपदार्थानाम् यो वर्गः समूहः तस्य वासवम् इन्द्रम् श्रेष्ठं वरुणमित्यर्थः (10 तत्पु०) ईहसे इच्छसि किम् ? त्वम् मृद्वी, वरुणोऽपि जलरूपत्वेन मृदुः इति समानस्वभावत्वात् त्वं वरुणे अनुरज्यसे इति संभावयामीति भावः / सा अतिमृद्वी शीता च निशा रात्रि अपि अनेन हेतुना कारणेन सर्वान निखिलान् देवान् विहाय त्यक्त्वा शीता शीतला: अंशवः किरणाः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी०) चन्द्रमित्यर्थः Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 433 वृणुते स्म वरयति स्म किम् ? अपितु वृणुते स्म एवेति काकुः / सूर्यादीन् तीक्ष्णान् देवान् अनादृत्य निशा जलरूपत्वेन मृदुं चन्द्रमेव वृतवती. अतो निशापतिः चन्द्रः, तद्वत् मृदङ्गी त्वमपि मृदुं वरुणं वृणुषे इत्युचितमेवेति भावः // 58 / / व्याकरण-मृद्वी मृदु + ङीष् / मृदु मृद्यते इति/मृद् + कु / अनेन हेतुना 'सर्वनाम्नस्तृतीया च' ( 2 / 320 ) से तृतीया / __ अनुवाद-"( अथवा ) शिरीष-पुष्पकी तरह मृदु तुम जल-स्वभाव रखने के कारण मृदु पदार्थों में सर्वश्रेष्ठ वरुण को चाहती हो क्या? उस (मृदुःशीतल) रजनी ने भी इसी कारण सभी ( देवों ) को छोड़कर शीतांशु ( चन्द्रमा ) का ही वरण नहीं किया क्या ?" 58 // टिप्पणी-मल्लिनाथ पूर्वांध और उत्तरार्ध के समानान्तर दोनों विशेष वाक्यों में परस्पर विम्बप्रतिबिम्बभाव मानते हुए दृष्टान्त कह रहे हैं जब कि विद्याधर ने उभयभ्यास अलंकार माना है। उभयन्यास का लक्षण वे रुद्रट के अनुसार यह देते हैं-सत्सामान्याथों स्फुटमुपमायाः स्वरूपतोपेती / निर्दिश्येते यस्मिन्नुभयन्यास: स विज्ञेयः' / शिरीषमुद्री में उपमा है। 'शीतांशम' विशेष्य के साभिप्राय होने से कुवलयानन्दानुसार परिकरार है। 'मृद्वी' 'मृदु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 58 // * असेवि यस्त्यक्तदिवा दिवानिशं श्रियः प्रियेणानणुगमणीयकः / सहामुना तत्र पयः पयोनिधी कृशोदरि ! क्रीड यथामनोरथम् / / 59 / / अन्वयः हे कृशोदरि ! त्यक्त-दिवा श्रियः प्रियेण अनणु-रामणीयकः यः (पयः पयोनिधि:) दिवा-निशम् असेवि, तत्र पयः पयोनिधी अमुना सह यथामनोरथम् क्रीड। टोका-कृशं तनु उदरं मध्यं ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी ( ब० वी० ) त्यता द्यौः स्वर्गः ( कर्मधा० ) येन तयाभूतेन (ब० वी० ) श्रिय: लक्ष्म्याः प्रियेण भ; विष्णुना न अणु अनणु महदित्यर्थः ( नन तत्पु० ) रामणीयकम् रमणीयता ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) यः ( पयःपयोनिधिः ) दिवानिशम् विवा च निशा चेति ( द्वन्द्वा) असेवि सेवितः, तत्र तस्मिन् पयसः दुग्धस्य पयोनिधौ समुद्रे (10 तत्पु० ) अमुना वरुणेन सह यथामनोरथम् मनो. रथमनतिक्रम्य ( अव्ययीभाव ) यथेच्छम् क्रोड विलस / यथा लक्ष्मी-नारायणी Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 नैषधीयचरिते क्षीर-सागरे दिवानिशं विलसतः तथा त्वमपि वरुणेन सह तत्र विलसेति भावः // 59 // व्याकरण-रामणीयकम् रमणीयस्य भाव इति रमणीय + वन , व को अक। दिवानिशम्-द्वन्द्व में एकवद्भाव और कालात्यन्त-संयोग में द्वि० / असेवि /सेव + लुङ् ( कर्मणि ) यथामनोरथम्-'यथाऽसादृश्ये' 2017 से समास / अनुवाद-"ओ कृशोदरी! स्वर्गलोक छोड़े हुए लक्ष्मी-पति ( विष्णु ) ने अत्यन्त रमणीय जिस (क्षीरसागर ) का रातदिन आश्रय ले रखा है, उस क्षीरसागर में तुम उन (वरुण) के साथ इच्छानुसार भोग-विलास करो" // 59 / / टिप्पणी-भाव यह है कि क्षीर-सागर स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर और उत्तम है, नहीं तो विष्णु को क्या पड़ी थी कि स्वर्ग को लातमारकर वहां रहते ? इसलिये यदि तुम वरुण का वरण करोगी, तो तुम्हें भी सतत आनन्दरूप भोग के लिए क्षीरसागर मिल जायगा, जहाँ वरुणदेव रहते हैं / विद्याधर के अनुसार यहाँ अवसर अलंकार है जिसका लक्षण इस तरह है-'अर्थान्तरमुत्कृष्टं सरसं यदि चोपलक्षणं क्रियते / अर्थस्य तदभिधानप्रसङ्गतो यत्र सोऽवसरः' 'दिवा दिवा' में यमक, 'पयः पयो में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 59 // इति स्फुटं तद्वचसस्तयादरात्सुरस्पृहारोपविडम्बनादपि / कराङ्कसुप्तैककपोलकर्णया श्रुतं च तद्भाषितमश्रुतं च तत् // 60 // अन्वयः-कराङ्क"कर्णया तया इति स्फुटम् तत् तद्भाषितम् तद्वचसः आदरात् सुर' नात् अपि श्रुतम् च, अश्रुतम् च / टोका-करस्य हस्तस्य अंके क्रोडे मध्ये इत्यर्थः (10 तत्पु० ) सुप्तम् स्थितम् (स० तत्पु०) एकञ्च तत् कपोलकणंम् ( कर्मधा० ) कपोलो गण्डश्च कर्णः श्रोत्रं च तयोः समाहारः ( समाहार द्व०) यस्याः तथाभूतया ( ब० वी० ) तया दमयन्त्या इति एवम् स्फुटम् स्पष्टम् तत् पूर्वोक्तम् तस्य नलस्य भाषितम् कथितम् तस्य नलस्य वचस: मधुरवाचः आदरात् समानात् अनुरागादिति यावत् सुरेषु इन्द्रादिदेवेषु या स्पृहा अभिलाषः ( स० तत्पु० ) तस्या आरोप: स्थापनम् (ष० तत्पु० ) एव बिडम्बनम् उपहासः ( कर्मधा० ) तस्मात् अपि श्रुतम् आकणितं च अश्रुतम् नाकर्णितञ्च / इदं नलाकृतिदूतस्य मधुरं वचनम् इति कृत्वा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सगः 435 तत्प्रति आदर-बुद्धया श्रुतम् , इदं देवेषु मद्नुरागविषयकमिति कृत्वा अनादरात् न श्रुतमिति भावः / / 60 // ___व्याकरण--वचस: उच्यते इति Vवच + असुन्, सप्तमी के स्थान में सम्बन्ध-विवक्षा में षष्ठी / सुरः इसके लिये पीछे 5 / 34 देखिये / आरोप: आ+ रुह् णिच् +घञ् ( भावे ) / भाषितम्/भाष + क्त ( भावे ) / अनुवाद-"हथेली के मध्य एक कपोल और कान रखे उस ( दमयन्ती) ने इस प्रकार उस ( नल) के द्वारा कही उस स्पष्ट बात को, उसकी वाणी के प्रति आदरभाव के कारण तथा देवताओं के प्रति उसकी ओर से अनुराग रखे जाने की बिडम्बना के कारण, सुना भी है और नहीं भी सुना है / / 60 / / टिप्पणी नलाकार वाले दूत की वाणी में बड़ी मिठास थी, जिसे सुनने को वह लालायित एवं उत्सुक हो रही थी किन्तु वह पातिव्रत्यधर्म के विरुद्ध अंट संट बोलता जाता था कि वह देवताओं को चाहती हैं, जिससे वह खीझ जाती थी इसलिए वह उसकी बातें सुनती भी थी, और नहीं भी सुनती थी। एक कान हथेली से दब गया था, इसलिए दूत की बुरी बात सुन नहीं रही थी लेकिन जो दूसरा कान पृथक् था, उससे वह मीठी बातें सुन रही थी। कवि का यह आशय प्रतीत होता है, किन्तु यह संगत नहीं होता क्योंकि कान जो भी हो बायां या दायां वह बुरा-भला दोनों ही सुनता है। वह किसी की सुनी और किसीकी अनसुनी करे यह संभव नहीं। इसका समाधान नारायण यह करते हैं-'इन्द्रियपाटवाच्छतम्, अनङ्गीकारान्न श्रुतमिति भावः' उन्होंने 'अश्र तम्' का अर्थ अनङ्गीकार करके सुनी अनसुनी कर दी यह अर्थ किया है। हमारे विचार से 'स्फुटम्' शब्द को उत्प्रेक्षा-वाचक मान लिया जाय तो यह कल्पना हो जाएगी कि मानो दबे कान से उसने बुरी बात नहीं सुनी खुले कान से मीठी बात सुनी। पिर कोई अनुपपत्ति नहीं रहेगी। हमारी तरफ से यहाँ उत्प्रेक्षा है। आदर और बिडम्बना के साथ श्रुतम् , और 'अश्रुतम्' का यथासंख्य अन्वय होने से यथासंख्यालंकार हैं। 'श्रुतं श्रुतं' में छेकानुप्रास है। 'अश्रुतम्' में निषेध की प्रधानता होने से समास में उसकी विधेयता चली गई, अतः विधेयाविमर्श दोष बन रहा है। यहाँ 'श्रुतं च न श्रुतं च' होना चाहिए था // 60 // Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते चिरादनध्यायमवाङ्मुखी मुखे ततः स्म सा वासयते दमस्वसा / कृतायतश्वासविमोक्षणाथ तं क्षणाद्वभाषे करुणं विचक्षणा // 61 // अन्वयः-ततः सा दमस्वसा अवाङ्मुखी ( सती) मुखे चिरात् अनध्यायम वासयते स्म / अथ कृत "क्षणा विचक्षणा क्षणात् तम् करुणम् बभाषे।। टोका-ततः तदनन्तरम् सा दमस्य स्वसा भगिनी (प० तत्पु० ) दमयन्ती अवाक चिन्ता-कारणात् नीचः यथा स्यात्तथा मुखम् वदनं ( सुप्सुपेति समासः) यस्याः तथाभूता सती (ब० वी०) मुखे वाचि चिरात् चिरकालम् अनध्यायम् अध्यायः पठनम् उच्चारणम्, न अध्याय इति अनध्यायः ( नन तत्पु० , न किमपि कथनं मौनमिति यावत् वासयते स्म वासं कारितवती चिरं तूष्णीं बभूवेत्यर्थः / अथ पश्चात् कृतम् विहितम् आयतश्वास-विमोक्षणम् ( कर्मधा० ) आयतस्य दीर्घस्य श्वासस्थ निःश्वसितस्प ( कर्मधा० ) मोक्षणम् विमोचनम् (10 तत्पु०) यया तथाभूता (ब० बी०) विचक्षणा चतुरा दमयन्ती क्षणात् क्षणानन्तरम् तम् नलम् करुणम् दैन्यपूर्वकम् यथास्यात्तथा बभाषे कथया मास / कियकालम् मुखं मौनं निधाय चिन्तातुरा सा क्षणात् प्रत्युत्तरवतीतिभावः // 63 // व्याकरण-अवाक अव + V अञ्च + किन् / अध्यायः अधि + ईङ् + धअन्त निपातित ( 3 / 3 / 122) / वासयते स्म वस् + णिच् + लट्, कर्तृगतक्रियाफल में आत्मने / बिचक्षणा विचष्टे इति वि+चक्षिन + युच + युको अन, न को ण + टाप, ख्यादेश का प्रतिषेध / मोक्षणम्/ मोक्ष + ल्युट ( भावे)। अनुवाद-तदनन्तर वह दमयन्ती मुख नीचे किए देर तक चुप्पी साधे रही। बाद को लम्बी आह खींचे हुए वह चतुर लड़की क्षणभर में दीनता पूर्वक उन (नल) को बोली / / 61 // टिप्पणी-विद्याधर ने यहां उपमा कही है, जो हमारी समझ में नहीं आ रही है। यहाँ भावोदयालंकार है क्योंकि मुख नीचा करना, लम्बी आहे भरना और दीनता चिन्ता के अनुभाव होते हैं। मुखी, मुखे, में छेक, क्षणा, क्षणा, क्षणा में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / करुणं नारायण 'करुण' में 'अकरुण' सन्धिच्छेद करके अर्थ में यह विकल्प रख रहे हैं कि वह अकरुण कठोरता के साथ बोली। पिछले श्लोक में दमयन्ती को नल के यह कहने पर कि वह Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः देवताओं से अनुराग करती है वह खीजी हुई है। अगले श्लोक में भी वह उन्हें कोस रही है कि वे उसे दुर्वाचिक-सूचि-संचयों से बींध रहै हैं, अतः 'अकरुण' ही ठीक है // 61 // विभिन्दता दुष्कृतिनों मम श्रुति दिगिन्द्रदुर्वाचिकसूचिसंचयैः / प्रयातजीवामिव मां प्रति स्फुटं कृतं त्वयाप्यन्तकदूततोचितम् / / 2 / / अन्वयः-दुष्कृतिनीम् मम श्रुतिम् दिगि....'चयः विभिन्दता त्वया अपि प्रयातजीवाम् इव माम् प्रति स्कुटम् अन्तकदूततोचितम् (कर्म) कृतम् / टीका-दुष्कृतिनीम् पापिनीम् मम मे अतिम् श्रोत्रम् विशाम् दिशानाम् इन्द्रा: स्वामिनः इन्द्राग्निवरुणयमाः तेषाम् दुर्वाचिकानि गहितसन्देशवचनानि { उमयत्र ष० तत्पु० ) एव सूचयः सेवन्यः ( कर्मधा० ) तासां सञ्चयः समूहै: विभिन्दता विध्यता त्वया अपि नलसमानसुन्दराकृतिना अपि सता प्रयातः गतः जीव: जीवितम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूताम् ( ब० वी०) माम् प्रति उद्दिश्य स्फुटं व्यक्तं यथा स्यात्तथा अन्तकस्य यमस्य दूतता दूतत्वम् तस्या उचितम् सदृशम् कर्म कृतम् / परपुरुषस्य तव वाश्रिवणेन कृतमहापापी मरकर्णी त्वम् इदानी देवकुसन्देशश्रावणरूपाभिः सूचिभेदन-यातनाभिः दण्डयन मां तथा मृतप्रायां करोषि यथा नरके यमदूतः पापिपुरुषान् मृतप्रायान् करोतीति भावः // 62 // व्याकरण-दृष्कृतिनी दुः = दुष्टं कृतम् अस्या अस्तीति दुष्कृत + इन् ('मतुबर्थ ) + ङीप् (स्त्रियाम् ) / दुष्कृतम् दुस् + /कृ + क्त (भावे ) / श्रुतिः श्रूयतेऽनयेति श्रु + क्तिन् ( करणे)। दुर्वाचिकम् दुष्टं वाचिकमिति (प्रादि स० ) वाचिकम् वाचा कृतमिति वाच + ठक, ठ को इक / सूचिः सूच्यते (विध्यते ) अनयेति सूच् + इ ( करणे ) / अन्तकः अन्तयतीति/अन्त + ण्वुल। अनुवाद-"तुमने भी मेरे पापी कानों को दिक्पालों के अभद्र सन्देशरूपी डेरों सुइयों से बींधते हुए मरी हुई-जैसी मेरे प्रति प्रत्यक्षतः यम के दूतत्व के योग्य काम किया है" // 62 // टिप्पणी-पतिव्रता के लिए परपुरुष से बातें करना और उन्हें सुनना Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 नैषधीयचरिते पाप है। इस लिए पापिनी तो मैं पहले ही हो गईं जो तुमसे बोली। अब तुमने देवताओं के अभद्र सन्देश सुना कर मुझे मर्मान्तक पीड़ा दी है। नल के से सुन्दर आकार को रखे हुए भी तुमने इन कुसन्देशों से सुइयों से-जैसे बींधकर मुझे मेरे पापके अनुरूप यातना दी है। चारों देवों के दूत होते हुए भी तुमने मुझे मृतप्राय करके यमदूत का ही काम किया है। यमदूत मरणोपरान्त पापियों को सुइयां चुभा चुभा कर नरक-यातना देते ही हैं। दुर्वाचिक पर सूचित्वारोप होने से रूपक है प्रयातजीवामिव में उपमा है। विद्याधर समासोक्ति भी कह रहे हैं, जो समझ में नहीं आ रही है / 'सूचि-संचयः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 62 // त्वदास्यनिर्यन्मदलीकदुर्यशोमषोमयं सल्लिपिरूपभागिव / श्रुतिं ममाविश्य भवदुरक्षरं सृजत्यदः कीटवदुत्कटा रुजः // 63 / / अन्वयः-त्वदास्य-नियंत् मद 'मयम् लिपिरूपभाक् इव सत् अदः भवदुरक्षरम् मम श्रुतिम् आविश्य कोटवत् उत्कटाः रुजः सृजति / टीका-तव आस्यम् मुखम् (10 तत्पु० ) तस्मात् नियंत निर्गच्छत् (ष. तत्पु० ) मम यत् अलीकम् इन्द्रादिष्वहमनुरज्ये इति मत्सम्बन्धि मिथ्या. रूपम् (10 तत्पु० ) दुर्यशः अपकीतिः (कर्मधा०) एव मषी (स्याहीति भाषायां) प्रसिद्धा तत्-प्रचुरमिति तन्मयम् सती चासो लिपिः सल्लेखः तस्या रूपम् स्वरूपम् (10 तत्पु० ) भजति धारयतीति तथोक्तम् ( उपपदतत्पु०) इवेति अदः एतत् भवतः तव दुरक्षरम् दुष्टाक्षराणि दुःशब्दा दुःसन्देश इति यावत् मम मे श्रुतिम् कर्णम् आविश्य प्रविश्य कोट: कृमिः इव उत्कटा: महती: रुजः पीडाः सृजति जनयति / त्वच्छब्दाः लेखबद्धा इव भूत्वा मत्कर्णयोः महापीडां कुर्वन्तीति भावः // 63 // ___ व्याकरण-आस्यम् अस्यते (प्रक्षिप्यते ) अन्नादिकमोति अस् + ण्यत् ( अधिकरणे)। निर्यत् निर + इ + शतृ / मषीमयम् प्राचुर्ये स्वरूपार्थे वा मयट / भाकर भज् + विप् ( कर्तरि ) / श्रुतिम् इसके लिए पिछला श्लोक देखिए / लिपिः/लिप्+ इक / रुज /रुज + विप् ( भावे) // 63 // अनुवाद-"तुम्हारे मुँह से निकलते हुए मेरे सम्बन्ध में झूठे अपयश-रूषी स्याही रखे, अच्छे-से लेख का रूप अपनाये हुए-जैसे तुम्हारे ये शब्द मेरे कानों में घुसकर कीड़े की तरह बड़ी बीव्र-पीड़ा उत्पन्न कर रहे हैं / / 63 / / Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 439 नवमः सर्गः टिप्पणी-तुम्हारे कहे हुए अभद्र शब्द कि मैं दिक्पालों को चाहती हूँ,मेरी बदनामी का एक लेख-सा बन गया है, जिसके लिए, मुख बना दवात और उससे निकली बदनामी बनी काली स्याही। कवि जगत् में यश श्वेत और अपयश काला होता ही है। दुर्यश पर मषीत्वारोप में रूपक, लिपिरूपभागिव में उत्प्रेक्षा और कीटवत् में उपमा है। विद्याधर यहाँ श्लेष भी कह रहे हैं / 'लिपि रूप' में (रलयोरभेदात् ) तथा 'कीट' 'कटा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 63 // तमालिरूचेऽथ विदर्भजेरिता प्रगाढमौनव्रतयैकया सखी / त्रपां समाराधयतीयमन्यया भवन्तमाह स्वरसज्ञया मया // 64 // अन्वयः -अथ विदर्भजेरिता-आलिः तम् ऊचे-"इयं सखी प्रगाढमौनव्रतया एकया स्वरसज्ञया त्रपां समाराधयति, अन्यया मया स्वरसज्ञया भवन्तम् आह / " टीका-अथ तदनन्तरम् विवर्मजा दमयन्ती तया ईरिता प्रेरिता आलि: सखी तम् नलम् ऊचे कथयामास ‘इयम् एषा मे सखी दमयन्ती प्रगाढम् दृढम् मौनम् तूष्णीम्भावः एव ब्रतम् नियमः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतया (ब० वी० ) एकया स्वा स्वकीया या रसज्ञा रसं (मधुरादिकं ) जानातीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) जिह्वा तया ( कर्मधा० ) त्रपाम् लज्जाम् समाराधयति भजत अन्यया अपरया मया मद्रूपया स्वरसज्ञया स्वजिह्वया अथ च स्वं रसम् नलविषयकानुरागं जानन्त्या भवन्तम् त्वाम् आह कथयति, लज्जाकारणात् सा स्वयं स्वाभिलाषं त्वदने कथयितुं न शक्नोतोति मन्मुखेन कथयतीति भावः // 64 // व्याकरण-विदर्भजा-विदर्भेभ्यः जायते इति विदर्भ + जन् + ड + टाप् / प्रगाढ़ प्र+/गाह + क्त / मौनम् मुनेः भाव इति मुनि + अण् / रसज्ञा रस + Vज्ञा + क + टाप / त्रपात्र + अङ (भावे+टाप् ) / आह V+लट विकल्प से 'आह' आदेश / अनुवाद-तत्-पश्चात् दमयन्ती द्वारा प्रेरित की हुई सखी उन ( नल ) को बोली-“यह मेरी सखी ( दमयन्ती) दृढ़ मौन-व्रत अपनाये अपनी एक रसज्ञा ( जिह्वा ) से त्रपा की आराधना कर रही है ( और ) अपनी दूसरी Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 नंषधीयचरिते रसज्ञा (जिहवा) से-जो स्वयं मैं हूँ और उसके रस ( अनुराग ) को जानती हूं-आपको कह रही है" / / 64 // टिप्पणी-'मैं किसी भी देवता को नहीं चाहती है, केवल नल को चाहती हूँ, यह अपने मन की बात आगन्तुक दूत के सामने प्रकट करने में दमयन्ती लजा गई। इस बात को सखी किस ढङ्ग से कहती है कि दमयन्ती की रसज्ञा (जिह्वा ) मौन व्रत अपनाये हुए हैं क्योंकि वह त्रपा देवी की आराधना में लगी हुई है। आराधना में लगा व्यक्ति मौन व्रत ही रखता है। सखी भी दमयन्ती की रसज्ञा (जिह्वा) हो-है, जो उसका नल विषयक रस ( अनुराग) जानती है, इसलिए वही दमयन्ती को जिह्वा-मुख-बनकर उसकी तरफ से उत्तर देती है। विद्याधर यहाँ समासोक्ति कह गए हैं, किन्तुं हमारे विचार से 'मया' पर रसज्ञात्वारोप होने से रूपक बन रहा है / 'रसज्ञा' में श्लेष स्पष्ट हो है। 'कया' 'न्यया' 'ज्ञया' 'मया' में पदान्तगत तथा पादान्तगत दोनों प्रकार का अन्त्यानुप्रास है // 64 // तचितुं मद्वरणस्रजा नृपं स्वयंवरः संभविता परेद्यवि। ममासुभिर्गन्तुमनाः पुरःसरैस्तदन्तरायः पुनरेष वासरः // 65 // तदद्य विश्रम्य दयालुरेधि मे दिनं निनीषामि भवद्विलोकिनी। नखैः किलाख्यायि विलिख्य पक्षिणा तवव रूपेण समः स मत्प्रियः।।६६॥ अन्वयः-मद्वरण-स्रजा तम् नृपम् अचितुम् परेद्यवि स्वयंवरः संभविता पुरःसरैः मम असुभिः ( सह ) गन्तुमनाः एष वासरः पुनः तदन्तरायः (अस्ति)। तत् अद्य विश्रम्य ( त्वम् ) मे दयालुः एधि / भवद्विलोकिनी ( सती) दिनम् निनीषामि, किल पक्षिणा नविलिख्य स मत्प्रियः तव एव रूपेण समः आख्यायि / टोका-मम वरणस्य या लक् माला वरमालेत्यर्थः ( उभयत्र ष० तत्पु.) तया तम् नृपम् नलाख्यं राजानम् अचितुम् पूजयितुम् परेद्यवि परेयुः श्व इति यावत् स्वयंवरः स्वयं स्व-वरस्य वरणमहोत्सवः संभविता संभविष्यति / पुरः सरन्तीति तथोकः ( उपपद तत्पु० ) अग्रगैः मम असुभिः प्राणः सह गन्तुं मनो यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) एषः अयम् वासरः दिवसः पुनः किन्तु तस्य स्वयंवरस्य अन्तरायः विघ्नभूतः अस्ति / एकस्य दिवसस्य यापनं मत्कृते अतिसुदुः Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 नवमः सर्गः सहमस्ति / कथं विलम्बभूतोऽयं दिवसो निर्विघ्नं यास्यतीति चिन्तया एतेन दिवसेन सह मम प्राणा अपि यातुमिच्छन्तीवेति भावः / तत् तस्मात् अझ अस्मिन् दिने विश्रम्य विश्रामं कृत्वा त्वम् मे मम दयालुः दयावान् एघि भव / मम गृहे स्थिति विधाय मामनुगृहाणेत्यर्थः / भवतः तव विलोकिनी विलोकयित्री भवन्तं स्वसमीपं स्थितं विलोकयन्ती सतीत्यर्थः विनम् अन्तरायभूतम् एतं दिवसम् निनीषामि अतियापयितुमिच्छामि, किल यस्मात् पक्षिणा विहगेन हंसेन नखैः नखरेः विलिख्य नलिनीपत्रे चित्रयित्वा स मम प्रियः वल्लभः नलनृपः तब एव रूपेण आकृत्या समः सदृशः आख्यायि कथितः / हंसेन मप्रियतमस्य यत् चित्रं निर्माय मदने स्थापितम्, तत् तवाकृतितुल्यमासीत् / प्रियतमतुल्याकृतिकं त्वां विलोकं विलोकं मनो विनोदयन्ती अहम् कथमपि व्यवधानीभूतं दिवसमेतम् अतिवाहयिष्यामीति भावः / / 65-66 // व्याकरण-सजा सूज्यते ( पुष्पादिभिः) इति सृज + चिन् (तृ०)। परेद्यवि परस्मिन् द्यवीति पर + द्यो इति 'सद्यः परुत्परारि०' से निपातित / स्वयंवरः स्वयम् ( आत्मनैव ) वरणं वरः इति + अप ( भावे ) / संभविता सम् + Vभू + लुट / पुरःसरैः पुरः सरन्तीति पुरः +ट: / असुभिः अस्यन्ते ( क्षिप्यन्ते शरीरे ) इति/ अस् + उन् / गन्तुमनाः 'तुं काममनसोरपि' से म् का लोप / वासरः यास्काचार्यानुसार द्वाभ्याम् ( रात्रिदिनाभ्याम् ) सरतीति द्वि + / सृ + अच् ( पृषोदरादित्वात् साधुः ) / अन्तरायः अन्तः मध्ये एति ( आयाति ) इति अन्तर् + आ +Vs+ अच् ( कतरि)। दयालुः वया अस्यास्तोति दया + आलुच ( मतुबर्थ ) / दया- दय् + अञ् (भावे ) + टाप् / एधि / अस् + लोट् म० पु० ए०। विलोकिनी विलोकयतीति वि + Vलोक् + णिन् / निनीषामि नेतुमिच्छामीति/नी + सन् + लट् उ० पु० ए० / आख्यायि आ + Vख्या + लुङ् ( कर्मणि ) / __ अनुवाद-"अपनी बरमाला द्वारा उन नरपति ( नल ) की अर्चना करने के लिए कल ( मेरा ) स्वयंबर होने जा रहा है। किन्तु आगे-आगे जा रहे मेरे प्राणों के साथ जाना चाहता हुआ यह (एक) दिन बीच में आड़े आया हुआ है; इसलिए आज विश्राम करके तुम मेरे प्रति दयावान् बनो। तुम्हें देखती Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 नैषधीयचरिते (कमलिनी-पत्र पर ) चित्र बनाकर मेरा वह प्रियतम ( नल ) तुम्हारे ही रूप के सदृश कहा था // 65-66 // टिप्पणो-सखी के मुख से दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि 'स्वयंबर के बीच का यह दिन मेरे लिये एक युग के समान है / यह दिन बीतते-बीतते वियोग की विहवलता में तब तक मेरे प्राण ही निकल जाएंगे। इसलिए इस एक दिन के लिए तुम यहां टिके रहो तो मैं प्राण धारण कर लूंगी। कारण कि तुम्हारा मन-भावना, सुहावना चेहरा एकदम प्रियतम के चेहरे से मिलता-जुलता है। प्रश्न उठ सकता है कि परपुरुष को देखते रहने में क्या दमयन्ती का पातिव्रत्य भङ्ग नहीं हो जाएगा? नहीं इसमें पातिव्रत्य भङ्ग की कोई बात नहीं, क्योंकि वह आगन्तुक को नल-बुद्धि से देखती रहेगी, नल-भिन्न परपुरुष-बुद्धि से नहीं। उत्कट वियोगावस्था में नायक अथवा नायिका के लिए प्रियतमा अथवा प्रियतम अथवा उनके अङ्गों के सदृश वस्तु द्वारा प्राणधारणार्थ मनोविनोद साहित्य में अनुमत है। नारायण और विद्याधर इन दोनों श्लोकों को एकान्वयी मानकर एक-साथ व्याख्या कर रहे हैं। हमने भी उनका अनुसरण किया है, लेकिन मल्लिनाथ पृथक-पृथक् व्याख्या कर रहे हैं। पूर्व श्लोक में विद्याधर 'असुभिः' में सहाथ में तृतीया मानकर ‘दिन के साथ 2 प्राण भी चले जाएंगे' इस तरह सहोक्तिपूर्वक अतिशयोक्ति कह रहे हैं, जो कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्ययरूपा होगी, अर्थात् दिन-समाप्ति से पहले दमयन्ती के प्राण निकल पड़ेंगे तब दिन समाप्त होगा। किन्तु यहाँ दोनों का साथ-साथ समाप्त होना बताया गया है। हमारे विचार से वासर पर अन्तरायत्वारोप में रूपक भी है / दूसरे श्लोक में 'रूपेण समः' में उपमा और काव्यलिङ्ग हैं। 'वरण वरः', 'सरै सर:', 'लाख्या' 'लिख्य' और 'समः स म', में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 65-66 // दृशोर्द्वयी ते विधिनास्ति वञ्चिता मुखस्य लक्ष्मों तव यन्न वीक्षते / असावपि श्वस्तदिमां नलानने विलोक्य साफल्यमुपैतु जन्मनः // 67 / / अन्वयः-विधिना ते दृशोः द्वयी वञ्चिता अस्ति यत् तव मुखस्य लक्ष्मीम् न वीक्षते, तत् असो अपि श्वः नलानले इमाम् विलोक्य जन्मनः साफल्यम् उपैतु / Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 443 टीका-विधिना ब्रह्मणा ते तव दृशोः नयनयोः द्वयी द्वयम् वञ्चिता प्रतारिता अस्ति, यत् यस्मात् सा तव मुखस्य वदनस्य लक्ष्मीम् शोभाम् न वीक्षते प्रत्यक्षीकरोति स्वेन स्वमुखस्य प्रत्यक्षासंभवात् / दर्पणे; मुखस्य प्रतिबिम्बमेव दृश्यते न पुनः स्वयंमुखभितिभावः तत् तस्मात् असो ते दृग्द्वयी अपि श्वः परेछुः नलस्य मत्प्रियतमस्य आनने मुखे (10 तत्पु० ) इमाम् स्वमुखलक्ष्मीम् विलोक्य दृष्ट्वा जन्मन: जीवनस्य साफल्यम् सार्थकताम् उपेतु प्राप्नोतु / नलमुखे स्वमुखशोभां विलोक्य त्वं सफलजन्मा भविष्यसीति भावः // 67 // व्याकरण-विधि: विदधाति जगदिति वि+Vधा + कि ( कर्तरि ) / दृक पश्यतीति/दृश + किप ( कर्तरि ) / द्वयी द्वौ अवयवौ यत्रेति द्वि+ तयप, उसे विकल्प से अयच् + लीप / श्वः यास्कान्सार 'आशंसनीयकालः इति' शंस + वस निपातनात् साधुः / जन्म/ जन् + मनिन् ( भावे ) / अनुवाद- "ब्रह्मा ने तुम्हारी दोनों आँखों को धोखा दिया है, क्योंकि वे तुम्हारे मुख की शोभा नहीं देख पा रही हैं. अतएव ये भी कल नल के मुख पर इसे देख जन्म की सफलता प्राप्त कर लें" / / 67 // टिप्पणी-'तुम्हारे एक दिन मेरे यहाँ विश्राम करने से मुझे ही अपने प्राणों की रक्षा में सहायता नहीं मिलेगी बल्कि तुम्हारा भी इससे अपना मतलब सिद्ध होगा अर्थात् तुम्हारे चेहरे की अब तक अनदेखी शोभा को तुम्हारी आँखें नल के चेहरे पर देख कर धन्य धन्य हो जाएंगी। इस तरह यह “एक पंथ दो काज वाली बात हो जाएगी'। आँख अपने सामने वाली वस्तु को ही देखती है, अपनी ओर के मुख को नहीं। मल्लिनाथ और विद्याधर-दोनों यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं क्योंकि दूत की और नल की विभिन्न मुख-शोभाओं में अभेदाध्यवसाय हो रहा है। हमारे विचार से निदर्शना भी होकर दोनों का सन्देहसंकरालंकार बनेगा। काव्यलिङ्ग भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 67 // ममैव पाणीकरणेऽग्निसाक्षिकं प्रसंगसंपादितमङ्ग ! संगतम् / न हा सहाधीतिधृतः स्पृहा कथं तवार्यपुत्रीयमजर्यमजितुम् ? // 68 // अन्वयः-भङ्ग ! मम पाणीकरणे एव अग्निसाक्षिकम् संगतम् प्रसङ्ग-सम्पादितम् ( स्यात् ) / हा ! सहाधीतिधृतः तव आर्यपुत्रीयम् अजयम् अजितुम् स्पृहा कथं न ? Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 नैषधीयचरिते टीका-बङ्ग ! सम्बुद्धौ अव्ययम् हे देवदूत ! मम मे पाणीकरणे पाणिग्रहणसंस्कारे एव अग्निः वह्निः साक्षी साक्षिभूतः ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) संगतम् मैत्रीप्रसङ्गेन देवदूतकार्यसम्बन्धे आगमनेनेत्यर्थः सम्पा'दितम् कृतम् ( तृ० तत्पु० ) स्यादिति शेषः मम विवाहाग्नि-समीपे प्रसङ्गवशात् 'प्रियतमेन सह तव मैत्री भविष्यतीत्यर्थः / अद्यात्र तवावस्थानेनायमप्यलभ्यलाभ इति भावः / हा! कष्टम् / सह समम् अधीतिः अध्ययनम् धारयतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) सहाध्ययनं कृतवतः लक्षणया कुल-रूप-शीलादिना सदृशस्येत्यर्थः तव आर्यपुत्रस्य मम प्रियतमस्य नलस्येदमित्यार्यपुत्रीयम् आर्यपुत्रसम्बन्धीत्यर्थः अजयम् अक्षयम् चिरकालस्थायीति यावत् संगतम् अजितम् संपादयितुम् स्पृहा इच्छा तव कथं न ? त्वया मत्प्रियतमेन नलेन सह चिरस्थायि मैत्रं संपादनीयमिति भावः // 68 // व्याकरण-पाणौकरणे 'नित्यं हस्ते पाणावुपयमने' ( 1 / 4 / 77 ) से 'पाणी' निपात के गतिसंज्ञक होने से समास / साक्षी साक्षाद् द्रष्ठेति साक्षाद् द्रष्टरि संज्ञायाम्' (5 / 2 / 91 ) / संगतम् सम् + गम् + क्त ( भावे ) / अधीतिः अघि/ई + क्तिन् (भावे) / धृत् धृ + क्विप ( कर्तरि ) / आर्यपुत्रीयम् आर्यपुत्रस्येदमिति आर्यपुत्र छ छ को ईय। अजयंम् न जीर्यतीति न +/ज+ यत् ( कर्तरि ) यह विशेष्य शब्द है और अक्षय संगम ( मैत्री ) अथ का वाचक होता है। 'अजर्य संगतम्' ( 3 / 1 / 105) जैसे 'मृगैरजर्य जरसोपदिष्टम्' ( सि० को०)। स्पृहाV स्पृह + अच् ( भावे )+टाप् / / अनुवाद--“हे दूत ! मेरे पाणिग्रहण के समय ही प्रसंगवश ( मेरे पति के साथ तुम्हारी ) अग्नि को साक्षी बनाये हुए मित्रता हो जाएगी। खेद है कि सहाध्यायी अर्थात् सौन्दर्यादि में एक जैसे लग रह तुम्हें ( मेरे ) प्रियतम के साथ चिरस्थायी मित्रता गांठने की चाह क्यों नहीं होती ?" // 68 // टिप्पणी-सहाधोतिधृतः-साथ पढ़ने वाला, सतीर्थ / दण्डी ने 'तस्य मुष्णाति सौभाग्यम्, तेन साधं विगृह्णति। तत्पदव्यां पदं धत्ते' आदि जो लाक्षणिक प्रयोग सादृश्यपरक गिनाये हैं उन्हें उपलक्षण समझना चाहिए / इसीलिए नैषधकार सतीर्थ्य, सहाध्यायी को भी सादृश्यपरक मान रहे हैं। आर्यपुत्र-यह नाटकीय भाषा का शब्द है, जिसे पत्नी अपने पति के लिए प्रयोग में लाती है / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 445 आर्य शब्द श्रेष्ठ का वाचक है, जिसका सम्बन्ध पत्नी पति के माता-पिता से जोड़ती है अर्थात् श्रेष्ट पूज्य सास-श्वसुरके पुत्र / सहाधीतिधृतः में उपमा, सङ्ग, मङ्ग, संग में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'धीति धृतः,' 'जयं मजि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 68 // दिगीश्वरार्थे न कथंचन त्वया कदर्थनीयास्मि कृतोऽयमञ्जलिः / प्रसद्यतां नाद्य निगाद्यमीदृशं दृशौ दधे वापरयास्पदे भृशम् // 69 // ' अन्वयः-त्वया ( अहम् ) दिगीश्वरार्थम् कथंचन न कादर्थनीया अस्मि / / अयम् अञ्जलिः कृतः / प्रसयताम् / अद्य ईदृशम् न निगाद्यम् / (अहम् ) दृशी भृशम् बाष्परयास्पदे दघे। ___टीका-त्वया देवदूतेन अहम् विशाम् ईशाः स्वामिनः इन्द्रादयः (10. तत्पु० ) तेभ्यः इति ( चतुर्थ्यर्थे अर्थेन नित्य समासः) कथंचन केनापि प्रकारेण न कदर्थनीया पीडनीया अस्मि / अयम् एष अञ्जलिः कृतः अञ्जलि-बन्धन पूर्वकं 'निवेदये' इत्यर्थः। प्रसद्यताम् त्वया प्रसन्नीभूयताम् / अद्य ईदृशम् दिगीशेषु कमप्येकं वृणु-इत्याद्यात्मम् मेप्रीतिकरमित्यर्थः न निगाबम् न त्वया कथनीयम् / अहम् दृशौ नयने भृशम् अत्यन्तम् बाष्पस्य अस्रस्य यो रयः वेगः तस्य आस्पदे स्थाने ( उभयत्र ष० तत्पु० ) दधे धारये तवेदृशानुचितप्रस्तावे मम महती पीडा जायते इत्यर्थः / तस्मात् अलम् एतादृशेन प्रसङ्गेनेति भावः // 69 // ___ व्याकरण-ईश्वरः ईष्टे इति/ईश + वरच् / कवर्थनीया-कुत्सितः अर्थः कदर्थः तम् करोतीति कु+ अर्थ, कु को कदादेश + णिच् + अनीय (नामधातु) प्रसद्यताम् प्र+सद् + लोट् ( भाववाच्य)। निगाद्यम् नि+गद् + ण्यत् / ___ अनुवाद-"तुम दिक्पालों की खातिर मुझे किसी भी तरह तंग न करो। तुम्हें हाथ जोड़ती हूँ। कृपा करो ।.आज ऐसा न कहो। ( तुम्हारे ऐसा कहने पर ) मेरी आँखें बुरी तरह आँसुओं के वेग का घर बन जाती हैं" // 69 // टिप्पणी-कल मेरा स्वयंबर है। तुम्हारी इन ऊलजलल बातों से मुझे रोना आ जाता है। भीतर ही भीतर आँसू पीने पड़ते हैं यह सोचकर कि ये नीचे न गिरजायं। आँसुओं का नीचे गिरना माङ्गलिक कार्य में अपशकुन माना जाता है। विद्याधर के अनुसार यहाँ दमयन्ती में दैन्यभाव का उदय होने से भावोदयालंकार है / नाद्य, गाद्य में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र बृत्त्यनु.. प्रास है // 70 // Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2446 नैषधीयचरिते वणे दिगीशानिति का कथा तथा त्वयोति नेक्षे नलभामपीहया। सतीव्रतेऽग्नौ तृणयामि जीवितं स्मरस्तु किं वस्तु तदस्तु भस्म यः // 7 // अन्वयः- ( अहम् ) दिगोशान् वृणे-इति का कथा ? या ( अहम् ) नल-भाम् अपि इह त्वयि इति तथा न ईथे / सतीव्रते अग्नी जीवितम् तृणयामि / स्मरः तु तत् किम् वस्तु अस्तु, यः भस्म / टीका-अहम् दिशाम् ईशान् दिक्पालान् (10 तत्पु० ) वृणे वरये इति का कथा वार्ता अहं दिक्पालान् वृणे इति कल्पना त्रिकालेऽपि न कर्तव्येति भावः / या अहम् नलस्य भाम् कान्तिम् (10 तत्पु० ) अपि इह मत्पुरोवतिनि पुरुषे त्वयि दुते / इति कारणात् तथा तेन प्रकारेण अर्थात् नले इव न ईक्षे पश्यामि / त्वयि परपुरुषे वर्तमानास्तीति कारणात् त्वद्गतनलकान्तिमपि अहम् न सम्यक्तया विलोकये पातिव्रत्यमङ्गप्रसङ्गात् का कथा वराकाणां देवानाम् वरणस्य / सत्या: व्रतम् नियमः ( 10 तत्पु० ) तस्मिन् एव अग्नौ वहीं जीवितम् प्राणान् तृणयामि तृणवत्करिष्यामि / वरं शरीरं वह्रौ प्रक्षेप्स्ये, न पुनः देवान् वरिष्ये इति भावः / स्मरः कामः तु तत् प्रसिद्धम् किम् वस्तु अस्तु भवतु, न किमपीतिकाकुः यः भस्म भस्मरूपः अभावात्मक इति यावत् अस्ति / अभावात्मकः कामः मम किमपि कर्तुं न क्षमः आत्मदाहं कर्तुं मां न निवारयितुं समर्थः अभावरूपत्वादिति यावदिति भावः // 70 // - व्याकरण-कथा/कथ् + अङ् ( भावे ) + टाप् / भा/भा + अ + टाप् जोवितम् /जीव + क्त (भावे ) / तृणयामि तृणं करोमीति तृण + कृ + णिच् + लट् भविष्यदर्थ में ( नामधा० ) / ___ अनुवाद-"मैं दिक्पालों को वरूंगी-इसकी बात ही न करो- वह मैं जो नल की शोभा तक को भी वैसे ( उत्साह के साथ ) नहीं देख पा रही हूँ, क्योंकि वह यहां सामने खड़े ( नलभिन्न ) तुममें हैं। पातिव्रत्य की अग्नि में मैं प्राणों को तृण बना दूंगी / वह काम मेरे लिए क्या चीज हो सकता है, जो (स्वयं) राख है-- // 70 // टिप्पणी-यद्यपि देवदूत में नलकी पूरी शोभा झलक रही है तथापि दमयन्ती उसे देखने के लिए उतना उत्साह नहीं दिखा रही हैं क्योंकि वह परपुरुष में है। परपुरुष को देखना सती-धर्म के विरुद्ध है। प्रश्न उठता है कि Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 447 यदि नल दमयन्ती के वरने को तय्यार न हों, तो कामवश होकर वह किसी देव को कैसे नहीं वरेगी काम दुनिर्वार है। नहीं सतियों पर काम का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता है। दूसरे वह महादेव की तृतीय नेत्राचि से जलाया भस्मरूप है। भस्म ने भला क्या कर सकना है। सतीव्रत पर अग्नित्वारोप में और जीवन पर तृणत्वारोप में रूपक है ! कथा तथा और 'वस्तु, दस्तु' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 70 // न्यवेशि रत्नत्रितये जिनेन यः स धर्मचिन्तामणिरुज्झितो यया। कपालकापानलभस्मनः कृते तदेव भस्म स्वकुले स्तृतं तया // 71 // अन्वयः-जिनेन यः धर्म-चिन्तामणिः रत्न-त्रितये न्यवेशि, स यया कपालि-कोपानल-भस्म नः कृते उज्झितः तया स्व-कुले तत् एव भस्म स्तृतम् / टीका-जिनेन जिनेन्द्रेण महावीरेण यः 'धर्म: सदनुष्ठानम् सम्यक् चारित्र्यमितियावत् एव चिन्तामणि: एतदाख्यः सर्वकामनापूरको मणिविशेषः (कर्मधा०) रत्नानाम् रत्नसदृशानाम् सम्यग दर्शनम्, सम्यग् ज्ञानम्, सम्यक चारित्र्यम् इत्यात्मकानाम् श्रेयोमार्गस्य साधनानाम् त्रितये त्रये न्यवेशि निवेशितः स्थापित इत्यर्थः स धर्मचिन्तामणिः यया स्त्रिया कपालानि नरमुण्डानि मालारूपेणास्य सन्तीति कपाली महादेवः तस्य कोपः रोषः (10 तत्पु० ) एव अनल: वह्निः ( कर्मधा० ) तस्य भस्मनः भसितस्य (ष० तत्पु०) कृते निमित्त उज्झितः त्यक्तः / या नारी कामोपभोगप्रेरिता सती रत्नभूतं स्वसतीत्वधर्म चारित्र्यमिति यावत् जहासीत्यर्थः, तया स्त्रिया स्वं स्वकीयम् कुलं वंशः तस्मिन् ( कर्मघा०) तत् एव भस्म स्तृतम् विस्तारितम् / सा स्त्री भस्मात्मककामस्यार्थे स्वकुलमेव भस्मीकरोति, कलङ्कयतीति यावत् / तस्मात् चारित्र्यं रिरक्षिषोः ममाने त्वं वरणाय देवानाम् नामापि मा गृहाणेति भावः // 71 // व्याकरण-रत्नम् रमतेऽत्र मनुष्य इति/रम् + न, त आदेश। त्रितयम् त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रितियप् / न्यवेशि-नि + Vविश् + लुङ ( कर्मणि ) / कपाली कपाल + इन् ( मतुबर्थ)। कृते तादयं में अव्यय / स्तृतम्/स्तु + क्त ( कर्मणि ) / अनुवाद-"जिनेन्द्र ने जिस धर्मरूपी चिन्तामणि को 'रत्न-त्रय' में अन्त Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 नंषधीयचरिते गत कर रखा है, उसे जिस स्त्री ने महादेव की क्रोधाग्नि की राख ( काम ) के खातिर त्याग दिया उसने वही राख अपने कुल में बिखेर दी समझो" // 71 / टिप्पणी--चिन्तामणिः--यह एक ऐसी मणि होती है जिससे कल्पवृक्ष की तरह जो चाहो मिल जाता है। श्रीहर्ष ने सर्ग 3 श्लोक 81 में भी इसका प्रयोग कर रखा है। महाभारत में भी इसका उल्लेख है-'काच-मूल्येन विक्रीतो हन्त ! चिन्तामणिर्मया' इत्यादि / रत्नत्रितये-जैन दर्शन में श्रेय-मार्ग अर्थात् मुक्ति के लिए जिन तीन बातों का उल्लेख है, उन्हें 'रत्नत्रय' कहा गया है। वे हैं-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य / सम्यक् दर्शन तत्त्वों के सम्यक परिप्रेक्ष्य से देखने फिर उनमें पूरा विश्वास करने और तीर्थङ्करों के उपदेशों तथा उपदिष्ट सत्य में दृढ़ निष्ठा रखने को कहते हैं। सम्यक् ज्ञान पदार्थों के सम्यक् दर्शन के बाद हुए यथार्थ बोध को कहते हैं। सम्यक चारित्र्य सम्यक्र दर्शन और सम्यक् ज्ञान को क्रियात्मक रूप देने को कहते हैं। इसे सदाचार अथवा धर्म भी कहते हैं / मनु ने भी कहा है--आचारः परमो धमः / पातिव्रत्य इसी के भीतर आता है कामवश हो चरित्र को खो देने वाली नारी अपने कुल. को भस्म कर देती है, उसे कहीं का नहीं रहने नहीं देती समाप्त ही कर देती है। धर्म पर चिन्तामणित्वारोप में, तीन सिद्धान्तों पर रत्नत्रितयत्वारोप में तथा कोप पर अनलत्वारोप में रूपक, 'कपा' 'कोप' तथा 'भस्म, भस्म' में छेक. अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 71 // निपोय पीपूषरसौरसीरसौ गिरः स्वकन्दर्पहुताशनाहुतीः / कृतान्तदूतं न तया यथोदितं कृतान्तमेव स्वममन्यतादयम् // 72 // अन्वयः-असो पीयूष-रसौरसीः स्वः "हुतीः गिरः निपीय स्वम् तया तथा उदितम् कृतान्त-दूतम् न अमन्यत ( किन्तु ) अदयम् कृतान्तम् एव अमन्यत / टीका-असो नल: पीयूषम् अमृतम् एव रस: पेयम् ( कर्मधा० ) तस्य औरसीः उरसः उत्पन्नाः पुत्री:, आत्मजाः अमृतरससदृशीः इत्यर्थः स्वः स्वकीयः कन्दर्पः काम एव हुताशनः अग्निः (उभयत्र कर्मधा०) तस्य आहुतीः आहुतिरूपाः उद्दीपिकाः इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) गिरः वाणी: निपीय सादरम् आकर्ण्य स्वम् आत्मानम् तया दमयन्त्या ( सखीद्वारा ) यथा येन प्रकारेण उदितम् कथितम् कृतान्तस्य यमस्य दूतम् सन्देशहरम् (10 तत्पु०) न अमन्यत अवगतवान् किन्तु Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 449 अदयं निदयम् कृतान्तम् यमम् एव अमन्यत यमसदृश-पीडोत्पादकत्वात् / पीयूषमधुराः कामोद्दीपिकाश्च दमयन्ती-गिरः श्रुत्वा नलो दमयन्तीवात्मानं न यमदूत मपितु साक्षात् यममेव मन्वानो मनसि भृशदुःखितोऽभवदिति भावः // 72 // व्याकरण-औरसी: ( द्वि० ) उरस + अण + ङीप / निपीय इसके लिए प्रथम सर्ग का प्रथम श्लोक देखिए / हुतोशन: अश्नातीति/अश + ल्यु ( कर्तरि ) यु को अन / हुतस्य अशनः / आहुतिः आ + Vहु + क्तिन् ( भावे)। कृतान्तः कृतः अन्तः ( समाप्तिः ) येनेति / उदितम् वत् + क्त ( कमणि ) संप्रसारण / अनुवाद-वह ( नल ) अमृतरस से उत्पन्न हुई, अपनी कामाग्नि की आहुतिरूप बने ( दमयन्ती के ) वचनों को सादर सुनकर अपने को यम का दूत नहीं जैसे कि दमयन्ती ने उन्हें माना था, ( बल्कि ) निर्दय यम ही मान रहे थे / 72 // टिप्पणो-नल को प्रियतमा की मधुर, कामोद्दीपक वाणी सुनकर मन में बड़ा दुःख होने लगा कि मैं भी कितना निर्दय-हृदय हूँ, जो इस बेचारी के हृदय को कचोट देने वाली, देववरणविषयक अप्रिय बातें कह रहा है। ऐसी हालत में मैं यम-दूत नहीं हूँ, किन्तु इसे उत्पीड़न देने वाला साक्षात् यम ही हूँ। कन्दर्प पर हुताशनत्वारोप और वाणी पर आहुतित्वारोप में कार्यकारणभाव होने से परम्परित रूपक, 'रसौ' 'रसो' में यमक, 'पीय' 'पीयू', 'हुता' 'हुतीः' तथ! 'कृतान्त' 'कृतान्न' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 72 // स भिन्नमर्मापि तदतिकाकुभिः स्वदूतधर्मान्न विरन्तुमैहत / शनैरशंसन्निभृतं विनिश्वसन्विचित्रवाक्चिशिखण्डिनन्दनः / / 73 / / अन्वयः-सः तदति-काकुभिः भिन्न-मर्मा अपि सन् स्वदूतधर्मात् विरन्तुम् न ऐहत; निभृतम् विनिश्वसन् विचित्र "नन्दनः शनैः अशंसत् / __टोका–स नलः तस्याः दमयन्त्याः या अतिः पीड़ा (10 तत्पु०) तया काकुभिः भिन्नकण्ठध्वनिभिः पीडाजनित-दीनताभरिताभिः उक्तिभिरिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) भिन्न विदीर्ण मर्म हृदयं (कर्मधा०) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) अपि सन् स्व: स्वकीयः यो दूतधर्मः ( कर्मधा० ) दूतस्य धर्मः दौत्यमित्यर्थ: तस्मात् (10 तत्पु० ) विरन्तुम् विरतीभवितुम् न ऐहत न ऐच्छत्, दूतधर्मान्न विचलितोऽभवदित्यर्थः / निभृतम् गुप्तम् यथा स्यात्तथा अर्थात् यथा दमयन्ती न Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 नंषधीयचरिते जानीयात् तथा विनिःश्वसन् निश्वासान् विमुञ्चन् विचित्रा विलक्षणा या वाक् वाणी (कर्मधा० ) तस्याम् चित्रशिखण्डिनन्दनः बृहस्पतिः ( स० तत्पु०) ( 'वाचस्पतिश्चित्रशिखण्डिजः' इत्यमरः) चातुरीपूर्णवाक्यप्रयोगे बृहस्पतिरिवेत्यर्थः नलः शनैः दुःखान्, निश्वासकारणादेव च मन्दम् यथा स्यात्तथा अशंसत् अकथयत् / 37 // व्याकरण-अति: अर्द + क्तिन् (भावे ), द्-लोप निपातित / मर्मन् म्रियते जीव इति/मृ + मनिन् / विरन्तम् वि + /रम् + तुमुन्, म को न। ऐहत Vईह् + लङ् / नन्दनः नन्दयतीति /नन्द् + ल्यु ( कर्तरि ) / अनुवाद-वह ( नल ) उस ( दमयन्ती ) की दर्द-भरी उक्तियों से मर्माहत होते हुए भी अपने दोत्य-कर्तव्य से हटना नहीं चाहते थे। चुपके-चुपके आहे खींचते हुए, चतुरता-भरी वाणी में बृहस्पति रूप वे धीरे-धीरे बोले // 73 // टिप्पणी-अपनी ओर दमयन्ती का निश्छल, अविचल अनुराग देख नल आत्मविभोर हो उठे। सहसा हृदय में कामभावना भड़क गई और वे गहरी आहें भरने लगे, गला रंध-सा गया, लेकिन दूसरे ही क्षण कर्तव्य-बोध हुआ तो एकदम संभल गए। भावना और कर्तव्य के वीच संघर्ष में कर्तव्य जीत गया, भावना रह गई। चित्रशिखण्डिनन्दन:-यह वृहस्पति का नाम है। चित्रशिखण्डी सप्तर्षिमण्डल को कहते हैं जिसके अन्तर्गत मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, और वसिष्ठ-ये सात ऋषि आते हैं। इनमें से वृहस्पति अंगिरा के पुत्र हैं, इसीलिए ये आङ्गिरस भी कहलाते हैं। वसिष्ठ के सम्बन्ध में देखिए बालरामायण 'इक्ष्वाकूणां कुलगुरुं श्रेष्ठं चित्रशिखण्डिनाम् / अरुन्धती. पतिमृषि राम एषोऽभिवन्दते' / विद्याधर यहाँ नलके मर्माहत होने पर भी दूतत्व को न छोड़ने में विभावना कह रहे हैं जब कि हमारे विचार से यह विशेषोक्ति है (सति हेतो फलाभाव:) नल के साथ वृहस्पति का अभेदाध्यवसाय में उनकी कही अतिशयोक्ति ठोक ही है। 'चित्र' 'चित्र' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 73 // दिवोधवस्त्वां यदि कल्पशाखिनं कदापि याचेत निजागणालयम् / कथं भवेरस्य न जीवितेश्वरा न मोघयाच्यः स हि भीरु ! भूरुहः // 7 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) दिवः धवः निजाङ्गणांलयम् कल्पशाखिनम् Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 451 यदि कदापि त्वाम् याचेत, ( तहि ) हे भीरु ! अस्य जीवितेश्वरा (त्वम् ) कथम् न भवेः हि स भूरुहः मोघयाचनः न ( भवति ) / ____टोका-(हे दमयन्ति ! ) दिवः स्वर्गस्य धवः स्वामी इन्द्र इत्यर्थः निजम् स्वकीयम् अङ्गणम् प्राङ्गणम् एव आलयः स्थानम् ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (व० वी०) प्राङ्गणस्थितमित्यर्थः कल्पश्चासौ शाखी वृक्षः तम् / कर्मधा० ) कल्पवृक्षमिति यावत् यदि चेत् कदापि कदाचित् त्वाम् याचेत भिक्षेत यदीन्द्रः त्वाम् दातुम् कल्पवृक्षं प्रार्थयेतेत्यर्थः तहि हे भीरु ! भयशीले ! अस्य इन्द्रस्य जीवितेश्वरा जीवितस्य प्राणानाम् ईश्वरा स्वामिनी (ष० तत्पु० / कथम् केन प्रकारेण त्वम् न भवे न स्याः बलान् त्वया तत्पत्न्या भाग्यमेवेत्यर्थः हि यतः स सकलकामनापूरकत्वेन प्रसिद्धः भूरूहः भुघि रोहतीति तथोक्तः (उपपद तत्पु० ) वृक्षः मोघा विफला याचा प्रार्थना (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० बी०) न भवतीति शेषः / तस्मिन् कृता याचना त्रिकालेऽपि न व्यर्थीभवति, तस्मात् त्वया स्वयमेवेन्द्रो वरणीय इति भावः // 74 // व्याकरण-शाखिनम् शाखा अस्य सन्तीति शाखा + इन् (मतुबथं) भोर ! बिभेतीति/भी + ( सम्बो० ) भूरुहः भू + रुह + क ( कर्तरि ) / याच्या/याच् + नङ् (भावे ) + टाप् / अनुवाद-"' हे दमयन्ती!) यदि स्वर्गलोक के स्वामी ( इन्द्र) अपने ही आंगन में स्थित कल्पवृक्ष से यदि कदाचित् तुम्हें म तो ओ भीरु ! तुम किस तरह उन ( इन्द्र ) की प्राणेश्वरी नहीं बनोगी? कारण कि उस प्रसिद्ध कल्पवृक्ष से की हुई याचना बेकार नहीं जाती है" // 74 // टिप्पणी-पिछले श्लोक में नलको कवि ने विचित्रवाक्चिशिखण्डिनन्दन कहकर यह जताया है कि वे अपने दौत्य-कर्म को सफल बनाने हेतु नीति के साम, दान, दण्ड, भेद-इन चारों उपायों को प्रयोग में ला रहे हैं। नारायण के अनुसार पिछले सर्ग में नल ने दमयन्ती के प्रति दिक्पालों का हार्दिक प्रेम प्रतिपादन करते हुए पहले 'साम' का प्रयोग किया है इस सर्ग में 'महोमनस्त्वाम्' ( 39 ) से लेकर सात श्लोकों द्वारा उसपर देवों का अनुग्रह जताकर 'दान' का प्रयोग किया है। 'यदि स्वमुबन्धुम्' ( 46 ) से लेकर चार श्लोकों में 'भेद' बताकर अब फिर इस श्लोक से 'भेद' और बाद को 'दण्ड' का प्रतिपादन Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 नैषधीयचरिते करने जा रहे हैं। यहाँ इन्द्र की प्राणेश्वरी होने का कारण बता देने से काव्यलिङ्ग अलङ्कार है / 'भीरु' 'भूरु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 74 / / शिखी विधाय त्वदवाप्तिकामनां स्वयंहुतस्वांशहविः स्वमूर्तिषु / क्रतुं विधत्ते यदि सार्वकामिकं कथं स मिथ्यास्तु विधिस्तु वैदिकः / / 75 / / __ अन्वयः-शिखी त्वदवाप्ति-कामनाम् विधाय स्वमूर्तिषु स्वयंहुतस्वांशहविः सन् सार्वकामिकम् ऋतुम् यदि विधत्ते, (तहि ) स वैदिकः विधिः तु कथम् मिथ्या अस्तु / टीका-शिखी अग्निः तब अवाप्तिः प्राप्तिः तस्याः कामनाम अभिलाषम् ( उभयत्र प० तत्पु 0 ) / विधाय कृत्वा स्वा: स्वकीयाः याः मूर्तयः आहवनीयादीनि त्रीणि रूपाणि शरीराणीति यावत् तासु ( कर्मधा० ) स्वयम आत्मनैव हुतं दत्तम् स्वस्य अंशः अंशभूतम् स्वभागीयम् (10 तत्पु० ) हविः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (त्री० ) सन् सर्वे च ते कामाः अभिलाषाः ( कर्मधा० ) प्रयोजनम् अस्येति तथोक्तम् सर्वकामनाप्राप्तिप्रयोजनकमित्यर्थः क्रतुम् यागम् यदि विधत्त कुरुते तहि स वैदिक: वेदप्रतिपादितः विधिः अनुष्ठानम् तु कथम् केन प्रकारेण मिथ्या असत्यः अस्तु भवेत् न कथमपीति काकुः / त्वत्प्राप्तिकामनां मनसि निधाय वह्निः सार्वकामिन्यज्ञे स्वयं होता भूत्वा स्वांशमेव हविःस्वस्मिन्नेव जुहोति तर्हि तस्य त्वत्प्राप्तिः अनिवार्येव तस्मात् हे भैमि ! स्वेच्छयैव कुतोन अग्निवृणुषे ? इति भावः // 75 // व्याकरण-शिखी शिखाः (ज्वालाः) अस्य सन्तीति शिखा + इन् ( शिखामालासंज्ञादिभ्य इनिः)। कामना कम + णिच् + युच् ( भावे ) यु को अन + टाप् / हविः हूयते इति हु+असुन ( कर्मणि ) / सार्वकामिकम् सर्बकाम + ठक् ('प्रयोजनम्' 5 / 1 / 109) ठ को इक आदिवृद्धि / क्रतुः क्रियते इति / + ऋतू / वैदिकः वेद + ठक / विधिः वि+/धा कि / अनुवाद-"अग्निदेव यदि तुम्हें प्राप्त करने की कामना करके अपनी ही देहों-मूर्त रूपों में अपने आप ही ( होता बनकर ) अपना ही अंश-हवि-डालते हुए 'सार्वकामिक' यज्ञ करते हैं तो वह वैदिक अनुष्ठान किस तरह झूठा हो सकता है ?" // 75 // टिप्पणी-यज्ञीय अग्नि के तीन मूर्त रूप अथवा कार्यदेह ये हैं-गार्हपत्य, Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 453 आहवनीय और दक्षिण / सार्वकामिक यज्ञ में यजमान 'अग्नये स्वाहा, इदमग्नये' यों कह कर अग्नि को उसका अंश- भाग-हवि रूप में देते हैं। अग्नि भी स्वयं वह यज्ञ करेगा तो स्वयं होता बनकर अपने आप अपने को अपने में अपना अंश होगा श्लोक में तीन 'स्व' शब्दों का प्रयोग होता, हवि और आहवनीय-इनतीनों के लिए है। दूसरे लोगों द्वारा किया जानेवाला उक्त वैदिक यज्ञ जब उनकी कामनाओं को पूरा कर देता है तो अग्नि द्वारा स्वयं किया हुआ वह यहां क्यों न उसकी कामना पूरी करेगा? इसलिए, हे दमयन्ती ! बलात् पत्नी बनने की अपेक्षा स्वेच्छा से अग्नि की पत्नी बनने में ही तुम्हारा श्रेय है। यहाँ भी पूर्ववत् काव्यलिङ्ग है। 'विध' 'विधि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 75 / / सदा तदाशामधितिष्ठतः करं वरं प्रदातुं चलिताद्वलादपि / मुनेरगस्त्यावृणुते स धर्मराडयदि त्वदाप्ति भण का तदा गतिः // 76 // अन्वयः–स धर्मराट् सदा तदाशाम् अधितिष्ठतः / अत एव ) वरम् प्रदातुम् चलि तात् अगस्त्यात् मुनेः यदि बलात् त्वदाप्तिम् अपि वृणुते तत्र का गतिः ? भण। टीका-स प्रसिद्धः धर्मराट् यमः सदा सर्वदा तस्य यमस्य आशाम दिशाम् अधितिष्ठतः अधिवसतः अत एव वरम् अभीष्टं वस्तु करम् वलिम् राजदेयद्रव्य. मिति यावत् प्रदातुम् अर्पयितुम् चलितात् आगतात् अगस्त्यात् एतन्नामकात् मुनेः ऋषेः सकाशात् यदि चेत् बलात् बलपूर्वकम् तव आप्तिः प्राप्तिः ताम् ( ब० तत्पु० ) अपि वृणुते वररूपेण याचते तत्र तदा का गतिः अवलम्बः भण कथय / यमो हि दक्षिण-दिशायाः राजा यत्र अगस्त्यषिः वसति / सच यमाय कर-रूपेण अभीष्टवस्तु दातुं स्वयमेव तत्सविधे गच्छेत् स च त्वाम् एव कररूपेणाभीष्टवस्तु प्रदातुं याचेत, ऋषिश्च त्वां ददाति, तर्हि त्वमनिच्छयापि यमपली भविष्यस्येवेति स्येच्छयैव किन यमं वृणुषे इति भावः / 76 // व्याकरण-आशाम् अधितिष्ठतः अधि उपसर्ग के साथ स्था सकर्मक बन जाता है। धर्मराट् धर्मेण राजते इति धर्म + राज + क्विप ( कर्तरि)। मुनि: मनुते इति मन् + इन् ( कर्तरि ) नत्वम् निपातनात् / ('मननात् मुनिः' इति यास्कः ) / 'भण' इस क्रिया का सारा वाक्यार्थ कम है। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 नैषधीयचरिते ___ अनुवाद-"प्रसिद्ध यमराज सदा उन ( यमराज ) की दिशा में रहने वाले, ( अत एव ) कर-रूप में अभीष्ट वस्तु देने हेतु ( उनके पास ) आये हुए अगस्त्य मुनि से यदि अभीष्ट वस्तुरूप में बल-पूर्वक तुम्हारी प्राप्ति की भी मांग कर लेते हैं, तो ( तुम्हारी ) क्या गति होगी? बोलो" // 76 // टिप्पणी-जो व्यक्ति जहाँ रहता है, उसे वहां के राजा को यथानियम कर देना ही पड़ता है। यम दक्षिण दिशा का राजा है। अगस्त्य दक्षिण में ही रहते हैं, कर-रूप में यदि यम अगस्त्य से दमयन्तीप्राप्ति भी मांग लेते हैं, तो ऋषि क्यों ना करेंगे? दमयन्तीम् की हो ही जाएगी। विद्याधर के अनुसार यहाँ कर पर वरत्वारोप में रूपक है। 'सदा, तदा' 'कर' 'वरं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'वरं' 'बला' में ( वबयोः, रलयोरभेदात् ) छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 76 // क्रतोः कृते जाग्रति वेत्ति कः कति प्रभोरपां वेश्मनि कामधेनवः ? / त्वदर्थमेकामपि याचते स चेत्प्रचेतसां पाणिगतैव वर्तसे / / 77 / / अन्वयः-( हे दमयन्ति / ) अपाम् प्रभोः वेश्मनि क्रतोः कृते कति कामधेनवः जाग्रति ( इति ) कः वेत्ति ? स चेत् त्वदर्थम् एकाम् अपि याचते ( तर्हि त्वम् ) प्रचेतसः पाणिगता एव वर्तसे / टीका-(हे दमयन्ति ! ) अपाम् जलस्य प्रभोः अधिष्ठातृदेवस्य वरुणस्य वेश्मनि गृहे क्रतो: यज्ञस्य कृते अर्थे हवीरूपेण क्षीरप्रयोगायेत्यर्थः कति कतिसंख्या. काः कामधेनवः सुरसुरभयः जाग्रति सन्ति-इति क: वेत्ति जानाति न कोऽपीति काकुः / स वरुणः चेत् यदि तुभ्यमिति त्वदर्थम् ( चतुर्थ्यर्थे अर्थेन नित्यसमासः) त्वामुद्दिश्य एकाम् वहवीषु मध्ये अन्यतमाम् अपि कामधेनुम् याचते प्रार्थयते तहि त्वम् प्रचेतसः वरुणस्य ('प्रचेता वरुणः पाशी' इत्यमरः) पाणौ हस्ते गता प्राप्ता ( स० तत्पु० ) एब वर्तसे असि / / 77 // व्याकरण-क्रतोः इसके लिए पीछे श्लोक 75 देखिए / प्रभोः प्रभवतीति प्र+भू+। वेश्मनि विशन्ति यत्रेति/विश+ मनिन् ( अधिकरणे ) / कामधेनवः-कामानां पूरयित्र्यो धेनव इति ( मध्यम पदलोपी स० ) / अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) जल के स्वामी वरुण के घर यज्ञ हेतु फितनी कामधेनुयें रह रही हैं-कौन जानता है ? वे यदि एक से भी तुम्हें प्राप्त करने के लिए याचना करते हैं, तो तुम उनके हाथ में ही गई हुई हो // 77N Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 455 टिप्पणी-प्राचीन काल में यज्ञ में दधि, क्षीर, एवं पायसान्न हवि हेतु घर में गौयें पाली जाती थीं। वरुण देवता के यहाँ भी इसी उद्देश्य से कितनी ही कामघेनु रखी हुई हैं, जो कल्पवृक्ष की तरह जो चाहो, दे देती हैं। वरुण किसी एक से भी दमयन्ती-प्राप्ति के लिए याचना करेंगे, तो क्यों वह उन्हें प्राप्त नहीं होगी ? इसलिए स्वेच्छा से ही वरुण को वर लेना ठीक रहेगा। 'कृते' 'कति' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'चते' 'चेत्' 'चैत' में एक से अधिक वार वर्णों की आवृत्ति में भी वृत्त्यनुप्रास ही रहेगा, छेक नहीं / / 77 // न संनिधात्री यदि विघ्नसिद्धये प्रतिब्रता पत्युरनिच्छया शची। स एव राजव्रजवैशसात्कुतः परस्परस्पर्धिवरः स्वयंवर: ? / / 78 // अन्वयः-पतिव्रता शची पत्युः अनिच्छया विघ्नसिद्धये यदि न संनिधात्री ( भवेत्, तर्हि ) राज-व्रज-वैशसात् परस्पर-स्पधि-वरः स स्वयंवरः एव कुतः / टीका-पतिव्रता पतिः व्रतम् दृढ़निष्ठा ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० बी० ) सती शची इन्द्राणी पत्युः भतुंः इन्द्रस्य अनिच्छया इच्छां विना, त्वत्कृतात् शचीभर्तुः तिरस्कारात् तद्भर्ता स्वपत्नीम् इन्द्राणीम् तव स्वयंवरे समुपस्थातुं नानुमंस्यते इति भावः / विघ्नानाम् स्वयंवरे प्रत्यूहानाम् सिद्धये संपादनाय (10 तत्पु० ) यदि चेत् न संनिधात्री सन्निहिता भवेदिति शेषः, तहि राजाम् स्वयंवरे त्वद्-वरणार्थमागतानाम् नृपाणाम् व्रजस्य समूहस्य वैशसात् संहारात् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) परस्परम् अन्योन्यमन्ते त्वद्-वरणाय स्पर्धा कुर्वन्तीति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) वरा: वरयितारो नृपाः ( कर्मघा० ) यस्मिन् तथाभूतः (ब० बी० ) स स्वयंवरः स्वयंवरविवाहःएव कुतः कस्मात् ! न कुतोऽपीति काकुः / / 78 // व्याकरण-व्रतम् यास्कानुसार 'वृणोतीति सत:' अर्थात् जो कर्तव्य वेन मनुष्य को घेरे रहता है। पतिः पातीति/ पा + डति / विघ्नः विहन्तीति + वि+ हन् + क / संनिधात्री सन्निधत्ते ( आत्मानम् ) इति सम् + नि + धा + तृच् + ङोप् / वैशसात् विशसति (हिनस्ति) इति वि + शस् + अच् ( कर्तरि) विशसः तस्य भावः कर्मवेति विशस + अण् / वरः वियते इति/वृ + अप् ( कर्मणि ) / स्वयंवरः स्वयम् + / + अप् ( भावे ) / अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) यदि सती इन्द्राणी पति ( इन्द्र ) की इच्छा Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 नैषधीयचरिते न होने के कारण विघ्न खड़ा करने के लिए ( स्वयंवर-स्थल में ) अनुपस्थित रहे तो राज-समूह में मार-काट हो जाने से वह स्वयंवर ही-जिस में वर एकदूसरे से स्पर्धा रखते हैं-कैसे होगा ?" // 78 // टिप्पणी-नारायण के अनुसार नल अब अपनी नीति का अन्तिम उपाय दण्ड को अपना रहे हैं। देवताओं को न वरने पर दमयन्ती को ऐसा दण्ड देना चाहते हैं कि वह नल को वर ही न सके / वे धमकी दे रहे हैं कि तुम्हारा स्वयंवर ही निर्विघ्न सम्पन्न नहीं हो सकेगा, नल-वरण दूर रहा' / शास्त्रानुसार विघ्न-निवारण हेतु स्वयंवर में इन्द्राणी की उपस्थिति का विधान है। उसकी उपस्थिति सभी विघ्नों का निराकरण कर देती है। कालिदास ने भी इस बात का उल्लेख रघुवंश में अज के साथ इन्दुमती के स्वयंवर में इस प्रकार कर रखा है:-सानिध्ययोगात् किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः / यहाँ श्लोक में "विघ्नसिद्धये' से आपाततः ऐसा लगा है कि विध्न संपादन हेतु, न कि विघ्नविघात हेतु शची का सान्निध्य अपेक्षित है, इस लिए 'विघ्नासिद्धये' ऐसा पाठ होना चाहिए था किन्तु कवि का अभिप्राय यह है कि दमयन्ती द्वारा इन्द्र के ठुकराये जाने पर रुष्ट हुए वे अपनी पत्नी शची को स्वयंवर-स्थल में नहीं जाने देंगे और चाहेंगे कि विघ्न उपस्थित हो जाय / परिणाम स्वरूप राजाओं में परस्पर मार-काट छिड़ जाने पर स्वयंवर ही होने से रह जायगा, फिर देखें कि दमयन्ती कैसे नल को वरती है। स्वयंवर न होने का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है / 'पति' 'पत्यु', 'परस्परम्' - तथा 'वरः' 'वरः' में छेकानुप्रास है / / 78 // निजस्य वृत्तान्तमजानतां मिथो मुखस्य रोषात्परुषाणि जल्पतः / मृधं किमच्छत्रकदण्डताण्डवं भुजाभुजि क्षोणिभुजां दिदृक्षसे / / 7 / / अन्वयः-मिथः रोषात् परुषाणि जल्पतः निजस्य मुखस्य वृत्तान्तम् अजानताम् क्षोणिभृताम् अच्छत्रकदण्डताण्डवम् भुजाभुजि (च) मृधम् ( त्वम् ) दिदृक्षसे किम् ? टीका-मिथः परस्परम् यथा स्यात्तथा रोषात् कारणात् परुषाणि कठोराणि वचनानीति शेषः जल्पतः कथयतः परस्परमाक्रोशतः इति यावत् निजस्य स्वकीयस्य मुखस्य वक्त्रस्य वृत्तान्तम् व्यापारमित्यर्थः अजानताम् तस्य अनभिज्ञानाम् मया स्वमुखेन किं किभुक्तमिति क्रोधात अविदितवतामिति यावत् क्षोणि पृथिवीं Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 457 बिभ्रतीति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु०) भूपतीनाम् न छत्राणि उपरितना आवरकभागाः येषां तथाभूताः ( नन् ब० वी० ) ये दण्डाः छत्रयष्टयः ( कर्मधा० ) तेषाम् ताण्डवम् उग्रनृत्यम् (10 तत्पु० ) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा (ब० बी० ) अथ च भुजाभ्यां-भुजाभ्यां प्रवृत्तं यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा (ब० वी० ) च मधम् संख्यं युद्धमिति यावत् ('मृधमास्कन्दनम् संख्यम्' इत्यमरः) त्वम् दिदृक्षसे द्रष्टुमिच्छसि किम् ? शच्याः संनिधानाभावे राज्ञां परस्परं दण्डा. दण्डि मुजाभुजि संघर्ष त्वं द्रष्टुमिच्छसि न पुनः स्वस्वयंवरं किमिति भावः // 79 // व्याकरण-रोषात्/रुष +घञ् ( भावे ) / वृत्तान्तः वृत्त (वृत्+क्त)+ अन्तः अजानताम् न + Vज्ञा + शतृ ष० ब० / भृताम्/भृ + क्विप् ( कर्तरि) ष० ब० / भुजाभुजि-'तत्र तेनेदमिति सरूपे' ( 2 / 2 / 27 ) से समास + इच ( कर्मव्यतिहारे ), दीर्घ, 'तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च' (22111! ) से अव्ययत्व / दिदृक्षसे दृश् + सन् + लट् 'ज्ञा-श्व--स्मृ-दृश- स्वनः' (1 / 3 / 57) से आत्मने / अनुवाद-"क्रोध-वश परस्पर कठोर वचन निकालते हुए अपने मुख के वृत्तान्त से अनवगत राजाओं का विना छत्र के दण्डों का ताण्डवनृत्य अर्थात् डंडा-डंडी तथा हत्थम्-हत्थी लड़ाई देखना चाह रही हो क्या" // 79 // टिप्पणी-इस श्लोक में भी कवि पिछले श्लोक की तरह ही शची की अनुपस्थिति में होने वाले विघ्नों का उल्लेख दोहरा रहा है / एक-दूसरे के लिए अपशब्द निकल रहा है-इसे कुछ भी खबर न रखे राजाओं में संघर्ष छिड़कर ही रहेगा। पहले तो शस्त्रों का प्रयोग होगा। शस्त्रों से एक-दूसरे के छत्र टूटकर गिरते जाएंगे तो वे छत्र का डंडा ही लेकर भिड़ जाएंगे। डंडा भी टूट जाएगा, तो उनमें हत्थम्-हत्थी, गुत्थम्-गुत्थी लड़ाई चल पड़ेगी, जिसे बाहु-युद्ध कहते हैं। विद्याधर ने यहाँ छेकानुप्रास कहा है / 'भुजाभुजि, भुजां' में तो छेक हो नहीं सकता है, क्योंकि वर्षों की एक से अधिक वार आवृत्ति हो रखी है। हाँ 'दण्ड, ताण्ड' में 'ण इ' की आवृत्ति में छेक हो सकता है। अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 79 // अपार्थयन्याजकफूत्कृतिश्रमं ज्वलेद्रुषा चेद्वपुषा तु नानलः / अलं नलः कर्तुमनग्निसाक्षिकं विधि विवाहे तव सारसाक्षि ! कम् ? // 8 // Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 नषधीयचरिते अन्वयः-हे सारसाक्षि ! अनल: याजक-फूत्कृति-श्रमम् अपार्थयन् रुषा ज्वलेत, वपुषा अपि ( न ज्वलेत् ) चेत् (तर्हि) तव विवाहे नलः अग्निसाक्षिकम् कम् विधिम् कर्तुम् अलम् ( भवेत् ) ? टीका-सारसम् कमलम् ('सारसं सरसीरुहम्' इत्यमरः) तद्वत् अक्षिणी नयने ( उपमान तत्पु० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी (ब० वी० ) हे सारसाक्षि। अनलः अग्निः याजकानाम् पुरोहितानाम् या फूत्कृतिः अग्निसमिन्धनार्थम् मुखेन फूत्करणव्यापारः तस्य धमम् आयासम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) अप = अपगतः अर्थ: प्रयोजनम् यस्येति अपार्थः ( प्रादि ब० वी० ) तं करोतीति अपार्थयन् व्यर्थतां नयन् रुषा क्रोधेन ज्वलेत् प्रज्वलितो भवेत्, वपुषा शरीरेण ज्वालात्मकेन कार्यदेहेन अपि न ज्वलेत् ज्वाला-रूपेण प्रदीप्तो न भवेत् घूमात्मक एव तिष्ठेदिति भावः चेत् तहि तव ते विवाहे पाणिग्रहणसंस्कारे नल: वरः न अग्नि: ज्वलत् वह्निः साक्षी साक्षाद् द्रष्टा ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् (नन ब० वी०) कम् विधिम् अनुष्ठानम् लाजाहोमादिकमिति यावत् कम् संपादयितुम् अलम् समर्थः भवेत् न कमपीति काकुः / विवाह-विधिः अग्निसाक्षिक एव भवति न पुनघूमसाक्षिक इति भावः / / 80 // ____ व्याकरण-सारसम्--सरसः इदमिति सरस् + अण् / याजकः याजयतीति यज् + णिच् + ण्वुल ( कर्तरि ) फूत्कृतिः फूत् + V + क्तिन् ( भावे ) / अपाथयन् अपार्थं करोतीति अपार्थ + णिच् (नामधा० ) + शतृ / साक्षीइसके लिए पीछे श्लोक 68 देखिए। अनुवाद-'कमलाक्षी ! अग्निदेव पुरोहितों के फूक मारने के प्रयत्न को बेकार करते हुए यदि रोष से ही प्रज्वलित होवें, शरीर ( ज्वाला-रूप ) से भी नहीं, तो तुम्हारे विवाह के समय नल अग्नि की साक्षी से प्रमाणित की हुई कौन-सी विधि कर सकेंगे?" // 80 // टिप्पणी-शास्त्रानुसार विवाह-विधि-लाजा होम आदि अग्नि को साक्षी बनाकर ही सम्पन्न होती हैं। अग्नि के रुष्ट होने पर पुरोहित फूक मारकर थक जाएंगे, ज्वाला नहीं उठेगी, धुआं ही निकलता रहेगा तो तुम्हारा विवाह वैध नहीं ठहराया जा सकेगा। 'सारसाक्षि' में लुप्तोपमा, 'रुषा, पुषा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'नल:' 'नलः' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 80 // Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 459. पतिवरायाः कुलजं वरस्य वा यमः कमप्याचरितातिथिं यदि। . कथं न गन्ता विफलीभविष्णुतां स्वयंवरः साध्वि ! समृद्धिमानपि ? / / 81 // अन्वयः-यमः पतिवरायाः ( तव ) वरस्य वा यदि कम् अपि कुलजम् अतिथिम् आचरिता, (तहि ) हे साध्वि / समृद्धिमान् अपि स्वयंवरः कथम् विफलीभविष्णुताम् न गन्ता ? टीका-यम: धर्मराजः पतिम वृणीते इति पतिवरा तस्याः ( उपपद तत्पु०) तव वरस्य वरयितुः नलस्येत्यर्थः यदि कम् अपि कञ्चित् कुलेजातम् इति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) वंशजम् वन्धुमिति यावत् अतिथिम् स्वलोकस्य प्राघुणिकम् आचरिता कर्ता मारयिष्यतीत्यर्थः तर्हि हे साध्वि ! पतिव्रते ! समृद्धिमान् सर्वसाधन-सम्पन्नः अपि स्वयंवरः केन प्रकारेण विफलीभविष्णुताम् अविफल: विफल: सम्पद्यमानो भवतीति तथोक्तः तस्य भावः तत्ता ताम् निष्फलीभवनशीलताम् न गन्ता न गमिष्यति न व्यर्थीभविष्यतीत्यर्थः मृतकाशीचे माङ्गलिककार्यनिषेधात् ? // 81 // व्याकरण-पतिवराया: पति + + खच्, मुमागम / वरः वियते इति -वृ + अप् (कर्मणि) / कुलजम् कुल +/जन + ड / अतिथिम् इसके लिए पीछे श्लोक 49 देखिए। आचरिता आ +/चर + लुट / समृद्धिमान् सम् + Vऋध् + क्तिन् ( भावे ) मतुप् / विफलीभविष्णुताम् विफल + च्वि, ईत्व + Vभू + इष्णुच् + तल + टाप् / . अनुवाद-'यदि यम पति का वरण करने वाली तुम्हारे अथवा वर (नल) के किसी भाई-बन्धु को ( अपना ) अतिथि बना देगा, तो हे साधुस्वभाव वाली ! समृद्धि-सम्पन्न ( समारोह युक्त) होता हुआ भी स्वयंवर किस तरह विफल नहीं हो जाएगा ?" // 81 // टिप्पणी-धर्मशास्त्रानुसार किसी भाई-बन्धु की मृत्यु पर आशीच हो जाता है, जिसमें विवाह आदि मंगल क्रियायें निषिद्ध होती हैं। स्वयंवर रुक जाने का कारण बताया गया है, अतः काव्यलिङ्ग है। 'वरा' 'वर' 'वरः' में एक से अधिक वार वर्णों की आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास ही है / / 81 // 'अपः प्रति स्वामितयाऽपरः सुरः स ता निषेधेद्यदि नैषधक्रुधा। नलाय लोभात्ततपाणयेऽपि ते पिता कथं त्वां वद संप्रदास्यते // 82 // १-अपां पतिः / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधीयचरिते अन्वयः-स: अपर: सुरः अपः प्रति स्वामितया नैषधधा यदि ताः निषेघेत् , ( तर्हि ) ते पिता लोभात् तत-पाणये अपि नलाय त्वाम् कथम् संप्रदास्यते ? (इति) वद / टीका-सः प्रसिद्धः अपरः अन्यः सुरः वरुणदेवः अपः जलम् प्रति लक्ष्यीकृत्य स्वामितया प्रभुत्वेन जलेऽधिकृत वादित्यर्थः नैषधे नलं प्रति क्रुधा क्रोधेन (स० तत्पु० ) त्वयाऽहं न वृतः, नलं च वृणुषे इति त्वयि नलाय क्रुद्धीभूयेत्यर्थः यदि चेत् ताः अपः जलमित्यर्थः निषेधेत् स्वकार्यदेहभू मूर्तं जलं मा त्वया कन्यादानसंकल्प-निमित्तं स्वयंवरे गन्तव्यमिति कृत्वा निवारयेदिति भावः, तहि ते तव पिता भीमः लोभात् लिप्सायाः कारणात् मा भवतु जलम्, एतेन विनाऽपि कन्या. महं प्रतिग्रहीष्यामीति लुब्धीभूयेत्यर्थः ततः प्रसारितः पाणिः हस्तः ( कर्मधा० ) येन तथाभूताय ( ब० वी० ) अपि नलाय त्वाम् कथम् केन प्रकारेण संप्रदास्यते दास्यति ? न कथमपीति काकुः / काम नलः त्वयि अत्यासक्तया जलमन्तरेणापि त्वां प्रतिग्रहीतुमनुरोधं कुर्यात् किन्तु तव पिता शास्त्रोक्त जलसंकल्पे विना नैव त्वां 'दास्यतीति भावः // 82 // ___व्याकरण-सुरः इसके लिए पीछे 5-34 देखिए। क्रुधाV क्रुध + विप् ( भावे ) तृ० / पिता पातीति/पा + तृच, आ को इत्व / कथम् किम् + थम् / अनुवाद-"वह दूसरे देवता ( वरुण ) जल के अधिष्ठातृदेव होने के कारण नल के प्रति क्रोध में यदि उस ( जल) को रोक दें तो तुम्हारे पिता ( तुम्हारे ) लोभ में ( विना जल के ) हाथ पसारे होते हुए भी नल को तुम्हें दान में कैसे दे देंगे?" // 82 // टिप्पणी-शास्त्रानुसार दान देने के लिए हाथ में संकल्प-जल लेना पड़ता है / विना संकल्प-जल के दान नहीं होता है। श्रीहर्ष ने पीछे 'यत्प्रदेयमुपनीय वदान्यैर्दीयते सलिलमथिजनाय ( 5 / 85 ) में इसका उल्लेख किया है। शास्त्रवचन यह है -'कुशवत्सलिलोपेतं दानं संकल्पपूर्वकम्'। सलिल वरुण देवता का मूर्त कार्य देह होता है, यह हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं। वे जल को ही रोक देते हैं, तो कन्यादान कैसे हो सकेगा? ध्यान रहे कि गान्धर्वादिविवाहों में कन्यादान हेतु संकल्प-जल वाली शास्त्रीय विधि लागू नहीं होती है, तथापि नल ऐसा कहकर यहाँ दमयन्ती के साथ ठगी ही कर रहे हैं / यहाँ काव्यलिङ्ग है / 'निषेध, नैषध, "पिते, पिता, में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 नवमः सर्ग: इदं महत्तेऽभिहितं हितं मया विहाय मोहं दमयन्ति ! चिन्तय / सुरेषु विघ्नेकपरेषु को नरः करस्थमप्यर्थमवाप्तुमीश्वरः ? // 83 // अन्वयः-हे दमयन्ति ! मया इदम् ते महत् हितम् अभिहितम् / मोहम् विहाय ( त्वम् ) चिन्तय / कः नरः सुरेषु विघ्नैकपरेषु ( सत्सु) करस्थम् अपि अर्थम् अवाप्तम् ईश्वरः ( भवेत् ) ? टीका-हे दमयन्ति ! मया इदम् एतत् ते तव महत् विपुलम् हितम् हिता-- वहम् भद्रमिति यावत् अभिहितम् कथितम् / मोहम् मतिभ्रमम् मूर्खतामित्यर्थः विहाय त्यक्त्वा त्वम् चिन्तय विचारं कुरु / क: नरः मनुष्यः सुरेषु देवेषु विघ्न: प्रत्यूहः एव एकः परं प्रधानं ( कर्मधा० ) येषां तथाभूतेषु (ब० वी० ) सत्सु करे तिष्ठतीति तथोत्तम् ( उपपद तत्पु० ) अर्थम् वस्तु अवाप्तुम् प्राप्तम् ईश्वरः समर्थः भवेत् न कोऽपीति काकुः / मनुष्ये एव विघ्नपरे सति कार्यं न सिद्धयति, सर्वसमर्थेषु दवेषु विघ्नपरेषु सत्सु तु किमु वक्तव्यमिति भावः // 83 // व्याकरण-श्चभिहितम् अभि + Vधा क्त ( कर्मणि) धा को हि / मोहम् मुह + घञ् ( भावे ) सुरेषु इसके लिए पीछे 5 / 34 देखिए / विघ्न: विहन्तीति वि + हन् + क / करस्थम् कर+/स्था + क ( कर्तरि)। अर्थम् यास्कानुसार अर्थ्यते इति अर्थ + आ। ईश्वरः ईष्टे इति/ईश् + वरन् / . अनुवाद-"दमयन्ती ! यह मैंने तुम्हारी बड़ी भारी भलाई की बात कही है। मूर्खता को छोड़कर विचार करो। देवता लोग यदि केवल विघ्न ही करने में उतर आयें, तो कौंन मनुष्य हाथ में आई हुई भी वस्तु को प्राप्त करने में समर्थ होवे ? // 83 // टिप्पणी-देवता लोग बड़े शक्तिसम्पन्न हुआ करते हैं। उनसे टक्कर लेना बड़े खतरे का काम है, अतः भारवि के शब्दों में 'अलं दुरन्ता बलवद्विरोषिता' / यहाँ पूर्वार्ध में कही विशेष बात का उत्तरार्ध में कही सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है। 'हितं हितं' और 'रेषु' 'रेषु' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 83 // इमा गिरस्तस्य विचिन्त्य चेतसा तथेति संप्रत्ययमाससाद सा। निवारितावग्रहनीरनिर्झरे नभोनभस्यत्वमलम्भयदृशौ // 84 // . अन्वयः-सा तस्य इमाः गिरः चेतसा विचिन्त्य तथा इति सम्प्रत्ययम् आससाद / ( पश्चात् ) निवा'. झरे दृशी नभोनभस्यत्वम् अलम्भयत् / Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते ___टीका-सा दमयन्ती यस्य देवदूतस्य नलस्य इमाः पूर्वोक्ताः गिरः वचनानि चेतसा मनसा विचिन्त्य विचार्य तथा एवमेव भवेत् इति सम्प्रत्ययम् विश्वासम् आससाद प्राप्तवती देवाः मे स्वयंवरे संकटमापातयिष्यन्तीति नलेन यदुक्तं तस्मिन् सर्वस्मिन् सा पूर्णविश्वासमकरोदिति भावः / तत्पश्चात् च सा निवारितः अपनीतः प्रतिषिद्ध इति यावत् अवग्रहः वर्षाविघातः वृष्टिनिरोधः अवर्षणमिति यावत् ( कर्मधा० ) ( 'वृष्ठिवर्ष, तद्विघाते 5 वग्राहावग्रही समी' इश्यमरः ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) अप्रहित-प्रसरः इति यावत् नोर-निर्झर ( कर्मधा० ) नीरस्य जलस्य अश्रृणामित्यर्थः निर्झरः प्रवाहः (10 तत्पु०) ययोस्तथाभूते (ब० वी० ) दृशौ लोचने नभाः श्रावणमासश्च नभस्यः भाद्रपदमासश्चेति ( द्वन्द्व ) तयोः भावः तत्त्वम् ('नभाः श्रावणिकश्च सः,' 'स्युनभस्य-प्रोष्ठपद-भाद्रभाद्रपदाः समाः' इत्यमरः अलम्भयत् प्रापितवती / श्रावण-भाद्रपदमासौ यथा अप्रतिहत-वृष्टि-प्रवाह कुरुतः तथैव दमयन्त्या नयने अपि सतताश्रुप्रवाहमकुरुतामित्यर्थः, सा विषादे भृशं रुरोदेति भाव: / / 84 / ___ व्याकरण-गिरः गीयते इति /ग + किम् ( भावे ) चेतसा चेत्यते अनेनेति -/चित् + असुन ( करणे ) / सम्प्रत्ययम् सम् + प्रति + Vइ + अच् (भावे) / अलम्भयत् लभ + णिच + लङ। ___ अनुवाद-उस ( दूत ) की उन बातों पर मन से विचार करके वह ( दमयन्ती) 'ऐसा हो सकता है। इस तरह विश्वास कर बैठी। ( बाद को ) वह सूखा मिटाये ( अश्रु ) जल के झरने वहाने वाली आँखों को सावन-भादौ बना बैठी // 84 // टिप्पणी- हम देखते हैं कि श्रावण और भाद्रपद में जब सूखा पड़ जाता है तो पानी का बूंद तक नहीं गिरता, लेकिन सूखा न रहने पर मूसलाधार पानी बरसता है। ये दो ही महीने घोर वर्षा के होते है। देवताओं द्वारा स्वयंवर में विघ्न डालने पर निश्चय ही मेरा विवाह नहीं होने पाएगा-ऐसा विश्वास होने से विषाद के कारण दमयन्ती की आँखो में लगातार आँसुओं की सावन-भादौं की झड़ी लग गई। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति लिख रहे हैं। उनकी दृष्टि में संभवतः वृष्टिजल और अश्रुजल में अभेदाध्यवसाय हो रखा है। नयनों पर श्रावणत्व, और भाद्रपदत्व का आरोप होने से रूपक है। 'तीर, नीर,' तथा नभोनभ में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 84 // Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः स्फुटोत्पलाभ्यामलिदंपतीव तद्विलोचनाभ्यां कुचकुडमलाशया। निपत्य बिन्दू हृदि कज्जलाविलौ मणीव नीलो तरलौ विरेजतुः // 8 // अन्वयः-कज्जलाविलौ बिन्दू कुच-कुड्मलाशया अलि-दम्पती इव स्फुटोत्पलाभ्याम् तद्-विलोचनाभ्याम् हृदि निपत्य तरलो नीलो मणी इव विरेजतुः / टोका - कज्जलेन अञ्जनेन आविलौ मलिनी किमपि कृष्णवर्णावित्यर्थः विन्दू अश्रुबिन्दुद्वयम् कुचौ स्तनी एव कुडमले कलिकाद्वयम् (कर्मधा.) तयोः आशया तृष्णया (10 तत्पु०) अली भ्रमरौ चामू दम्पती ( कमंधा०) जाया च पतिश्चेति दम्पती ( द्वन्द्व ) अथवा अल्योः दम्पती मिथुनम् (10 तत्पु० ) भ्रमरस्त्रीपुंसावित्यर्थः इव स्फुटे विकसिते ये उत्पले नोलकमले (कर्मधा०) ताभ्याम् नोलोत्पलरूपाभ्यामिति यावत् तस्या: दमयन्त्या: विलोचनाभ्याम् नयनाभ्यां (10 तत्पु० ) सकाशात् हृदि वक्षः स्थले निपत्य पतित्वा तरलो स्फुरन्तौ चञ्चलौ वा नीलो नीलवर्णी मणी मणिद्वयम् इव विरेजतुः शुशुभाते अञ्जनाक्तनयनाभ्याम् वक्षसि पतितो मलिनी अश्रुबिन्दू इन्द्रनीलमणी इव शोभते स्मेति भावः / / 85 // व्याकरण-बिदु यास्कानुसार भिद्यते इति भिन्दुः, भिन्दुरेव बिन्दुरिति दम्पती जाया च पतिश्च, जाया शब्द को दम् आदेश / मणाव यहाँ इदन्त द्विवचन को प्रगृह्य संज्ञा होने से प्रकृति भाव में सन्धि न होकर मणी इव प्रयोग व्याकरण संगत है / मणीव नहीं। अन्य कवियों ने प्रकृतिभाव वाला ही प्रयोग किया है जैसे-'मणी इवोद्भिन्नमनोहरत्विषौं' इत्यादि, किन्तु भट्टोजी दीक्षित ने 'मणीवोष्टस्य लम्बेते प्रिथौ वत्सतरौ मम के उदाहरण में व या वा शन्द को सादृश्यपरक भी माना है। यहाँ भी वही समाधान समझ लीजिए / यहाँ दीर्घसन्धि है ही नहीं। नारायण मल्लिनाथ यहाँ 'मणीवादेन' इस वातिक से प्रगृह्य का निषेध मान रहे हैं / किन्तु म० म० शिवदत्त का कहना है कि उक्त वार्तिक का मध्यभाष्य में कही भी उल्लेख नहीं आया है। अतः व को सादृश्यार्थक लेना ही ठीक है / ___ अनुवाद-काजल से मैले बने ( आँसुओं की ) दो बूदें कुच-रूप कलियों की आशा से भ्रमर-युगल की तरह विकसित नीलोत्पल-रूपी नयनों से गिरकर झिलमिलाते हुए इन्द्रनीलमणि जैसे शोभा पा रहे थे / / 85 // 1. विलेसितुः / Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 नैषधीयचरिते टिप्पणी-दमयन्ती की आँखों से काजल-मिले दो आँसू छाती पर गिरकर उसके अध-विकसित कुचों की ओर खिसकने लगे। इनकी तुलना कवि उस भ्रमर-दम्पत्ति से कर रहा है जो पूर्ण विकसित नीलोत्पल्ल का रस लेने के बाद अब दो रसायन हेतु अर्धाखली कलियों की ओर लपक रहे हैं। उसकी आँखें नीलोत्पल जैसी और कुच कुड्मल-जैसे हैं। यह उपमा है। जिसका कुचों पर कुडमलत्वारोप से बनने वाले रूपक के साथ अङ्गाङ्गिभाव संकर है। चाण्डू पण्डित कुचों पर कुडमलत्व के भ्रम में भ्रान्तिमान् मान रहे हैं / कजरारे अश्रुबिन्दु कुचों के पास दो इन्द्रनील मणियों क-सी. शोभा अपना रहे थे। विद्याधर इस अंश में उत्प्रेक्षा कह रहे हैं। इस पक्ष में हमें स्तनों पर लुढ़क रहे हार की कल्पना भी करनी पड़ेगी जिसके दो नीले मध्य-मणियों के रूप में दो आँसू चमक रहे थे नारायण ने आंसुओं की नीलमणियों से तुलना करके उपमा मानी है / वे तरल शब्द को मध्य-मणि के अर्थ में भी लेकर इसे श्लिष्ट मान रहे हैं। ऐसी स्थिति में हार दो होने चाहिए, क्योंकि एक हार में मध्य-मणि ( मेरु ) एक ही हुआ करता हैं, दो नहीं। 'पती' 'पत्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 85 / / . धनापतत्पूष्पशिलीमुखाशगैः शुचेस्तदासोत्सरसा रमस्य सा। रयाय बद्धादरयात्रुधारया सनालनीलोत्पलनीललोचना // 86 / / अन्वयः-आपतत्पुष्पशिलीमुखाशुगै धुता, रयाय बद्धादरया अयुधारया सनाल "लोचना सा तदा शुचेः रतस्य सरसी आसीत् / टीका-आपतन्तः आगच्छन्तः प्रह्रियमाणा इत्यर्थः ये पुष्पशिलीमुखाशुगा: तैः ( कर्मधा० ) पुष्पाणि एवं शिलीमुखाः वाणाः ( कमंधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) कामदेवस्य आशुगैः बाणैः : 10 तत्पु० ) अथ च पतन्तः पक्षिणश्च ( 'पतत्-पत्ररथाण्डजाः' इत्यमरः) पुष्पेषु शिलीमुखा भ्रमराः ( स० तत्पु० ) च ( 'अलिबाणी शिलोमुखौ' इत्यमरः ) आशुगः वायुश्चेति (द्वन्द्व / तैः ( 'आशुगी वायु-विशिखौ' इत्यमरः ) धुता कम्पितः रयाय वेगाय बद्धः कृतः आदरोऽ. भिनिवेश इत्यय: ( कर्मधा० ) यया तथाभूतया ( ब० वी० ) वेगवत्प्रवाहयुक्तयेत्यर्थः अश्रूगां अस्रस्य धारया ओघेन नालेन. दण्डेन सह वर्तमानम् ( ब० वी० ) यत् नीलम् उत्पलम् कमलम् ( उभयत्र कर्मधा० ) तद्वत् लीला विलासः / उपमान तत्पु० ) ययोः तथाभूते लोचने नयने ( कर्मधा०) यस्याः तथाभूता (ब० वी०) सा दमयन्ती तदा तदानीम् शुचेः शृङ्गारस्य विप्रलम्भ रूपस्य ( 'शृङ्गारः Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः शुचिरुजज्वलः' इत्यमरः ) अथ च ग्रीष्मस्य ( 'शुचिर्णीष्मे हुतवहे चापि' इति विश्वः ) रसस्य विभावादिव्यक्तस्य स्थायिभावस्य अथ च जलस्य ( 'गुणे रागे जले रसः' इत्यमरः ) सरसी सरः मासीत् बभूव / नल-वियोग-पीडिता कामशरप्रहृता च दमयन्ती विषादे रुदित्वा नयनाभ्याम् निरवच्छिन्नामश्रुधारां प्रवाहितवतीति भावः // 86 // व्याकरण-आशुगः आशु गच्छतीति आशु+ गम् + ड। धुता/धु + Nक्त ( कर्मणि ) + टाप् / रयाय रयेण निर्गन्तुम् तुमर्थ में चतुर्थी / सरसो सरस् + ङीप् / अनुवाद-आ पड़ रहे कामदेब के बाणों ( की पीड़ा ) से थरथराई तथा वेग से वहने हेतु जोर मार रही अश्रुधारा से नाल-सहित नील कमलों के सदृश आँखों वाली वह ( दमयन्ती ) उस समय शुचि ( विप्रलम्भ शृङ्गार ) रस की झील बन गई; ( साथ ही ) पक्षियों ( के पंखों), फूलों पर बैठे भ्रमरों, तथा वायु से प्रकम्पित शुचि ( ग्रीष्म ) की रस (पानी) की झील भी बन गई // 86 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने अपनी अलंकृत शैली का बड़ा चमत्कार दिखाया है। शब्दों में श्लेष रखकर कामव्यथित, निरन्तर अश्रुधारा वहाये दमयन्ती पर एक साथ शृङ्गाररस की झील तथा ग्रीष्मकाल में पतली हुई पडी पानी की झील-दोनों का आरोप कर दिया है। प्रिय-वियोग में आँखों से आँसुओं की सावन-भादो की-सी झड़ी लगाते हुए उसका शृङ्गारिक झील-रूप स्पष्ट ही है, लेकिन वह ग्रीष्मकाल की झील भी बन गई है / ग्रीष्मकाल में झील का पानी बहुत कुछ सूख जाता है। पानी की कमी के कारण कमल की इंडियाँ भी देखने में आ जाती हैं। पहले की तरह पानी में डूबी नहीं रहतीं। आँखें नीलकमल-जैसी है ही और उनसे निरन्तर गिरती जा रही लम्बी अश्रुधारा कमलडण्डी का सादृश्य अपना रही है। अश्रु जल है ही पक्षियों की फड़फड़ाहट भ्रमर दल तथा वायु से झील भी हिलती जाती है इस तरह मल्लिनाथ के अनुसार यहां दमयन्ती पर शृङ्गारसरसीत्व का और ग्रीष्माम्बुसरसीत्व का आरोप होने से दो रूपक हैं जिनके मूल में श्लेष और 'नीलोत्पललीलो' गत उपमा काम * कर रहे हैं। इस तरह इन सभी अलंकारों का अङ्गाङ्गिभाव संकर है। विद्या घर यहाँ चुप हैं / "रसी' "रस,' 'सर' 'सार' और 'नाल' 'नालो' में छेक ‘रया' 'रया' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 86 // Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 नैषधीयचरिते अथोभ्रमन्ती रुदती गतक्षमा ससंभ्रमा लुप्तरतिः स्खलन्मतिः / व्यधात्प्रियप्राप्तिविघातनिश्चयान्मदूनि दूना परिदेवितानि सा // 87 // अन्वयः-अथ प्रियावाप्ति-विधात-निश्चयात् दूना सा उद्ममन्ती, रुदती, गतक्षमा, ससंभ्रमा,लुप्तरतिस्खलन्मतिश्च सती मृदूनि परिदेषितानि व्यधात् / टोका-अथ तदनन्तरम् प्रियस्य नलस्य या अवाप्तिः प्राप्तिः तस्याः विघातः विनाशः तस्यां बाधेति यावत् तस्य निश्चयात् प्रियतम-लाभो न मे भविष्यतीति निर्णयात् कारणादित्यर्थः ( सर्वत्र प० तत्पु० ) दूना दुःखिता सा दमयन्ती उद्भमन्ती उन्मान्ती रुदती रोदनं कुर्वती, गता नष्टा क्षमा सहनशक्तिः (कर्मधा०) यस्याः तगभूता (ब० वी० ) संभ्रमेण बैक्लव्येन सह विद्यमाना ( ब० वी०) लुप्ता नष्टा रतिः मानससुखं ( कर्मधा० ) यस्या. तथाभूता (ब० वी०) स्खलन्ती कर्तव्याकर्तव्यविवेकपथात् प्रच्यवमाना मतिः बुद्धिः ( कर्मधा० ) यस्याः तपाभूता (ब० वी० ) किङ्ककर्तव्यविमूढेत्यर्थः च सती मृदूनि कोमलानि करुणाजनकानीति यावत् परिदेवितानि विलापान् ग्यषात् अकरोत् / / 87 // व्याकरण-अवाप्ति: अव + /+ क्तिन् ( भावे ) / विधात: वि + Vहन + धन (भावे ) / दूना दू+क्त, त को न + टाप् / निश्चयात् निस् + Vfच + अच् (भावे)क्षमा क्षम् + अङ् ( भावे ) + टाप् / रतिः रम् + क्तिन् (भावे ) / परिदेवितानि परि+ Vदेव + क्त ( भावे)। व्यषात् वि+ Vधा + लुङ् / अनुवाद-तत्पश्चात् प्रियतम को प्राप्त न कर ( सक ) ने का निश्चय हो जाने के कारण दुःखित वह ( दमयन्ती ) पागल बनी, रोती, सहनशक्ति खोये, व्याकुल, वेचैन और किंकर्तव्य-विमूढ़ हुई हृदय-द्रावक विलाप करने लगी // 87 // टिप्पणी-प्रियतम की अप्राप्ति में हो रहे उन्माद, चिन्ता, विषाद, दैन्य आवेग आदि भावों का सम्मिश्रण होने से भाव-शबलता अलंकार है 'रतिः मतिः' में प्रदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'दूनि दूना' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 87 // " ' तबस्स. पशेषहुताशमात्मनस्तनृष्व मद्भस्ममयं यशश्चयम् / 17]Fiवियोगपरेहाफलभक्षणव्रतो पताद्य तृप्यन्नसुभिर्ममाफलैः // 88 // HTTE वया: होमोषु-हुताशन ! (त्वम् ) स्वरस्व, मद्भस्ममयम् आत्मनः 'यशेयकम् तनुका 'हेरोषधे / परे "व्रती ( त्वम् ) अद्य अफलैः मम असुभिः तृप्यन् पत। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 467 टोका--पञ्च पञ्चसंख्याका इषवः बाणाः यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) काम इत्यर्थः एव हुताशनः बह्निः तत्सम्बुद्धी ( कर्मधा० ) त्वम् त्वरस्व त्वरां कुरु शीघ्रमेव मां दहेत्यर्थः मम भस्म भसितम् (10 तत्पु० ) एवेति मद्भस्ममयम् आत्मनः स्वस्य यशसाम् कीर्तीनाम् चयं समूहम् (10 तत्पु०) तनुष्व विस्तारय मम स्त्रियाः वधेन स्वकीयं विपुलं यशो जगति प्रख्यापयेत्यर्थः / हे विधे विधातः ! परस्य अन्यस्य ईहायाः इच्छायाः फलस्य अभीष्टस्य ( सर्वत्र प० तत्पु० ) भक्ष. णम् अशनम् मध्ये विघ्नम् आपाद्य तनिष्पत्त्यभाव इत्यर्थः एव व्रतम् नियमः ( कर्मधा० ) अस्यास्तीति तथोक्तः त्वम् अद्य अस्मिन् धवि अफलैः न फलं प्रयोजनं येषां तथाभूतैः (नन् ब० बी० ) नलाप्राप्त्या व्यरित्यर्थः मम मे असुभिः प्राणः तृप्यन् तृप्तो भवन् पत स्वर्गात् पतित्वा अधो गच्छ, स्त्रीवधरूपं पापं कृत्वा नरकगामी भवेत्यर्थः / / 88 // व्याकरण-हुताशनः अश्नाति ( भक्षयति ) इति अश् + ल्युः ( कर्तरि ) हुतस्य अशनः / भस्ममयम् भस्म + मयट् ( स्वरूपार्थे ) / चयः/चि + अच् ( भावे)। अनुवाद-“हे कामानल ! शीघ्रता करो; ( मुझे फूककर ) मेरी राख-रूपी अपनी यश-राशि को ( जग में) फैला दो। हे विधाता ! दूसरों के अभीष्ट फल को खा जाने का व्रत रखे हुए तुम आज मेरे बेकार पड़े जीवन से तृप्त होते हुए पतित हो जाओ" // 88 // टिप्पणी-यहां से लेकर तेरह श्लोकों में कवि दमयन्ती का विलाप वर्णन करने जा रहा है। वह कामदेव और विधाता-दोनों की फटकार से विलाप आरम्भ कर रही है। भस्म और कीति-दोनों सफेद होती हैं, इसलिए भस्म पर यशश्चयत्वारोप तथा पञ्चेषु पर हुताशनत्वारोप में रूपक है, परन्तु विद्याधर न जाने क्यों अतिशयोक्ति लिख रहे हैं, साथ ही समासोक्ति भी मान रहे हैं / सम्भवतः वे काम और विधाता पर चेतनव्यवहार समारोप कर रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से कामदेव और विधाता-दोनों देवता होने के नाते स्वभावतः चेतन माने जाते हैं। उन्हें काम-भावना और भाग्य रूप में अमूर्त तत्त्व मान लें, तो बात दूसरी है.। 'मयं,श्चयं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भृशं वियोगानलतप्यमान ! कि विलोयसे न त्वमयोमयं यदि / स्मरेषुभिर्भद्य ! न वज्रमप्यसि ब्रवीषिन स्वान्त ! कथं न दीयंसे // 89 / / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 नैषधीयचरिते ___ अन्वयः हे भृशम् वियोगानलतप्यमान स्वान्त ! त्वम् यदि अयोमयम् ( असि, तहि ) किम् न विलीयसे? हे स्मरेषुभिः भेद्य ! ( त्वम् ) वज्रम् अपि न असि ( त्वम् ) कथम् न दीर्यसे ? ( इति ) न बवीषि? टीका-हे भृशम् अत्यन्तं यथा स्यात्तथा वियोगः प्रियतम-विरह एव अनल: अग्निः ( कर्मधा० ) तेन तप्यमान दह्यमान ! (तृ० तत्पु० ) स्वान्त ! हृदय ! ( 'स्वान्तं हृन्मानसं मनः इत्यमरः ) त्वम् यदि अयः एव अयोमयम् लोहमयम् असि तर्हि किं कस्मात् न विलीयसे न द्रवसि लोहस्य भृशं वह्नी दह्यमानस्य द्रवीभाव-दर्शनात् त्वं तु न द्रवसि तस्मात्त्वम् लोहादपि कठिनमसीति भावः / हे स्मरस्य कामस्य इषुभिः पुष्पमयैः बाणः भेद्य वेध्य ! स्वान्त ! त्वम् वज्रम्, अशनिः अपि न असि न वर्तसे, वज्रस्य पुष्पमयबाणैर्भेद्यत्वाभावात्, त्वम् कथम् न दीर्यसे स्फुटसि ? न ब्रवीषि न वदसि ? त्वया वदितव्यम् / व्याकरण-वियोगः वि + युज् + घञ् , तप्यमानः/तप् + शानच् ( कर्मणि ) / अयोमयम् अयसो विकार इति अयस् + मयट् / इषुः इष्यते (प्रक्षिप्यते ) इति/इष् + उ ( कर्मणि ) / भेद्य भेत्तु योग्य इति/भिद् + ण्यत् / दीयंसे/ + लट् ( कर्मकर्तरि ) / अनुवाद-"ओ वियोगाग्नि द्वारा खूब तपाये जाने वाले हृदय ! यदि तू लोहे का है, तो पिघल क्यों नहीं जा रहा है ? ओ कामदेव के ( पुष्परूप ) बाणों द्वारा बींधे जाने वाले ( हृदय )! तू वज्र का भी नहीं है। (फिर ) तू. फट क्यों नहीं जा रहा है / नहीं बोलता ?" // 89 / / टिप्पणी-यहाँ हृदय के सम्बन्ध में पहले संशय उठता है कि यह कहीं होने का संशय मिट जाता है फिर वज्र का बना हुआ होने का संशय उठता है, किन्तु वह भी मिट जाता है क्योंकि वज्र का बना होता, तो उसे फूलों से नहीं बींधा जा सकता था, इसलिए पता नहीं हृदय किस तत्त्व का बना हुआ है। इसः प्रकार यहाँ निश्चय-गर्भ संदेहालंकार शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / / 89 // विलम्बसे जीवित ! कि द्रव द्रतं ज्वलत्यदस्ते हृदयं निकेतनम् / जहासि नाद्यापि मृषा सुखासिकामपूर्वमालस्यमिदं तवेदृशम् // 10 // अन्वयः-हे जीवित ! किम् विलम्बसे ? द्रुतम् द्रव / अदः ते निकेतनम् Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 469 हृदयम् ज्वलति / अद्य अपि मृषा सुखासिकाम् न जहासि / इदम् तव ईदृशम् आलस्यम् अपूर्वम् ( अस्ति)। टीका-हे जीवित ! प्राणाः ! किम् कस्माद्धेतो: विलम्बसे विलम्बं करोषि ? द्भुतम् शीघ्रम् द्रव गच्छ। अदः इदम् ते तव निकेतनम गृहम् हृदयम् स्वान्तम् ज्वलति दह्यते / अद्य अपि गृहे दह्यमानेऽपि मृषा मुधा सुखेन आसिकाम् सुखपूर्वकम् आसनम् अवस्थानमिति यावत् (तृ० तत्पु०) न जहासि न त्यजसि, गृहं ज्वलति, त्वञ्च निश्चितस्तिष्ठसि, न पलायसे इत्यर्थः / इदम् एतत् दह्यमाने गृहे सुखेनावस्थानम् तव ते ईदृशम् एवंविधम् आलस्यम् अलसता अपूर्वम् विलक्षणम् अस्तीति शेषः / आलस्यं विहाय हे जीवित ! शीघ्र पलायस्व अन्यथा त्वमपि धक्ष्यसे इति भावः // 90 // व्याकरण- जीवितम्/जीव + क्त ( भावे ) / द्रव/द्र + लोट् म० पु० / निकेतनम् निकेतन्ति ( निवसन्ति) अत्रेति नि+/कित + ल्युट (अधिकरणे ) / आसिकाम् आस् + ण्वुल, ( भावे ) वु को अक + टाप, इत्व / आलस्यम् अलसस्य भाव इति अलस + ष्यत्र / अनुवाद-"ओ प्राण ! क्यों देर कर रहे हो? शीघ्र भाग जाओ। तुम्हारा घर यह हृदय जल रहा है। अभी भी तुम आराम से बैठे रहना नहीं छोड़ रहे हो / तुम्हारा यह ऐसा आलस्य बड़ा अनोखा है" // 90 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि यदि हृदय से प्राण निकल जाए, तो उसकी सारी वेदना मिट जाएगी। प्राणों के रहते-रहते ही तो वेदना होती है। विद्याधर प्राणों में अधिकता बताने से यहाँ व्यतिरेकालंकार कह रहे हैं। यूं तो सभी लोग घर में आग लग जाने के समय शिर पर पैर रखकर भाग जाया करते हैं, किन्तु इधर ये प्राण हैं, जो आराम से बैठे हुए हैं, भाग जाने का नाम तक नहीं लेते। यहाँ हमें रोम के उस सम्राट की याद आ जाती है जिसके विषय में यह लोकोक्ति ही चल पड़ी हैं-Nero was fiddling when Rome was burning अर्थात् इधर रोम जल रहा था, उधर नीरो वीणावादन में मस्त था / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 90 // दृशौ ! मृषा पातकिनो मनोरथाः कथं पृथु वामपि विप्रलेभिरे। . - प्रियश्रियः प्रेक्षणघाति पातकं स्वमश्रुभिः क्षायलतं शतं समाः / / 91 // Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-हे दृशौ ! मृषा पातकिनः मनोरथाः पृथू अपि वाम् कथम् विप्रलेभिरे / प्रियश्रियः प्रेक्षण-घाति स्वम् पातकम् शतम् समाः अश्रुभिः क्षालयतम् / टोका-हे दृशौ नयने मृषा अनृताः पातकिनः पापिनश्च मनोरथाः अभिलाषाः पृथू विशाले अपि वाम् युवाम् कथम् केन प्रकारेण विप्रलेभिरे प्रतारितवन्तः प्रियस्य दर्शनं न कारयित्वा मिथ्याभूतेन पापिना मे मनोरथेन विशालयोरपि सत्योः युवयोः प्रवञ्चना कृतेति महदाश्चर्यमिति भावः / प्रियस्य नलस्य श्रियः सौन्दर्यस्य (10 तत्पु.) प्रेक्षणस्य दर्शनस्य घाति प्रतिबन्धकम् विघ्नकारकमिति यावत् स्वम् स्वीयम् पातकम् पापम् शतम् शतसंख्याकाः समाः वत्सरान्, शतशो वर्षाणि यावज्जीवमिति यावत् अश्रुभिः क्षालयतम् प्रमाजंयतम्. हे दृशौ ! युवाभ्यां यत् प्रियतमस्य दर्शनं न कृतमित्यनेनानुमीयते युवाभ्यां पूर्वजन्मनि पापं कृत. मस्ति, तस्मात् अश्रुजलेन स्वपापप्रक्षालनं क्रियताम्, प्रियस्य दर्शनं न भवितेति युवयोः कृते जीवन-पर्यन्तं रोदनमेव प्राप्तमस्तीति भावः // 91 // ___ व्याकरण-दृक पश्यतीति/दृश + क्विप् ( कर्तरि ) पातकी पातकमस्यास्तीति पातक + इन् (मतुबर्थ ) / पातकम् पातयतीति पत् + णिच + ण्वल / पृथु प्रथते इति प्रथ + उ, संप्रसारण / विप्रलेभिरे वि + प्र + Vलभ् + लिट ब० व० / प्रिय प्रीणातीति/प्री + क / घातिन् घातयतीति हन् + णिच् + णिन् / प्रियश्रियः प्रेक्षणघाति यहाँ 'प्रेक्षण' का 'श्रियः' से सम्बन्ध होने के कारण 'घाति' के साथ समास नहीं होना चाहिए था ( सापेक्षमसमर्थवत् ) / शतम् समाः कालात्यन्त-संयोग में द्वि०। अनुवाद-"ओ आंखो ! झूठा और पापी मनोरथ ( तुम्हारे ) विशाल होते हुए भी तुम्हें कैसे धोखा दे बैठा ? प्रिय का सौन्दर्य देखने में बाधक बने हुए अपन सैकड़ों पापों को आँसुओं से धो डालो" / / 91 // टिप्पणी-ध्यान रहे कि विशाल आंखें सौन्दर्य की द्योतक होती हैं। छोटों को कोई धोखा देवे, तो देवे, परन्तु इतनी बड़ी आँखें भी मनोरथ के हाथों धोखा खा गई—बड़ी विचित्र बात है। नल को देखने का मनोरथ यहां झूठा और पापी माना गया है, क्योंकि वह दर्शन न दिलाता हुआ आंखों को यों ही टरकाये जा रहा है। धोखा देना पाप होता है। आँखों ने भी पूर्वजन्म मे कोई पाप कर रखा होगा, जो दर्शन करने में बाधक बना हुआ है, अतः प्रिय के Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः दर्शन न मिलने से आंखों को अब जीवन-भर आँसू बहाना अर्थात् रोना ही बदा है। यहाँ आँखों और मनोरथ पर चेतन व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति है / 'पातकि,' 'पातक' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 91 // प्रिय न मृत्यं न लभे त्वदीप्सितं तदेव न स्यान्मन यत्त्वमिच्छसि / वियोगमेवेच्छ मनः ! प्रियेण मे तव प्रसादान्न भवत्वसौ मम // 92 / / अन्वयः-हे मनः ! ( अहम् ) त्वदीप्सितम् प्रियम् न लभे, (त्वदीप्सितम्) मृत्युम् च ( नलभे ) / त्वम् यत् मम ( ईप्सितम् ) इच्छसि तत् एव मम न स्यात् / (तस्मात् ) प्रियेण मे वियोगम् एव इच्छ। तव प्रतादात् मम असौं न भवतु / ____टीका-हे मनः ! स्वान्त ! अहम् तव ईप्सितम् अभिलषितम् (ष० तत्पु०) प्रियम् नलम् न लभे न प्राप्नोमि, त्वदीप्सितम् मृत्यु मरणं च न लभे / त्वम् यत् मम ईप्सितम् इच्छसि कामयसे तत् ईप्सितम् एव मम न स्यात् न भवेत् / तस्मात् त्वम् प्रियेण नलेन मे मम वियोगम् विरहम् एव इच्छ कामयस्व / तव प्रसादात् अनुग्रहात् मम असो वियोगः न भवतु स्यात् / अयं भावः-यत् त्वम् इच्छसि तन्न भवति प्रत्युत तद्विपरीतमेव भवति तस्मात् त्वम् नलेन मे वियोगम् एवेच्छ, उक्तन्यायेन / स न भविष्यति, तद्विपरीतः नलेन संयोग एव भविष्यति / / 92 // व्याकरण-ईप्सितम् आप् + सन् + क्त ( कर्मणि ) / मृत्युम्/मृ + त्युक् ( भावे)। असौ मम यहाँ 'प्रियेण मे' की तरह ‘सपूर्वायाः प्रथमाया विभाषा' ( 811 / 26 ) से विकल्प होने के कारण 'मे' आदेश नहीं होने पाया है। अनुवाद- "हे मन ! मैं तुम्हारे द्वारा चाहे हए प्रिय ( नल) को नहीं पा रही हूँ, न ही ( तुम्हारी चाही हुई ) मृत्यु को पा रही हूँ, ( इसलिए ) तुम प्रिय से मेरा वियोग ही चाहो / तुम्हारी कृपा से वह / वियोग ) न होवे" // 92 // टिप्पणी-दमयन्ती के मन से प्रिय-वियोग चाहने के अनुरोध के पीछे यह तर्क है कि मन जो जो चाहता वह नहीं होता है उसके चाहने पर न "प्रिय-मिलन हो रहा है, न मृत्यु ! चाही हुई बात के बिलकुल विपरीत ही होता है / इसलिए वह मन से अनुरोध कर रही है कि वह प्रिय-वियोग चाहे, उसने होना ही नहीं, विपरीत ही होना है। इसलिए चाहे हुए प्रिय-वियोग के विपरीत स्वतः प्रिय Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते संयोग हो जाएगा। विद्याधर यह हेत्वलंकार कह रहे हैं। हमारे विचार से काव्यलिङ्ग है / मल्लिनाथ 'ने' अत्र संयोगार्थम् वियोग-प्रार्थनात् विचित्रालङ्कारः' कहा है / विचित्र का लक्षण यह है-'विचित्रं स्वविरुद्धस्य फलस्याप्त्यर्थमुद्यमः' / 'मम' 'मम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 92 // न काकुवाक्यैरतिवाममङ्गगं द्विपत्सु याचे पवनं तु दक्षिणम् / दिशापि मद्भस्म किरत्वयं तया प्रियो यया वैरविधिवंधावधिः // 13 // अन्वय-द्विषत्सु अतिवामम् अङ्गजम काकुवाक्यः न याचे, (किं) तु दक्षिणम् पवनम् ( याचे ) / अयम् यया (दिशा ) प्रियः (वर्तते) तया दिशा भद्भस्म अपि किरतु ( यतः ) वैरविधिः वघावधिः ( भवति ) / टीका-द्विषत्सु शत्रुषु मध्ये अतिवामम् अतिकुटिलम् अतिविरोधिनमित्यर्थः अङ्गजम् कामम् ('अङ्गजं रुधिरेऽनङ्ग-केश-पुत्र-मदेऽङ्गजः' इति विश्वः ) / काकुः कण्ठध्वनिविशेष: तत्पूर्णः वाक्यैः (मध्यमपदलोपी स०) दोनताभरितोक्तिभिरित्यर्थः न याचे प्रार्थये, तु किन्तु दक्षिणम् दक्षिणदिग्भवम्, अथ च दानशीलम् / पबनम् वायुम् याचे। अयम् दक्षिणपवनः यया दिशया प्रियः नलः वर्तते इति शेष: तया दिशा दिशया मम भस्म (10 तत्पु०) मरणानन्तरं मम भसितम् अपि किरतु प्रक्षिपतु, यतः वैरस्य शत्रुतायाः विधिः विधानम् आचरणमित्यर्थः वधः मरणम् अवधिः अन्तः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वो०) भवतीति शेषः मरणे वैरं समाप्नोतीत्यर्थः यथा चोक्तम् 'मरणान्तानि वैराणि' // 93 // ___ व्याकरण-द्विषत्सु द्विष् + शतृ स० ब० / अङ्गाजम् अङ्गात् = मनसो जायते इति अङ्ग + /जन् + ड / वैरम् वीरस्य भाव इति वीर + अण् / वधः हिन् + अप, वधादेश। अनवाद–“शत्रुओं में से बड़ी भारी शत्रुता रखने वाले काम से मैं दीनताभरे वचनों द्वारा प्रार्थना नहीं करूंगो, किन्तु दक्षिण ( दक्षिण दिशा वाले, उदार). पवन से प्रार्थना करूंगी यह ( दक्षिण पवन ) जिस ( दिशा) से प्रिय आतेजाते हैं, उसी दिशा ( उत्तर ) से मेरी राख भी विखेर दे, क्योंकि शत्रुता करना मृत्यु तक ही सीमित रहता है" // 93 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने वाम और दक्षिण शब्दों में खूब व्यङ्ग्य भर रखा है / वाम सुन्दर को भी कहते हैं। कामदेव अतिवाम-अतिसुन्दर Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 473 है, वह उसे भी सौन्दर्य में पछाड़ देने वाले नल के देश में खार के मारे क्यों जायगा, वे उसके शत्रु जो ठहरे। दूसरे, काम अतिवाम-अतिक्रान्ताः वामा: स्त्रियो येन तथाभूतः-अर्थात् स्त्रियों का कहना ठुकरा देने वाला है। इस महाशत्रु से दक्षिण पवन ही भला है। वह भी निःस्सन्देह विरही-जनों का शत्रु ही है, लेकिन दक्षिण-उदारतापूर्ण है। प्रार्थना मान जाएगा, क्योंकि मेरे मर जाने पर वह अपनी शत्रुता त्याग देगा। साधारणतः शत्रुता जीते जी ही होती है, मृत्यु के बाद नहीं रहती, 'दक्षिण' लोगों में तो खास बात है। प्रियतम उत्तर-दिशा-स्थित निषध-देश में रहते हैं। दक्षिण पवन मलयानिलमृत्यु के बाद उड़ाकर मेरी राख उनके चरणों तक पहुंचा देगा। मैं न सही, मेरी राख भी उन तक पहुँच जाएगी तो मैं अपने को कृतकृत्य समझ लूंगी। विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है, क्योंकि अतिवाम और दक्षिण के विभिन्न अर्थों का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। अन्तिम 'वर... घिः' वाला वाक्य पूर्वोक्त विशेष बात का समर्थन कर रहा है, अतः अर्थान्तरन्यास भी है। 'तया' 'यया' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास अमूनि गच्छन्ति युगानि न क्षणः कियत्सहिष्ये नहि मृत्युरस्ति मे। स मा न कान्तः स्फूटमन्तरुज्झिता न तं मनस्तच्च न कायवायवः // 14 // - अन्वयः-अमूनि युगानि गच्छन्ति, न ( तु अयम् ) क्षणः ( गच्छति)। कियत् सहिष्ये, हि मे मृत्युः न अस्ति / स कान्तः तु अन्तः माम् स्फुटम् न उज्झिता, मन च तम् न / उज्झिता ), कायवायवः च तत् न ( उज्झितारः ) / टीका-- अमूनि एतानि युगानि कृतयुगादीनि काल-क्रमेण गच्छन्ति व्यतियन्ति किन्तु अयम् एष मे क्षण: वियोगस्य लधुतमोऽपि कालभेदः न गच्छति, वियोगस्य मे एकोऽपि क्षणो युगसहस्रायमाणः सन् न व्यत्येतीत्यर्थः / कियत् कियत्परिमाणम् अहं सहिष्ये दुःखमिति शेषः / हि यस्मात् मे मृत्युः मरणम् न अस्ति, सति सृत्यो दुःखावसानं स्यात् / स प्रसिद्धः कान्तः प्रियो नलः तु अन्तः अन्तरात्मनि स्थूलशरीरमध्ये-इत्यर्थः साम् स्फुटम् स्पष्टं यथा स्यात्तथा न उज्झता उज्झिष्यति ममान्तरात्मानं न त्यक्ष्यतीत्यर्थः मम मनः च तम् नलम् न उज्झिता, कायस्य देहस्य वायवः प्राणाः (10 तत्पु० ) च तम् मनः न उज्झितारः / विचित्रायां परिस्थित्यां पतिताऽस्मीति हा कष्टम् मिति भावः // 64 // Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 नैषधीयचरिते ___ व्याकरण--क्षण: यास्कानुसार 'प्रक्ष्णुतः कालः' / मृत्युः इसके लिए पीछे श्लो० 92 देखिए / कान्तः काम्यते इति/कम् + क्त (कर्मणि)। कायः चीयन्तेऽस्मिन् अस्थ्यादीनीति/चि +घञ् ( अधिकरणे ) / 'च, को क / Vवायुः वातीति /वा + उण, युक् का आगम। अनुवाद--"ये युग बीत रहे हैं, किन्तु ( मेरा ) यह ( एक ) क्षण नहीं बीतता। कितना झेलूंगी? मुझे मौत भी तो नहीं आती। वे प्रियतम स्पष्टतः मेरी अन्तरात्मा को नहीं छोड़ेंगे, मेरा मन उन्हें नहीं छोड़ेगा और मेरे प्राण मन को नहीं छोड़ेंगे // 94 // टिप्पणी-दमयन्ती यहाँ अपनी मृत्यु न होने का कारण बता रही है। वह अपने प्रियतम को,आत्मा समझ रही है / सच्चे प्रेम में एकात्म्यभाव स्वाभाविक ही है। जब तक आत्मा, मन और पाँच प्राणवायु शरीर से नहीं निकल जाते तब तक मृत्यु नहीं होती। मनसे यहाँ वेदान्तसंमत लिङ्गशरीर अथवा सूक्ष्म शरीर विवक्षित है। इसे 'पुर्यष्टक' भी बोलते हैं। इसका स्वरूप शास्त्र में इस प्रकार बताया गया है-"बुद्धीन्द्रियाणि खलु पञ्च तथा पराणि कर्मेन्द्रियाणि मन आदि चतुष्टयं च / प्राणादि-पञ्चकमथो वियवादिकच कामश्च कर्म च तमः पुनरष्टमी पूः // मृत्यु के समय आत्मा चला जाता है, उसके बाद मन अर्थात् लिङ्ग. शरीर जाता है, तब अन्त में षाटकौशिक भौतिक स्थूल शरीर समाप्त होता है। वेद में भी लिखा है-'तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनुत्क्रामन्ति, प्राण मुत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति'। इस मृत्यु प्रक्रिया में जब आत्म-भूत कान्त ही नहीं निकल रहा है, तो प्राण निकलें, तो कैसे निकलें / विद्याधर यहाँ 'अत्रापहनुति हेतु दीपकालङ्कारः' कह रहे हैं / 'काय' 'वाय' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास है // 94 // मदुग्रतापव्ययशक्तशीकरः सुरा:! स वः केन पपे कृपार्णवः / उदेति कोटिर्न मुदे मदुतमा किमाशु संकल्पकणश्रमेण वः // 95 // अन्वयः-हे सुराः / मदुन करः स वः कृपाणवः केन पपे ? वः संकल्पकणश्रमेण आशु मदुत्तमा ( स्त्रीणाम् ) कोटिः मुदे किम् न उदेति ? टीका--हे सुराः ! देवाः ! मम य उग्रतापः (10 तत्पु० ) उग्रः तीव: चासो तापः विरहजन्यः सन्तापः ( कर्मधा० ) तस्य व्यये नाशे (10 तत्पु० ) शक्तः समर्थः ( स० तत्पु० ) शीकरः विन्दुकणः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 475 (ब० वी०) स प्रसिद्धः वः युष्माकं कृपा अनुग्रहः एव अर्णवः समुद्रः (कर्मधा०) केन पपे पीतः ? युष्माकं स्वभक्तेषु अपारः प्रसादो वर्तते / यदि तस्य लध्वंशोऽपि मयि भवेत् तर्हि मम प्रियविरह-कृत संताप: क्षणेनेवोपशाम्येत इति भावः / वः युष्माकम् संकल्पस्य इच्छायाः यः कण। लध्वंशः तस्य श्रमेण प्रयासेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) आशु शीघ्रम् क्षणेनैवेत्यर्थः मत्तः उत्तमा मदपेक्षयाधिकसौन्दर्यशालिनी (पं० तत्पु० ) कोटि नारीणां कोटिमंख्या मुदे वः प्रातये किम् न उदेति जायते ? अपितु उदेत्येवेति काकुः / व: इच्छामात्रेण मदधिकाः कोटिशः सुन्दर्यो भवतां सेवायां समुपस्थास्यन्ते, मदभिलाष-हठस्त्यज्यतामित्येव वः कृपया मयि भवितव्यमिति भावः // 95 // व्याकरण-सुराः इसके लिए सगं 5 श्लोक 34 देखिए / व्ययः वि + Vइ+ अच् ( भावे) / शक्त/शक् + क्त (कतरि) / अर्णवः अर्णासि (जलानि) अस्मिन् सन्तीति अणंस् + व, स का लोप / उत्तमा उत् ( अतिशेयन ) उत्कृष्टा इति उत् + तमम् ( प्रादि स० ) / मुदे/मुद् + क्विप ( भावे ) च / __ अनुवाद-“हे देवता लोगो ! मेरा तीव्र (विरह- ) सन्ताप मिटा देने में सशक्त बिन्दु-कण वाला आप लोगों का कृपारूपी सागर कौन पी गया है ? आप लोगों के लेशभर इच्छा के श्रम से मुझसे कहीं अधि: ( सुन्दर ) करोड़ों स्त्रियाँ / तत्काल ( आप लोगों के ) आनन्द-प्रमोद हेतु उठ खड़ी नहीं हो जाएंगी क्या ? // 95 / / टिप्पणी-जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्र पो गए थे। उसी तरह तुम्हारा कृपासमुद्र किसने पी लिया, जो आप लोग सूखे-सूखे हुए पड़े हो? मुझपर इतनी थोड़ी-सी कृपा कर दो कि मुझे वरने की अभिलाषा की हठ त्याग दो। तुम्हारे चाहने मात्र की देरी है, करोड़ों सुन्दरियाँ तुम लोगों पर कुर्बान हो जाएंगी। मुझ पर ही क्या शहद लगा हुआ है / कृपा पर अर्णवत्वारोप में रूपक है / 'मुदे" 'मदु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यन्प्रास हे // 95 / / ममैव वाहर्दिनमश्रुर्दिनैः प्रसह्य वर्षासु ऋतौ प्रसञ्जिते ! कथं नु शण्वन्नु सुषुप्य देवता भवत्वरण्येरुदितं न मे गिरः // 96 // अन्वयः-वा अहर्दिवम् मम एव अश्रु-दुदिनैः प्रसह्य वर्षासु ऋतौ प्रसञ्जिते ( सति ) देवताः सुषुप्य मे गिरः कथम् नु शण्वन्तु, ( अतः मे गिरः) अरण्येरुदितम् ( कथम् ) न भवतु ? Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 नैषधीयचरिते टीका-वा अथवा अह्नि च दिवा चेति ( द्वन्द्व ) अहर्दिवम् प्रत्यहम् मम एव अभूणि अश्रुधारा एव दुदिनानि मेघाच्छन्नदिवसाः तः ( कर्मधा० ) ( 'मेघच्छन्नेह्नि दुर्दिनम्' इत्यमरः ) प्रसह्य बलात् यथा स्यात्तथा वर्षासु ऋतौ वर्षौ ('स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षाः' इत्यमरः ) प्रसञ्जिते प्रवतिते सति देवताः सषप्य सम्यक् सुप्त्वा स्वपन्त इत्यर्थः मे मम दमयन्त्याः गिरः वाणीः कथम् केन 'प्रकारेण न इति पृच्छायाम् शृण्वन्तु आकर्णयन्तु, न कथमपीत्यर्थः अतः मे गिरः अरण्ये बने सदितम् रोदनम् ( अलुक् स० ) निष्फलवचनमित्यर्थः कथम् न भवतु स्यात् ? अपि तु भवत्वेति काकुः // 96 // व्याकरण-वर्षासु ऋतौ 'ऋत्यकः' ( 6 / 1 / 128 ) से प्रकृतिभाव / प्रस. जिते प्र + /सङ्ग् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / देवताः देवा एवेति देव + तल् ( स्वार्थे ) + टाप् / सुषुप्य सु + /सुप् + ल्यप्, षत्व / अरुण्यक्तिम् 'क्षेपे' ( 2 / 1147 ) से निन्दार्थ में समास, 'तत्पुरुषे कृति बहुलम्' ( 6 // 3 // 14 ) से विभक्ति-अलुक् / गिरः न भवतु ? विधेय-भूत अरण्येरुदितम् की प्रधानता से एक वचन / भवतु संभावना में लोट् / अनुवाद-"अथवा रात-दिन मेरे ही अश्रुओं-रूपी मेघावृत दिनों द्वारा बलात् वर्षा ऋतु के आरम्भ किये जाने पर देवता लोग खूब सोते हुए मेरे वचनों को सम्भवतः कैसे सुनें ? ( इसलिए ) वह अरण्य-रोदन कैसे न हो ? // 16 // __ टिप्पणी शास्त्रों के कथनानुसार वर्षा ऋतु में देवता लोग सो जाया करते हैं। वह उनकी रात होती है ज्योतिष भी कहता है-'वर्षर्तुर्देवरजनी'। जब रात हो जाने से वे निद्रा में सोपे पड़े हैं, तो मेरे करुण वाक्यों को कैसे सुन सकते हैं ? यह मेरा ही दोष है / मैं न रोती, तो वर्षा-ऋतु न लाती, न मेरा रोना-चिल्लाना अरण्य-रोदन सिद्ध होता। विद्याधर के अनुसार अश्रुओं पर दुदिनत्वारोप में रूपक है। मल्लिनाथ के अनुसार उस समय वर्षा ऋतु का तथा देवताओं के सोने के साथ असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बता देने से दो अतिशयोक्तियाँ हैं जिनका दमयन्ती के वचनों का 'अरण्यरुदितमिव' यों सादृश्य में 'पर्यवसान होने से निदर्शना के साथ संकर है। न सुनने का कारण बताने में काव्यालङ्ग भी है। 'दिन' दिनैः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 96 / / Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 4770 इयं न ते नैषध ! दक्पथातिथिस्त्वदेकतानस्य जनस्य यातना / ह्रदे ह्रदे हा न कियद् गवेषितः स वेधसाऽगोपि खगोऽपि वक्ति यः॥९७॥ अन्वयः हे नैषध ! त्वदेकतानस्य जनस्य इयम् यातना ते दृक्-पथातिथिः न / हा ! यः (खगः) वक्ति, स खगः ह्रदे ह्रदे कियत् न गवेषितः ? (किन्तु) सः अपि वेधसा अगोपि / ____टीका-हे नैषध ! निषधाधिपते ! त्वयि एकतानस्य अनन्यवृत्तेः एक-. निष्ठस्येत्यर्थः ( स० तत्पु० ) ( 'एकतानोऽनन्यवृत्तिः' इत्यमरः ) एकतानस्य एकम् तानं चिन्तनविषयो यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) जनस्य मल्लक्षणव्यक्तः दमयन्त्याः इति यावत् इयम् एषा मयाऽनुभूयमाना यातना तीव्रवेदना ते तव दृशोः नयनयोः पथः मार्गस्य अतिथिः प्राधुणिकः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) दृगगोचर इत्यर्थः न अस्तीति शेषः तव सुदूरदेश-स्थितत्वात् / हा! कष्टम् ! य: खगः स्वर्णहंस इत्यर्थः वक्ति त्वाम् प्रति मे वेदनां कथयेत् स खगः मया ह्रदे ह्रदे प्रतिह्रदम् कियत् कतिवारम् यथा स्यात्तथा न गवेषितः नान्विष्टः ? किन्तु सोऽपि वेधसा ब्रह्मणा अगोपि गुप्त: क्वापि निह्नतः मा त्वया दमयन्त्याः समीपे गन्तव्यमिति निवारित इति भावः // 96 // व्याकरण-नैषषः निषधानामयमिति निषध + अण् / यातना /यत् + णिच् + युच् + टाप् / अतिथि: इसके लिए पीछे श्लो० 49 देखिए / ह्रदः ह्रादते इति ह्रद् + अच ( कर्तरि ) निपातन से हस्व / गवेषितः गवेष + क्त ( कर्मणि ) वेधसा विदधाति जगदिति वि+Vधा + असुन्, एत्व निपातित / अगोपि /गुप् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद--“हे निषधेश ! एकमात्र तुम पर ही पूरी निष्ठा रखने वाले जन की ( मेरी ) यह यातना तुम्हारे देखने में नहीं आ रही है। हाय ! जो पक्षी ( स्वर्णहंस ) ( तुम्हारे पास मेरी यातना का ) बखान करता, उसे मैने झील-झील में ढूढ मारा, (लेकिन ) विधाता ने उसे भी छिपा दिया है" // 97 // टिप्पणी-यहाँ से लेकर चार श्लोकों में कवि नल को लक्ष्य करके किया जा रहा दमयन्ती का विलाप वर्णन कर रहा है। नारायण "दृक्पयातिथि न" को काकु के रूप में लेकर विधिपरक मान रहे हैं अर्थात् मेरी यातना तुम्हारे Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते दृष्टिगोचर नहीं है क्या ? अवश्य दृष्टिगोचर है, किन्तु हमारे विचार से इस तरह विधिपरक लेने से श्लोक के उत्तराध में 'जो हंस तुम्हारे पास मेरी यातना को पहुंचाता" यह बात नहीं बनती है, क्योंकि यातना जब तुम जान ही रहे हो, तो हंस द्वारा पहुंचाये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है / इसलिए इसे निषेध. परक लेना ही उपयुक्त है। तुम यातना नहीं जान रहे हो क्योंकि तुम सुदूर 'निषध देश में हो। इसी तरह अगले श्लोक की भी उपपत्ति बन जाती है / इसलिए यातना जताने हेतु हंस के माध्यम की आवश्यकता पड़नी ठीक है। 'नस्य' 'नस्य' में यमक "ह्रदे ह्रदे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 97 // ममापि किं नो दयसे दयाधन ! त्वदघ्रिमग्नं यदि वेत्थ मे मनः / निमज्जयन्तं तमसे पराशयं विधिस्तु वाच्यः क्व तवागसः कथा ? // 98 // अन्वयः-हे दयाधन ! ( त्वम् ) मे मनः त्वदध्रिमग्नम् यदि वेत्थ, ( तर्हि ) मम अपि किम् नो दयसे ? तु पराशयम् संतमसे निमज्जयन विधि: वाच्यः; तव आगसः कथा क्व ? टोका-हे दया कृपा एव धनम् ( कर्मधा० ) यस्य तत्सम्बुद्धी (ब० वी०) हे कृपानिधे ! इत्यर्थः त्वम् मे मम मनः हृदयम् तव अघ्री चरणी (10 तत्पु० ) तयोः मग्नम् बुडितम् ( स० तत्पु० ) त्वच्चरण-परायणमित्यर्थः यदि चेत् वेत्थ वेरिस, तर्हि मम मदुपरि अपि किम् कस्मात् नो न व्यसे दयां करोषि ? तु किन्तु परेषाम् अन्येषां जनानाम् आशयम् मनः (10 तत्पु० ) संतमसे संततं तमः तस्मिन् (प्रादिस० ) घनान्धकारे अज्ञाने इत्यर्थः निमज्जयन् ब्रुडयन् 'पातयन्निति यावत् विधिः विधाता वाच्यः उपालब्धव्यः / विधिः लोकानां मनो यन्मोहान्धकारे पातयति, तत्र विधिरेव दोष-पात्रम् नतुं लोका इति भावः / तव ते आगसः अपराधस्य कथा वार्ता क्व कुत्र? न वागीति काकुः / त्वं मे यातनां न जानासीत्यत्र नत्वमपराध्यसि' विधातवात्रापराध्यतीतिभावः // 98 // व्याकरण-या /दय + अङ्ग ( भावे ) + टाप् / वेत्थ /विद् + लट सिप, सिप को विकल्प से थल आदेश / मम वयसे-'अधीगर्थदयेशाम् कर्मणि' ( 2 / 352 ) से कर्म में षष्ठी। संतमसे सम्/तमस् + अच् ('अव-सम न्धेभ्यस्तमसः' (5 / 4 / 79) / बाच्यः वक्तुम् ( निन्दितुम् ) योग्य इति वच् + ण्यत् (कर्मणि ) / HTHHHHE Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः अनुवाद- "हे दया के धनी! यदि तुम मेरे मन को अपने चरणों में मग्न हुआ जान रहे होते, तो मुझपर भी क्यों दया न करते ?, किन्तु दूसरों के मन को ( अज्ञान-) अन्धकार में डुबो देने वाला विधाता (ही) उपालम्भ-योग्य है। तुम्हारे अपराध की बात कहाँ ?" // 98 // टिप्पणी-नल जो दमयन्ती की यातना से अनभिज्ञ है, उसका दोष वह उन पर नहीं, बल्कि विधाता पर दे रही है, जो लोगों को अज्ञानान्धकार में डाले रहता है। नल ऐसे निर्दय नहीं हो सकते हैं। विद्याधर यदि शब्द से असम्बन्ध में सम्बन्ध की कल्पना करके अतिशयोक्ति मान रहे हैं। साथ ही समालंकार भी कहते हैं, क्योंकि नल जब सभी पर दया करते हैं, तो तुल्यन्याय से दमयन्ती पर भी उनकी दया का होना स्वाभाविक था। 'दय' 'दया' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 98 // कथावशेषं तव सा कृते गतेत्युपेष्यति श्रोत्रपथं कथं न ते ? / दयाणुना मां समनुग्रहीष्यसे तदापि तावद्यदि नाथ ! नाधुना // 19 // अन्वयः-'सा तव कृते कथावशेषम् गता' इति ते श्रोत्र-पथम् कथम् न उपैष्यति ? हे नाथ ! यदि अधुना न तदा अपि तावत् दयाणुता माम् समनुग्रहीष्यसे / टीका-सा दमयन्ती तव कृते त्वदर्थम् कथा नामोल्लेखः स्मृतिरिति यावत् एव अवशेषः अवशिष्टम् तम् ( कर्मधा० ) गता प्राप्ता मृतेत्यर्थः इति एतत् लोकमुखेभ्यः ते तव श्रोत्रयोः कर्णयोः पन्थानम् विषयत्वम् कथम् केन प्रकारेण न उपयति न प्राप्स्यति ? अपि तु उपैष्यत्येवेति काकुः त्वयि अनुरक्ता दमयन्ती स्वामप्राप्तवती सती जन्मान्तरेऽपि त्वत्प्राप्तीच्छया मृतेति त्वम् लोकात् श्रोष्यस्येवेति भावः / हे नाथ ! स्वामिन् ! यदि अधुना इदानीम् न समनुगृह्णसे, तदा तस्मिन् समये अपि तावत् इति संभावनायाम् व्यायाकृपायाः अणुना लेशेन (10 तत्पु० ) समनुग्रहीष्यसे अनुग्रहं करिष्यसे / दमयन्ती मम कृते मृतेत्यपि वदन् मा स्मरिष्यसि चेत् तदपि अहं आत्मानं धन्य-धन्यं मस्ये इति भावः।।९९।। ___व्याकरण-कथा /कथ् + अङ ( भावे ) + टाप् / अवशेष: अव + शिष् + घन ( भावे ) श्रोत्रम् यतेऽनेनेति Vश्रु + ष्ट्रन ( करणे ) / दया /दय + अङ् ( भावे) + टाप् / Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. नैषधीयचरिते अनुवाद--'वह ( दमयन्ती ) मेरे लिए मर मिट गई' यह ( समाचार) तुम्हारे कानों में कैसे नहीं पड़ेगा? यदि इस समय न सही, तब तो संभवतः तुम मेरे ऊपर थोड़ी-सी दया द्वारा मुझे अनुगृहीत करोगे ही // 99 / / टिप्पणी-मेरे मरने के बाद मेरी इतनी याद यदि कर लोगे कि वह बेचारी मेरे प्रेम पर बलिदान हो गई, तो इतने मात्र से मैं अपने को कृतकृत्य हुआ समझ लूंगी। 'कथा' 'कथं' में छेक 'पथं कथं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 99 // ममादरीदं बिदरीतुमान्तरं तर्थिकल्पद्रुम ! किंचिदर्थये। भिदां हृदि द्वारमवाप्य मा स मे हतासुभिः प्राणसमः समं गमः // 10 // अन्वयः-मम इदम् आन्तरम् विदरीतुम् आदरि ( अस्ति ) तत् हे अर्थि समम् प्राणसमः स ( त्वम् ) मागमः / टीका-मम मे इवम् एतत् आन्तरम् हृदयम् विदरीतुम् विदीर्णीभवितुम्, स्फुटितुमिति यावत् आदरि आदरवत्, विदरीतुमुत्सुकमस्तीत्यर्थः तत् तस्मात् अहम् दमयन्ती त्वाम् किञ्चित् किमपि अर्थये याचे / त्वया मे याचना पूरयितव्या कल्पवृक्षस्य सर्वकामनापूरकत्वस्वभावादिति भावः / हृदि हृदये भिवाम् भेदम्, विदरण-रूपं द्वारम् मार्गम् अवाप्य प्राप्य मे भम हतः नष्ट: असुभिः प्राणः ( कर्मधा० ) समं सह स मम नाथस्त्वमित्यर्थः मा गमः न गच्छ / हृदये स्फुटिते सति गच्छद्भिः प्राणः सह त्वयाऽपि न गन्तव्यम्, हृदये एव स्थातव्यमिति भावः // 100 // व्याकरण-आन्तरम् अन्तरमेवेति अन्तर + अण ( स्वार्थे ) / विदरीतुम् विकल्प से दीर्घ ('वृतो वा' 72 / 38) / आदरि आदरोऽस्यास्तीति आदर + इन् ( मतुबर्थ ) / भिवाम्/भिद् + अङ् (भावे)+ टाप् / द्वारम् यास्क के अनुसार 'वारयतीति सतः/वृ + णिच् + अच् दकारागम निपातित / असुभिः अस्यन्ते इति/ अस् + उन् / मा गमः/ गम् + लुङ माङ् के योग में अडागमनिषेध / अनुवाद-"मेरा यह हृदय फट जाने को तय्यार हुआ बैठा है, इसलिए हे Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 481 याचकों के कल्पवृक्ष ( नल ! ) मैं कुछ प्रार्थना करती हूँ ( और वह यह कि ) हृदय के फट जाने से बने हुए ( निर्गमन ) मार्न में पहुंचकर (चले जाते हुए) पापी प्राणों के साथ-साथ प्राण-तुल्य वह ( तुम भी) न चले जाना" // 100 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि निर्गमन-मार्ग प्राप्त करके प्राणों के साथ प्राग-सम तुम भी कहीं न चल बैठना, हृदय से ही चिपके रहना जिससे कि अगले जन्म में मैं तुम्हें प्राप्त कर सकूँ। मरते समय मनुष्य मन में जिस भाव या वस्तु को रखकर प्राण त्यागता है, अगले जन्म में वह उसे प्राप्त कर लेता है। यह बात गीताकार ने भी स्पष्ट कर रखी है-'यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजन्त्यन्ते कलेवरम् तं तमेवेति कौन्तेय ! सवा तद्भाव-भावितः // (86) / विद्याधर के अनुसार 'अथिकल्पद्रुम' में रूपक है, किन्तु हमारे विचार से विषयभूत नल के निगीर्ण होने से अभेदातिशयोक्ति होनी चाहिए / 'दरी' 'दरी' में यमक, 'दथि' 'दर्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'समे, समः, समं' में आवृत्ति एक से अधिक वार है, अतः वृत्त्यनुप्रास ही है, छेक नहीं // 100 // इति प्रियाकाकुभिरुन्मिशन्भृशं दिगीशदूत्येन हृदि स्थिरीकृतः / नृपं स योगेऽपि वियोगमन्मथः क्षणं तमुभ्रान्तमजीजनत्पुना // 101 // __ अन्वयः-दिगीश-दूत्येन हृदि स्थिरीकृतः स वियोग-मन्मथः प्रिया-काकुभिः उन्मिषन् तम् नृपम् योगे ( सति) अपि क्षणम् पुनः भृशम् उद्भ्रान्तम् अजीजनत् / ___टीका-विशाम् दिशानाम् ईशाः स्वामिनः इन्द्रादयो देवाः तेषां दूत्येन सन्देशहारकत्वेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) हृदि हृदये अस्थिरः स्थिरः सम्पद्यमानः कृत इति स्थिरीकृतः दृढीकृतः एतावत्समयपर्यन्तं निरुद्ध इति यावत् स पियोगरूपः मन्मथः कामः विप्रलम्भशृङ्गार इत्यर्थः (कमंषा०) प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्या काकुभिः दीनता-भरिताभिः उक्तिभिः (10 तत्पु० ) उन्मिषन् उद्बुद्धः सन् तम् नृपम् राजानम् नलम् योगे संयोग-शृङ्गारे स्वसन्निधाने इत्यर्थः सत्यपि क्षणम् मुहूर्तम् पुनः भृशम् अतितराम् उद्भ्रान्तम अतिशयेन भ्रान्तचित्तम् उन्मादगतमिति यावत् अजीजनत् चकार वियुक्ता प्रिया साम्प्रतं नलस्य सामीप्ये एव वर्तते स्म तथापि तद्वियोगेन पुनरपि जातोन्मादो नलः प्रलपितुमारब्ध इति भावः // 101 // व्याकरण-ईशः ईष्टे इति/ईश क। दूत्येन दूतस्य भावः कम वा इति दूत + यत् / यद्यपि यह वैदिक शब्द है तथापि कवि लोग लोक में भी इसका Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 नैषधीयचरिते प्रयोग कर लेते हैं। स्थिरीकृतः स्थिर + च्वि ईत्व + / + क्त ( कर्मणि ) / मन्मथ: मनः मनातीति मनस् +/मथ् + अच् (निपातनात्साधुः ) क्षणम् कालात्यन्तसंयोग में द्वि० / अजीजनत् /जन + णिच् + लुङ। . अनुवाद-(इन्द्रादि) दिक्पालों के दूत-कर्म के कारण हृदय के भीतर दबाया हुआ वियोगावस्था वाला प्रेम प्रिया की दीनता-भरी उक्तियों से उबुद्ध होता हुआ उस राजा ( नल ) को संयोगावस्था में भो क्षण भर के लिए फिर उन्मत्त कर बैठा / / 101 टिप्पणी-यद्यपि प्रिया नल के सामने ही खड़ी थी, तथापि मैं तो दूत हूँ- इस विचार से नल ने उसके प्रति अपने व्यक्तिगत अनुराग को हृदय में बिलकुल दबा रखा था, किन्तु जब वह उनके सामने करुण विलाप करने लगी तो उनसे रहा न गया और वे पहले की तरह वियोग के कारण फिर उसके प्रेम में पागल हो उठे। वे भूल ही गए कि प्रिया मेरे पास ही है और उसके विरह में प्रलाप करने लगे। विद्याधर यहां रूपक कह रहे हैं, जो हम नहीं समझ पा रहे हैं। संभवतः वे वियोग पर मन्मथत्वारोप मान रहे हों। प्रिया-काकुओं को उन्माद का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है। उन्माद-नामक व्यभिचारि-भाव के उदय होने से भावोदयालंकार भी है / 'योगे' 'योग' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास महेन्द्रदूत्यादि समस्तमात्मनस्ततः स विस्मृत्य मनोरथस्थितैः / क्रियाः प्रियाया ललितैः करम्बिता वितर्कयन्नित्थमलीकमालपत् // 102 // ___ अन्वयः-ततः स आत्मनः महेन्द्र-दूत्यादि समस्तं विस्मृत्य मनोरथ स्थितः ललितः करम्बिताः प्रियायाः क्रियाः वितर्कयन् इत्थम् अलीकम् आलपत् / टीका-तत: उन्मादोदयानन्तरम् स नलः आत्मनः स्वस्य महेनस्य शक्रस्य दूत्यम दूतकम (प० तत्पु०) आदी यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) आदि-पदेनात्र अग्न्यादीनां दूत्यकर्म ग्राह्यम् विस्मृत्य विस्मृति प्रापय्य मनोरथे कल्पनायां / स्थित! वर्तमानः मनोरथ-कल्पितरित्यर्थः ललित: विलासैः करम्बिता मिश्रिताः प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः क्रिया: चेष्टा वितर्कयन् विविधं तकंयन् कल्पयन्नित्यर्थः इत्यम् वक्ष्यमाण-प्रकारेण अलीकम् अबुद्धिपूर्वकम् अज्ञानादिति यावत् आलपत् विलापमकरोत् / Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 483 नवमः सर्गः व्याकरण-दूत्यम् इसके सम्बन्ध में पिछला श्लो० देखिए / ललित / लल् + क्त ( भावे)। करम्बिता करम्बः (भः) सञ्जातोऽस्येति करम्ब + इतन् / वैसे करम्ब दघि मिश्रित सक्त को कहते हैं, किन्तु लक्षणा से यह शब्द मिश्रित अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है। इत्थम् इदम् + थम् (प्रकारार्थ ) / ___ अनुवाद–तदनन्तर वे ( नल) इन्द्र के दूत-कर्म आदि निज सभी कुछ ( बातें ) भूलकर मन में चक्कर काट रही, विलास भरी प्रिया की चेष्टाओं की कल्पना करते हुए इस तरह यों ही विलाप कर बैठे // 102 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि प्रायः पूर्वोक्त श्लोक का अर्थ दोहरा रहा है। नल उन्मादावस्था में आ गए हैं और उसके कारण दमयन्ती के साथ आलिङ्गन, प्रणय-कलह आदि चेष्टाओं की कल्पना करते हुए, यों ही प्रलापकरने लग जाते हैं। विद्याधर विरोधाभास कह रहे है जो हमारी समझ में नहीं आता / शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है // 102 // अयि प्रिये ! कस्य कृते विलप्यते विलिप्यते हा मुखमश्रुबिन्दुभिः / पुरस्त्वयालोकि नमन्नयं न किं तिरश्चलल्लोचनलीलया नलः // 10 // अन्वयः-अयि प्रिये ! कस्य कृते ? विलप्यते / हा! ( कस्य कृते ) मुखम् अ बिन्दुभिः विलिप्यते ? तिर 'लया त्वया पुरः नमन् अयम् नलः न आलोकि किम् ? .. टोका-अयि प्रिये / प्रियतमे ! कस्य कृते विलप्यते किमर्थम् विलप्यते ? त्वया विलापः क्रियते ? हा! कस्य कृते अश्रणां बिन्दुभिः पृषद्भिः (10 तत्पु० ) मुखम् आननम् विलिप्यते दिह्यते अश्रुपातेन मुखं प्रदूष्यते अमङ्गलत्वादित्यर्थ: तिरः वक्रं यथा स्थात्तथा चलन्ती प्रसरन्ती ( सुप्सुति समासः) या लोचन लीला (कर्मधा० ) लोचनयोः नयनयोः लीला अथवा तिर्यक् चलतोः लोचनयोः { कर्मधा० ) लीला विलासः तया (10 तत्पु० ) अथवा लीला यस्याः तथा भूतया ( ब० वी० ) त्वया पुरः भने नमन् प्रणतो भवन अयम् एष नल: न आलोकि दृष्टः किम् ? अहम् तवाने प्रत्यक्षोऽस्मि, त्वन्तु मां परोक्षं मत्वा व्यर्थमेवोपालभसे इति भावः // 103 // व्याकरण-विलप्यते वि/लप् + लट् ( भाववाच्य ) बिन्दुः इसके लिए पीछे श्लोक० 85 देखिए / विलिप्यते वि + लिप् + लट् ( कर्मवाच्य ) ! चलन / चल् + शतृ / Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 नैषधीयचरिते अनुवाद-"ओ प्रिये ! किसके लिए विलाप कर रही हो? हाय ! (किसके लिए ) मुख आँसुओं से लीप रही हो? तिरछे पड़ रहे नयन-विलासकटाक्ष-से सामने सिर झुकाये हुए यह नल तुमने नहीं देखा है ? टिप्पणी-हम पीछे देख आए है कि सती दमयन्ती देवदूत ( नल ) को पर-पुरुष समझ कर सीधा न देखती हुई टेढ़ी नजर करक देखती थी और अब उसके आगे रो भी पड़ी है। इधर देखो तो उन्मादावस्था में नल उसे प्रणयकोप किये टेढी दृष्टि से देखती और रोती हुई समझ रहे हैं तथा उसके आगे सिर झुकाकर क्षमा मांग रहे हैं / विद्याधर यहां हेतु अलंकार कह रहे हैं / 'विलप्यते' 'विलिप्यते' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है // 103 // चकास्ति बिन्दुच्युतकातिचातुरी घनानुबिन्दुस्र तिकैतवात्तव / मसारताराक्षि! ससारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं यतः // 104 // अन्वयः-हे मसार-ताराक्षि ! धना".... कैतवात् तव बिन्दु..'चातुरी चकास्ति यतः ( त्वम् ) असंशयम् संसारम् आत्मना ससारम् तनोषि / टीका-मसारः इन्द्रनीलमणिः तद्वत् नीले इत्यर्थः ( उपमान तत्पु० ) तारे कनीनिकाद्वयम् ययोः तथाभूते ( ब० बी० ) अक्षिणी नयने ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी (ब० वी० ) हे मसारताराक्षि / घनाः निबिडाः ये अश्र-बिन्दवः ( कर्मधा० ) अधूणाम् अस्रस्य बिन्दवः पृषन्ति तेषां या न तिः स्रवणम् प्रवाह इति यावत् तस्याः कैतवात् छलात् ( सर्वत्र 10 तत्पु० ) बिन्दोः अनुस्वारस्य च्युतम् एव च्युतकम् एतदाख्यः शब्दालङ्कारविशेषः तस्मिन् अतिचातुरी अतिशयिता नैपुणी ( स० तत्पु० ) अतिशयिता चातुरी अतिचातुरी ( प्रादि स० ) चकास्ति शोभते, विन्दुच्युतालङ्कारप्रयोगे त्वं निपुणासीत्यर्थ! अथ च बन्दूनाम् पृषताम् च्युतके प्रवाहे ते अतिचातुरी चकास्ति त्वम् घनाश्रुबिन्दुप्रवाहच्छलेन मिथ्या रोदने चतुरासीत्यर्थः यतः यस्मात् कारणात् त्वम् असंशयम् न संशयो यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात् तथा ( ब० वी० ) निश्चितम् संसारम् जगत अथ च 'संसार' शब्दम् आत्मना स्वोपस्थित्या अथ च स्व-सामर्थेन ससारम् सारेण सहितम् श्रेष्ठवस्तु सहितमिति यावत् (ब० वी०) अथ च अनुस्वार-रहितं तनोषि करोषि / अलीक-रोदने अश्रुबिन्दून् प्रवाहयन्ती अपि त्वम् शोभसे, मम कृते च संसारं Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 485 सारवन्तं करोषि, इन्द्रादिदेवान अपाकृत्य मय्यनुरज्यन्त्या त्वयाऽहं धन्य-धन्यतां -नीत इति भावः / / 104 // व्याकरण- तिः सु + क्तिन् ( भावे ) कैतवात् कितवस्य भाव इति कितव+अण् / बिन्दुः इसके लिए पीछे श्लो० 85 देखिए / च्युतकम् च्यु + क्त -( भावे ) + क ( स्वार्थे ) / संसारः सम् + सृ + घन ( भावे ) / अनुावद-“ओ इन्द्रनीलमणि-जैसी (काली) पुतली-युक्त आंखों वाली (दमयन्ती ) ! घने अश्र बिन्दु बहाने के छल से 'बिन्दुच्युतक' बिन्दु पात, अलंकार विशेष में तुम्हारी बड़ी भारी चतुरता चमक रही है। तभी तो तुम सचमुच संसार ( जगत्, 'संसार' शब्द ) को अपने द्वारा ससार (सारयुक्त, अनुस्वार-रहित ) कर रही हो" // 104 // टिप्पणी-दमयन्ती नैराश्य में आकर अश्रु बिन्दुयें गिरा रही है, लेकिन नल उसे उसका कैतव बता रहा है अर्थात् वह यों ही झूठमूठ रोकर अश्र बिन्दु गिराने की चतुराई दिखा रही है जैसे स्त्रियां प्रायः किया ही करती हैं / 'बिन्दुच्युतकाविचातुरी' शब्द में श्लेष रख कर कवि यह भी बता रहा है कि अश्र - बिन्दु गिराने के बहाने दमयन्ती बिन्दुच्युतक नामक शब्दालंकार के प्रयोग में अपनी चातुरी दिखा रही है। बिन्दुच्युतक एक ऐसा अलंकार होता है जिसमें अक्षर के ऊपर किसी बिन्दु 'अर्थात् अनुस्वार गिराया-हटाया जाता है और वाक्य का फिर और ही अर्थ कर दिया जाता है इसका एक उदाहरण लीजिए'कान्तो नयनानन्दी बालेंदु:खे न भवति' अर्थात् सुन्दर और नयनों को आनन्ददायका बाल नया ) चन्द्र आकाश में नहीं है। अब यहां बालेंदु शब्द में से 'ले', अक्षर का बिन्दु ( अनुस्वार ) हटा दीजिए, तो वाक्य बनेगा बाले दुःखेन भवति अर्थात् ओ लड़की! आंखों को आनन्द देने वाला (सुन्दर ) कान्त ( पति ) कठिनाई से मिलता है। प्रकृतमें भी संसार शब्द में से बिन्दु हटाकर उसे 'ससार' करके उसका सारयुक्त अर्थ दिया जाता है अर्थात् दमयन्ती 'संसार' को नल के लिए बिन्दु गिराकर 'ससार' बना रही है / यहां केतब शब्द से अश्रु बिन्दु-च्युति पर वर्णात्मक बिन्दुच्युतकत्वारोप होने से कतवापह्नति है जिसका बिन्दुच्युतक, संसार और ससार शब्दों के विभिन्न अर्थ होते हुए भी श्लेष-मुखेन अभेदाध्यवसाय में बनने वाली भेदे अभेदातिशयोक्ति के साथ संकर Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 नैषधीयचरिते है। मल्लिनाथ 'असंशयम्' शब्द को संभावना वाचक मानकर उत्प्रेक्षा भी कह रहे हैं 'सार' 'सार' 'सार' में यमक 'संसा' 'संश' में ( सशयोरभेदात् ) छेक - और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 104 // अपास्तपाथोरुहि शायितं करे करोषि लीलाकमलं किमाननम् / तनोषि हारं कियदस्रुणः स्रवैरदोषनिर्वासितभूषणे हृदि // 105 / / - अन्वयः-अपास्त-पाथोरुहि करे शायितम् आननम् लीला-कमलम् किम् करोषि ? अदोष “षणे हदि अश्रुणः स्रवैः कियत् हारम् तनोषि? टोका-अपास्तम् विरह-कारणात् परित्यक्तम् पाथोरुट पाथसि जले रोहतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) जलजम् कमलमिति यावत् ( कर्मधा० ) येन तथाभूते ( ब० बी० ) करे हस्ते शायितम् शयितुं प्रेरितम् स्थापितमित्यर्थः आननम् मुखम् लोलार्थ विलासार्थ कमलम् (च० तत्पु० / किम् कस्मात् करोषि विदधासि ? लीला-कमलं परित्यज्य विरहकृत-चिन्तया मुखं हस्तोपरि किमर्थं स्थापयसि ? एतन्न कुरु अलं चिन्तया, ते प्रियोऽहं तव सम्मुखे एवास्मीति लीलाकमलं यथापूर्व करे कुविति भावः। अदोषाणि न दोषो येषु तथाभूतानि ( नन ब० वी० ) एव निर्वासितानि परित्यक्तानि च भूषणानि मौक्तिकहारादीनि ( उभयत्र कर्मधा० ) येन तथाभूते (ब० वी० ) हृदि वक्षसि अभुण: वाष्पस्य नवैः प्रवाहैः अश्रुधाराभिरित्यर्थः कियत् कियन्तं कालम् हारम् मौक्तिकहारम् तनोषि करोषि / दुःखकारणात् वक्षःस्थलात् हारम् अपनीय सम्प्रति अश्रुबिन्दुभिः कियत्कालपर्यन्तं तत्र हारं रचयिष्यसीत्यर्थः / अलमश्रुपातेन, वक्षसि हारं धारय, अहं तव सन्निधौ वर्ते इति भावः // 105 // व्याकरण- अपास्तम् अप + / अस् + क्त ( कर्मणि) पायोक्ट पाथस् +/रुह + क्विप् ( कर्तरि ) / शायितम्/शी + णिच् क्त ( कर्मणि ) निर्वासित निर् + /वस् + णिच् + क्त (कर्मणि)। अनुवाद-"कमल का परित्याग किये हुए हाथ पर रखे मुखको क्यों लीलाकमल बना रही हो ? निर्दोष होते हुए (भी) भूषणों को हटाये वक्षः स्थल पर अश्रुविन्दुओं द्वारा कब तक हार बनाती रहोगी ?" // 105 // टिप्पणी- उच्च घराने की महिलायें विनोदार्थ हाथ में कमल रखा करती हैं / यह उनका शौक होता है। दमयन्ती भी पहले हाथ में लीला-कमल रखा Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः करती थी, लेकिन अब वियोग में उसने उसे रखना छोड़ दिया है। चिन्ता में अब हाथ में अपना मुख-कमल रखकर सोचती रहती है कि क्या करू, कहाँ जाऊं। इसी तरह उसने वक्षः स्थल में मोतियों का हार भी धारण करना छोड़ दिया है / आँसुओं की बूंदें गिराकर वहां उनसे ही हार का काम ले रही है। यहाँ मुख पर कमल और आँसुओं पर हार का अभेदाध्यवसाय होने से भेदै अभेदातिशयोक्कि है / 'करे' 'करो' में छेक 'करोषि' 'तनोषि' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 105 // दृशोरमङ्गल्यमिदं मिलज्जलं करेण तावत्परिमार्जयामि ते / अथापराधं भवदध्रिपङ्कजद्वयीरजोभिः सममात्ममौलिना / 0 // अन्वयः-(हे भैमि अहम् ) तावत् करेण ते दृशोः मिलत् इदम् अमङ्गल्यम् जलम् परिमार्जयामि, अथ भव'रजोभिः समम् आत्ममौलिना अपराधम् ( परिमार्जयामि ) / टीका-(हे भैमि ! ) अहम् तावत् प्रथमम करेण स्वहस्तेन ते तव दृशोः नयनयोः मिलत् लगत् सम्बद्धम् अनवरतं स्रवदिति यावत् इदं न मङ्गल्यम् अशु. भम् ( नञ् तत्पु० ) जलम् अश्रुजलम् परिमार्जयामि प्रोञ्छिष्यामि, अथ तदनन्तरम् भवत्याः तव अन्री चरणी पङ्कजे पद्म इव (उपमित स०) तयोः द्वयो द्वयम् तस्याः रजोभिः घूलिभिः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) समम् सार्धम् आत्मनः स्वस्य अपराधम आगः परिमार्जयामीत्यनुवर्तते / मया कृतस्य कस्याप्यपराधस्य कारणात् यदि त्वं रोदिषि, तहि प्रथमतः ते अमङ्गलसूचकम् रोदनम् अश्रूणि प्रोञ्छयापनयामि, तत्पश्चात् तव चरणयोः पतित्वा त्वाम् अपराधकृते क्षमा याचिष्ये इति भावः // 106 // व्याकरण-अमङ्गल्यम् “न मङ्गल्यम्, मङ्गलम् अर्हतीति मङ्गल + यत् / परिमार्जयामि भविष्यदर्थेलट् / पङ्कजम् पात् जायते इति पङ्क + Vजन + ड ( कर्तरि ) / द्वयो द्वौ अवयवी अत्रेति द्वि+ तयप, तयप् को विकल्प से अयच + ङीप्। ___ अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! ) पहले तो मैं ( अपने ) हाथ से तुम्हारी आँखों में लगे, अशुभ अश्रु-जल को पोछूगा तत्पश्चात् आपके कमल-जैसे चरणों की धूल के साथ-साथ ( अपने ) मस्तक से (निज ) अपराध का प्रोञ्छन करूंगा'।। 106 // Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 नैषधीयचरिते टिप्पणी-मस्तक से चरणरज पोछने के साथ 2 अपराध भी पोछने में सहोक्ति है, 'जसके मूल में कार्य-कारण पोपियं-विपर्यय वाली अतिशयोक्ति काम कर रही है। वैसे तो पहले चरणों में मस्तक रखना रूप कारण होता है, उसके पश्चात् कार्य-रूप अपराध-प्रोञ्छन का क्रम है, जिसका यहाँ भंग हो रखा है। इसके साथ यहाँ तुल्ययोगिता भी है / जल और अपराध इन दोनों प्रस्तुत-प्रस्तुतों ( उपमेयों ) का एक क्रिया रूप धर्म 'परिमार्जयामि' से सम्बन्ध बताया जा रहा है / 'परिमार्जयामि' में श्लेष है, जिसका अश्रृजल के साथ 'पोंछना' अर्थ है जबकि अपराध के साथ 'प्रायश्चित्त करना' / 'मिल' 'मौलि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 106 / / मम त्वदच्छाघ्रिनखामृतातेः किरीटमाणिक्यमयूखमञ्जरी। उपासनामस्य करोतु रोहिणी त्यज त्यजाकारणगेषणे ! रुषम् / 107 / / अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) मम रोहिणी किरीट' मञ्जरी रोहिणी अस्य त्वदच्छा 'द्युतेः उपासनाम् करोतु / हे अकारण-रोषणे ! रुषम् त्यज त्यज / टीका-( हे दमयन्ति ! ) मम रोहिणी रक्तवर्णा किरीटस्य मुकुटस्य यानि माणिक्यानि रत्नानि तेषां मयूखाः किरणाः किरणावलीति यावत् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) मञ्जरी बल्लरी इव ( उपमित तत्पु० ) रोहिणी नक्षत्रविशेषः चन्द्रपत्नीति यावत् अस्य पुरो दृश्यमानस्य तव अज्रयोः चरणयोः अच्छनखाः स्वच्छ-कररुहाः ( उभयत्र 10 तत्पु० ) एव अमृतधुतिः चन्द्रः तस्य ( कर्मधा० ) अमृतं द्युतिषु यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी. ) उपासनाम से वाम् करोतु विद्धातु / मन्मुकुरस्थ रत्नावलीनाम् मञ्जरीसदृश-किरणावलीरूपा रोहिणी (तारा) त्वच्चरणनखचन्द्र सेवताम्, रत्नखचितं मे मुकुटं अपराधप्रायश्चित्तस्वरूपं तव चरणयोः पतत्विति यावत् / न कारणं यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( नन ब० वी) रुष्यति कुप्यति तत्सम्बुद्धी ( उपपद तत्पु० ) हे अकारण-रोषणे दमयन्ति ! रुषम् कोपम् त्यज त्यज मुञ्च मुञ्च / / 107 // ___ व्याकरण-रोहिणी रोहित + ङीप्, त को न ( वर्णादनुदात्तात् 0' 4 / 1 / 31) / रोषणे ! रुष्यतीति /रुष् + युच् ( कर्तरि ) + टाए सम्बो० / त्यज त्यज शीघ्रता अर्थ में द्विरुक्ति अर्थात् शीघ्र छोड़। रुषम/रुष् + क्विप् ( भावे ) द्वि०। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 489 अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) मेरे मुकुट के रत्नों की पुष्पमंजरी-जैसी रोहिणी ( लाल रंग की ) किरणावली-रूपी रोहिणी ( तारा-विशेष) तुम्हारे इस स्वच्छ चरणनखरूपी चन्द्र की सेवा करे। ओ बिना कारण ही रुष्ट हो जाने वाली ! रोष को छोड़ दो छोड़ दो" // 107 // टिप्पणी-इस श्लोक में पिछले श्लोक का ही अर्थ कवि दोहरा रहा है / भेद यही है कि वहाँ सीधी भाषा में था, यहाँ आलंकारिक भाषा में है / रोहिणी तारा चन्द्र की पत्नी होती है, जो अपने पति चन्द्र की सेवा में लगी रहती है। रोहिणी के समान ही मेरी मुकुटरल किरणावली तुम्हारे चरण नख की सेवा करे, अर्थात् मेरा मुकुट तुम्हारे चरणों में गिरे। किरणावली पर रोहिणीत्वारोप और नख पर चन्द्रत्वारोप में रूपक है / रोहिणी में श्लेष है / किरणावली मञ्जरी में उपमा है। 'त्यज त्यज' और 'रोषणे रूषम्' में छेक, अन्य वृत्त्यनुप्रास है // 107 // तनोषि मानं मयि चेन्मनागपि त्वयि श्रये तद्बहुमानमानतः / विनम्य वक्रं यदि वर्तसे कियन्नमामि ते चण्डि ! तदा पदावधि // 108 / / अन्वयः-त्वम् मयि मनाक् अपि मानम् चेत् तनोषि, तत् आनतः ( सन् अहम् ) त्वयि बहुमानम् आश्रये, हे चण्डि ! वक्त्रम् कियत् विनम्य यदि वर्तसे, तदा ते पदावधि नमामि / टीका-त्वम् मयि माम् उद्दिश्य मनाक् ईषत् अपि मानम् प्रणयकोपम् चेत् यदि तनोषि प्रकुरुषे तत् तर्हि मानतः नम्रः सन् अहं त्वयि त्वाम् प्रति बहुम् च तम् मानम् सन्मानम् (कर्मधा० ) आषये कुर्वे, यदि त्वम् अल्पमपि मानं करोषि, तर्हि अहं ते मानापनोदनाय तव महासन्मानं करोमीत्यर्थः / हे चण्डि ! अतिकोपने ! वक्त्रम मुखम् कियत् किमपि यथा स्यात्तथा विनम्य विनमय्य यदि चेत् वर्तसे भवसि तवा तहिं ते तव पदम पादः अवधिः सीमा ( कर्मधा० ) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात् तथा ( ब० वी० ) नमामि नम्रीभवामि तव पादयोः पतित्वा त्वत्कोपमपनेष्यामीति भावः // 108 // र व्याकरण-मानः मन् + घञ् (भावे) आनत: आ + /नम् + क्त ( कर्तरि ) / विनम्य यहाँ अन्तर्भावित णिच समझिए अर्थात् विनमय्य / चण्डिः चण्डते इतिvचण्ड् + अच् ( कर्तरि ) + डीप् सम्बो० / Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 नैषधीयचरिते अनुवाद-"तुम मुझ पर यदि थोड़ा-सा भी मान करती हो, तो मैं नम्र हो तुम्हारे प्रति महामान ( महाकोप, महासम्मान ) अपना लेता हूँ। यदि तुम ( कोपवश ) मुख कुछ नीचे किये हो, तो मै ( आदरवश ) तुम्हारे पैरों तक नीचे हो जाता हूँ" || 108 / टिप्पणी-अभिप्राय यह है कि बहुत मान से स्वल्प मान का और बहुत नम्रता से स्वल्प नम्रता का निराकरण हो जाता है। यहाँ भी कवि पूर्वोक्त को ही दोहरा रहा है। वास्तव में उन्मादावस्था का मनोविज्ञान ही कुछ ऐसा है कि उन्मत्त व्यक्ति किसी बात को वार-बार दोहराता ही जाता है, इसलिए इसमें कवि की पुनरुक्ति न समझें / विद्याधर ने यहाँ विरोधालंकार कहा है, जो ठीक ही है। मान साहित्य में कोप को कहते हैं - 'स्त्रीणामीप्कृतः कोपो मानोऽन्यासङ्गिनि प्रिये।' दमयन्ती यदि मान(कोप) किये हुए है तो इसका निराकरण करने के लिए 'बहुमान' ( अतिकोप ) करना विरुद्ध बात है / इस विरोध का परिहार 'बहुमान' का बड़ा सम्मान अर्थ करके हो जाता है। इसी तरह कोप में मुंह नीचे अर्थात् फेरे हुए का जवाब और अधिक मुंह फेर देना होना नहीं है। नम्न का विनीत अर्थ करके विरोध-परिहार हो जाता है / 'मानं' मना' में छेक 'मानमानं' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 108 // प्रभुत्वभूम्नानुगृहाण वा न वा प्रणाममात्राधिगमेऽपि कः श्रमः ? / क्व याचतां कल्पलतासि मां प्रति क्व दृष्टिदाने तव बद्धमुष्टिता // 109 // ___ अन्वयः-(हे भैमि ! ) प्रभुत्व-भूम्ना (माम् ) अनुगृहाण वा न (अनुगृहाण) वा ! प्रणाम गमे अपि कः श्रमः ? ( त्वम् ) याचताम् कल्पलता असि ( इति ) क्व; माम् प्रति दृष्टिदाने ( अपि ) तव बद्ध-मुष्टिता क्व / टीका- हे भैमि ! ) प्रभुत्वस्य मां प्रति स्वामित्वस्य आधिपत्यस्येति यावत् भूम्ना बाहुल्येन माम् अनुगृहाण मय्यनुग्रहं कुरु वा अथवा न अनुगृहाण वा। पूर्णाधिपत्यकारणात् प्रभुः सेवकस्योपरि अनुग्रहं कुर्यात् न वा कुर्यादिति प्रभोः इच्छाधीनं भवतीत्यर्थः / तस्मात् कुपिता त्वम् मयि अनुग्रहं न करोषि चेत्, न कुरु, परन्तु मम प्रणामः प्रणमनम् एवेति प्रणाममात्रम् तस्य अधिगमे स्वीकारे (10 तत्पु० ) अपि तव कः श्रमः आयास: कष्टमित्यर्थः ? न कोऽपीति काकुः / त्वम् याचताम् याचनां कुर्वताम् अभ्यर्थिनामिति यावत् कल्पलता सकलमनः Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 491. कामनापूरयित्री कल्पवल्ली असि वर्वसे / इति क्वः ! माम् प्रति दृष्टया. दृशः दानम् (10 तत्पु० ) अवलोकनमात्रमित्यर्थः तस्मिन् तव ते बद्धा मुष्टिः यस्याः तथाभूतायाः ( ब० वी० ) भावः कृपणतेत्यर्थः क्व ! एकतस्त्वं याचकानां सर्वमनोरथान पूरयसि, अपरतः मह्यं दृष्टिदानेऽपि कृपणतां दर्शयसीति कियद् वैषम्यमिति भावः // 109 // व्याकरण-प्रभुत्वम् प्रभवतीति प्र+Vभू + ई ( कर्तरि ) तस्य भाव इति प्रभु + त्वल् / भूम्ना वहोः भाव इति बहु + इमनिच्, इ का लोप और भू आदेश, तृ० / याचताम याच् + शतृ + ष० ब० / अनुवाद-"(मुझ पर तुम्हारा ) पूर्ण आधियत्य होने के कारण तुम मुझ पर कृपा करो या न करो ( यह तुम्हारी इच्छा की बात है ) किन्तु मेरा प्रणाम तक स्वीकार करने में भी तुम्हें क्या कष्ट है ? कहाँ तो यह कि तुम याचकों के लिए कल्पलता हो और कहाँ यह कि मेरी ओर दृष्टि देने में भी तुम्हारी यह कञ्जूसी !" // 109 // टिप्पणी-कल्पलता-समुद्र-मन्थन के समय पांच वृक्ष निकले थे जिनमें अन्यतम कल्प-वृक्ष है / 'वह वृक्ष ही है, लता नहीं, पुरुष की तुलना करनी हो, तो कल्पवृक्ष ही लिखा जाता है जैसे कवि ने नल के लिए प्रथम सग में 'अल्पितकल्पपादपः' लिखा है, किन्तु जहाँ स्त्री की तुलना करनी हो, तो वहीं कवि लोग औचित्य हेतु स्त्रीलिङ्ग 'कल्पलता' शब्द ही प्रयोग में लाते हैं। भर्तृहरि ने भी 'कल्पलतेव विद्या' लिख रखा है। दमयन्ती पर कल्पलतात्वारोप में रूपक और 'क्व' 'क्व' शब्दों द्वारा विरुद्ध संघटना बताने में विषमालंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 109 // स्मरेषुमाथं सहसे मृदुः कथं हृदि द्रढीयः कुचसंवृते तव / निपत्य वैसारिणकेतनस्य वा व्रजन्ति बाणा विमुखोत्पतष्णुताम् // 110 // ___ अन्वयः-(हे भैमि ! ) मृदुः ( त्वम् ) स्मरेषमाथम् कथम् सहसे ? वा वैसारिण-केतनस्य बाणा: तव द्रढीयः-कुच-संवृते हृदि निपत्य विमुखोत्पतिष्णुताम् व्रजन्ति / टीका--(हे भैमि ! ) मृदुः कोमलाङ्गी त्वम् स्मरस्य कामस्य इषूणाम् बाणानाम् माथम् निर्मथनम् व्यथामित्यर्थः ( उभयत्र 10 तत्पु० ) कथम् सहसे Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते मृष्यसि ? वा अथवा वैसारिणः मत्स्यः ( 'मीनो वैसारिणोऽण्ड जः' इत्यमरः ) केतन ध्वजः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः बाणा: शराः तव ते द्रढोयांसो अतिकठिनी यो कुचौ स्तनी ( कर्मधा० ) ताभ्याम् संवृते पिहिते सुरक्षिते कुचरूपकवचसन्नद्ध इति यावत् हदि हृदये निपत्य लगित्वा विमुखाः पराङ्मुखाश्च उत्पतिष्णवः उद्गच्छन्तश्च (कर्मधा०) तेषां भावः तत्ता ताम् ब्रजन्ति प्राप्नुवन्ति प्रस्तरवत् कठिनकुचाभ्यां संघट्टय, परावर्तन्ते उच्छलन्ति च, तस्मात् ते कामबाणपीडा न भवतीति भावः // 110 // ___ व्याकरग-माथः मथ + धन (भावे ) / वैसारिणः ( जले ) विसरतीति विसारी-विसारी एवेति विसारिन् + अण स्वार्थे ('विसारिणो मत्स्ये' 5 / 4 / 16) / द्रढीयस अतिशयेन दृढ इति दृढ + ईयसुन् / उत्पतिष्णु उत्पततीति उत् + /पत् + इष्णुच् / __अनुवाद -- "( हे दमयन्ती ! ) कोमल (शरीर वाली ) तुम काम के बाणों की पीड़ा कैसे सह लेती हो ? अथवा काम के बाण तुम्हारे अतिदृढ़ कुचों से ढके हुए हृदय पर लगकर पलट जाते और उछल जाते हैं / 110 // टिप्पणी-यदि पत्थर-जैसे कठोर पदार्थ पर बाण आदि पड़े तो वह टकराकर उछलता हुआ वापस हो जाता है; भीतर प्रवेश नहीं कर पाता / यों समझ लीजिए कि हृदय ने जब कुचों का कवच पहन रखा है, तो उसमें बाण प्रहार करें तो कैसे करें। इस कारण दमयन्ती को बाण-पीड़ा नहीं होती है ! विद्याधर के शब्दों में 'अत्र विरोधाक्षेपालंकारः'। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 110 / / स्मितस्य सभावय सृक्वणा कणान्विधेहि लीलाचलमञ्चलं भ्रवः / अपाङ्गरथ्यापथिकी च हेलया प्रसद्य संधेहि दृशं ममोपरि // 111 // अन्वयः-(हे भैमि ! ) सृक्वणा स्मितस्य कणान् संभावय; भ्रवः अञ्चलम् लीलाचलम् विधेहि; अपाङ्ग रथ्या-पथिकीम् दृशम् च प्रसद्य हेलया मम उपरि संधेहि। टीका-(हे भैमि ! ) सुक्षणा ओष्ठ-प्रान्तेन ('प्रान्तावोष्ठस्य सृक्वणी' इत्यमरः ) स्मितस्य मन्दहासस्य कणान् लेशान् संभावय सम्मानय ओष्ठप्रान्ते मन्दहासमानीय तं धन्यं धन्यं कुविति भावः; भुवः / अञ्चलम् प्रान्तम् लीलया Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 493 विलासेन चलम् चञ्चलम् विधेहि कुरु, अपाङ्गः नेत्रपान्तः एव रथ्या मार्गः ( कर्मधा० ) तस्याः पथिकीम् अध्वगामिनीम् (10 तत्पु० ) दृशम् दृष्टिम् च प्रसद्य प्रसन्नीभूय हेलया विलासेन मम उपरि मयि संघेहि संयोजय सविलासम् मयि कटाक्षपातं कुविति भावः // 111 // व्याकरण-स्मितस्य स्मि + क्त (भावे ) / संभावय सम् + /भू + णिच् + लोट् / चलम् चलतीति /चल + अच ( कर्तरि ) / रथ्याः रथम अहंतीति रथ + यत् + टाप् / पथिकीम् पन्थानं गच्छतोति पथिन् + ष्कन् + ङीष् / हेलया /हेड् + अ + टाप, ड को ल। __ अनुवाद-“( ओ दमयन्ती!) ओठों के कोने से थोड़ी-सी मुस्कानें * दिखाओ; भौंह के कोने को विलास से चञ्चल बनाओ और प्रसन्न होकर नयनों की राह से विचरने वाली निगाह हाव-भाव के साथ मेरे ऊपर संजोओ" // 111 // टिप्पणी-हेलया यद्यपि साधारणतया हेला, अवहेला, अवहेलना आदि हेड् से बने शब्द अनादर-बोधक होते हैं, तथापि साहित्य में इसका पारिभाषिक अर्थ होता है जिसे दपणकार ने इस तरह स्पष्ट किया है-हेलाऽत्यन्तसमालक्ष्यविकारः स्यात् स (भावः = निर्विकारात्मके चित्ते भावः प्रथम विक्रिया) एव तु // अर्थात् अच्छी तरह व्यक्त हुआ काम-विकार, जिसे उर्दू में अदा या नजाकत भी कहते हैं। यहाँ अपाङ्ग पर रथ्यात्व और दृष्टि पर पथिकीत्वारोप में रूपक है, जो कायं कारण भाव सम्बन्ध होने से परम्परित है। विद्याधर उपमा भी कह रहे हैं, जो हम नहीं समझे / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 111 // समापय प्रावृषमस्रुविप्रुषां स्मितेन विश्राणय कौमुदीमुदः। दृशावितः खेलतु खञ्जनद्वयी विकासि पङ्केरुहमस्तु ते मुखम् // 112 // अन्वयः-( त्वम् ) अश्रु-विप॒षाम् प्रावृषम् समापय; स्मितेन कौमुदी-मुदः विश्राणय; दृशी खञ्जनद्वयी इतः खेलतु; ते मुखम् विकासि पङ्केव्हम् अस्तु / टीका-त्वम् अश्रूणाम् वाष्पस्य विप्रुषाम् बिन्दूनाम्, प्रावृषम् वर्षर्तुम् समापय समाप्ति नय, अश्रुप्रवाहं निवारयेत्यर्थः, स्मितेन ईषद्धासेन कोमुद्याः चन्द्रिकायाः मुदः मोदान आनन्दानिति यावत् ( 10 तत्पु० ) विश्राणय देहि, ईषद्धसित्वा मामानन्दयेत्यर्थः, दृशौ नयने एव खजनयोः खञ्जरीटयोः पक्षिविशेषयोरिति यावत् द्वयो द्वयम् (10 तत्पु० ) इतः अत्र मयीत्यर्थः खेलतु क्रीडतु Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 नैषधीयचरिते खञ्जनसदृशनयनयुगलेन मामवलोकयेत्यर्थः, ते तव मुखं वदनं विकासि विकसितम् पके रोहतीति तथोक्तम् ( अलुक् स० ) कमलम् अस्तु भवतु, खेदं त्यक्त्वा प्रसन्न मुखी सती स्मित-पूर्व सकटाक्षश्च विलोक्य मामानन्दयेति भावः // 112 // ‘याकरण-प्रावृषम् प्र= प्रकर्षण आ = समन्तात् वर्षतीति प्र + आ + Vवृष् + क्विप् ( कर्तरि ) / कौमुदी कुम् (पृथिवीम् ) मोदते ( मोदयति ) इति कु + /मुद् + क, कुमुदः, कुमुद एवेति कुमुद + अण् ( स्वार्थे ) + ङीप् / विषाणय वि + Vश्रण + लोट् / द्वयो इसके लिए पीछे श्लो० 106 देखिए। इतः सप्तम्यर्थ में तसिल् / पङ्करहम् पङ्क रुह् + क / अनुवाद-"तुम आंसुओं के बूंदों की वरसात समाप्त करो; मुसकान से चाँदनी का आनन्द दो; दो नयन-रूप खञ्जनों का जोड़ा यहाँ ( मुझ पर ) क्रीड़ा करे तथा ) तुम्हारा मुख खिला हुआ कमल बन जाय // 112 // टिप्पणी-वर्षा ऋतु के समाप्त हो जाने के बाद निर्मल आकाश में चांदनी आनन्द प्रदान करती ही है, साथ ही खञ्जनों के जोड़े खेलने लगते हैं—यह प्रकृति का नियम है / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति और रूपक कह रहे हैं। अश्रुप्रवाह और प्रावृट् तथा स्मित जनित मोद और कौमुदी-जनित मोद में अभेदाध्यवय हो रखा है / 'कौमुदीमुदः' कौमुदीवत् मुदः यों अतिशयोक्ति के स्थान में लुसोपमा मान सकते हैं / नयनों पर खञ्जनद्वयी का आरोप तथा मुख पर पङ्के. रुहत्वारोप होने से रूाक ठीक ही है / 'मुदी-मुदः' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 112 // सुधारसोद्वेलनकेलिमक्षरस्रजा सृजान्तर्मम कर्णकूपयोः / दृशौ मदीये मदिराक्षि ! कारय स्मितश्रिया पायसपारणाविधिम् // 113 // अन्वय-( हे भैमि ! ) अक्षर-स्रजा मम कर्ण-कूपयोः अन्तः सुधाकेलिम् सृज / हे मदिराक्षि ! मदो दृशौ स्मित-श्रिया पायस-पारणा-विधिम् कारय / टोका-( हे भैमि ! ) अक्षराणाम् वर्णानाम् सजा मालया शब्दावल्येत्यर्थः मुखेन वाणीमुच्चार्येति यावत् (10 तत्पु० ) मम कर्णौ श्रोत्रे एव कूपो तयोः ( 10 तत्पु० ) अन्त: मध्ये सुधा अमृतं चासो रसः ( कर्मधा० ) तस्य उद्वेलना वेलोल्लचिनी निर्मदित्यर्थः (10 तत्पु० ) या केलि: क्रीडा ( कर्मधा० ) ताम् सृज कुरु, किमप्यालपन्ती मम कर्ण-कुहरे वागमृतेन पूरयेति भावः / मदिरे मद Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 495 यितृणी अक्षिणी नयने ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी हे मदिराक्षि ! (ब० वी०) मदीये मामके दृशौ नयने स्मितस्य मन्दहासस्य भिया शोभया (10 तत्पु० ). पायसेन क्षीरान्नभोजनेन या पारणा उपवासानन्तरभोजनम् ( तृ० तत्पु० ) तस्याः विधिम् विधानम् ( 10 तत्पु० ) कारय कर्तुम् प्रेरय मन्दं हसित्वा मे नयने प्रीणयेति भावः // 113 // व्याकरण...उद्वेलना उद्गतो वेलामिति उद्वेलः उद्वेलं करोतीति/उद्वेल + ल्यु + टाप् / मदिर मदयतीति/मद् + किरच् / मदीय ममेति अस्मत् + छ,छ को. ईय, अस्मत् को मदादेश। पायसम् पयसा संस्कृतम् अन्नमिति पयस + अण। पारणा पारयतीति/पृ+ ल्यु + टाप् / कारयकृ + णिच् + लोट विकल्प से अण्यन्तावस्था के कर्ता 'दृशी' को कमत्व / अनुवाद- "( हे दमयन्ती!) अक्षरमाला ( अपने शब्दों = वाणी) से मेरे कान-रूपी कुंओं के भीतर अमृतरस की असीम क्रीडा करो, ( तथा ) ओ मादक आँखों वाली ! ( अपनी ) मुस्कान की शोभा से मेरे नयनों को पायसान्न (खीर ) द्वारा पारणा -व्रतान्त-भोजन कराओ" // 113 // टिप्पणी-अब तक मैने न तुम्हारी मधुर वाणी सुनी, न मुस्कान देखी, अतः वाणी द्वारा मेरे कानों में अमृत घोलो और मेरी आँखों को अपनी मधुर मुस्कान देखने दो। विद्याधर पूर्व श्लोक की तरह यहां भी अतिशयोक्ति कह रहे हैं / 'मदी' 'मदि' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 113 // ममासनार्धे भव मण्डनं न न प्रिये ! मदुत्सङ्गविभूषणं भव / अहं भ्रमादालपमङ्ग! मृष्यतां विना ममोरः कतमत्तवासनम् // 114 // अन्वयः . हे प्रिये ! मम आसनाचे मण्डनम् भव; न न, मदुत्सङ्ग-विभूषणं भव; अङ्ग ! अहम् भ्रमात् आलपम्; मृष्यताम्; मम उरः विना कतमत् तव आसनम् ? टीका-हे प्रिये प्रियतमे दमयन्ति ! स्वम् मम मे मासनस्य सिंहासनस्य अर्धे अर्धभागे ( ष० तत्सु० ) मण्डनम् अलंकरणम् भव, न, न, अनुचितमेतत् मया कथितमित्यर्थः मम उत्सङ्गस्य अङ्कस्य विभूषणम् अलंकरणम् भव, उत्सङ्गात् आसनस्य निकृष्टत्वादित्यर्थः; अङ्ग भो! अहम् भ्रमात् उन्मादकारणात् इदम् आलपम् मदुत्सङ्ग-विभूषणं भवेति, मण्यताम् क्षम्यताम् त्वम् उत्सङ्गादधिक Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 नैषधायचरिते स्थानमर्हसोत्यर्थः, मम उरः वक्षः स्थलं विना कतमत् अङ्गमित्यर्थः तव आसनम् अस्ति ? न किमपीति काकुः / त्वं सर्वोत्कृष्टमासनमर्हसि, तत्तु मम वक्ष एवेति भावः // 114 // व्याकरण-मण्डनम् मण्ड्यतेऽनेनेति /मण्ड + ल्युट ( करणे ) / न न संभ्रम में द्विरुक्ति / विभूषणम् मण्डन की तरह ही समझो। आसनम् आस्यतेऽ. त्रेति /आस् + ल्युट् ( अधिक रणे ) / * अनुवाद-"ओ प्रिये ! तुम मेरे सिंहासन के आधे भाग को सुशोभित करो; नहीं, नहीं ( कहने में गलती हो गई है ), तुम मेरी गोद सुशोभित करो; अरे ! ( यह ) मैं भ्रम वश कह बैठा; क्षमा करो। मेरी छाती को छोड़ तुम्हारा कौनसा स्थान (हो सकता) है" // 114 // टिप्पणी-विद्याधर 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कह गये हैं, जो हम नहीं समझे। त्वत्-शब्दवाच्य प्रिया पर मण्डनत्व, विभूषणत्व आरोप में रूपक हो सकता है। मल्लिनाथ ने पर्यायालंकार कहा है, क्योंकि यहां एक ही आधेय-रूप प्रिया क्रमशः अनेक आधारों आसन आदि में बताई गई है। 'सना' 'सन' तथा 'भव, भव' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 114 // अधीतपञ्चाशुगवाणवञ्चने ! स्थिता मदन्तर्वहिरेषि चेदुरः / स्मराशुगेभ्यो हृदयं बिभेतु न प्रविश्य तत्त्वन्मयसंपुटे मम // 115 / / अन्वयः-हे अधीत""वञ्चने ! मदन्तः स्थिता ( त्वम् ) बहिः उरः चेत् एषि, तत् मम हृदयम् त्वन्मयसंपुटे प्रविश्य स्मराशुगेभ्यः न बिभेतु / टीका-अधीता अभ्यस्ता पञ्चाशुगवाणवञ्चना ( कर्मधा० ) पञ्चाशुगरय पञ्च आशुगाः वाणाः यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) कामस्य वाणाना बञ्चना प्रतारणा प्रतारणविद्यत्यर्थः ( सर्वत्र ष० तत्पु० ) यया तत्सम्बुद्धी हे अधीत वञ्चने ! ( ब० वी० ) मम अन्त: मनसि स्थिता विद्यमाना त्वम् वहिः बाह्यतः अपि उरवक्षः चेत् एषि प्राप्नोषि, तत् तर्हि मम हुण्यम् त्वम् एवेति त्वन्मयः त्वद्र्पो यः संपुट: आवेष्टनम् पेटिकेत्यर्थः (कर्मधा० ) प्रविश्य प्रवेशं कृत्वा स्मरस्य कामस्य आशुगेभ्यः बाणेभ्यः न विभेतु, न भयमवाप्नोतु, त्वं यथा ममान्तरसि तथा बहिरपि मम उरसि चेत् लगसि, तर्हि अन्तर्वहिः त्वद्रूपसंपुटगतस्य अतएव सुरक्षितस्य मम हृदयस्य कृते कामबाणात् नास्ति भयमिति भावः // 115 // Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 497 व्याकरण-आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + उ। कसना/वञ्च + युच, यु को अन + टाप् / त्वन्मय-युष्मद् + मयट ( स्वरूपार्थे ) युष्मद् को त्वदादेश। अनुवाद-"ओ कामदेव के बाणों की वञ्चना ( की विद्या) का अध्ययन की हुई दमयन्ती ! मेरे मनके भीतर स्थित तुम यदि बाहर (भी) मेरे वक्ष पर आ जाओ, तुम्हारे ही रूप में बने संपुट के भीतर प्रवेश करके मेरा हृदय काम के बाणों से नहीं डरेगा" // 115 // टिप्पणी-काम-बाण की वञ्चना के अध्ययन के सम्बन्ध में नारायण के अनुसार 'कामपीडाया अदर्शनात्' एवं मल्लिनाथ के अचूभार 'प्रायेण मनस्विनी लज्जावशंवदतया मदनवञ्चनताच्छील्यादित्थं संबोध्यते' / संपुटे-सभी तरफ से आवृत खाली खोखले को संपुट कहते हैं जैसे पेटी, पिटारी, सन्दूक, आदि। दमयन्ती हृदय में पहले से स्थित है ही, यदि बाहर से भी वक्ष पर स्थित हो जाएगी तो भीतरी और बाहरी-दोनों दमयन्तियों के बीच मल का हृदय सन्दूक के भीतर-जैसे बन्द हो जाएगा। फिर काम के बाण हृदय को कैसे लग सकते हैं। नल के कहने का भाव यह है कि ओ दमयन्ती ! भीतर तो मन में तुम भावात्मक रूप में कभी से बसी हुई हो ही। अगर बाहर भी शारीरिकरूप में तुम मेरा आलिंगन कर देती हो, तो मेरा सारा कामज्वर शान्त हो जाएगा। विद्याधर के अनुसार 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः। बाह्य सम्बन्ध के अभाव में चेत् शब्द के बल से सम्बन्ध की स्थापना की कल्पना की जा रही है। 'त्वम्' पर संपुटत्वारोप में रूपक भी हो सकता है / 'शुग' 'शुगे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 115 // परिष्वजस्वानवकाशबाणता स्मरस्य लग्ने हृदयद्वयेऽस्तु नौ। दृढा मम त्वत्कुचयोः कठोरयोरुरस्तटीयं परिचारिकोचिता // 116 // अन्वयः-(हे भैमि ! ) परिष्वजस्व / लग्ने नौ हृदय-द्वये स्मरस्य अनवकाशवाणता अस्तु / मम दृढा इयम् उरस्तटी कठोरयोः त्वत्कुचयोः परिचारिका उचिता। टीका-(हे भैमि ! ) परिष्वजस्व त्वम् माम् आलिङ्ग। लग्ने परस्पर दृढसम्मिलिते नौ आवयोः हृवषयोः इये युगले (10 तत्सु० ) स्मरस्य कामस्य न Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अवकाश: अन्तरालम् येभ्यः तथाभूताः (नञ् ब० वी०) वाणा: शराः यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) भावः तत्ता अस्तु, आवयोः वक्षसोः आलिङ्गने दृढसंघटित. तया नीरन्ध्रत्वात् काम-बाणा: कथमपि हृदये प्रवेशं लब्धं न शक्ष्यन्तीत्यर्थः / मम दृढा अतिकठोरा इयम् उरस: वक्षसः तटी तटम् ( 10 तत्पू० / विस्तृतं वक्ष इत्यर्थः कठोरयोः दृढयोः तव कुचयोः स्तनयोः (10 तत्पु० ) परिचारका सेविका उचिता युक्ता अस्ति, द्वयोः कठोरत्वेन समगुणत्वात् सेव्य-सेवकभावः समुचित एवेत्यर्थः, त्वम् निविडम् माम् आलिङ्ग, येन द्वयोरेवावयोः कामव्यथा शाम्येतेति भावः // 116 // व्याकरण-लग्ने लग + क्त ( कर्तरि ) त को न / नौ आवयोः का वैकल्पिक रूप / द्वये द्वौ अवयवावत्रेति द्वि + तयप्, तपय को विकल्प से अयच् / परिचारिका परिचरतीति परि + /चर + ण्वुल + टाप, इत्व / अनुवाद-"( ओ दमयन्ती। ) गले लग जाओ। कसकर मिले हम दोनों के दोनों हृदयों के बीच काम के बाणों के लिए अवकाश-खाली स्थान-न रहे। मेरी यह कठोर विस्तृत छाती तुम्हारे कठोर कुच-द्वय के लिए योग्य सेविका है" // 116 // टिप्पणी--यहाँ सम के साथ सम का योग बताने से समालङ्कार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 116 // तवाधराय स्पृहयामि यन्मधुस्रवैः श्रवःसाक्षिकमाक्षिका गिरः / अधित्यकासु स्तनयोस्तनोतु ते ममेन्दुलेखाभ्युदयाद्भुतं नखः // 117 // अन्वया-(हे भैमि !) तव अधराय स्पृहयामि यन्मधुस्रवः ( तव) गिरा श्रवः साक्षिकमाक्षिकाः ( भवन्ति ) / ते स्तनयोः अधित्यकासु मम नखः इन्दुलेखाभ्युदयाद्भुतम् तनोतु / टीका-(हे भैमि ! ) अहं तव अपराय अधरोष्ठाय स्पृहयामि त्वदधरपानमभिलषामीत्यर्थः, यस्य अधरस्य मधुनः माक्षिकस्य नवैः द्रवैः तव गिरः वचनानि (सर्वत्र प० तत्पु०) श्रवसी को साक्षिणी साक्षाद् द्रष्टणी (कर्मधा०) यस्य तथाभूतम् (ब० बी० ) माक्षिकं मधु ( कर्मधा० ) ( 'मधु क्षौद्रं माक्षिकादि' इत्यमरः ) यासु तथाभूताः (ब० वी० ) भवन्तीति शेषः। तवाधरोठो मधुमयोऽस्ति, यत्र साक्षिणी त्वदधरनिःसृतमधुरवाणी शुण्वन्ती कणों इति भावः / Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 499 ते तव स्तनयो: कुचयोः अपित्यकासु ऊर्ध्वभूमिषु पर्वतोपरितनसमतलप्रदेशेष्विति यावत्, ( 'भूमिरूर्वमधित्यका' इत्यमरः ) एतेन स्तनयोः पर्वतत्वं गम्यते मम नखः कररुहः इन्दुः चन्द्रः तस्य या लेखा रेखा तस्याः यः अभ्युदयः उदयः (सर्वत्र ष० तत्पु० ) तेन अद्भुतम् आश्चर्यम् (तृ० तत्पु० ) तनोतु करोतु / तव कुचो. परि मया क्रियमाणानि नखक्षतानि पर्वतोपरि चन्द्रकलायन्तामिति भावः // 117 // व्याकरण--स्पृहयामि 'स्पृहेरीप्सितः' (1 / 4 / 36 ) से कर्म में चतुर्थी / श्रवस् श्रूयतेऽनेनेति श्रृ + असि ( करणे)। साक्षी ( साक्षाद् द्रष्टा ) सह + अक्ष + इन् ( 'साक्षाद् द्रष्टरि संज्ञायाम्' 5 / 2 / 91 ) / माक्षिकम् मक्षिकाभिः संभृत्य कृतमिति मक्षिका + अण् / अधित्यकासु पर्वतस्य आरूढं स्थलमिति अधि + त्यकन् संज्ञा में ('उपाधिभ्यां त्यकन्नासन्नारूढयो: 5 / 2 / 34 ) अद्भुतम् यास्क के अनुसार अभूतमिव / अनुवाद-"(ओ भैमि ! ) मैं तुम्हारा अधर चाह रहा हूँ जिसमें से निकल रहे मधु ( शहद ) से तुम्हारे वचन मधुमय बन जाते हैं, जिसके साक्षी कान हैं। तुम्हारे कुचों के पठारों पर मेरा नाखून ( सखियों को) उदय हुई चन्द्र-कला का आश्चर्य पैदा कर दे" // 117 // टिप्पणी-भाव यह है कि मैं अधरपान और नखक्षत का इच्छुक हूँ। वाणी की मधुरता से अधर के मधुमय होने का अनुमान होने के कारण अनुमानालंकार है। विद्याधर अतिशयोक्ति कह रहे हैं शायद इसलिए कि स्तनों की ऊंचाई के साथ मधित्यका का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। वे उपमा भी कह रहे हैं सम्भवतः वे नख में इन्दुलेखाभ्युदय का सादृश्य देख रहे हैं लेकिन सादृश्य वाक्य न होने से हम निदर्शना कहेंगे जहां सादृश्य गम्य रहता है। उदयाचल की ऊंचाई पर उदय होती हुई चन्द्रकला लाल-लाल होती है; स्तनों के उपरितन भाग पर हुआ नखचिह्न भी लाल-लाल होता है जिसे देखकर सखियों को यह आश्चर्य हो जाय कि ओ ! उदय शैल पर चन्द्र-कला उदय हो गई है। 'सवैः' 'श्रवः' ( सशयोरभेदात् ), 'स्तन' 'स्तनो' में छेक, 'साक्षि' माक्षि' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 117 // न वर्तसे मन्मथनाटिका कथं प्रकाशरोमावलिसूत्रधारिणी। तवाङ्गहारे रुचिमेति नायकः शिखामणिश्च द्विजराविदूषकः // 11 // Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते __अन्वयः-(हे भैमि ! ) प्रकाश 'रिणी ( त्वम् ) मन्मथ-नाटिका कथम् न वतंसे ? अङ्ग ! तव हारे द्विजराड्-विदूषकः नायकः ( शिरसि ) शिखामणिः च रुचिम् एति। टीका-हे भैमि ! प्रकाशम् स्पष्टम् रोमावलि-सूत्रम् ( कर्मधा० ) रोम्णाम् लोम्नाम् मावलिः पंक्ति: (10 तत्पु०) सूत्रम् तन्तुरिव ( उपमित तत्पु०) धारयतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) अथ च प्रकाशरोमावलिः एव सूत्रधारः नाटकस्य मुख्यपात्रविशेषः ( कर्मधारय० ) अस्यामस्तीति तद्वती त्वम् मन्मथस्य कामस्य नाटिका उपरूपकविशेषः कथम् केन प्रकारेण न वर्तसे अपितु सर्वथा वर्तसे इति काकुः / अङ्ग ! सम्बुद्धी हे दमयन्ति ! तव हारे मौक्तिकस्रजि द्विजानां नक्षत्राणां राजा इति द्विजराट् (10 तत्पु०) चन्द्र इत्यर्थः तस्य विदूषक: विशेषेण दूषकः स्वौज्वल्येन तिरस्कारकः तदपेक्षया रमणीयतर इत्यर्थः नायक: हारमध्यमणिः, द्विजराड-विदूषकः शिखायां मणिः शिरोरत्नम् ( स० तत्पु० ) च रुचिम् शोभाम् एति प्राप्नोति, अथ च तव अङ्गहारे अङ्गविक्षेपे, आङ्गिकचेष्टायामित्यर्थ: ( अङ्गहारोऽङ्गविक्षेपः' इत्यमरः ) नायक: कथापुरुषः शिखायां मणिः यस्य तथाभूतः (ब० वी०), द्विजानां ब्राह्मणानां राजा श्रेष्ठब्राह्मण इत्यर्थ! विदूषकः नाटके नायकस्य परिहासकं मित्रम् च यथोक्तम्-'हासकृच्च विदूषकः' रुचिम् प्रीतिम् एति / त्वम् यौवनेन, अलङ्कारैश्च काममुद्दीपयसीति भावः / / 118 // . व्याकरण-मन्मथः मथ्नातीति मथः /मथ् + अच ( कर्तरि) मनसः मयः इति (पृषोदरादित्वात् साधुः)। प्रकाश प्रकाशते इति प्र+/काश् + , अच् ( कर्तरि ) / द्विजराट द्विजानां राजेति द्विज + V राज् + विप् ( कर्तरि ) / विदूषक: विदूषयतीति वि + Vदुष् + ण्वुल: दीर्घ / अनुवाद-"( ओ दमयन्ती ! ) तुम ( मूर्तरूप ) काम की नाटिका कैसे नहीं हो ? ( शरीर पर ) स्पष्ट हुई सूत्र ( सूत ) जैसी रोमावली रखे तुम सूत्रधार वाली हो / अरी ! द्विजराट् ( चन्द्रमा ) का विदूषक ( तिरस्कार कर देने वाला ) तुम्हारे हार का नायक ( मध्यमणि, मेरु) तथा शिरोरत्न जो चमक रहे हैं, वे तुम्हारे अंगहार ( अंग-नर्तन ) पर प्रसन्न हो रहे नायक ( हीरो) तथा शिर पर रत्न धारण किये द्विजराट् ( श्रेष्ठ ब्राह्मण ) विदूषक (परिहासक पात्र) का काम कर रहे हैं" // 118 // Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः टिप्पणी-यौवनारूढ़ और हार आदि गहनों से सजी-धजी दमयन्ती एकदम देखने वाले में काम पैदा कर देती है। इस बात को लेकर नल उस पर साक्षात् साकार काम-नाटिका का आरोप कर रहे हैं। नाटिका नाटक का ही एक छोटा रूप होता है, जो शृङ्गाररस-प्रधान होती है। कामदेव ने दमयन्ती के रूप में नाटिका की रचना की है। यौवनावस्था की द्योतक शरीर पर उगी रोमाचली बनी सूत्रधार; हार में चन्द्रमा से भी अधिक उज्वल नायक ( मेरु) बना कथानायक जो सिर पर रत्न बाँधे मित्र ब्राह्मण विदुषक के साथ दमयन्ती के अङ्ग-सञ्चालन पर रीझा जा रहा है। इस तरह दमयन्ती पर नाटिकात्वारोप में रूपक है, जिसका श्लिष्ट भाषा में प्रयुक्त विभिन्नार्थबाचक विशेषणों में अभेदाध्यवसाय से होने वाली अतिशयोक्ति के साथ संकर है। सूत्रमिव' में लुप्तोपमा है / शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है // 118 // . शुभाष्टवर्गस्त्वदनङ्गजन्मनस्तवाधरेऽलिख्यत यत्र लेखया। मदीयदन्तक्षतराजिरञ्जनः स भूजंतामर्जतु बिम्बपाटलः // 119 // अन्वयः-(हे भैमि ! ) त्वदङ्ग जन्मनः अष्टवर्गः यत्र तव अधरे लेखया अलिख्यत, बिम्ब-पाटलः स मदीय'रञ्जनैः भूर्जताम् अर्जतु / टोका-हे भैमि ! तव अनङ्गस्य कामस्य जन्मन: उत्पत्तेः शुभः शुभसूचकः अष्टवर्गः ज्योतिःशास्त्रानुसारं जातकस्य जन्मपश्यां कृता जन्मकालीना अष्टरेखाः ( कर्मधा० ) यत्र तव ते अधरे अधरोष्ठे लेखया रेखाभिः ( जातावेकवचनम् ) अलिख्यत विधातृ-रूपेण ज्योतिर्विदा लिखितः इत्यर्थः, बिम्बवत् बिम्बफलवत् पाटल: रक्तवर्णः ( उपमान तत्पु० ) सः अधरः ममेति मदोया या दन्तक्षतराजिः (कर्मधा० ) दन्तैः दशनैः यानि क्षतानि दंशाः ( तृ० तत्पु०) तेषां राजि: पंक्तिः ( 10 तत्पु० ) तया रञ्जन: रंजन-व्यापारैः ( तृ० तत्पु० ) भूर्जताम् भूर्जपत्रताम् अर्जतु प्राप्नोत्वित्यर्थः। तवाधरोष्ठ-गता अष्टरेखाः कामोत्पत्तो भूर्जपत्रोपरि जन्मपत्रिकायां मद्दन्तक्षतैः लिखितोऽष्टवर्गों भवत्विति भावः // 119 // व्याकरण-अधरे यास्कानुसार अधः ऋच्छतीत्यूर्ध्वगतिः प्रतिषिद्धा / लेखा लिख्यते इति लिख + अ ( भावे ) + टाप / मदीय अस्मत् +छ, छ को ईय अस्मत् को मदादेश / अनुवाद-"(हे भैमी ! ) तुम्हारे काम ( अनुराग ) के जन्म का शुभ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.2 नैषधीयचरिते सूचक अष्टवर्ग तुम्हारे जिस अधर पर ( ब्रह्मा द्वारा) रेखाओं से लिखा गया है, बिम्ब-जैसा लाल-लाल तुम्हारा वह अधर मेरे दन्त-क्षतों की पंक्ति द्वारा रंगा जाता हुआ भूर्जपत्र का रूप अपनाले // 119 // . टिप्पणी-कहने का भाव यह है कि निसर्गतः तुम्हारे अधर पर पड़ी जो आठ रेखायें हैं, वै तुम्हारे काम के जन्म पर जन्मपत्री पर का अष्टवर्ग-जैसा है। अष्टवर्ग ज्योतिष में बड़ा शुभ माना जाता है। इसमें गिनती की आठ रेखायें होती हैं, जो भूर्जपत्र पर लिखी जन्मपत्री में लिखी जाती हैं। पुराने समय में जन्मपत्रियां आदि भूर्जपत्र पर ही लिखी जाती थीं। तब तक कागज का आविकार नहीं हुआ था। इस तरह तुम्हारा अधर भूर्जपत्र-जैसा हो जाय जिसपर पड़े मेरे दन्त-क्षतों के निशान अष्टवर्ग का काम दे दें।" क्योंकि हमने मूलपाठ नारायण का अपनाया है, इस लिए हम भी इस श्लोक को मूल में रख रहे हैं, लेकिन चाण्डू पण्डित, विद्याधर, ईशानदेव, एवं जिनराज ने इसे छोड़ रखा है / मल्लिनाथ ने भी इसे नहीं लिखा है। हाँ, नरहरि ने रखा है। यहां रेखाओं पर अष्टवर्गत्वारोप और अधर पर भूर्जपत्रत्वारोप में रूपक, बिम्बपाटल में उपमा, 'लिख्य' 'लेख', 'जता' 'जतु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 119 // गिरानुका पस्व दयस्व चुम्बनः प्रसीद शुश्रूषयितुं मया कुचौ / निशेव चान्द्रस्य करोत्करस्य यन्मम त्वमेकासि नलस्य जीवितम् // 120 // ___ अन्वय:-( त्वम् ) गिरा अनुकम्पस्व, चुम्बनैः दयस्व, मया कुची शुश्रूषयितुम् प्रसीद, यत् चान्द्रस्य करोत्करस्य निशा इव नलस्य मम त्वम् एका जीवितम् असि / टीका-त्वम् गिरा वाण्या माम् अनुकम्पस्व अनुगृहाण, मया सह संभाषणस्य कृपां कुवित्यर्थः, चुम्बनः चुम्बित: दयस्व अनुगृहाण. मया कुचौ स्तनी शुभ्रषयितुम् सेवयितुम् प्रसीद प्रसन्ना भव यत् यतः चान्द्रस्य चन्द्रसम्बन्धिनः कराणाम् किरणानाम् उत्करस्य समूहस्य ( 10 तत्पु० ) निशा रात्रिः इव नलस्य मम मे त्वम् एका केवला जीवितम् प्राणाः असि वर्तसे, चन्द्रकिरणसमूहस्य कृते निशेव मत्कृते केवलं त्वमेव प्राणायिताऽसीति भावः // 120 // व्याकरण-शुश्रूषयितुम् श्रु+ सन् + णिच् + तुमुन् / चान्द्रस्य चन्द्रस्यायः मिति चन्द्र + अण् / जीवितम्/जीव + क्त ( भावे ) / Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 503 अनुवाद--तुम मेरे साथ बातें करने की कृपा करो; चुम्बनों द्वारा ( मुझ पर ) दया दिखाओ; मेरे द्वारा ( अपने ) कुचों की सेवा करवाने के लिए प्रसन्न हो जाओ, क्योंकि मेरी एकमात्र तुम ही प्राण हो जैसे चन्द्रकिरण समूह की रात (प्राण ) होती है। // 120 // टिप्पणी-'निशेव' में उपमा और 'नलस्य' जीवितम् में कार्यकारण का अभेद बताने से हेतु अलंकार है / 'कम्पस्व' 'दयस्व' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / करोत्करस्य-निशा को चन्द्र का प्राण न बताकर किरणों का प्राण बताने का प्रयोजन यह है कि चन्द्र तो दिन में भी रहता ही है, किन्तु ये तो किरणें ही हैं, जो रात में ही रहती हैं, दिन में नहीं // 120 // मनिर्यथात्मानमथ प्रबोधवान् प्रकाशयन्तं स्वमसावबध्यत / आप प्रपन्नां प्रकृति विलोक्य तामवाप्तसंस्कारतयासृजगिरः॥१२१॥ अन्वयः--अथ प्रबोधवान् असौ प्रकाशयन्तम् स्वम् आत्मानम् अबुध्यत; अपि च प्रकृतिम् प्रपन्नाम् ताम् विलोक्य अवाप्त-संस्कारतया गिरः असृजत् यथा मुनिः (प्रबोधवान् सन् स्वम् प्रकाशयन्तम् आत्मानम् अवबुध्यते, अपि च अवाप्त. संस्कारतया ताम् प्रकृतिम् प्रपन्नाम् विलोक्य गिरः सृजति)। टीका-अथ मोहे पूर्वोक्त प्रकारेण प्रलपनानन्तरम् प्रबोधवान् समुपजाततत्त्वज्ञानः, गतमोह इति यावत् असो नलः प्रकाशयन्तम् 'अहं नलोऽस्मीति नलत्वेन प्रकटयन्तम् स्वम् आत्मानम् अबुध्यत ज्ञातवान्, मोहापगमनान्तरम् नलेन तत्त्वतो ज्ञातम् देवदूतेन सताऽपि मया अस्या अग्रे मोहे आत्मनो नलत्वं प्रकटितमित्यर्थः, अपि तथा च प्रकृतिम् रोदनादिकं त्यक्त्वा पूर्वावस्थाम् प्रपन्नाम् प्राप्ताम्, प्रकृतिस्थाम् स्वस्थामिति यावत् ताम् दमयन्तीं विलोक्य दृष्ट्वा अवाप्तः प्राप्तः संस्कारः (कर्मधा० ) दूतत्व-भावना येन तथाभूतस्य (ब० वी० ) भावः तत्ता तया अहं तु दूतोऽस्मीति पूर्वसंस्कारोप-जनितस्मृतिकारणादित्यर्थः गिरः वक्ष्यमाणानि दूत्योचितानि वाक्यानि असृजत् अकथयदित्यर्थः यथा मुनिः कश्चिद् योगी प्रबोघः शम-दमादिवतः श्रवण-मनन-निदिध्यासनैश्च जातं तत्त्वज्ञानम् अस्यास्तीति तद्वान् सन् स्वम् प्रकाशयन्तम् स्वप्रकाशरूपम् आत्मानम् 'अहम् ब्रह्मास्मीति' अवबुध्यते जानाति अपि च तथा बुद्ध्वा अवाप्तः प्राप्तः संस्कार संसारावस्थास्थपूर्वजन्मीयसंस्कारः तद्वत्त्वेन जन्म-जन्मान्तरीयसंस्कारोबोधेनेति यावत् ताम् प्रसिद्धाम् Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 नैषधीयचरिते प्रकृतिम् सत्त्वरजस्तमस्साम्यावस्थारूपाम् प्रपन्नाम् प्र= प्रकर्षेण पन्नाम् पृथग्भूताम् विलोक्य ज्ञात्वा गिरः 'अहम् तत्तज्जन्मनि अमुकामुकः आसम् इत्यात्मकानि वाक्यानि सृजति प्रयोगे आनयति // 121 // ___ व्याकरण--प्रबोषः प्रबुध्यते इति प्र+Vबुध + घञ् ( भावे ) / प्रपन्नाम् प्र + /पद् + क्त ( कर्तरि ) / गिरः गीर्यते इति गृ + क्विप् ( भावे ) उपधा को इत्व / अनवाद--तदनन्तर होश में आये हुए नल जान गए कि मैं तो अपने आपको प्रकट कर बैठा ( कि मैं नल हूँ ) तथा उस ( दमयन्ती ) को ठीकठाक देखकर ( दूतत्व के पुराने ) संस्कार जाग जाने से इस तरह वचन बोल पड़े जैसे कि योगी तत्त्व-ज्ञान प्राप्त किये हुए अपने को स्वप्रकाश ब्रह्मरूप जान लेता है तथा (पुराने जन्म-जन्मान्तरों के ) संस्कार जाग जाने से प्रकृति-संसारी मायाको बिलकुल भिन्न समझकर वचन बोल पड़ता है // 121 // टिप्पणी--उन्माद अथवा म ह की अवस्था हटते ही नल को अपनी भूल अनुभव होने लगी कि मैं तो दमयन्ती को अपनी असलियत कह बैठा हूँ कि मैं नल हूँ। इसका उन्हें दुःख हुआ। उन्हें फिर दूतत्व की याद आ गई, अब वे पश्चा. त्ताप के शब्द कहने लगे। इस बात को तुलना कवि योगी के साथ कर रहा है। योगी को भी मोहात्मक अथवा स्वप्निल संसार में गुरुपदेश एवं श्रवण-मनन-निदिध्यासनों से अपनी असलियत का ज्ञान हो जाता है कि 'अरे ! मैं तो ब्रह्म हूँ। किन्तु पूर्वजन्मों के संस्कार जागृत हो जाने से उसे भी फिर जीवन्मुक्तावस्था में अपने जन्मान्तरों की याद आ जाती है और कहने लगता है "अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवां ऋषिरस्मि विप्रः / अह कुत्समार्जुनेयं नृज्येऽहं कविरुशना पश्यतामा"N इत्यादि / वामदेव ऋषि भी ऐसा कहते थे इस तरह यहाँ उपमा है, जो श्लेषानुप्राणित है / 'बोध' 'बुध्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 121 // अये ! मयात्मा किमनिहनुतीकृतः किमत्र मन्ता स तु मां शतक्रतुः / पुरः स्वभक्तयाथ नमन्हियाविलो विलोकिताहे न तदिङ्गितान्यपि // 122 // अन्वयः-"अये ! मया आत्मा किम् अनिनुतीकृतः ? अत्र स शतक्रतुः तु माम् किम् मन्ता? पुरः स्वभक्त्या नमन अयं ह्रिया आविल: ( सन् ) तदिङ्गितानि अपि न विलोकिताहे / Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सगः 505 टोका-अये ! खेदे ( 'अये विषादे क्रोधे च'। इत्यमरः) मया आत्मा स्वरूपम्, अहं नलोऽस्मीति तथ्यम् किम् किमर्थम् अनिह्नतीकृतः प्रकटीकृतः ? अत्र अस्मिन् आत्मप्रकटनविषये स प्रसिद्धः शतं क्रतवो यज्ञाः यस्य तथाभूतः (ब० वी०) इन्द्रः तु पुनः माम् किम् मन्ता मंस्यते ? मां कपटिनमेवावगमिष्यतीत्यर्थः / पुरः पूर्वम् स्वा स्वकीया भक्तिः उपासना सेवेति यावत् तया ( कर्मधा० ) नमन् तस्याने नम्रोभूतः सन् अथ पश्चात् इदानीम् ह्रिया लज्जया आविलः मलिनः सन् नमन्नित्यर्थः तस्य शतक्रतोः इङ्गितानि क्रोधकृतचेष्टितानि भ्रूभङ्गादीनि न विलोकिताहे न द्रक्ष्यामि / मत्कृतविश्वासघाते कुपितोऽसौ न जाने किं ममापकरोतीति भावः // 122 // व्याकरण-अनिह्नतीकृतः नि + ह्र + क्त (कर्मणि ) निह्नतः न निहती. कृत इति न + निह्नत + च्वि, ईत्व + V + क्त / मन्ता/मन् + लुट / इङ्गितानि/इङ्ग + क्त ( भावे ) / विलोकिताहे वि + Vलोक् + लुट् उ० पु० / __ अनुवाद-"खेद की बात है कि मैंने अपने आपको क्यों प्रकट कर दिया (कि में नल हूँ ) ? इस विषय में वह इन्द्र मुझे क्या समझेंगे? पहले तो अपनी भक्ति से और अब फिर लज्जा से सिर झुकाये मैं उनकी ( क्रोध-) चेष्टाओं को भी न देख पाऊंगा" // 122 // टिप्पणी-नल को अपने कर्तव्य-भ्रंश पर बड़ा दुःख हो रहा है कि मैंने यह क्या किया। मन में सोच रहे हैं कि अब इन्द्र को मैं कैसे मुंह दिखाऊंगा। लाज गड़ा मैं उनके आगे मुख नहीं उठा सकूँगा। क्रोध-वश शाप दे दें तो क्या करूंगा। 'विलो, विलो' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 122 // स्वनाम यन्नाम मुधाभ्यधामहो महेन्द्रकार्य महदेतदुज्झितम् / हनूमदाद्येयशसा मया पुनद्विषां हसैर्दूत्यपथः सितीकृतः // 123 // अन्वयः--नाम यत् स्व-नाम मुधा अभ्यधाम् / एतत् महत् महेन्द्र-कार्यम् उज्झितम् / हनूमदाद्यैः दूत्यपथः यशसा सितीकृतः, मया पुनः द्विषां हसैः सितीकृतः / टोका-नाम विषादे अहम् यत् स्वम् नाम ( कर्मघा० ) अहं नलोऽस्मीति स्वकीयं नामधेयम् मुषा व्यर्थमेव अभ्यधाम् अकथयम् / एतत् इदम् महत् महत्त्वपूर्णम् महेन्द्रस्य शक्रस्य कार्यम् कर्म उज्झितम् त्यक्तम्, महदनुचितं मया Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 नंषधीयचरिते कृतमिति भावः / हनूमान् आञ्जनेयः आधः प्रथमः येषां तथाभूतैः ( ब० वी०) वोत्यस्य दूतकर्मणः पन्थाः मार्गः (10 तत्पु०) यशसा की. सितीकृतः श्वेतीकृतः रामादीनां कार्य साधयित्वा जगति स्वनाम विस्तारितमित्यर्थः मया पुन: तु द्विषां शत्रूणां हसैः हासैः सितीकृतः, इन्द्रार्थाय गतो नलः स्वीयमेव कार्य साधितवान् इति शत्रुमध्ये अहम् आत्मानं उपहासास्पदतां नीतवानस्मीति भावः // 123 // व्याकरण-अभ्यधाम् अभि + Vधा+लुङ / आध:-आदी भव इति+ आदि + यत् / द्विषाम् द्वेष्टीति/द्विष + क्विप् ( कर्तरि ) / हस: हस् + अप् (भावे ) / दूत्यम् दूतस्य भावः कर्म वेति दूत + यत् ( यह वैदिक प्रयोग है ) / ०पथः समास में पथिन को अप्रत्यय हो जाता है सितीकृतः सित + च्वि, ईत्व Vकृ + क्त( कर्मणि)। अनुवाद-"ओह ! खेद है कि जो मैंने यों ही अपना नाम कह दिया (और) इन्द्र का यह इतना महत्त्वपूर्ण कार्य छोड़ दिया। हनूमान आदि दौत्य-मार्ग को यश से श्वेत बना गए, किन्तु मैंने शत्रुओं की हंसी से उसे श्वेत बनाया है" // 123 // टिप्पणी- हनूमान-जैसे दूतों ने तो जगत की वाहवाही पाई और एक में हूँ, जो कर्तव्यभ्रष्ट हो शत्रुओं में अपनी बदनामी फैला रहा हूँ। ध्यान रहे कि कवि जगत् में यश और हास दोनों श्वेत रंग से . प्रसिद्ध हैं। विद्याधर के अनुसार यहाँ व्यतिरेकालंकार है, क्योंकि हनूमान आदि में अधिकता बताई गई है / नाम, नाम में यमक, 'महो' 'मह' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 123 / / धियात्मनस्तावदचारु नाचरं परस्तु तद्वेद स यद्वदिष्यति / जनावनायोद्यमिनं जनार्दनं क्षये जगज्जीवपिबं शिवं वदन् / / 124 // अन्तक:-( अहम् ) आत्मनः धिया तावत् अचारु न आचरम् / जनानाम् अवनाय उद्यमिनम् (विष्णुम् ) जनादनम्, क्षये जगज्जीवपिबम् ( महादेवम् ) शिवम् वदन् स परः तु यत् वदिष्यति तत् ( अहं ) वेद / टीका-अहम् आत्मनः स्वस्य घिया बुद्धया तावत् वस्तुतः अचार असाधु न आचरम् कृतवानस्मि, बुद्धिपूर्वकमहम् इन्द्रप्रतिकूलम् नाकरवम्, उन्मादा. वस्थायामेवाकरवमिति भावः / जनानाम् लोकानाम् अवनाय रक्षणाय उद्यमिनम् उद्योगिनम् जनरक्षकमित्यर्थः विष्णुमिति शेषः अर्दयति पीडयतीति अर्दनः पीडकः Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 507 जनानाम् अर्दन इति जनार्दनं वदन, (10 तत्पु० ) क्षये प्रलये कल्पान्ते इति यावत् जगतः संसारस्य जीवस्य प्राणानाम् पिबम् पानकर्तारम् जगत्संहारकमिति यावत् महादेवमिति शेषः शिवम् कल्याणकरम् वदन् ब्रवन स प्रसिद्धः परः अन्यो जनः दुर्जन इत्यर्थः अनर्गलो मूों लोक इति यावत् यत् वदिष्यति मत्सम्बन्ध कथयिष्यति तत् अहं वेद जानामि / उन्मादावस्थायाम् आत्मानं प्रकाशिवन्तम् माम् तत्त्वत एव प्रकाशितवन्तम् बुद्ध्वा लोको निन्दिष्यति चेत् निन्दतु नाम अहं तु सर्वथा निर्दोष एवास्मीति भावः // 124 / / व्याकरण-धी: ध्यायते इति/ध्य + क्विप् ( भावे ) सम्प्रसारण / अवनाय/अव् + ल्युट् ( भावे ) / अर्वन: अर्दयतीति /अ + ल्यु ( कर्तरि)। पिबम् पिवतीति+Vपा+शः ( कर्तरि ) पा को पिबादेश / वेव/विद् + लट् विकल्प से णमुलादेश। अनुवाद-"स्वयं जान-बूझकर वस्तुतः मैंने बुरा नहीं किया है। जनों की रक्षा हेतु प्रयलशील (विष्णु ) को जनार्दन ( जन-पीड़क ) और प्रलयकाल में जगत् के प्राणों को पी जाने वाले ( महादेव ) को शिव ( कल्याणकारी ) कहने वाले अन्य लोग तो जो ( कुछ ) कहेंगे, सो मैं जानता हूँ"। 124 // टिप्पणी-दुनिया का मुंह कोई बन्द नहीं कर सकता है। वह उल्टी चलती है / भले को बुरा और बुरे को भला कह देती है। भवभूति ने भी ऐसाजैसा ही कहा है-'यथा वाचां तथा स्त्रीणां साधुत्वे दुर्जनो जनः / कबीर का भी कहना है-'रंगी को नारंगी कहें, बने दूध को खोया। चलती को गाड़ी कहें, देख कबीरा रोया'। अतः मन शुद्ध होना चाहिए। फिर दुनिया की कोई पर्वाह नहीं। यहां विद्याधर ने हेतु अलंकार कहा है, जो समझ में नहीं आ रहा है। 'चारु' 'चरं' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 124 // . स्फुटत्यदः किं हृदयं त्रपाभराद्यदस्य शुद्धिर्विबुधैर्विबुध्यताम् / विदन्तु ते तत्त्वमिदं तु दन्तुरं जनानने कः करमर्पयिष्यति // 125 // अन्वयः-त्रपा-भरात् अद: हृदयम् किम् स्फुटति ? यत् विबुधः अस्म शुद्धिः विबुध्यते; तु ते इदम् दन्तुरम् तत्त्वम् विदन्तु / जनानने का करम् अपयिष्यति / टोका-त्रपा मया स्वनाम प्रकटितम् देवानां कार्यञ्च न कृतमिति कारणात् Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 नैषधीयचरिते या लज्जा तस्याः भरात् प्राचुर्यात् ( 10 तत्पु० ) अदः एतत् मे हृदयम् स्फुटति विदरणोन्मुखमस्तीत्यर्थः यत् यतः विबुधैः देवैः अस्य मे हृदयस्य शुद्धिः निर्दोषता विबुध्यते सम्यग् ज्ञायते अन्तर्यामित्वात्, तु पुनः ते इदम् एतत् वन्तुरम् विषमम् तत्त्वम् मया बुद्धिपूर्वकम् आत्म-नाम प्रकाशितम् अबुद्धिपूर्वकं वेति तथ्यम् विदन्तु जानन्तु / देवानां दृष्टी मया निर्दोषेण भवितव्यमस्ति, लोकस्य तु नास्ति मे चिन्तेत्यर्थः / जनानां लोकानाम् आननं मुखे कः करम् हस्तम् अर्पयिष्यति दास्यति न कोऽपीति काकुः / लोकानां मुखं पिधातुं न शक्यते एवं न वदतेति भावः // 115 / / व्याकरण-त्रपा/त्रम् + अङ ( भावे ) + टाप् / शुद्धिः। शुध् + क्तिन् ( भावे ) / तत्त्वम् तस्य भाव इति तत् + त्वल दन्तुरम् उन्नता दन्ता अस्येति दन्त+ उरच। अनुवाद-"लज्जा के भार से यह हृदय क्यों फटा जा रहा है, क्योंकि देवता लोग इसकी शुद्धता को जानते हैं ? इस विषम- कठोर-- सत्य को वे जान लें। लोगों का मुंह हाथ से कौन बन्द करेगा ?" // 125 // टिप्पणी-लोगों को कोई नहीं समझा सकता है कि तुम यह न बोलो, यह बोलो / वे अधिकतर मूर्ख होते हैं। यह तो "विबुधों' ( बड़े विद्वानों ) का काम है कि वे गुणावगुण परखकर सत्य का निर्णय करते हैं। यहाँ चतुथं पाद में कही सामान्य बात द्वारा उपर्युक्त विशेष बात का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है। 'विबुधैविबुध्यते' में छेक, 'दन्तु' 'दन्तु' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 125 // मम श्रमश्चेतनयानया फलो बलीयसाऽलोपि च सैव वेधसा। न वस्तु दैवस्वरसाद्विनश्वरं सुरेश्वरोऽपि प्रतिकर्तुमीश्वरः / / 126 // अन्वयः-मम श्रमः अनया चेतनया फली ( स्यात् ); सा एव च बलीयसा वेधसा अलोपि / दैव-स्वरसात् विनश्वरम् वस्तु प्रतिकर्तुम् सुरेश्वरः अपि न ईश्वरः ( भवति ) / टीका-मम मे श्रमः आयासः देवकार्यसम्पादनमत्र इत्यर्थः अनया चेतनया 'अहं दूतोऽस्मीति' बुद्धया फली फल वान् सफल इति यावत् स्यादिति शेषः / दूतत्वबुद्धिश्च न्मयि स्थिराऽभविष्यत्तर्हि सम्भवतः देवकार्य फलेग्रहि अभविष्यदिति भावः / सा एव च चेतना बलीयसा बलवत्तरेण वेधसा विधात्रा अलोपि मयि लोपं प्रापिता विनाशितेति यावत्, तस्मात् देवसम्बन्धी मम सर्वोऽपि श्रमो Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः व्यर्थीभूत इति भावः / देवस्य नियतेः विधातुरित्यर्थः स्वरसात् स्वेच्छात: (10 तत्पु० ) स्वः स्वकीयश्चासो रसः ( कर्मधा० ) विनश्वरम् विनाशिनम् वस्त अर्थम् सुराणाम् देवानाम् ईश: स्वामी इन्द्र इत्यर्थः (10 तत्पु० ) अफि प्रतिकर्तुम् प्रतिविधातुम् अन्यथयितुमिति यावत् न ईश्वरः समर्थः अस्तीति शेषः / विधातुरिच्छायाः नास्ति कोऽपि प्रतीकार इति भावः // 126 // व्याकरण-श्रम: श्रम्यते इति श्रम् + घञ् ( भावे ) वृद्धयभाव / चेतना चेत्यते इति/चित् + णिच् + युच् ( भावे ) यु को अन + टाप् / फली फलमस्यास्तीति फल + इन् ( मतुबर्थ ) / बलीयसा अतिशयेन बली इति बल + इन् (मतुबर्थ ) + ईयसुन् / वेघसा विदधाति ( जगत् ) इति वि + Vधा + असुन्, इ को एत्व / विनश्वरम् विनश्यतीति वि + नश् + वरच् / ईश्वरः विनश्वरवत् / अनुवाद-"इस चेतना से ( कि मैं दूत हूँ ) मेरा परिश्रम सफल हो रहा था, और वही (चेतना देखो तो) अतिप्रबल विधाता ने नष्ट कर दी। विधाता की स्वेच्छा से जिस वस्तु का नाश होना होता है उसका प्रतीकार इन्द्र तक भी नहीं कर सकता है" / / 126 / / टिप्पणी-मैंने जान-बूझकर अपना नाम नहीं बताया है, उन्माद में माकर बताया है, अतः मैं निर्दोष हूँ। यहाँ पूर्वार्ध-गत विशेष बात का उत्तरार्ध-गत सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है। अपि शब्द से औरों की तो बात ही क्या-इस अर्थ के आ पड़ने से अर्थापत्ति है / 'नयानया' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यहाँ 'वेधस्' से निर्देश के बाद प्रतिनिर्देश 'वेधस' से ही होना चाहिए था, न कि 'दैव' से निर्देश-प्रतिनिर्देश-भाव भंग होने से यहां अक्रमता दोष है // 126 // इति स्वयं मोहमहोर्मिनिर्मितं प्रकाशनं शोचति नैषधे निजम् / तथाव्यथामग्नतद्दिधीर्षया दयालुरागाल्लघु हेमहंसराट् // 127 // अन्वयः इति नैषधे स्वयम् मोहमहोमि-निर्मितम् निजम् प्रकाशनम् शोचति (सति) दयालु: हेम-हंसराट् तथा 'धीर्षया लघु आगात् / ___टोका-इति एवं प्रकारेण नैषधे निषधाधिपती नले स्वयम् आत्मनैव मोहस्य भ्रमस्य महोमिणा (10 तत्पु० ) महता मिणा वीच्या निर्मितम् कृतम् उन्मादजनितमित्यर्थः (तृ० तत्पु०) निजम् स्वकीयम् प्रकाशनम् प्रकटनम् शोचति Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते मस्मिन् विषये पश्चात्तपति सति दयालुः दयावान हेम्नः सुवर्णस्य हंसराट् राजहंस: (10 तत्पु० ) तया तादृशी अनिर्वचनीया या व्यथा पीडा ( कर्मधा० ) तस्यां मग्नः बुडितः ( स० तत्पु० ) चासो स नलः ( कर्मधा० ) तस्य उद्विषोर्षया उद्वर्तुमिच्छया ( 10 तत्पु० ) लघु त्वरितम् आगात् आगच्छन् / स्वयं महामोहे स्वनामप्रकाशनमनुशयानं व्यथमानं च नलं बोधयितुम् सान्त्वयितुं च स एव पूर्ववनः सुवर्णहंसः शीघ्रमेव ततोगतिष्ठदिति भावः // 127 // व्याकरण-मोहः /मुह + घञ् (भावे।। उद्दिवोर्षया उत् + Vधृ + सन् + अ+ टाप् / हंसराट् हंसेषु राजते इति हंस + V राज् + क्विप / आगात्/इ+ लुङ्, इ को गादेश। अनुवाद-इस प्रकार नल जब मोह की विपुल तरंग द्वारा निर्मित स्वयमेव निज प्रकाशन पर पछता रहे थे, तभी दयालु सुवर्ण-हंस उस तरह व्यथा में डूबे उन्हें उवारने की इच्छा से तत्काल आ पहुँचा // 127 // टिप्पणी-विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है, जिसे उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है / 'मोहमहो' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 12 // नलं स तत्पक्षरवोवंवीक्षिणं स एष पक्षीति भणन्तमभ्यधात् / नयादयनामति मा निराशतामसून्विहातेयमतः परं परम् // 128 // अन्वयः स तत्प"णम् नलम् ‘एष स पक्षी' इति भणन्तम् अभ्यधात्, 'हे अदय ! एनाम् अतिनिराशताम् मा नय, अतः परम् इयम् परम् असून विहाता'। . टीका-स हेमहंसराट् तस्य हंसस्य स्वस्येत्यर्थः पक्षयोः पक्षयोः यो रवा फटफटात्कार-शब्दः ( उभयत्र प० तत्पु० ) तेन ऊध्वंवीक्षिणम् (तृ० तत्पु० ) ऊर्ध्वम् उपरि वीक्षते पश्यतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) नलम् 'एषः अयम् स दृष्टपूर्वः एव पक्षी हेमहंसराट् अस्तीति शेषः इति एवम् भणन्तम् कथयन्तम् अभ्यषात् अकथयत्-हे अदय ! न क्या करुणा यस्मिन् तत्सम्बुद्धौ ( नन ब. बी० ) एनाम् एताम् दमयन्तीमित्यर्थः निर्गता आशा यस्याः निराशा (प्रादि ब० वी० ) अतिशयेन निराशा अतिनिराशा (प्रादि स० ) तस्याः भावः तत्ता ताम् अतिनैराश्यम् मा नय न प्रापय / अतः एतस्मात् परम् अधिकमित्यर्थः इयम् एषा दमयन्ती परम् केवलम् यथा स्यात्तथा असून प्राणान् विहाता त्यक्ष्यति / व्याकरण-रवः रु + अप् (भावे)। ०वीक्षिणम् वि+Vईक्ष् + णिन् / Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 511 अतिमा निराशताम्-उपसर्गों का यह नियम है कि वे धातुओं के साथ अथवा समास में अव्यवहित-पूर्व आया करते हैं, अतः यहाँ 'अतिनिराशताम्' होना चाहिए था न कि 'अति मा निराशताम्' / नारायण ने भी यह शंका उठाई है और यह समाधान किया है-'महाकविप्रयोगाद् व्यवहितानामपि प्रयोगः साधुः तथा इसके और भी उदाहरण दिये हैं जैसे-'आविश्चक्षुषोऽभवदसाविव रागः,' आदि / दूसरा समाधान यह है कि 'अन्तिम' शब्द को सम्बोधन मान लें अर्थात् अतिशयिता मा = शोभा, राज्यलक्ष्मीः वा यस्य तत्सम्बुद्धी हे अति सुन्दर नल !, 'एनाम् अनिराशताम् आशायुक्तत्वं नय इसे आशा बंधाओ अथवा 'अतिमा' (अतिक्रान्ता माम् ) को इयम् का विशेषण मानकर यह अर्थ कर लें-यह सौन्दर्य में लक्ष्मी को मात किये हुए है / इसे निराश मत करो। विहाता वि+/हा + लुट् / अनुवाद-वह ( हंस ) अपने पंखों की फड़फड़ाहट पर ऊपर देख रहे नल को यह कहते हुए कि “यह तो वही पक्षी (हंस ) है" बोला-"निर्दयी ! इस ( दमयन्ती ) को अधिक निराश मत करो। इससे आगे यह प्राणों को ही छोड़ देगी" // 128 // टिप्पणी-हंस का भाव यह है कि तुम अपना नाम प्रकट कर देने से अपने को कोस रहे हो कि मैंने यह क्या गलती कर दी है। इससे यह बेचारी समझने लग जाएगी कि तुम्हारा इस पर अनुराग नहीं है / अतः जो निन्दा तुमने अपनी कर दी है वह कर दी; अब और अधिक करोगे, तो यह नैराश्यातिशय में भर जाएगी। इसके मरने पर तुम्हें स्त्री-वध का महापाप लग जाएगा। 'पक्ष' 'पक्षी' में छेक, 'परं परम्' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 128 // सुरेषु पश्यन्निजसापराधतामियत्प्रयस्यापि तदर्थसिद्धये / न कूटसाक्षीभवनोचितो भवान्सतां हि चेतःशुचितात्मसाक्षिका // 129 // अन्वयः-(हे नल ! ) भवान् तदर्थ-सिद्धये इयत् प्रयस्य अपि सुरेषु निजसापराधताम् पश्यन् कूटसाक्षीभवनोचितः न ( भवति ) / हि सताम् चेतःशुचिता आत्मसाक्षिका ( भवति ) / टोका-(हे नल ! ) भवान् त्वम् तेषाम् सुराणाम् अर्थी प्रयोजनम्, कार्यमिति यावत् तस्य सिहये सफलत्वेन सम्पादनाय ( उभयत्र 10 तत्पु० ) इयत् एतावत् अधिकं यथा स्यात्तथा प्रयस्य प्रयासं कृत्वा अपि सुरेषु देवानां विषये Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 नैषधीयचरिते अपराधेन दोषेण सहितः सापराधः ( ब० वी० ) अपराधीत्यर्थः तस्य भावः तत्ता ताम् निजाम् सापराधताम् ( कर्मवा० ) पश्थन् विलोकयन् मनसि विचार. यन्नित्यर्थः कूट: मिथ्या चासो साक्षी कूटसाक्षी ( कर्मधा० ) अकूटसाक्षिणा कूटसाक्षिणा भूयते इति भवनम् तस्य उचितः योग्यः (ष० तत्पु०) न भवतीति शेषः देवकार्यसिद्धयर्थ यावच्छक्यं प्रयत्यापि यद्देवकार्य न सिद्धम्-अस्मिन् विष ये भवान् आत्मानम् एवापराधिनं मन्यसे यन्मया स्वप्रकाशनं कृत्वा स्वकार्य न साधितमिति, तन्न भवता मन्तव्यमिति भावः हि यतः सताम् सज्जनानाम् चेतसः मनसः शुचिता शुद्धत्वम् (10 तत्पु० ) आत्मा साक्षी साक्षाद् द्रष्टा (कर्मधा० ) यस्यां तथाभूता (ब० वी०) भवतीति शेषः / इदमनुचितम् उचितं वा मया कृतमित्यत्र सताम् आत्मैव साक्षी भवति, न त्वन्यः इति भावः / / 129 / / व्याकरण-अर्थः यास्कानुसार अर्थ्यते इति / प्रयस्य प्र + /यस् + ल्यप् / सुरेषु इसके लिए सर्ग 5 श्लो० 34 देखिए / साक्षी इसके लिए पीछे श्लो० 117 देखिए / साक्षीभवनम् साक्षिन् + वि +/भू + ल्युट ( भावे ) / __ अनुवाद-"( ओ नल! ) उन ( देवताओं ) का काम बनाने हेतु इतना प्रयत्न करके भी देवताओं के प्रति अपने को अपराधी देखते हुए आपका झूठा साक्षी बनमा ठीक नहीं है, क्योंकि सत्पुरुषों की मन:-शुद्धि का साक्षी अपनी आत्मा ( ही ) हुआ करती है" // 129 // टिप्पणी-साक्षी-गवाह-दो तरह का होता है-एक झूठा और दूसरा सच्चा। झठे गवाह को धर्मशास्त्र में कूटसाक्षी कहा गया है। स्वार्थ-वश या दूसरे का काम बन जाय-इस उद्देश्य से लोग झूठी गवाही दे बैठते हैं / नल भी अपने को देवताओं का अपराधी बतलाते हुए कूटसाक्षी बन रहे हैं। उनका यह कहना कि अपने को प्रकट करके मैंने अपना ही काम बनाया है, देवताओं का काम नहीं बनने दिया है, सरासर झूठ है, कूट-साक्ष्य है / सच तो यह है कि उन्होंने अपनी ओर से कर्तव्य निभाने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। यह तो प्रतिकूल विधाता था जिसने नल को उन्मत्त बनाया और देवताओं का काम बिगाड़ा। नल का हृदय अपने में बिलकुल शुद्ध है और इसका साक्षी उनकी आत्मा है। कालिदास ने भी कहा है:-सतां हि सन्देह-पदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तः करणप्रवृत्तयः' / यहाँ चतुर्थपाद-गत सामान्य बात पूर्वोक्त विशेष बात का समर्थन Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 513 कर रही है, अतः अर्थान्तरन्यास है। 'भव' 'भवा' तथा 'साक्षी' 'सांक्षि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 129 // इतीरिणापृच्छय नलं विदर्भजामपि प्रयातेन खगेन सान्त्वितः / मृदुभाष भगिनी दमस्य स प्रणम्य चित्तेन हरित्पतीन्नृपः // 130 // अन्वयः-इति ईरिणा नलम् विदर्भजाम् अपि आपृच्छय प्रयातेन खगेन सान्वितः स नृपः चित्तेन हरित्-पतीन् प्रणम्य मृदुः ( सन् ) दमस्य भगिनीम् बभाषे। टीका-इति पूर्वोक्तम् ईरयति कथयताति तथोक्तेन, नलम् विदर्भजाम् वैदीम् चापि आपृच्छच आमन्त्र्य प्रयातेन गतेन खगेन पक्षिणा हंसेन सान्वितः सान्त्वनाम् प्रापितः स नृपः राजा नलः चित्तेन मनसा हरिताम् दिशानाम् ( ‘आशाश्च हरितश्च ताः' इत्यमरः ) पतीन् स्वामिनः दिक्पालकान् इन्द्रादान् (10 तत्पु० ) प्रणम्य नमस्कृत्य मृदुः कोमलः दयालुः इति यावत् सन् दमस्य भगिनीम स्वसारम् दमयन्तीमित्यर्थः बभाषे अभाषत // 130 // व्याकरण-०ईरिणाVईर् + णिन् / विदर्भजाम् विदर्भेभ्यः जातेति विदर्भ +V जन् + ड + टाप् / खगेन खे ( आकाशे ) गच्छतीति ख + V गम् + ड / सान्त्वितः सान्त्व + क्त ( कर्मणि ) / अनुवाद - इस प्रकार कहने वाले ( तथा ) नल और दमयन्ती से भी विदा लेकर गये हुए पक्षी ( हंस ) से सान्त्वना प्राप्त किये वे राजा ( नल ) मन ही मन दिक्पालों को प्रणाम करके दमयन्तो को बोले // 130 // टिप्पणो–'तेन' 'खगेन' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 130 // ददेऽपि तुभ्यं कियती: कदर्थनाः सुरेष रागप्रसवावकेशिनीः / अदम्भदूत्येन भजन्तु वा दयां दिशन्तु वा दण्डममी ममागसा // 131 // अन्वय-(हे भैमि ! ) तुभ्यम् सुरेषु राग-प्रसवावकेशिनीः कियतीः कदर्थनाः ददे अपि / अमी अदम्भ-दूत्येन दयां वा भजन्तु, मम आगसाम् दण्डम् वा दिशन्तु / . टोका-(हे भैमि ! ) तुभ्यम् सुरेषु इन्द्रादिदेवान प्रति रागस्य अनुरागस्य Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 नैषधीयचरिते प्रसव: उत्पत्तिः (10 तत्पु० ) तस्मिन् अवकेशिनीः वन्ध्याः निष्फला इति यावत् ( 'वन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः ) कियती: कियत्संख्यकाः कदर्थनाः पीडाः ददे ददामि अपीति गर्हायाम् ( 'अपि सम्भावना-प्रश्न-शङ्का-गहनिसमुच्चये' इति विश्वः ) देवेषु स्वरागोत्पादनाय तुभ्यं कियद् बहु कष्टं ददानीति बहुनिन्दनीयं मे नाधिकं कथयिष्यामीति भावः / अमी एते देवताः न दम्भः कपटो यस्मिन् तथाभूतेन ( नन ब० वी० ) ( कपटोऽस्त्री व्याज-दम्भः-इत्यमरः ) इत्येन दूतकर्मणा दयाम् मयि कृपाम् वा भजन्तु कुर्वन्त्वित्यर्थः मम आगसाम् अपराधानाम् दण्ड शासनं वा दिशन्तु ददतु / मया निष्कपटभावेन दौत्य-कर्तव्यमनुष्ठितम् किन्तु सफलता नोपलब्धति देवा माम् अनुगृह्णन्ति चेत् अनुगृह्णन्तु नाम, दण्डयन्ति चेत् दण्डयन्तु नाम वा परम् इदानीं त्वां न कदर्थयिष्यामीति भावः // 131 // व्याकरण-कवर्थनाः कुत्सितोऽर्थः कदर्थः कदथं करोतीति कदर्थ + णिच कदर्थयति ( नामधा० ) कदर्थ्यते इति/कदर्थ + युच् ( भावे ) + यु को अन + टाप् / दूत्येन इसके सम्बन्ध में पीछे श्लो० 123 देखिए। अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) देवताओं के प्रति अनुराग उत्पन्न करने में बेकार सिद्ध हुई कितनी पीड़ायें मैं तुम्हें दे रहा हूँ—यह कितनी बुरी बात है / ये ( देवता ) मेरे निष्कपट दौत्य से मुझ पर कृपा करते हैं, तो करें अथवा मेरे अपराधों का मुझे दण्ड देते हैं, तो देवें (किन्तु अब मैं उनकी तरफ से तुम्हें तंग नहीं करूंगा)" // 131 / / टिप्पणी-अब नल को बड़ा दुःख हो रहा है कि बार-बार मैं इस बेचारी को तंग कर रहा हूँ कि तुम देवताओं को ही वरो, नल को नहीं, जब कि यह पर्वत की तरह अपने निश्चय में अडिग है। नल को विश्वास हो गया कि (कालिदास के शब्दों में )-क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत्' / अतः नल के मन में अब परिवर्तन आ गया है। वे दमयन्ती के खातिर सब कुछ सहने को तय्यार हो गए हैं। विद्याधर के शब्दों में 'अत्रातिशयोक्त्यलंकारः' जो हम नहीं समझ रहे हैं। सम्भवतः वे रागप्रसव के प्रयत्नों का अवकेशी ( फलरहित वृक्षों ) के साथ अभेदाध्यवसाय मान रहे हों, क्योंकि अवकेशी शब्द को वे विशेषण नहीं, विशेष्य समझ रहे हैं यद्यपि यह विशेषण भी होता है, Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः अन्यथा वह यहां स्त्रीलिङ्ग न होता। 'ममी' 'ममा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 131 // अयोगजामन्वभवं न वेदनां हिताय मेऽभूदियमुन्मदिष्णुता। उदेति दोषादपि दोषलाघवं कृशत्वमज्ञानवशादिवैनसः // 132 // अन्वयः- इयम् मदिष्णुता मे हिताय अभूत् ( यत् अहम् ) अयोगजाम् वेदनाम् न अन्वभवम् / अज्ञानवशात् एनसः कृशत्वम् इव दोषात् अपि दोष-लाघवम् उदेति / टीका-इयम् एषा उन्मदिष्णुता उन्मत्तता ममोन्मादावस्थेत्यर्थः मे मह्यम् हिताय उपकाराय अभत जाता यत् यस्मात् अहम् न योगः अयोगः वियोगः विरह इति यावत् ( नन् तत्पु० ) तस्मात् जायते इति तथोक्ताम् ( उपपद तत्पु० ) वेदनाम् व्यथाम् न अन्वभवम् नानुभूतवान् अनुन्मादावस्थायामनुभूयमाना विरहवेदना उन्मादावस्थायां नानुभूयते, तस्याः सर्वस्य विस्मरणात्, सुखस्यैव चानुभवात्, तस्मादुन्मादेन मे बहूपकृतमिति भावः / न ज्ञानम् अज्ञानम् (नम् तत्पु० ) तस्य वशात् कारणात् (10 तत्पु० ) एनस: पापस्य कृशत्वम् लाघवम्, ज्ञानपूर्वककृतपापापेक्षया अल्पत्वमित्यर्थः इव दोषात् अपि दोषस्य लाघवम् कृशत्वम् उदेति जायते / लोके दोषोऽपि कदाचित् दोषान्तरं लघूकरोति गुणतां चापादयति / प्रकृते उन्मादः खलु वातजो दोषः, वेदनाऽपि च कामजो दोषः, किन्तु उन्मादात् वेदनारूपो दोषो लघु भवति अर्थात् दोषो न भूत्वा गुणो भूतः उन्मदे वेदनास्थाने नलस्य सुखानुभवात् इति भावः // 132 // व्याकरण-उन्मविष्णुता उन्माद्यतीति उत् +/मद् + इष्णुच् (कर्तरि)+ तल ( भावे ) + टाप् / मे हितयोग में च० / अयोगजाम् अयोग+ जन् + ड+ टाप् / लाघवम् लघोर्भाव इति लघु + अण् / __अनुवाद-"( मेरी ) यह उन्मत्तता ( उन्मादावस्था) मेरे लिए भली रही, क्यों कि मैं विरह-वेदना अनुभव नहीं कर पाया। अज्ञान-वश किये पाप में जैसे कमी आ जाती है, वैसे ही दोष-वश भी दोष में कमी आ जाती है" || 132 // टिप्पणी-पाप दो तरह से किये जाते हैं—ज्ञान पूर्वक और अज्ञान-पूर्वक / धर्मशास्त्र में ज्ञान-पूर्वक किये हुए ब्रह्महत्यादि पाप और अज्ञान-पूर्वक किये पाप के प्रायश्चित्त में बड़ा अन्तर कहा हुआ है। ज्ञानपूर्वक किये पाप के प्राय Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते श्चित्त के लिए 'कामात् तद् द्विगुणं भवेत्' लिखा हुआ है जब कि अज्ञानपूर्वक किये पाप का प्रायश्चित थोड़ा ही बताया गया है। जैसे अज्ञान-दोष से पाप-रूप दोष में लघुता आ जाती है, वैसे ही प्रकृत में भी उन्माद-दोष से वेदना-रूप दोष में लघुता आ गई है अर्थात् वह कम अनुभव हुई / इस तरह यहाँ उपमा है, साथ ही उत्तरार्धगत सामान्य बात से पूर्वार्धगत विशेष बात का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है / 'दोषा' 'दोष' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 132 / / 'तवेत्ययोगस्मरपावकोऽपि मे कदर्थनात्यर्थतयाऽगमद्दयाम् / प्रकाशमुन्माद्य यदद्य कारयन्मयात्मनस्त्वामनुकम्पते स्म सः // 133 // अन्वयः-तव अयोग-स्मरपावकः कदर्थनात्यर्थतया अपि इति मे दयाम् अगमत् , यत् अद्य सः (माम् ) उन्माद्य, मया आत्मनः प्रकाशं कारयन् त्वाम् अनुकम्पते स्म। टीका-तव त्वत्सम्बन्धी त्वद्विषयक इत्यर्थः न योगः अयोगः (नन तत्पु०) विरह एव स्मरपावकः कामाग्निः (कर्मधा० ) कदर्थनानाम् पीड़ानाम् अत्यथंतया अत्याधिक्येन (10 तत्पु०) मयि अत्यधिकपीडाकारकत्वेन अपि मे मयीत्यर्थः दयाम् करुणाम् अगमत् प्राप्तवान् मां प्रति दयामकरोदित्यर्थः, यत् यस्मात् अद्य अस्मिन् दिवसे त्वद्विलापसमये इत्यर्थः माम् उन्माद्य उन्मादावस्थां प्रापय्य मया प्रयोज्यक; मत्पावति इति यावत् आत्मनः स्वस्यैव ममैवेत्यर्थः प्रकाशम् 'अहं नलोऽस्मीति' प्रकटताम् कारयन् कतु प्रेरयन् त्वाम् दमयन्तीम् अनुकम्पते स्म तब दयते स्म / अयं भाव:-यद्यपि त्वद्विरहकामाग्निना मह्यम् अत्यर्थ पीडा दत्ता तथापि अद्य स मयि दयां प्रादर्शयत् यतः तेन त्वद्विलापेऽद्याहम् उन्मादावस्थां प्रापितः यस्यामहं स्वप्रकाशनमकरवम् 'अहं नलोऽस्मीति'। दूत-छद्मनि मां प्रत्यक्षं दृष्ट्वा त्वयाऽपि मत्प्राप्तिनिश्चयात् स्वप्राणा, रक्षिता, रक्षितेषु त्वत्प्राणेषु अहमपि च स्वप्राणान् रक्षितवान् एवं सति त्वद्विरह-कामाग्निना तव मम चोभयस्योपरि दया कृता // 133 / / व्याकरण-कदर्थनानाम् इसके लिए पीछे श्लोक 131 देखिये ! अत्यर्थतया अतिशयितः अर्थः यस्मिन्निति ( प्रादि ब० वी० ) तस्य भावः तत्ता प्रकाशः १-न वा / Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः प्रकाश्यते इति प्र + /काश + घञ् ( भावे ) / उन्माद्य उत् + V मद् + णिच् + ल्यप् / कारयन् / कृ + णिच् + शतृ / अनुवाद:-"तुम्हारे विरह की कामाग्नि ने अत्यधिक सताते हुए भी आज मुझ पर यह दया करदी है कि मुझे उन्मत्त बनाकर, मेरे द्वारा स्वयं अपने को प्रकट करवाता हुआ वह तुम पर ( मी ) दया कर बैठा // 133 // टिप्पणो-कामाग्नि की अत्यधिक पीड़ा से नल और दमयन्ती-दोनों का भला हो गया है / अत्यधिक पीड़ा न होती तो नल को उन्माद नहीं होना था / उन्माद के अभाव में उन्होंने अनजाने अपने को दमयन्ती के सामने क्यों प्रकट करना था कि मैं नल है, क्योंकि वे दूत-रूप में पक्के कर्तव्य-निष्ठ थे। ऐसी स्थिति में दमयन्ती को नल-प्राप्ति का निश्चय नहीं हो सकता था। निश्चय न हो सकने पर उसके प्राण निकल जाने थे और उसके प्राण निकलते ही नल के प्राणों ने भी निकल जाना था। अब दोनों के प्राण बच गये हैं जिसके लिये ये कामाग्नि की 'कदर्थना' के आभारी हैं। श्लोक में कवि का 'अपि' शब्द 'पावक' के साथ होने से टीकाकारों में गड़बड़ी कर बैठा है इसे नियमतः अत्यर्थतया के साथ आना चाहिए था। अतः यह अस्थानस्थपदता दोष बना रहा है / विद्याधर 'अत्रातिशयोक्त्यलङ्कारः' और चाण्डू पण्डित अनुप्रास उक्तविशेषो आक्षेपो हेतु रनुमानमतिशयोक्तिश्च' कह रहे हैं // 133 // अमी समोहैकपरास्तवामराः स्वकिकरं मामपि कर्तृमीशिषे / विचार्य कार्य सृज मा विधान्मुधा कृतानुतापस्त्वयि पाणिविग्रहम् // 134 // ___ अन्वयः-अमी अमराः तव समीहैकपराः ( सन्ति ) माम् अपि ( त्वम् ) स्व-किकरम् कर्तुम् ईशिषे; विचार्य कार्यम् सृज; कृतानुतापः त्वयि पाष्णि-विग्रहम् मुधा मा विधात् / ___टीका-अमी एते अमराः देवा इन्द्रादयः तव समोहा अभिलाषः एव एकम् केवलम् परम् प्रधानम् ( उभयत्र कर्मधा० ) येषां तथाभूताः ( ब० वी० ) सन्तीतिशेषः, देवाः केवलम् त्वामेवाभिला न्तीत्यर्थः माम् नलम् अपि त्वम् स्वम् किंकरम् दासम् ( कर्मधा० ) कतुंम् विधातुम् ईशिषे शक्नोषि, विचार्य विचारं कृत्वा कार्यम् वरणरूपम् सुज कुरु, कृते अनुष्ठिते अनुतापः पश्चात्तापः ( स० तत्पु० ) मया यत् कृतं तन्न कर्तव्यमासीत्' इत्यादिरूपः त्वयि पाणि: सेनापृष्टम् Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 नैषधीयचरिते सेनायाः पश्चाद्वर्ती भाग इतियावत् तस्मिन् विप्रहम् युद्धम् ( स० तत्पु० ) पाणिग्राहकृत्यम् सेनायाः पृष्ठभागे आक्रमणमिति यावत् मुधा व्यथं मा विधात् मा कार्षीत् / असमीक्ष्य कृते वरणे पश्चात्तापः त्वा न च्याप्नुयादिति भावः // 134 // __व्याकरण-अमराः म्रियन्ते इति /मृ + अच् ( कर्तरि ) न मरा इत्यमरा। समोहा सम् + ईह + अ + टाप् / किंकरः किम् करोमीति किम् + / कृ + अच / ईशिषे / ईश् + लट् ( म० पु० ) इडागम / मा विधात् मा वि + Vधा+ लुङ् लकार में माङ् का योग होने से अडागम का निषेध / अनुवाद-"ये देवता लोग अनन्य निष्ठा से तुम्हें ही केवल चाह रहे हैं। मुझे भी ( तुम ) अपना दास बना सकती हो / सोच-समझकर काम करना ताकि किये पर पश्चात्ताप तुम पर यों ही पीछे से आक्रमण न कर दे' / 134 / / टिप्पणी--नल के कहने का भाव यह है कि जल्दबाजी में किए वरण पर बाद को तुम्हें यों पछताना न पड़ जाय कि मैंने देवताओं का वरण करके ठीक नहीं किया; नल का वरण करना चाहिए था अथवा नल का वरण करके मैंने ठीक नहीं किया, देवताओं का वरण करना चाहिए था। ठीक विवाह न करके जन्म भर का रोना हो जाता है। अंग्रेजी की कहावत है-To marry in hasta is to repent attast विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति कही है, क्योंकि पीछे से आने वाले अनुताप का पाणि-विग्रह के साथ अभेदाध्यवसाय है। 'अमी' 'समी' में पदान्तगत अन्श्यानुप्रास है। विद्याधर छेक भी कह रहे हैं, जो हमें कहीं नहीं दीख रहा है / 'चाय' 'कार्य' में एक जगह अनुस्वार न होने से वह नहीं बनने पा रहा है / हाँ, वृत्त्यनुप्रास है // 134 // उदासितेनैव मयेदमुद्यसे भिया न तेभ्यः स्मरतानवान्न वा। हितं यदि स्यान्मदसुव्ययेन ते तदा तव प्रेमणि शुद्धिलब्धये // 135 / / अन्वयः-(हे भैमि ! ) उदासितेन एव मया ( त्वम् ) इदम् उद्यसे, तेभ्यः भिया न, स्मर-तानवात् (भिया) वा न / मदसु-व्ययेन ते हितम् यदि स्यात् तदा तव प्रेमणि शुद्धि-लब्धये ( असुव्ययः स्यात् ) / टोका-(हे भैमि ! ) उदासितेन उदासीनेन तटस्थेनेति यावत् एव मया त्वम् इदम् पूर्वोक्तं सुसमीक्ष्य वरणीयमित्यर्थः उद्यसे कथ्यसे तेभ्यः देवेभ्यः भिया Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः भयकारणात् न, स्मरेण कामेन तानवात् कार्यात् कामकृत-कदर्थनातः इत्यर्थः भिया न, अर्थात् अहं कामेन भृशं कदर्थ्य इति माम् स्वकिंकरं कुविति नास्ति मेऽभिप्रायः / मम असवः प्राणाः तेषाम् व्ययेन त्यजनेनेत्यर्थः ते तुभ्यम् हितम् हितकरम् यदि स्यात् तदा तहि तव ते प्रेमणि माम् प्रति अद्य यावत् कृतेऽनुरागे शुद्धिः ऋण-शुद्धिः निर्यातनमिति यावत् तस्य लब्धये प्राप्त्यै ( 10 तत्पु० ) मदसुव्ययः स्यात् / माम् अवृत्वा देवतावरणे यदि त्वद्-वियोगात् मम प्राणाः गच्छन्ति, तहिं सहर्ष गच्छन्तु नाम / एतावन्तं कालं त्वया मयि कृतात् अनुरागात् स्वप्राणव्ययेनाहम् आनृण्यं गमिष्यामीति भावः // 135 // ___ व्याकरण-उदासितेन उत् + /आस् क्त ( कर्तरि ) मया का विशेषण अथवा क्त ( भावे, विशेष्य ) औदासीन्य से / उद्यसे वद् + लट् म० पु०, व को उ सम्प्रसारण ( कर्मवाच्य ) / तानवात् तनोः भाव इति तनु + अण् / ते हितयोग में च० / शुद्धिः लब्धये दोनों जगह क्तिन् ( भावे ) / ___ अनुवाद-"( दमयन्ती!) तुमसे जो मैं यह कह रहा हूँ ( कि सोचविचार कर वरण करो ) वह तटस्थ-रूप से ही ( कह रहा हूँ ) न कि देवताओं की डर से न वा ( अपनी) काम-जनित दुर्बलता से। यदि मेरे प्राण-नाश से तुम्हारी भलाई होती हो, तो तुम्हारे ( अब तक मुझ पर किये ) प्रेम से ऋणमुक्ति पाने के लिए ( मेरा प्राणनाश ) हो जावे // 135 // टिप्पणी-देव-वरण करने जा रही हो, तो तुमने मुझसे अब तक प्रेम करके मेरा जो उपकार किया है, उसका प्रत्युपकार मै प्राण-समर्पण के रूप में कर दूंगा अर्थात् तुम्हारे खातिर मैं प्राणों की बलि भी दे सकता हूं लेकिन होना तुम्हारा हित चाहिए / विद्याधर के शब्दों में-'अत्र छेकानुप्रासातिशयोक्त्युपमालंकारः। उन्होंने 'उदासितेनैव' में 'उदासितेनेव' पाठ देकर उपमा बनाई है। छेक 'नवान्न वा' में है / / 135 // इतीरितैर्नैषधसूनृतामृतैर्विदर्भजन्मा भृशमुल्ललास सा। ऋतोरधिश्रीः शिशिरानुजन्मनः पिकस्वरैदूरविकस्वरैयथा // 136 // अन्वयः-सा विदर्भजन्मा इति ईरितः नैषधसूनृतामृतः भृशम् उल्ललास यथा शिशिरानुजन्मनः ऋतोः अधिश्रीः दूरविकस्वरैः पिकस्वरैः ( उल्लसति ) / टीका-सा प्रसिद्धा विदर्भेभ्यः जन्म यस्याः तथाभूता ( ब० बी० ) वैदर्भो Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते दमयन्तीत्यर्थः इति 'ददेऽपि तुभ्यम्' ( 9 / 131) इत्युक्तप्रकारेण ईरितैः कथितः नषधस्य निषधाधिपतेः सूनुतैः सत्यप्रियवचनैः ( 'सूनृतं प्रिये सत्ये' इत्यमरः ) अमृतैः सुधाभिः इव ( उपमित तत्पु० ) भृशम् अत्यन्तम् ल्ललास उल्लसिता हृष्टत्यर्थः बभूव यथा शिशिरम् शिशिरर्तुम् अनु पश्चात् जन्म यस्य तथाभूतस्य (ब० बी० ) ऋतो: वसन्तस्येत्यर्थः अधिका श्री: शोभेत्यधिश्रीः ( प्रादि स० ) दूरम् यथा स्यातथा विकस्वरैः प्रसरद्भिः श्रयमाणैरित्यर्थः पिकानाम् कोकिलानां स्वरैः आलापैः कू-कू-ध्वनिभिरित्यर्थः (ष. तत्पु० ) उल्लसति विलसति अतिश्राव्यैः कोकिलमधुरालापैः वासन्ती श्रीरिव अतिमधुरैः नलवचनैः दमयन्ती समुल्लसिताऽभवत् इति भावः / एतेन वसन्तश्रीवत् नलवचनानां कामोद्दीपकत्वं व्यज्यते / व्याकरण-सूनृतम् सु + /नृत् + क पृषोदरादित्वाद् उपसर्ग-दीर्घत्वम् / शिशिरः यास्कानुसार 'शीर्यन्तेऽस्मिन् पत्राणि' / जन्मन् /जन् + मनिन् ( भावे) / विकस्वर वि + /कस् + वरन् / अनुवाद--वह दमयन्ती इस प्रकार कहे नल के अमृत जैसे सत्य और प्रिय वचनों से अच्छी तरह यों उल्लसित (हृष्ट ) हुई जैसे शिशिर के बाद आने वाली ऋतु ( वसन्त ) की अत्यधिक शोभा दूर-दूर तक फैल जाने वाली कोयलों की कूकों से उल्लसित (विलसित ) हो उठती है // 136 / / टिप्पणी-यहाँ पर्णोपमा है। यद्यपि उपमेय और उपमान में 'सूनृतामृत' और 'पिकस्वर' भिन्न-भिन्न धर्म हैं तथापि उनका यहाँ बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव हो रहा है। दर्पणकार ने विभिन्न धर्मों के बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव सम्बन्ध में भी उपमा मान रखी है। 'कस्वरेर' 'कस्वरेर' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 136 // नलं तदावेत्य तमाशये निजे घृणां विगानं च मुमोच भीमजा। जुगुप्समाना हि मनो धृतं तदा सतीधिया देवतदूतधावि सा // 137 / / अन्वयः-तदा दैवत-दूतधावि सती सती-धिया धृतम् मनः हि जुगुप्समाना सा भोमजा तम् नलम् अवेत्य निजे आशये घृणाम् विगानम् च मुमोच / टीका-तदा तस्मिन् काले अयं दूतः नल इति ज्ञानाभावावसरे इत्यर्थः देवतानाम् देवतानाम् दूतः सन्देशहरः (10 तत्पु० ) तस्मिन् धावतीति सौन्दर्याकर्षणात् तं प्रति गच्छतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) सत्याः पतिव्रतायाः धोः Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः बुद्धिः तया (10 तत्पु०) अहं सती, एष दूतश्च परपुरुष इति विचार्येत्यर्थः घृतम् बलात् दूतात् निवर्तितम् च मनः हि निश्चयेन जुगुप्समाना निन्दन्ती सा प्रसिद्धा भीमजा भीमात् जाता भैमीत्यर्थः तम् दूतम् नलम् एतदाख्यं निषधाधिपतिम् अवेत्य बुद्ध्वा निजे स्वीये आशये मनसि विषये घृणाम् जुगुप्साम विगानम् निन्दाम् च मुमोच त्यक्तवती / दूतस्यालौकिकं लावण्यं विलोक्य पूर्वं तु तस्या मनः तं प्रति यावद् गच्छति तावदेव 'अहं पतिव्रताऽस्मि, मम मनसा न परपुरुषे गन्तव्यम् इति विचार्य स्वमनो निन्दती सा तस्मात तत् बलात् परावर्तितवती, किन्तु इदानी दूतं 'नलोऽयम्' इति ज्ञात्वा सा स्वमनो न निन्दति. प्रत्युत स्तोत्येवेति भावः // 137 // व्याकरण-तदा तत् + दा / दैवताम् देवता एवेति देवता + अण ( स्वार्थे) अथवा दैवत देवतानामयमिति देवता + अण् (देवसम्बन्धी दूत)। ०धा व Wधाव + णिन् / धिया ध्यायते इति ध्यै + विप (भावे)। जुगुप्समाना Vगुप्+सन् + शानच् / अवेत्य अव+ इ + ल्यप् तुगागम / विगानम् वि= विरुद्ध गानम् (प्रादि स०)। गानम् /गै + ल्युट ( भावे ) / अनुवाद-उस समय (जब कि यह ज्ञान नहीं रहा कि दूत स्वयं नल है ) देवताओं के दूत की ओर ( सौन्दर्यवश ) दौड़े जा रहे ( तथा ) पतिव्रता का विचार आ जाने से रोके हुए मन की निश्चय ही निन्दा करती हुई वह भैमी उस (दूत ) को नल जानकर ( अब ) अपने मन पर घृणा और उसकी निन्दा करना छोड़ बैठी // 137 // टिप्पणी-कारण बताने से काव्यलिङ्ग अलङ्कार है। 'माना' 'मनो' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 137 // मनोभुवस्ते भविनां मनः पिता निमज्जयन्नेनसि तन्न लज्जसे। अमुद्रि सत्पुत्रकथा त्वयेति सा स्थिता सती मन्मथनिन्दिनी धिया // 138 // ___ अन्वयः-(हे मन्मथ ! ) भविनाम् मनः मनोभुवः ते पिता ( अस्ति ) / तत् एनसि निमज्जयन् ( त्वम् ) न लज्जसे ? त्वया सत्पुत्र-कथा अमुद्रि / इति सतीधिया मन्मथ-निन्दिनी स्थिता / टीका-(हे मन्मथ ! ) भविनाम् सांसारिकाणाम् मनः चित्तम् मनः भूः उत्त्पत्ति-स्थानं ( कर्मधा० ) तथाभूतस्य (ब० बी०) ते तव पिता जनकः अस्तीति Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 नैषधीयचरिते शेषः / तत् पितृभूतं मनः एनसि पापे परपुरुषाभिलाषरूपे इत्यर्थः निमज्जयन सजन प्रवर्तयन्निति यावत् त्वम् न लज्जसे ? न लज्जामवाप्नोषि ? त्वया सन्तः साधवः पुत्राः सूनवः ( कर्मधा० ) तेषाम् कथा इतिहासे उल्लेखः ( 10 तत्पु० ) अमुद्रि समापिता। शास्त्रेषु वयं पठामः सत्पुत्रा पितन् पुण्यकार्येषु प्रवर्तयन्ति त्वं तु दुष्टपुत्रोऽसि यत् स्वपितरं मनः परपुरुषाभिलाषे प्रवतयसीत्यर्थः इति इत्थम् सती पतिव्रता दमयन्ती धिया अन्तःकरणेन मन्मथं कामं निन्दतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) स्थिता // 138 // व्याकरण-भविनाम् भवः ( संसारः) एषामस्तीति भव + इन् (मतुबर्थ) भव: Vभू + अप् ( भावे ) / भूः भवत्यस्मादिति Vभू + क्विप् / अमुद्रि मुद्रायुक्तं करोतीति ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते' ) मुद्रा + णिच ( नामधा० ) Vमुद्रय् + लुङ् (कर्मवाच्य ) / धिया इसके लिए पिछला श्लोक देखिए। __ अनुवाद-"(ओ मन्मथ ! ) संसारी लोगों का मन, मन से उत्पन्न हुए तेरा, पिता है / उसे पाप में डुबोते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? तूने तो सत्पुत्रों की कथा पर सील मोहर लगा दी ( समाप्त कर दी ) है" इस तरह सती ( दमयन्ती ) मन्मथ की निन्दा किये जाती थी / / 138 / / टिप्पणी-ध्यान रहे कि यह उस समय की बात है जब कि देवदूत को नल न जानकर दमयन्ती का मन उसके सौन्दर्य की ओर आकृष्ट होता जाता था और सतीत्व की दृष्टि से वह उसे फटकारती जाती थी कि क्यों ऐसा कर रहा है / विद्याधर 'अत्र हेतुरलंकारः' कह रहे हैं / 'भुव' 'भवि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 138 // प्रसून मित्येव तदङ्गवणंना न सा विशेषात्कतमतदित्यभूत् / तदा कदम्बं तदणि लामभिमुंदश्रुणा प्रावृषि हर्षमागतैः // 169 // - अन्वयः-सा तदङ्ग-वर्णना (पूर्वम् ) प्रसूनम् इति एव अभूत् ततः कतमत् इति विशेषात् न ( अभूत् ) / तदा मुदश्रुणा प्रावृषि हर्षम् आगतः लोमभिः तत् कदम्बम् अवणि / ___टीका-सा प्रसिद्धा तस्याः दमयन्न्याः अङ्गस्य शरीरस्य वर्णना वर्णनम् (उभयत्र ष० तत्पु० ) पूर्वम् प्रसूनम् पुष्पम् इत्येव अभूत्, पूर्व तस्याः शरीरं Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः सामान्य-पुष्परूपेणव वर्ण्यते स्मेत्यर्थः किन्तु तन प्रसूनम् कतमत किजातीयम् इति विशेषात् विशेषरूपेण सा वर्णना न असूत / तदा दूतो नल एवास्तीति ज्ञानकाले मुदः हर्षस्य अश्रुणा अस्रेण प्रावृषि वर्षतौ हर्षम् उन्निद्रत्वम् आगतैः प्राप्तः उत्थितरित्यर्थः लोमभिः रोमभिः ( कर्तृभिः ) तत् दमयन्ती-शरीरम् कदम्बम् कदम्बपुष्पम् अवणि वर्णितम्, यदैव दमयन्त्या ज्ञातम् दूत-छद्मनि एष नलोऽस्तीति तदैव हर्षाश्रूणि स्रवन्ती हर्षे रोमाञ्चिता च सती सा शरीरतः प्रावृषि विकसितस्य रोमाञ्चवदुत्थितकेसरस्य कदम्बपुष्पस्य शोभां धत्ते स्मेति भावः // 130 // व्याकरण-वर्णना/ वर्ण + युच , यु को अन + टाप् / कतमत् किम् + डतमच ( निर्धारणे) / मुद्/मुद् + क्विप् ( भावे ) / अर्वाणVवर्ण + लुङ (कर्मवाच्य)। अनुवाद-उस ( दमयन्ती ) के शरीर का वर्णन ( पहले ) 'पुष्प है' यों सामान्य रूप से होता था। 'वह ( पुष्प ) कौन-सा है। इस तरह उसका विशेष रूप से वर्णन नहीं होता था ! अब ( नल का ज्ञान होते समय ) हर्ष के आंसुओं ने वर्षा-ऋतु में उठे रोमों ( रोमांचों-केसरों) ने वह (पुष्प ) कदम्ब कह दिया है / / 139 // टिप्पणी-आँसू बहना शोक और हर्ष-दोनों में होता है / पहले दमयन्ती के आंसू विरह-दुःख में झड़ी लगाते थे जैसे कि हम पीछे श्लोक 96 में देख आए हैं / अब अपने सामने नल को देखकर हर्ष के आंसुओं की झड़ी लगा रहे हैं / हर्षाश्रुओं के साथ 2 उसे रोमाञ्च भी हो रहा है। अब उसका शरीर कदम्ब पुष्प बना हुआ है जो वर्षाऋतु में विकसित होता है और और जिसके सीधे उठे हुए केसर रोमाञ्च का साम्य अपनाये रहते हैं। इस सम्बन्ध में सर्ग 5 का श्लोक 78 देखिए। यहां विद्याधर अतिशयोक्ति कह रहे हैं। वह इस रूप में है कि 'हर्षमागतः लोमभिः' में रोमाञ्चों और उत्थित केसरों का अभेदाध्यवसाय हो रखा है हर्ष उदय होने से भावोदयालङ्कार है / 'वर्ण' 'वणि' में छेक' अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 139 // मयैव संबोध्य नलं व्यलापि यत्स्वमाह मबुद्धमिद विमृश्य तत् / असाविति भ्रान्तिमसाद्दमस्वसुः स्वभाषितस्वोभ्रमविभ्रमक्रमः // 10 // Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '524 नैषधीयचरिते अन्वयः-मया एव नलम् सम्बोध्य यत् व्यलापि, तत् इदम् विमृश्य असौ मद्-बुद्धम् स्वम् आह-इति स्वभाषित क्रम (सन्) दमस्वसुः भ्रान्तिम् असात् / टीका - मया दमयन्त्या एव नलम् सम्बोध्य तस्य सम्बोधनं कृत्वा यत् व्यलापि ‘इयं न ते नैषध' इति ( 97 ) श्लोकाद् आरभ्य ‘ममादरीदं' (100) इति श्लोकपर्यन्तम् श्लोक-चतुष्टये विलापः कृतः तत् इदम् विलपितं विमृश्य विचार्य असौ नल: मया बुद्धं ज्ञातम् ( तृ० तत्पु० ) स्वम् आत्मानम् आह कथितवान् 'अयि प्रिये' (103) इत्यारम्य 'गिरानुकम्पस्व' (120) इति पर्यन्तम् प्रकाशितवानित्यर्थः दमयन्त्याश्वगतं 'स्वसम्बोधनपरकं मद्विलापमाकर्ण्य नलः 'अनयाऽहं ज्ञात' इति कृत्वा आत्मानं नलत्वेन प्राकटयदिति भावः, परमेष तस्या भ्रम एवासीत् इति स्वेन आत्मना भाषितः उक्तः ( तृ० तत्पु० ) स्वः स्वकीयः य उद्भ्रमः मोहः उन्माद इति यावत् ( उभयत्र कर्मधा० ) तस्य विभ्रमस्य विलसितस्य क्रमः परम्परा (उभयत्र 10 तत्पु० ) येन तथाभूतः (ब० वी० ) सन् असौ दमस्वसुः दमयन्त्याः भ्रान्तिम् भ्रमम् असात् खण्डितवानित्यर्थः / मया (नलेन ) यत् स्वनामप्रकाशनं कृतम् तत् 'मोहमहोमिनिमितं प्रकाशनम्' ( श्लोक० 127) आसीत् नतु, तत्त्वतः अनया अहं ज्ञातः, तत्किन्नाहं स्वनामास्याने प्रकाशयामीत्येत्कारणकृतम्' इति दमयन्त्या भ्रमगतः इति भावः / / 140 // व्याकरण-व्यलापि वि+Vलप + लुङ (भाव)। आह / + लट्, आह आदेश, यहाँ आसन्न भूत में वर्तमान है / असात् /षो ( अन्तकर्मणि )+ लुङ् / अनुवाद-"मैंने ही नल को संबोधित करके जो विलाप किया, मेरे इस ( विलाप ) पर विचार करके अपने को मेरे द्वारा जान लिया गया समझकर उन्होंने अपने ( नाम ) को प्रकट किया है'-दमयन्ती की इस भ्रान्ति को वे ( नल) उन्माद की चेष्टाओं के तांते के साथ स्वयं अपने कथन से दूर कर गए // 14 // टिप्पणी-भाव यह है कि निराश होकर दमयन्ती जब विलाप करने लगी थी, तो बीच-बीच में नल को इस प्रकार संबोधित करती जाती थी-'इयं न ते नैषध' ! इत्यादि / अपना सम्बोधन सुनकर नल ने समझा कि मेरे रूपादि से यह मुझे जान गई है कि दूत के छन्न में ये तो नल ही हैं, इसलिए अब क्यों न मै अपना दूत का मुखौटा उतार लूं और अपनी असलियत इसे बता दूं, इसलिए Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 525 उन्होंने “अयि प्रिये पुरस्त्वयालोकि नमन्नयं न कि तिरश्चलल्लोचनलोलया नलः" ( 103 ) / कहकर अपने को प्रकट कर दिया कि मैं नल ही हूँ। दमयन्ती यही बात समझ रही थी लेकिन यह उसकी भ्रान्ति थी, क्योंकि नल ने जो अपने को प्रकट किया वह अपनी उन्मादावस्था में प्रकट किया, होश में नहीं किया। अपनी उन्माद-भरी चेष्टाओं से वे इसे सिद्ध कर गए थे। इस तरह उनका आत्म प्रकाशन 'मोहमहोमिनिमितं प्रकाशनम् (127 ) था / दमयन्ती का भ्रम मिट गया और वह यह जानकर कि नल मेरे प्रेम में पागल बने रहे और अपना नाम तक बता गए बड़ी प्रसन्न हुई / यहाँ 'स्वोभ्रम-विभ्रम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 14 // विदर्भराजप्रभवा ततः परं त्रपासखी वक्तुमल न सा नलम् / पुरस्तमूचेऽभिमुखं यदत्रपा ममज्ज तेनैव महाह्रदे ह्रियः / / 14 // अन्वयः-ततः परम् सा विदर्भराजप्रभवा त्रपा-सखी सती नलम् वक्तम् अलम् न ( अभूत् ) / पुरः अत्रपा ( सती) अभिमुखम् यत् तम् ऊचे, तेन एव ह्रियः महाहदे ममज्ज / टीका-ततः तस्मात् नलनिश्चयात् परम् अनन्तरम् सा विदर्भाणां राजा विदर्भराजः ( 10 तत्पु० ) भीमः प्रभवः उत्पत्तिस्थानं ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ब० वी० ) वैदर्भी पाया: लज्जायाः सखी लज्जावती सतीत्यर्थः नलम् वक्तुम् अलम् समर्था न अभूदिति शेषः / पुरः पूर्वम् 'अयं नलः' इति निश्चयाभावकाले इत्यर्थः न पा लज्जा यस्याः तथाभूता ( ना ब वी० ) अभिमुखम् मुखम् अभिगतमिति ( अव्ययी० ) समक्षं यथा स्यात्तथा यत तम् नलम् ऊचे कथितवती तेन एव हेतुना ह्रियः लज्जायाः महान् विशालः ह्रदः सरोवरः ( कर्मधा० ) तस्मिन् ममज्ज निमग्नाऽभवत्, अत्यधिकलज्जिताऽभवदिति भावः // 141 // व्याकरण-प्रभवः प्रभवत्यस्मादिति प्र+भू + अप् / त्रपा/वप् + अ + टाप / ह्रिया हो + क्विप् ( भावे ) / हवं यास्कानुसार ह्रादने इति/ह्राद् + अच ह्रस्व निपातित / __ अनुवाद-तत्पश्चात् वह विदर्भराजपुत्री लज्जित होती हुई बोल न सकी। इससे पहले लज्जारहित हो उन्हें जो कुछ बोल पड़ी थी उससे ही वह लज्जा के सरोवर में डूबी जा रही थी // 141 / / Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 नैषधीयचरिते __ टिप्पणी-भारतीय संस्कृति के अनुसार स्त्रियों में यह बात पाई जाती है कि अपरिचित पुरुष के साथ लज्जा त्यागे कुछ बोल ही लेती हैं, लेकिन परिचित होते ही लज्जित हो उठती हैं। लज्जा पर महाह्रदत्व के आरोप में रूपक है / यद्यपि यहाँ 'ह्रियः' षष्ठी होने से उसका ह्रद से भेद बताया गया है और रूपक में उपमेय-उपमानों के तादात्म्य अर्थात् अभेद का नियम है, तथापि साहित्य में 'राहोः शिरः' की तरह भेद की कल्पना करके रूपक के ऐसे प्रयोग मिलते ही हैं। विद्याधर 'अत्र विरोधामासोऽलंकारः' कह रहे हैं / 'त्रपासखी' और 'अत्रपा' परस्पर विरुद्ध हैं / कालभेद से शीतोष्ण जल की तरह विरोध-परिहार हो जाता है। 'त्रपा, त्रपा' में छेक, 'मलं' 'नलम् ' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 141 // यदापवार्यापि न दातुमुत्तरं शशाक सख्याः श्रवसि प्रियस्य सा / विहस्य सख्येव तमब्रवीत्तदा ह्रियाऽधुना मौनधना भवत्प्रिया // 142 // अन्वयः-सा यदा अपवायं अपि सख्याः श्रवसि प्रियस्य उत्तरम् दातुम् न शशाक, तदा सखी एव विहस्य तम् अब्रवीत्-'भवत्प्रिया अधुना ह्रिया मौनधना ( अस्ति)"। ___टीका-सा वैदर्भी यदा यस्मिन् समये अपवार्य हस्तादिना व्यवधानं कृत्वा अपि सख्याः आल्याः श्रवसि कर्णे प्रियस्य प्रियाय उत्तरम् प्रतिवचनम् दातुम् वितरीतुं न शशाक न अशक्नोत् तदा तस्मिन् समये सखी एव विहस्य हासं कृत्वा तम् नलम् अववीत् अवोचत्-भवतः प्रिया प्रेयसी (ष० तत्पु०) अधुना इदानीम् ह्रिया लज्जया मौनम् तूष्णींभावः एव धनम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) मौनिनीत्यर्थः अस्तीति शेषः / / 142 // व्याकरण-अपवार्य अप + + णिच + ल्यप / श्रवस श्रयतेऽनेनेति Vश्रु+ असि ( करणे ) / ह्रिया इसके लिए पिछला श्लोक देखें। मौनम् मुनेर्भाव इति मुनि + अण् / प्रिया प्रीणातीति /पृ + क + टाप् / अनुवाद-वह ( दमयन्ती ) जब व्यवधान करके भी सखी के कान में प्रियतम के लिए इत्तर न दे सकी, तो सखी ही हंसकर उन्हें बोली- आपकी प्रियतमा अब लज्जा के मारे मौन की धनी बन गई है' // 142 / / टिप्पणी-“पहले आपके चित्र के आगे और आपके सामने भी यह बहुत Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 527 कुछ बोल गई है / अब बोलना बेकार है" इसी बात को मन में लाकर सखी हंसी भी है। विद्याधर 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं / 'प्रिय' प्रिया' और 'धुना' 'नना' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अपवार्य-कवि ने यह नाटक का एक पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त किया है। 'अपवार्य अथवा अपवारितकेन नाटक में एक 'नियत-श्राव्य' का भेद है अर्थात् जो बात सबके सुनने की न होकर किसी विशेष व्यक्ति के सुनने की होती है। इसमें-जिस एक ही व्यक्ति को बात सुनानी होती है उसे एक तरफ ले जाकर अथवा बोलते समय मुख के बगल में हथेली खड़ी करके, या फिर कानाफूसी करके कही जाती है, लेकिन दमयन्ती ने उत्तर देने में ऐसा कुछ नहीं किया। लाज से गड़ी रही // 142 // पदातिथेयाँल्लिखितस्य ते स्वयं वितन्वती लोचननिर्झरानियम् / जगाद यां सैव मुखान्मम त्वया प्रसूनबाणोपनिषन्निशम्यताम् // 143 // अन्वयः-(हे नल ! ) इयम् लोचन-निझरान् स्वयम् लिखितस्य ते पदातिथेयान् वितन्वती याम् ( पञ्चबाणोपनिषदं ) जगाद, सा एव पञ्चबाणोप'निषद् मम मुखात् त्वया निशम्यताम् / टीका-(हे नल ! ) इयम् भैमी लोचनयोः नयनयोः निर्झरान् निर्झरवत् अश्रुप्रवाहान् (ष० तत्पु० ) स्वयम आत्मना लिखितस्य चित्रितस्य ते तव पदयोः चरणयोः आतिथेयान् अतिथिषु साधून ( स० तत्पु० ) आतिथ्य-रूपेण पदोदकरूपानित्यर्थः वितन्वती प्रकुर्वती याम् पञ्चबाणस्य पञ्च बाणा यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः उपनिषदम् रहस्यम् जगाद तवात्रागमनात् पूर्वमकथयत्, सा पञ्चबाणोपनिषद् एव मम मुखात् वक्त्रात् त्वया निशम्यताम् श्रूयताम् स्वयं पटे भित्तो वा तव चित्रं निर्माय त्वद्-वियोगेऽणि धारारूपेण प्रवाहयन्ती एषा चित्रात्मक-त्वदग्रे यां रहस्यात्मिकी स्वहृदयवेदनां व्यनक्तिस्म, तामेवाहं तवाने यथातथं निवेदयामीति भावः / / 143 / / व्याकरण-आतिथेयान् अतिथिषु साधुः इति अतिथि + ढन् / उपनिषद् उप = समीपे (गुरोः) निषद्य = स्थित्वा ज्ञायते इति उप + नि+सद् + क्विप्, स को ष। अनुवाद-"( हे नल ! ) यह ( तुम्हारी प्रेयसी) स्वयं ( अपने हाथ से) खोंचे तुम्हारे चित्र के चरणों का आँखों के झरनों द्वारा आतिथ्य करती हुई Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 नैषधीयचरिते जिस ( काम-रहस्य ) को उघाड़ती रहती थी, वही ( काम-रहस्य ) मेरे मुख से सुनो" // 143 // टिप्पणी-भारतीय संस्कृति के अनुसार अतिथि का पहले पादोदक से आतिथ्य करना होता है। चित्ररूप में घर आये तुम्हारे चरणों को वह अश्रुजल रूप में पादोदक देती रहती थी अर्थात् तुम्हारे चित्र के आगे वियोग-व्यथा के कारण इसकी आँखों से झरना-जैसा अश्रु-प्रवाह होता रहता था। तब यह जो कहती रहती थी, उसे ज्यों की त्यों मैं दोहरा देती हूँ। यहाँ अश्रु-प्रवाहों का निझरों के साथ अभेदाध्यवसाय होने से अतिशयोक्ति है। शब्दालंकार वृत्त्य. नुप्रास है // 143 // असंशयं स त्वयि हंस एव मां शशंस न त्वद्विरहाप्तसंशयाम् / क्व चन्द्रवंशस्य वतंस! मद्वधान्नृशंसता संभविनी भवादृशे // 144 / / अन्वयः-हे चन्द्रवंशस्य वतंस ! स एव हंसः माम् त्वद्विरहाप्तसंशयाम् त्वयि असंशयम् न शशंस / भवादृशे मद्वधात् नृशंसता क्व संभविनी ? टीका-हे चन्द्रस्य चन्द्रमसः वंशस्य कुलस्य (10 तत्पु० ) वतंसः ! अवतंस: भूषणं नलः इत्यर्थः स हंसः सुवर्णहंसः एव निश्चयेन माम दमयन्तीम् तव विरहः वियोगः (10 तत्पु० ) तेन आप्तः प्राप्तः संशयः जीवनसन्देहः ( तृ. तत्पु० ) यया तथाभूताम् (ब० वी०) सतीम् त्वयि त्वदने असंशयम् न संशयो यस्मिन् कमणि यथास्यात्तथा ( ब० वी० ) न शशंस कथयामास, अहं त्वद्वियोगकारणात् प्राणसन्देहे स्थिताऽस्मीति हंसेनैव त्वं न सूचितोऽसीति भावः / (अन्यथा) भवादृशे भवत्सदृशे सुकुलोत्पन्ने, सौन्दर्यादिगुणवति वीर-पुरुषे मम वधः हिंसा तस्मात् (10 तत्पु० ) नृशंसता हिंसकता, क्रूरतेत्यर्थः ( 'नृशंसो घातुकः क्रूरः' इत्यमरः ) क्व कुत्र संभविनो संभाव्या न क्वापीति काकुः / अत्र हंसस्यवापराधः न तवेति भावः // 144 // व्याकरण-वतंसः भागुरि के अनुसार विकल्प से अवतंस शब्द में अव उपसर्ग के अ का लोप हो रखा है। अवतंस्यते (अलंक्रियते) अनेनेति अव + तंस +घञ् ( करणे ) / संशयः सम् + शी + अच् ( भावे ) / भवादृशे भवत् + Wश + कन, आत्व / नृशंसता शंसति ( हन्ति, ) इति /शंस + अच् (कर्तरि), नृणां शंसः तस्य भावः तत्ता। संभविनी संभवोऽस्या अस्तीति संभव + इन (मतुबर्थ ) + ङीप् / Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 नवमः सर्गः 529 अनुवाद-“हे चन्द्रवंश के भूपण ! निस्सन्देह उस हंस ने ही तुम्हारे पास नहीं कहा है कि तुम्हारे विरह के कारण मेरे प्राण संकट में पड़े हुए हैं, नहीं तो आप-जैसे में वह क्रूरता कहाँ संभव कि मुझे मार दे?" // 144 / / टिप्पणी-कुलीन वीर पुरुष दयालु हुआ करते हैं / वे किसी को भी मार डालने की क्रूरता नहीं अपना सकते / विद्याधर यहाँ हेतु अलंकार कह रहे हैं, 'संशय' 'संशया' में छेक, 'शंस' 'हंस' 'शंस' 'संश' 'वंश' 'तंस' 'शंस' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास है // 144 // जितस्त्वयास्येन विधुः स्मरः श्रिया कृतप्रतिज्ञौ मम तौ वधे कुतः / तवेति कृत्वा यदि तज्जितं मया न मोघसङ्कल्पधराः किलामराः // 115 / __ अन्वयः-(हे नल ! ) विधुः त्वया आस्येन, स्मरः (च) श्रिया जितः / तो मम वधे कुतः कृतप्रतिज्ञो ? यदि 'तव' इति कृत्वा ( कृतप्रतिज्ञौ ) तत् मया जितम् किल अमराः मोवसंकल्पधराः न / टीका--( हे नल ! ) विधुः चन्द्रः त्वया आस्येन मुखेन जितः परास्तः, श्रिया शरीरशोभया च स्मरः कामः जितः; तव मुखं चन्द्रातिशायि सौन्दर्यञ्च कामदेवातिशयि अस्तीत्यर्थः / तौ चन्द्रस्मरी मम मे दमयन्याः वधे मारणे कुतः कस्मात् कारणात् कृता विहिता प्रतिज्ञा प्रणः याभ्याम् तथाभूती (ब० वी० ) / तयोः विजेता त्वमसि, अतः त्वमेव तयोरपराधी, न त्वहम्, तत् निरपराधायां मयि कुतस्तयोः कोपः पीडा चेति न ज्ञायते / यदि चेत् 'तव' अहं त्वदीया प्रियतमास्मीति कृत्वा कारणात् मम वधाय ती कृतप्रतिज्ञो स्तः अर्थात् आवयोः जेतुः नलस्यापकारं कर्तुं न कथमप्यावां शक्नुवः, तहि कि न तदीयायाः प्रियायाः दमयन्त्याः अपकारं कुर्वः, एतेन परम्परया तस्याप्यपकारी भवत्येवेति मत्वा तो चेत् मामपकुरुतः, तत् तहि मया जितम् मम विजयो जातः, देवरूपाभ्याम् विधुस्मराभ्याम् अङ्गीकृतमेव अहं त्वत्प्रियास्मि न तु अन्यस्य कस्यापीति भावः / किल यस्मात् अमराः देवाः मोघः विफल: संकल्प: विचारः ( कमंधा० ) तस्य घराः धारयितारः न भवन्तीत्यर्थः अर्थात् देवाः सत्यसंकल्पा भवन्ति, यच्चित्ते चिन्तयन्ति तत् अवश्यं भवतीति यावत् / अहं तव प्रिया अवश्यं भविष्यामीति भावः // 145 // व्याकरण--वध: Jहन् + अप वधादेश / प्रतिज्ञा प्रति + /ज्ञा+ अ + Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 नैषधीयचरिते टाप् / अमराः पीछे श्लोक 134 देखें। घर: घरन्तीति /धृ + अच् ( कर्तरि ) / __ अनुवाद-"( हे नल ! ) चन्द्रमा तुमने मुख से जीता है और कामदेव सौन्दर्य से। वे मुझे मारने क्यों प्रतिज्ञा किये बैठे हैं ? यदि 'मैं तुम्हारी हैं यह कारण है, तो मेरी विजय है, क्योंकि देवता सत्य-संकल्प हुआ करते है" // 145 // टिप्पणी-चन्द्र और काम-दोनों विरहियों को बड़े सताते हैं। दमयन्ती को भी सता रहे हैं, मारने तक को ठाने हुए वैठे हैं। दमयन्ती चित्र-गत नल से पूछती हैं कि ये दोनों तुम्हें तंग करें, तो बात कुछ बनती भी है. क्योंकि तुमने इन दोनों को पछाड़ रखा है, लेकिन मैंने इनका क्या बिगाड़ा है ? संभवतः ये यह सोच रहे होंगे कि मैं तुम्हारी प्रिया हूँ, इसलिए तुम न सही, तुम्हारी प्रिया को तंग करके क्यों न दिल की भड़ास निकालें / शत्रु न सही शत्रु की चीज का ही नुकसान हो जाय या उसके सम्बन्धी को तंग किया जाय / पर्वतीय भाषा की कहावत है—'वैरी का बाछरा पिजायाँ को सुख' / ऐसी बात है तो मैं जीत गई है क्योंकि विधु एवं काम-दोनों देवता हैं और देवताओं के मन में जो विचार अथवा बात आती है, वह सच होकर ही रहती है। यहाँ नल न सही यह प्रत्यनीक अलंकार है (काव्यप्र०-'प्रतिपक्षमशक्तेन प्रतिकतुं विरस्क्रिया / या तदीयस्य तत्स्तुत्य प्रत्यनीकं तदुच्यते॥) अन्तिम पाद में कारण बताने से काव्यलिङ्ग है, जिसका उसी पाद से पूर्वोक्त का समर्थन होने से बनने वाले अर्थान्तर के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर है। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं। 'धराः' 'मराः' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / / 145 // निजांशुनिर्दग्धमदङ्गभस्मभिर्मुधा विधुर्वाञ्छति लाञ्छनोन्मजाम् / त्वदास्यतां यास्यति तावतापि किं वधूवधेनैव पुनः कलङ्कितः // 146 // अन्वयः-विधुः निजांशु "भस्मभिः लाञ्छनोन्मृजाम् मुधा वाञ्छति / तावता अपि त्वदास्यताम् यास्यति किम् ? वधू-वधेन पुनः कलङ्कित एव / टीका-विधुः चन्द्रः निजाः स्वीयाः ये अंशव: किरणाः (कर्मधा० ) तैः निर्दग्धम् भस्मीकृतं ( तृ• तत्पु० ) यत् मदङ्गम् ( कर्मधा० ) मम अङ्गम् शरीरम् Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः ( न० तत्यु०) तस्य भस्मभिः भूतिभिः ( तृ० तत्पु० ) लान्छनस्य स्वगतकलंकस्य उन्मजाम् प्रोञ्छनम् निराकरणमित्यर्थः (10 तत्पु० ) मुधा वृर्थव वाञ्छति इच्छति, तावत्, अपि मदनभस्मभिः स्वलाञ्छनस्य प्रोञ्छने कृतेऽपि तव आस्यताम् मुखत्वम् (10 तत्पु०) त्वन्मुखसादृश्यमित्यर्थः यास्यति प्राप्स्यति किम् ? नैवेति काकुः / अयं भाव: निष्कलङ्कन नलमुखेन सादृश्यं प्राप्तुं चन्द्रो मां दग्ध्वा मच्छरीरभस्मना स्वकलङ्क परिमार्जयितुमिच्छति चेत् तर्हि व्यर्थोऽयं तस्य प्रयासः, यतः वध्वाः स्त्रियः वधेन मारणेन (10 तत्पु० ) पुनः मुहुः स कलङ्कितः कलङ्कयुक्त एव स्थास्यति, तस्मात् त्रिकालेऽपि चन्द्रः त्वदास्यसादृश्यं न लब्धुमलमिति भावः // 146 // व्याकरण-लाञ्छनम्/लाञ्छ् + ल्युट / उन्मजा उत् + मृज् + अ + टाप् / कलङ्कितः कलङ्कः सञ्जातोऽस्येति कलङ्क + इतन् / अनुवाद-“चन्द्रमा अपनी किरणों से खूब जलाये हुए मेरे शरीर की राख द्वारा (निज ) कलंक को ( रगड़ कर ) व्यथं ही मिटाना चाह रहा है। उतने से भी वह तुम्हारा मुख (-जैसा) नहीं बन सकता है। स्त्री-वध से वह कलंक वाला फिर बन जाएगा" // 146 // टिप्पणी-विरहिणी होने के कारण चन्द्रमा दमयन्ती को बुरी तरह सता रहा है, इस लिए फूक रहा है कि उसकी देहभस्म से रगड़कर वह अपने भीतर का कलंक मिटा देगा। दर्पण पर लगे दाग को लोग राख द्वारा मिटाते ही हैं कि वह स्वच्छ हो जाय। इससे चन्द्रका आशय यह निकला कि कलंक मिट जाने पर वह तुम्हारे चेहरे-जैसा निष्कलंक हो जाएगा और फिर उससे खूब टक्कर ले सकेगा लेकिन वह मूर्ख है, यह नहीं जानता कि मुझे फूक देने पर वह स्त्री-वध के कलङ्क से कलङ्कित हो फिर कलङ्कित का कलंकित ही रहजायगा / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं सम्भवतः इसलिए कि विभिन्न कलंको का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। मल्लिनाथ विषमालंकार कह रहे हैं, क्योंकि दमयन्ती की देह-भस्म से चन्द्र निज कलङ्क पोछने जा रहा था कि इसका परिणाम उल्टा और कलंक लगजाना बताया गया है। गए थे अपना भला करने उल्टा बरा हो बैठा ('यद्वारब्धस्य वैफल्यमनार्यस्य च संभवः' (विषमः) / 'स्यता' स्यतिः 'वधू-वधे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 146 // Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 नैषधीयचरिते प्रसीद यच्छ स्वशरान्मनोभुवे स हन्तु मां तैर्युतकोसुमाशुगः / त्वदेकचिताहमसून्विमुञ्चती त्वमेव भूत्वा तृणवज्जयामि तम् // 147 // ____ अन्वयः- ( हे प्रिय ! ) प्रसीद / स्वशरान् मनोभुवे यच्छ / धुत-कौसुमाशुगः स तैः मां हन्तु / अहम् त्वदेकचित्ता ( सती ) असून् विमुञ्चती त्वम् एव भूत्वा तृणवत् जयामि / टीका-हे प्रिय नल ! प्रसोद ममोपरि प्रसन्नो भव / स्वाः स्वकीयाः शराः बाणाः तान् ( कर्मधा० ) अथवा स्वस्य आत्मनः शरान् (10 तत्पु० ) मनोभुवे कामाय यच्छ देहि धुता: त्यक्ताः कौसुमाः पौष्पाः आशुगाः बाणा: ( उभयत्र कर्मधा० ) येन तथाभूतः ( ब० वी० ) स कामः तेः त्वदीयवाणः माम् हन्तु हिंसतु / कामबाणा: कुसुममयत्वात् बहु पीडयित्वा-पीडयित्वा चिरेण प्राणान् हरिष्यन्ति, तव शरास्तु लोहमयत्वात् तीक्ष्णत्वाच्च सपद्येवेति भावः / अहम् त्वयि एकस्मिन् केवले चित्तम् ( स० तत्पु० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी०) सती असून् प्राणान् विमुञ्चती त्यजन्ती त्वम् एव भूत्वा त्वन्मयीभूय मरणानन्तरम् जन्मान्तरे त्वद्रूपमवाप्येत्यर्थः तम् कामम् तृणवत् तृणमिव मत्वा जयामि नेष्यामि / त्वया निजसौन्दर्येण कामो जितः अहमपि जन्मान्तरे त्वमेव भूत्वा तं जेष्यामीति भावः // 147 / / व्याकरण-प्रसीद प्र + /सद् + लोट्, सीदादेश / मनोभुवे मनस् + Vभू + क्विप्, च० / यच्छ दा + लोट् यच्छादेश / कौसुम कुसुमस्यायमिति कुसुम + अण् / आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + ड। विमञ्चती वि + /मुञ्च+ शतृ + ङीप् विकल्प से नुम् का अभाव / जयामि आशंसा में वर्तमानकाल है। अनुवाद-"( ओ प्रिय ! ) प्रसन्न हूजिए। अपने बाण कामदेव को दे दीजिए / फूलों के बाणों को त्यागे वह उनसे मुझे मारे / मैं केवल तुम पर ही अपना चित्त लगाये प्राण त्यागती हुई त्वद्रूप बनकर ( अगले जन्म में ) उसे तृणवत् परास्त कर दूंगी" // 147 // टिप्पणी-भारतीय संस्कृति के अनुसार मरण-समय में प्राणी की जैसी भावना रहती है, उसी तरह वह अगले जन्म में बनता है, इसके लिए देखिए शास्त्र-मरणे यादृशी जन्तोर्भावना यस्य जायते / तादृशं लभते जन्म स भूयो हि Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः स्वकर्मभिः // गीताकार का भी यही कहना है—यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् / तं तमेवैति कौन्तेय ! सदा तद्भाव-भावितः तणवत् मैं उपमा है / विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं / "माशु" मसून में ( शसयोरभेदात् ) छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्राय है / // 147 // श्रुतिः सुराणां गुणगायनी यदि त्वद िमग्नस्य जनस्य किं ततः। स्तवे रवेरप्सु कृताप्लवैः कृते न मुद्वती जातु भवेत्कुमुद्वती // 148 / / अन्वयः -- श्रुतिः यदि सुराणाम् गुणगायनी ( अस्ति ) ततः त्वदध्रिमग्नस्य जनस्य किम् ? अप्सु कृता प्लवै: रवः स्तवे कृते अपि कुमुदती जातु मुद्वती न भवेत् / ___टीका-श्रुतिः वेदः यदि सुराणाम् देवानाम् इन्द्रादीनामिति यावत् गुणानां शौर्यादीनाम् गायनी गायिका अस्तीति शेषः ततः तहि तव अज्री पादौ (ष० तत्पु. ) तयोः मग्नस्य बुडितस्य त्वच्चरणानन्यरागिणः इत्यर्थः ( स० तत्पु० ) जनस्य ममेत्यर्थः किम् ? देवगुणगानेन मे नकिमपि प्रयोजनमित्यर्थः अहं त्वय्यनुरक्तास्मि, देवगुणस्तुतिश्रवणेन त्वदनुरागं त्यक्त्वा कथमपि देवानुरक्ता न भविष्यामीति भावः / अप्सु जले कृतः विहितः ( स० तत्पु० ) आप्लवः स्नानम् ( कर्मधा० ) यः तथाभूतः ( ब० वी० ) पुरुषः रवेः सूर्यस्य स्तवे स्तुती कृते विहिते अपि कुमुदती कुमुदिनी जातु कदाचिदपि मुद् आनन्दोऽस्या अस्तीति मुद्वती प्रसन्ना न भवेत् न स्यात् / कुमुदिनी खलु चन्द्रानुरागिणी भवति, रात्र्यपगमे कृतस्नानैः ब्राह्मणैः कृतां सूर्यस्तुति श्रुत्वाऽपि चन्द्रं विहाय कुमुदिन्याः सूर्येऽनुरागो यथा नोदेति, तथैव त्वाम् ( नलम् ) विहायेन्द्रादिदेवेषु वेदैः स्तूयमानेष्वपि सत्सु तेषु न मेऽनुराग उदेतीति भावः // 148 // ___ व्याकरण-श्रुतिः श्रूयते इति + + क्तिन् ( कर्मणि ) / गायती गायतीति गै+ ल्युट ( कर्तरि ) + ङीप् / आप्लवः स्तवः/प्लु, स्तु + अप् ( भावे ) / कुमुद्धती कुमुद् + मतुप, वत्व / कुमुद् को-पृथिव्यां ( रात्री) मोदते ( विकसति ) इति कु + /मुद् + क्विप् ( कर्तरि ) / मुदती मुद् + मतुप् वत्व + ङीष् / मुद् मुद्यते इति /मुद् + क्विप् (भावे ) / अनुवाद-"वेद यदि ( इन्द्रादि ) देवताओं का गुणगान करने वाला है तो तुम्हारे चरणों में मग्न हुई मेरा इससे क्या प्रयोजन ? जलस्नान किये Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते लोगों द्वारा सूर्य की स्तुति करने पर भी कुमुदिनी कभी प्रसन्न नहीं होगी" // 148 // टिप्पणी-मैं अनन्य निष्ठा के साथ एकमात्र तुम पर ही अनुरक्त हूँ। वेदादि शास्त्र इन्द्रादि की स्तुति करें, तो करें, मैं उससे जरा भी प्रभावित नहीं होती है। इस बात में कवि ने समानान्तर कुमुदिनी का दृष्टान्त दे रखा है, अतः दोनों में बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव होने से दृष्टान्तालंकार हैं / मुद्वती' 'मुद्वती' में यमक 'कृता' 'कृते' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 148 // कथासु शिष्य वरमद्य न ध्रिये ममावगन्तासि न भावमन्यथा। त्वदर्थमुक्तासुतया सुनाथ! मां प्रतोहि जीवाभ्यधिक! त्वदेकिकाम् // 149 / / अन्वयः-कथासु शिष्य, वरम्, अद्य न घ्रिये, अन्यथा मम भावम् न अवगन्तासि / सुनाथ | जीवाभ्यधिक ! त्वदर्थमुक्तासुतया माम् त्वदेकिकाम् प्रतीहि / टीका-कथासु स्मृतावित्यर्थः शिष्यै अवशिष्टा भवानि म्रियै इत्यर्थः वरम् मनाक् प्रियम्; अब न ध्रिये न जीवामि इदं मत्कृते समुचितं यदद्य कथावशेषा भवेयम्, न पुनः जीवेयमिति भावः अन्यथा मम मरणाभावे, मयि जीवन्त्यां सत्यामिति यावत् त्वम् मम मे भावम् अनुरागम् न अवगन्तासि ज्ञास्यसि माम् मृतां दृष्ट्व त्वं ज्ञास्यसि अस्या मयि कियदधिकानुराग आसीदित्यर्थः / सुः शोभनो नाथ: स्वामी ( प्रादि स० ) तत्सम्बुद्धौ जीवात् प्रारणेभ्योऽपि अभ्यधिक: (पं० तत्पु० ) अतिप्रिय इत्यर्थः तत्सम्बुद्धी तुभ्यमिति त्वदर्थम् ( चतुर्थ्यथें अर्थेन नित्यसमासः ) मुक्ताः परित्यक्ताः असवः प्राणाः ( कर्मधा० ) यया तथाभूतायाः (ब० वी० ) भाव इति तत्ता तया माम् त्वम् एव एक: मुख्यः (कमधा० ) यस्याः तपाभूताम् (ब० वी०) प्रतीहि जानीहि / त्वम् जीवितात् अप्यधिकोऽसि, अतः त्वदर्थे जीवं त्यक्त्ववाहम् एतद् लोके दर्शयितुमिच्छामि; लोकमुखात् मन्मरणं श्रुत्वैव च त्वं विश्वसिष्यसि मयि दमयन्त्याः कियदधिकानुराग आसीत् इति भावः // 149 // . ___ व्याकरण-शिष्य/शिष् (दिवादि ) + लोट् उ० पु० / ध्रिये धुङ् + लट् उ० पु०, रिङादेश / अवगन्तासि अव + गम् + लुट् + म० पृ० / त्वदेकिकाम् विकल्प से क समासान्त / प्रतीहि प्रति + इ + लोट म० पु० / Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 535 अनुवाद-"अच्छा है कि मैं कथावशेष-मात्र बन जाऊँ, आज जीती न रहूँ, नहीं तो तुम मेरे अनुराग को नहीं जानोगे। ओ भले स्वामी! प्राणों से भी अधिक ! प्यार ) ! तुम्हारे लिए प्राण न्यौछावर कर देने से तुम जानोगे कि तुम ही मेरे एकमात्र रहे" / / 149 // टिप्पणी-नारायण के अनुसार दमयन्ती नल को छिपा हुआ ताना भी कस रही है और वह यह कि सुनाथ तो सेवक को कोई काम देकर अपने प्रति उसके अनुराग की परीक्षा ले लेते हैं / तुम देखो तो सुनाथ ही नहीं, असुनाथ भी हो / प्राण न्योछावर किये विना अनुराग नहीं जानोगे। अच्छे सुनाथ निकले। विद्याधर के शब्दों में 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 150 // महेन्द्रहेतेरपि रक्षणं भयाद्यदर्थिसाधारणमस्त्रभूव्रतम् / प्रसूनबाणादपि मामरक्षतः क्षतं तदुच्चैरवकीर्णिनस्तव / / 150 // अन्वयः-महेन्द्र-हेतेः अपि भयात् रक्षणम् यत् अथि-साधारणम् अस्त्रभृद्प्रतम् (भवति), प्रसूनबाणात् अपि माम् अरक्षतः अवकीणिनः तव तत् उच्चैः क्षतम् / ____टीका-महेन्द्रस्य शक्रस्य हेतेः आयुधात वज्रादिति यावत् (प० तत्पु० ) मपि भयात् भीतेः रक्षणम् त्राणम् यत् अर्थिषु प्रार्थिषु शरणमागतेषु इति यावत् साधारणम् समानम् ( स० तत्पु० ) भवतीति शेषः स्त्री वा पुरुषो वा सम्बन्धी वा असम्बन्धी वेत्यादिकम् कमपि भेदभावम् न कृत्वा आचर्यमाणमित्यर्थः अस्त्राणि आयुधानि विभ्रति धारयन्तीति तथोक्तानाम् शूरवीराणां क्षत्रियाणाम् ( उपपद तत्पु० ) व्रतम् नियमः भवतीति शेषः, प्रसून पुष्पम् एव बाणः शरः (कमंधा०) तस्मात् कामस्य कौसुमबाणादित्यर्थः अपि माम् स्त्रियम् अरक्षतः अत्रायमाणस्य अवकोर्णिनः क्षतव्रतस्य ( 'अवकीर्णी क्षतवतः' इत्यमरः ) भग्न-व्रतस्येति यावत् तव ते तत् अपिसामान्यरक्षणव्रतम् उच्चैः अतितराम् यथा स्यात्तथा क्षतम् नष्टं जातमिति शेषः // 15 // व्याकरण-हेतिः हन्यतेऽनेनेति/हन् + क्तिन् ( करणे) एत्व निपातित / हेत, भयात् दोनों को 'भीत्रार्थानां भयहेतुः' (1 / 4 / 25 ) से अपादानत्व / अर्थी अर्थयते इति /अर्थ + इन् ( कर्तरि ) / बराम् यास्कानुसार 'आवियतेऽनेनेति' Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 नैषधीयचरिते Vवृ + क्त (करणे ) सम्प्रसारण / अवकोर्णी अवकीर्णम् अस्यास्तीति अवकीर्ण + इन् (मतुबर्थ), अवकीर्णम् अव कृ + क्त ( भावे) = ब्रह्मचर्यनियममुल्लङ्य शुक्रस्य विकिरणम् / यद्यपि अवकीर्णी शब्द मूलतः ब्रह्मचर्य-व्रत भंग करने वाले के लिए प्रयुक्त होता है, देखिए मनु--'अवकीर्णी भवेद् गत्वा ब्रह्मचारी तु योषितम्'। ( 33155) तथापि साधारणतः कोई भी धार्मिक व्रत भंग करने वाले में भी यह प्रयुक्त हो जाता है / अनुवाद-"इन्द्र के शस्त्र ( वज्र ) तक के भी भय से संरक्षण देना जो शस्त्रधारियों का प्रार्थी-साधारण व्रत हुआ करता है फूल के बाण से भी मेरी रक्षा न करते हुए, ( अतएव ) नियम भंग करने वाले तुम्हारा वह ( व्रत ) टूट गया है // 150 // टिप्पणी-कालिदास ने भी क्षत्रियों का व्रत 'क्षतात् किल त्रायत' इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः' कहा है। और तो और रहा, वे इन्द्र के वज्र तक के क्षत' से भी शरणागत की रक्षा करते हैं। एक तुम भी क्षत्रिय हो, जो इन्द्र के वज्र से रक्षा करना तो दूर रहा, काम के फूल के बाण तक से भी मेरी रक्षा नहीं कर सक रहे हैं। यह भी दमयन्ती की नल पर बड़ी चुभती फबती है। विद्याधर यहाँ भी “अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कह गए हैं। हमारे विचार से 'हेतेरपि' 'बाणादपि' में दो अर्थापत्तियों की संसृष्टि है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 150 // तवास्मि मां घातुकमप्युपेक्षसे मुषामरं हाऽमरगौरवात्स्मर / अवेहि चण्डालमनङ्गमङ्ग ! तं स्वकाण्डकारस्य मधोः सखा हि सः / / 151 // __ अन्वयः-( अहम् ) तव अस्मि; भाम् घातुकम् अपि मृषामरम् स्मरम् अमरगौरवात् उपेक्षसे अङ्ग ! तम् अनङ्गम् चण्डालम् अवेहि, हि सः स्वकाण्डकारस्य मधोः सखा ( अस्ति)। टीका-अहम् तव त्वदीया अस्मि, तथापि त्वम् माम् धातुकम् हन्तारम् मृषा मिथ्या अमरम् देवम् ( सुप्सुपेति समासः ) स्मरम् कामम् अपरेषु गौरवम् अमरविषयक-महत्त्वम् तस्मात् ( स० तत्पु० ) उपेक्षसे उपेक्षां नयसि, मिथ्यादेवम् स्मरम् तारिवकदेवबुद्धया आद्रियसे, न मारयसि चेति भावः / अङ्ग इति संबोधनम् तम् अनङ्गम् कामम् चण्डालम् चण्डालजातीयम् अन्त्यजविशेषमिति Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् अवेहि जानीहि, न तु देवम् हि यतः स कामः स्वस्य आत्मनः कामस्येत्यर्थी काण्डान् पुष्परूपबाणान् (ष० तत्पु०, करोतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु०) ('काण्डोऽस्त्रीदण्डबाणा' इत्यमरः) मधोः वसन्तस्य सखा मित्रम् अस्तीति शेषः / बाणकारो हि चण्डालो भवति; वसन्तः कामाय ( पुष्परूपान् ) बाणान निर्माय ददाति, वसन्ते पुष्पबहुत्वात् / चण्डालवसन्तस्य सखा च कामः, तस्मात् चण्डालसंसर्गहेतोः कामस्यापि चण्डालत्वमेव यथोक्तम् शास्त्रेषु-'तत्संसर्गी च पञ्चमः' ( चण्डाल: ) तस्मात् नल ! स्वया कामो मार्यतामेवेति भावः // 151 // व्याकरण-धातुकम् हन्तीति हन् + उकन, 'न लोका० ( 2 / 3 / 69 ) से षष्ठो-निषेध / गौरवात् गुरोः भाव इति गुरु + अण् / काण्डकारात् काण्ड + Vकृ + अण् ( कर्मणि ) / अनुवाद-"( मैं ) तुम्हारी है। मुझे मार डालने वाले मठे देवता काम को भी ( सच्चे ) देवताओं का गौरव देने के कारण तुम छोड़े जा रहे हो / जो प्रिय ! उस काम को तुम चण्डाल समझो, क्योंकि उसके लिए बाण बनाने वाला वसन्त उसका सखा है" / / 151 // टिप्पणी-वसन्त काम का मित्र कहा गया है, जो काम हेतु बाण बनाया करता है। बाण लोहार बनाते हैं, जो चण्डाल जाति में आते हैं। इस लिए कामको भी चण्डाल ही समझो। वह यों ही अपने को झूठमूठ देवता कहलवाता है। जो निरपराध स्त्रियों का वध करता है, वह देवता काहे का, अतः उसे मार डालो और वह इसलिए भी कि मैं जो तुम्हारी प्रिया हूँ, उसी को मार रहा है। तुम्हें अपनों की तो रक्षा करनी ही चाहिए। तुम कैसे नाथ हो? विद्याधर यहाँ भी 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं / सम्भवतः इसलिए कि कामदेव का देवों से अभेद होने पर भी भेद बताया गया है। काव्यलिङ्ग स्पष्ट ही है। 'मरं' 'मर' में छेक, 'नङ्गमङ्ग' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 151 // लघी लघावेव पुरः परे बुधविधेयमुत्तेजनमात्मतेजसः / अन्वयः-बुधैः पुरः लघी लघौ एव परे आत्म-तेजसः उत्तेजनम् विधेयम् खलु ज्वलनः तृणे ज्वलन् क्रमात् करीष"लम् तृणेढि / Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 नैषधीयचरिते __ टोका-बुबै विद्वद्भिः पुरः प्रथमम् लषौ लघौ दुर्बले दुर्बले परे शत्री आत्मन: स्वस्थ तेजसः शौर्यस्य पराक्रमस्येति यावत् (10 तत्पु० ) उत्तेजनम् तीक्ष्णीकरणम् समुद्दीपनमिति यावत् विधेयम् कार्यम् वीरेः प्रथम लघु-लघु-शत्रुष्वेव खलु यतः ज्वलन: अग्निः आदी तृणे घासे ज्वलन् दीप्यमानः क्रमात् क्रमशः उत्तरोत्तरम् करोषाः शुष्कगोमयाश्च दुमकाण्डाश्च (द्वन्द्व) द्रुमाणां वृक्षाणां काण्डा दण्डाः मण्डलम् समूहम् तृणेढि हिनस्ति दहतीत्यर्थः। यथाग्निः प्रथमं लघु-लघु तृणं विनाश्य पश्चात् प्रबल-प्रबलतरं करीषादि विनाशयति तथैव त्वयाऽपि अग्नेरनुकरणं कर्तव्यमित्यर्थः, लघु-शत्रुरेष कामः विनाशयितव्य इति भावः // 152 // व्याकरण-बुषः बोधतीति/बुध् + क ( कर्तरि)। लघौ लघौ प्रकार-वचन में द्विरुक्ति / उत्तेजनम् उत् +/तिज + ल्युट ( भावे ) / ज्वलन: ज्वलतीति Vज्वल + ल्यु (कर्तरि ) / द्रुमः द्रुः ( शाखा ) अस्यातीति दू + म ( मतुबर्थ ) / तपेटि/तृह + लट् / अनुवाद-"विद्वान लोगों को चाहिए कि वे छोटे-छोटे शत्रुओं पर पहले बपना तेज तेज करें, क्योंकि अग्नि (पहले ) तृण पर जलती हुई (बाद को) क्रमशः कंडों और पेड़ के डंडों का ढेर लील जाती है" // 152 // टिप्पणी-काम यद्यपि तुम्हारे शौयं के आगे तुच्छ है, फिर भी उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। उसे समाप्त ही कर दो। यहाँ पूर्वाध-गत सामान्य बात का उत्तरार्ध-गत विशेष बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है / 'लघौ, लघा' 'बुधे' 'विधे' (बवयोरभेदात् ) में छेक 'तेज' 'तेज' 'तृणे 'तृणे' 'ज्वल' 'ज्वल' में यमक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / / 152 / / सुरापराधस्तव वा कियानयं स्वयंवरायामनुकम्प्रता मयि / गिरापि वक्ष्यन्ति मखेष तर्पणादिदं न देवा मुखलज्जयैव ते // 153 // अन्वयः-वा तव स्वयंवरायाम् मयि अनुकम्प्रता ( चेत्, तर्हि ) अयम् तव सुरापराधः कियान् ? मखेषु तर्पणात् मुख-लज्जया एव ते इदम् गिरा अपि न वक्ष्यन्ति / टीका-या अथवा तव ते स्वयंवरायाम् स्वयं त्वद्वरणकाम् मयि अनुकम्प्रता अनुकम्पित्वम् स्वयं त्वद्वरणे मवङ्गीकरणानुग्रह इत्यर्थः चेत्तहि अयम् एष Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः तव सुरेषु देवेषु देवान् प्रतीत्यर्थः अपराध: आगः कियान् कियत्परिमाणः, न भूयान अत्यल्प एवेत्यर्थः मखेषु पत्नीभूतया मया सह क्रियमाणेषु यज्ञेषु तर्पणात तृप्तिकारणात् प्राणनादित्यर्थः मुखे लज्मा पा तया ( स० तत्पु० ) एव ते इन्द्रादयो देवा इदम् तान् प्रति तवापराधित्वम् गिरा वाण्या अपि न वक्ष्यन्ति कथयिष्यन्ति हृदये न धरिष्यन्तीति किमु वक्तव्यम् / अयं भावः-मया स्वेच्छयव त्वम् वृतः त्वया चाहमङ्गीकृता-इत्यत्र तव न कोऽपि महानपराधः, त्वया तेषां दूत्यै स्वकर्तव्यं पूर्णतया नियूंढम् / विवाहानन्तरं यज्ञेषु अस्माभिः प्रीणितास्ते देवाः लज्जाकारणात् त्वदेतत्त च्छापराधकृते न किमपि कथयिष्यन्ति // 153 // व्याकरण- स्वयंवरायाम् स्वयं वृणोतीति स्वयं/वृ+ अच् ( कर्तरि)। अनुकम्प्रता अनुकम्पते इति अनु + /कम्प + र( ताच्छील्ये), अनुकम्प्रस्य भाव इति अनुकम्प्र + तल् + टाप् / अनुवाद- 'अथवा स्वयं ही तुम्हारा वरण करने वाली मेरे ऊपर तुम्हारी कृपा हो, तो यह देवताओं के प्रति तुम्हारा कितना अपराध होगा? ( बहुत तुच्छ ) / यज्ञों में उन्हें तृप्त कर देने के कारण अपनी नाक बचाने के लिए ही वे तुम्हारा यह ( तुच्छ अपराध ) वाणी से भी नहीं बोलेंगे" // 153 // टिप्पणी-देवदूत बनकर अपनी तरफ से तुमने उन्हें ही वरने के लिए मुझे मनाने में कोई कसर नहीं उठा रखी, अपना पूरा 2 बर्तव्य निभाया लेकिन मैं ही उन्हें न वर कर स्वेच्छा से तुम्हें वर रही हूं और तुम मुझे अङ्गीकार करन का अनुग्रह दिखाओ तो भला इसमें तुम देवताओं का कौन-सा वड़ा अपराध कर रहे हो ? कुछ भी नहीं। देवताओं का यह सोचना कि हमारा दूत बन कर गए हुए इसने अपना ही काम बनाया, सरासर गलत है ! यदि इसे थोड़ा बहुत अपराध अपना तुम समझो भी तो यज्ञों द्वारा उन्हें हम प्रसन्न कर देंगे। संसार में देखते हैं कि किसी की थोड़ी-सी गलती करके यदि हम उसका बड़ाभारी उपकार करते हैं तो हमारी वह थोड़ी-सी गलती एकदम नगण्य हो जाती है। बड़े-बड़े यज्ञ रचकर हम देवताओं का बड़ा उपकार करते रहेंगे जिससे प्रसन्न हुए वे तुम्हारी थोड़ी-सी गलती को भूल जाएंगे एवं हम पर सदा प्रसन्न रहेंगे। इसलिए तुम मुझे अंगीकारकरो / यहाँ काव्यलिङ्ग, गिरापि में अर्थापत्ति अलधार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 153 // Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते ब्रजन्तु ते तेऽपि वरं स्वयंवरं प्रसाद्य तानेव मया वरिष्यसे / न सर्वथा तानपि न स्पृशेद्दया न तेऽपि तावन्मदनस्त्वमेव वा // 154 // अन्वयः-ते ते अपि वरम् स्वयंवरम् वजन्तु। तान् एव प्रसाद्य मया ( त्वम् ) वरिष्यसे / दया तान् अपि सर्वथा न स्पृशेत् ( इति ) न / ते अपि तावत् मदनः त्वम् एव वा न ( भवन्ति ) / टोका-ते ते इन्द्रादयो देवा अपि स्वयंवरम् ब्रजन्तु आगच्छन्तु वरम् / तान् एव देवान् प्रसाध आराध्य प्रसन्नीकृत्येत्यर्थः मया त्वम् वरिष्यसे त्वरणं करिष्यते / बया कृपा तान् देवान् अपि सर्वथा सर्वप्रकारेण न स्पृशेत् इति न, दया तानवश्यं स्प्रक्ष्यतीत्यर्थः यतः ते देवा अपि तावत् वस्तुतः मदनः कामः त्वम् एव वा न भवन्तीतिशेष: देवा दयाद्रुता भविष्यन्त्येव / न खलु ते मदन इव स्वमिव च निर्दयाः सन्तीति भावः // 154 // __व्याकरण-स्वयंवरः स्वयं वृ + अप् ( भावे ) / प्रसाद्य प्र+V सद् + णिच् + ल्यप् / अनुवाद-"अच्छा है, वे देवता भी-स्वयंवर में आजावें। उन्हें ही प्रसन्न कर के मैं तुम्हें वर लूंगी। दया उन्हें भी सर्वथा न छूए-यह नहीं, ' क्योंकि ) वे भी वस्तुतः मदन और तुम ही नहीं है" // 954 // टिप्पणी-काम और तुम-दोनों ही मुझपर बड़े निर्दयी बने हुए हों। देवता इतने निर्दयी नहीं हो सकते / स्वयंवर में आए हुए उन्हें मनाकर मै प्रसन्न कर लूगी और उन्हीं के सामने तुम्हें वर लूंगी। विद्याधर 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः कह रहे हैं। हमारे विचार से देवताओं पर मदनत्व और नलत्व के आरोप में रूपक है / 'परं' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / वजन्तु ते सुरापराध. स्तव-जैसाकि हण्डीकी ने भी संकेत किया है, हमारे विचार से उक्त दोनों श्लोकों में कवि की एक बड़ी असंगति दीख रही है। हम देखते हैं कि 144 से 154 तक के जो श्लोक दमयन्ती ने नल के चित्र को लक्ष्य करके कहे थे, उन्हें ही उसकी सखो ने यहाँ नल के सामने दमयन्ती की ओर से उत्तर रूप में दोहराया है। और यह घटना बहुत पहले की है जब कि दमयन्ती को यह पता भी नहीं था कि नल बाद को देवदूत बनकर उसके अन्तःपुर में आएंगे और वह उन्हें अपने सामने देखेगी। ऐसी स्थिति में दमयन्ती का उस समय नल Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 541 द्वारा किये जा रहे देवताओं के अपराध तथा दमयन्ती का चित्र में नल को यह कहना कि देवताओं को भी स्वयंवर में आने दिया जाय बिलकुल अप्रसक्त और बेतुकी हैं। इसतरह स्वभावतः ये श्लोक अगले श्लोक "इतीबमालेख्यगतेऽपि" (155) के विरुद्ध चल रहे हैं // 154 // इतीयमालेख्यगतेऽपि वीक्षिते त्वयि मरवीडसमस्ययानया। पदे पदे मौनमयान्तरीपिणी प्रवर्तिता सारपसारसारणो / / 155 / / अन्वयः-आलेख्य-गते अपि त्वयि वीक्षिते सति स्मर-बीड-समस्यया अनया पदे पदे मौनमयान्तरीपिणी सारद्य-सार-सारणी प्रवतिता। टीका-[ इतः परं सख्याः उक्तिः हे नल ! आलेख्यगते स्थिते अपि प्रत्यक्षदृष्टे तु किमु वाच्यम् त्वयि वोक्षिते दृष्टे सति स्मरः कामश्च बोरः लज्जा च तयोः ( द्वन्द्व ) समस्या समतनं संमिश्रणमित्यर्थः (10 तत्पु० ) यस्यां तथाभूतया ( ब० बी० ) अनया दमयन्त्या पदे पदे वचने वचने अथ च स्थाने स्थाने मौनम् तूष्णीभाव एवेति मौनमयानि अन्तरीपाणि द्वीपानि (द्वीपोऽस्त्रियामन्तरीपम्-इत्यमरः) (कर्मधा० ) अस्या सन्तीति तद्वती मौनरूपद्वीपयुक्तत्यर्थ: सारघस्य मधुनः यः सारः स्थिरांशः तस्य सारणी स्वल्पा सरित् कुल्यमितियावत् ( "सारणी स्वल्पसरित्' इति विश्वः , प्रवतिता प्रवाहिता चित्रस्थमपि त्वामवलोक्य कामे उद्दीप्ते उन्मादकारणाकिमपि वदति स्म, चेतनावस्थायां च लज्जाकारणात् मौनमाकलयति स्मेति भावः // 155 // व्याकरण-आलेख्यम् आ + /लिख + ण्यत् / व्रीड:/वी + घन ( भावे ) ! समस्या सम् + /अस् + क्यप् ( भावे ) + टाप् / मौनमयमुनेर्भाव इति मुनि + अण् मौनम्, मौनमेवेति मौन + मयट (स्वरूपार्थे ) / अन्तरीपम् अन्तर्गता आपोऽस्येति अन्तर + अप + समासान्त अप्रत्यय, ईत्व ! सारघम् सरघाभिः (मधुमक्षिकाभिः) कृतमिति सरघा + अण् / सारणी सारयति = पातयति तीरमिति सृ + णिच् + ल्युट् ( कर्तरि ) + डीए प्रवर्तिता प्र + Vवृत् + णिच् + टाप् / अनुवाद-"चित्र में भी तुम्हें देख पड़ने पर काम और लज्जा का मिलाजुला भाव अपनाये यह ( दमयन्ती) पद-पद पर मौन-रूपी द्वीपों वाली मधुसार की नदी वहा देती थी" // 155 // Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 नैषधीयचरिते टिप्पणी-चित्र के सामने खड़ी दमयन्ती कामोन्माद में कभी-कभी मधुजैसी मधुर वाणी सुना देती थी, लेकिन होश में उसे जब लाज आ दबोचती, तो वह चुप हो जाती थी। लाज से होने वाला मौन बना टापू, जहाँ मधुरवाणीरूपी नदी टकरा कर कुछ रुक जाती थी। वाणी और सारणी में अभेदाध्यवसाय होने से अतिशयोंक्ति है, जिसका मौन पर हुए अन्तरीपत्व के आरोप में बनने वाले रूपक के साथ संकर है। पदे-पदे में श्लेष है, वाणी की तरफ अर्थ है शब्द-शब्द में और नदी की तरफ अर्थ है स्थान-स्थान में। नदी में टापू स्थान-स्थान में हुआ करते हैं। आलेख्यगतेऽपि में अर्थापत्ति है पदे-पदे में छेक, 'सार, सार' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / उत्तरार्ध में तीसरे पाद के अन्त में 'पिणी' के साथ चौथे पाद के अन्त में "रणी" के स्थान में रिणी न होने से अल्ल्यानुप्रास होते होते रह गया है। आलेख्यगतेऽपि-इससे स्पष्ट हो रहा है दमयन्ती ने अमूर्त (चित्रगत ) नल के आगे ही 'मधु-सारणी' वहाई, न कि प्रत्यक्ष हुए मूतं नल के सामने, जिससे अब भेंट हो रही है। यदि कहा जाय कि नल के साथ प्रत्यक्ष भेंट के समय में ही सखी-सहित दमयन्ती उन्हें छोड़ फिर चित्र की मोर गड़ गई और तव उसके आगे पूर्वोक्त हो श्लोकों को कह बैठी और फिर वापस आकर सामने खड़ी हो गई, तो यह सरासर असंभव बात होगी // 155 // चाण्डालस्ते विषमविशिखः स्पृश्यते दृश्यते न __ ख्यातोऽनङ्गस्त्वयि जयति यः किनु कृत्ताङ्गुलीकः / कृत्वा मित्रं मधुमधिवनस्थानमन्तश्चरित्वा सख्याः प्राणान्हरति हरितस्त्वद्यशस्तज्जुषन्ताम् // 156 // अन्वयः-( हे नल ! ) ते विषम-विशिखः चण्डालः किम् नु ? (अत एव ) यः न स्पृश्यते, न ( च ) दृश्यते, त्वयि जयति ( सति ) कृत्ताङ्गुलीकः अनङ्गः (च) ख्यातः (अस्ति)। अधिवनस्थानम् मधुम् मित्रं कृत्वा, अन्तः चरित्वा सख्याः प्राणान् हरति, तत् हरितः त्वद्न्यशः जुषन्ताम् / टीका--(हे नल !) ते तव विषमा न समाः पञ्चेत्यर्थः विशिखाः बाणा: ( कर्मधा० ) थस्य तथाभूतः (ब० वी० ) पञ्चबाणः कामः इति यावत् चण्डालपक्षे विषमाः क्रूराः भीषणा इत्यर्थः चण्डाल: अन्त्यजविशेषः किम नु संभाव. Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 543 नायाम् ? अत एव यः न स्पृश्यते, न च दृश्यते, कामस्य देहराहित्यात् चण्डालस्य च धर्मशास्त्रानुसारेण अस्पृश्यत्वात् दर्शननिषेधात् च, त्वयि नले जयति सौन्दर्ये विजयं प्राप्नुवति सति कृता छिन्ना अङ्गुली कनिष्ठागुली ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) अनङ्गः न अङ्गम् अङ्गुलीविशेषो यस्य तथाभूतः ( नन् ब० वी० ) विकृताङ्गः अङगुलिविहीन इति यावत्, परिचायक-चिह्नरूपेण चण्डालस्याङ्गुलीच्छेदविधानात् च ख्यातः प्रसिद्धः अस्ति, वनस्य अरण्यस्य स्थानम् प्रदेशः (10 तत्पु० ) तस्मिन्नित्यधिवनस्थानम् ( अव्ययी०) मधुम् वसन्तम् मित्रम् सखायम् कृत्वा सम्पाद्य वसन्तात् साहाय्यं लब्ध्वेत्यर्थः अन्तः हृदये दमयन्त्या इतिशेषः चरित्वा प्रविश्य, अथ च वनप्रदेशे मधुम् लक्षणया मधुपायिनं मद्यपमिति यावत् मित्रं कृत्वा अन्तः गृहमध्ये चरित्वा सख्या? दमयन्त्याः प्राणान् असून् हरति नयति तत् तस्मात् हरितः दिशः तव यश: कीर्तिम् (10 तत्पु० ) जुषन्ताम् सेवन्ताम् त्वत्प्रयुक्तः कामचण्डालः वसन्तं मित्रं सह कृत्वा मत्सख्याः प्राणान् हरतु, एतेन च त्वत्कीर्तिः चतुर्दिक्षु प्रसरत्विति सोत्प्रासमुक्तिः अर्थात् स्वकामचाण्डालेन मत्सखीं मारयित्वा तेऽपकीतिर्जगति प्रसरत्विति भावः // 156 // व्याकरण-सरल है / अनुवाद-"( हे नल ! ) तुम्हारा काम ( अनुराग ) भीषण बाणों वाला चण्डाल है क्या, जिसे न तो छूते हैं और न ही देखते हैं और जो 'अनङ्ग' काट दी गई है ? वन-प्रदेश में बसन्त को मित्र बनाकर वह हृदय के भीतर घुसके सखी ( दमयन्ती ) के प्राणों का हरण कर रहा है / इससे दिशायें तुम्हारा यश प्राप्त कर लें" // 156 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने श्लिष्ट भाषा का प्रयोग करके अर्थ में कुछ क्लिष्टता ला दी है। हमने इसकी व्याख्या नारायण के अनुसार की है। वस्तुतः बात यह है कि नल के गुणों को देखकर दमयन्ती में नल का ( नलविषयक ) काम (प्रेम ) उत्पन्न हो बैठा जो भाव-रूप अर्थात् अमूर्त होने के कारण न तो छूने में आता है, न देखने में। इसी लिए वह अनङ्ग भी कहलाता है। वसन्त ने उसका साथ दिया कि वह बेचारी दमयन्ती के प्राणहरण पर Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 नैषधीयचरिते उतारू हो रहा है अर्थात् वसन्त ऋतु आते ही दमयन्ती में नलविषयक काम ( अनुराग) भड़ककर उसे तड़पाने लगा। और मार ही डाले जा रहा है / इसी लिए सखी कह रही है कि उसके मर ही जाने पर संसार में है नल ! तुम्हारा यह अपयश फैल जाना है कि तुमने प्रियतमा के प्राण जाने दिए, लेकिन उसे अपनाया नहीं। इसी बात को लेकर कवि ने दमयन्ती के हृदय में नल के काम को मूर्त रूप देकर उस पर चण्डाल की कल्पना की है कि वह दमयन्ती के प्राण ले ले / चण्डाल जल्लाद होता है, जिसे राजा लोग किसी 'वध्य' को मार डालने की आशा देते हैं ( 'बध्यांश्च हन्युः सततं यथाशास्त्रं नृपाशया' ) 'शास्त्रानुसार चण्डाल अछूत है, अतः उसका स्पर्श और दर्शन भी निषिद्ध है। परिचय-चिह्न के रूप से उसकी कनिष्ठ अंगुली काट दी जाती है। इसी से वह अनङ्ग अर्थात् अंगुली कट जाने से विकृताङ्ग हुआ रहता है / वन में स्वयं मद्य पीकर और किसी मद्यप को साथ लेकर 'वध्य' पुरुष के घर प्रविष्ट हो वह उसके प्राण ले लेता है। हमारे विचार से यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक "किंनु' है और जो श्लेषानुप्राणित है। विद्याधर अतिशयोक्ति कह रहे हैं क्योंकि यहाँ विशेषणों में अभेदाध्यवसाय हो रखा है। मल्लिनाथ गम्योत्प्रेक्षा मान रहे हैं। 'विष' 'विशि' 'मधु' 'मधि' 'हरति' 'हरित' में छेक, 'स्पृश्यते' 'दृश्यते' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सर्गान्त मे छन्द बदल देने के नियमानुसार यहाँ कवि 'मन्दाक्रान्ता' का प्रयोग कर रहा है, जिसमें 16 वर्ण होते हैं और जिसका लक्षण यह है-मन्दाक्रान्तांबुधिरमनगैर्मों भनी तो गयुग्मम् ( म, भ, न, त, त, ग, ग, / 4, 6, 7, में यति ) अथ भीमभुवैव रहोऽभिहितां नतमौलिरपत्रपया स निजाम् / अमरैः सह राजसमाजगति जगतीपतिरभ्युपगत्य ययौ // 157 // अन्वयः-अथ जगतीपतिः भीमभुवा एव रहः अभिहिताम् निजाम् अमरैः सह राजसमाजगतिम् अभ्युपगम्य अपत्रपया नत-भौलिः ( सन् ) ययो। टोका-अथत दनन्तरम् जगत्याः जगतः पतिः स्वामी राजा नल: (10 तत्पु ) भीमः एतदाख्यो राजा भूः उत्त्पत्तिस्थानम् ( कर्मधा० ) यस्या तथाभूतया (ब० बी० ) भैम्याः एव रहः एकान्ते निभृतमित्यर्थं अभिहिताम् उक्ताम् निजाम् स्वकयाम् अमरैः देवैः सह राज्ञां समाजः मण्डलम् (10 तत्पु० ) Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 545 नवमः सर्गः तस्मिन् राजाधिष्ठित-स्वयंवर-स्थले इत्यर्थः गतिम् आगमनम् अभ्युपगम्य स्वीकृत्य अपत्रपया मया देवानां कार्य न कृतमिति कृत्वा लज्जया नतः ननः मौलिः शिरः ( कर्मधा० ) यस्य तथासूतः ( ब० बी० ) सन् ययौ जगाम // 157 // व्याकरण-भूः भवत्यस्मादिति/भू + क्विप् ( अपादाने ) / अपत्रपा अप + Vत्रप् + अङ् ( भावे ) + टाप् / अनुवाद--तदनन्तर राजा ( नल ) भैमी द्वारा ही एकान्त में चुपकेसे कही इस बात को कि (स्वयंवर के समय ) राज-समाज में तुम भी आना स्वीकार करके लज्जा के मारे सिर नीचे किये चल दिए // 157 // टिप्पणी-नल को लज्जा एक तो इस बात से हो रही थी कि वे देवताओं का काम बनाने में सफल नहीं हो सके ? दूसरे इस बात से भी कि दमयन्ती उसका वरण कर रही है। विवाह में लज्जा होना स्वाभाविक है। विद्याधर यहां सहोक्ति अलंकार कह रहे हैं लेकिन वह नहीं हो सकती है, क्योंकि वह तभी होती है जब उसके मूल में अतिशयोक्ति भी हो। 'राज-समाज' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / श्लोक में छन्द तोटक है, जिसका लक्षण है-'वद तोटकब्धिसकारयुतम्' (स, स, स, स ) / श्वस्तस्याः प्रियमाप्तमुद्धरधियो धाराः सृजन्त्या रथा नम्रोन्नम्रकपोलपालिपुलकैर्वतस्वतीरश्रुणः / चत्वारः प्रहराः स्मरातिभिरभूत्सापि क्षपा दुःक्षया तत्तस्यां कृपयाखिलैव विधिना रात्रि स्त्रियामा कृता // 158 / अन्वयः-श्वः प्रियम् आप्तुम् उद्धरधियः, (तथा) ननोन्नम्र-कपोलपालिपुलकै: वेतस्वती! अश्रुणः धाराः रयात् सृजन्त्याः तस्याः ( यत् ) चत्वारः प्रहरा अपि सा क्षपा स्मरातिभिः दुःक्षया अभूत् तत् तस्याम् कृपया विधिना अखिला रात्रिः त्रियामा कृता ( इव ) / टीका - श्वः आगामिदिवसे प्रियम प्रियतमम् नलम् आप्तुम् प्राप्तुम् उद्धरा उत्कण्ठिता धी: बुद्धिः मन इत्यर्थः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाः (ब० वी० ) नया म्रा: नताश्च उनम्राः उन्नताश्च तः ( कर्मधा० ) कपोलयोः गण्डस्थलयोः (10 तत्पु० ) पाल्यो: तलयोः ( स० तत्पु० ) पुलकैः रोमाञ्चैः रोमाञ्चरूपे इत्यर्थः वेतस्वतीः वेतोयुक्ताः अश्रुणः अश्रूणाम् धारा: प्रवाहान् रयात् Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 नैषधीयचरिते वेगात् सृजन्त्याः प्रवर्तयन्त्याः तस्याः दमयन्त्याः ( यतः यस्मात् ) चत्वारः चतु:संख्यकाः प्रहराः यामा चतुःप्रहरात्मिकेत्यर्थः अपि सा क्षपा रात्रिः स्मरस्य कामस्य अतिभिः पीडाभिः वियोगवेदनाभिरित्यर्थः दुः- दुःखेन क्षयितुं शक्या दुःसहेत्यर्थः अभत जाता, तत् तस्मात् तस्याम् दमयन्त्याम् कृपया अनुग्रहेण विधिना ब्रह्मणा अखिला सर्वा रात्रिः त्रयो यामा: प्रहराः यस्यां तथाभूता (व० वी) कृता विहिता। दमयन्त्याः कृते स्वयंवरात् पूर्वतनी चतुर्यामा एका रात्रिरप्यतिवाहयितुम् अतिदुःशकेति दृष्ट्वा ब्रह्मणः सा रात्रिः तस्याः त्वरितमेव व्यतीयादिति कृत्वा दयाद्रेण सता सर्वापि रात्रिः त्रियामा कृतेवेति भावः // 158 // व्याकरण-श्वः यास्कानुसार 'आशंसनीयः कालः'। प्रियम् प्रीणातीति प्री + क, ह्रस्व / उद्धरा घुरमुद्गतेति (प्रादि स०)। धी: ध्यायतेऽनयेति/ध्य + विप् ( करणे ) नम्र, उन्नम्र नम् + र। वेतस्वतीः वेतस् + इमतुप, म को व। अनुवाद-क्योंकि दूसरे दिन प्रिय को प्राप्त करने हेतु मन में उत्कण्ठित हुई तथा कपोल-स्थलों पर ऊँचे-नीचे उठे रोमाञ्चों के रूप में बेतों वाली अश्रधाराओं को वेग के साथ वहाती हुई उस ( दमयन्ती ) के लिए चार प्रहरों वाली वह ( एक ) रात भी काम-वेदनाओं के कारण काटनी कठिन हो रही थी, इसलिए ब्रह्मा ने ( मानो ) उसके ऊपर कृपा करके सभी रातें त्रियामा ( तीन प्रहरों वाली ) बना दी // 1580 टिप्पणो-जैसे कि विद्याधर और मल्लिनाथ कह रहे हैं यहाँ उत्प्रेक्षा है, लेकिन वाचक शब्द कोई नहीं है, अतः वह प्रतीयमाना ही है। उत्प्रेक्षा में कवि की कल्पना यह है कि मानो उस वीच की चतुर्यामा रात्रि को ब्रह्मा ने दमयन्ती के खातिर त्रियामा बनाते हुए सभी रात्रियों को त्रियामा बना दिया। वैसे ज्योतिष के अनुसार दिनमान आठ प्रहरों का होता है जिसमें चार प्रहर दिन के होते हैं और चार प्रहर रात्रि के किन्तु रात्रि के एक प्रहर अर्थात् आगे-- पीछे के आधे आधे प्रहर (डेड-डेड़ घंटों को ) दिन के भीतर गिन लेते हैं, क्योंकि लोग डेड़ घंटे चढ़ी रात और डेड़ घंटे शेष रह रही रात में जागे काम करते रहते हैं। इस तरह रात्रि को एक प्रहर (तीन घण्टे ) निकल जाने से रात्रि त्रियामा कहलाती है। विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं सम्भवतः Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः इस दृष्टि से कि अश्रुधारा का नदी-घारा के साथ अभेदाध्यवसाय हो रखा है जिसमें ऊंची-नीची वेतें रहती हैं। किन्तु हमारे विचार से यहाँ रूपक है, वह भी एकदेशविवर्ती, क्योंकि कपोल-तलों पर के रोमाञ्चों पर वैयधिकरण्येन वैतों का आरोप वाच्य है और अश्रुधारा पर नदीत्वारोप गम्य है, 'धुर' 'धारा' 'नम्रोन्नन' 'पालिपुल' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 158 // तदखिलमिह भूतं भूतगत्या जगत्याः पतिरभिलपति स्म स्वात्मदूतत्वतत्त्वम् / त्रिभुवनजनयाववृत्तवृत्तान्तसाक्षा त्कृतिकृतिषु निरस्तानन्दमिन्द्रादिषु द्राक् // 159 // अन्वयः-जगत्याः पतिः इह भूतम् तत् अखिलम् स्वात्मदूतत्व-तत्त्वम् त्रिभुवन "कृतिषु इन्द्रादिषु द्राक् निरस्तानन्दम् भूत-त्या अभिलपति स्म / टीका-जगत्याः जगतः पतिः स्वामी नलः इह दमयन्ती-विषये भूतम् जातम् तत् अखिलम् समग्रम् स्वम् स्वकीयम् यत् आत्मदूतत्वम् ( कर्मधा० ) आत्मनः दूतत्वम् तस्य तत्त्वम् याथार्थ्यम् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) त्रयाणां भुवनानां समाहारः त्रिभुवनम् ( समाहार द्वि० ) तस्मिन् जनानां लोकानाम् ( स० तत्पु० ) यावान् यावत्परिमाणः सर्व इत्यर्थः वृत्तः जातः वृत्तान्तः समाचार ( उभयत्र कर्मधा० ) तस्य साक्षात्कृतौ प्रत्यक्षीकरणे कृतिषु कुशलेषु इन्द्रः आदी येषां तथाभूतेषु (ब० वी० ) देवेषु द्राक् शीघ्रम् निरस्तः त्यक्तः आनन्दः सन्तोषः यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा स्वकार्यवैफल्यात् खेदपूर्वकमित्यर्थः भूतस्य सत्यस्य गत्या प्रकारेण अभिलपति स्म, अकथयत् / दूतो भूत्वा दमयन्त्या अग्रे यथा नलेन देवपक्षः समर्थितः यथा च तया साभिनिवेशं सोऽपाकृतः, ततश्च नलेन विना नैराश्ये करुणं विलपन्तों तां वीक्ष्य आत्मोन्मादावस्थायां यथा तेन स्वनाम प्रकटितम्, तथैव तत्सर्वं स परमार्थेन सर्वान्तर्यामिनां देवानां समक्षं शशंसेति भावः // 159 // व्याकरण-भूतम/भू + क्त ( कर्तरि ) / त्रिभुवनम् पात्रादि के अन्तर्गत होने से 'त्रिलोकी' की तरह ङीप् नहीं हुआ। तत्त्वम् तस्य भाव इति तत् + त्वल। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 नैषधीयचरिते अनुवाद-जगत् के स्वामी नल ने दमयन्ती के विषय में हुई अपने दूतत्व की सभी सचाई तीनों लोकों के लोगों में घटे निखिल वृत्तान्त के साक्षात्कार करने में निपूण इन्द्रादि देवताओं के पास खेद के साथ सही सही ढंग से कह डाली // 159 // टिप्पणो–'भूतं भूत' 'गत्या गत्याः' 'तत्वतत्त्वम्' 'वृत्तवृत्ता' में छेक, 'कृतिकृति' में 'यमक' अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास / 'स्वात्मदूतत्व'-यहाँ स्व और आत्मा दोनों पर्याय-शब्द होने से एक शब्द अधिक है अतः अधिकपदत्व दोष बना हुआ है। 'छन्द यहाँ 15 अक्षरों वाला मालिनी है जिसका लक्षण इस तरह है'ननमयययुतेयं (न, न, म, य, य ) मालिनी भोगिलोकैः' ( आठ और सात में यति).॥ 159 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं - श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / संहब्धाणंववर्णनस्य नवमस्तस्य व्यरंसीन्महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 160 // अन्वयः-कविराज 'यम् (पूर्ववत् ) संदृब्धार्णववर्णनस्य तस्य चारुणि नैषधीयचरिते महाकाव्ये निसर्गोज्ज्वल: नवमः सर्ग व्यरंसीत् / टोका-कविराज''यम् ( पूर्ववत् ) संहब्धः ग्रथितः ( 'ग्रथितं ग्रन्थितं दृब्धम्' इत्यमरः ) 'अर्णववर्णनः' अर्णवस्य समुद्रस्य वर्णनं ( . तत्पु० ) यस्मिन् तथाभूतः (ब० वी०) एतदाख्यो ग्रन्थ: येन तथाभूतस्य ( ब० वी० ) तस्य श्रीहर्षस्य महाकवेः चारुणि रम्ये नैषधीयचरिते महाकाव्ये निसर्गोज्ज्वलः नवमः सर्गः व्यरंसीत् समाप्तः / इति मोहनदेवपन्तशास्त्रि-प्रणीतायां 'छात्रतोषिणी'-टीकायां नवमः सर्गः / अनुवाद-जिसको जन्म दिया ( पूर्ववत् ) 'अर्णव-वर्णन' के निर्माता उस (श्रीहर्ष ) के सुन्दर 'नैषधीयचरित' महाकाव्य का निसर्गतः उज्ज्वल नौवां सर्ग समाप्त हुआ। टिप्पणी-श्रीहर्ष द्वारा प्रणीत 'अर्णववर्णन' ग्रन्थ के सम्बन्ध में भूमिका देखिए // 160 // 'नैषधीयचरित' के नौवें सर्ग का अनुवाद और टिप्पणी समाप्त / Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः टिहरी-पुरिजनिमवाप्य, साम्प्रतं देहरादूने कृतवसतिः / सीतागर्भोद्भूतः पंडितवर-श्रीजयदेव-तनूजन्मा // 1 // महामहोपाध्यायात्, गुरुवरश्रीगिरिधरशर्मचतुर्वेदात् / लवपुर-जयपुर-पुर्योरधिगत - तत्तद्विषयक-शिक्षादीक्षः // 2 // भूतपूर्व-प्राचार्योऽम्बाला एस० डी० संस्कृत-कालेजस्य / मोहनदेवः पन्तः, मेघदूतप्रभृतिकाव्यटीकाकारः // 3 // षट्सप्तत्यधिककोनविंशशतखीष्टान्दस्य परे भागे। निरमात् 'छात्रतोषिणीम्', श्रीहर्षरचितनैषधीयचरितस्य // 4 // मानवज्ञानमपूर्ण त्रुटयः स्वभावतः समापतन्त्येव / क्षमापरा विद्वांसः, क्षमिष्यन्तीति तान नतशिरसा प्रणुमः // 5 // Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-१ कृष्णरामकविप्रणीते एककस्मिन् श्लोके प्रत्येकसर्गस्य कथासारः -भूपः कोऽपि नलोऽनलद्युतिरभूत् तत्रानुरागं दधी; वैदर्भी दमयन्तिका गुणरुचिः सोऽप्यास तस्यां स्पृही। जातु स्वान्तविनोदनाय विरही लीलाटवीं पर्यटन, हैमं हंसमसौ निगृह्य तरसा दूनं दयालुजहौ / २-'राजंस्त्वां दमयन्तिकां त्वयि तथा कर्तास्मि रक्तां यथा, शक्रादीनपि हास्यतीति' नृपति हंसः कृतज्ञोऽभ्यधात् / ‘एवं चेत् खग ! साधयेप्सितमिति' प्रोक्तः स राज्ञा मुदा, द्रागुड्डीय ददर्श कुण्डिनगतो भैमीमटन् निष्कुटे' / ३-'मामुद्दिश्य किमेषि भैमि ! चटुविद् ! नालोऽस्मि विस्तेरुचि श्चेन्मय्यस्ति नलं वृणीष्व बत' तामुक्त्वा व्यरंसीद् वयः / तस्मै ब्रूहि तथा यथा स नृपतिर्मामुदहेदि'त्युपा दिष्टो भीमजया खगो द्रुतगतिः सिद्धि नलायावदत् // ४–क्षामाङ्गी विरहाधिना विदधती निन्दां सुधांशोज्वर ज्वालाभिद्र तमुमुरीकृतसुमाकल्पाथ सामूमुहत् / भीमस्तत्परिचारिकाकलकलाहूतस्तथा वीक्ष्य तां, ज्ञातो व्याधिरयि ! स्वयंवरमहं कस्म्यिवादीदिति // ५-ज्ञात्वा नारदतः स्वयंवर-विधि भैम्याः स्पृहालुहरि साधं दिक्पतिभिः पफाण पृथिवीं शच्या शुचा वीक्षितः / अस्मद्दौत्यमुपेत्य याहि नृप भो ! भैमीमदृष्टो भटस्तामस्मास्वनुकूलयारिवति नलं सोऽयुक्त दौत्ये छली // 1- गृहारामे। ४-इन्द्रः / २-नलसम्बन्धी। ३-पक्षी। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 परिशिष्टम्-१ ६-भूजानिर्भुवनेकदृश्यतनुरप्युच्चरदृश्यस्तदा, कक्षाः सप्त वगाह्य भीमदुहितुः -प्रासादमासादयन् / तां तत्र प्रसमीक्ष्य खण्डनपरां गीर्वाणदूतीगिरां, दूरादुच्छ्वसितिस्म चेतसि भृशं दूनोऽपि दौत्येन सः / / ७-अश्रान्तं . तरदन्तरोऽद्भुतरसाकूपारपूरान्तरे, प्रत्यारभ्य मुखान्नखावधि' नलस्तां प्रादुरास स्तवन् / सा तु व्यक्तममुं समीक्ष्य चकिता तद्रूपलुन्धा सखी. ध्वाश्चयं स्तिमिकासु कोऽसि किमिह प्राधोऽस्यपृच्छत् स्वयम् // ८-दूतं विद्धि वराङ्गि! मां दिविषदां धन्यासि यत्त्वामहो, सोऽप्याशापतिभिः सह स्वयमिदं ब्रूते वृषा मदगिरा। अस्मास्वन्यतमं वृणीष्व कमपि त्वं नन्दने नन्द भो !, मा कुत्रापि नरे स्खलेति बहुधा भैमी नलोऽलोभयत् / / -'चित्तं मेऽस्ति नले न लेखपतिषु त्वं कोऽनलश्रीस्तये'त्युक्तः 'प्रोज्ज्य सुरान्नलं श्रमसि किं मुग्धास्यवोचत्स ताम् / पश्चादश्रुमुखीमुदीक्ष्य सहसा 'सोऽहं नलस्तप्रिये / मारोदीरिति तत्र वादिनि स विवाद् दिवोऽवातरत् // २–नलतुल्यः, अग्नितुल्यश्च / १-'स्तुवन्' इत्यत्रान्वयः। ३-तस्मिन्नले / Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-२ श्रीहर्षस्य सुभाषितानि १–अपां हि तृप्ताय न वारिधारा स्वादुः सुगन्धिः स्वदते तुषारा // 3 / 93 // २-अथिने न तृणवद्धनमानं किंतु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् // 5 / 86 // ३-अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा / ___ तृणेन वात्येव तयानुगम्यते जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना // 1 / 12 // ४-आकरः स्वपरभूरिकथानां प्रायशो हि सुहदो सहवासः // 5 // 12 // ५-आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः // 5 / 103 // ६-उत्तरोत्तरशुभो हि विभनां कोऽपि मञ्जुलतमो क्रमवादः // 5 // 37 // ७-कर्म कः स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते // 5 // 6 // ८-व भोगमाप्नोति न भाग्यभाग्जनः // 1.102 // ९-क वा निधिनिर्धनमेति किंच तं सवाक्-कपाटं घटयनिरस्यति // 9 / 39 // १०-छ सहतामवलम्बलवच्छिदामनुपपत्तिमतीमतिदुःखिता // 4 // 110 // ११-कार्य निदानाद्धि गुणानधीते // 3 // 17 // १२-कृच्छेऽप्यसो नोज्झति तस्य सेवां सदा यदाशामवलम्बते यः // 87 / / १३-गुरूपदेशं प्रतिमेव तीक्ष्णा प्रतीक्षते जातु न कालमतिः // 3 // 91 // १४-घनाम्बुना राजपथे हि पिच्छिले कचिबुधैरप्यपथेन गम्यते // 9 // 36 // १५-चकास्ति योग्येन हि योग्यसंगमः // 9 / 56 // .१६-जनानने कः करमर्पयिष्यति॥ 9 / 125 // 17 -- झटिति पराशयवेदिनो हि विज्ञाः // 4118 // १८-तदितः सहि यो यदनन्तरः // 4 // 3 // १९-तं धिगस्तु कलयन्नपि वाञ्छामर्थिवागवसरं सहते यः / / 5 / 83 / / २०-त्यजन्त्यसूझम च मानिनो वरं त्यजन्ति न स्वेकमयाचितव्रतम् // 9 // 50 // २१-दानपात्रमधमणमिहैकग्राहि कोटिगुणितं दिवि दायि / - साधुरेति सुकृतयदि कतुं पारलौकिककुसीदमसीदत् // 5 / 92 // - २२–दुर्जया हि विषया विदुषापि // 5 / 109 // Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् -2 553 २३-द्यौर्न काचिदथवास्ति निरूढा सैव सा चलति यत्र हि चित्तम् / / 5 / 57 // २४-द्विषन्मुखेपि स्वदतेस्तुतियाँ तन्मिष्टता नेष्टमुखे त्वमेया / / 8151 // २५-धनिनामितरः सतां पुनगुणवत्संनिधिरेव सन्निधिः // 2 // 53 // २६-न मोघसंकल्पधराः किलामराः // 9 / 145 // २७-न वस्तु दैवस्वरसाद्विनश्वरं सुरेश्वरोऽपि प्रतिकतुंमीश्वरः // 9 / 126 // २८-नामापि जागति हि यत्र शत्रोस्तेजस्विनस्तं कतमे सहन्ते // 874 / / २९-नास्ति जन्य-जनकव्यतिभेदः // 5 / 94 // ३०-पुण्ये मनः कस्य मुनेरपि स्यात् / / 8 / 17 // ३१-पूर्वपुण्यविभवव्ययलब्धाः श्रीभरा विपद एव विमृष्टाः / पात्रपाणिकमलार्पणमासां तासु शान्तिकविधिविधिदृष्टः // 5 / 17 // ३२-प्रापितेन चटुकाकुविडम्बं लम्भितेन बहुयाचनलज्जाम् / अर्थिना यदघमर्जति दाता तन्न लुम्पति विलम्ब्य ददानः // 5 / 84 // ३३-प्रियमन सुकृतां हि स्वस्पृहाया विलम्बः // 3 // 134 // ३४-बिम्बानुबिम्बी हि विहाय धातुन जातु दृष्टातिसरूपसृष्टिः // 8 / 46 // ३५–ब्रुवते हि फलेन साधवो नतु कण्ठेन निजोपयोगिताम् / / 2 / 48 / / ३६-भवत्युपायं प्रति हि प्रवृत्तावपेयमाधुर्यमधयंसजि // 693 // ३७-भिन्नस्पृहाणां प्रति चार्थमर्थ द्विष्टत्वमिष्टत्वमपव्यवस्थम् // 6 / 106 // ३८-मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता // 98 // ३६-मुग्धेषु कः सत्य-मृषाविवेकः // 8 / 18 // ४०-यत्रान्धकारः किल चेतसोऽपि जिह्मेतरब्रह्म तदप्यवाप्यम् // 3 // 63 // ४१-याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय वत जन्म न यस्य / तेन भूमिरतिभारवतीयं न मनं गिरिभिनं समुद्रः // 5 / 88 // ४२-यावदहकरणं किल साधोः प्रत्यवाय-धुतये न गुणाय // 59 // ४३-लक्ष्ये हि बालाहृदि लोलशीले दरापराद्धयुरपिस्मरः स्यात् // 27 // ४४-लधी लघावेव पुरः परे बुधविधेयमुत्तेजनमात्मतेजसः // 8 / 152 // 45- लोक एव परलोकमुपेता ही विहाय निधने धनमेकः / इत्यमुं खलु तदस्य निनीषत्यथिबन्धुरुदयद्दयचित्तः // 5 / 91 // ४६–वमं कर्षतु पुरः परमेकस्तद्गतानुगतिको न महाघः // 5 // 55 // ४७-विहितं धर्मधननिवहणं विशिष्य विश्वासजुषां द्विषामपि // 1 / 131 // Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 नैषधीयचरिते ४८-विवेकधाराशतधौतमन्तः सतां न कामः कलुषीकरोति // 854 // ४९-वैरविधिवंधावधि // 9 / 93 / / ५०-सतां हि चेतःशुचिताऽत्मसाक्षका / / 9 / 129 // ५१-साधने हि नियमोऽन्यजनानां योगिनां तु तपसाऽखिलसिद्धिः // 5 // 3 // ५२-सुरेष विघ्नकपरेषु को नरः करस्थमप्यर्थमवाप्तुमीश्वरः / / 9 / 834 // ५३-स्मरः सरत्यामनिरुद्धमेव यत् सृजत्ययं सर्गनिसर्ग ईदृशः // 1 / 54 / / ५४-स्वत एव सतां परार्थता ग्रहणानां हि यथा यथार्थता / / 2161 // ५५-स्वभावभक्तिप्रवणं प्रतीश्वराः कया न वाचा भुदमुगिरन्ति // 9 / 26 // ५६-हीगिरास्तु वरमस्तु पुनर्मा स्वीकृतव परवागपरास्ता / / 5 / 105 / / Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-३ तुलनात्मकाध्ययनाथं महाभारतीयनलोपाख्यानान्तर्गतस्वयं वरपर्यन्तः मूल-कथाभागः। आसीद् राजा नलो नाम वीरसेनसुतो बली / उपपन्नो गुणरिष्ट रूपनाश्वकोविदः // 1 // अतिष्ठन्मनुजेन्द्राणां मूनि देवपतियथा / उपर्युपरि सर्वेषामादित्य इव तेजसा // 2 // ब्रह्मण्यो वेदविच्छूरो निषधेषु महीपतिः / अक्षप्रियः सत्यवादो महानक्षौहिणीपतिः // 3 // ईप्सितो वरनारीणामुदारः संयतेन्द्रियः / रक्षिता धन्विनां श्रेष्ठः साक्षादिव मनुः स्वयम् // 4 // तथैवासीद् विदर्भेषु भीमो भीमपराक्रमः / शूरः सर्वगुणयुक्तः प्रजाकामः स चाप्रजः // 5 // स प्रजार्थे परं यत्नमकरोत् सुसमाहितः / तमभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षिदमनो नाम भारत ? // 6 // तं स भीमः प्रजाकामस्तोषयामास धर्मवित् / माहिष्या सह राजेन्द्रः सत्कारेण सुवर्चसम् // 7 // तस्मै प्रसन्नो दमनः सभार्याय घरं ददी। कन्यारत्नं कुमारांश्च त्रीनुदारान् महायशाः // 8 // दमयन्ती दमं दान्तं दमनं च सुवर्चसम् / उपपन्नान् गुणः सर्वर्णीमान् भीमपराक्रमान् // 9 // दमयन्ती तु रूपेण तेजसा यशसा श्रिया / सौभाग्येन च लोकेषु यशः प्राप सुमध्यमा // 10 // अथ तां वयसि प्राप्ते दासीनां समलंकृताम् / . शतं शनं सखीनां च पर्युपासच्छचीमिव // 11 // Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते तत्र स्म राजते भैमी सर्वाभरणभूषिता। सखीमध्येऽनवद्याङ्गी विद्युत्सौदामनी यथा // 12 // अतीव रूपसम्पन्ना श्रीरिवायतलोचना / न देवेषु न यक्षेषु तादृग् रूपवती क्वचित् // 13 // मानुषेष्वपि चान्येषु दृष्टापूर्वाऽथवा श्रुता। चित्तप्रसादनी बाला देवानामपि सुन्दरी // 14 // नलश्च नरशार्दूलो लोकेष्वप्रतिमो भुवि / / कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् स्वयम् // 15 // तस्याः समीपे तु मलं प्रशशंसुः कुतूहलात् / नैषधस्य समीपे तु दमयन्ती पुनः पुनः / / 16 / / तयोरदृष्टः कामोऽभूच्छृण्वतोः सततं गुणान् / . अन्योऽन्यं प्रति कौन्तेय ! स व्यवर्धत हृच्छयः // 17 // अशक्नुवन्नलः कामं तदा धारयितुं हृदा।। अन्तःपुरसमीपस्थे वन आस्ते रहोगतः // 18 // स ददर्श ततो हंसान जातरूपपरिष्कृतान् / वने विचरतां तेषामेकं जग्राह पक्षिणम् // 19 // ततोऽन्तरिक्षगो वाचं व्याजहार नलं तदा। हन्तव्योऽस्मिन् न ते राजन् ! करिष्यामि तव प्रियम् // 20 // दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध / यथा त्वदन्यं पुरुषं न सा मंस्यति कहिचित् / / 21 / / एवमुक्कस्ततो हंसमुत्ससर्ज महीपतिः / ते तु हंसाः समुत्पत्य विदर्भानगमंस्ततः // 21 // विदर्भनगरी गत्वा दमयन्त्यास्तदान्तिके / निपेतुस्ते गरुत्मन्तः सा ददर्श च तान् खगान् // 23 // सा तानद्भुतरूपान् वै दृष्ट्वा सखिगणान्विता / हृष्टा ग्रहीतुं . खगमास्त्वरमाणोपचक्रमे // 24 // अथ हंसा विससृपुः सर्वतः प्रमदावने / एकैकशस्तदा कन्यास्तान हंसान् समुपाद्रवन् // 25 / / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् -3 दमयन्ती तु यं हंसं समुपाधावदन्तिके / स मानुषीं गिरं कृत्वा दमयन्तीमथाब्रवीत् // 26 // "दमयन्ति ! नलो नाम निषधेषु महीपतिः / अश्विनोः सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषाः // 27 // कंदर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत् . स्वयम् / तस्य वै यदि भार्या त्वं भवेथा वरवणिनि / / 28 / / सफलं ते भवेजन्म रूपं चेदं सुमध्यमे / वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसान् // 29 / / दृष्टवन्तो न चास्माभिदृष्टपूर्वस्तथाविधः / त्वं चापि रत्न नारीणां नरेषु च नली वरः // 30 // . विशिष्टया विशिष्टेन संगमो गुणवान् भवेत् / एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशांपते ! // 31 // अब्रवीत् तत्र तं हंसं त्वमप्येवं नले वद'। तथेत्युक्त्वाण्डजः कन्या विदर्भस्य विशांपते / पुनरागम्य निषधान् नले सवं न्यवेदयत् // 32 // दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा वचो हंसस्य भारत ! / ततः प्रभृति न स्वस्था नलं प्रति बभूव सा // 33 // ततश्चिन्तापरा दीना विवर्णवदना कृशा / बभूव दमयन्ती तु निःश्वासपरमा तदा // 34 // ऊर्ध्वदृष्टियानपरा बभूवोन्मत्तदर्शना / पाण्डुवर्णा. क्षरणेनाथ हृच्छयाविष्टचेतना // 35 // न शय्यासनभोगेषु रति विन्दति कहिचित् / न नक्तं न दिवा शेते हाहेति रदती पुनः // 36 // तामस्वस्थां तदाकारां सख्यस्ता जजुरिङ्गितः / ततो विदर्भपतये दमयन्त्याः सखीजनः // 37 / / न्यवेदयत् तामवस्थां दमयन्तीं नरेश्वरे / तच्छ्रुत्वा नृपतिर्भीमो दमयन्तीं सखीगणात् // 38 // चिन्तयामास तत् कार्य सुमहत् स्वां सुतां प्रति / किमर्थ दुहिता मेऽद्य नातिस्वस्थेव लक्ष्यते / / 39 // Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषधीयचरिते स समीक्ष्य महीपाल: स्वां सुतां प्राप्तयौवनाम् / अपश्यदात्मना . कार्य दमयन्त्याः स्वयंवरम् // 40 / / स संनिमन्त्रयामास महीपालान् विशांपतिः। / एषोऽनुभूयतां वाराः स्वयंवर इति प्रभो // 41 // श्रुत्वा नु पार्थिवाः सर्वे दमयन्त्याः स्वयंवरम् / / अभिजग्मुस्ततो भीमं राजानो भीमशासनात् / / 42 // हस्त्यश्वरथघोषेण पूरयन्तो वसुन्धराम् / विचित्रमाल्याभरणलदृश्यैः स्वलंकृतः // 43 // तेषां भीमो महाबाहुः पार्थिवानां महात्मनाम् / यथाहमकरोत् पूजां तेऽवसंस्तत्र पूजिताः // 44 / / एतस्मिन्नेव काले तु सुराणामृषिसत्तमौ / अटमानौ महात्मानाविन्द्रलोकमितो गतौ // 45 // नारदः पर्वतश्च व महाप्राज्ञी महाव्रती / देवराजस्य भवनं विविशाते सुपूजिती // 46 // तावर्चयित्वा मघवा ततः कुशलमव्ययम् / पप्रच्छानामयं चापि तयोः सर्वगतं विभुः / / 47 // नारद उवाच आवयोः कुशलं देव , सर्वत्रगतमीश्वरः / लोके च मघवन् कृत्स्ने नृपाः कुशलिनो विभो // 48 // नारदस्य वचः श्रुत्वा पप्रच्छ बल-वृत्रहा / धर्मज्ञाः पृथिवीपालास्त्यक्तजीवितयोधिनः / / 49 / / शस्त्रेण निधनं काले ये गच्छन्त्यपराङ्मुखाः। अयं लोकोऽक्षयस्तेषां यथैव मम कामधुक // 50 // क्व नु ते क्षत्रियाः शुराः न हि पश्यामि तानहम् / आगच्छतो महीपालान् दयितानतिथीन् मम // 51 // . नारद उवाच एवमुक्तस्तु शक्रेण नारदः प्रत्यभाषत / 'शृणु मे भगवन् येन न दृश्यन्ते महीक्षितः // 52 // Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठम्-३ विदर्भराज्ञो दुहिता दमयन्तीति विश्रुता। रूपेण समतिक्रान्ता पृथिव्यां सर्वयोषितः // 53 // तस्याः स्वयंवरं शक्र ! भविता न चिरादिव / तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः // 54 // तां रत्नभूतां लोकस्य प्रार्थयन्तो महीक्षितः। कांक्षन्ति स्म विशेषेण बल-वृत्रनिषूदन // 55 // * एतस्मिन् कथ्यमाने तु लोकपालाश्च साग्निकाः / आजग्मुर्देवराजस्य समीपममरोत्तमाः // 56 // ततस्ते शुश्रुवुः सर्वे नारदस्य वचो महत् / श्रुत्वैव चाब्रुवन् हृष्टा गच्छामो षयमप्युत // 57 // ततः सर्वे महाराज्ञे सगणाः सहवाहनाः / विदर्भाननुजग्मुस्ते यतः सर्वे महीक्षितः // 58 // नलोऽपि राजा कौन्तेय श्रुत्वा राज्ञां समागमम् / अभ्यगच्छददीनात्मा दमयन्तीमनुव्रतः // 59 / / अथ देवाः पथि नलं ददृशुभूतले स्थितम् / साक्षादिव स्थितं मूर्त्या मन्मथं रूपसम्पदा // 60 / तं दृष्ट्वा लोकपालास्ते भ्राजमानं यथा रविम् / तस्थुविगतसंकल्पा विस्मिता रूपसम्पदा // 61 // ततोऽन्तरिक्षे विष्टभ्य विमानानि दिवौकसः / अब्रुवन् नैषधं राजन् अवतीयं नमस्तलात् // 62 // भो भो निषधराजेन्द्र नल सत्यवतो भवान् / अस्माकं कुरु साहाय्यं दूतो भव नराधिप // 63 // तेभ्यः प्रतिज्ञाय नल: 'करिष्य' इति भारत / अर्थतान् . परिपप्रच्छ कृताञ्जलिरुपस्थितः // 64 // के वै भवन्तः कश्चासी यस्याहं दूत ईप्सितः / किं च तद् वो मया कार्य कथयध्वं यथातथम् // 65 // एवमुक्तो नैषधेन मघवानभ्यभाषत / अमरान् वै निबोधास्मान् दमयन्त्यर्थमागतान् // 66 // Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते अहमिन्द्रोऽयमग्निश्च तथैवायमपां पतिः / शरीरान्तकरो नृणां यमोऽयमपि पार्थिवः // 67 // त्वं वै समागतानस्मान् दमयन्त्यै निवेदय / लोकपाला महेन्द्राद्याः समायान्ति दिदृक्षवः // 68 // प्राप्तुमिच्छन्ति देवास्त्वां शक्रोऽग्निवरुणो यमः / तेषामन्यतमं देवं पतित्वे वरयस्व ह // 69 // एवमुक्तः स शक्रेण नल: प्राञ्जलिरब्रवीत् / "एकार्थं समुपेतं मां न प्रेषयितुमर्हथ // 70 // कथं तु जातसंकल्पः स्त्रियमुत्सृजते पुमान् / परार्थमीदृशं वक्तुं तत् क्षमन्तु महेश्वराः' // 71 / / देवा ऊचुः 'करिष्य' इति संश्रुत्य पूर्वमस्मासु नैषध / न करिष्यसि कस्मात् त्वं व्रज नैषध मा चिरम्" // 72 // एवमुक्तः स देवस्तै षधः पुनरब्रवीत् / 'सुरक्षितानि वेश्मानि प्रवेष्टु कथमुत्सहे / / 73 / / 'प्रवेक्ष्यसीति तं शक्रः पुनरेवाभ्यभाषत / जगाम सतथेत्युक्त्वा दमयन्त्या निवेशनम् / / 74 // ददर्श तत्र वैदर्भी सखीगणसमावृताम् / देदीप्यमानां वपुषा श्रिया च वरवर्णिनीम् // 75 // अतीव सुकुमाराङ्गी तनुमध्यां सुलोचनाम् / आक्षिपन्तीमिव प्रभां शशिनः स्वेन जसा // 76 // तस्य दृष्टव ववृधे कामस्तां चारहासिनीम् / संत्यं चिकीर्षमाणस्तु धारयामास हृच्छयम् // 77 // ततस्ता नैषधं दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः परमाङ्गनाः / भासनेभ्यः समुत्पेतुस्तेजसा तस्य धर्षिताः // 78 // प्रशशंसुश्च सुप्रीता नलं ता विस्मयान्विताः / न चैनमभ्यभाषन्त मनोभिस्त्वभ्यपूजयन् // 79 // अहो रूपमहो कान्तिरहो धैर्य महात्मनः / कोऽयं देवोऽथवा यक्षो गन्धर्वो वा भविष्यति // 80 // Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् -3 न तास्तं शक्नुवन्ति स्म व्याहतुमपि किञ्चन / तेजसा धर्षितास्तस्य लज्जावत्यो वराङ्गनाः / / 81 // अथैनं स्मयमानं तु स्मितपूर्वाभिभाषिणी / दमयन्ती नलं वीरमभ्यभाषत विस्मिता / / 8 / / "कस्त्वं सर्वानवद्याङ्ग मम हृच्छयवर्धन / प्राप्तोऽस्यमरवद् वीर ज्ञातुमिच्छामि तेऽनघ // 83 // कथमागमनं चेह कथं चासि न लक्षितः / सुरक्षितं हि मे वेश्म राजा चैवोग्रशासनः" // 84 // एवमुक्तस्तु वैदा नलस्तां प्रत्युवाच ह। नल उवाच "नलं मां विद्धि कल्याणि देवदूतमिहागतम् // 85 // देवास्त्वां प्राप्तुमिच्छन्ति शक्रोऽग्निवरुणो यमः / तेषामन्यतमं देवं पति वरय शोभने // 86 // तेषामेव प्रभावेण प्रविष्टोऽहमलक्षितः / प्रविशन्तं न मां कश्चिदपश्यन्नाप्यवारयत् // 87 // एतदर्थमहं भद्रे प्रेषितः सुरसत्तमः। एतच्छ्रुत्वा शुभे बुद्धि प्रकुरुष्व यथेच्छसि" // 88 // सा नमस्कृत्य देवेभ्यः प्रहस्य मलमब्रवीत् / "प्रणयस्व यथाश्रद्ध राजन् किं करवाणि ते // 89 // अहं चैव हि यच्चान्यन्ममास्ति वसु किञ्चन / तत् सर्व तव विश्रब्धं कुरु प्रणयमीश्वर // 10 // हंसानां वचनं यत्तु तन्मां दहति पार्थिव / त्वत्कृते हि मया वीर राजानः संनिपातिताः // 91 // यदि त्वं भजमानां मां प्रत्याख्यास्यसि मानद / विषमग्नि जलं रज्जुमास्थास्ये तव कारणात्" // 13 // एवमुक्तस्तु वैदा नलस्तां प्रत्युवाच ह। "तिष्ठत्सु लोकपालेषु कथं मानुषमिच्छसि // 13 // Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 नैषधीयचरिते येषामहं लोककृतामीश्वराणां महात्मनाम् / न पादरजसस्तुल्यो मनस्तेषु प्रवर्तताम् // 14 // विप्रियं ह्याचरन् मया देवानां मृत्युमिच्छति / / त्राहि मामनवद्याङ्गि वरयस्य सुरोत्तमान् // 15 // विरजांसि च वासासि दिव्यश्चित्राः स्रजस्तथा। भूषणानि तु मुख्यानि देवान प्राप्य तु भुक्ष्व वै // 16 // य इमां पृथिवीं कृत्स्नां संक्षिप्य असते पुनः / हुताशमीशं देवानां का तं न वरयेत् पतिम् // 97 // यस्य दण्डभयात् सर्वे भूतग्रामाः समागताः।। धर्ममेवानुरुध्यन्ति का तं न वरयेत् पतिम् // 98 // धर्मात्मानं महात्मानं दैत्यदानवमर्दनम् / महेन्द्रं सर्वदेवानां का तं न वरयेत् पतिम् // 19 // क्रियतामविशङ्कन मनसा यदि मन्यसे / वरुणं लोकपालानां सुहृद्-वाक्यमिदं शृणु" // 10 // नैषधेनैवमुक्ता सा दमयन्ती वचोऽब्रवीत् / समाप्लुताभ्यां नेत्राभ्यां शोकजेनाथ वारिणा // 101 // "देवेभ्योऽहं नमस्कृत्य सर्वेभ्यः पृथिवीपते / / वृणे त्वामेव भर्तारं सत्यमेतद् ब्रवीमि ते" // 102 // तामुवाच ततो राजा वेपमानां कृताञ्जलिम् / "दौत्येनागत्य कल्याणि तथा भद्रे विधीयताम् // 103 // कथमहं प्रतिश्रुत्य देवतानां विशेषतः / परार्थे यत्नमारभ्य कथं स्वार्थ मिहोत्सहे // 104 // एष धर्मों यदि स्वार्थों ममापि भविता ततः / एवं स्वार्थ करिष्यामि तथा भद्रे विधीयताम्" // 105 // ततो बाष्पाकुलां वाचं दमयन्ती शुचिस्मिता। प्रत्याहरन्ती शनकैनलं राजानमब्रवीत् // 106 // "उपायोऽयं मया दृष्टो निरपायो नरेश्वर। येन दोषो न भविता तव राजन् कथञ्चन // 107 // Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-१ त्वं चैव हि नरश्रेष्ठ देवाश्चन्द्रपुरोगमाः / आयान्तु सहिताः सर्वे मम यत्र स्वयंवरः // 108 // ततोऽहं लोकपालानां संनिधौ त्वां नरेश्वर / वरयिष्ये नरव्याघ्र नैवं दोषो भविष्यति" // 109 // एवमुक्तत्सु वैदा नलो राजा विशांपते। आजगाम पुनस्तत्र यत्र देवाः समागताः // 110 // तमपश्यंस्तथाऽऽयान्तं लोकपाला महेश्वराः / दृष्ट्वा चैनं ततोऽपृच्छन् वृत्तान्तं सर्वमेव तम् // 11 // "कच्चित् दृष्टा त्वया राजन् दमयन्ती शुचिस्मिता / किमब्रवीच्च नः सर्वान् वद भूमिप तेऽनघ" // 112 / / नल उवाच भवद्भिरहमादिष्टो दमयन्त्या निवेशनम् / प्रविष्टः सुमहाकक्षं दण्डिभिः स्थविरेवृतम् // 113 // प्रविशन्तं च मां तत्र न कश्चिद् दृष्टवान् नरः / ऋते तां पार्थिवसुतां भवतामेव तेजसा // 114 // सख्यश्चास्य मया रष्टास्ताभिश्चाप्यूपलक्षितः / विस्मिताश्चाभवन् सर्वा दृष्ट्वा मां विबुधेश्वराः // 115 / / वर्ण्यमानेषु च मया भवत्सु रुचिरानना। मायेव गतसंकल्पा वृणीते सा सुरोत्तमाः // 115 // अवनीच्चैव मां वामा आयान्तु सहिताः सुराः / त्वया सह नरव्याघ्र मम यत्र स्वयंवरः // 117 // तेषामहं संनिधी त्वां वरयिष्यामि नैषध / एवं तव महाबाहो दोषो न भवितेति ह" // 11 // एतावदेव विबुधा यथावृत्तमुपाहृतम् / मयाशेषे प्रमाणं तु भवन्तस्त्रिदशेश्वराः // 119 / / अथ काले शुभे प्राप्ते तिथी पुण्ये क्षणे तथा / आजुहाव महीपालान् भीमो राजा स्वयंबरे // 120 // Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते तच्छ्रुत्वा पृथिवीपालाः सर्वे हृच्छयपीडिताः / त्वरिताः समुपाजग्मुर्दमयन्तीमभीप्सवः // 121 // कनकस्तम्भरुचिरं तोरणेन विराजितम् / विविशुस्ते नृपा रङ्ग महासिंहा इवालचम् // 122 / / तत्रासनेषु विविधेष्वासीनाः पृथिवीक्षितः / सुरभिस्रग्धराः सर्वे प्रमृष्टमणिकुण्डलाः // 133 // तां राजसमिति पुण्यां नागैर्भोगवतीमिव / सम्पूर्णा पुरुषव्याघ्रव्याघ्र गिरिगुहामिव // 124 // तत्र. स्म पीना दृश्यन्ते बाहवः परिघोपमाः / / आकारवर्णसुश्लक्ष्याः पञ्चशीर्षा इवोरगाः // 125 / / सुकेशान्तानि चारूणि सुनासाक्षिभ्रुवाणि च / मुखानि राज्ञां शोभन्ते नक्षत्राणि यथा दिवि // 126 // दमयन्ती ततो रङ्गं प्रविवेश शुमानना / मुष्णन्ती प्रभया राज्ञां चक्षू षि च मनांसि च // 127 / / तस्या गात्रेषु पतिता तेषां दृष्टिमहात्मनाम् / तत्र तत्रैव सक्ताभून्न चचाल च पश्यताम् // 128 // ततः संकीयमानेषु राज्ञां नामसु भारत / ददर्श भैमी पुरुषान् पञ्चतुल्याकृतीनिह // 129 // तान् समीक्ष्य ततः सर्वान् निविशेषाकृतीन स्थितान्। संदेहादथ वैदर्भी नाभ्यजानानलं नृपम् // 130 // यं यं हि ददृशे तेषां तं तं मेने नलं नृपम् / सा चिन्तयन्ती बुद्ध्याथ तर्कयामास भामिनी // 131 // कथं हि देवाजानीयां कथं विद्यां नलं नृपम् / एवं संचिन्तयन्ती सा बैदर्भी भृशदुःखिता // 132 // श्रुतानि देवलिङ्गानि तर्कयामास भारत / देवानां यानि लिङ्गानि स्थविरेभ्यः श्रुतानि मे // 133 // तानीह तिष्ठतां भूमावेकस्यापि च लक्षये / सा विनिश्चित्य बहुधा विचार्य च पुनः पुनः // 134 // Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 565 परिशिष्टम्-३ शरणं प्रति देवानां प्राप्तकालममन्यत / वाचा च मनसा चैव नमस्कारं प्रयुज्य सा // 135 // देवेभ्यः प्राञ्जलिभूत्वा वेपमानेदमब्रवीत् / "हंसानां वचनं श्रुत्वा यथा मे नैषधो वृतः / पतित्वे तेन सत्येन देवास्तं प्रदिशन्तु मे // 136 // मनसा वचसा चैव यथा नाभिचराम्यहम् / तेन सत्येन विबुधास्तमेव प्रदिशन्तु मे // 137 // यथा देवैः स मे भर्ता विहितो निषधाधिपः / तेन सत्येन मे देवास्तमेष प्रदिशन्तु मे // 138 // यथेदं व्रतमारब्धं नलस्याराधने मया / तेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु : मे // 139 // स्वं चैव रूपं कुर्वन्तु लोकपाला महेश्वराः / यथाहमभिजानीयां पुण्यश्लोकं नराधिपम्" // 240 // निशम्य दमयन्त्यास्तत् करुणं प्रतिदेवितम् / निश्चयं परमं तथ्यमनुरागं च नैषधे // 141 // मनोविशुद्धि बुद्धिं च भक्ति रागं च नैषधे / यथोक्तं चक्रिरे देवाः सामर्थ्य लिङ्गधारणे // 142 // सापश्यद् विबुधान् सर्वानस्वेदान् स्तब्धलोचनान् / हृषितस्रग्रजोहीनानस्थितानस्पृशतः क्षितिम् // 143 // छायाद्वितीयो म्लानस्रग्रज:स्वेदसमन्वितः / भूमिष्ठो नैषधश्चैव निमेषेण च सूचितः // 144 // सा समीक्ष्य तु तान् देवान् पुण्यश्लोके च भारत / नैषधं वरयामास भैमी धर्मेण पाण्डव // 145 / / विलज्जमाना वस्त्रान्तं जग्राहायतलोचना / स्कन्धदेशेऽसृजत् तस्य स्रज परमशोभनाम् // 146 / / वरयामास चैवैनं पतित्वे वरवणिनी। ततो हाहेति सहसा मुक्तः शब्दो नराधिपः // 147 // देवैमहर्षिभिस्तत्र साधु साध्विति भारत / विस्मितैरीरितः शन्द: प्रशंसद्भिर्नलं नृपम् // 148 // Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते दमयन्तीं तु कौरव्य वीरसेनसुतो नृपः / आश्वासयद् वरारोहां प्रहृष्टेनान्तरात्मना / / 149 // "यत् त्वं भजसि कल्याणि पुमांसं देवसंनिधौ। तस्मान्मां विद्धि भर्तारमेवं ते वचने रतम् // 150 // यावच्च मे धरिष्यन्ति प्राणा देहे शुचिस्मिते / तावत् त्वयि भविष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते" // 151 // दमयन्ती तथा वाग्भिरभिनन्द्य कृताञ्जलिः / तो परस्परतः प्रीतों दृष्ट्वा चाग्निपुरोगमान् // 152 // तानेव शरणं देवाञ्जग्मतुर्मनसा तदा। वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः // 153 // प्रहृष्टमनसः सर्वे नलायाष्टी वरान् ददुः। प्रत्यक्षदर्शनं यज्ञे गति चानुत्तमां शुभाम् // 154 // नैषघाय ददौ शक्रः प्रीयमाणः शचीपतिः / अग्निरात्मभवं प्रादाद् यत्र वाञ्छति नैषधः // 155 / / लोकानात्मसमांश्चैव ददौ तस्मै हुताशनः / यमस्त्वन्नरसं प्रादाद् धर्म च परमां स्थितिम् // 156 // अपां पतिरपां भावं यत्र वाञ्छति नैषधः / सजश्चोत्तमगन्धाढ्याः सर्वे च मिथुनं ददुः // 157 // वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवं गताः / पार्थिवाश्चानुभयास्य विवाहं विस्मयान्विताः // 158 // दमयन्त्याश्च मुदिताः प्रतिजम्मुर्यथागतम् / गतेषु पार्थिवेन्द्रषु भीमः प्रीतो महामनाः // 159 // विवाहं कारयामास दमयन्त्या नलस्य च / उष्य तत्र यथाकामं नैषधो द्विपदां वरः // 16 // भीमेन समनुज्ञातो जगाम नगरं स्वकम् / अवाप्य नारीरत्नं तु पुण्यश्लोकोऽपि पार्थिवः // 16 // रेमे सह तया राजञ्छच्येव बलवृत्रहा। अतीव मुदितो राजा भ्राजमानोंऽशुमानिव // 162 // Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् 4 श्लोकानुक्रमणिका अकरुणादव सून० (4 / 102) अथ मुहुर्बहु (4 / 43) अकाण्डमेवात्मभुवा (3 / 90) अथवा भवतः (2061) अकारि तेन श्रव० (1 / 44) अथ श्रिया (1156) अखिलं विदुषा० (2055) अथ स्म राज्ञामव० (8 / 54) अग्न्याहिता नित्य० (871) अथ स्वमादाय (9 / 107) अङ्गेन केनापि (3391) अथाद्भुतेनास्त० (81) अचिरादुपकतुं० (2 / 14) अथान्तरेणावटु० (1158) अचीकरच्चारु (1173) अथावलम्ब्य (11121) . अजस्रभूमीतट० (1159) अथोद्भमन्ती (987) अजस्रमभ्यास० (1117) अथोपकार्या मम (6 / 11) अजस्रमारोहसि (3 / 106) अदस्तदाणि (1 / 28) अजातविच्छेदलवैः (957) अदाहि यस्तेन (873) अजीयतावर्तशुभं (7.69) अदृश्यमाना (9 / 4) अतनुना नवमम्बु (4 / 39) अदोऽयमालप्य (9 / 14) अतितमा समपादि (4 / 4) अदो निगद्यैव (9 / 30) अतिशरव्ययता (4 / 42) अधरं किल बिम्ब० (2 / 24) अथ कनकपतत्र० (2 / 107) अधारि पद्मषु (1 / 20) अथ नलस्य गुणं (3 / 1) अधिगत्य जगत्य० (2 / 1) अथ प्रकाशं निभृ० (9 / 24) अधित कापि मुखे (41111) अथ प्रियासादन० (71) अधीतपञ्चाशुग० (9 / 115) अथ भीमभुजेन (2073) अधीतिबोधाचरण० (114) अथ भीमभुवैव (9 / 57) अधुनीत खगः स (2 / 2) / अथ भीमसुता० (2064) मधृत यद्विरहोष्मणि (48) Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 अधो विधानात् (1 / 18) अध्वाग्रजनिभृता० (6 / 107) अनङ्गचिह्न स विना (1155) अनङ्गतापप्रशमाय (8069) अनया तव रूप० (2 / 43) अनया सुरकाम्य (2046) अनलभावमियं (4 / 22) अनलैः परिवेष० (2187) अनल्पदग्धारि० (1410) अनादिधावि० (6102) अनादिसर्गसजि (6 / 14) अनायि देशः (8 / 25) अनार्यमप्याचरितं (3157) अनाश्रवा वः (6 / 88) अनुग्रहः केवलमेष (9 / 34) अनुग्रहादेव दिवी० (9 / 42) अनुभवति शचीत्थं (3 / 109) अनुममार न मार (4 / 79) अनुरूपमिमं (2 / 42) अनेन भैमी घटयि० (1 / 46) अनेन साधं तव (8061) अनैषधायैव (3 / 71) अन्तःपुरान्तः स (6.93) अन्तःपुरे विस्तृत० (6 / 19) अन्येन पत्या त्वयि (351) अन्योन्यमन्यत्र (6 51) अन्योन्यसंगम० (3 / 125) अन्वयुद्यतिपयः० (5 / 55) नैषधीयचरिते अपः प्रति स्वामि० (9 / 82) अपह्न वानस्य जनाय (1 / 49) अपाङ्गमप्याप (813) अपार्थयन्याजक० (980) अपास्तपाथेय० (887) अपास्तपाथोरुहि (9 / 105) अपि द्रढीयः शृणु (9 / 35) अपि द्विजिह्वा (1963) अपि धयन्तितरा० (4 / 82) अपि लोक युगं (2 / 22) अपि विधिः कुसुमानि (4 / 89) अपि स्वमस्वप्न० (9 / 33) अबलस्वकुलाशिनो (1 / 10) अबोधि तत्त्वं (9 / 54) अब्रवीत्तमनलः (5 / 122) अब्रवीदथ यमस्त० (5 / 124) अभ्यर्थनीयः (3 / 92) अभ्रपुष्पमपि (5 / 127) अमजताकण्ठ० (8151) अमन्यतासी (1987) अमितं मधु (2056) अमी ततस्तस्य (157) . अमी समीहैक० (9 / 134) अमुष्य दो- (1.22) अमुष्य धीरस्य (1144) अमुष्य विद्या (115) अमूनि गच्छन्ति (9 / 94) अमृतदीधितिरेष (4 / 104) Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-४ अमृतद्युतिलक्ष्म (21102) अलं नलं रोद्धममी (1154) अम्बां प्रणत्यो (6 / 48) अलं विलय (3384) अयं क इत्यन्य० (6 / 12) अलं विलम्ब्य (3 / 91) अयं दरिद्रो भवि० (1 / 15) अलं सजन्धम० (3 / 30) अयमयोगवघू० (4 / 49) अलिस्रा कुड्मल० (1 / 91) अयमेकतमेन (213) अलीकभैमी (6 / 15) अयमेत्य तडाग (215) अवधृत्य दिवोऽपि (2014) अयि प्रिये कस्य (9 / 103) अवलम्ब्य दिदृक्षया (2066) अयि ममैष चकोर० (4 / 58) अवश्यभव्येष्व० (11120) अयि विधुं परिपृच्छ (4 / 48) अवाप सापत्रप (1153) अयि शपे हृदयाय (4 / 106) अवाप्यते वा (3 / 63) अयि स्वयूयः (1 / 139) अवारितद्वारतया (3 49) अवमि हंसावलयो (8 / 35) अये ममोदासित 918) अशोकमर्था० (1 / 101) अये मयात्मा (9 / 122) अश्रान्तश्रुति (20102) अयोगजामन्व० (9 / 132) अश्रौषमिन्द्रा० (6395) अयोगभाजोऽपि (11100) असमये मति० (4.57) अयोधि तद्धयं० 853) असंशयं स त्वयि (9 / 144) अरुन्धतीकाम० (798 असितमेकसुरा० (4 / 61) अर्काय पत्ये (757) असेवि यस्त्यक्त० (9 / 59) अर्चनाभिरुचितो० (5 / 9) अस्तित्वं कार्यसिद्धः (3 / 132) अना मयि भवद्भिः (5 / 112) अस्मत्किल श्रोत्र० (3 / 26) अथितां त्वयि गतेषु (5 / 133) अस्माकमध्या० (8195) अथिताः प्रथमतो (5 / 113) अस्यां मुनीनामपि (7 / 96) अथिनामहषिता० (579) अस्यां वपुव्यूह० (7/12) अथिने न तृण० (5586) अस्याः कचानां (7 / 22) अथिनो वयममी (577) अस्याः करस्पर्धन० 771) अलंकृतासन्न० 8389) अस्याः खलु ग्रन्थि (7188) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्याः पदो चारत० (799) अस्याः सपक्षक० (7 / 20) अस्या मुखश्री० (7156) अस्या मुखस्यास्तु (53) अस्या मुखेनैव (7.58) अस्या मुखेन्दावधरः (7 / 38) अस्या यदष्टादश (7 / 63) अस्या यदास्येन (7121) अस्यैव सर्गाय (772) अहो अहोभि० (1141) अहो तपःकल्पतरु (3 / 120) महो मनस्त्वामनु / 9 / 39) अहो महेन्द्रस्य (9 / 27) आः स्वभावमधुरैः (5 / 24) नैषधीयचरिते आलिमात्मसुम० (5 / 54) आलोकतृप्तीकृत० 8 / 30) आसते शतमधि० (5 / 00 आस्तां तदप्रस्तुत० (3 / 52) आस्तामनङ्गी० 8 / 41) इति कियद्-वचसैव (4 / 100) इति तं स विसृज्य : 2 / 63) इति त्रिलोकी (8184) इति धृतसुरसार्थ (8107) इति प्रतीत्येव (9 / 11) इति प्रियाकाकुभि० (9 / 101) इति विधोविविधो (474) इति सचिकुरादा० (7 / 109) इति स्फुटं तद्वचस (9 / 60) इति स्वयं माहमहो (9 / 127) इतादृशैस्तं विरचय्य (1 / 134) इतौन्द्रदूत्याः प्रति (6 / 101) इतीयमक्षिभ्रुव० (9 / 1) इतीयमालेख्यगते 9 / 155) इतीरयित्वा विरतां (97) इतीरयित्वा विरराम (3 / 53) इतीरिणापृच्छ्य (9 / 130) इतीरिता पत्ररथेन (3667) इतीरितैषध० (9 / 136) इतीष्टगन्धा (1 / 104) इत्थं पुनर्वागवकाश० (6 / 111) इत्थं प्रतीपोक्ति (6 / 108) इत्थं मधूत्वं रस० (850) आकीटमाकैटभ० (6 / 106) आकुञ्चिताभ्यां (31) आपूणितं पक्ष्म० (7 / 29) आज्ञां तदीयामनु (6 / 92) आत्मैव तातस्य (7 / 65) मादधीचि किल (5 / 111). आदर्शतां स्वच्छतया (356) आदेहदाहं कुसुमा० (8 / 43) आनन्दजाभिरनु (11144) आनन्दयेन्द्रामथ (8 / 108) आभ्यां कुचाभ्यां (78) आर्ये विचार्याल० (687) मालिख्य सख्याः (6 / 69) Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-४ इत्थममुं विलपन्त० (1 / 143) इत्यमी वसुमती (5 / 34) इत्यवेत्य मनसात्म० (5 / 72) इत्याकये क्षितीश (5 / 137) इत्यालपत्यथ (3 / 129) इत्युक्तवत्या निहितां (6 / 86) इत्युक्तवत्या यद० (3 / 97) इत्युदीर्य मघवा (5 / 19) इत्युदीर्य स ययौ (5 / 43) इदं निगद्य क्षिति० (0 / 22) इदं महत्तेऽभिहितं (9 / 83) इदं यदि क्ष्मापति० (3 / 100) इदमुदीयं तदेव (4 / 110) इमा गिरस्तस्य (9.84) इयं न ते नैषध (9 / 97) इयच्चिरस्यावद० (9 / 21) इयत्कृतं केन मही (8547) इयमनङ्गशराव (4 / 33) इषुत्रयेणैव जगत् (7 / 27) इष्टं नः प्रति ते (5 / 135) इष्टेन पूर्तेन (3 / 21) इहाविशयेन (7 / 62) ईदृशानि गदितानि (5 / 116) ईदृशानि मुनये (5 / 40) ईदृशी गिरमुदीयं (5 / 78) ईशाणिमैश्वर्य० (3 / 64) उच्चाटनीयः कर० (3 / 60) उदयति स्म (4 / 18) उदरं नतमध्य० (2 / 34) उदरं परिमाति (2035) उदर एव धृतः (4 / 60) उदासितेनेव (9 / 135) उद्भमामि विरहात् (5 / 108) . उद्वतंयन्त्या हृदये (6 / 25) उन्मत्तमासाद्य (3 / 98) उन्मूलितालान० (785) उपचचार चिरं (4 / 112) उपनम्रमयाचितं (2 / 12) उपहरन्ति न कस्य (4 / 90) उपासनामेत्य (1 / 34) उरोभुवा कुम्भ० (1 / 48) उर्वशी गुणवशी• 5 / 52) उल्लास्यतां स्पृष्ट० (6 / 34) उल्लिख्य हंसेन (6 // 37) ऊचिवानुचित० (5 / 128) ऊरुप्रकाण्ड० 1795) ऋजुदृशः कथयन्ति (4 / 66) ऋणीकृता कि० (7 / 33) एकः सुधांशुन (3 // 19) एकैकमेते परि० (890) एतं मलं तं दम० (660) एतत्कुचस्पधि (775) एवं यद्वदता (4 / 122) एवमादि स (5 / 93) एवमुक्तवति (5 / 98) | एष नैषध स (5176) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैषधीयचरिते कस्त्वं कुतो वेति (87) कांसीकृतासीत् (3 / 122) कानुजे मम निजे (5 / 38) कापि कामपि (5 / 53) काभिनं तत्राभि० (3 / 43) काम! कोसुमचाप० (3 / 26) कामनीयकमधः (5 / 64) कि धनस्य जल (5 / 59) किञ्चित्तिरश्चीन० (3 / 54) कि नर्मदाया मम (773) किं विधेयमधुनेति 5 / 73) ओज्झि प्रियाङ्गः (7 / 18) कंदर्प एवेदम० (8 / 33) कः कुलेऽजनि 5 / 119) कण्ठः किमस्याः (6 / 59) कण्ठे वसन्ती (750) कतिपयदिवसः (4 / 121) कथं नु तेषां (9 / 26) कथं विधातमयि (11138) कथाप्रसङ्गेषु (1135) कथावशेषं तव (9699) कथासु शिष्य (9 / 149) कथितमपि नरेन्द्रः (33135) कथ्यते न कतमः (5 / 28) कन्यान्तःपुर० (4 / 116) कपोलपत्रान्मकर० (7 / 60) कयाचिदालोक्य (86) करपदाननलोचन० (4 / 17) कराग्रजाग्रच्छत० / 779) करिष्यसे यद्यत (9 / 49) करेण मीनं निज० (1 / 105) करेण वाञ्छेव (3362) करोषि नेमं पलिनं (9 / 18) कर्णाक्षिदन्तच्छद० 8 / 103) कर्णोत्पलेनापि (7 / 30) कलकलः स तदा (4 / 115) कलसे निजहेतु० (2 / 32) कल्याणि कल्यानि (857) कवित्वगानप्रिय० (767) किमसुभिग्लपित: (4 / 52) किमस्य लोम्नां (1 / 21) किमु तदन्तरुभौ (45) किमु भवन्त (4 / 97) कियच्चिरं दैवत० 82) कुण्डिनेन्द्रसुतया (5 / 114) कुरु करे गुरुमेक (4 / 59) कुसुमचापजताप० (4 / 6) कुसुममप्यति० (4 / 91) कुसुमानि यदि (2059) कृतावरोहस्य (5 / 123) कृत्वा दृशौ ते (8 / 38) केदारभाजा (7 / 35) केशान्धकारादथ (7 / 23) कौमारगन्धीनि (6 / 38) कौमारमारभ्य (8158) Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-४ क्रतोः कृते जाग्रति (977) चमूचरास्तस्य (1971) / क्रमेलकं निन्दति (6 / 104) चरच्चिरं शैशव० (859) क्रमोद्गता पीवरता० (797) चर्म वर्म किल (5 / 129) क्रियेत चेत्साधु (3 / 23) चलनलंकृत्य (1966) क्रीणीष्व मज्जीवित (3387) चलाचलप्रोथ० (160) क्व प्रयास्यसि (5 / 75) चलीकृता यत्र (1 / 114) क्षणनीरवया (278) चिकुरप्रकुरा (2 / 20) क्षणादथैष क्षणदा० (1 / 67) चितं तदा कुण्डिन० (68) क्षितिगर्भधरा (2 / 81) चित्रमत्र विबुधै० (5 / 57) क्षीणेन मध्येऽपि (7 / 81) चिरादनध्याय० (9 / 61) खण्डः किमु त्वगिर (80101) चैतोजन्मशर० (3 / 130) खण्डितेन्द्रभवना (5 / 4) छायामयः प्रैक्षि (6 / 30) गच्छता पथि (5 / 3) जगज्जयं तेन (1319).. गता यदुत्सङ्ग० (1198) जगद्वधूमूर्धसु (100) गलत्परागं (1192) जघनस्तनभरा (2 / 97) गिरः श्रुता एव (9 / 5) जनुरधत्त सती (4 / 45) गिरानुकम्पस्व (9 / 120) जनैविदग्धर्भव० (6 / 9) गुच्छालयस्वच्छ० (776) जम्बालजाला० (7 / 13) गुणा हरन्तोऽपि (6 / 105) जलजे रविसेव० (3 / 28) गौरीव पत्या (783) जलाधिपस्त्वाम० (9 / 23) ग्रीवाद्भुतैवावट (766) जागति तच्छायह० (6 / 33) चकास्ति बिन्दु० (9 / 104) जानेतिरागादिद० (7 // 39) चकोरनेत्रेण० (7 // 32) जितंजितं तत्खलु (9 / 48) चक्रेण विश्वं युधि (789) जितस्तवास्येन (9 / 145) चण्डालस्ते विषम० (9 / 156) जीवितावधि किम० (5 / 97) चतुष्पथे तं विनि० (6 / 27). जीवितावधि वनी० (5 / 81) चन्द्राधिकैतन्मुखं (7 / 44) जीवितेन कृत० (5 / 49) . चन्द्राभमानं तिलकं (6 / 62). | ज्वलति मन्मथ० (4 / 34) - Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 नैषधीयचरिते तं कथानुकथन० (5 / 13) तं दह्यमानैरपि (8174) तच्छायसीन्दयं० (6 / 31) तटान्तविश्रान्त० (11109) ततः प्रतीच्छ (1168) ततः प्रसूने (1176) तत्कालमानन्द (8 / 15) तत्प्रसीदत विधत्त (5 / 115) तत्रैव मग्ना यद० (8 / 9) तथा न तापाय (881) तथापि निर्वध्नति (9 / 12) तथाभिधात्री (3 / 99) तदखिलमिह (9 / 159) तदङ्गमुद्दिश्य (1193) तदद्य विश्रम्य (9 / 66) तदनु दीधितिधार० (2069) तदनु स तनु० (4120) तदर्थमध्याप्य (1 / 103) वपितामश्रत० (9 / 2) तदहं विदधे (2 / 47) तदात्तमात्मान० (1 / 125) तदिहं विशदं (2 / 49) . तदिहानवधी (2 / 30) तदेकदासीत्व (380) तदेकलुब्धे हृदि (3 / 81) तदोजसस्तयशसः (1 / 14) तद्भुजादतिवि० (5 / 11) तद्विमृज्य मम (5 / 18) तनोषि मानं (9 / 108) तन्नेषधानूढतया (3 / 46) तन्वीमुखं द्रागधिग० (6 / 26) तपः फलत्वेन (6 / 93) तपोनले जुह्वति (9 / 45) तमचितुं मद्वरण० (9 / 65) तमालिरूचेऽथ (9 / 64) तमेव लब्धावसरं (1 / 43) तमोमयीकृत्य (9 / 65) तरङ्गिणी भूमिभृतः (7 / 11) तरङ्गिणीरङ्कजुषः (1 / 112) तरुणतातरणि (47) तरमूरुयुगेन (2 / 37) तव प्रवेशे सुकृतानि (8 / 27) तव रूपमिदं (2 / 45) तव वत्मनि वर्ततां (2062) तव संमतिमेव (2048) तवापि हाहा विरहात् (1 / 149) तवास्मि मां पातुक (9 / 151) तवेत्ययोगस्मर० (9 / 133) तस्माददृश्यादपि (6 / 32) तस्मिन्नलोसाविति (815) तस्मिन्नियं सेति (673) तस्मिन्विमृश्यैव (6396) तस्मिन्विषज्याध० (6 / 42) तस्य तापनभिया (5 / 5) तस्या दृशो नृपति० (33131) | तस्यैव वा यास्यसि (3 / 47) Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 575 तां कुण्डिनाख्यापद (6 / 4) ताभ्यामभूयुग० (4 / 117) तामितिरप्यनु (35) तामेव सा यत्र (670) तारुण्यपुण्या (6 / 40) तालं प्रमुस्यादनु (774) तीर्णः किमों (8 / 26) तुल्यावयोर्मूति (3 / 102) तुषारनिःशेषित (8 / 104) तेन जाग्रदधृति (5:35) तेन तेन वचसैव (5 / 103) तेषामिदानी किल (8 / 60) तेषु तद्विधवधू० (5 / 67) त्रिनेत्रमात्रेण रुषा (8.63) त्वं हृद्गता भैमि (3 / 105) त्वचः समुत्तार्य (7 / 31) त्वच्चेतसः स्थयं० (370) त्वत्कान्तिमस्माभि (891 : त्वत्प्रापकात् त्रस्यति (3 / 110) स्वदग्रसूच्या (180) त्वदर्षिनः सन्तु 8194) स्वदास्यनियन्मद० (9 / 63) त्वदितरोऽपि (4 / 31 त्वद्गुच्छावलिमी० (3 / 127) त्वद्गोचरस्त्वं खलु (872) त्वदबुद्धबंहि (33101) त्वमभिधेहि (4 / 50) त्वमिव कोऽपि (4 / 98) परिशिष्टम्-४ त्वमुचितं नयना• (499) त्वया जगत्युच्चित० (8 / 42) त्वया निधेया न (3 / 94) त्वयापि किं शङ्कित० 2 / 73) त्वयि वीर विराजते (2 / 44) त्वयि स्मराधेः (3 / 115) त्वयकसत्या (9 / 55) त्वरस्व पञ्चेषु (9 / 88) दत्त्वात्मजीवं त्वयि (3 / 86) ददाम किं ते (8.102) ददृशे न जनेन (2071) ददेऽपि तुभ्यं (9 / 131) दधदम्बुदनील० (2282) दमनादमनाक (2017) दमस्वसः सेय (8570) दयस्व किं घात० (893) दयितं प्रति यत्र (2274) दयोदयश्चेतसि (8195) | दलोदरे काश्चन० (6 / 63) ! दहति कण्ठमयं (4 / 71) दहनजा न पृथु० (4 / 46) दानपात्रमधमर्ण (5 / 92) दारिद्रयदारिद्र० (3 / 25) दिगीशवृन्दांश० (116) दिगीश्वरायं न (9 / 69) दिने दिने त्वं (190) दिवारजन्यो (7155) दिवो धवस्त्वां (974) Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 . दिवौकसं कामयते (9 / 41) दुर्लभं दिगधिपः (5 / 80) दूते नलश्रीभृति 8.16) दूत्याय दैत्यारिपतेः (61) दृगपहत्यपमृत्यु० (4185) दृशापि सालिङ्गित (8 / 10) दृशोरमङ्गल्यमिदं (9 / 106) दृशोद्वंयी ते (9 / 67) दृशोर्यथाकाम (7 / 9) दृशो किमस्या (7 / 34) दृशो मृषा पातकि (9 / 91) दोर्मूलमालोक्य (6 / 20) द्रुतविगमित० (4 / 118) द्विषद्भिरेवास्य (1172) धनुमंधुस्विन्न० (1581) धनुषी रतिपञ्च० (2 / 28) धन्यासि वैदभि (3 / 116) धरातुरासाहि (3 / 95) धर्मराजसलिलेश० (5 / 68) धातुनियोगादिह (3 / 18) घार्यः कथंकार० (3 / 15) धिक्चापले वत्सि० (3155) धिक तं विधेः पाणि (3 / 32) धिगस्तु तृष्णातरलं (1 / 130) धिनोति नास्मान् (897) धियात्मनस्ताव (9 / 124) धुतापतत्पुष्प० (9 / 861) धृतलाञ्छनगो० (2 / 26) नैषधीयचरिते धृताधृतेस्तस्य (8 / 67) धृताल्पकोपा (38) ध्रुवमधीतवती (43). न काकुवाक्यैरति (9 / 93) न का निशि स्वप्न. (1 / 30) न केवलं प्राणिवधो (1 / 131) न खलु मोहवशेन (4 / 36) न जातंरूपच्छद० (11129) न तुलाविषये (2051) नत्वा शिरोरत्न० (820) नभसः कलभ (2067) न मन्मथस्त्वं (8 / 29) नरसुराब्जभुवा० (4 / 44) नलं तदावेत्य (9 / 137) नलं स तत्पक्ष० (9 / 128) नलप्रणालीमि० (63) नलविमस्तकित० (4 / 68) नलस्य पृष्टा (1137) नलाश्रयेण त्रिदिव० (3 / 45) नलिनं मलिनं (2 / 23) नलेन भायाः (3 / 117) न वनं पथि (2072) न वर्तसे मन्मथ० (9 / 118) नवा लता गन्ध० (1185) न वासयोग्या (1 / 128) न व्यहन्यत कदापि (5 / 123) न संनिधात्री (9 / 78) न सुवर्णमयी (2052) Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-. नाकलोकभिषजोः (5 / 46) निवेवतां हन्त (8 / 24) नाक्षराणि पठता (5 / 121) निशा शशाङ्क (3 / 48) नात्र चित्रमनु (52) निशि शशिन् भज (4154) नाभ्यधायि नृपते (5 / 117) निषिद्धमप्याचरणी० (9 / 36) नामधयसमता० (5 / 10) निषेधवेशो विधि० (950) नावा स्मरः किं (1 / 66) नृपनीलमणी० (2275) नासादसीया (7 // 36) नृपमानसमिष्ट० (28) नास्ति जन्यजनकः (5 / 94) नृपाय तस्मै (199) नास्पशि दृष्टापि (7 / 17) / नृपेण पाणि (3 / 69) नास्माकमस्मा० (8 / 104) नृपेऽनुरूपे (1133) निःशङ्कसंकोचित० (777) नेत्राणि वैदर्भसुता० (33) निजस्य वृत्तान्त० (9 / 79) नैनं त्यज क्षीरधि० (680) निजांशुनिर्दग्ध० (9 / 146) नैव न प्रियतमो० (5 / 69) निजा मयूखा (1165) नैषधे वत वृते (5 / 71) निजे सृजास्मासु (8192) न्यधित तदृदि (4 / 41) नित्यं नियत्या (6 / 103) न्यवेशि रत्नत्रितये (971) निपतितापि न (4 / 51) न्यस्तं ततस्तेन (8183) निपीय पीयूषरसौ (9 / 72) पङ्कसंकरविहित (5 / 87) निपीय यस्य (11) पतगचिरकाल० (27) निमीलनंभ्रंश (1127) पतगेन मया 2013) निमीलनस्पष्ट० (6 / 22) पतत्रिणा तबुचिरेण (1 / 127) निमीलितादक्षि (1140) पतिवराया (981) निरस्य दूतः स्म (9 / 38) पदं शतेनाप (682) निरीक्षितं चाङ्ग० (8112) / पदातिथेयांल्लिखि० (9 / 143) निलीयते ह्रीविधुरः (3333) पदे पदे भाविनि (3 / 11) निवारितास्तेन (1 / 11) पदे पदे सन्ति भटा (1 / 132) निविशिते यदि (4 / 11) पदे विधातुर्यदि (10) निवेक्ष्यते यद्यनले (9 / 47) | पदैश्चतुभिः सु० (17) Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोपहारेऽनुप० (8 / 22) पद्भ्यां नृपः संचर० (6 / 57) पद्माङ्कसमानमवे० (749) पयोधिलक्ष्मीमुषि (11117) पयोनिलीनाभ्र० (1 / 108) परवति दमयन्ति (3 / 134) परस्परस्पर्शरसो० (6155) परिखावलयच्छलेन (2 / 95) परिमृज्य भुजा (2050) परिष्वजस्वा० (9 / 116) परेतभतुमनसेव (6 / 109) पर्यङ्कतापन्नसर० (3.66) पर्यभूद्दिनमणि (5 / 6) पर्वतेन परिपीय (5 / 44) पवित्रमत्रातनुते (112) पश्यन् स तस्मिन् (6.18) पश्याः पुरन्ध्रीः (6 / 39) पाणये बलरिपो (5 / 45) पाणिपीडनमहं (5 / 99) पातु{शालेख्य / 3 / 104) पार्थिवं हि निज० (5 / 15) पिकरुतिश्रुति (4 / 35) पिकस्य वाङ्मात्र० (8 / 64) पिकाद्वने शृण्वति (1188) पितुनियोगेन / 3 / 72) पीयूषधारानध० (3 / 42) पुंसि स्वभर्तृव्यति० (6 / 43) पुण्ये मनः कस्य (8 / 17) नैषधीयचरिते पुत्री सुहृद्येन (877) पुमानिवास्पशि (6 / 47) पुरः सुरीणां (9 / 28) पुरस्थितस्य (6 / 141) पुरभिदा गमिता (476) पुराकृति स्त्रण (7 // 15) पुरा परित्यज्य (8 / 23) पुरा हठाक्षिप्त (1197) पुष्पाणि बाणाः (787) पुष्पेषुश्चिकुरेषु (3 / 128) पूर्वपुण्यविभव० (5 / 17) पृथुवर्तुलतन्नि० (2 // 36) पौरस्त्यशैलं जन० (8152) पौष्पं धनुः किं (7 / 24) प्रकाममादित्य० (1 / 115) प्रकृतिरेतु गुणः (4 / 23) प्रक्षीण एवायुषि (6 / 100) प्रतिप्रतीकं (72) प्रतिमासमसौ (2158) प्रतिहट्टपथे (2 / 85) प्रतीपभूपैरिव (1 / 13) प्रत्यङ्गमस्या० (7 / 19) प्रत्यतिष्ठिपदलं (5 / 96) प्रथमं पथि लो० (2065) प्रभुत्वभूम्ना (9 / 109) प्रयातुमस्माक (1 / 69) प्रवसते भरतार्जुन (5 / 134) / प्रसीद तस्मै (9 / 53) Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 579 प्रसीद यच्छ (9 / 147) प्रसूनबाणा० (748) प्रसूनमित्येव (9 / 139) प्रसूप्रसादाधिगता (6 / 59) प्रागिव प्रसुवते (5 / 14) प्राची प्रयाते विरहा० (8 / 62) प्रापितेन चटुकाकु (5 / 84) प्राप्तव तावत्तव (8 / 49) प्रियं न मृत्युं न (9 / 92) प्रियं प्रियां च (1138) प्रियकरणग्रहमेव (4 / 30) प्रियसखीनिव० (4 / 1 / 101) प्रियां विकल्पोपहतां (6 / 17) प्रियाङ्गपान्था (76) प्रियानखीभूत० (8 / 106) प्रियामनोभूशर० (8188) प्रियामुखीभूय (152) . प्रियासु बालासु (1 / 118) प्रिये वृणीष्वामर (8 / 103) प्रेयसीजितसुधांशु० (5 / 131) प्रेषिताः पृथगथो (5 / 56) प्रेयरूपकविशेष० (5 / 66) प्लुष्टः स्वैश्वापरोपैः (8 / 105) फलमलभ्यत (481) फलानि पुष्पाणि (1177) फलेन मूलेन च (11133) बत ददासि (4184) बन्धाढ्यनानारत० (3 / 124) परिशिष्टम्-४ बन्धाय दिव्येन (3 / 20) बन्धुकबन्धुभव० (8137) बलिसद्म दिवं (2 / 84) बहुकम्बुकमणि (2188) बहुरूपकशाल० (2 / 83) बाहू प्रियाया जयतां (7 / 68) बिति वंशः कतमः (9 / 6) बिभेति रुष्टासि (3 / 112) बिभेमि चिन्तामधि (9 / 31) ब्रवीति ते किं (8 / 48) ब्रह्माद्वयस्यान्व० (7 / 3) भङ्गुरं च वितथं (5 / 118) भजते खलु (2 / 33) भवत्पदाङ्गुष्ठमपि (8 / 36) भवद्वियोगाच्छुिदुर० (3 / 113) भवन्नदृश्यः प्रति (6 / 46) भविता न विचार० (2015) भव्यानि हानीर० (7 / 26) भिक्षिता शतमखी (5 / 21) भीमजा च हृदि (5 / 82) मुवनत्रयसुभ्रवामसी (2018) भुवनमोहनजेन (483) भूयोऽपि बालो (8331) भूयोऽर्थमेनं (6 / 11.) भूलोकभतुर्मुख० (8 / 14) भृशं वियोगा० (9 / 89) भृशतापभृता (2 / 53) भैमी च दूत्यं च (689) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैषधीयचरिते भैमीनिराशे हृदि (6 / 16) भैमीपदस्पर्श० (65) भैमीमुपावीणय (6 / 65) भैमीविनोदाय (6 / 74) भैमोसमीपे स (6 / 72) भैम्या समं नाजगण. (6 / 2) भ्रमणरयविकर्ण० (3 / 108) भ्रमन्नमुष्या (6 / 36) भ्रमामि ते भमि (9 / 51) भ्रूभ्यां प्रियाया (7 / 25) भ्रश्चित्रलेखा (7 / 92) मग्ना सुधायां (15) मतः किमैरावत० (9 / 52) मत्तपः क्वनु तनु (5 / 95) मत्प्रीतिमाधित्स० (3158) मदनतापभरेण (4 / 10) मदन्यदानं प्रति (3375) मदर्थसन्देश (1 / 137) मदुग्रतापव्यय० (9 / 95) मदेकपुत्रा जननी (1 / 135) मद्विप्रलभ्यां पुन० (3 / 78) मध्यं तनूकृत्य (7582) मध्ये श्रुतीनां (3365) मध्योपकण्ठावध० (7 // 40) मनसि सन्तमिव (4 / 12) मनस्तु यं नोज्झति (3 / 59) मनोरथेन स्व० (1139) मन्दाकिनीनन्दन० (683) मन्दाक्षमन्दाक्षर (3 / 61) मन्मथाय यदथा० (5 / 31) मन्येऽमुना कर्ण (164) मम त्वदच्छाध्रि (9 / 107) मम श्रमश्चेतनया ( 926) ममादरीदं विद० (9 / 100) ममापि किं नो (9 / 98) ममाशयः स्वप्न. (9 / 32) ममासनार्धे भव (9 / 114) ममैव पाणीकरणे (9 / 68) ममैव वाहदिन० (9 / 96) ममैव शोकेन (1 / 140) मयाङ्ग पृष्टः कुल० (913) मयापि देयं प्रति० / 9 / 16) मयैव सम्बोध्य (9 / 140) मल्ललत्पल्लव० (1 / 94) महाजनाचार० (2013) महारथस्याध्व० (1 / 61) मही कृतार्था (8 / 44) महीभृतस्तस्य (1126) महीमहेन्द्रः खलु (3171) महीमहेन्द्रस्तम० (1 / 119) महीयसः पङ्कज (1 / 113) महेन्द्रदूत्यादि (9 / 102) महेन्द्रहेतेरपि (9 / 150) मां वरीियति (5 / 70) मा धनानि कृपणः (5 / 89) मानुषीमनुसरत्यथ (5 / 47) Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-४ माममीभिरिह (5 / 90) मीयतां कथमभी० (5 / 83) मीलन्न शेके (6 / 21) मुखपाणिपदाक्षिण (2 / 96) मुखरयस्व यशो (4153) मुग्धः स मोहात्सु (8 / 39). मुद्रितान्यजन० (5 / 12) मुनिर्यथात्मान (9 / 121) मुनिद्रुमः को (1196) मुहूर्तमानं भव (1 / 136) मृगया न विगीयते (2 / 9) मृमस्य नेत्रद्वितयं (8 / 40) मृषाविषादा (1151) मेनका मनसि (5151) यं प्रासूत सहस्र० (5 / 136) यं बभार दहनः (5 / 63) यः प्रेर्यमाणोऽपि (679) यत्पथावधिरणुः (5 / 29) यत्प्रत्युत त्वन्मृदु (8182) यत्प्रदेयमुपनीय (5 / 85) यत्रावदत्तामति० (6 / 68) / यत्रकयालीकन० (6 / 61) यथा कृतिः काचन (828) यथातथा नाम गिरः (9 / 29) यथायथेह त्वदु० (9 / 20) यथोह्यमानः (1332) यदक्रम विक्रमज० (84) यदगारघटा (2189) यदतनुज्वरभाक् (4 / 2). 'यदनुस्त्वमिदं (4 / 93) यदतिविमलनील (3 / 103) यदम्बुपूरप्रति (1 / 116) यदवादिष० (2011) यदस्य यात्रासु (108) यदापवापि (9 / 142) यदि त्रिलोकी (3 / 40) यदि प्रसादीकुरुते (7 / 43) यदि स्वभावान्मम (9 / 10) यदि स्वमुन्धुमना (9 / 46) यन्मती विमल० (5 / 106) यशः पदाङ्गुष्ठ० (8 / 160) यशो यदस्याजनि (3 / 39) यस्तन्वि भर्ता (8180) यस्ते नवः पल्लवितः (3 / 121) यस्मिन्नलस्पृष्ट० (6 / 35) यां मनोरथमयीं (5 / 109) याचमानजनमान० (5 / 88) याचितश्विरयति (5 / 126) यानेन तन्व्या (7 / 102) | यानेन देवान्न (6 / 85) यान वरं प्रति परे (5 / 132) यापदृष्टिरपि (5 / 120) यामिकाननु० (5 / 110) यामि यामिह (5 / 107) यावदागमयतेऽथ (5 / 1) युवद्वयौचित्त० (1195) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 नैषधीयचरिते . येषु येषु सरसा (5 / 32) यो मघोनि दिव० (5148) रचय चारुमते (4 / 114) रज्यन्नखस्या (770) रज्यस्व राज्ये (6 / 84) रतिपतिप्रहिता (4 / 40) रतिपतेविजयास्त्र० (4 / 37) रतिवियुक्तमनात्म० (4 / 78) रथाङ्गभाजा (1.111) रथादसौ सोरथिना (67) रम्भापि कि चिह्न (7 / 93) रविकान्तमयेन (2 / 93) रवगुणास्फा० (8168) रसालसाल: (189) रसैः कथा यस्य 112) राजा द्विजानामनु (8 / 37) राजा स यज्वा (3 / 24) राजौ द्विजानामिह (6 / 46) रामणीयकगुणा (5 / 65) रिपुतरा भवना (4 / 24) रुषयोऽस्तमितस्य (2 / 90) रुषा निषिद्धालि 3 / 12) रुषारुणा सर्वगुणः (7101) रूपं प्रतिच्छायिक (6 / 45) रूपमस्य विनिरू० (5 / 62) रेखाभिरास्ये (3 / 35) रोमाञ्चिताङ्गीमनु (6 / 23) रोमावलीदण्ड (7 / 90) रोमावलीभ्रू (7 / 86) रोमावलीरज्जु (784) रोहण: किमपि यः (5 / 125) लघी लघावेव (9 / 152) लताबलालास्य (11106) लिपि दृशा भित्ति (3 / 103) लिपिन दैवी सुपठा (6177) लिलिहे स्वरुचा (2 / 100) लोक एष परलोक (5 / 91) लोकस्रजि द्यौदिवि (6 / 81) वदनगर्भगतं (4 / 65) वद विधंतुद (4 / 70) वनान्तपर्यन्त (1175) वयं कलादा इव ( 8199) वयसी शिशुता (2 / 30) वरणः कनकस्य (2 / 86) वराटिकोपक्रियया (3388) वर्षेषु यद्भारत (6 / 97) वहतो बहुशैव० (216) वाग्जन्मवैफल्य० (8 / 32) वाचं तदीयां (3 // 60) वापि नासत्य (3 / 44) वासः परं नेत्र० (78) विचिन्वतीः पान्थ (1986) विचिन्त्य बाला (3 / 68) विज्ञप्तिमन्तः (6 / 76) विशेन विज्ञाप्य (3 / 96) विततं वणिजापणे (2 / 91) Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-४ 583 वित्थ चित्तमखि (5 / 105) विदर्भराजप्रभवा (9 / 141) विदर्भसुभ्रूस्तन० (182) विद्या विदर्भेन्द्र० (7 / 41) विधाय मतिं (1 / 124) विधाय भूर्धान (७१९४)विधि वधूसृष्टि० (3 / 50) विधिरनंशम० (4 / 88) विधुकरपरिरम्भा (2 / 106) विधुदीधितिजेव (2194) विधुरमानि तया (4 / 20) विधुविरोधितिथेः (4 / 107) विधेः कदाचिभ्रमणी (3.19) विधोविधिबिम्ब० (7 / 59) विनमद्भिरधः स्थिते (270) विना पतत्रं विनता (3 / 37) विनिद्रपत्रालि (1178) विनिहितं परि० (4 / 28) विभज्य मेरुन (1 / 16) विभिन्दता दुष्कृति० (9 / 62) विभ्रम्य तच्चाह० (77) वियोगबाष्पा० (761) वियोगभाजां 179) वियोगिनीमैक्षत (1983) विरम्यतां भूतवती (8056) विरहतप्ततदङ्ग (4 / 32) विरहतापिनि (4 / 27) विरहपाण्डिम (4 / 15) विरहपाण्डुकपोल (4 / 26) विरहिणी विमुख (4 / 96) विरहिभिबहु (4 / 63) विरहिवविध (4162) विलम्बसे जीवि० (9 / 90) विललास जलाशयो (8179) विलासवापीतट (1 / 102) विलेखितुं भीमभुवो (6 / 64) विलोकयन्तीभि (1 / 29) विलोकितास्या (7.51) विलोक्य तच्छाय (6 / 44) विवेश गत्वा स (174) विश्वदृश्वनयना (5 / 101) विश्वरूपकलना (5 / 39) विषमो मलयाहि० (2 / 57) विष्टरं तटकुशा० (5 / 7) विहाय हा सर्व० (9 / 44) वीक्षितस्त्वमसि (5 / 42) वीक्ष्य तस्य वरुणः (5 / 61) वीक्ष्य तस्य विनये (5 / 20) वृणे दिगीशानिति (9 / 70) वृथा कथेयं मयि (9 / 9) वृथा परीहास (9 / 25) वृथापंयन्तीमपथे (3 / 14) वेद यद्यपि (5 / 36) वेलातिगस्त्रण (3 / 49) वेलामतिक्रम्य (4) वेश्माप सा धैर्य० (6 / 56) . Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 नेधीयचरिते वैदर्भीकेलिशैले (2 / 105) व्यतरदथ (4 / 119) व्यवत्त धाता (754) व्यर्थीकृतं पत्रर० (316) व्यर्थीभवद्भाव (8 / 19) श्रवणपुरयुगेन (6 / 112) श्रवणपूरतमाल (4156) श्रितपुण्यसरः (2039) श्रियमेव परं (2 / 18) श्रियस्तदालिङ्गन (3 / 31) श्रियास्य योग्या (1931) श्रियो नरेन्द्रस्य (3 / 36) श्रीभरानतिथि० (5 / 23) व्रज धृति त्यज (4 / 105) व्रजन्तु ते तेऽपि (9 / 154) शतशः श्रुतिमा० (2054) शरैः प्रसूनैस्तुदतः (8066) शरैरजस्रं कुसु० (875) शशकलङ्क भयं० (4 / 55) शशाक निह्नोतु० (1152) शशिमयं दहनास्त्र० (4 // 38) शस्ता न हंसाभि० (3 / 9) शारी चरन्तीं सखि (671) शिखी विधाय (975) शिरीषकोषादपि (47) शिरीषमृद्वी (9 / 58) शीघ्रलशितपथ (5 / 58) शुद्धवंशजनितो (5 / 10) शुद्धान्तसंभोग (3393) शुमाष्टवर्गस्त्वद (9 / 119) शुभूषिताहे (6 / 94) शृण्वन् सदार (3 / 28) शैशवव्ययदिनां (5 / 33) शोभायशोभिजित (8 / 34) श्रवः प्रविष्टा इव (3 / 74) श्रुतः स दृष्टश्च (3 / 82) श्रुतिः सुराणां (9 / 148) श्वस्तस्या प्रिय० (9 / 158) षड़तवः कृपया (4 / 92) संख्यविक्षत० (5 / 25) संग्रामभूमीषु (3 / 38) संघट्टयन्त्यास्त० (6 / 28) संचीयतामाश्रुत० (3.83) संज्ञाप्य नः स्वध्वज (3 / 34) संपदस्तव गिरा (5 / 22) संप्रति प्रतिमुहूर्त (5 / 27) संभुज्यमानाध (7342) संसारसिन्धावनु (8 / 46) सकलया कलया (4 / 72) सखि जरां परिपृच्छ (4 / 69) सखीशतानां सरसैः (6 / 58) स गरुद्वनदुर्ग (2 / 4) स जयत्यरि० (2016) सत्येव साम्ये (7 / 14) Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-४ त्वस्रुतस्वेद० (3 / 123) मा तदाशामधि (9 / 76) शी तव (2 / 29) धर्मराजः खलु (956) लमात्मानन० (11112) अन्नमर्मापि (973) समृदष्टापि (3189) स्सपत्नीभव० (8186) सणमदः (2 / 92) समय प्रावृष (9 / 112) सयौ घृतपक्षतिः (2068) सा नृपमय० (3 / 133) सोः परिशी० (2040) संजनीमानस (376) सरुहं तस्य (1 / 24) स्तः कुशल० (5 / 74) स्त्र संवाद्य (6 / 54) गेलमालिङ्ग (678) व्यतीत्य विश्व (5 / 8) भ्यापसव्यत्यज० (33114) सम्भ्रमोपातिप० (1 / 126) सिन्धुजं शीत० (1 / 64) इचरोऽसि रते (4 / 77) ह तया स्मर (4 / 94) हस्रपत्रासन (3 / 16) हाखिलस्त्रीषु (9 / 40) साषु त्वया तकि० (377) साधु नः पतन० (5 / 50) साधोरपि स्वः (6 / 99) सापीश्वरे शृण्वति (3 / 09) साभिशापमिव (5 / 16) सा भुवः किमपि 5 / 26) सारोत्थधारेव (8185) सालीकदृष्टे मदनो० (8 / 18) सा शरस्य कुसु० (5 / 30) सितत्विषश्चञ्च० (1 / 62) सितदीप्तमणि (2176) सितांशुवर्णः (1 / 12) सिताम्बुजानां (1 / 110) सुगत एव विजित्य (4180) सुताः कमाहूय (1 / 142) सुदतीजनमज्जना० (2177) सुधांशुवंशाभरणं (9 / 15) सुधारसोटेल० (9 / 113) सुधासरस्सु त्वद० (8 / 100) सुरापराधस्तव (9 / 153) सुरेषु पश्यन्निज० (9 / 129) सुरेषु संदेशयसी० (9 / 19) सुवर्णशैलादवतीर्य (3 / 22) सुषमाविषये (2 / 27) सुहृदमग्निमुदञ्च० (4 / 14) सूक्ष्मे घने नैषध० (8 / 13) सूतविश्रमद० (5 / 60) सृष्टातिविश्व (85108) सेयं न धत्ते० (8 / 45) सेयं ममैतद्वि० (7 / 45) Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 सेयं मृदु कौसुम० (7 / 28) सेयमुच्चतरता (5 / 104) सोमाय कुप्यन्निव (8174) स्तनद्वये तन्वि (3 / 118) स्तनावटे चन्दन० (780) स्तुती मघोन० (6 / 91) स्त्रिया मया वाग्मिषु (9 / 37) स्थितस्य रात्रावधि (3 / 108) स्थितिशालि० (2 / 98) स्पर्श तमस्याधिग० (6 / 52) स्पर्शातिहर्षा 0 (653) स्फुटति हारमणी (4 / 109) स्फुटत्यदः किं (9 / 125) स्फुटोत्पलाभ्यां (985) स्फुरखनुनिस्वन० (1 / 9) स्मरकृतां हृदयस्य (4 / 16) नैषधीयचरिते स्मर नृशंसतम (4 / 86) स्मरमुखं हरनेत्र (4 / 73) स्मररिपोरिव (487) स्मरवराहति० (49) स्मरसखो रुचिभिः (4 / 66) स्मर स मदुरितः (4 / 95) स्मरस्य कीत्येष (879) स्मरहुताशन० (4 / 29) स्मरात्परासो (1136) स्मरार्धचन्द्रेषु० (1184) स्मराशुगी भूय (6 / 67) स्मरेण निस्तक्ष्य (3 / 109) स्मरेषुमायं सहसे (9 / 110) स्मरोपतप्तोऽपि (1150) स्मारं ज्वरं घोर (3 / 111) Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1200 हमारे महत्त्वपूर्ण छात्रोपयोगी प्रकाशन जिनमें मूल पाठ के साथ संस्कृत-हिन्दी टीका, भूमिका नोट्स एवं अन्य छात्रोपयोगी सामग्री है। अभिज्ञान शाकुन्तल सुबोधचन्द्र पन्त उत्तर रामचरित आनन्द स्वरूप 15.00 कर्प र मंजरी गंगा सागर राय 1200 कादम्बरी ( कथामुख) रतिनाथ झा काव्यदीपिका परमेश्वरानन्द किरातार्जुनीय [ 1-6 सर्ग] जनार्दन शास्त्री पाण्डेय चन्द्रालोक सुबोधचन्द्र पन्त दशरूपकम् डॉ० बैजनाथ पाण्डेय 18.00 नागानन्द नाटक संसारचन्द्र 5.00 नीतिशतक जनार्दन शास्त्री प्रतिमानाटक श्रीधरानन्द शास्त्री 5.00 प्रसन्नराघव रमाशंकर त्रिपाठी बालचरित कमलेशदत्त त्रिपाठी भट्टिकाव्य [1-8 सर्ग] रामअवध पाण्डेय 1500 मृच्छकटिक रमाशंकर त्रिपाठी 1800 मालविकाग्निमित्र संसारचन्द्र मेघदूत संसारचन्द्र 10.00 रत्नावलीनाटिका रमाशंकर त्रिपाठी 4.00 रामाभ्युदययात्रा श्यामाचरण पाण्डेय 7.00 वृत्तरत्नाकर 7.50 वेदान्तसार बद्रीनाथ शुक्ल 40.00 बेणीसंहार रमाशंकर त्रिपाठी शिशुपालबध [ 1-5 सर्ग] जनार्दन शास्त्री पाण्डेय स्वप्नवासवदत्त जयपाल विद्यालंकार साहित्यदर्पण शालिग्राम शास्त्री सौन्दरनन्दकाव्य सूर्यनारायण चौधरी हितोपदेश-मित्रलाभ विश्वनाथ झा मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली :: पटना :: वाराणसी our VVXxvoxv9990000004 0000000000000000000