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________________ अष्टमः सर्गः तव प्रवेशे सुकृतानि हेतुर्मन्ये मदक्ष्णोरपि तावदत्र। न लक्षितो रक्षिभटैर्यदाभ्यां पीतोऽसि तन्वा जितपुष्पधन्वा // 27 // अन्वयः-तव अत्र प्रवेशे मदक्ष्णोः सुकृतानि अपि तावत् हेतुः ( इति ) मन्ये यत् रक्षिभटैः त्वम् न लक्षितः ( तथा ) तन्वा जितपुष्पधन्वा ( त्वम् ) यत् आभ्याम् पीतः असि / ___टीका-तव अत्र अस्मिन् अन्तःपुरे प्रवेशे आगमने मम अक्ष्णो: नयनयोः (प० तत्पु० ) सुकृतानि पूर्व-जन्मकृतपुण्यानि अपि तावत आदी हेतुः कारणम् इत्यहं मन्ये वेनि; यत् यस्मात् रक्षिण: रक्षकाश्च ते भटा: सैनिकाः तै: (कर्मधा०) त्वच न लक्षितः दृष्टः मदक्ष्णोः प्रथमं सुकृतमिदमेवास्ति; तथा तन्वा शरीरेण शरीरलावण्येनेत्यर्थः जितः पराभूतः पुष्पधन्वा कामः येन तथाभूतः ( ब० वी) पुष्पं धनुः यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) त्वम् यत् आभ्याम् नयनाभ्याम् पीत: सादरं दृष्टः, रक्षकसैनिकैः त्वं न दृष्टः, मन्नयनाभ्यां च दृष्टः इति तावत् मम नयनयोरेव पुण्यमस्तीति भावः // 27 // व्याकरण-अक्ष्णोः अश्नुते ( व्याप्नोति ) विषयानिति / अश् + क्सि / सुकृतानि सु + /कृ + क्त ( भावे ) / पुष्पधन्वा ब० वी० में धनुष के अन्त को अनङ आदेश ( 'धनुषश्च' 5 / 4 / 132 ) / ___ अनुवाद- “यहाँ तुम्हारे प्रवेश में पहले मेरी आँखों के पुण्य भी कारण हैं जो रक्षक सैनिकों ने तुम्हें नहीं देखा ( ता ) शरीर ( के सौन्दर्य ) से कामदेव को जीते हुए तुम्हारे इन आँखों ने दर्शन किये हैं" // 27 // झोंक कर यहाँ आये हुए तुमने जो मुझे दर्शन दिये हैं यह सब पूर्व जन्म में किये गये मेरी आँखों के पुण्यों का फल है। जितपुष्पधन्वा में उपमा है, क्योंकि साहित्य-शास्त्री दण्डी ने जीतने आदि प्रयोगों को सादृश्य वाचक मान रखा है। काव्यलिङ्ग स्पष्ट ही है किन्तु विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं, जो हम समझ नहीं पाते। 'तन्वा' 'धन्वा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यथाकृतिः काचन ते यथा वा दौवारिकान्धङ्करणी च शक्तिः / रुच्यो रुचीभिजितकाञ्चनीभिस्तथासि पीयूषभुजां सनाभिः // 28 //
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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