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________________ नवमः सर्गः 419 अनुग्रहादेव दिवौकसां नरो निरस्य मानुष्यकमेति दिव्यताम् / अयोविकारे स्वरितत्वमिष्यते कुतोऽयसां सिद्धरसंस्पृशामपि // 42 // अन्वयः-नरः दिवौकसाम् अनुग्रहात् एव मानुष्यकम् निरस्य दिव्यताम् एति सिद्ध-रस-स्पृशाम् अयसाम् अपि अयोविकारे स्वरितत्वम् कुतः इष्यते ? टीका-नरः मनुष्यः दिवौकसाम् देवानाम् अनुग्रहात् कृपातः एव निश्चयेन मानुष्यकम् मनुष्यत्वम् निरस्य निराकृत्य त्यक्त्वेतियावत् दिव्यताम् देवत्वम् एति प्राप्नोति देबतानाम् एषा कृपा यत् मनुष्यः मानुषदेहं त्यक्त्वा देवो भवतीत्यर्थः / सिद्ध : ओषध्यादिभिः परिष्कृतः साधित इति यावत् यो रसः पारदः ( कर्मधा० ) तम् स्पृशन्तीति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पृ० ) अयसाम् लोहानाम् अपि अयसः लोहस्य विकारे विकृती (10 तत्पु० ) लोहविकारभूते पदार्थ इत्यर्थः स्वरितत्वम प्रक्षिप्तत्वम् कुतः कस्माद्धेतोः इष्यते काक्ष्यते / न कुतोऽपोति काकुः / सिद्धपारदस्पर्शेन स्वर्णीभूतलोहं यथालोहविकाररूपपदार्थेषु न गण्यते, स्वर्णे एव गण्यते तथैव त्वमपि देवसंसर्गात् देवत्वं प्राप्ता सती देवी एव भविष्यसि न मानुषी स्थास्यसि तस्मात् इन्द्रं देवं वरयेति भावः // 42 / / व्याकरण-नरः नरतीति / नृ + अच् ( कर्तरि ) / दिवौकसाम् इसके लिए पिछला श्लोक देखिये / मानुष्यकम् मनुष्यस्य भाव इति मनुष्य + बुन , बुन को अक् / निरस्य निर् + अस् + ल्यपू। दिव्यताम् दिवि भवः इति दिव+ यत् + तल + टाप् / स्वरितत्वम् / स्वर ( आक्षेपे )+ क्त ( कर्मणि ) + त्व। अनुवाद-"मनुष्य देवताओं की कृपा से मनुष्यत्व को छोड़कर देवत्व प्राप्त कर लेता है। सिद्ध किए हुए पारे का स्पर्श करने वाला ( सोना बना हुआ) लोहा भी कैसे कोई लोहे के बने पदार्थों में अन्तर्गत करना चाह सकता है ?" // 42 // - टिप्पणी-नल दमयन्ती के इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि मैं मानुषी हूँ, इन्द्र देवता हैं, उन्हें देवी ही व्याह सकती हैं, मानुषी कैसे ? 'नहीं, देवता के संसर्ग से तुम मानुषी न रहकर तब देवता बन जाओगी। सिद्ध किए हुए पारे के स्पर्श से जैसे लोहा सोना बन जाता है, लोहा नहीं रहता'। प्राचीन काल में लोग सिद्ध पारे से तांबे अथवा लोहे को सोना बनाने की प्रक्रिया जानते थे। इसका बहुत जगह उल्लेख मिलता है। अयोविकारेस्वरितत्वम्-चाण्डू पंडित,
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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