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________________ नैषधीयचरिते कल्पना मान रहे हैं कि समुद्र की अपनो भेदक-विशेषता-गाम्भीर्य और महानता-जब तुमने ले ली है, तो मानो अब वह न गम्भीर रहा, न महान्, इसलिए पीने के लिए उसका अगस्त्य की चुल्लू भर में आ जाना कोई कठिन बात नहीं है / चुल्लू भर में आ जाने का कारण बता देने से कायलिंग स्पष्ट ही है / 'विद्याधर 'अत्र विरोधातिशयोक्तिरलंकारः' कह रहे हैं। अतिशयोक्ति का यह नया ही प्रकार है / 'मुद्र' 'मुद्रः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / ( अगस्त्य द्वारा समुद्र पान के सम्बन्ध में पीछे सगं 4 श्लोक 58 अथवा सर्ग 6 श्लोक 2 देखिये। संसारसिन्धावनु बिम्बमत्र जागति जाने तव वैरसेनिः / बिम्बानु विम्बौ हि विहाय धातुन जातु दृष्टातिसरूपसृष्टिः // 46 / / अन्वयः-अत्र संसार-सिन्धी वैरसेनिः तव अनुबिम्बम् जागति ( इति ) जाने, हि धातुः अतिसरूपसृष्टिः बिम्बानुबिम्बो विहाय जातु न दृष्टा / टीका-अत्र अस्मिन् संसार: जगत् एव सिन्धुः सागरः तस्मिन् ( कर्मधा०) वैरसेनिः वीरसेनपुत्रो नल इत्यर्थः तव अनुविम्बम् प्रतिबिम्बम् जागति स्फुरति इत्यहं जाने मन्ये; हि यतः धातुः ब्रह्मणः समान रूपम् सौन्दर्यम् ( कर्मघा० ) येषां तथाभूताः (ब० वी० ) अतिशयेन समानरूपाः इति अति० (प्रादि तत्पु०) तेषाम् सृष्टिः रचना (10 तत्पु० ) बिम्बः वस्तु च अनुविम्बः प्रतिबिम्बः चेति ( द्वन्द्व ) बिहाय त्यक्त्वा जातु कदाचिदपि न दृष्टा विलोकिता, जले दर्पणे वा पतितः कस्यापि वस्तुनः प्रतिबिम्बः पूर्णतया वस्तुनः अर्थात् बिम्बस्य समानो भवति, बिम्बप्रतिबिम्बयोर्मध्ये ईषदपि भेदो न दृश्यते, किन्तु बिम्ब-प्रतिबिम्बातिरिक्ता सर्वापि ब्रह्मणः सृष्टि: रूपे नात्यन्तसमाना भवति / त्वं तु नलेन अत्यन्त समानोऽसीति भावः / / 46 // ... व्याकरण-संसार संसरतीति सम् +/स + घन / वरसेनिः वीरसेनस्यापत्यं पुमानिति वीरसेन + इन् / अनुबिम्बम् अनुगतो बिम्बमिति / अनुवाद -"इस संसार-रूपी सागर में नल तुम्हारे प्रतिबिम्ब-रूप में चमकते हैं-ऐसा में मानती हैं, क्योंकि ब्रह्मा की सृष्टि में बिम्ब-प्रतिबिम्ब को छोड़. कर अत्यन्त समान रूप वाले नहीं देखे गये हैं" // 46 // . टिप्पणी-संसार में देखा गया है कि बिम्ब के अत्यन्त समान प्रतिबिम्ब रही हुमा करता है, दूसरा नहीं, क्योंकि सभी में कुछ वैषम्य भी रहता है / नल
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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