SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमः सर्गः 299 अर्थ करने पर हो जाता है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पहले मानव के उल्लेख के सम्बन्ध में नारायण लिखते हैं--'संभावनया स्वाभिलषितत्वाच्च प्रथम मानवोक्तिः'। सेयं न धत्तेऽनुपपत्तिमुच्चैर्मच्चित्तवृत्तिस्त्वयि चिन्त्यमाने / ममौ स भद्रं चुलुके समुद्रस्त्वयात्तगाम्भीर्यमहत्त्वमुद्रः // 45 // अन्वयः-त्वयि चिन्त्यमाने ( सति ) सा इयम् मच्चित्तवृत्तिः उच्चैः अनुपपत्तिम् न धत्ते, (यतः) त्वया आत्त 'मुद्रः स समुद्रः भद्रम् चुलुके ममी। टीका-त्वयि भवति चिन्त्यमाने विचार्यमाणे अर्थात् यदाऽहं त्वद्-विषये विचारं करोमि त्वं कियान् गम्भीरः महांश्चासीति तदा, सा इयम् एषा मम चित्तस्य वृत्तिः ( उभयत्र ष० तत्पु० ) मनोवृत्तिः उच्चैः महतीम् अनुपपत्तिम् असंगतिम् अघटमानतामिति यावत् यत् अगस्त्येन ऋषिणा गम्भीरः महांश्च समुद्रः चुलुके पीत इति न धत्ते न धारयति, यतः त्वया आत्ते गृहीते गाम्भीर्यमहत्त्वे ( कर्मधा० ) गाम्भीर्यम् गभीरता च महत्त्वम् विशालता चेति ( द्वन्द्व ) तयोः मुद्रा चिह्नं यस्य तथाभूतः ( ब० वी०) स प्रसिद्धः समुद्रः भद्रम् सुखं यथा स्यात्तथा चुलुके उक्तमुनेः गण्डूषे ममी समाविष्टः / समुद्रस्य गाम्भीर्य विशालतां च त्वम् गृहीतवानिति अगम्भीरीभूतस्य अविशालीभूतस्य च समुद्रस्य चुलुकेन पानं अगस्त्यस्य ऋषेः कृते न किमपि काठिन्यम् आपादितवानिति भावः // 45 // व्याकरण-वृत्तिः/वृत् + क्तिन् ( भावे ) / अनुपपत्तिः न उप + /पद् + क्तिन् ( भावे ) / आत्त आ + /दा + क्त ( कर्मणि ) / दा के आ को त ( 'अच उपसर्गात्तः 7 / 4 / 47 ) / गाम्भीर्यम् गम्भीरस्य भाव इति गम्भीर+व्यञ् / ____ अनुवाद-"तुम्हारे सम्बन्ध में विचार किये जाने पर मेरी यह मनोवृत्ति ( यह कोई ) बड़ी भारी अनुपपत्ति अनहोनी घटना नहीं समझती ( कि किस तरह अगस्त्य ऋषि चुल्लू में सारा समुद्र पी गये ) / ( कारण यह कि ) तुमने जब ( समुद्र की ) गहराई और विशालता—ये भेदक चिह्न ले लिये तो वह समुद्र सहज ही चुल्लू में समा गया" // 45 // टिप्पणी-भाव यह है कि तुम गुणों में समुद्र से भी अधिक गम्मीर और महान् हो। मल्लिनाथ भद्रम् शब्द को उत्प्रेक्षा वाचक मानकर कवि की यह
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy