________________ सप्तमः सर्गः 241 व्याकरण-यानेन /या + ल्युट ( भावे ) / वन्ती दन्तो अस्य स्तः इति दन्त + इन् ( मतुबर्थ ) / अब्जम् अप्सु जायते इति अप् + जन् + ड / कतरः द्वयोः कः एकः इति किम् + इतरच , वस्तुतः बहुत से राजाओं में से किसी एक के लिए यहां 'कतमः' चाहिए था। शुश्रूषयितुम् -श्रु + सन् + णिच् + तुम् / इच्छू इच्छतीति /इष् + उः द्वि० व० / अनुवादयान ( गति ) में गज-पतियों को परास्त किये तथा सुन्दर पाणि (एडी) वाले कृशाङ्गी ( दमयन्ती ) के कमल जैसे चरण-रूपी भूपाल किस राजा के नीचे झुके सिर द्वारा अपनी शुश्रूषा करवाने के इच्छुक हैं-मैं नहीं जानता। [ राजे भी यान ( अभियान ) में गजपतियों ( गजों पर सवार उनके स्वामियों ) को परास्त किये, पाणि ( पृष्ठस्थित सेना ) से सुरक्षित हो उनके फिरों को अपने आगे झुकवाने के इच्छुक हुआ करते है] // 102 // टिप्पणा-कवि का भाव यहाँ किसी प्रणयी के अपनी प्रियतमा के पैरों में गिर पड़ जाने की घटना बताना है। प्रणयो कोई अपराध कर बैठता है, तो प्रणयिनी कोप कर देती है। पति उसे मनाते-मनाते अन्ततः उसके पैर पकड़ लेता है / प्रकृत में रूपक की अप्रस्तुत योजना में दमयन्ती के पैरों पर दो विजयी राजाओं की स्थापना की जा रही है जबकि उसका भावी पति, जो कोई राजा ही होगा, प्रणय-कलह में उसके पैरों में पड़ता हुआ उस राजे की भूमिका अपना रहा है, जो हार खाये हुए है और अपने विजयी राजाओं के आगे कृपा हेतु सिर झुकाये रहता है / भाव यह है कि दमयन्ती के पैर कमल समान हैं; एड़ियाँ बड़ी सुन्दर हैं, चाल में वह गजगामिनी है। राम जाने इन चरणों का सेवक कौन भाग्यशाली राजा होगा। चरण-कमलों पर राजत्व का आरोप होने से रूपक है, जो श्लेष-गभित है / पादाब्ज में लुप्तोपमा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। कर्णाक्षिदन्तच्छदबाहुपाणिपादादिनः स्वाखिलतुल्यजेतुः / उद्वेग भागद्वयताभिमानादिहैव वेधा व्यधित द्वितीयम् / / 103 // अन्वयः-स्वाखिलतुल्यजेतुः कर्णा'."दिनः अद्वयताभिमानात् उद्वेगभाक् वेधाः इह एव द्वितीयम् व्यधित / टीका--स्वस्य आत्मनः अखिलम् समस्तम् ( 10 तत्पु० ) यत् तुल्यम् सदृशम् शल्कुली-कमलादिवस्तुजातम् ( कर्मधा० ) तस्य जेतु: विजयिनः (10