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________________ नवमः सर्गः 453 आहवनीय और दक्षिण / सार्वकामिक यज्ञ में यजमान 'अग्नये स्वाहा, इदमग्नये' यों कह कर अग्नि को उसका अंश- भाग-हवि रूप में देते हैं। अग्नि भी स्वयं वह यज्ञ करेगा तो स्वयं होता बनकर अपने आप अपने को अपने में अपना अंश होगा श्लोक में तीन 'स्व' शब्दों का प्रयोग होता, हवि और आहवनीय-इनतीनों के लिए है। दूसरे लोगों द्वारा किया जानेवाला उक्त वैदिक यज्ञ जब उनकी कामनाओं को पूरा कर देता है तो अग्नि द्वारा स्वयं किया हुआ वह यहां क्यों न उसकी कामना पूरी करेगा? इसलिए, हे दमयन्ती ! बलात् पत्नी बनने की अपेक्षा स्वेच्छा से अग्नि की पत्नी बनने में ही तुम्हारा श्रेय है। यहाँ भी पूर्ववत् काव्यलिङ्ग है। 'विध' 'विधि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 75 / / सदा तदाशामधितिष्ठतः करं वरं प्रदातुं चलिताद्वलादपि / मुनेरगस्त्यावृणुते स धर्मराडयदि त्वदाप्ति भण का तदा गतिः // 76 // अन्वयः–स धर्मराट् सदा तदाशाम् अधितिष्ठतः / अत एव ) वरम् प्रदातुम् चलि तात् अगस्त्यात् मुनेः यदि बलात् त्वदाप्तिम् अपि वृणुते तत्र का गतिः ? भण। टीका-स प्रसिद्धः धर्मराट् यमः सदा सर्वदा तस्य यमस्य आशाम दिशाम् अधितिष्ठतः अधिवसतः अत एव वरम् अभीष्टं वस्तु करम् वलिम् राजदेयद्रव्य. मिति यावत् प्रदातुम् अर्पयितुम् चलितात् आगतात् अगस्त्यात् एतन्नामकात् मुनेः ऋषेः सकाशात् यदि चेत् बलात् बलपूर्वकम् तव आप्तिः प्राप्तिः ताम् ( ब० तत्पु० ) अपि वृणुते वररूपेण याचते तत्र तदा का गतिः अवलम्बः भण कथय / यमो हि दक्षिण-दिशायाः राजा यत्र अगस्त्यषिः वसति / सच यमाय कर-रूपेण अभीष्टवस्तु दातुं स्वयमेव तत्सविधे गच्छेत् स च त्वाम् एव कररूपेणाभीष्टवस्तु प्रदातुं याचेत, ऋषिश्च त्वां ददाति, तर्हि त्वमनिच्छयापि यमपली भविष्यस्येवेति स्येच्छयैव किन यमं वृणुषे इति भावः / 76 // व्याकरण-आशाम् अधितिष्ठतः अधि उपसर्ग के साथ स्था सकर्मक बन जाता है। धर्मराट् धर्मेण राजते इति धर्म + राज + क्विप ( कर्तरि)। मुनि: मनुते इति मन् + इन् ( कर्तरि ) नत्वम् निपातनात् / ('मननात् मुनिः' इति यास्कः ) / 'भण' इस क्रिया का सारा वाक्यार्थ कम है।
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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