SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 454 नैषधीयचरिते ___ अनुवाद-"प्रसिद्ध यमराज सदा उन ( यमराज ) की दिशा में रहने वाले, ( अत एव ) कर-रूप में अभीष्ट वस्तु देने हेतु ( उनके पास ) आये हुए अगस्त्य मुनि से यदि अभीष्ट वस्तुरूप में बल-पूर्वक तुम्हारी प्राप्ति की भी मांग कर लेते हैं, तो ( तुम्हारी ) क्या गति होगी? बोलो" // 76 // टिप्पणी-जो व्यक्ति जहाँ रहता है, उसे वहां के राजा को यथानियम कर देना ही पड़ता है। यम दक्षिण दिशा का राजा है। अगस्त्य दक्षिण में ही रहते हैं, कर-रूप में यदि यम अगस्त्य से दमयन्तीप्राप्ति भी मांग लेते हैं, तो ऋषि क्यों ना करेंगे? दमयन्तीम् की हो ही जाएगी। विद्याधर के अनुसार यहाँ कर पर वरत्वारोप में रूपक है। 'सदा, तदा' 'कर' 'वरं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'वरं' 'बला' में ( वबयोः, रलयोरभेदात् ) छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 76 // क्रतोः कृते जाग्रति वेत्ति कः कति प्रभोरपां वेश्मनि कामधेनवः ? / त्वदर्थमेकामपि याचते स चेत्प्रचेतसां पाणिगतैव वर्तसे / / 77 / / अन्वयः-( हे दमयन्ति / ) अपाम् प्रभोः वेश्मनि क्रतोः कृते कति कामधेनवः जाग्रति ( इति ) कः वेत्ति ? स चेत् त्वदर्थम् एकाम् अपि याचते ( तर्हि त्वम् ) प्रचेतसः पाणिगता एव वर्तसे / टीका-(हे दमयन्ति ! ) अपाम् जलस्य प्रभोः अधिष्ठातृदेवस्य वरुणस्य वेश्मनि गृहे क्रतो: यज्ञस्य कृते अर्थे हवीरूपेण क्षीरप्रयोगायेत्यर्थः कति कतिसंख्या. काः कामधेनवः सुरसुरभयः जाग्रति सन्ति-इति क: वेत्ति जानाति न कोऽपीति काकुः / स वरुणः चेत् यदि तुभ्यमिति त्वदर्थम् ( चतुर्थ्यर्थे अर्थेन नित्यसमासः) त्वामुद्दिश्य एकाम् वहवीषु मध्ये अन्यतमाम् अपि कामधेनुम् याचते प्रार्थयते तहि त्वम् प्रचेतसः वरुणस्य ('प्रचेता वरुणः पाशी' इत्यमरः) पाणौ हस्ते गता प्राप्ता ( स० तत्पु० ) एब वर्तसे असि / / 77 // व्याकरण-क्रतोः इसके लिए पीछे श्लोक 75 देखिए / प्रभोः प्रभवतीति प्र+भू+। वेश्मनि विशन्ति यत्रेति/विश+ मनिन् ( अधिकरणे ) / कामधेनवः-कामानां पूरयित्र्यो धेनव इति ( मध्यम पदलोपी स० ) / अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) जल के स्वामी वरुण के घर यज्ञ हेतु फितनी कामधेनुयें रह रही हैं-कौन जानता है ? वे यदि एक से भी तुम्हें प्राप्त करने के लिए याचना करते हैं, तो तुम उनके हाथ में ही गई हुई हो // 77N
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy