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________________ अष्टमः सर्गः 263 दृष्टमित्यर्थः अङ्गम् च अवीक्षितम् विशेषरूपेण न ईक्षितम् अपूर्णतया दृष्टमित्यर्थः अङ्गं च दशा नयनेन रभसेन औत्सुक्यवेगेन सोत्कण्ठमित्यर्थः पिबन्ती पानविषयी. कुर्वती सादरं पश्यन्तीति यावत् सती समानम् तुल्यम् आनन्दम् हपं दधाना धारयन्ती भेदम् अनन्तरम् न विवेद न ज्ञातवती। पूर्णदृष्टाङ्गेन यथा तस्याः आनन्दोऽभवत् तथैव ईषदृष्टाङ्गेनापि द्वयोः समानरूपेण सुन्दरत्वात् इति भावः // 12 // व्याकरण-रभसा / रम् + असुन 40 / दृशा पश्यतीति दृश् (क्विप् ) ( कर्तरि ) तृ० / आनन्दम् आ + /नन्द + घम् ( भावे ) / विवेद /विद् + लिट् / अनुवाद-यह विदर्भ देश की सुन्दरी ( दमयन्ती ) उन ( नल ) के पूरी तरह से देखे हुए अंग और पूरी तरह से न देखे हुए अंग को आँखों में पीती हुई एक-जैसा आनन्द अनुभव किए ( दोनों में ) भेद नहीं समझ पाई // 12 // टिप्पणी-वैसे तो देखा जाता है कि जो वस्तु एक बार अच्छी तरह से देख ली जाती है, उसे देखने की उत्सुकता कम हो जाती है और जो वस्तु अभी पूरी नहीं देखी जाती अधूरी ही देखी गई है, उसे देखने के लिए अधिक उत्सुकता रहती है किन्तु नल के देखे-अधदेखे अंगों में यह बात नहीं / कारण कि वे सभी एक-जैसे सुन्दर हैं, देखे हुए अंग से दमयन्ती कीदृष्टि हटती ही नहीं है / उस से उसको वैसा ही आनन्द मिलता रहता है जैसे दूसरे अङ्ग को देखने से / विद्याधर के अनुसार 'अत्रातिशयोक्तिः काव्यलिङ्गं चालङ्कारः' / 'रीक्षित' 'वीक्षितं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'वेद' 'विद' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सक्ष्मे घने नैषधशपाशे निपत्य निस्पन्दतरीभवद्भयाम् / तस्यानुबन्धं न विमोच्य गन्तुमपारि तल्लोचनखञ्जनाभ्याम् // 13 // अन्वयः-सूक्ष्मे घने नैषध-केशपाशे निपत्य निस्पन्दतरीभवद्भ्याम् तल्लोचनखञ्जनाभ्याम् तस्य अनुबन्धम् विमोच्य गन्तुम् न अपारि / टोका-सूक्ष्मे श्लक्ष्यणे तनीयसीतियावत् घने निबिडे च नैषधस्य निषधराजस्य नलस्य केशानां कचानाम् पाशः समूहः (उभयत्र 10 तत्पु० ) अथ च केश-निमितः पाश; जालम् ('पाशः कचान्ते संघार्थः पाशः पक्ष्यादि-बन्धने' इति विश्व.) तस्मिन् निपत्य विलोकनार्थं पतित्वा निः = निर्गतः स्पन्दः चेष्टा याभ्यामिति निस्पन्दी (प्रादि ब० वी० ) अतिशयेन निस्पन्दौ इति निस्पन्दतरी, अनिस्पन्दतरी निस्पन्दतरी
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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