________________ 264 नैषधीयचरिते सम्पद्यमानी भवतः इति निस्पन्दतरीभवन्ती ताभ्यां निश्चलीभवद्भयाम् एकत्र विस्मयात् अन्यत्र संसक्तत्वात् तस्याः दमयन्त्याः लोचने नयने ( 10 तत्पु० ) एव खञ्जनौ खञ्जरीटी ताभ्याम् (कर्मधा० ) तस्य केशपाशस्य अनुबन्धम् सम्बन्धम् अथ च बन्धनम् विमोच्य मोचयित्वा गन्तुम् न अपारि पदमपि चलितुम् न अशकि दमयन्त्याः नेत्रे नल-केशपाशं निनिमेषं पश्यती तत्रैव सक्ते सती अन्यत्र गन्तुं न प्राभवाताम् खञ्जनावपि केशनिर्मित-जाले पतित्वा तत्र संसक्ती पदमपि अन्यत्र गन्तुं न प्रभवतः / दमयन्ती सुन्दरे नलकेशपाशे मुग्धा जातेति भावः // 13 // व्याकरण-नेषधः निषधानामयमिति निषध + अण / अनुबन्धः अनु + Vवन्ध् + घन ( भावे ) ! विमोच्य वि + /मुच् + णिच् + ल्यप् / अपारि/पार + लुङ् ( भाववाच्य ) / ___ अनुवाद-नल के पतले और घने केशों के पाश ( सम्ह ) रूपी केशों के पाश ( जाल ) में पड़कर निश्चल हो रहे उस ( दमयन्ती) के नेत्र-रूपी खञ्जन उस ( केशपाश ) के बन्धन से ( अपने को ) छुड़ाकर जा न सके / / 13 / / टिप्पणी-दमयन्ती की आँखें नल के महीन और घने बालों में फंस गई और आगे खिसकने का नाम नहीं ले रही थीं। इस पर कवि ने रूपक-रूप में अप्रस्तुत-योजना कर रखी है। केशपाश ( बालों का समूह ) बना केशपाश ( बालों का बनाया हुआ पक्षी पकड़ने का जाल ) खञ्जन पक्षी बने दमयन्ती के दो नयन क्योंकि नयनों और खञ्जनों का परस्पर बड़ा साम्य है। अनुबन्ध सम्बन्ध को और बन्धन को भी कहते हैं। इस तरह यहाँ श्लेषानुप्राणित समस्तवस्तुविषयक रूपक है। शब्दालंकार 'भ्याम्' 'भ्याम्' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूलोकभतुर्मुखपाणिपादपद्मः परीरम्भमवाप्य तस्य / दमस्वमुर्दृष्टिसरोजराजिश्चिरं न तत्याज सबन्धुबन्धम् / / 14 / / अन्वयः-दमस्वसुः दृष्टि-सरोज-राजिः तस्य भूलोक-भर्तुः मुखपाणिपादपमैः परीरम्भम् अवाप्य सबन्धुवन्धम् चिरम् न तत्याज।। टोका-दमस्य एतदभिधेयस्य भीमपुत्रस्य स्वसुः भगिन्याः दमयन्त्याः इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) दृष्टयः एष सरोजानि इन्दीवराणि / कमंधा० ) तेषां राजिः श्रेणिः (10 तत्पु० ) तस्य भूः पृथिवी चासौ लोकः ( कर्मधा० ) तस्य