________________ भष्टमः सर्गः 265 भर्तुःस्वामिनः ( 10 तत्पु० ) नलस्येत्यर्थः मुखम् आननं च पाणी हस्तौ च पादौ चरणौ च तेषां समाहारः पादम् ( समाहारद्वन्द्वं) एव पदमानि कमलानि (कर्मधा० ) त:सह परीरम्भम् आश्लेषम् सम्पर्कमिति यावत् अवाप्य प्राप्य समाना: बन्धवः सबन्धव! सगोत्राः ( कर्मधा० ) तेषां बन्धम् सम्बन्धम् सजातीय स्नेहमिति यावत् चिरम् चिरकालम् न तत्याज न अभुञ्चत् / मुखादीनां दृष्टश्च कमलत्वात् सजातीयत्वम् इति तानि मिलित्वा परस्परमालिङ्गनं कृत्वा शीघ्र न मुञ्चन्तीति भावः // 14 // व्याकरण-सरोजम् सरसि जायते इति सरस् + /जन् + ड / भर्तुः भरतीति /भृ + तृच प० / परीरभ्भम् परि + /रभ् + धन, विकल्प से उपसर्ग के इ को दीघं। सबन्धुः समानः बन्धुः 'ज्योतिर्जन०' (6 / 3 / 85 ) से समान शब्द को स। अनुवाद-दमयन्ती के नयन-कमलों की पंक्ति उस भूपति ( नल ) के मुख, हाथ और पैर-रूपी कमलों का थालिङ्गन करके देर तक भाईचारा का स्नेह नहीं छोड़ रहे थे॥ 14 // टिप्पणी-दमयन्ती के नयन-कमल जब नल के मुखादि कमलों को निहारते, तो देर तक निहारते रहते थे। इस पर कवि यह कल्पना कर रहा है कि मानो दमयन्ती के नयन और नल के अङ्ग सगोती जैसे हों। सगोती जब मिलते हैं, तो परस्पर देर तक आलिङ्गन किये रहते हैं, और खूब सजातीय स्नेह व्यक्त करते हैं। दमयन्ती के नयन कमल हैं, तो इन के मुखादि भी कमल हैं। इस तरह कमलत्व जाति समान होने से वे सजातीय-सगोती-हुए। दृष्टि और मुख आदि पर कमलत्वारोप में रूपक है, जो उत्प्रेक्षा के लिए भूमि बना रहा है, विद्याधर समासोक्ति भी कह रहे हैं / 'रोजे' राजि' तथा 'बन्धु' 'बन्ध' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तत्कालमानन्दमयी भवन्ती भवत्तरानिर्वचनीयमोहा। सा मुक्कसंसारिदशारशाभ्यां द्विस्वादमुल्लासमभुङ्क्त मिष्टम् // 15 // अन्वयः - तत्कालम् आनन्दमयीभवन्ती भवत्त...मोहा सा मुक्त...भ्याम् द्विस्वादम् मिष्टम् उल्लासम् अभुङक्त / टीका–स काल: समयो यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा (व० वी० ) अथवा