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________________ 266 नैषधीयचरिते स चासो काल: तम् (कर्मधा०) कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया, आनन्दः एवानन्दमयी आनन्द-स्वरूपा अनानन्दमयी आनन्दमयी सम्पद्यमाना भवतीति आनन्दमयीभवन्ती अतिशयेन भवन् इति भवत्तरः जायमानोऽत्यधिकः अनिर्वचनीयः निर्वतमशक्यः मोहः भ्रमः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी०.) सा दमयन्ती मुक्तः मुक्ति प्राप्तश्च संसारी संसार-बद्धश्च (द्वन्द्व) तयोः ये दशे अवस्थाद्वयम् तयोः रसाभ्याम् प्रीतिभ्याम् ( उभयत्र ष० तपु० ) द्वौ स्वादी रसौ यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी०) मिष्टम् मधुरम् उल्लासम् हर्षम् अभुङक भुक्तवती / 'नलोऽयम्' इति बुद्ध्या दमयन्ती आनन्दातिशयम् लभते स्म, 'सुरक्षितेऽस्मिन् कन्यान्तःपुरे कुतोऽस्य सम्भवः' इति बुद्धया च मोहमेति स्मेति सा एकस्मिन्नेव काले मुक्तिदशाम्, संसार-दशां चानुभवति स्मेति भावः / / 15 / / व्याकरण-आनन्दमयी आनन्द + मयट ( स्वरूपार्थे ) + ङीप् / भवत्तर भू + शतृ + तरप ( अतिशयार्थे ) / स्वादः / स्वद् + घञ् ( भावे ) / उल्लास: उत् + लस्+घञ् ( भावे ) / अभुङ्क्त भुज+ लङ / अनुवाद-तत्काल आनन्दमयी होतो जा रही ( और ) अनिवंचनीय अत्यधिक मोह में पड़ती हुई वह ( दमयन्ती) मुक्त और संसार-बद्ध व्यक्तियों की अवस्थाओं के स्वाद से दो रसों वाले मधुर उल्लास का अनुभव कर रही थी।॥ 15 // टिप्पणी-प्रियतम को सामने देख दमयन्ती परमानन्द-रूप हो जाती थी। यही परमानन्द-रूप मुक्ति का स्वरूप कहा जाता है 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपम् / लेकिन ज्यों ही उसे खयाल आता कि 'निषधदेश से इतनी दूर नल का इस सुरक्षित अन्तःपुर में आना असंभव बात है' तो मोह में पड़ जाती थी सांसारिक भोगविलास का मायाजाल उसे घेर लेता था / शब्दान्तर में, वह मुक्ति और संसारदोनों दशाओं का एकसाथ मीठा स्वाद ले रही थी। विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है क्योंकि दोनों दशाओं का एक साथ सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है। दमयन्ती को हर्षोदय होने से भावोदयालङ्कार भी है। 'भव' 'भव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दूते नलश्रीभृति भाविभावा कलङ्किनीयं जनि मेति नूनम् / न संव्यधान्नैषधकायमायं विधिः स्वयंदूतमिमां प्रतीन्द्रम् / / 16 / /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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