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________________ नैषधीयचरिते - व्याकरण-उपकण्ठ उपगतः कण्ठमिति (प्रादि तत्पु०) / उच्छ्वसित उत् + /श्वस् + क्तः ( कर्तरि ) / स्वप्न: स्वप् + नक् / वितीर्ण वि + तृ + क्त ( कर्मणि ) रपरत्व, त को न, न को ण / दंशः दंश + घन / अपराद्धम् अप + /राध् + क्त ( भाववाच्य ) / अनुवाद-इस ( दमयन्ती) के अधरोष्ठ के आस-पास के भाग कुछ ऊपर उठे-सूजे से जो लग रहे हैं, स्वप्न में संभोग के समय दन्तक्षत किये हुए मेरा अपराध तो नहीं है यह ? // 40 // . टिप्पणी-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार अधर के पाव-भागों का कुछ उठा होना शुभ लक्षण होता है। इस पर कवि की यह कल्पना है कि मानो दन्तक्षत के कारण ये सूज गये हों। इस तरह यह उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'किम्' शब्द है / 'भागौ' 'भोग' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विद्या विदर्भेन्द्रसुताधरोष्ठे नृत्यन्ति कत्यन्तरभेदभाजः / इतीव रेखाभिरपश्रमस्ताः संख्यातवान् कौतुकवान्विधाता // 41 // अन्वयः-अन्तरभेदभाजः कति विद्याः विदर्भेन्द्रसुताधरोष्ठे नृत्यन्ति इति इव कौतुकवान् विधाता अपश्रमः सन् ताः संख्यातवान् / टोका-अन्तराः अवान्तराः ये भेदा: विशेषाः ( कर्मधा० ) तान् भजन्तीति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) कति कियत्यः विद्याः विदर्भाणाम् इन्द्रः स्वामी विदर्भनरेशः तस्य सुतायाः पुत्र्याः दमयन्त्याः अधरोष्ठे निम्नौष्ठे ( उभत्रय ष० तत्पु० ) नृत्यन्ति स्फुरन्तीत्यर्थः इति (जिज्ञासया) इव कौतुकवान् कुतहली विधाता ब्रह्मा अपगतः श्रमः यस्य तथाभूतः (प्रादि ब० वी० ) श्रमरहितः सन् विनापि कठिनतयेत्यर्थः ताः विद्याः संख्यातवान् गणितवान् / अधरगतसूक्ष्मरेखाभिः विधाता दमयन्तीगताः विद्याः गणितवानिवेति भावः / / 41 / / व्याकरण-भाजः भज + क्विप् ( कर्तरि ) / सुता/सु + क्त + टाप / कौतुकवान् कौतुक + मतुप, म को व / विधाता विदधाति ( जगत् ) इति वि + Vधा + तृच् ( कर्तरि)। ___ अनुवाद-अवान्तर भेदों सहित कितनी विद्यायें विदर्भराज-पुत्री के अधरोष्ठ पर थिरकती हैं-इस ( जिज्ञासा ) से मानो कुतहली ब्रह्मा बिना कठिनाई के उन्हें गिन बैठा है / / 81 / /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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