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________________ 160 नैषधीयचरिते ही पुण्य अर्जन हेतु शरीर-त्याग कर बैठी-ऐसा मैं मानता हूँ। तभी तो (पुण्यफल स्वरूप ) उस ( उत्पलिनी ) के फूल इस ( दमयन्ती) की आँखें बनी और उसकी कलियाँ चकोर की आँखें बनौं / / 35 // टिप्पणी-वैसे तो शिशिर ऋतु में नीलकमलों का क्षय स्वाभाविक ही है, किन्तु नल यह कल्पना कर रहे हैं मानो अगले जन्म में पुण्यार्जन करने के लिए ही उसने आत्मबलिदान किया हो। इस बात का अनुमान इससे किया जाता है कि नील-कमलिनी के पुष्प दमयन्ती की आँखें बनीं, जो महान् पुण्यकर्म के बिना हो ही नहीं सकता। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा और अनुमानालंकार का संकर है। 'मन्ये' शब्द, उत्प्रेक्षा-वाचक होता ही है / 'जाता' 'जात' तथा 'कोर' 'कोरः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / केदारभाजा-हमारे विचार से यहाँ कवि ने केदार और शिशिर शब्दों में श्लेष रखकर यह भी ध्वनित किया है कि केदारखण्ड की भूमि में भगवान केदारनाथ ( महादेव) का भजन करता हुआ कोई भी व्यक्ति शिशिर-हिम में प्रवेश करके आत्मत्याग से महान् पुण्य कमा लेता है। महाभारत के अनुसार पाण्डव भी इसी तरह हिम में गलकर पुण्यार्जन द्वारा स्वर्ग सिधारे थे। नासादसीया तिलपुष्पतूणं जगत्त्रयन्यस्तशरत्रयस्य / श्वासानिलामोदभरानुमेयां दधद्विबाणी कुसुमायुधस्य // 36 // अन्वयः-अदसीया नासा जग""यस्य कुसुमायुधस्य श्वासा "मेयाम् द्विबाणीम् दधत् तिलपुष्प-तूणम् ( अस्ति ) / टीका-अमुष्याः इयम् अदसीया अस्याः दमयन्त्या इत्यर्थः नासा नासिका जगताम् लोकानाम् त्रयम् त्रितयम् (10 तत्पु० ) तस्मिन् तद्विजयायेत्यर्थः न्यस्तम् प्रक्षिप्तम् ( स० पु० ) शरत्रयम् ( कर्मधा० ) शराणां बाणानां त्रयम् त्रितयम् (10 तत्पु० ) येन तथाभूतस्य (ब० वी० ) कुसुमानि पुष्पाणि आयुधानि शस्त्राणि (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः श्वासस्य निश्वासस्य अनिलस्य वायोः (10 तत्पु० ) अथवा श्वासश्चासो अनिल: निश्वासरूपवायुःतस्य (कर्मधा०) तस्य आमोवस्य सौरभस्य भरेण अतिशयेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) अनुमेयाम् अनुमातुं शक्याम् अनुमिति-गम्याम्
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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