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________________ पक्षमः सर्गः इत्यर्थः ( तृ० तत्पु० / द्वयोः बाणयोः समाहारः द्विबाणी ताम् ( समाहार द्विगु ) दधत् धारयत् तिल-पुष्पस्य तूणम् तूणीरः (10 तत्पु० ) तिलपुष्पबाणधिरित्यर्थः अस्ति / दमयन्त्याः नासिका कामस्य वाणद्वय-धारकः तूणीरोऽस्तीति भावः // 36 // व्याकरण-अदसीया अदस् + छ, छ को ईय + टाप / त्रयम् त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि + तयप, तयप् को विकल्प से अयच , अन्यथा त्रितयम् / व्यस्त वि + /अस् (क्षेपे ) क्तः ( कर्मणि ) / अनुमेय अनु + /मा + यत् / द्विघाणीम् द्विगु होने से डी। अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) की नाक तीनों लोकों पर ( विजयाथं ) फेंके जा चुके तीन बाणों वाले पुष्पायुध ( काम ) का तिल-पुष्परूप तूणीर है, जो ( शेष बचे उसके ) दो बाणों को रख रहा है, जिनका अनुमान ( दमयन्ती ) के निश्वासों की अतिशय सुगन्धि से किया जा सकता है // 36 // टिप्पणी-- नयनों के वर्णन के बाद इस श्लोक में कवि दमयन्ती की नाक का वर्णन कर रहा है / उसे वह कामदेव की तिल-पुष्प निर्मित तरकस बता रहा है, जिसके अन्दर कामदेव ने अपने पाँच बाणों में से तीन को तीन लोकों के विजयार्थ छोड़ देने पर बचे हुए दो बाण धर रखे हैं। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि दमयन्ती की नाक से निकल रहे निश्वासों में बड़ी भारी सुगन्ध आ रही है / यह तभी हो सकता है जब तरकस रूप में नाक के भीतर पुष्पमय बाण हों / भाव यह निकला कि दमयन्ती के निश्वासों में सौरभ भरा हुआ है और उसकी नाक बनावट में तिल-पुष्प जैसी है। मल्लिनाथ यहाँ नाक पर तूणीरत्व की कल्पना मानकर उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जो गम्य ही हो सकती हैं। विद्याधर ने अतिशयोक्ति कही है, जो समझ में नहीं आ रही है। हम नाक पर तिलकुसुमनिर्मित तूणीरत्व का आरोप मानकर रूपक कहेंगे। उसके साथ काव्यलिङ्ग तो है ही / 'त्रय' 'त्रय' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। बन्धूकबन्धुभवदेतदस्या मुखेन्दुनानेन सहोज्जिहाना। रागश्रिया शैशवयौवनीयां स्वमाह संध्यामधरोष्ठलेखा / / 37 // अन्वयः अनेन मुखेन्दुना सह उज्जिहाना अस्याः अधरोष्ठलेखा राग-श्रिमा बन्धूक-बन्धू-भवत् एतत् स्वम् शैशव-यौवनीयाम् सन्ध्याम् आह (
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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