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________________ नवमः सर्गः 491. कामनापूरयित्री कल्पवल्ली असि वर्वसे / इति क्वः ! माम् प्रति दृष्टया. दृशः दानम् (10 तत्पु० ) अवलोकनमात्रमित्यर्थः तस्मिन् तव ते बद्धा मुष्टिः यस्याः तथाभूतायाः ( ब० वी० ) भावः कृपणतेत्यर्थः क्व ! एकतस्त्वं याचकानां सर्वमनोरथान पूरयसि, अपरतः मह्यं दृष्टिदानेऽपि कृपणतां दर्शयसीति कियद् वैषम्यमिति भावः // 109 // व्याकरण-प्रभुत्वम् प्रभवतीति प्र+Vभू + ई ( कर्तरि ) तस्य भाव इति प्रभु + त्वल् / भूम्ना वहोः भाव इति बहु + इमनिच्, इ का लोप और भू आदेश, तृ० / याचताम याच् + शतृ + ष० ब० / अनुवाद-"(मुझ पर तुम्हारा ) पूर्ण आधियत्य होने के कारण तुम मुझ पर कृपा करो या न करो ( यह तुम्हारी इच्छा की बात है ) किन्तु मेरा प्रणाम तक स्वीकार करने में भी तुम्हें क्या कष्ट है ? कहाँ तो यह कि तुम याचकों के लिए कल्पलता हो और कहाँ यह कि मेरी ओर दृष्टि देने में भी तुम्हारी यह कञ्जूसी !" // 109 // टिप्पणी-कल्पलता-समुद्र-मन्थन के समय पांच वृक्ष निकले थे जिनमें अन्यतम कल्प-वृक्ष है / 'वह वृक्ष ही है, लता नहीं, पुरुष की तुलना करनी हो, तो कल्पवृक्ष ही लिखा जाता है जैसे कवि ने नल के लिए प्रथम सग में 'अल्पितकल्पपादपः' लिखा है, किन्तु जहाँ स्त्री की तुलना करनी हो, तो वहीं कवि लोग औचित्य हेतु स्त्रीलिङ्ग 'कल्पलता' शब्द ही प्रयोग में लाते हैं। भर्तृहरि ने भी 'कल्पलतेव विद्या' लिख रखा है। दमयन्ती पर कल्पलतात्वारोप में रूपक और 'क्व' 'क्व' शब्दों द्वारा विरुद्ध संघटना बताने में विषमालंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 109 // स्मरेषुमाथं सहसे मृदुः कथं हृदि द्रढीयः कुचसंवृते तव / निपत्य वैसारिणकेतनस्य वा व्रजन्ति बाणा विमुखोत्पतष्णुताम् // 110 // ___ अन्वयः-(हे भैमि ! ) मृदुः ( त्वम् ) स्मरेषमाथम् कथम् सहसे ? वा वैसारिण-केतनस्य बाणा: तव द्रढीयः-कुच-संवृते हृदि निपत्य विमुखोत्पतिष्णुताम् व्रजन्ति / टीका--(हे भैमि ! ) मृदुः कोमलाङ्गी त्वम् स्मरस्य कामस्य इषूणाम् बाणानाम् माथम् निर्मथनम् व्यथामित्यर्थः ( उभयत्र 10 तत्पु० ) कथम् सहसे
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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