________________ अष्टमः सर्गः 349 वरम् मनाक प्रियम् चण्डालबाणमरणापेक्षया त्वत्कटाक्षबाणमरणम् श्रेय इति भावः / / 93 // ___व्याकरण-अदृश्यः न द्रष्टुं शक्य रिति न /दृश् + ण्यत् / घातयसि हन् + णिच् घात आदेश / प्रेम प्रियस्य भाव इति प्रिय + इमनिच, प्र आदेश / पवित्र पुनातीति/पु+ इत्र / प्रेमः प्र + /इ + लट् उ० ब० / / ___ अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) दया करो। कामदेव-रूपी चण्डाल के अदृश्य बाणों से हमें क्यों मरवा रही हो? प्रेम-रस रूपी रस ( जल ) से पवित्र बने तुम्हारे तीखे कटाक्ष-रूपी बाणों से बींधे हुए हम यदि मर जाय, तो अच्छा हो" // 93 // टिप्पणी-चण्डाल के अदृश्य बाण प्रहार से मरना बुरी गति है यह अपमृत्यु है। इसके स्थान में तुम प्रत्यक्ष होकर अपने प्रेमरस-जल से पवित्र बने बाणों द्वारा यदि हमें मारो, तो यह हमारी सद्गति होगी। बुरी मौत मरने से पवित्र तीर्थ स्थान में मरना श्रेयस्कर होता ही है। भाव यह निकला कि तुम हमारे आगे प्रत्यक्ष होकर अपने प्रेम-भरे कटाक्ष हम पर मारो तो हमारा उद्धार हुआ समझिये / अनङ्ग पर चण्डालत्वारोप और कटाक्ष पर बाणत्वारोप होने से दो रूपकों की संसृष्टि है। विद्याधर अतिशयोक्ति भी मान रहे हैं जो श्लेषमुखेन विभिन्न दो रसों-भाव और जल में अभेदाध्यवास से हो रही है। 'प्रेम 'प्रेम' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। त्वदर्थिनः सन्तु परस्सहस्राः प्राणास्तु नस्त्वच्चरणप्रसादः / विशङ्कसे कैतवनतितं चेदन्तश्चरः पञ्चशरः प्रमाणम् // 94 // अन्वयः-(हे दमयन्ति !) त्वर्थिनः परस्सहस्राः सन्तु, नः प्राणाः तु त्वच्चरण-प्रसादः / कैतव नर्तितं विशङ्कसे चेत् ( तहि ) अन्तश्चरः पञ्चशरः प्रमाणम् / टोका--( हे दमयन्ति ! ) त्वाम् अर्थयन्ते कामयन्ते इति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) त्वत्कामुकाः सहस्रात् सहस्रसंख्यातः परे अधिका इत्यर्थः परस्सहस्राः ( पं० तत्पु० ) सन्तु भवन्तु नाम, नः अस्माकम् प्राणाः जीवितम् तु तव चरणयोः पादयोः प्रसादः अनुग्रहः ( 10 तत्पु० ) त्वञ्चरणौ यदि अस्मासु प्रसन्नौ तहि एवास्माकं जीवितम् अन्यथा वयं मृता इत्यर्थः / कैतवम् कपटम् तस्य नति