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________________ अष्टमः सर्गः 253 व्याकरण--दैवतानि देवतानाम् इमानीति देवता+ अण् / अथवा देवता एवेति देवता + अण् / (स्वार्थे) दैवतानि तेषां भाषितानि (ष० तत्पु०) भाषितानि भाष + क्त (भावे ) / पिहितः अपि +धा + क्त ( कर्मणि) धा को हि और भागुरि के मतानुसार अपि के अ का लोप / प्रकाशम् प्र + / काश् + घज (भावे ) / अनुवाद-देवता ( इन्द्र) के वचन भला कितनी देर तक इन ( नल ) को छिपा सकें, क्योंकि पराल के ढेर से ढका हुआ गन्ने का अंकुर अपने आप प्रकाश में आ ही जाता है // 2 // टिप्पणी-नल इन्द्र के दूत ठहरे। उसका सन्देश देने हेतु उन्हें प्रकाश में आना ही था। हमेशा छिपे कैसे रह सकते थे / अतः दमयन्ती के आगे प्रकट हो ही गये। इसके लिए कवि गन्ने के अंकुर का दृष्टान्त देता है। विद्याधर यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार मान रहे हैं। नारायण का भी कहना है किन्तु हमारे विचार में यहाँ दृष्टान्तालंकार है, अर्थान्तर-न्यास नहीं; क्योंकि अर्थान्तरन्यास में दो वाक्यों में परस्पर सामान्य-विशेषभाव सम्बन्ध रहता है लेकिन यहाँ देखो, तो दोनों वाक्य विशेष वाक्य हैं, अतः दोनो का बिम्ब-प्रति. बिम्बभाव यहाँ दृष्टान्त का ही प्रयोजक बन रहा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अपाङ्गमप्याप दृशोर्न रश्मिनलस्य भैमीमभिलष्य यावत् / स्मराशुगः सुभ्रवि तावदस्यां प्रत्यमापुतशिखं ममज्ज // 3 // अन्वयः-नलस्य दृशोः रश्मिः भैमीम् अभिलष्य यावत् अपाङ्गम् अपि न आप, तावद् स्मराशुगः अस्याम् सुभ्रुवि प्रत्यङ्गम् आपुङ्खशिखम् ममज / श्रीक-लस्य दृशोः नयनयोः रश्मि: किरणः भैमीम् दमयन्तीम् अभिलष्य कामयित्वा लक्ष्यीकृत्येति यावत् अपाङ्गम् नेत्रप्रान्तम् अपि न आप प्राप तावत् एव तं कालम् एव स्मरस्य कामस्य माशुगः बाणः अस्याम् एतस्याम् सु = शोभने भ्रौ यस्याः तथाभूतायाम् ( ब० बी० ) सुन्दया दमयन्त्यां अङ्गम् अङ्गम् प्रति प्रत्यङ्गम् प्रत्यवयवम् ( अव्ययी० ) पुङ्खस्य पक्षयुक्तभागस्य या शिखा अग्रम् (10 तत्पु० ) तामभिव्याप्य ( अव्ययी० ) अग्रभागादारभ्य अन्तिमभागपर्यन्तमित्यर्थः कात्स्येनेति यावत् ममज्ज मग्नः अन्तविवेशेत्यर्थः / नल: पूर्णतया दम
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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