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________________ 405 नवमः सर्गः व्याकरण-दारान्-इसके लिए सर्ग 8, श्लोक 60 देखिए। अनवेतुम् न+ अव/इ + तुमुन् / स्वप्न: / स्वप् + नक् / असूषुपन् /स्वप् + णिच् + लङ् सम्प्रसारण / दुरध्वः दुर् + अध्वन् + समासान्त अच् ( उपसर्गादध्वनः 5 / 4 / 85) / अर्णवः अर्णासि ( जलानि ) अस्मिन् सन्तीति अर्णस् +व, सलोप / नाविकाः नावा तरन्तीति नौ + ठन् / अनुवाद-"ये ( देवता ) मुझो दूसरे ( = नल ) की स्त्री बनी हई न जानने हेतु ही निद्रा-रहित होते हुए भी अपने आपको सुला बैठे हैं ( अन्यथा) कुमार्ग-रूपी समुद्र से तराने वाले होते हुए भी वे उस तरह (परस्त्री बनी) मुझे जानकर मन तक से भी छूने का विचार कैसे कर सकते ?" // 33 // टिप्पणी-पुराणों के अनुसार आँखें न झपकना, छाया न पड़ना आदि धर्मों की तरह देवता सोते भी नहीं हैं, सदा जागृत रहते हैं। वे जानते हैं कि दमयन्ती ने हृदय से नल को वर लिया है किन्तु वे जान बझ कर सो गये हैं जिससे कि उन्हें दमयन्ती द्वारा मनसा नलवरण का ज्ञान न हो और इस तरह . वे उसके कामुक बनने के योग्य हो गए, नहीं तो क्या बात है कि जो देवता लोगों को पाप-भार्ग से बचाया करें, वे उल्टे स्वयं परस्त्री का विचार मन में बुलाकर पाप की ओर बढ़ जाय / दुरध्व पर अर्णवत्वारोप होने से रूपक है। विद्याधर विरोध और हेत्वलंकार भो कह रहे हैं। विरोध यह है कि पाप से रक्षा करने वाले स्वयं पाप करने लग जाते हैं / "नवै' 'नावि' में छेके, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 33 // अनुग्रहः केवलमेव मादृशे मनुष्यजन्मन्यपि यन्मनो जने। स चेद्विधेयस्तदमी तमेव मे प्रसद्य भिक्षां वितरीतुमीशताम् // 34 // अन्वयः-मनुष्यजन्मनि अपि मादृशे जने, यत् मनः ( वर्तते ), एष केवलम् अनुग्रहः स विधेयः चेत्, तत् अमी प्रसद्य मे तम् एव भिक्षाम् वितरीतुम् ईशताम् / टीका-मनुष्यान् जन्म उत्पत्तिः (ष० तत्पु० ) यस्य तथाभूते (ब० वी० ) अपि मादृशे मत्सदृशे जने व्यक्ती दमयन्त्यामित्यर्थः यत् तेषां मनः चित्तम् वर्तते, एष केवलम अनुग्रहः कृपा एव न तु अनुरक्तत्वम् ममायोग्यत्वादित्यर्थः / सः तनुग्रहः विधेयः कार्यश्चेत् तत् तर्हि अमी एते इन्द्रादयः प्रसद्य प्रसन्नीभूय मे
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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